Tuesday, December 24, 2013

जब एक विद्यार्थी ने पूरे कॉलेज को मामू बना डाला

प्रदेश में नई सरकार बन गई है और उसने जोर-शोर से काम शुरु कर दिया है. आम तौर पर सरकारें या तो शुरु में सक्रिय होती हैं या उस वक़्त जब उनके अस्तित्व पर कोई संकट आता है,  वरना तो वे सरक-सरक कर ही चलती हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि राजस्थान की नई सरकार इस धारणा को मिथ्या साबित करेगी और जन आकांक्षाओं पर खरी उतरेगी.  बहरहाल, मुझे आज याद आ रहा है 1975 का इमर्जेंसी का वो दौर जब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए तमाम प्रजातांत्रिक नागरिक अधिकारों को  स्थगित कर दिया.  

उन दिनों प्रधानमंत्री का  बीस सूत्री कार्यक्रम बहुत उत्साह से प्रचारित किया जा रहा था. जनता को बताया जा रहा  था कि यह कार्यक्रम उसकी हालत बदल देगा. सरकारी संस्थाओं पर यह अनकहा दबाव था कि वे जी-जान से इसके प्रचार-प्रसार में जुट जाएं. कुछ दबाव और इससे भी अधिक सरकारी अमले की वफ़ादारी. हर तरफ बीस-बीस का ही शोर था.  मैं उन दिनों राज्य के एक छोटे कस्बे के एक महाविद्यालय में हिन्दी पढ़ाया करता था. मेरे महाविद्यालय के प्राचार्य जी को भी अपनी वफ़ादारी  दिखाने का जोश चढ़ा  और उन्होंने आनन-फानन में बीस सूत्री कार्यक्रम से होने वाले फायदों पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन  करने की घोषणा कर डाली. उस छोटे कस्बे के छोटे महाविद्यालय में कोई सभा भवन तो था नहीं. एक बड़े कमरे में वह गोष्ठी आयोजित की गई. हर संस्थान में, और ख़ास तौर पर शिक्षण संस्थानों  में ऐसे कुछ लोग अवश्य ही होते हैं जो किसी भी विषय पर अपने अमूल्य विचार प्रस्तुत करने को सदा सुलभ रहते हैं. हक़ीक़त तो यह है कि ऐसे वीर पुरुषों के दम पर ही इस किस्म के  आयोजन सम्पन्न किए जाते हैं. संस्था प्रधान भी यही चाहता है कि कुछ लोग प्रस्ताव के पक्ष में कुछ सुन्दर-सुन्दर विचार व्यक्त कर दें और सुख शांति पूर्वक रस्म अदायगी हो जाए!  और यही उस गोष्ठी में भी हुआ. विद्वान प्राध्यापकों ने बताया कि बीस सूत्री कार्यक्रम के आते ही देश की तक़दीर बदलने की शुरुआत हो चुकी है और बस कुछ ही समय में सब कुछ फर्स्ट क्लास हो जाने वाला है. ‘मौका भी है, दस्तूर भी’ का निर्वहन करते हुए एक से बढ़कर एक अच्छी-अच्छी  बातें की गईं.

गोष्ठी समापन की तरफ़ बढ़ रही थी, तभी एक विद्यार्थी ने संयोजक से अनुरोध किया कि वह भी अपने विचार व्यक्त करना चाहता है. छोटा महाविद्यालय था, सभी सबको जानते थे. किसी तरह के ख़तरे की कोई आशंका नहीं थी. वो विद्यार्थी वैसे भी अच्छा वक्ता और लोकप्रिय डिबेटर था. अत:  संयोजक ने सहर्ष उसे बोलने की अनुमति दे दी. उस विद्यार्थी ने अन्य बातों के अलावा यह भी कहा कि प्रधानमंत्री जी ने बीती रात अपने बीस सूत्री कार्यक्रम में पाँच  सूत्र और जोड़े हैं और अब यह पच्चीस सूत्री कार्यक्रम हो गया है. उसने यह बात इतने आत्मविश्वास से कही कि बाद वाले किसी भी वक्ता ने न केवल उसकी  बात का खण्डन नहीं किया, पच्चीस सूत्री कार्यक्रम की ही आरती गाई. बाद में तो संयोजक ने भी उस गोष्ठी को प्रधानमंत्री के पच्चीस सूत्री कार्यक्रम के नाम कर दिया और प्राचार्य जी ने भी पच्चीस सूत्री कार्यक्रम की शान में ही कसीदे पढ़े.  आज की बात होती तो जब वह विद्यार्थी बोल रहा था तभी किसी ने अपने मोबाइल पर गूगल करके उसके कथन की सत्यता को जांच भी लिया होता. लेकिन याद रखें, वो ज़माना, इण्टरनेट का तो दूर,  टीवी का भी नहीं था. ख़बरों का एक मात्र माध्यम था सरकारी रेडियो या फिर 24 घण्टों में एक बार आने वाला अख़बार. यानि विद्यार्थी के कथन को तत्काल जांचने का कोई तरीका उपलब्ध ही नहीं था.  

