Wednesday, October 30, 2013

कौन बदला है: समय, संगीत या सुनने वाले?

जयपुर से प्रकाशित अपराह्न समाचार पत्र न्यूज़ टुडै में 'कुछ इधर कुछ उधर' शीर्षक से मरा एक साप्ताहिक कॉलम पिछले कुछ समय से प्रकाशित हो रहा है. इस बार मैंने स्वर्गीय मन्ना डे को याद करते हुए एक टिप्पणी लिखी थी. कुछ व्यावहारिक कारणों  से  वह टिप्पणी प्रकाशित नहीं हो सकी और मुझे उसमें थोड़ा परिवर्तन करना पड़ा. 

यहां ये दोनों टिप्पणियां प्रस्तुत हैं. पहले मेरी मूल टिप्पणी, और फिर उसके नीचे वो टिप्पणी जो बदलाव के बाद आज 30 अक्टोबर को प्रकाशित हुई. 

1. 
हाल ही में जयपुर में ए आर रहमान को कंसर्ट में देखने-सुनने का मौका मिला. क्या तो चकाचक इंतज़ाम और क्या झक्कास प्रस्तुतियां! तीन घण्टे कब और कैसे बीते पता ही नहीं चला. रोशनी की चकाचौंध, तकनीक के नायाब चमत्कार, लगभग कानों  को फाड़ देने वाली (लेकिन फिर भी  कर्कश नहीं) ध्वनि. और भीड़! उसका तो कहना ही क्या! युवा लोग जिस तरह कुर्सियों पर खड़े होकर और अनवरत नाचते हुए उस कंसर्ट का आनन्द ले रहे थे उसे देखना एक अलग तरह का अनुभव था. और जब इतना सब कुछ हो तो यह बात करने की ज़रूरत ही कहां रह जाती है कि उस कंसर्ट में क्या गाया और क्या बजाया गया! हमारे आस-पास जो भीड़ थी, उसे भी शायद इस बात से कम ही ताल्लुक था कि रहमान और उनकी मण्डली क्या गा-बजा रही है! उन्हें मतलब था तो इस बात से कि वे अपने खर्चे पैसों का पूरा मज़ा लें, और अपने मोबाइलों में जितना ज़्यादा मुमकिन हो उन क्षणों को कैद कर लें ताकि बाद में दोस्तों और परिचितों को बता सकें कि वे भी वहां मौज़ूद थे.  इससे यह न समझ लिया जाए कि उस कंसर्ट में संगीत नहीं था, या दोयम दर्ज़े का था. बेशक बेहतरीन संगीत वहां था, लेकिन जो लोग वहां, और कम से कम हमारे इर्द-गिर्द थे, उनकी बहुत कम रुचि उस संगीत में थी. रहमान के संगीत बद्ध किए सुरीले गानों में तो और भी कम.

यह बात मुझे बहुत शिद्दत से याद आई मन्ना डे के निधन की खबर पढ़ने के बाद. असल में जैसे ही मैंने मन्ना डे के निधन की खबर पढ़ी, मुझे कुछ बरस पहले पढ़ी एक कहानी याद आने लगी. कहानी जाने-माने कवि कुमार अम्बुज की लिखी हुई थी, और मन्ना डे को लेकर थी. कहानी का शीर्षक मुझे तुरंत याद नहीं आया. मैंने फेसबुक की अपनी वॉल पर उस कहानी का ज़िक्र किया, और कोई दस मिनिट भी नहीं बीते होंगे कि एक मित्र ने वह कहानी वहां पोस्ट कर दी. मैंने भी फिर से वह कहानी पढ़ी. कहानी का शीर्षक है ‘एक दिन मन्ना डे’. यह कहानी पढ़ते हुए ही मुझे रहमान के इस कंसर्ट का खयाल आया. मैं सोचने लगा कि फर्क संगीत में है या संवेदनाओं में? इस कहानी में नरेटर मन्ना डे का एक कंसर्ट सुनने  जाता है और वहां ‘प्रसाधन’ में अनायास उसकी मुलाकात एक अजीब इंसान से हो जाती है. वह आदमी रुंआसा है. जब हमारा नरेटर उससे उसकी उदासी का सबब पूछता है तो हमें पता चलता है कि वो आदमी इस बात को लेकर फिक्रमंद है कि मन्ना डे, जो 86 बरस के हो गए हैं, जब नहीं रहेंगे तो क्या होगा! – अजीब दुःख है ना यह! लेकिन वो आदमी सच्चा संगीत रसिक है, डूब कर संगीत सुनता है, बल्कि संगीत को ओढ़ता-बिछाता है. अपने प्रिय गायक को सुनते हुए महसूस करता है कि जैसा वो सामने गाते हैं वैसा कोई भी तकनीक प्रस्तुत नहीं कर सकती है. उसे इस बात का भी अफसोस है कि आज पुराने और अच्छे  गाने ढूंढे से भी नहीं मिलते हैं. और इसीलिए उसे फिक्र है कि डेढ़ सौ  दो सौ साल बाद लोग मन्ना डे की आवाज़ कैसे सुन पाएंगे!  हमारा नरेटर उसके ग़म को हल्का करने के लिए मज़ाक में कहता भी है कि तीस-चालीस साल बाद तो हम दोनों भी नहीं रह जाएंगे, फिर आप इतनी दूर की फिक्र क्यों कर  रहे हो, जिसके जवाब में वो कहता है कि  ‘आप नहीं समझ सकते!’


