Sunday, September 29, 2013

राजनीति पर मूर्ति का आवरण

28 सितम्बर 2013 की टाइम्स ऑफ  इण्डिया में लेखक और पूर्व राजनयिक श्री पवन के वर्मा का एक लेख छपा है 'व्हेन आर्ट मास्क्स पॉलिटिक्स'. मुझे यह लेख इतना ज़्यादा अच्छा लगा कि तुरंत इसका अनुवाद करने बैठ गया. तो प्रस्तुत है इस लेख का मेरा किया अनुवाद:  


नरेन्द्र मोदी एक उम्दा वक्ता हैं और बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार चुने जाने के बाद  हरियाणा के रेवाड़ी में उनके पहले सार्वजनिक भाषण ने इस बात के पर्याप्त  प्रमाण भी दे दिए हैं. लेकिन सरदार पटेल की उनकी भरपूर  तारीफ से मुझे आश्चर्य हुआ है. मोदी ने घोषणा की है कि वे भारत के हर गांव से लोहा इकट्ठा  करके गुजरात में स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी से दुगुनी ऊँचाई की सरदार पटेल की एक मूर्ति लगवाएंगे जो दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति होगी.

मुझे आश्चर्य इसलिए हुआ  कि सरदार पटेल ही वे व्यक्ति थे जिन्होंने उस आरएसएस पर प्रतिबन्ध लगाया था जिसके सदस्य नरेन्द्र मोदी 15 बरस की कच्ची उम्र में बने थे और खुद उनकी स्वीकारोक्ति के अनुसार जिसका उनके जीवन और चिंतन प्रक्रिया को ढालने में अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान रहा है. जब 2 फरवरी, 1948 को “देश में काम कर रही आज़ादी को ख़तरे में डालने वाली और देश के नाम को कलंकित करने वाली नफरत और हिंसा की शक्तियों को उखाड़ फेंकने के”  अपने इरादे  के तहत भारत सरकार ने आरएसएस पर प्रतिबन्ध लगाया तब पटेल ही भारत के गृह मंत्री थे.

आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक गुरु माधव सदाशिव गोलवलकर के नाम लिखे अपने 11 सितम्बर, 1948 के एक पत्र में सरदार आरएसएस के नेताओं की बेबाक भर्त्सना करते हैं: “उनके सारे भाषण साम्प्रदायिक विष से भरे हुए हैं. हिन्दुओं में जोश का संचार करने और उनके संरक्षण के लिए संगठित करने के लिए ज़हर फैलाना ज़रूरी नहीं था. इस ज़हर के अंतिम परिणाम के रूप में देश को गांधीजी के मूल्यवान जीवन से हाथ धोना पड़ा.”

महत्वपूर्ण बात यह है कि महात्मा गांधी की हत्या में आरएसएस और हिन्दू महासभा की भूमिका को लेकर सरदार  के मन में कभी कोई संशय नहीं था. पण्डित नेहरु को लिखे 27 फरवरी, 1948 के पत्र में वे यह बात बहुत स्पष्टता के साथ कहते हैं: “हिंदू महासभा की कट्टर शाखा ने सीधे सावरकर के निर्देशन में इस षड़यंत्र की योजना  तैयार की और इसे क्रियान्वित  किया.... निस्संदेह आरएसएस और हिन्दू महासभा के जो लोग गांधी के सोचने के तरीकों और उनकी नीतियों के विरोधी थे उन्होंने उनकी हत्या का स्वागत किया.”  

श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लिखे एक अन्य पत्र (18 जुलाई, 1948) में वे इसी स्थिति  को  दुहराते हैं: “जहां तक आरएसएस और हिन्दू महासभा का सवाल है...हमारी रिपोर्ट्स इस बात की पुष्टि करती हैं कि इन दोनों संगठनों और ख़ास तौर पर पहले वाले संगठन की वजह से देश में एक ऐसा वातावरण बनाया गया जिसमें यह भयंकर त्रासदी सम्भव  हो सकी.”

