Wednesday, October 30, 2013

कौन बदला है: समय, संगीत या सुनने वाले?

जयपुर से प्रकाशित अपराह्न समाचार पत्र न्यूज़ टुडै में 'कुछ इधर कुछ उधर' शीर्षक से मरा एक साप्ताहिक कॉलम पिछले कुछ समय से प्रकाशित हो रहा है. इस बार मैंने स्वर्गीय मन्ना डे को याद करते हुए एक टिप्पणी लिखी थी. कुछ व्यावहारिक कारणों  से  वह टिप्पणी प्रकाशित नहीं हो सकी और मुझे उसमें थोड़ा परिवर्तन करना पड़ा. 

यहां ये दोनों टिप्पणियां प्रस्तुत हैं. पहले मेरी मूल टिप्पणी, और फिर उसके नीचे वो टिप्पणी जो बदलाव के बाद आज 30 अक्टोबर को प्रकाशित हुई. 

1. 
हाल ही में जयपुर में ए आर रहमान को कंसर्ट में देखने-सुनने का मौका मिला. क्या तो चकाचक इंतज़ाम और क्या झक्कास प्रस्तुतियां! तीन घण्टे कब और कैसे बीते पता ही नहीं चला. रोशनी की चकाचौंध, तकनीक के नायाब चमत्कार, लगभग कानों  को फाड़ देने वाली (लेकिन फिर भी  कर्कश नहीं) ध्वनि. और भीड़! उसका तो कहना ही क्या! युवा लोग जिस तरह कुर्सियों पर खड़े होकर और अनवरत नाचते हुए उस कंसर्ट का आनन्द ले रहे थे उसे देखना एक अलग तरह का अनुभव था. और जब इतना सब कुछ हो तो यह बात करने की ज़रूरत ही कहां रह जाती है कि उस कंसर्ट में क्या गाया और क्या बजाया गया! हमारे आस-पास जो भीड़ थी, उसे भी शायद इस बात से कम ही ताल्लुक था कि रहमान और उनकी मण्डली क्या गा-बजा रही है! उन्हें मतलब था तो इस बात से कि वे अपने खर्चे पैसों का पूरा मज़ा लें, और अपने मोबाइलों में जितना ज़्यादा मुमकिन हो उन क्षणों को कैद कर लें ताकि बाद में दोस्तों और परिचितों को बता सकें कि वे भी वहां मौज़ूद थे.  इससे यह न समझ लिया जाए कि उस कंसर्ट में संगीत नहीं था, या दोयम दर्ज़े का था. बेशक बेहतरीन संगीत वहां था, लेकिन जो लोग वहां, और कम से कम हमारे इर्द-गिर्द थे, उनकी बहुत कम रुचि उस संगीत में थी. रहमान के संगीत बद्ध किए सुरीले गानों में तो और भी कम.

यह बात मुझे बहुत शिद्दत से याद आई मन्ना डे के निधन की खबर पढ़ने के बाद. असल में जैसे ही मैंने मन्ना डे के निधन की खबर पढ़ी, मुझे कुछ बरस पहले पढ़ी एक कहानी याद आने लगी. कहानी जाने-माने कवि कुमार अम्बुज की लिखी हुई थी, और मन्ना डे को लेकर थी. कहानी का शीर्षक मुझे तुरंत याद नहीं आया. मैंने फेसबुक की अपनी वॉल पर उस कहानी का ज़िक्र किया, और कोई दस मिनिट भी नहीं बीते होंगे कि एक मित्र ने वह कहानी वहां पोस्ट कर दी. मैंने भी फिर से वह कहानी पढ़ी. कहानी का शीर्षक है ‘एक दिन मन्ना डे’. यह कहानी पढ़ते हुए ही मुझे रहमान के इस कंसर्ट का खयाल आया. मैं सोचने लगा कि फर्क संगीत में है या संवेदनाओं में? इस कहानी में नरेटर मन्ना डे का एक कंसर्ट सुनने  जाता है और वहां ‘प्रसाधन’ में अनायास उसकी मुलाकात एक अजीब इंसान से हो जाती है. वह आदमी रुंआसा है. जब हमारा नरेटर उससे उसकी उदासी का सबब पूछता है तो हमें पता चलता है कि वो आदमी इस बात को लेकर फिक्रमंद है कि मन्ना डे, जो 86 बरस के हो गए हैं, जब नहीं रहेंगे तो क्या होगा! – अजीब दुःख है ना यह! लेकिन वो आदमी सच्चा संगीत रसिक है, डूब कर संगीत सुनता है, बल्कि संगीत को ओढ़ता-बिछाता है. अपने प्रिय गायक को सुनते हुए महसूस करता है कि जैसा वो सामने गाते हैं वैसा कोई भी तकनीक प्रस्तुत नहीं कर सकती है. उसे इस बात का भी अफसोस है कि आज पुराने और अच्छे  गाने ढूंढे से भी नहीं मिलते हैं. और इसीलिए उसे फिक्र है कि डेढ़ सौ  दो सौ साल बाद लोग मन्ना डे की आवाज़ कैसे सुन पाएंगे!  हमारा नरेटर उसके ग़म को हल्का करने के लिए मज़ाक में कहता भी है कि तीस-चालीस साल बाद तो हम दोनों भी नहीं रह जाएंगे, फिर आप इतनी दूर की फिक्र क्यों कर  रहे हो, जिसके जवाब में वो कहता है कि  ‘आप नहीं समझ सकते!’