कहानी में आगे क्या होता है, यह बात यहां प्रासंगिक नहीं है इसलिए मैं भी  उसे छोड़ता हूं और वापस रहमान पर लौटता हूं. मतलब उनके श्रोताओं-दर्शकों  पर. मैं  सोच रहा था कि इतनी  भारी भीड़ में क्या एक भी श्रोता ऐसा  होगा जो इस महान संगीतकार के बारे में इस तरह से सोचता होगा? इस कहानी में तो वो व्यक्ति कहता है कि “ज़रूरत पड़ने पर मन्ना डे को मैं अपना खून, अपनी किडनी, अपना लिवर तक दे सकता हूं. लेकिन मन्ना डे  को यह बात मालूम होनी चाहिए ताकि वक़्त-ज़रूरत आने पर वे किसी तरह का संकोच न करें!” रहमान के इस कंसर्ट को देखते-सुनते हुए मुझे लगा कि समय बहुत बदल गया है. आज शायद संगीत को ऐसे लगाव के साथ नहीं सुना जाता  है. लोग  उसमें डूबते  नहीं हैं, बस सतह पर ही तैर कर लौट आते हैं. उनके  पास खूब  सारा पैसा है, दो-चार पाँच दस  हज़ार रुपये  का टिकिट खरीदते हैं और चाहते हैं  कि बदले में जो मिले वह पूरी तरह से ‘पैसा वसूल’ हो. अपनी तरफ से सुख को निचोड़ लेने  में वो भी कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.  हो सकता है मेरा सोचना ग़लत हो. व्यक्ति  नहीं बदला हो, संगीत ही बदल गया हो. शायद आज के संगीत को उस तरह से सुना ही नहीं जा सकता हो जिस तरह से मन्ना डे के ज़माने के संगीत को सुना जाता था.  आप क्या सोचते हैं?  

2. 
मन्ना डे चले गए! वैसे भी, इधर संगीत में जिस तरह के बदलाव हुए हैं उनके चलते मन्ना डे केन्द्र में नहीं रह गए थे. कुछ उम्र का तकाज़ा भी था. उम्र का असर आवाज़ पर पड़ना स्वाभाविक है और जिस फिल्मी दुनिया के लिए मन्ना डे गाते रहे, उसमें बूढों के लिए गाने की सम्भावनाएं नहीं के बराबर है. लेकिन मैं जिस बदलाव की बात करना चाहता हूं वह कलाओं से हमारे रिश्तों में  आया बदलाव है. राजेन्द्र यादव के निधन पर बहुत सारे लोगों ने याद किया है कि किस तरह वे उनकी किताबों खरीदने के लिए बेताब रहा करते थे. यही हाल संगीत का भी रहा है. मैं अपने एक मित्र से जुड़ा एक अनुभव आपसे साझा करना चाहता हूं.  बात 1967 की है. वर्ष  इसलिए याद है कि उसी साल मैंने नौकरी शुरु की थी. अपने एक प्राध्यापक साथी के घर गया तो उनके पास मोहम्मद रफी और बेग़म अख़्तर की आवाज़ वाला गालिब की ग़ज़लों का एक एल पी देखा. मैंने उनसे इसरार किया कि वे मुझे वह रिकॉर्ड सुनवाएं. उन्होंने बहुत सरलता से जवाब दिया कि उनके पास रिकॉर्ड प्लेयर नहीं है. मैंने तुरंत  पूछा कि अगर आपके पास रिकॉर्ड  प्लेयर नहीं है तो फिर आपने यह एल  पी क्यों खरीदा? उनका दिया जवाब आज भी मुझे ज्यों का त्यों याद है! उन्होंने कहा, “दुर्गा बाबू! जब मेरे पास पैसे इकट्ठे हो जाएंगे तभी तो मैं रिकॉर्ड प्लेयर खरीदूंगा. लेकिन तब अगर यह रिकॉर्ड न मिला तो? इसलिए अभी खरीद कर रख लिया है.”  

और उनकी कही यह बात मुझे मन्ना डे के निधन की खबर पढ़ने के बाद बहुत शिद्दत से याद आई. असल में जैसे ही मैंने मन्ना डे के निधन की खबर पढ़ी, मुझे कुछ बरस पहले पढ़ी एक कहानी याद आने लगी. कहानी जाने-माने कवि कुमार अम्बुज की लिखी हुई थी, और मन्ना डे को लेकर थी. कहानी का शीर्षक मुझे तुरंत याद नहीं आया. मैंने फेसबुक की अपनी वॉल पर उस कहानी का ज़िक्र किया, और कोई दस मिनिट भी नहीं बीते होंगे कि एक मित्र ने वह कहानी वहां पोस्ट कर दी. मैंने भी फिर से वह कहानी पढ़ी. कहानी का शीर्षक है एक दिन मन्ना डे’. यह कहानी पढ़ते हुए ही मुझे अपने उन प्रिय मित्र का खयाल आया. मैं सोचने लगा कि आज कितना कुछ बदल गया है!  इस कहानी में नरेटर मन्ना डे का एक कंसर्ट सुनने  जाता है और वहां प्रसाधनमें अनायास उसकी मुलाकात एक अजीब इंसान से हो जाती है. वह आदमी रुंआसा है. जब हमारा नरेटर उससे उसकी उदासी का सबब पूछता है तो हमें पता चलता है कि वो आदमी इस बात को लेकर फिक्रमंद है कि मन्ना डे, जो 86 बरस के हो गए हैं, जब नहीं रहेंगे तो क्या होगा! अजीब दुःख है ना यह! लेकिन वो आदमी सच्चा संगीत रसिक है, डूब कर संगीत सुनता है, बल्कि संगीत को ओढ़ता-बिछाता है. अपने प्रिय गायक को सुनते हुए महसूस करता है कि जैसा वो सामने गाते हैं वैसा कोई भी तकनीक प्रस्तुत नहीं कर सकती है. उसे इस बात का भी अफसोस है कि आज पुराने और अच्छे  गाने ढूंढे से भी नहीं मिलते हैं. और इसीलिए उसे फिक्र है कि डेढ़ सौ  दो सौ साल बाद लोग मन्ना डे की आवाज़ कैसे सुन पाएंगे!  हमारा नरेटर उसके ग़म को हल्का करने के लिए मज़ाक में कहता भी है कि तीस-चालीस साल बाद तो हम दोनों भी नहीं रह जाएंगे, फिर आप इतनी दूर की फिक्र क्यों कर  रहे हो, जिसके जवाब में वो कहता है कि  आप नहीं समझ सकते!