प्रसंगवश, हालांकि अपने मुकदमे के समय नाथू राम गोडसे ने आरएसएस के साथ अपने किसी स्पष्ट सम्बन्ध से इंकार किया था, कई वर्षों के बाद जनवरी, 1994 में फ्रण्टलाइन पत्रिका को दिए गए एक इण्टरव्यू में उनके भाई गोपाल सच्चाई को लेकर एकदम स्पष्ट थे: “सभी भाई आरएसएस में थे, नाथूराम, दत्तात्रेय, मैं और गोविंद. बल्कि आप कह सकते हैं कि हम लोग अपने घर की बजाय आरएसएस में ही बड़े हुए. हमारे लिए वह एक परिवार की तरह था. नाथूराम आरएसएस में एक बौद्धिक कार्यवाह बन गए.  उन्होंने भी यह कहा है और इसे कभी छोड़ा  नहीं.” 

सरदार पटेल गांधीजी और उनके समावेशी नज़रिये के पक्के अनुयायी  थे. जिस संगठन आरएसएस ने मोदी का मार्गदर्शन  किया और उनके दुनियावी नज़रिये को गढ़ा उसके प्रति उनका प्रबल विरोध एक दस्तावेज़ी सच्चाई है. तो फिर पटेल को अपना कर और उनके प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए उनकी दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति बनाकर मोदी क्या कहने की कोशिश कर रहे हैं?

एक विचार तो यह हो सकता है कि आरएसएस के बारे में सरदार की राय से मोदी सहमत हों. आखिर इतने बड़े मुद्दे पर एक उत्साही प्रशंसक और उसके नव प्राप्त नायक के बीच इतना घोर मतभेद तो नहीं हो सकता है. अगर हो तो मोदी को स्पष्ट ऐसा कहना चाहिए. और अगर नहीं तो उन्हें  इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि वे चुने हुए विस्मरण और स्वार्थपूर्ण छल के एक सोच-समझे  प्रयास के द्वारा पटेल को सिंहत्व प्रदान कर रहे हैं, यानि देश के एकीकरण के लिए पटेल के प्रयास का गुणगान और जिन लोगों ने साम्प्रदायिक उन्माद और हिंसा की राजनीति के द्वारा देश को तोड़ने की कोशिश की उनके बारे में उनके कठोर विचारों की जानबूझकर अवहेलना.  

इस बात के  सुनिश्चित प्रमाण उपलब्ध  हैं कि मोदी को बीजेपी का नेतृत्व प्रदान करने के राजनीतिक चयन के बारे में आरएसएस ने एक महत्वपूर्ण  भूमिका निबाही है. ये प्रमाण इस बारे में भी बहुत स्पष्ट हैं कि मोदी आरएसएस की विचारधारा से बेहद प्रभावित हैं. जब सबसे ज्यादा समय तक और सर्वाधिक ‘सफल’ आरएसएस मुखिया गोलवलकर सरसंघचालक थे (1940-73) तब मोदी एक प्रचारक थे.

कहा जाता है कि मोदी ने उनकी तारीफ में एक किताब भी लिखी थी. तो क्या वे गोलवलकर के बहुत स्पष्टता से कहे गए इन विचारों से भी सहमत हैं कि भारत अनन्य रूप से एक हिन्दू राष्ट्र है, जिसमें अन्य विश्वासों वाले लोगों के लिए कोई जगह नहीं  है यहां तक कि उन्हें नागरिक अधिकर भी प्राप्त नहीं हैं? क्या वे, यहूदियों को समूल नष्ट कर देने के कृत्य को देश के लिए सबसे बड़े गर्व की बात मानने के लिए नाज़ी जर्मनी की गोलवलकर की तारीफ का भी समर्थन करते हैं? क्या वे भी गोलवलकर की ही तरह यह मानते हैं कि मनुस्मृति ही, जो कि शूद्रों  को ब्राह्मणों की सतत सेवा में लगाना चाहती है और स्त्रियों की अधीनता की बात करती है, देश के लिए एकमात्र वैध कानून है? मेरा खयाल है कि बीजेपी ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में इस प्रतिगामी सोच का महत्व कम करने और अपनी  राजनीतिक अपील का विस्तार करने का एक साहसिक प्रयास किया था.  लेकिन मोदी के उत्थान के साथ बीजेपी की निर्देशक विचारधारा के रूप में आरएसएस के  मूल दर्शन की वापसी हुई है.

