महाभोज जारी आहे...
चुनाव का बिगुल बज गया है. योद्धा अपने-अपने हथियार लेकर और जिरह
बख्तर धारण कर युद्ध के लिए तैयार हो गए हैं. अभी वार्मिंग अप चल रहा है. असल
युद्ध तो थोड़ा दूर है. पहले युद्ध होगा, फिर महायुद्ध. युद्ध बोले तो विधान सभा के
चुनाव, और महायुद्ध बोले तो लोक सभा के चुनाव. वैसे आजकल यह युद्ध शब्द इतना
लोकप्रिय हो चला है कि सब जगह युद्ध ही होता है. सुरों का युद्ध, शब्दों का युद्ध
और यहां तक कि पकवान बनाने का भी युद्ध! ऐसे में चुनाव जो कि लड़ा जाता है, वो तो
युद्ध है ही. जब युद्ध होगा तो शोर-शराबा (यलगार
हो!) भी होगा, खून-खराबा भी होगा और मार-काट भी होगी. तैयारियां जारी है.
शोर-शराबा शुरु हो ही चुका है. शब्दों के तीर-तलवार-गोले-बम सब चल रहे हैं.
आक्रमण और प्रति आक्रमण जारी हैं. एक पक्ष
दूसरे पर वार करता है तो दूसरा पक्ष पहले पर पलट वार करता है. एक पक्ष गरजता है,
जवाब में दूसरा पक्ष बरसता है. रोज़ यह हो रहा है. रण भूमि हैं अख़बार और टेलीविज़न
का पर्दा. एक पक्ष अपने शब्द बाण छोड़ता है तो हमें पता चल जाता है कि दूसरा पक्ष
कितना पतित है, लेकिन दूसरे ही दिन जब दूसरा पक्ष अपने तरकश के तीर चलाकर इस पक्ष के कपड़े तार-तार करता है तो हमें पता
लगता है कि कम तो यह पक्ष भी नहीं है. नागनाथ
– सांपनाथ वाला मामला है. और इन्हीं
अधमों-पतितों-निकम्मों-नाकारों-बेगैरतों वगैरह में से किसी को हमें अपना बहुमूल्य
वोट देना है. मुझे लगता है कि मतदान का दिन आते-आते तो हम अपने तमाम उम्मीदवारों
के बारे में, उनके प्रतिपक्षियों की कृपा से, इतना ज़्यादा जान जाएंगे कि बजाय किसी को वोट
देने के नोटा (उपर्युक्त में से कोई नहीं) के विकल्प का प्रयोग करना ही ज़्यादा सही लगेगा.
लेकिन क्या यह नोटा का विकल्प स्थिति में कोई बदलाव लाएगा? क्या
आपके-मेरे और अपन जैसे बहुत सारों के ‘इनमें से कोई नहीं’ विकल्प को चुन लेने से
इनमें से किसी एक का चुना जाना रुक जाएगा? कोई न कोई चुना तो फिर भी जाएगा! बस
इतना-सा फर्क़ पड़ेगा कि चुनाव के बाद आने वाली खबरों में एक इबारत और जुड़ जाएगी, कि
इतने प्रतिशत मतदाताओं ने इनमें से किसी को भी योग्य नहीं पाया! यानि किसी को न
चुनने से तो किसी
ऐसे
उम्मीदवार को जो हमारे मानदण्डों पर सबसे ज़्यादा खरा साबित हो रहा हो, चुनना
ही बेहतर होगा.