कहानी में आगे क्या होता है, यह बात यहां प्रासंगिक नहीं है इसलिए मैं भी उसे छोड़ता हूं और बदले हुए वक़्त पर लौटता हूं. आज कलाओं  की उपलब्धता बढ़ी है लेकिन उनके साथ हमारा लगाव वैसा नहीं रह गया है जैसा पहले हुआ करता था.  इस कहानी में वो व्यक्ति कहता है कि ज़रूरत पड़ने पर मन्ना डे को मैं अपना खून, अपनी किडनी, अपना लिवर तक दे सकता हूं. लेकिन मन्ना डे  को यह बात मालूम होनी चाहिए ताकि वक़्त-ज़रूरत आने पर वे किसी तरह का संकोच न करें!क्या आज भी यही स्थिति है? क्या आज हममें से कोई अपने प्रिय कवि, कथाकार, गायक, चित्रकार वगैरह के लिए इस तरह की बात सोच या कह सकता है? हमारे पास पैसे की आमद बढ़ी है, तकनीक ने चीज़ों को सहज और सुलभ कर दिया है. लेकिन जिस  परिमाण में यह सब हुआ है, उसी अनुपात में इनसे हमारी संलग्नता कम हुई है. क्या इस बात पर फिक्र  नहीं होनी चाहिए? 
   

Tuesday, October 22, 2013

महाभोज जारी आहे....

महाभोज जारी आहे...

चुनाव का बिगुल बज गया है. योद्धा अपने-अपने हथियार लेकर और जिरह बख्तर धारण कर युद्ध के लिए तैयार हो गए हैं. अभी वार्मिंग अप चल रहा है. असल युद्ध तो थोड़ा दूर है. पहले युद्ध होगा, फिर महायुद्ध. युद्ध बोले तो विधान सभा के चुनाव, और महायुद्ध बोले तो लोक सभा के चुनाव. वैसे आजकल यह युद्ध शब्द इतना लोकप्रिय हो चला है कि सब जगह युद्ध ही होता है. सुरों का युद्ध, शब्दों का युद्ध और यहां तक कि पकवान बनाने का भी युद्ध! ऐसे में चुनाव जो कि लड़ा जाता है, वो तो युद्ध है ही.  जब युद्ध होगा तो शोर-शराबा (यलगार हो!) भी होगा, खून-खराबा भी होगा और मार-काट भी होगी. तैयारियां जारी है. शोर-शराबा शुरु हो ही चुका है. शब्दों के तीर-तलवार-गोले-बम सब चल रहे हैं. आक्रमण  और प्रति आक्रमण जारी हैं. एक पक्ष दूसरे पर वार करता है तो दूसरा पक्ष पहले पर पलट वार करता है. एक पक्ष गरजता है, जवाब में दूसरा पक्ष बरसता है. रोज़ यह हो रहा है. रण भूमि हैं अख़बार और टेलीविज़न का पर्दा. एक पक्ष अपने शब्द बाण छोड़ता है तो हमें पता चल जाता है कि दूसरा पक्ष कितना पतित है, लेकिन दूसरे ही दिन जब दूसरा पक्ष अपने तरकश के तीर चलाकर  इस पक्ष के कपड़े तार-तार करता है तो हमें पता लगता है  कि कम तो यह पक्ष भी नहीं है. नागनाथ – सांपनाथ वाला मामला है.  और इन्हीं अधमों-पतितों-निकम्मों-नाकारों-बेगैरतों वगैरह में से किसी को हमें अपना बहुमूल्य वोट देना है. मुझे लगता है कि मतदान का दिन आते-आते तो हम अपने तमाम उम्मीदवारों के बारे में, उनके प्रतिपक्षियों की कृपा से,  इतना ज़्यादा जान जाएंगे कि बजाय किसी को वोट देने के नोटा (उपर्युक्त में से कोई नहीं) के विकल्प का प्रयोग  करना ही ज़्यादा सही लगेगा.

लेकिन क्या यह नोटा का विकल्प स्थिति में कोई बदलाव लाएगा? क्या आपके-मेरे और अपन जैसे बहुत सारों के ‘इनमें से कोई नहीं’ विकल्प को चुन लेने से इनमें से किसी एक का चुना जाना रुक जाएगा? कोई न कोई चुना तो फिर भी जाएगा! बस इतना-सा फर्क़ पड़ेगा कि चुनाव के बाद आने वाली खबरों में एक इबारत और जुड़ जाएगी, कि इतने प्रतिशत मतदाताओं ने इनमें से किसी को भी योग्य नहीं पाया! यानि किसी को न चुनने से तो किसी ऐसे  उम्मीदवार को जो हमारे मानदण्डों पर सबसे ज़्यादा खरा साबित हो रहा हो, चुनना ही बेहतर होगा.

अभी के तमाम शोर-शराबे में मुझे बार-बार मन्नू भण्डारी का लोकप्रिय उपन्यास ‘महाभोज’  याद आ रहा है. सरोहा नामक एक गांव में एक दलित युवक बिसेसर की हत्या हो जाती है. इस मामूली आदमी की हत्या अचानक महत्वपूर्ण इसलिए हो जाती है कि डेढ महीने बाद ही वहां विधानसभा की एक खाली सीट के लिए उपचुनाव होना है. मैदान में एक तरफ दा साहब और उनके समर्थक हैं तो दूसरी तरफ सुकुल बाबू और उनके समर्थक. ये लोग किस निर्ममता से उस बेचारे बिसेसर की मौत को अपने लिए एक महाभोज में तब्दील  कर देते हैं यही इस उपन्यास का कथ्य है. आज जब अपने नेताओं की ज़बानी मैं यह सुनता हूं कि इस पक्ष ने यह नहीं किया और उस पक्ष ने वो नहीं किया, इसने ग़रीबी नहीं हटाई और उसने महंगाई कम नहीं की, इसने मस्जिद नहीं बचाई और उसने मन्दिर नहीं बनाया, तो मुझे यही एहसास होता है कि मैं, इस देश का आम नागरिक,  खेत में पड़ी एक लाश हूं और ऊपर आकाश में बहुत सारे गिद्ध मुझे अपना जीमण बनाने को मेरे सर के ऊपर मण्डरा रहे हैं! 


