Tuesday, November 26, 2013

चुनावी ड्यूटियों के मज़ेदार अनुभव

राजनीतिक दलों, उम्मीदवारों और आम जनता के लिए चुनाव का चाहे जो मतलब हो, अधिकांश  सरकारी कर्मचारियों के लिए तो चुनावी ड्यूटी एक बहुत बड़े संकट का पर्याय होती है. तीन-चार दिन घर से बाहर, किसी अजनबी और सुविधा विहीन जगह पर रहना और एक ऐसे महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वहन करना जिसमें किसी छोटी  से छोटी चूक की बहुत बड़ी सज़ा अवश्यम्भावी हो,  भला किसको रास आ सकता है? शायद यही वजह है कि हर चुनाव के समय सरकारी कर्मचारी इन ड्यूटियों से मुक्ति पाने के लिए तमाम तरह के जुगाड़ करते देखे जाते हैं. लेकिन फिर भी ड्यूटी तो करनी ही  होती  है, लोग करते भी हैं, और उसके मज़े भी लेते हैं.

अपनी तीन दशक लम्बी  नौकरी में मैंने नगरपालिका से लगाकर लोक सभा तक के तमाम चुनाव करवाए हैं. कॉलेज के चुनाव तो खैर करवाए ही हैं और अब बिना किसी संकोच के कह सकता हूं कि जिसने कॉलेज के चुनाव करवा लिए वो कहीं के भी चुनाव को दांये-बांये हाथ का नहीं, हाथ की एक उँगली का खेल समझ सकता है. हमने भी इसी भाव से तमाम चुनाव करवाए और खूब मज़े लेकर करवाए. अब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो याद आता है कि हमें चुनाव का सबसे रोचक हिस्सा उसका प्रशिक्षण लगता था. प्रशिक्षण का दायित्व आम तौर पर प्रशासन वाले लोगों का होता था और हम कॉलेज शिक्षा  वालों और प्रशासन के बीच छत्तीस  का रिश्ता  जग जाहिर है. यह प्रशिक्षण कार्यक्रम हमें उन लोगों की खिंचाई का अवसर देता था.

पढ़ाने लिखाने वालों में किताबों को चाट जाने का शौक तो होता ही है. हमारे कुछ साथी भी चुनाव की मार्ग दर्शिका को लगभग घोट कर पी जाया करते थे. और उसके बाद वे प्रशिक्षण कार्यक्रम में प्रशिक्षण देने वालों से वो वो बारीक सवाल करते कि  उनसे जवाब देने नहीं बनता. एक बार हुआ यह कि जो सज्जन प्रशिक्षण दे रहे थे, उनके पास हमारी शंका का कोई तर्कपूर्ण समाधान नहीं था. लेकिन वे अपनी कमी तो भला कैसे स्वीकार करते! तो उन्होंने बड़े आत्मविश्वास के साथ हमारे प्रश्नकर्ता साथी को कहा कि अगर वैसी स्थिति आए तो आपको अपना कॉमन सेंस इस्तेमाल करना चाहिए. उनका उत्तर अपनी जगह सही था,  और हम सब करते भी यही हैं. लेकिन यहां तो बात मज़े लेने की थी ना! सवाल करने वाले हमारे साथी अपनी जगह से उठे, दो कदम आगे बढ़े, इधर-उधर देखा और बोले, “वो तो हम कर ही लेंगे, लेकिन आप तो यह बताइये कि इस बारे में ऑफिशियल प्रावधान क्या है?” और जैसे ही उन्होंने अपनी बात पूरी की, हममें से भी बहुत सारे लोग उनकी हां में हां मिलाते हुए उठ खड़े हुए. कलक्टर महोदय ने जैसे-तैसे बात को सम्भाल कर मामले का पटाक्षेप किया. 