गोष्ठी बहुत बढ़िया तरह से सम्पन्न हो गई. लेकिन कुछेक लोगों के मन में यह बात ज़रूर खटकती रही कि प्रधानमंत्री जी ने अपने बीस सूत्री कार्यक्रम को बढ़ाकर पच्चीस सूत्री कर दिया, और उन्हें ख़बर तक नहीं हुई! ऐसा कैसे हो गया? घर जाकर रेडियो सुना, तो पाया कि वहां तो बीस सूत्री कार्यक्रम का ही कीर्तन जारी था. किसी भी बुलेटिन में पच्चीस सूत्र नहीं थे. अगले दिन स्टाफ रूम में यही चर्चा थी. हरेक यही ताज्जुब कर रहा था कि जिन पच्चीस सूत्रों की बात उस विद्यार्थी ने कल की थी, वे तो कहीं थे ही नहीं.

ज़ाहिर है कि उस विद्यार्थी ने हम सबको मामू बना दिया था. आज भी वो घटना याद आती है तो उस विद्यार्थी के आत्मविश्वास भरे कौतुक और हम सबके अपनी जानकारी पर भरोसे की कमी को याद करते हुए एक मुस्कान उभर आती है.
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत दिनांक 24 दिसम्बर 2013 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.     

Tuesday, December 17, 2013

घर से बाहर घर जैसा खाना

भारतीय मध्यवर्ग के जीवन में बहुत तेज़ी से जो बदलाव आ रहे हैं उनमें से एक खान-पान को लेकर है. कहा जाता रहा है कि यह वर्ग अपने खान-पान की रुचियों को लेकर बहुत प्रयोगशील नहीं है, लेकिन यह स्थिति अब धीरे-धीरे बदल रही है. मध्यवर्ग भी अपने खान-पान को लेकर खासा प्रयोगशील  होता जा रहा है, जिसका प्रमाण  हैं हर शहर-कस्बे में नए नए खुलते जा रहे किसम-किसम के और देश-देश के  व्यंजनों के आउटलेट्स.

मध्यवर्ग में बाहर खाने का प्रचलन भी बहुत तेज़ी से बढ़ा है. बहुत ज़्यादा समय नहीं बीता है जब इस वर्ग  में बाहर खाने-पीने को लेकर संकोच ही नहीं, अस्वीकार का भी भाव हुआ करता था. लेकिन अब हालत यह हो गई है कि अगर आप सप्ताहांत में बाहर खाना खाना चाहें तो आपको एक से ज़्यादा जगहों पर घूमना पड़ सकता है या काफी प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है. न केवल सप्ताहांतों में, तीज-त्यौहारों पर भी बाहर खाने का चलन बढ़ता जा रहा है. छोटे-मोटे पारिवारिक आयोजन रेस्तराओं में होने लगे हैं और अब तो भाई-दूज जैसे मौकों पर भी बहन-भाई घर की बजाय रेस्तरां को पसन्द करने लगे हैं. करवा चौथ जैसे अवसरों पर तो यह बात और जुड़ जाती है कि पति व्रत  रखने वाली प्रेमिल पत्नी को चूल्हे-चौके के झंझट से बचा रहा है.  बाहर खाने को स्त्री मुक्ति के साथ भी जोड़ कर देखा जाने लगा है. वही बात कि कम से कम एक दिन तो स्त्री को घर के इस तरह के कामों से मुक्ति मिले.

लोगों के खान-पान की आदतों में आए बदलाव को बाज़ार में आ रहे नए-नए व्यंजनों या उनके सहायक पदार्थों की भारी भीड़ में भी देखा जा सकता है. अनेक तरह के पैकेट आने लगे हैं जिन्हें ‘बस दो मिनिट’ में कम से कम मेहनत में आप टेबल पर लाकर खाने  योग्य बना सकते हैं. रेडीमेड मसाले या तैयार अदरक लहसुन मिर्ची इमली  आदि के पेस्ट भी इसी श्रंखला में हैं. इस सबके बीच जो बात मुझे सबसे मज़ेदार लगती है वो यह है कि चीज़ों को बेचने के लिए क्या-क्या किया जाता है.

आप देखेंगे कि बाज़ार में जो उत्पाद बेचे जाते हैं वे आपको बताते हैं कि उनका उपयोग करके आप घर पर होटल जैसा खाना तैयार कर उसका मज़ा ले सकते हैं. यहां एक साथ अर्थशास्त्र और स्वाद शास्त्र की मदद लेकर आपको आकर्षित किया जाता है. होटल में जाना महंगा होता है, इसलिए आप उस उत्पाद का प्रयोग कर घर पर ही होटल वाले शानदार स्वाद का मज़ा ले लीजिए!  लेकिन आपने यह  भी देखा होगा कि बहुत सारे होटल, और उनमें भी वो जो खासे महंगे होते हैं, आपको ‘घर जैसे खाने’ का लालच देते हैं. उनके विज्ञापनों को देखकर अक्सर मुझे विज्ञापन लिखने वालों की सूझ-बूझ पर सन्देह होने लगता है. फिर सोचता हूं कि हो सकता है यह निमंत्रण उन ‘बेचारों’ के लिए हो जिन्हें नौकरी या टूअर आदि के कारण घर से बाहर रहना पड़ रहा हो और जो घर को बुरी तरह मिस कर रहे हों! मैंने कभी  इस तरह के रेस्तरां के व्यंजनों का स्वाद नहीं चखा है. लेकिन जानने की उत्सुकता ज़रूर है कि क्या वे लोग भी घिया की सब्ज़ी, मूंग की दाल और जली हुई, कड़ी या कल सुबह की बची रोटी सर्व करते हैं?