बस एक चुप-सी लगी है....

इन दिनों निर्वस्त्र करने का अभियान ज़ोरों पर है. पहले एक बाबा जी का नम्बर लगा, फिर उनके सपूत का. वो वो बातें सामने आईं कि दिल दहल गया. लेकिन जिस समय में हम रह रहे हैं उसमें सच और झूठ के बीच अंतर करना बहुत मुश्क़िल हो गया है. अगर बाबा जी पर आरोप लगाने वाले तमाम संचार माध्यमों पर अपनी बात कह रहे हैं  तो ऐसे भी लोगों की कमी नहीं है जो इन तमाम आरोपों के मूल में किसी मां-बेटे का ‘हाथ’  देख रहे हैं. वैसे अपने देश में यह आम परम्परा है. जब भी किसी पर कोई आरोप लगता है,  मैं इंतज़ार करने लगता हूं कि अब कोई न कोई वीर पुरुष (या वीरांगना) आकर यह कहेगा/कहेगी कि यह सब अमुक का रचा हुआ षड़यंत्र है. और मुझे निराश नहीं होना पड़ता है. नेताओं और बाबाओं के बाद इस बार बहुत दिन बाद साहित्य के एक बाबा का भी नम्बर लगा. इन दिनों पत्र-पत्रिकाओं से ज़्यादा चहल-पहल फेसबुक और ट्विट्टर पर रहती है. तो पिछले दिनों इसी  सोशल मीडिया पर हिन्दी के एक जाने-माने कथाकार और स्त्री विमर्श के पुरोधा के बर्ताव को लेकर खूब हो-हल्ला हुआ. असल में हुआ यह कि एक युवा कथाकार ने एक लम्बा वक्तव्य जारी कर अपने साथ हुए दुर्व्यवहार के सन्दर्भ में इस वरिष्ठ कथाकार की स्त्री-विषयक संवेदनहीनता को रेखांकित किया. फिर तो कढ़ी में उबाल आना ही था. एक अन्य चर्चित यात्रा वृत्तांतकार ने इस पूरे वृत्तांत को दूसरे एंगल से देखा-दिखाया और उसके बाद बहुत सारे शब्द वीर मैदान में कूद पड़े. साहित्य पीछे रह गया, चर्चा के केन्द्र में साहित्यकार, उनके शब्द और कर्म के बीच का अंतर, उनकी नैतिकता, उनका सामाजिक चिंतन  जैसे मुद्दे आ गए. वो-वो बारीक बातें की गईं कि अपने अनपढ़ होने का एहसास शिद्दत से होने लगा. इस सारे विमर्श की ख़ास बात यह रही कि युवा कथाकार ने तो विस्तार से अपनी बात कही, लेकिन वरिष्ठ कथाकार अब तक मौन व्रत धारण किए हैं. जब तक उनका पक्ष सामने नहीं आ जाता, तस्वीर धुंधली ही रहेगी. जिज्ञासु हंसों को नीर-क्षीर विवेक के लिए वरिष्ठ कथाकार की पत्रिका के अगले अंक का बेसब्री से इंतज़ार है.   


जयपुर से प्रकाशित अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 22 अक्टोबर, 2013 को किंचित सम्पादित रूप में प्रकाशित टिप्पणियों का मूल रूप.  


Wednesday, October 16, 2013

और ज़रा-सी दे दे.....

और ज़रा-सी दे दे

बड़े विकट समय में जी रहे हैं हम लोग. साईं इतना दीजिए जा में कुटुम समाय, मैं भी भूखा ना रहूं साधु ना भूखा जाएवाला वो वक़्त बहुत पीछे छूट चुका है जब हमारी ज़रूरतें सीमित हुआ करती थीं और जितना हमारे पास होता था, उससे बहुत अधिक की चाह नहीं होती थी और इतना समय हमारे पास होता था कि अपनी ज़िन्दगी के प्याले का रस चख सकें.  अब सब कुछ बदल गया है. ‘थोड़ा है थोड़े  की ज़रूरत है’  सिर्फ एक फिल्मी गाने के बोल हैं, हमारे जीवन का मूल मंत्र नहीं.  ‘और ज़रा-सी दे दे साक़ी’ वाली हालत है हम सबकी.

अभी कल ही कुछ दोस्त सदी के महानायक की चर्चा कर रहे थे. किसी इण्टरव्यू में खुद उन्होंने बताया था कि उन्हें तनिक भी फुर्सत नहीं होती है. होगी भी कहां से? क्या-क्या नहीं करते हैं वे! फिल्में, टीवी, विज्ञापन और भी न जाने क्या-क्या! सीमेण्ट से लगाकर तेल और पेन बाम तक सब कुछ तो बेचते हैं वे. गुजरात भी. एक मित्र दुःखी होकर बोल पड़े, आखिर क्या करेंगे वे इतने पैसों का? हां, इन कामों में से ज़्यादातर तो वे पैसों के लिए ही करते हैं! अपनी अनेक बीमारियों और बढ़ती उम्र के बावज़ूद वे इतना कर लेते हैं, इस बात  की तारीफ की जाए या इसके लिए उनसे सहानुभूति व्यक्त की जाए?
  