अपनी नौकरी के उत्तर काल में जब अपनी वरिष्ठता के चलते मुझे ज़ोनल मजिस्ट्रेट के रूप में चुनाव ड्यूटी करने का मौका मिलने लगा  तो एक साथी ने एक मज़ेदार पाठ पढ़ाया. ड्यूटी के बाद हमको एक प्रतिवेदन भरना होता है जिसमें यह बताना होता है कि अपने दायित्व निर्वहन के दौरान हमें किन-किन परेशानियों से रू- ब- रू होना पड़ा और हमने उन स्थितियों में क्या किया. हम लोग आम तौर पर ‘कोई परेशानी नहीं आई’ लिखकर काम चलाते रहे. लेकिन एक मित्र ने, शायद अपने अर्जित अनुभव के आधार पर हमें सलाह दी कि हम ऐसा कभी नहीं लिखें. उन्होंने कहा कि हम ऐसा कुछ लिखें कि  वहां दो या अधिक गुटों के बीच पारस्परिक तनाव की वजह से स्थिति काफी विकट हो गई थी, लेकिन ‘अधोहस्ताक्षरकर्ता’ ने अपनी सूझ-बूझ का इस्तेमाल कर स्थिति को  सम्हाल लिया. ज़ाहिर है कि ऐसी  इबारत बिना किसी प्रमाण के लिखी जा सकती है. और इससे सम्बद्ध अधिकारी अप्रत्यक्ष रूप से बहुत दक्ष भी घोषित हो जाता है.   

एक और प्रसंग याद आता है. चुनाव करवा कर जब लौटते हैं तो स्वाभाविक है कि सारे लोग बहुत हैरान-परेशान और थके-मांदे होते हैं. चुनाव की सामग्री  और मत पेटियां वगैरह जमा करवाना शायद सबसे कठिन काम होता है. भीड़भाड़, धक्का-मुक्की और हरेक को ‘पहले मैं’ की जल्दी. प्रशासनिक अमले की अपनी दिक्कतें होती हैं. हम लोग भी रात नौ-साढ़े नौ बजे चुनाव करवा कर लौटे थे और अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे. तभी हमारे एक वरिष्ठ साथी भी मतदान सम्पन्न करवा कर लौटे. देखा कि सामान जमा करवाने में काफी देर लगने वाली है, तो सीधे उच्चाधिकारियों के पास पहुंचे  और बोले कि देखिये, मुझे रात को दिखाई नहीं देता है, इसलिए मैं तो घर जा रहा हूं. जब आपको सुविधा हो अपनी सामग्री मेरे घर से मंगवा लेना. उनका इतना कहना था कि जैसे पूरे अमले में बिजली दौड़ गई. सभी जानते हैं कि अगर एक भी मत  पेटी जमा होने से रह जाए तो कैसा हड़कम्प मचता है! अफसरों ने अतिरिक्त व्यवस्था  करके सबसे पहला उनका सामान जमा किया, और वे हम सबको हिकारत की नज़रों से देखते हुए विजयी  भाव से प्रस्थान कर गए.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक 'न्यूज़ टुडै' में आज दिनांक 26 नवम्बर, 2013 को प्रकाशित हुए मेरे साप्ताहिक कॉलम 'कुछ इधर कुछ उधर' के अंतर्गत प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 19, 2013

बूढों के लिए कोचिंग क्लास की ज़रूरत

अखबारों में प्राय: बुज़ुर्गों से दुर्व्यवहार या  उनकी उपेक्षा के समाचार पढ़ने को मिलते हैं. जहां भी दो-चार हम उम्र लोग मिलते हैं, अक्सर यही रोना रोया जाता है कि आजकल बूढ़े मां-बाप की कोई फिक्र नहीं करता है. लेकिन मेरे एक वरिष्ठ साहित्यिक मित्र अक्सर यह कहते हैं कि अगर उनके पास संसाधन हों तो वे वरिष्ठ लोगों के लिए कोचिंग क्लासेस लगाना चाहेंगे. उनका बहुत स्पष्ट विचार है कि अपनी बहुत सारी पीड़ाओं के लिए वरिष्ठ जन स्वयं उत्तरदायी हैं. 