अगर सरदार पटेल इस घटनाक्रम को देख रहे होंगे तो निस्संदेह वे बहुत दुःखी और साथ ही बहुत नाराज़ भी होंगे. नाराज़ इस बात के लिए कि जिनका  उन्होंने खुले तौर पर विरोध किया  वे ही चालाकी के साथ उन्हें अपना रहे हैं. और दुःखी इस बात के लिए कि उनके ये नए भक्त भारत  का जो प्रारूप पेश कर रहे हैं वह  उस प्रारूप से कितना अलहदा है जिसके लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया था.
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Sunday, September 15, 2013

शिक्षक दिवस पर स्मरण अपने ‘गुरुजी’ का!


 लगभग 35 साल खुद शिक्षक रह चुकने के भी दस बरस बाद भी मेरे मन में अपने अनेक शिक्षकों की स्मृतियां संचित  हैं.  करीब 16 बरसों (उन दिनों पूर्व प्राथमिक जैसा कुछ तो होता नहीं था) के अपने अध्ययन काल में अनेक शिक्षकों से पढ़ने और सीखने का मौका मिला. उनमें से बहुतों  की स्मृति तो  धूमिल होते-होते अब लगभग अदृश्य हो गई है, लेकिन कुछ की स्मृति कुछ इस तरह से ताज़ा है जैसे आज भी मैं उनसे शिक्षा ग्रहण कर रहा हूं. कभी मौका मिला तो उनमें से कुछेक को सलीके से स्मरण करूंगा, अभी तो अपने (निस्संकोच कह सकता हूं) सर्वाधिक प्रिय ‘गुरुजी’ को याद करना चाहूंगा. जी हां, वे मेरे लिए ‘सर!’ न होकर ‘गुरुजी’  ही थे.

मैं बात कर रहा हूं मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ प्रकाश आतुर की. अपने ज़माने के बहुत लोकप्रिय कवि थे वे, राजनीतिकर्मी भी और राजस्थान साहित्य अकादमी के ‘न भूतो न भविष्यति’ अध्यक्ष भी. उदयपुर के महाराणा भूपाल कॉलेज में 1961 में पहली बार बी.ए. प्रथम वर्ष के विद्यार्थी के रूप में मैं उनके सम्पर्क में आया,  लेकिन स्नातक अध्ययन के तीन वर्ष बहुत सामान्य रहे. बी.ए. पास करने के बाद विषम पारिवारिक परिस्थितियों के कारण मेरी पढ़ाई पर विराम लग गया, लेकिन एक संयोग की वजह से, डॉ आतुर के सहज स्वाभाविक और खुले व्यक्तित्व ने उस विराम को पूर्ण विराम बनने से पहले अल्प विराम में परिवर्तित कर एम. ए. हिंदी में मेरे प्रवेश का, और इसी के साथ मुझे अपना बना लेने का पथ प्रशस्त कर दिया. उनसे विद्यार्थी का मेरा रिश्ता दो बरस का ही नहीं रहा.  बाद में जब मैंने पी-एच.डी. करने का फैसला किया तो उन्हीं को अपना गाइड बनाया और 1984 में उनका पहला पी-एच.डी. होने का सौभाग्य भी प्राप्त किया. सितम्बर 1989 में उनके स्वर्गवास होने तक उनसे मेरा रिश्ता न सिर्फ बना रहा, लगातार प्रगाढ़ होता गया. मुझे अब भी अच्छी तरह से याद है कि उदयपुर में उनकी स्मृति में आयोजित एक श्रद्धांजलि सभा में अनायास मेरे मुंह से यह बात निकल गई थी कि “मैं नहीं जानता कि पुनर्जन्म होता है या नहीं होता है. लेकिन अगर मेरा एक और जन्म हो तो मैं चाहूंगा  कि मेरा वो जन्म  प्रकाश  आतुर के बेटे के रूप में ही हो.”