और इसी से मुझे याद आ रहा है अपने एक मित्र के साथ घटित एक प्रसंग. एक दिन मुलाक़ात हुई तो बातचीत  से पता चला कि उनके सामने के दो दाँत भूतपूर्व हो गए हैं. कारण  पूछा तो उन्होंने बताया कि कल उनकी धर्म पत्नी जी ने जो रोटी  बनाई थी वो बहुत कड़ी थी! मैंने बहुत सहज भाव से कहा, “तो आपको खाने से मना कर देना चाहिए था!” और उन्होंने उससे भी अधिक सहज भाव से जवाब दिया, “वो ही तो किया था!” आशा करता हूं कि घर जैसा खाना खिलाने का वादा करने वाले होटल यह भी ज़रूर करते होंगे.

असल में यह जो बाहर खाने-वाने का चलन बढ़ा है इसमें एक बहुत बड़ी भूमिका इस बात की भी है कि स्त्रियां बहुत बड़ी तादाद में घर से बाहर निकल कर नौकरी वगैरह करने लगी हैं. यह स्वाभाविक ही है कि जब उन्होंने एक अतिरिक्त ज़िम्मेदारी ओढ़ी है तो अपने पहले वाले दायित्वों में से कुछ को वे हल्का करें. अब तो नई पीढ़ी  में बहुत सारे युगल ऐसे भी देखने को मिल जाते हैं जो सुबह आठ बजे नौकरी पर निकलते हैं और रात नौ बजे लौटते हैं. उनके यहां किसी भी पत्नी  से यह उम्मीद करना कि दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद वो अपने पतिदेव के सम्मान में गरमा गरम खाना तैयार कर परोसेगी, न केवल अव्यावहारिक, बल्कि अमानवीय भी होगा. और मुझे लगता है कि अगर हम स्त्रियों का बाहर काम करना स्वीकार कर सकते हैं तो फिर लोगों के बाहर खाना खाने को भी उसी सहज भाव से स्वीकार करना चाहिए.  
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय  अपराह्न दैनिक  न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 17 दिसम्बर, 2013 को  होटल में घर का स्वाद...अजब पहेली शीर्षक से प्रकाशित टिप्पणी का मूल आलेख! 

Tuesday, December 10, 2013

आगे की सुध ले....

चुनावों का एक दौर  पूरा हुआ. कुछ लोगों ने इसे  सत्ता का सेमी फाइनल भी कहा. और भी बहुत कुछ कहा. लेकिन फिलहाल मैं अभिव्यक्ति  पर, शब्दों के प्रयोग पर कोई विमर्श  शुरु नहीं कर रहा हूं. इसकी बजाय दो-तीन बातों पर आप सबका ध्यान खींचना चाह रहा हूं.

पहली बात तो यह कि करीब-करीब सब जगह इस बार रिकॉर्ड मतदान  हुआ. आज़ादी के इतने बरसों बाद हमारा मतदाता जागरूक होकर अपने मताधिकार का प्रयोग करने में अधिक सजग हुआ है, यह तो खुशी की बात है ही, प्रसन्नता इस बात की भी है कि निर्वाचन विभाग ने विभिन्न संचार माध्यमों का सदुपयोग कर मतदान के पक्ष में माहौल बनाया और अन्य बहुत सारे घटकों ने इस माहौल को अपना समर्थन देकर मज़बूत किया. परिणाम हम सबके सामने है. इससे यह भी भरोसा होता है कि अगर कोई काम मन लगाकर किया जाए तो उसके परिणाम भी निश्चित  रूप से सामने आते  हैं.

दूसरी बात यह है कि इस बार चुनाव परिणाम बहुत अप्रत्याशित रहे हैं. शायद  हर दफ़ा रहते हैं, लेकिन इस बार कुछ अधिक रहे. न जीतने वालों ने इतनी बड़ी जीत की उम्मीद की थी और न हारने वालों ने इतनी बड़ी हार की आशंका मन में रखी थी. ख़ास तौर पर अपने प्रांत राजस्थान में. मीडिया के अनुमान, एक्ज़िट पोल, ओपीनियन पोल, पण्डितों की भविष्यवाणियां – सब पीछे रह गए. यह अलग बात है कि परिणाम आ जाने के बाद पण्डित लोग (मेरा मतलब है राजनीतिक पण्डित लोग) अपनी-अपनी तरह से इन परिणामों की व्याख्या करते हुए दर्शा रहे हैं कि यह तो होना ही था. मेरा मन करता है कि उनसे पूछूं कि हुज़ूर अगर आप जानते थे तो पहले क्यों नहीं बोले? लेकिन फिर लगता है कि कुछ न कुछ कहना उनकी भी तो विवशता है. अब इस विवशता में वे अगर अपनी विद्वत्ता का भी थोड़ा तड़का लगा रहे हैं, तो इसे क्षम्य माना जाना चाहिए. लेकिन ये जो परिणाम सामने आए हैं, मुझे लगता है कि ये जाने वाली सरकार के लिए तो महत्व रखते ही हैं, आने वाली सरकार के लिए उससे भी अधिक महत्व रखते हैं. इन परिणामों  के बाद हमारे जन प्रतिनिधियों को, राजनीतिक दलों को, शासकों को, सरकारों  को यह बात समझ में आ जानी चाहिए कि जनता न तो सहन करती है और न माफ़. वो अब इतनी समझदार हो गई है कि उसके हाथ में जो ताकत है उसका इस्तेमाल कर आपको अर्श पर ले जा सकती है तो फर्श पर भी पटक सकती है. यानि आप उसकी उपेक्षा न करें.