मुझे भी लगता है कि हालात उतने बुरे तो नहीं हैं जितने मान लिए गए हैं, और यह भी कि अगर आपको कोई कष्ट न हो तो भी आपके शुभचिंतक भरसक कोशिश करते हैं कि आप महसूस  करें कि आप भयंकर कष्ट में हैं. यानि इस बात को एक सच के रूप में पंजीकृत कर लिया गया है कि नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को फूटी आंखों भी नहीं देखना चाहती है! होता यह है कि जब  वृद्ध या वरिष्ठ लोग अपने बच्चों के साथ रहते हैं और अगर वे कभी कोई काम करते हैं, जैसे सब्ज़ी लेने चले जाते हैं या अपने पोते पोतियों को स्कूल छोड़ने लेने चले जाते हैं तो उन्हीं  के साथी ताना मारते हैं और उनके मन में यह बात बिठा देते हैं कि उनका शोषण किया जा रहा है. और इस तरह जीवन में  जिस बात का आनंद  लिया जाना चाहिए उसी को वे बतौर सज़ा या शोषण  देखने समझने लगते हैं.

क्या सारा दोष नई पीढ़ी का है? क्या  पुरानी पीढ़ी से कहीं कोई चूक नहीं हो रही है? जब मैं इस बात पर सोचता हूं तो पाता हूं कि हममें से बहुत सारे लोग इस बात को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाते हैं कि अब हम निर्णायक नहीं रहे हैं. आप जब खुद गाड़ी चलाते हैं और जब आप गाड़ी चलाने वाले के बगल में बैठते हैं तब  में कुछ फर्क़ होता है. आप बगल में बैठकर भी चाहेंगे कि गाड़ी वैसे ही चलाई जाए जैसे आप चाहते हैं तो जो गाड़ी चला रहा है उसे असुविधा होगी. स्वस्थ बात तो यह होगी कि आप चैन से बैठें और उसे अपने विवेकानुसार गाड़ी चलाने दें. इस तरह वो भी अपना कर्तव्य निर्वहन करेगा और आप  भी यात्रा का आनंद लेंगे. लेकिन क्या ऐसा होता है? हम कभी यह मानने को तैयार ही नहीं होते हैं कि हमसे बेहतर ड्राइवर कोई और हो सकता है.

बड़ी विडम्बना यह है कि इस गतिशील जीवन में हम  स्थिरता चाहते हैं. हम चाहते हैं कि हम सदा अभिभावक बने रहें, और हमारे बच्चे भी कभी बड़े न हों! एक तरह से हम अपने पूर्वजों की संन्यास और वानप्रस्थ आश्रम वाली व्यवस्था को भी नकारने का हर सम्भव प्रयास करते हैं. बाप यह नहीं चाहता कि बेटा अपने विवेकानुसार अपना काम करे और मां यह नहीं चाहती कि बहू अपनी पसन्द और अपनी सुविधा के अनुसार घर चलाए!

पिछले कुछ बरसों में भारत में जीवन शैली में बहुत बदलाव आए हैं. आज से दस पन्द्रह बरस वाला जीवन अब विलुप्त हो गया है. आज की पीढ़ी का  खान-पान, पहनावा, लोक व्यवहार सब कुछ बदल चुका है. नए ज़माने में रह रही हमारी संतान को उसी नई जीवन-शैली के अनुरूप आचरण करना होता है. लेकिन दिक्कत यह होती है कि हमारे लिए समय ठहरा हुआ है और हम चाहते हैं कि हमारी संतान के लिए भी वो ठहरा हुआ ही रहे, जो मुमकिन नहीं है. टकराव की एक बड़ी वजह यह भी होती है. एक आदर्श स्थिति यह हो सकती है कि हम अपनी जीवन शैली को चाहे न बदलें, उन्हें यानि नई पीढ़ी  को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार जीवन जीने की प्रसन्नतापूर्ण छूट दें.