अभी के तमाम शोर-शराबे में मुझे बार-बार मन्नू भण्डारी का लोकप्रिय
उपन्यास ‘महाभोज’ याद आ रहा है. सरोहा
नामक एक गांव में एक दलित युवक बिसेसर की हत्या हो जाती है. इस मामूली आदमी की
हत्या अचानक महत्वपूर्ण इसलिए हो जाती है कि डेढ महीने बाद ही वहां विधानसभा की एक
खाली सीट के लिए उपचुनाव होना है. मैदान में एक तरफ दा साहब और उनके समर्थक हैं तो
दूसरी तरफ सुकुल बाबू और उनके समर्थक. ये लोग किस निर्ममता से उस बेचारे बिसेसर की
मौत को अपने लिए एक महाभोज में तब्दील कर
देते हैं यही इस उपन्यास का कथ्य है. आज जब अपने नेताओं की ज़बानी मैं यह सुनता हूं
कि इस पक्ष ने यह नहीं किया और उस पक्ष ने वो नहीं किया, इसने ग़रीबी नहीं हटाई और
उसने महंगाई कम नहीं की, इसने मस्जिद नहीं बचाई और उसने मन्दिर नहीं बनाया, तो
मुझे यही एहसास होता है कि मैं, इस देश का आम नागरिक, खेत में पड़ी एक लाश हूं और ऊपर आकाश में बहुत
सारे गिद्ध मुझे अपना जीमण बनाने को मेरे सर के ऊपर मण्डरा रहे हैं!
बस एक चुप-सी लगी है....
इन दिनों निर्वस्त्र करने का अभियान ज़ोरों पर है. पहले एक बाबा जी का
नम्बर लगा, फिर उनके सपूत का. वो वो बातें सामने आईं कि दिल दहल गया. लेकिन जिस
समय में हम रह रहे हैं उसमें सच और झूठ के बीच अंतर करना बहुत मुश्क़िल हो गया है. अगर
बाबा जी पर आरोप लगाने वाले तमाम संचार माध्यमों पर अपनी बात कह रहे हैं तो ऐसे भी लोगों की कमी नहीं है जो इन तमाम
आरोपों के मूल में किसी मां-बेटे का ‘हाथ’
देख रहे हैं. वैसे अपने देश में यह आम परम्परा है. जब भी किसी पर कोई आरोप
लगता है, मैं इंतज़ार करने लगता हूं कि अब
कोई न कोई वीर पुरुष (या वीरांगना) आकर यह कहेगा/कहेगी कि यह सब अमुक का रचा हुआ
षड़यंत्र है. और मुझे निराश नहीं होना पड़ता है. नेताओं और बाबाओं के बाद इस बार
बहुत दिन बाद साहित्य के एक बाबा का भी नम्बर लगा. इन दिनों पत्र-पत्रिकाओं से
ज़्यादा चहल-पहल फेसबुक और ट्विट्टर पर रहती है. तो पिछले दिनों इसी सोशल मीडिया पर हिन्दी के एक जाने-माने कथाकार
और स्त्री विमर्श के पुरोधा के बर्ताव को लेकर खूब हो-हल्ला हुआ. असल में हुआ यह
कि एक युवा कथाकार ने एक लम्बा वक्तव्य जारी कर अपने साथ हुए दुर्व्यवहार के
सन्दर्भ में इस वरिष्ठ कथाकार की स्त्री-विषयक संवेदनहीनता को रेखांकित किया. फिर
तो कढ़ी में उबाल आना ही था. एक अन्य चर्चित यात्रा वृत्तांतकार ने इस पूरे
वृत्तांत को दूसरे एंगल से देखा-दिखाया और उसके बाद बहुत सारे शब्द वीर मैदान में
कूद पड़े. साहित्य पीछे रह गया, चर्चा के केन्द्र में साहित्यकार, उनके शब्द और
कर्म के बीच का अंतर, उनकी नैतिकता, उनका सामाजिक चिंतन जैसे मुद्दे आ गए. वो-वो बारीक बातें की गईं कि
अपने अनपढ़ होने का एहसास शिद्दत से होने लगा. इस सारे विमर्श की ख़ास बात यह रही कि
युवा कथाकार ने तो विस्तार से अपनी बात कही, लेकिन वरिष्ठ कथाकार अब तक मौन व्रत
धारण किए हैं. जब तक उनका पक्ष सामने नहीं आ जाता, तस्वीर धुंधली ही रहेगी. जिज्ञासु
हंसों को नीर-क्षीर विवेक के लिए वरिष्ठ कथाकार की पत्रिका के अगले अंक का बेसब्री
से इंतज़ार है.
जयपुर से प्रकाशित अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 22 अक्टोबर, 2013 को किंचित सम्पादित रूप में प्रकाशित टिप्पणियों का मूल रूप.