और यह बात इस बार जो सरकार बनने वाली है उसके लिए तो और अधिक महत्व रखती है. इसलिए रखती है कि आज़ादी के बाद हमारे प्रांत की यह कदाचित पहली ऐसी सरकार होगी जिसके सामने इतना छोटा विपक्ष होगा. लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए, लेकिन इस बार जनता जनार्दन ने जो जनादेश दिया है उसमें संभवत: सत्ता पक्ष को ही यह दायित्व भी सौंप दिया है कि अपने कामों की निगरानी भी वह खुद करे. यह बहुत बड़ा दायित्व है. इस सरकार को निरंकुश हो जाने के फिसलन भरे किंतु मोहक मार्ग से खुद अपना बचाव करना होगा.

कभी-कभी मुझे लगता है कि हमारे देश में किसी भी सरकार के लिए जनाकांक्षाओं की कसौटी पर खरा उतरना नामुमकिन है. अगर आप एक नागरिक के रूप में मुझसे जानना चाहें तो मेरी तमन्ना यही होगी  कि मुझसे कम से कम टैक्स लिया जाए और सरकार  मुझे ज़्यादा से ज़्यादा दे. मेरे सारे काम वो करे. आम लोगों की इस अव्यावहारिक तमन्ना को कोई पूरा नहीं कर सकता. लेकिन दो चीज़ें तो हो ही सकती हैं. एक तो यह कि टैक्स लेने और सुविधाएं देने के बीच वाज़िब संतुलन बनाया जाए, और दूसरे यह कि जनता को यह भरोसा दिलाया जाए कि जितना उससे लिया जा रहा है, उसका सदुपयोग हो रहा है. अब तक की त्रासदी यही रही है कि लोगों को लगा है कि उनसे टैक्स आदि के रूप में जो लिया जा रहा है उसका सही उपयोग नहीं हो रहा है.

और एक आखिरी बात. अब तक तो यही देखने में आया है कि चुनाव से पहले जो लोग मतदाता को यह एहसास दिलाते नज़र आते थे कि मतदाता ही सर्वोपरि है, चुनाव परिणाम आने और विजयी हो जाने के बाद  वे पहुंच से परे हो जाते हैं. जनता की सुध उन्हें पूरे पाँच बरस बाद ही आती है. जो लोग जीत कर आए हैं, उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि अब जनता इस बात को स्वीकार नहीं करने वाली है. उन्हें पूरे पाँच  बरस अपने मतदाताओं से जीवंत सम्पर्क बनाए रखना  होगा, और उनकी आशाओं-आकांक्षाओं की न केवल खोज-खबर  लेनी होगी, उनकी पूर्ति के लिए यथासम्भव  प्रयास भी करते रहना होगा. अगर ऐसा न किया गया तो जनता को 2013 को दुहराने में कोई संकोच नहीं होगा.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'कुछ इधर कुछ उधर' में 10 दिसम्बर, 2013  को प्रकाशित टिप्पणी का मूल आलेख.       

Tuesday, December 3, 2013

हम तो लुट गए खड़े ही खड़े

शादियों का सीज़न पूरे यौवन पर है. सड़क पर निकलिये  तो आपको कहीं पता चलेगा कि ये देश वीर जवानों का है और थोड़ा आगे निकलेंगे तो मेरे यार की शादी है की नाचती-गाती  मुनादी सुनाई देगी. शादी का मतलब सबके लिए अलग-अलग होता है. दूल्हा दुल्हन के लिए अलग, उनके मां-बाप के लिए अलग, रिश्तेदारों के लिए अलग, और उन ‘मानस के राजहंसों’ के लिए अलग जिन्हें बुलाने को स्नेह निमंत्रण भेजे जाते हैं. इन बेचारे मानस के राजहंसों  की हालत हर आने वाले निमंत्रण के साथ पतली होती जाती है. महीने के बजट में उस निमंत्रण पत्र का मान कैसे फिट होगा, ज़्यादातर मध्यमवर्गीय लोगों  के  लिए यह सोच उस शादी के समारोह के उल्लास की समस्त सम्भावनाओं पर भारी पड़ा जाता है.
 
मुझे अपनी नौकरी के वे शुरुआती दिन याद हैं जब हमारे कॉलेज में कोई बीसेक प्राध्यापक हुआ करते थे और कॉलेज के किसी भी विद्यार्थी के परिवार में अगर शादी होती तो वो अपने किसी विश्वास पात्र को इस बात के लिए तैनात करता कि वो सारे प्राध्यापकों को लेकर आए और उनका विशेष ध्यान रखे. जीमण, जी हां, तब जीमण होते थे, ज़मीन पर पंगत में बैठ कर होता था और तीन-चार युवा हम सबको मनुहार कर-करके जिमाते थे. भरपेट जीम लेने के बाद बारी आती थी ‘आशीर्वाद’ देने की. तब लिफाफों का प्रचलन नहीं हुआ था. हमारे एक साथी इस काम में माहिर माने जाते थे इसलिए  हम सब उनको आगे करते और वे अपने हाथ में एक-एक रुपये के पाँच  नोट ताश  के पत्तों की तरह जमा कर वर या वधू के पिताश्री को भेंट करते. साथ-साथ वे हें-हें भी करते जाते. हम सब भी उनका अनुसरण करते. 