जब अपने बुज़ुर्गों के साथ युवाओं के बर्ताव की बात होती है तो चलते-चलते  प्राय: दो-चार हाथ पश्चिम  को भी जड़ दिए जाते हैं. हम शिखर पर हैं और वो गर्त में हैं – यह भाव आम है. अब जब हमने पश्चिमी जीवन  शैली को पूरी तरह अपना लिया है, समय आ गया है कि हम यह भी देखें कि उन्होंने इस स्थिति का सामना करने के लिए अपने यहां क्या सुरक्षा प्रबन्ध किए हैं! कभी हमारे यहां संयुक्त परिवार प्रथा थी जो परिवार में सभी को– बुज़ुर्गों को और बच्चों को भी-  पर्याप्त सुरक्षा देती थी. अब बहुत सारे कारणों  से संयुक्त परिवार लगभग खत्म हो गए हैं. ऐसे में हमें वैकल्पिक व्यवस्थाएं तो करनी ही होंगी. अगर हमने कामकाजी माताओं के शिशुओं के लिए डे केयर सेण्टर या क्रेश (Creche) जैसी सुविधाओं को स्वीकार किया है तो रिटायरमेण्ट होम्स और वृद्धाश्रमों (कोई सम्मानजनक नाम भी हो सकता है) को भी खुले मन से स्वीकार करने को तैयार रहना चाहिए. अगर बीते ज़माने में वानप्रस्थ की कल्पना थी तो आज वृद्धाश्रम क्यों स्वीकार्य नहीं हो सकता?  जीवन अपनी गति से चलेगा. बदलना तो हम को ही होगा.
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में प्रकाशित मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 19 नवम्बर, 2013 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  



Tuesday, November 12, 2013

यह हमारा निकम्मापन है या लालच?

सरकारें जनता के लिए बहुत सारे काम करती हैं, जैसे स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ कराती हैं, शिक्षण संस्थाएं  चलाती हैं, रेल और बस चलाती हैं, डाकघरों और बैंकों का संचालन करती हैं और भी काफी कुछ करती हैं. सैद्धांतिक रूप से कोई सरकार कभी अपव्यय  नहीं करना  चाहती इसलिए अक्सर  होता यह है कि मांग की तुलना में पूर्ति कम होती है और लोगों को इंतज़ार करना पड़ता है. हारी-बीमारी में आप अस्पताल पहुंचते तो पाते हैं कि वहां पंजीकरण से लगाकर डॉक्टर को दिखाने तक और फिर जांच कराने से लगाकर भर्ती होने तक और फिर अगर ज़रूरत हो तो ऑपरेशन वगैरह करवाने तक हर जगह लम्बी प्रतीक्षा कतार है. आपको कहीं जाना है तो पता लगता है कि ट्रेन में एक महीने की वेटिंग है, डाकखाने जाते हैं तो एक पोस्टकार्ड खरीदने या एक रजिस्ट्री करवाने के लिए आधा घण्टा क्यू में खड़ा रहना पड़ता है. और आज़ादी के बाद से हम सब यह करते-करते इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि प्रतीक्षा करना हमें अखरता भी नहीं है.

ऐसा नहीं है कि सरकारें जनता की ज़रूरतों के प्रति असंवेदनशील होती हैं. वे इन सुविधाओं में वृद्धि भी करती हैं, लेकिन सरकारी कार्यप्रणाली ही कुछ ऐसी है कि सोचने और करने के बीच वक़्त का काफी लम्बा फासला रहता है. किसी अस्पताल की शैयाओं और डॉक्टरों की संख्या में वास्तव में वृद्धि होते होते इतना समय लग जाता है कि तब तक ज़रूरत फिर काफी बढ़ चुकी होती है और वह वृद्धि ऊँट के मुंह में जीरे के समान लगने  लगती है.