वे एक प्रभावी शिक्षक थे, अपने विषय पर उनकी बहुत मज़बूत पकड़ थी. लेकिन उनकी जो बात उन्हें सामान्य शिक्षक से अलग करती है वो है अपने विद्यार्थियों के प्रति उनका गहनतम अनुराग. आर्थिक अभावों से भरे अपने विद्यार्थी काल  में उनकी निजी लाइब्रेरी की अनगिनत किताबों ने मुझे कभी यह महसूस नहीं होने  दिया कि  ‘काश! यह किताब भी  मेरे पास होती.’  उनकी किताबों को मैंने ऐसे बरता जैसे मेरे पिताजी उन्हें मेरे वास्ते खरीद कर रख गए हों! और किताबें ही क्यों, उनके प्रभाव का प्रयोग भी तो ऐसे ही किया. लेकिन ऐसा  हुआ कैसे? मैं परम संकोची, और उस ज़माने में कॉलेज शिक्षक का अलग ही रुतबा होता था. मुझ जैसा अति सामान्य और संकोची विद्यार्थी किसी प्रोफेसर के नज़दीक आ सके, इसकी दूर-दूर तक कोई सम्भावना नहीं थी. लेकिन फिर भी यह चमत्कार हुआ. और इस चमत्कार के मूल में था उनका अपना वत्सल व्यक्तित्व.  एक अनुभव को साझा करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं. जिस दिन मुझे पी-एच.डी. की उपाधि मिलना तै हुआ उस दिन,  तब प्रचलित प्रथा के अनुसार,  शाम को एक बड़ी दावत मुझे आयोजित करनी चाहिए थी. लेकिन वो दावत डॉ आतुर ने अपने घर पर रखी. उस दावत में जो बहुत सारे लोग शरीक थे उनमें से एक तो आज केन्द्र सरकार में काबीना मंत्री हैं. दावत से ठीक पहले, मैंने बहुत संकोच के साथ  डॉ आतुर से अनुरोध किया कि इस दावत का व्यय भार मुझे वहन करने की अनुमति दें! लगभग तीस बरस बीत जाने के बाद भी उनका गुस्से से तमतमाया चेहरा मेरी स्मृति में ज्यों का त्यों बना हुआ  है. “तुम कौन होते हो? तुम कैसे कर सकते हो यह? आज डॉ आतुर के बेटे को पी-एच.डी. मिली है, तो खुशी भी वो ही मनाएगा!”


मैं चाहूं तो भी गिनती नहीं कर सकता कि कितनी बार उदयपुर में उनके घर भोजन किया और शाम बिताई है! जीवन में हर सुख दुःख में उनका वरद हस्त मुझ पर रहा. उन्होंने मुझे सब कुछ दिया, और बदले में मुझसे कभी कुछ  भी नहीं चाहा. आज जीवन की सन्ध्या वेला में जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो पाता हूं कि डॉ आतुर ने मेरे जीवन की धारा बदल दी. अगर  वे  मेरी ज़िन्दगी में न आए होते तो मैं न जाने कहां और कैसा होता? उन्होंने मुझे पढ़ने को प्रेरित किया. उन्होंने मुझे साहित्य से जोड़ा. उन्होंने कॉलेज शिक्षक बनने की मेरी दबी हुई आकांक्षा को खाद-पानी दिया. उन्होंने मेरी पीठ पर हाथ रख कर मेरी रीढ़ को सीधी रहने की क्षमता प्रदान की. यह मेरा सौभाग्य था कि गुरु के रूप में मुझे वे मिले. उनकी पावन स्मृति को नमन! 

Thursday, September 5, 2013

अपने अध्यापक साथियों को याद करते हुए....