तब से अब तक देश की सारी नदियों में बहुत सारा पानी बह गया है. जीमण  की  जगह वृषभ भोज ने ले ली है. मेरा मतलब है बफ़े डिनर से  है. यह इतना आम हो गया है कि अब लोगों ने इसका उपहास करना भी बन्द कर दिया है. बफ़े डिनर के साथ-साथ शादियों का आकार इतना बड़ा होने लगा है कि न बुलाने वाला आपको पहचानता है और न आप अपने होस्ट को जानते हैं. एक शादी में आव भगत करने वाली सजी-धजी विनम्र  युवतियों  को मैं बहुत देर तक घर परिवार की सदस्याएं मानकर उनका अभिवादन करता रहा. और एक अन्य शादी में पहुंच कर शीतल पेय आदि ग्रहण करने के बाद जब अचानक एक पुराने मित्र से भेंट हुई और थोड़ी इधर-उधर की बातें  हुई मुझे पता चला कि जिस शादी में मुझे शामिल होना है वो तो दूसरी तरफ के पाण्डाल में है. ऐसे अनेक किस्से हैं.

जब भी शादियों की बात होती है, मुझे बरसों पहले की एक घटना याद आए बग़ैर नहीं रहती है. मेरे एक प्रिंसिपल महोदय की बेटी की शादी थी. प्रिंसिपल भी ऐसे वैसे नहीं, अंग्रेजों के जमाने के जेलर-नुमा. उनके यहां शादी में हमने पहली बार देखा कि ‘आशीर्वाद’ स्वीकार करने के लिए बाकायदा एक काउण्टर लगाया गया था, जिस पर उनके एक नज़दीकी  रिश्तेदार तैनात थे. ज़ाहिर है कि वे हममें से किसी को नहीं जानते थे. वैसे तो उस ज़माने में शादियों का आकार क्योंकि छोटा होता था, वर या वधू के परिवार के लोग हर मेहमान से  व्यक्तिश: परिचित हुआ करते थे.  लेकिन यह तो अफसर की बेटी की शादी का मामला था. इसलिए व्यवस्था भी अलग तरह की थी. तब तक लिफाफों का प्रचलन नहीं हुआ था. नोट नंगे  ही दिए जाते थे. हममें से एक-एक प्राध्यापक जाता, उन रिश्तेदार महोदय के सामने अपना पाँच रुपये का नोट पेश करता, वे नाम पूछते और उसी नोट पर वह नाम लिखकर अपने हाथ में लिए एक हैण्ड बैग में रख लेते. इस तरह हम सब मुलाजिमों ने अपना दायित्व निर्वहन कर लिया. तभी शहर के एक नामी वकील साहब वहां आए. उन्होंने बड़ी ठसक से अपनी जेब से सौ रुपये का नोट निकाला, और उन प्रभारी रिश्तेदार महोदय को पेश किया. तब क्योंकि शादी में आशीर्वाद के लिए पाँच  रुपये का रेट फिक्स्ड था, रिश्तेदार महोदय ने बहुत सहज भाव से उस सौ रुपये के नोट पर उन वकील साहब का नाम लिखा और अपने उस हैण्ड बैग से हम सबके दिए हुए नोट  निकाल कर उन वकील साहब को दे दिए.
सोच सकते हैं, तब हम सबके दिल पर क्या गुज़री होगी? बेहोश  होकर धराशायी होने में बस थोड़ी ही कमी रही. अफसोस केवल अपने पाँच  रुपयों का नहीं था, उससे भी ज़्यादा फिक्र इस बात की थी कि प्रिंसिपल साहब के दरबार में हमारा ‘आशीर्वाद’ गैर हाज़िर पाया जाएगा तो उनको कितना बुरा लगेगा! औरों की मैं नहीं जानता, मुझे तो अपने प्रिय कवि नीरज बुरी तरह याद आ रहे थे – कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

लेकिन क्या ज़माना था वो भी!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न  दैनिक न्यूज़ टुडै में प्रकाशित होने वाले म्रे साप्ताहिक  कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत दिनांक 03 दिसम्बर 2013 को प्रिंसिपल के दरबार  में हमारा 'आशीर्वाद' गैर हाज़िर शीर्षक से प्रकाशित टीप का मूल आलेख. 

Tuesday, November 26, 2013

चुनावी ड्यूटियों के मज़ेदार अनुभव

राजनीतिक दलों, उम्मीदवारों और आम जनता के लिए चुनाव का चाहे जो मतलब हो, अधिकांश  सरकारी कर्मचारियों के लिए तो चुनावी ड्यूटी एक बहुत बड़े संकट का पर्याय होती है. तीन-चार दिन घर से बाहर, किसी अजनबी और सुविधा विहीन जगह पर रहना और एक ऐसे महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वहन करना जिसमें किसी छोटी  से छोटी चूक की बहुत बड़ी सज़ा अवश्यम्भावी हो,  भला किसको रास आ सकता है? शायद यही वजह है कि हर चुनाव के समय सरकारी कर्मचारी इन ड्यूटियों से मुक्ति पाने के लिए तमाम तरह के जुगाड़ करते देखे जाते हैं. लेकिन फिर भी ड्यूटी तो करनी ही  होती  है, लोग करते भी हैं, और उसके मज़े भी लेते हैं.