जब से देश में निजीकरण की हवा बहने लगी है, बहुत सारी सुविधाएं निजी क्षेत्र में भी उपलब्ध होने लगी हैं और जो लोग साधन सम्पन्न हैं वे निशुल्क सुलभ सरकारी सेवाओं की बजाय इन सशुल्क सेवाओं की तरफ भी जाने लगे हैं. निजी अस्पताल, निजी स्कूल कॉलेज, निजी बैंकों, कूरियर सेवाओं  वगैरह  का कारोबार खूब फल फूल रहा है. निश्चय ही कुछ मामलों में ये निजी सेवाएं सरकारी सेवाओं से बेहतर भी हैं. इनके परिसर बेहतर प्रबन्धित हैं,  और यहां जो लोग सेवाएं देते हैं, उनका व्यवहार भी आम तौर पर सरकारी सेवा देने वालों के व्यवहार से बेहतर होता है. बात  को स्पष्ट कर दूं. सरकारी सेवा देने वालों का व्यवहार दाता जैसा होता है और वे हमेशा आप पर एहसान करने वाली मुद्रा में रहते हैं, जबकि निजी क्षेत्र में जिन लोगों से आपका साबका पड़ता है वे आपके साथ अधिक सम्मानपूर्ण बर्ताव करते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम होता है कि आपकी शिकायत उनकी नौकरी को ख़तरे में डाल सकती है.

लेकिन इधर मैं यह देख रहा हूं कि निजी क्षेत्र भी कई मामलों में सरकारी क्षेत्र जैसा होता जा रहा है. बहुत सारे मित्रों को स्मरण होगा कि जब हमारे यहां कूरियर सेवाओं की शुरुआत हुई थी तो हर चिट्ठी की पावती (जिसे पीओडी – प्रूफ ऑफ डिलीवरी कहा  जाता था) मिलती थी. अब मैं पाता हूं कि कुछ बहुत महंगी कूरियर सेवाओं के सिवा अधिकांश में यह व्यवस्था नहीं  रह गई है. आप किसी महंगे अस्पताल में जाते हैं और पाते हैं कि वहां भी पहले पर्ची बनवाने के लिए और फिर डॉक्टर को दिखाने के लिए आपको खासा इंतज़ार करना पड़ता है. उन लोगों को तो अपनी सुविधाओं का विस्तार करने में और नए लोगों की भर्ती करने में उन तमाम बाधाओं से नहीं गुज़रना पड़ता है जिनसे सरकारी तंत्र को गुज़रना पड़ता है, फिर भी हालात एक से क्यों होते हैं? निजी शिक्षण संस्थाओं की तो बात ही मत कीजिए. वहां के शिक्षकों से बात कीजिए तो शोषण की अनेक व्यथा-कथाएं आपको सुनने को मिल जाएंगी. कम वेतन, अधिक से अधिक काम. अब अगर ऐसे शोषित शिक्षक बच्चों से दुर्व्यवहार भी करें तो क्या ताज्जुब? कभी-कभी लगता है कि निजी और सरकारी शिक्षा  संस्थानों में बस परिसरों और शिक्षकों की टीम टाम का फर्क़ रह गया है.
                                
इस स्थिति की हास्यास्पद और एक हद तक अपमानजनक परिणति हाल ही में नगर के एक लोकप्रिय ग्राम्य रिसोर्ट में देखने को मिली. यह स्थल पर्यटकों के बीच बेहद लोकप्रिय है और गुलाबी नगरी में आने वाला हर पर्यटक एक बार तो यहां ज़रूर ही जाना चाहता है. इस बार वहां जाना हुआ तो मौज मज़े की बजाय भीड़-भड़क्के का माहौल देखने को मिला. यानि जितनी उस स्थान की क्षमता है उससे काफी अधिक पर्यटक वहां थे. और इस सबकी दारुण परिणति इस बात में हो रही थी कि वहां की भोजनशाला में प्रवेश करने से पहले आपको लगभग एक घण्टा धक्का-मुक्की वाले क्यू में खड़े रहना पड़ रहा था. कह सकता हूं कि लंगरों का माहौल इससे बेहतर होता है. हालत यह थी कि अन्दर लोग पंगत में बैठ कर जीम रहे थे और दरवाज़े पर खड़े लोग आंखें गड़ाये अपनी तमाम भंगिमाओं से जैसे उन्हें कह रहे थे – ‘अबे भुक्खड़! अब तो उठ! बहुत भकोस लिया!’ मैं सोच रहा था कि अगर ये लोग अपनी सुविधाओं का  विस्तार नहीं कर सकते तो कम से कम यह तो कर सकते हैं कि अपने इस स्थल की क्षमता निर्धारित  कर दें और उससे अधिक लोगों को विनम्रतापूर्वक वापस लौटा दिया करें! पश्चिम के अपने प्रवासों के दौरान मैंने देखा है कि हर रेस्तरां के बाहर यह अंकित होता है कि उसमें कितने लोगों को लिए जगह है और वे लोग उस क्षमता से अधिक लोगों को प्रवेश नहीं देते हैं. हमारे यहां अगर ऐसा नहीं होता है तो इसे आप हमारा लालच कहेंगे या निकम्मापन? 