अपने करीब साढ़े तीन दशक के अध्यापन  काल में अनगिनत शिक्षकों का साहचर्य मिला. उनमें से हरेक की कोई न कोई ख़ासियत थी. लेकिन वक़्त बीतने के साथ बहुत सारी स्मृतियां धूमिल होती जाती हैं. आज अगर चाहूं तो भी उनमें से बहुतों के नाम भी  याद नहीं कर पाता हूं. अभी पिछले दिनों फेसबुक की दीवाल पर एक पुराना फोटो पोस्ट  करते हुए यह बात और भी शिद्दत से महसूस हुई. लेकिन यह बहुत स्वाभाविक है. उम्र का इतना असर हो होगा ही.  फिर भी, आज शिक्षक दिवस पर अपने कुछ साथी ख़ास तौर पर याद आ रहे हैं.  सिरोही  कॉलेज में कुछ समय के लिए कहीं और से स्थानांतरित  होकर आए एक साथी जिनका चेहरा तो याद आ रहा है, नाम याद नहीं आ रहा इस सूची में सबसे ऊपर हैं. उन्होंने अपने विदाई समारोह में बहुत गर्व पूर्वक कहा था कि उन्होंने अपने जीवन में एक भी कक्षा  नहीं पढ़ाई है. तब शायद लगभग पन्द्रह साल तो वे नौकरी कर ही चुके थे. विदाई समारोह के बाद जलपान करते हुए मैं अनायास ही उनसे पूछ बैठा था, “और इस बात पर आपको कभी शर्म भी महसूस नहीं हुई?” इसी अनुभव की पुनरावृत्ति एक बार और हुई. तब मैं अध्यापन की दुनिया से शैक्षिक प्रशासन की दुनिया में आ चुका था और अपनी नौकरी के आखिरी पायदान पर था.  वहां एक साथी मिले, जिनका नाम मैं काफी सुनता रहा था और मेरा खयाल था कि वे गम्भीर अकादमिक रुझान वाले हैं. लेकिन वो छवि खुद उन्होंने ही बड़ी सहज निर्ममता से ध्वस्त कर दी. एक दिन खुद किसी सन्दर्भ में बताने लगे कि उन्होंने (अपने तीसेक बरस के) अध्यापन काल में एक भी कक्षा नहीं पढ़ाई! अपने शैक्षिक प्रशासन काल में मैंने ऐसे कई लोगों के बारे में भी जाना जिन्होंने बाह्य दुनिया में काफी नाम कमाया है और जिनकी छवि बहुत बड़े विद्वानों की है. लेकिन शिक्षा विभाग में रहते हुए भी, किसी न किसी तरह जोड़ तोड़ करके वे पढ़ाने से, कॉलेजों में जाने से, बचते रहे. कभी प्रतिनियुक्ति के बहाने तो कभी और किसी बहाने वे ऐसी जगहों पर काबिज होते रहे जहां उन्हें पढ़ाना न पड़े. आज उनके बारे में सोचता हूं तो मन में सबसे पहले यही सवाल उठता है कि आखिर वे कैसे विद्वान थे? अगर उन्हें पढ़ाने से इतनी ही वितृष्णा थी तो अध्यापक बने ही क्यों? और जिन्होंने ली हुई तनख्वाह के बदले में अपेक्षित दायित्व का निर्वहन नहीं किया, वे भला क्यों और कैसे विद्वान थे? लेकिन समाज में उनका बड़ा मान है. बहुत कुशलता से उन्होंने अपनी छवि जो निर्मित की  है.