अपनी तीन दशक लम्बी  नौकरी में मैंने नगरपालिका से लगाकर लोक सभा तक के तमाम चुनाव करवाए हैं. कॉलेज के चुनाव तो खैर करवाए ही हैं और अब बिना किसी संकोच के कह सकता हूं कि जिसने कॉलेज के चुनाव करवा लिए वो कहीं के भी चुनाव को दांये-बांये हाथ का नहीं, हाथ की एक उँगली का खेल समझ सकता है. हमने भी इसी भाव से तमाम चुनाव करवाए और खूब मज़े लेकर करवाए. अब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो याद आता है कि हमें चुनाव का सबसे रोचक हिस्सा उसका प्रशिक्षण लगता था. प्रशिक्षण का दायित्व आम तौर पर प्रशासन वाले लोगों का होता था और हम कॉलेज शिक्षा  वालों और प्रशासन के बीच छत्तीस  का रिश्ता  जग जाहिर है. यह प्रशिक्षण कार्यक्रम हमें उन लोगों की खिंचाई का अवसर देता था.

पढ़ाने लिखाने वालों में किताबों को चाट जाने का शौक तो होता ही है. हमारे कुछ साथी भी चुनाव की मार्ग दर्शिका को लगभग घोट कर पी जाया करते थे. और उसके बाद वे प्रशिक्षण कार्यक्रम में प्रशिक्षण देने वालों से वो वो बारीक सवाल करते कि  उनसे जवाब देने नहीं बनता. एक बार हुआ यह कि जो सज्जन प्रशिक्षण दे रहे थे, उनके पास हमारी शंका का कोई तर्कपूर्ण समाधान नहीं था. लेकिन वे अपनी कमी तो भला कैसे स्वीकार करते! तो उन्होंने बड़े आत्मविश्वास के साथ हमारे प्रश्नकर्ता साथी को कहा कि अगर वैसी स्थिति आए तो आपको अपना कॉमन सेंस इस्तेमाल करना चाहिए. उनका उत्तर अपनी जगह सही था,  और हम सब करते भी यही हैं. लेकिन यहां तो बात मज़े लेने की थी ना! सवाल करने वाले हमारे साथी अपनी जगह से उठे, दो कदम आगे बढ़े, इधर-उधर देखा और बोले, “वो तो हम कर ही लेंगे, लेकिन आप तो यह बताइये कि इस बारे में ऑफिशियल प्रावधान क्या है?” और जैसे ही उन्होंने अपनी बात पूरी की, हममें से भी बहुत सारे लोग उनकी हां में हां मिलाते हुए उठ खड़े हुए. कलक्टर महोदय ने जैसे-तैसे बात को सम्भाल कर मामले का पटाक्षेप किया. 

अपनी नौकरी के उत्तर काल में जब अपनी वरिष्ठता के चलते मुझे ज़ोनल मजिस्ट्रेट के रूप में चुनाव ड्यूटी करने का मौका मिलने लगा  तो एक साथी ने एक मज़ेदार पाठ पढ़ाया. ड्यूटी के बाद हमको एक प्रतिवेदन भरना होता है जिसमें यह बताना होता है कि अपने दायित्व निर्वहन के दौरान हमें किन-किन परेशानियों से रू- ब- रू होना पड़ा और हमने उन स्थितियों में क्या किया. हम लोग आम तौर पर ‘कोई परेशानी नहीं आई’ लिखकर काम चलाते रहे. लेकिन एक मित्र ने, शायद अपने अर्जित अनुभव के आधार पर हमें सलाह दी कि हम ऐसा कभी नहीं लिखें. उन्होंने कहा कि हम ऐसा कुछ लिखें कि  वहां दो या अधिक गुटों के बीच पारस्परिक तनाव की वजह से स्थिति काफी विकट हो गई थी, लेकिन ‘अधोहस्ताक्षरकर्ता’ ने अपनी सूझ-बूझ का इस्तेमाल कर स्थिति को  सम्हाल लिया. ज़ाहिर है कि ऐसी  इबारत बिना किसी प्रमाण के लिखी जा सकती है. और इससे सम्बद्ध अधिकारी अप्रत्यक्ष रूप से बहुत दक्ष भी घोषित हो जाता है.   

एक और प्रसंग याद आता है. चुनाव करवा कर जब लौटते हैं तो स्वाभाविक है कि सारे लोग बहुत हैरान-परेशान और थके-मांदे होते हैं. चुनाव की सामग्री  और मत पेटियां वगैरह जमा करवाना शायद सबसे कठिन काम होता है. भीड़भाड़, धक्का-मुक्की और हरेक को ‘पहले मैं’ की जल्दी. प्रशासनिक अमले की अपनी दिक्कतें होती हैं. हम लोग भी रात नौ-साढ़े नौ बजे चुनाव करवा कर लौटे थे और अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे. तभी हमारे एक वरिष्ठ साथी भी मतदान सम्पन्न करवा कर लौटे. देखा कि सामान जमा करवाने में काफी देर लगने वाली है, तो सीधे उच्चाधिकारियों के पास पहुंचे  और बोले कि देखिये, मुझे रात को दिखाई नहीं देता है, इसलिए मैं तो घर जा रहा हूं. जब आपको सुविधा हो अपनी सामग्री मेरे घर से मंगवा लेना. उनका इतना कहना था कि जैसे पूरे अमले में बिजली दौड़ गई. सभी जानते हैं कि अगर एक भी मत  पेटी जमा होने से रह जाए तो कैसा हड़कम्प मचता है! अफसरों ने अतिरिक्त व्यवस्था  करके सबसे पहला उनका सामान जमा किया, और वे हम सबको हिकारत की नज़रों से देखते हुए विजयी  भाव से प्रस्थान कर गए.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक 'न्यूज़ टुडै' में आज दिनांक 26 नवम्बर, 2013 को प्रकाशित हुए मेरे साप्ताहिक कॉलम 'कुछ इधर कुछ उधर' के अंतर्गत प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 19, 2013

