और ज़रा-सी दे दे
बड़े विकट समय में जी रहे हैं हम लोग. ‘साईं
इतना दीजिए जा में कुटुम समाय, मैं भी भूखा ना रहूं साधु ना भूखा जाए’ वाला वो वक़्त बहुत पीछे छूट चुका है जब हमारी
ज़रूरतें सीमित हुआ करती थीं और जितना हमारे पास होता था, उससे बहुत अधिक की चाह
नहीं होती थी और इतना समय हमारे पास होता था कि अपनी ज़िन्दगी के प्याले का रस चख
सकें. अब सब कुछ बदल गया है. ‘थोड़ा है
थोड़े की ज़रूरत है’ सिर्फ एक फिल्मी गाने के बोल हैं, हमारे जीवन
का मूल मंत्र नहीं. ‘और ज़रा-सी दे दे
साक़ी’ वाली हालत है हम सबकी.
अभी कल ही कुछ दोस्त सदी के महानायक की चर्चा कर रहे थे. किसी
इण्टरव्यू में खुद उन्होंने बताया था कि उन्हें तनिक भी फुर्सत नहीं होती है. होगी
भी कहां से? क्या-क्या नहीं करते हैं वे! फिल्में, टीवी, विज्ञापन और भी न जाने
क्या-क्या! सीमेण्ट से लगाकर तेल और पेन बाम तक सब कुछ तो बेचते हैं वे. गुजरात
भी. एक मित्र दुःखी होकर बोल पड़े, आखिर क्या करेंगे वे इतने पैसों का? हां, इन
कामों में से ज़्यादातर तो वे पैसों के लिए ही करते हैं! अपनी अनेक बीमारियों और
बढ़ती उम्र के बावज़ूद वे इतना कर लेते हैं, इस बात
की तारीफ की जाए या इसके लिए उनसे सहानुभूति व्यक्त की जाए?
उधर ये बातें हो रही थीं और इधर मेरे मन के पर्दे पर रूसी कथाकार
टॉल्स्टाय की प्रसिद्ध कहानी ‘एक व्यक्ति
को कितनी ज़मीन चाहिए’ चल रही थी जिसका
भावानुवाद हमारे अपने जैनेन्द्र कुमार ने कितनी ज़मीन शीर्षक से किया था. इस
कहानी का नायक पोखम नामक एक किसान है. एक रात वह सपना देखता है कि उसके राज्य में मुनादी हो
रही है कि जो भी बिना श्रम किए धनी होना चाहता है, वह कल सबेरे मैदान में
आयोजित प्रतियोगिता में भाग लेकर अपनी किस्मत आजमा सकता है. दो तीन बहुत आसान शर्ते हैं. प्रतियोगी सूर्योदय के पहले प्रतियोगिता स्थल पर
पहुंच जाए. सूर्य निकलते ही उसे दौडऩा
प्रारंभ करना होगा. दिनभर दौड़कर वह जितनी
जमीन को घेर लेगा, वह उसकी अपनी हो जाएगी, लेकिन सूर्यास्त के
समय उसे ठीक उसी स्थल तक पहुंचना होगा, जहां से उसने दौड़
प्रारंभ की थी. पोखम दौड़ता चला जाता है.
पचास-साठ मील ज़मीन नाप लेता है लेकिन सूर्य के डूबते-डूबते जैसे ही वह लौट कर दौड़
शुरु होने वाली जगह पहुंचता है, उसकी सांसें थम जाती है. “किस्मत की खूबी देखिए टूटी
कहां कमन्द दो-चार हाथ जबके लबे-बाम रह गया” से भी बुरी स्थिति. जितनी ज़मीन उसने
नापी थी, वो सब अब उसके लिए बेमानी हो जाती है. उसके भाईबंद और पड़ोसी उसे दफनाने
के लिए वहीं साढ़े तीन हाथ लम्बा और दो हाथ चौड़ा एक गड्ढा खोदते हैं. उसे बस
उतनी-सी ही ज़मीन की तो ज़रूरत थी!
सदी के महानायक तो खैर फिर भी मेहनत करते हैं और कमाते हैं, अपने
चारों तरफ हम ऐसे ऐसे महापुरुषों को देखते
या उनके बारे में पढ़ते सुनते हैं जो तमाम ग़ैर कानूनी तरीकों से पैसा बटोरने में
लगे हैं और जिनकी धन-लिप्सा का कोई ओर छोर नहीं है. मैं अक्सर सोचता हूं कि वे इस धन का करेंगे
क्या? क्या उन्हें कभी इसका आनंद लेने की फुर्सत भी मिलेगी या कि वे भी एक
दिन उस अभागे पोखम की तरह.....
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चीयर्स!
सामाजिक मीडिया हमारे समय की एक नई
प्रवृत्ति है. पहले लोग प्रत्यक्ष मिला
करते थे, अब वर्चुअल स्पेस में मिलते हैं. पहले हमें अपने सामाजिक वृत्त (सोशल
सर्कल) पर गर्व होता था, अब हम इस बात पर गर्व करते हैं कि फेसबुक पर हमारे इतने
दोस्त हैं और हमारी किसी टीप को इतने लाइक्स मिले हैं. कई लोग इस बदलाव पर बहुत
दुःखी होते हैं – क्या से क्या हो गया! लेकिन मुझे इस बदलाव का कोई
मलाल नहीं है. भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी में, फैलते जा रहे शहरों में, ट्रैफिक की
मारा-मारी में, भला पहले की तरह का मेल-मिलाप कैसे मुमकिन है? और अगर वो मुमकिन
नहीं है तो उसका जैसा भी विकल्प है, उसका स्वागत क्यों न किया जाए! मुझे तो अच्छा
लगता है जब मेरे जन्म दिन पर सौ दौ सौ चार सौ ‘मित्र’ मुझे मुबारक़बाद देते हैं! जिन लोगों से मैं कभी भी नहीं मिला
हूं, और शायद कभी मिलूंगा भी नहीं, वे अगर मेरे बारे में सोचते हैं और मेरी खुशी
में इज़ाफा करने के लिए चन्द लमहे निकालते हैं तो मुझे खुश क्यों नहीं होना चाहिए? जब
हालात तेज़ी से बदलते जा रहे हैं तब हम भी अपने तौर-तरीके क्यों ना बदलें! अंतत: दोस्तों,
सारी बात आपके नज़रिये की है. आप चाहें तो गिलास को आधा खाली मान कर टसुए बहा लें
और चाहें तो उसे आधा भरा हुआ मान कर सेलिब्रेट कर लें!
जयपुर से प्रकाशित अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में प्रकाशित मेरे साप्ताहिक कॉलम इधर उधर के अंतर्गत 15 अक्टोबर 2013 को प्रकाशित किंचित संक्षिप्तिकृत टिप्पणियों का मूल पाठ.