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जयपुर से प्रकाशित अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत दिनांक 12 नवंबर 2013 को प्रकाशित आलेख  का मूल पाठ. 

Tuesday, November 5, 2013

प्रवक्ता प्रशिक्षण महाविद्यालय

इधर जब से वीवीआईपी लोगों के सरकारी मेहमान बनने का सिलसिला परवान चढ़ा है, उनके प्रवक्ताओं की मांग और महत्व में भी बड़ा उछाल आया है. जब तक ये सरकारी मेहमान नहीं बने थे, किसी को पता भी नहीं था कि इनके पास भी प्रवक्ता नामक पुछल्ला है. लेकिन जब से हुज़ूर अन्दर हुए हैं, प्रवक्ता ही हैं जो बिना नागा छोटे पर्दे पर अपनी काबलियत के जलवे बिखेरते नज़र आते हैं. इन प्रवक्ताओं का काम है बड़ा मुश्क़िल. आखिर दागदार को बेदाग साबित करना कोई बच्चों का खेल थोड़े ही है! जैसा ये  खुद कहते हैं, आजकल मीडिया ट्रायल का ज़माना है और उसी मीडिया ट्रायल में ये अपने पूरे दमखम के साथ अपने मालिक को पाक दामन साबित करने के लिए तमाम तरह के करतब करते नज़र आते हैं.

मुझे यह उम्मीद है कि वीवीआईपी लोगों के सरकारी मेहमान बनने का यह सिलसिला चलता रहेगा और इसलिए इनके प्रवक्ताओं की मांग भी बढ़ेगी. शिक्षा के क्षेत्र में अपने लम्बे अनुभव और फिलहाल फुर्सत में होने के कारण मैं सोच रहा हूं कि क्यों न एक प्रवक्ता प्रशिक्षण महाविद्यालय खोल लिया जाए! इस दिशा में मैंने कुछ चिंतन किया है. उसी को आपके सामने पेश कर रहा हूं. अगर आप भी कुछ सुझाव देंगे तो मेरी योजना और बेहतर हो जाएगी, और अगर आपका समर्थन मिला तो मैं जल्दी ही यह महाविद्यालय शुरु करके देश की सेवा कर सकूंगा.  इतना  तो मैंने जान ही लिया है कि अपने यहां जो कुछ भी होता है वो देश के लिए होता है, खुद के लिए नहीं. यहां तक कि अपनी जेब का पैसा खर्च करके तीर्थ यात्रा पर जाने वाले भी अपने लिए कुछ नहीं मांगते हैं, देश के लिए ही मांगते हैं.