कहानी में आगे क्या होता है, यह बात यहां प्रासंगिक नहीं है इसलिए मैं भी  उसे छोड़ता हूं और वापस रहमान पर लौटता हूं. मतलब उनके श्रोताओं-दर्शकों  पर. मैं  सोच रहा था कि इतनी  भारी भीड़ में क्या एक भी श्रोता ऐसा  होगा जो इस महान संगीतकार के बारे में इस तरह से सोचता होगा? इस कहानी में तो वो व्यक्ति कहता है कि “ज़रूरत पड़ने पर मन्ना डे को मैं अपना खून, अपनी किडनी, अपना लिवर तक दे सकता हूं. लेकिन मन्ना डे  को यह बात मालूम होनी चाहिए ताकि वक़्त-ज़रूरत आने पर वे किसी तरह का संकोच न करें!” रहमान के इस कंसर्ट को देखते-सुनते हुए मुझे लगा कि समय बहुत बदल गया है. आज शायद संगीत को ऐसे लगाव के साथ नहीं सुना जाता  है. लोग  उसमें डूबते  नहीं हैं, बस सतह पर ही तैर कर लौट आते हैं. उनके  पास खूब  सारा पैसा है, दो-चार पाँच दस  हज़ार रुपये  का टिकिट खरीदते हैं और चाहते हैं  कि बदले में जो मिले वह पूरी तरह से ‘पैसा वसूल’ हो. अपनी तरफ से सुख को निचोड़ लेने  में वो भी कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.  हो सकता है मेरा सोचना ग़लत हो. व्यक्ति  नहीं बदला हो, संगीत ही बदल गया हो. शायद आज के संगीत को उस तरह से सुना ही नहीं जा सकता हो जिस तरह से मन्ना डे के ज़माने के संगीत को सुना जाता था.  आप क्या सोचते हैं?  

2. 
मन्ना डे चले गए! वैसे भी, इधर संगीत में जिस तरह के बदलाव हुए हैं उनके चलते मन्ना डे केन्द्र में नहीं रह गए थे. कुछ उम्र का तकाज़ा भी था. उम्र का असर आवाज़ पर पड़ना स्वाभाविक है और जिस फिल्मी दुनिया के लिए मन्ना डे गाते रहे, उसमें बूढों के लिए गाने की सम्भावनाएं नहीं के बराबर है. लेकिन मैं जिस बदलाव की बात करना चाहता हूं वह कलाओं से हमारे रिश्तों में  आया बदलाव है. राजेन्द्र यादव के निधन पर बहुत सारे लोगों ने याद किया है कि किस तरह वे उनकी किताबों खरीदने के लिए बेताब रहा करते थे. यही हाल संगीत का भी रहा है. मैं अपने एक मित्र से जुड़ा एक अनुभव आपसे साझा करना चाहता हूं.  बात 1967 की है. वर्ष  इसलिए याद है कि उसी साल मैंने नौकरी शुरु की थी. अपने एक प्राध्यापक साथी के घर गया तो उनके पास मोहम्मद रफी और बेग़म अख़्तर की आवाज़ वाला गालिब की ग़ज़लों का एक एल पी देखा. मैंने उनसे इसरार किया कि वे मुझे वह रिकॉर्ड सुनवाएं. उन्होंने बहुत सरलता से जवाब दिया कि उनके पास रिकॉर्ड प्लेयर नहीं है. मैंने तुरंत  पूछा कि अगर आपके पास रिकॉर्ड  प्लेयर नहीं है तो फिर आपने यह एल  पी क्यों खरीदा? उनका दिया जवाब आज भी मुझे ज्यों का त्यों याद है! उन्होंने कहा, “दुर्गा बाबू! जब मेरे पास पैसे इकट्ठे हो जाएंगे तभी तो मैं रिकॉर्ड प्लेयर खरीदूंगा. लेकिन तब अगर यह रिकॉर्ड न मिला तो? इसलिए अभी खरीद कर रख लिया है.”  