उधर ये बातें हो रही थीं और इधर मेरे मन के पर्दे पर रूसी कथाकार टॉल्स्टाय की प्रसिद्ध  कहानी ‘एक व्यक्ति को कितनी ज़मीन चाहिए’ चल रही थी  जिसका भावानुवाद हमारे अपने जैनेन्द्र कुमार ने कितनी ज़मीन शीर्षक से किया था. इस कहानी का नायक पोखम नामक एक किसान है. एक रात वह सपना देखता है कि उसके राज्य में मुनादी हो रही है कि जो भी बिना श्रम किए धनी होना चाहता है, वह कल सबेरे मैदान में आयोजित प्रतियोगिता में भाग लेकर अपनी किस्मत आजमा सकता है.  दो तीन बहुत आसान शर्ते हैं.  प्रतियोगी सूर्योदय के पहले प्रतियोगिता स्थल पर पहुंच जाए. सूर्य निकलते ही  उसे दौडऩा प्रारंभ करना होगा.  दिनभर दौड़कर वह जितनी जमीन को घेर लेगा, वह उसकी अपनी हो जाएगी, लेकिन सूर्यास्त के समय  उसे ठीक उसी स्थल तक पहुंचना होगा, जहां से उसने दौड़ प्रारंभ की थी. पोखम दौड़ता चला जाता है. पचास-साठ मील ज़मीन नाप लेता है लेकिन सूर्य के डूबते-डूबते जैसे ही वह लौट कर दौड़ शुरु होने वाली जगह पहुंचता है, उसकी सांसें थम जाती है. “किस्मत की खूबी देखिए टूटी कहां कमन्द दो-चार हाथ जबके लबे-बाम रह गया” से भी बुरी स्थिति. जितनी ज़मीन उसने नापी थी, वो सब अब उसके लिए बेमानी हो जाती है. उसके भाईबंद और पड़ोसी उसे दफनाने के लिए वहीं साढ़े तीन हाथ लम्बा और दो हाथ चौड़ा एक गड्ढा खोदते हैं. उसे बस उतनी-सी ही ज़मीन की तो ज़रूरत थी!

सदी के महानायक तो खैर फिर भी मेहनत करते हैं और कमाते हैं, अपने चारों तरफ हम ऐसे ऐसे महापुरुषों  को देखते या उनके बारे में पढ़ते सुनते हैं जो तमाम ग़ैर कानूनी तरीकों से पैसा बटोरने में लगे हैं और जिनकी धन-लिप्सा का कोई ओर छोर नहीं है.  मैं अक्सर सोचता हूं कि वे इस धन का करेंगे क्या? क्या उन्हें कभी इसका आनंद लेने की फुर्सत भी मिलेगी या कि वे भी एक दिन  उस अभागे पोखम की तरह..... 
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चीयर्स!


सामाजिक मीडिया हमारे समय की एक नई प्रवृत्ति है. पहले लोग  प्रत्यक्ष मिला करते थे, अब वर्चुअल स्पेस में मिलते हैं. पहले हमें अपने सामाजिक वृत्त (सोशल सर्कल) पर गर्व होता था, अब हम इस बात पर गर्व करते हैं कि फेसबुक पर हमारे इतने दोस्त हैं और हमारी किसी टीप को इतने लाइक्स मिले हैं. कई लोग इस बदलाव पर बहुत दुःखी होते हैं – क्या से क्या हो गया!  लेकिन  मुझे इस बदलाव का कोई मलाल नहीं है. भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी में, फैलते जा रहे शहरों में, ट्रैफिक की मारा-मारी में, भला पहले की तरह का मेल-मिलाप कैसे मुमकिन है? और अगर वो मुमकिन नहीं है तो उसका जैसा भी विकल्प है, उसका स्वागत क्यों न किया जाए! मुझे तो अच्छा लगता है जब मेरे जन्म दिन पर सौ दौ सौ चार सौ ‘मित्र’ मुझे मुबारक़बाद  देते हैं! जिन लोगों से मैं कभी भी नहीं मिला हूं, और शायद कभी मिलूंगा भी नहीं, वे अगर मेरे बारे में सोचते हैं और मेरी खुशी में इज़ाफा करने के लिए चन्द लमहे निकालते हैं तो मुझे खुश क्यों नहीं होना चाहिए? जब हालात तेज़ी से बदलते जा रहे हैं तब हम भी अपने तौर-तरीके क्यों ना बदलें! अंतत: दोस्तों, सारी बात आपके नज़रिये की है. आप चाहें तो गिलास को आधा खाली मान कर टसुए बहा लें और चाहें तो उसे आधा भरा हुआ मान कर सेलिब्रेट कर लें!  


जयपुर से प्रकाशित अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में प्रकाशित मेरे साप्ताहिक कॉलम इधर उधर के अंतर्गत 15 अक्टोबर 2013  को प्रकाशित किंचित संक्षिप्तिकृत टिप्पणियों का मूल पाठ.  

Thursday, October 10, 2013

इधर-उधर : 1



भाभीजी – आप तो ऐसी न थीं!