मेरी सोच  यह है कि  इस महाविद्यालय में प्रवेश के लिए किसी शैक्षिक योग्यता की  कोई ज़रूरत नहीं होनी चाहिए. जो भी चाहे प्रवेश ले सकता है. लेकिन अगर वो लफ्फाज हो, अगर बिना रुके, बिना किसी की टोका-टोकी से  प्रभावित हुए, और बिना यह सोचे कि जो वह बोल रहा है उसका पूछे गए सवाल से कोई लेना-देना है भी या नहीं, तो वो हमारे महाविद्यालय का एक बेहतर विद्यार्थी साबित हो सकता है. प्रवेश मिल जाने के बाद हम सबसे पहले तो उसे सौ दौ सौ शेर, इतने ही श्लोक और दस-बीस उद्धरण अंग्रेजी के रटवाएंगे. एक पीरियड  प्रैक्टिकल का  भी होगा  जहां विद्यार्थियों को बहुत ऊंची आवाज़ में बोलने का अभ्यास कराया जाएगा. उस कालांश  में उन्हें यह भी सिखाया जाएगा कि अगर सामने वाला कोई वज़नी तर्क दे, या उनसे कोई ऐसा सवाल पूछ लिया जाय जिसका जवाब उनके पास न हो या जिसका जवाब देना उसके बॉस के हितों के अनुकूल न हो तो किस  तरह उन्हें  अपनी आवाज़ को तार सप्तक तक ले जाकर सामने वाले की आवाज़ को दबा देना है. जब सामने वाले की बात या उसका सवाल लोग सुनेंगे ही नहीं तो बॉस के हित की कुछ न कुछ रक्षा तो हो  ही जाएगी.

हम अपने इन विद्यार्थियों को यह भी सिखाएंगे कि एंकर या चर्चा के अन्य प्रतिभागी चाहे उनके बारे में कितनी ही प्रतिकूल टिप्पणी क्यों न करे, उन्हें  अविचलित रहना चाहिए. मसलन सामने वाला कहे कि हमने जो पूछा है आप उसका जवाब नहीं दे रहे हैं, तो भी इसे उसको अनसुना करके वही कहते रहना चाहिए और अगर कुछ और न सूझे तो उसी बात को दुबारा-तिबारा कहने से भी नहीं हिचकना चाहिए. हम अपने इन विद्यार्थियों को बहुत सारी शाश्वत और सैद्धांतिक बातें भी कंठस्थ करवा देंगे ताकि जब ये किसी ऐसे सवाल में  उलझें जिसका जवाब देना इनके मालिक के हित में न हों तो वह सिद्धांत चर्चा शुरु कर दें और सामने वाले से पूरी दबंगई से पूछें कि बताओ आप इससे सहमत हो या नहीं! अगर सामने वाला प्रतिप्रश्न करे कि इस बात का मूल चर्चा से क्या सम्बन्ध है तो इन्हें चाहिए कि उसी बल्कि उससे भी अधिक अत्मविश्वास से अपने खज़ाने से दूसरा प्रसंग निकाल कर सामने वालों के मुंह पर दे मारें! वे हतप्रभ रह जाएंगे और आपका काम बन जाएगा.

हमारा सबसे अधिक बल इस बात पर होगा कि हमारे यहां प्रशिक्षण लेने वालों में आत्मविश्वास भरपूर  मात्रा में आ जाए. हम ठोकपीट कर उन्हें ऐसा बना देंगे कि किसी भी स्थिति में उनका आत्मविश्वास न डगमगाए. अपने प्रशिक्षण को बेहतर बनाने के लिए हम ऑडियो वीडियो सामग्री की भी खूब मदद लेंगे और कुछ कामयाब प्रवक्ताओं, कुछ बाबाओं, कुछ नेताओं, कुछ कॉमेडी कलाकारों के वीडियो बार-बार अपने विद्यार्थियों को दिखा कर उनके अनुभव को धार देंगे.

हमें पूरा भरोसा है कि हमारे यहां से प्रशिक्षित प्रवक्ता अधम से अधम, नीच से नीच, पापी से पापी बॉस का बहुत कामयाबी से बचाव कर सकेंगे और टीवी के पर्दे पर होने वाली बहसों और चर्चाओं में उन्हें उजली छवि वाला साबित कर पाएंगे.   जैसा मैंने शुरु में ही कह दिया है इस क्षेत्र में रोज़गार की अपरिमित सम्भावनाएं हैं और उनमें और वृद्धि की पूरी उम्मीद है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक 'न्यूज़ टुडै' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'कुछ इधर कुछ उधर' के अंतर्गत दिनांक 5 नवंबर, 2013 को किंचित परिवर्तित रूप में प्रकाशित  मेरी टिप्पणी  का मूल आलेख!