और उनकी कही यह बात मुझे मन्ना डे के निधन की खबर पढ़ने के बाद बहुत शिद्दत से याद आई. असल में जैसे ही मैंने मन्ना डे के निधन की खबर पढ़ी, मुझे कुछ बरस पहले पढ़ी एक कहानी याद आने लगी. कहानी जाने-माने कवि कुमार अम्बुज की लिखी हुई थी, और मन्ना डे को लेकर थी. कहानी का शीर्षक मुझे तुरंत याद नहीं आया. मैंने फेसबुक की अपनी वॉल पर उस कहानी का ज़िक्र किया, और कोई दस मिनिट भी नहीं बीते होंगे कि एक मित्र ने वह कहानी वहां पोस्ट कर दी. मैंने भी फिर से वह कहानी पढ़ी. कहानी का शीर्षक है एक दिन मन्ना डे’. यह कहानी पढ़ते हुए ही मुझे अपने उन प्रिय मित्र का खयाल आया. मैं सोचने लगा कि आज कितना कुछ बदल गया है!  इस कहानी में नरेटर मन्ना डे का एक कंसर्ट सुनने  जाता है और वहां प्रसाधनमें अनायास उसकी मुलाकात एक अजीब इंसान से हो जाती है. वह आदमी रुंआसा है. जब हमारा नरेटर उससे उसकी उदासी का सबब पूछता है तो हमें पता चलता है कि वो आदमी इस बात को लेकर फिक्रमंद है कि मन्ना डे, जो 86 बरस के हो गए हैं, जब नहीं रहेंगे तो क्या होगा! अजीब दुःख है ना यह! लेकिन वो आदमी सच्चा संगीत रसिक है, डूब कर संगीत सुनता है, बल्कि संगीत को ओढ़ता-बिछाता है. अपने प्रिय गायक को सुनते हुए महसूस करता है कि जैसा वो सामने गाते हैं वैसा कोई भी तकनीक प्रस्तुत नहीं कर सकती है. उसे इस बात का भी अफसोस है कि आज पुराने और अच्छे  गाने ढूंढे से भी नहीं मिलते हैं. और इसीलिए उसे फिक्र है कि डेढ़ सौ  दो सौ साल बाद लोग मन्ना डे की आवाज़ कैसे सुन पाएंगे!  हमारा नरेटर उसके ग़म को हल्का करने के लिए मज़ाक में कहता भी है कि तीस-चालीस साल बाद तो हम दोनों भी नहीं रह जाएंगे, फिर आप इतनी दूर की फिक्र क्यों कर  रहे हो, जिसके जवाब में वो कहता है कि  आप नहीं समझ सकते!


कहानी में आगे क्या होता है, यह बात यहां प्रासंगिक नहीं है इसलिए मैं भी उसे छोड़ता हूं और बदले हुए वक़्त पर लौटता हूं. आज कलाओं  की उपलब्धता बढ़ी है लेकिन उनके साथ हमारा लगाव वैसा नहीं रह गया है जैसा पहले हुआ करता था.  इस कहानी में वो व्यक्ति कहता है कि ज़रूरत पड़ने पर मन्ना डे को मैं अपना खून, अपनी किडनी, अपना लिवर तक दे सकता हूं. लेकिन मन्ना डे  को यह बात मालूम होनी चाहिए ताकि वक़्त-ज़रूरत आने पर वे किसी तरह का संकोच न करें!क्या आज भी यही स्थिति है? क्या आज हममें से कोई अपने प्रिय कवि, कथाकार, गायक, चित्रकार वगैरह के लिए इस तरह की बात सोच या कह सकता है? हमारे पास पैसे की आमद बढ़ी है, तकनीक ने चीज़ों को सहज और सुलभ कर दिया है. लेकिन जिस  परिमाण में यह सब हुआ है, उसी अनुपात में इनसे हमारी संलग्नता कम हुई है. क्या इस बात पर फिक्र  नहीं होनी चाहिए?