भारतीय समाज में कुछ रिश्ते हंसी-मज़ाक और छेड़छाड़ के लिए भी जाने जाते हैं. जैसे देवर-भाभी का रिश्ता, या जीजा-साली का रिश्ता. कहना अनावश्यक है कि इन रिश्तों में शरारत का जो तत्व मुमकिन रहा है उसकी भी अपनी मर्यादाएं रही हैं. सब कुछ इस तरह से मुमकिन रहा कि रिश्तों की शुचिता पर कोई आंच  न आए. लेकिन बदलते वक़्त का आप क्या करेंगे? पिछले कुछ समय से एक भाभी विशेष की हमारे यहां बड़ी चर्चा रही है. और चर्चा भी कुछ ऐसी कि सरकार को उस पर रोक लगाने को भी मज़बूर होना पड़ा. जी हां, मेरा इशारा उन्हीं तीन अक्षरों के नाम वाली भाभीजी की तरफ है. नाम  इसलिए नहीं ले रहा हूं कि अगर संयोग से किन्हीं भाभीजी का भी नाम वही हो तो उन्हें बेवजह शर्मिन्दा न होना पड़े. इधर हाल ही में वे ही भाभीजी फिर से चर्चा में हैं. चर्चा की वजह यह है कि उन भाभीजी के कार्टून किरदार के रचयिता को अब अपने कार्टून के लिए मॉडल के रूप में एक सचमुच की अदाकारा मिल गई हैं, और वे इस बात को छिपा भी नहीं रही हैं कि अब उन भाभीजी के रूप में उनका ही चेहरा-मोहरा इस्तेमाल किया जाएगा. बल्कि  छिपाना तो दूर, वे तो आह्लादित हैं कि अब अनगिनत युवा अपनी फैंटेसियों में उन्हें शुमार कर सकेंगे. क्या इसे हमारे समाज में विकसित हो रही नई नैतिकता के रूप में देखा जाना चाहिए? कुछ समय पहले तक जिस बात से लोगों को लज्जा का अनुभव होता था, अब नहीं होता है. वैसे तो कला जगत में, और विशेष रूप से साहित्य और फिल्मों में यह बदलाव काफी पहले से नज़र आने लगा था! साहित्य के घनघोर पाठकों को  कृष्णा सोबती की ‘मित्रो मरजानी’  ज़रूर याद होगी जो पूरी ठसक और धौंस के साथ अपने शरीर और मन की चाह की बात बहुत बिन्दास शब्दावली में करती है. यहीं यह भी याद दिलाता चलूं कि यह 1967 की रचना है. कृष्णा सोबती की यह चारित्रिक सृष्टि मित्रो अपने पति सरदारी लाल से सम्पूर्ण शारीरिक सुख न मिलने पर सिर्फ  कुढ़ती ही नहीं, अपनी कुढ़न को सास और देवरानी के सामने खुलकर व्यक्त भी करती है और पति की ग़ैर हाज़री में उसके दोस्त प्यारो से नैन मटक्का भी कर लेती है. ‘इस देह  से जितना जस-रस ले लो वही खट्टी कमाई है’ कहने वाली मित्रो जब बच्चा न होने के बारे में अपनी सास और जेठानी से ताने सुनती है पलटकर कह देती है कि तुम्हारे लाल में ही दमखम नहीं है तो मैं क्या करूं? वह तो यह सवाल तक उठा लेती है कि ‘अपने लड़के बीज डालें तो पुण्य, दूजे डालें तो पाप!’ इस बिन्दास मित्रो के अलावा  साहित्य में भाभियां तो इतनी  मिल जाती हैं कि उनके लिए अलग से भाभीवाद नामक एक बाड़ा ही बनाया जा चुका है.  फिल्मों में तो नैतिकता के स्थापित मानों को ध्वस्त करने और नई नैतिकता गढ़ने के इतने प्रसंग मिल जाएंगे कि उनके लिए एक कॉलम तो क्या एक पोथा भी कम होगा.  लेकिन फिर भी यह कहना ज़रूरी है  कि इस अभिनेत्री द्वारा ‘उन’ भाभीजी के रूप में अपनी आकृति के इस्तेमाल की इस घोषणा को एक ऐसी घटना के रूप में देखा जाना चाहिए जिसके शायद दूरगामी परिणाम हों!


कम्प्यूटर पर पाटा संस्कृति का पुनर्जन्म 


पहले घरों के बाहर चबूतरे हुआ करते थे जहां शाम ढले दिन-भर के कामकाज से मुक्त हो बुज़ुर्ग लोग दिन भर के घटनाक्रम की जुगाली किया करते थे. बीकानेर में तो एक अलग पाटा संस्कृति ही विकसित हो गई थी. लेकिन समय के साथ काफी कुछ बदला है. चबूतरे और पाटे अब अपनी रौनक खो चुके हैं. अलबत्ता मॉर्निंग वॉक के नाम पर सुबह-सुबह पार्कों वगैरह  में मिलने वाले लोग घूमते-फिरते वही काम किसी सीमा तक कर लेते हैं. लेकिन इधर मार्क जुगकरबर्ग जी की कृपा से दुनिया भर के उन लोगों को जो कम्प्यूटर से परहेज़ नहीं बरतते हैं, एक नई पाटा संस्कृति सुलभ हो गई है. जी हां. मेरा इशारा फेसबुक की तरफ ही है. यहां लोग खुलकर अपनी कहते हैं और दूसरों की सुनते - मेरा  मतलब पढ़ते  हैं. अपना दिल टूटने से लगाकर नमो-ममो तक के हाल-चाल और उस हाल-चाल पर हर तरह की टीका-टिप्पणी का रस यहां लिया जा सकता है. कुछ लोग इस सार्वजनिक मंच पर आकर अपने गन्दे पोतड़े (डर्टी लिनेन!) धोते हैं तो कुछ इसे आत्म प्रचार का सर्वश्रेष्ट माध्यम मानकर इसका भरपूर इस्तेमाल कर दूसरों को हलकान किए रहते हैं.  फेसबुक का सबसे मज़ेदार फीचर है टैग करना! टैग करना बोले तो अपने हाथों में आपका चेहरा पकड़ कर उसे अपनी तरफ घुमा कर कहना, ज़रा सुनिए तो! किसी ने कोई कविता लिखी और कर दिया चालीस-पचास साहित्य रसिकों को टैग! किसी को किसी बाबा की कोई बात पसन्द आई तो सौ सवा सौ लोगों तक उस बात को पहुंचाना अपना पुनीत कर्तव्य और अधिकार मान बैठे. यह मर्ज़ एक महामारी का रोग ले चुका है. हमारे शहर के ही एक कवि-कथाकार-पत्रकार  मित्र तो इस रोग से इस हद तक पीड़ित हुए कि उन्होंने बाकायदा घोषणा करके टैग करने का अपराध करने वालों को अनफ्रैण्ड करने की हिंसक कार्यवाही तक कर डाली. फेसबुक की दुनिया में अगर कोई किसी को अनफ्रैण्ड करता है इस बात का बहुत बुरा माना जाता है. अनफ्रैण्ड करना एक तरह से जाति बहिष्कार का ही नया संस्करण है. अब किसी का पुनर्जन्म होगा तो इतना बदलाव तो होगा ही!