एक और सज्जन  की याद आ रही है जो अब दुनिया में नहीं हैं. मेरे सहकर्मी थे. उस ज़माने में जब पी-एच.डी भी कम होते थे, वे डी.लिट थे. हम लोग एक छोटे-से कॉलेज में थे. जिन लोगों को कॉलेजों की दुनिया का ज़रा भी अन्दाज़ा है वे जानते हैं कि कॉलेजों में प्राध्यापकों को पढ़ाने के अलावा भी बहुत सारे काम करने होते हैं. जैसे कॉलेज की पत्रिका निकालना, छात्रसंघ के चुनाव करवाना, अनुशासन बनाए रखने में संस्था प्रधान की सहायता करना, एन.एस.एस, एन.सी.सी. आदि का काम करना, सह-शैक्षिक और शिक्षणेत्तर गतिविधियां आयोजित करना आदि-आदि. प्राचार्य लोगों की रुचि और रुझान के अनुसार ये काम उन्हें सौंपते हैं और लोग कमोबेश निष्ठा से ये काम करते हैं. हम सभी ने किए हैं. लेकिन जिन साथी को मैं स्मरण कर रहा हूं वे इनमें से किसी भी काम को हाथ नहीं लगाते थे. उन्होंने अपने चारों तरफ एक ऐसा प्रभा मण्डल बना रखा था कि इतना बड़ा विद्वान भला ऐसा काम कैसे करेगा? अगर किसी प्राचार्य ने कभी उन्हें कोई काम सौंपना भी चाहा तो उन्होंने यह कहते हुए कि मैं अपनी तरह का इकलौता विद्वान हूं, उस काम को करने दृढ़ता  से इंकार कर दिया. मैं कभी यह नहीं समझ पाया कि उनकी विद्वत्ता संस्था के लिए किस काम की थी? मेरे मन में तब यह सवाल अकसर उठता था कि किसी संस्था के लिए इस तरह के विद्वान ज़्यादा उपयोगी हैं, जो तिनका भी नहीं तोड़ते, या वे उत्साही प्राध्यापक ज़्यादा उपयोगी हैं, जिनके पास ऐसी कोई विरल डिग्री भले ही न हो, लेकिन वे संस्था का हर काम करने के लिए सदा  तैयार रहते हैं?  
     
और जब मैं यह चर्चा कर रहा हूं तो उन महान लोगों की तो कोई बात कर ही नहीं रहा हूं जिन्होंने वैसे तो नितांत लो-प्रोफाइल रखा, विद्वान वगैरह  की भी कोई छवि नहीं निर्मित की, लेकिन कॉलेज शिक्षा विभाग में नौकरी करते हुए भी पढ़ने-पढ़ाने से कभी कोई ताल्लुक नहीं रखा. ऐसे लोगों में से अनेक का ताल्लुक बड़े अफसरों और नेताओं वगैरह  से होता है और ये लोग किसी दन्द फन्द में पड़े बग़ैर चुपचाप अपनी तनख़्वाह लेते हैं और मज़े करते हैं. दुर्भाग्य की बात यह है कि ऐसे लोगों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा  रही है.  


लेकिन जब मैं इन तमाम लोगों को याद कर रहा हूं तो एक अलग तरह के साथी की याद भी मुझे आ रही है. मेरे ये साथी भौतिक शास्त्र के प्राध्यापक थे, और बहुत उम्दा प्राध्यापक थे. उनका हर विद्यार्थी उनके ज्ञान और उनकी अध्यापन शैली का मुरीद था. इस बात को कहने की ज़रूरत नहीं है कि भौतिक शास्त्र एक ऐसा विषय है जिसमें ट्यूशन का प्रचलन बहुत ज़्यादा है. लेकिन मेरे ये साथी ट्यूशन नहीं करते थे. बिल्कुल भी नहीं करते थे. ऐसा नहीं है कि ये कोई खानदानी अमीर थे और इन्हें पैसों की ज़रूरत नहीं थी. अगर ऐसा होता तो  इनकी पत्नी क्यों नौकरी करने के लिए रोज़ बसों के धक्के खातीं? लेकिन ट्यूशन ये नहीं करते थे. अपनी बात को सुधार कर कहूं तो यह कि वे फीस लेकर ट्यूशन नहीं करते थे. साल में दो-चार प्रतिभाशाली लेकिन साधन विहीन बच्चों को वे घर पर पढ़ाते भी थे. फीस की बात वे करते ही नहीं और जब विद्यार्थी बहुत ज़ोर देता तो उनका एक ही जवाब होता. जवाब यह होता कि जब तुम पढ़ लिखकर नौकरी करने लग जाओ, तो इसी तरह किसी को पढ़ा देना, बस यही मेरी फीस होगी. उन्होंने कभी अपने इस काम की चर्चा नहीं की, कभी इसके लिए कोई इनाम नहीं मांगा. बस, अपनी तरह अपना काम करते रहे. यह एक संयोग ही था कि अपनी नौकरी के आखिरी चरण  में हम दोनों को फिर से एक साथ काम करने का मौका मिला, और वहां भी मैंने उनमें वही आदर्श देखा. कहना अनावश्यक है कि ऐसे बहुत सारे लोग होंगे. ऐसे भी और वैसे भी.