बूढों के लिए कोचिंग क्लास की ज़रूरत

अखबारों में प्राय: बुज़ुर्गों से दुर्व्यवहार या  उनकी उपेक्षा के समाचार पढ़ने को मिलते हैं. जहां भी दो-चार हम उम्र लोग मिलते हैं, अक्सर यही रोना रोया जाता है कि आजकल बूढ़े मां-बाप की कोई फिक्र नहीं करता है. लेकिन मेरे एक वरिष्ठ साहित्यिक मित्र अक्सर यह कहते हैं कि अगर उनके पास संसाधन हों तो वे वरिष्ठ लोगों के लिए कोचिंग क्लासेस लगाना चाहेंगे. उनका बहुत स्पष्ट विचार है कि अपनी बहुत सारी पीड़ाओं के लिए वरिष्ठ जन स्वयं उत्तरदायी हैं. 

मुझे भी लगता है कि हालात उतने बुरे तो नहीं हैं जितने मान लिए गए हैं, और यह भी कि अगर आपको कोई कष्ट न हो तो भी आपके शुभचिंतक भरसक कोशिश करते हैं कि आप महसूस  करें कि आप भयंकर कष्ट में हैं. यानि इस बात को एक सच के रूप में पंजीकृत कर लिया गया है कि नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को फूटी आंखों भी नहीं देखना चाहती है! होता यह है कि जब  वृद्ध या वरिष्ठ लोग अपने बच्चों के साथ रहते हैं और अगर वे कभी कोई काम करते हैं, जैसे सब्ज़ी लेने चले जाते हैं या अपने पोते पोतियों को स्कूल छोड़ने लेने चले जाते हैं तो उन्हीं  के साथी ताना मारते हैं और उनके मन में यह बात बिठा देते हैं कि उनका शोषण किया जा रहा है. और इस तरह जीवन में  जिस बात का आनंद  लिया जाना चाहिए उसी को वे बतौर सज़ा या शोषण  देखने समझने लगते हैं.

क्या सारा दोष नई पीढ़ी का है? क्या  पुरानी पीढ़ी से कहीं कोई चूक नहीं हो रही है? जब मैं इस बात पर सोचता हूं तो पाता हूं कि हममें से बहुत सारे लोग इस बात को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाते हैं कि अब हम निर्णायक नहीं रहे हैं. आप जब खुद गाड़ी चलाते हैं और जब आप गाड़ी चलाने वाले के बगल में बैठते हैं तब  में कुछ फर्क़ होता है. आप बगल में बैठकर भी चाहेंगे कि गाड़ी वैसे ही चलाई जाए जैसे आप चाहते हैं तो जो गाड़ी चला रहा है उसे असुविधा होगी. स्वस्थ बात तो यह होगी कि आप चैन से बैठें और उसे अपने विवेकानुसार गाड़ी चलाने दें. इस तरह वो भी अपना कर्तव्य निर्वहन करेगा और आप  भी यात्रा का आनंद लेंगे. लेकिन क्या ऐसा होता है? हम कभी यह मानने को तैयार ही नहीं होते हैं कि हमसे बेहतर ड्राइवर कोई और हो सकता है.

बड़ी विडम्बना यह है कि इस गतिशील जीवन में हम  स्थिरता चाहते हैं. हम चाहते हैं कि हम सदा अभिभावक बने रहें, और हमारे बच्चे भी कभी बड़े न हों! एक तरह से हम अपने पूर्वजों की संन्यास और वानप्रस्थ आश्रम वाली व्यवस्था को भी नकारने का हर सम्भव प्रयास करते हैं. बाप यह नहीं चाहता कि बेटा अपने विवेकानुसार अपना काम करे और मां यह नहीं चाहती कि बहू अपनी पसन्द और अपनी सुविधा के अनुसार घर चलाए!

पिछले कुछ बरसों में भारत में जीवन शैली में बहुत बदलाव आए हैं. आज से दस पन्द्रह बरस वाला जीवन अब विलुप्त हो गया है. आज की पीढ़ी का  खान-पान, पहनावा, लोक व्यवहार सब कुछ बदल चुका है. नए ज़माने में रह रही हमारी संतान को उसी नई जीवन-शैली के अनुरूप आचरण करना होता है. लेकिन दिक्कत यह होती है कि हमारे लिए समय ठहरा हुआ है और हम चाहते हैं कि हमारी संतान के लिए भी वो ठहरा हुआ ही रहे, जो मुमकिन नहीं है. टकराव की एक बड़ी वजह यह भी होती है. एक आदर्श स्थिति यह हो सकती है कि हम अपनी जीवन शैली को चाहे न बदलें, उन्हें यानि नई पीढ़ी  को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार जीवन जीने की प्रसन्नतापूर्ण छूट दें.