जयपुर से प्रकाशित अपराह्न-दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'इधर-उधर' में 09 अक्टोबर 2013 को किंचित संक्षिप्त रूप में प्रकाशित टिप्पणियों का मूल पाठ.  

Wednesday, October 9, 2013

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन....

आज इलाहाबाद  की एक संस्था से एक पत्र आया तो कई पुरानी यादें ताज़ा हो गईं.


पहले इस पत्र की बात कर ली जाए. 


इलाहाबाद की इस संस्था अखिल भारतीय हिन्दी सेवी संस्थान के प्रचार मंत्री और ठेंगे पर सब मार दियाजैसे विलक्षण नाम वाले मासिक के सम्पादक मधुकर मिश्र जी ने अपने पत्र द्वारा मुझे सूचित किया  मेरा "शुभ नाम संस्थान में राष्ट्रभाषा-गौरवतथा साहित्य-शिरोमणिमानद उपाधि के लिए प्रस्तावितहुआ है. उन्होंने अपने पत्र में मुझे सलाह दी कि यदि मुझे यह प्रस्ताव स्वीकार हो तो “संस्थान के नियमों का समय से पालन करते हुए” पंजीकरण कराने की कृपा करूं. संस्थान का सम्बद्ध  नियम यह है कि “मानद उपाधि हेतु आमंत्रित साहित्यकार”  मात्र 2100/- की राशि भेजे.  पत्र प्राप्त करने वाले को कोई असुविधा न हो इसलिए इस पत्र में यह भी स्पष्ट कर दिया गया  कि यह राशि (जिसे पंजीकरण  राशि का सम्मानजनक नाम दिया गया है) मनी ऑर्डर (या बैंक ड्राफ्ट) के ज़रिये भेजी जाए और यह भी कि राशि श्री राजकुमार शर्मा (जिनके परिचय में बताया गया है कि वे “वर्चस्वी पत्रकार/ साहित्यकार/ सदगृहस्थ-संत”  और ‘जागरण’ के प्रधान सम्पादक तथा ‘ठेंगे पर सब मार दिया’ के सलाहकार सम्पादक हैं) के व्यक्तिगत नाम से ही भेजी जाए और यह भी कि “अध्यक्ष  या संस्थान का उल्लेख न करें क्योंकि बैंक अकाउण्ट राजकुमार शर्मा जी के शुभ नाम से है.”   


मैंने महज़ विनोद के लिए यह बात फेसबुक पर पोस्ट कर दी, तो स्वाभाविक ही है कि अनेक मित्रों की किसम-किसम की प्रतिक्रियाएं भी वहां आईं. कुछेक मित्रों ने यह लिखा कि उन्हें भी ऐसा ही प्रस्ताव मिला है, तो कुछेक ने चुटकियां भी लीं. लेकिन इसी सब के बीच अमरीका में रह रहे हमारे एक मित्र ने मीडिया दरबार (mediadarbar.com)  नामक एक वेबसाइट का एक लिंक भी पोस्ट कर दिया जिसमें विस्तार  से यह खबर छपी है कि  “हिंदी और पंजाबी के प्रख्यात साहित्यकार और मीडिया विशेषज्ञ अमुक जी (नाम जान-बूझकर नहीं दे रहा हूं –दुर्गा.)  को अखिल भारतीय हिंदी सेवी संस्थान, इलाहाबाद की ओर से राष्ट्र भाषा गौरव प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा.  हिंदी सेवी संस्थान ने ‘उन’ के दो दशक से ज्यादा समय में हिंदी साहित्य के प्रति किए कार्यों को देखते हुए उन्हें यह सम्मान देने की घोषणा की है.  संस्थान के सचिव और संपादक मधुकर मिश्र के मुताबिक, हिंदी साहित्य में डा. अमुक जी के अमूल्य योगदान को देखते हुए उन्हें इस राष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया गया है.”  कहना अनावश्यक है कि इस ख़बर के स्रोत स्वयं सम्मानित साहित्यकार महोदय ही होंगे. यह सम्भावना इस बात से भी पुष्ट  होती है कि इस समाचार में आगे उनकी अनेक उपलब्धियों  का बखान है. सम्मानित करने वाली संस्था के पास शायद ही वे तमाम जानकारियां हों. इस तरह की संस्थाएं आपकी उपलब्धियों का लेखा-जोखा रखने की जहमत नहीं उठाया करतीं.  यह देखना बहुत मज़ेदार है कि जो कृत्य हम सबको हास्यास्पद (या कहें अपमानजनक) लग रहा है उसी को डॉ अमुक जी ने अपने सम्मान की तरह प्रचारित कर डाला है.

और यह सब पढ़ते हुए मुझे अपने ही शहर जयपुर के एक और स्वनामधन्य तथाकथित लेखक की याद हो आई. असल में वे शिक्षा से जुड़े थे, मैनेजमेण्ट के व्यक्ति थे,  एक बड़े और नामी कॉलेज के प्राचार्य थे, और खूब उत्साही थे. मेरे भूतकालिक प्रयोग का कोई बुरा अर्थ न लें. वे स्वस्थ हैं, लेकिन बस आजकल उनकी सक्रियता कम हो गई है. नाम उनका इसलिए भी नहीं ले रहा हूं कि अकादमिक क्षेत्रों में उनकी कोई पहचान नहीं है. उनके बारे में भी स्थानीय स्तर के अखबारों में बहुत थोड़े-थोड़े अंतरालों से इस तरह के सम्मानों की ख़बरें छपती रहती थीं. उन सम्मानों में आम तौर पर उन्हें भारत की, एशिया की या विश्व की महान प्रतिभाओं/ लेखकों/शिक्षाशास्त्रियों आदि में शुमार किया जाना  बताया जाता था. हम लोग जो इस तरह के सम्मानों की हक़ीक़त  से वाक़िफ थे, इन खबरों को पढ़कर मुस्कुरा कर रह जाते थे. लेकिन एक बार, शुद्ध शरारत के भाव से मैंने उन्हें फोन कर ऐसे ही किसी सम्मान पर जब बधाई दी तो उन्होंने जिस विनम्रता से मेरी  बधाई को स्वीकार किया, उसका मैं कायल हुए बिना नहीं रह सका. मुझे मानना पड़ा कि उन्हें इस सम्मान की सम्माननीयता में तनिक भी संशय नहीं है. 

और इन्हीं दो बातों से मेरी कुछ पुरानी  यादें  ताज़ा हो आईं. बात शायद 1980 के आसपास की है. तब मैं राजकीय महाविद्यालय, सिरोही में हिंदी पढ़ाता था. एक दिन डाक में  एक लिफ़ाफ़ा आया. उसके भीतर रखे सुमुद्रित पत्र  में लिखा था कि वह संस्था (या कम्पनी) देश की विभिन्न क्षेत्रों की चुनी हुई प्रतिभाओं  की एक डाइरेक्टरी (निर्देशिका) प्रकाशित करने जा रही है और उसमें प्रकाशन के लिए मेरे नाम का भी चयन किया गया है. मुझसे अपना विस्तृत परिचय और प्रकाशनोपरांत उस डाइरेक्टरी  को रियायती मूल्य पर खरीदने के सहमति पत्र पर हस्ताक्षर मांगे गए थे. उस पत्र के साथ एक प्रारूप भी  संलग्न था जिसमें मैं अपनी तरह के अन्य विशेष योग्यता वाले मित्रों के नाम सुझा सकता था. और इसके बाद इस तरह के पत्र आने का एक क्रम ही बन गया. धीरे-धीरे पता चला कि कॉलेज  के अन्य साथियों के पास भी वैसे ही पत्र आते  हैं. इन पत्रों में प्रकाशित होने वाली डाइरेक्टरियों के शीर्षक बदलते थे, शेष सब कुछ अपरिवर्तित  रहता था. एक दिन मुझे  न जाने क्या सूझा कि उनके भेजे हुए प्रारूप में अपने कॉलेज के सभी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों (यानि चपरासियों) के नाम भरकर भेज दिए. और लीजिए! पन्द्रह दिन भी नहीं बीते होंगे कि मेरे कॉलेज के सारे चतुर्थ श्रेणी  कर्मचारियों के नाम वे सफेद आकर्षक लिफाफे आ पहुंचे जिनमें उन्हें यह सूचित किया गया था कि उनके नाम का चयन विश्व की सर्वोत्कृष्ट प्रतिभा के रूप में किया गया है. अभी मैंने अपने जिन स्थानीय मित्र का ज़िक्र किया, वे इसी तरह की उपलब्धियों का ढिंढोरा बरसों तक पीटते रहे हैं.

जो लोग इस तरह के सम्मान- पुरस्कार आदि बांटते (बेचते?) हैं उनका हित तो बहुत स्पष्ट है. यह उनके धन्धे का एक तरीका है. सामान नहीं बेचा, सम्मान बेच लिया. बल्कि सामान में तो कुछ लागत भी लगती है, सम्मान तो बिना लागत का माल है.  बिना कुछ खर्च किए  कमाई हो जाए तो क्या बुरा है!  मुझे लगता है कि जितने लोगों को वे इस तरह के प्रस्ताव पत्र भेजते हैं, उनमें से अगर दस-बीस प्रतिशत लोग भी उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लेते होंगे (और इतने तो अवश्य ही करते होंगे) तो उनकी दुकान अच्छी तरह चल जाती होगी. लेकिन मैं अक्सर यह सोचता हूं कि जिन लोगों में थोड़ी भी प्रतिभा है, थोड़ी भी समझ  है, और थोड़ा-भी आत्म सम्मान है, वे भला इस तरह के प्रस्ताव क्यों स्वीकार करते होंगे? क्या उन्हें यह लगता है कि उनके पास जितनी प्रतिभा है वो इतने से सम्मान के लिए भी नाकाफी है? वे जो भी करते या रचते हैं उससे उन्हें कोई सम्मान नहीं मिलने वाला है. इसलिए चलो सम्मान खरीद ही क्यों ना लिया जाए? किसे  पता चलेगा? उनकी समझ का स्तर शायद यही है कि वे सोचते हैं कि ऐसा सम्मान सिर्फ उन्हीं को प्रस्तावित किया जा रहा है! और सम्मान बेचने वाले और उन जैसे खरीदने वाले के अलावा किसी को इस सौदे की भनक भी नहीं लगेगी. और या फिर यह भी मुमकिन है कि वे बहुत शातिर हों और यह मानते हों कि क्या फर्क़ पड़ेगा, अगर कुछ लोग इस सम्मान  की हक़ीक़त  को जानते भी होंगे तो. सभी तो नहीं जानते होंगे! अगर अख़बार में सम्मान की खबर हज़ार लोग पढ़ेंगे तो उनमें से आधे तो मान ही लेंगे कि सम्मान उनकी महानता की वजह से मिला है. अगर इतने लोग भी उनको महान मान लेंगे तो उनका अहं तो संतुष्ट हो ही जाएगा. शायद ऐसे ही लोगों के दम पर सम्मान बेचने वालों की दुकानदारी चलती रहती है.
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medaidarbar.com पर  और फिर दिनांक 08 अक्टोबर 2013 को जनसत्ता के 'समांतर' कॉलम में प्रकाशित टिप्पणी.