जब अपने बुज़ुर्गों के साथ युवाओं के बर्ताव की बात होती है तो चलते-चलते  प्राय: दो-चार हाथ पश्चिम  को भी जड़ दिए जाते हैं. हम शिखर पर हैं और वो गर्त में हैं – यह भाव आम है. अब जब हमने पश्चिमी जीवन  शैली को पूरी तरह अपना लिया है, समय आ गया है कि हम यह भी देखें कि उन्होंने इस स्थिति का सामना करने के लिए अपने यहां क्या सुरक्षा प्रबन्ध किए हैं! कभी हमारे यहां संयुक्त परिवार प्रथा थी जो परिवार में सभी को– बुज़ुर्गों को और बच्चों को भी-  पर्याप्त सुरक्षा देती थी. अब बहुत सारे कारणों  से संयुक्त परिवार लगभग खत्म हो गए हैं. ऐसे में हमें वैकल्पिक व्यवस्थाएं तो करनी ही होंगी. अगर हमने कामकाजी माताओं के शिशुओं के लिए डे केयर सेण्टर या क्रेश (Creche) जैसी सुविधाओं को स्वीकार किया है तो रिटायरमेण्ट होम्स और वृद्धाश्रमों (कोई सम्मानजनक नाम भी हो सकता है) को भी खुले मन से स्वीकार करने को तैयार रहना चाहिए. अगर बीते ज़माने में वानप्रस्थ की कल्पना थी तो आज वृद्धाश्रम क्यों स्वीकार्य नहीं हो सकता?  जीवन अपनी गति से चलेगा. बदलना तो हम को ही होगा.
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में प्रकाशित मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 19 नवम्बर, 2013 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  



Tuesday, November 12, 2013

यह हमारा निकम्मापन है या लालच?

सरकारें जनता के लिए बहुत सारे काम करती हैं, जैसे स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ कराती हैं, शिक्षण संस्थाएं  चलाती हैं, रेल और बस चलाती हैं, डाकघरों और बैंकों का संचालन करती हैं और भी काफी कुछ करती हैं. सैद्धांतिक रूप से कोई सरकार कभी अपव्यय  नहीं करना  चाहती इसलिए अक्सर  होता यह है कि मांग की तुलना में पूर्ति कम होती है और लोगों को इंतज़ार करना पड़ता है. हारी-बीमारी में आप अस्पताल पहुंचते तो पाते हैं कि वहां पंजीकरण से लगाकर डॉक्टर को दिखाने तक और फिर जांच कराने से लगाकर भर्ती होने तक और फिर अगर ज़रूरत हो तो ऑपरेशन वगैरह करवाने तक हर जगह लम्बी प्रतीक्षा कतार है. आपको कहीं जाना है तो पता लगता है कि ट्रेन में एक महीने की वेटिंग है, डाकखाने जाते हैं तो एक पोस्टकार्ड खरीदने या एक रजिस्ट्री करवाने के लिए आधा घण्टा क्यू में खड़ा रहना पड़ता है. और आज़ादी के बाद से हम सब यह करते-करते इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि प्रतीक्षा करना हमें अखरता भी नहीं है.

ऐसा नहीं है कि सरकारें जनता की ज़रूरतों के प्रति असंवेदनशील होती हैं. वे इन सुविधाओं में वृद्धि भी करती हैं, लेकिन सरकारी कार्यप्रणाली ही कुछ ऐसी है कि सोचने और करने के बीच वक़्त का काफी लम्बा फासला रहता है. किसी अस्पताल की शैयाओं और डॉक्टरों की संख्या में वास्तव में वृद्धि होते होते इतना समय लग जाता है कि तब तक ज़रूरत फिर काफी बढ़ चुकी होती है और वह वृद्धि ऊँट के मुंह में जीरे के समान लगने  लगती है.

जब से देश में निजीकरण की हवा बहने लगी है, बहुत सारी सुविधाएं निजी क्षेत्र में भी उपलब्ध होने लगी हैं और जो लोग साधन सम्पन्न हैं वे निशुल्क सुलभ सरकारी सेवाओं की बजाय इन सशुल्क सेवाओं की तरफ भी जाने लगे हैं. निजी अस्पताल, निजी स्कूल कॉलेज, निजी बैंकों, कूरियर सेवाओं  वगैरह  का कारोबार खूब फल फूल रहा है. निश्चय ही कुछ मामलों में ये निजी सेवाएं सरकारी सेवाओं से बेहतर भी हैं. इनके परिसर बेहतर प्रबन्धित हैं,  और यहां जो लोग सेवाएं देते हैं, उनका व्यवहार भी आम तौर पर सरकारी सेवा देने वालों के व्यवहार से बेहतर होता है. बात  को स्पष्ट कर दूं. सरकारी सेवा देने वालों का व्यवहार दाता जैसा होता है और वे हमेशा आप पर एहसान करने वाली मुद्रा में रहते हैं, जबकि निजी क्षेत्र में जिन लोगों से आपका साबका पड़ता है वे आपके साथ अधिक सम्मानपूर्ण बर्ताव करते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम होता है कि आपकी शिकायत उनकी नौकरी को ख़तरे में डाल सकती है.

लेकिन इधर मैं यह देख रहा हूं कि निजी क्षेत्र भी कई मामलों में सरकारी क्षेत्र जैसा होता जा रहा है. बहुत सारे मित्रों को स्मरण होगा कि जब हमारे यहां कूरियर सेवाओं की शुरुआत हुई थी तो हर चिट्ठी की पावती (जिसे पीओडी – प्रूफ ऑफ डिलीवरी कहा  जाता था) मिलती थी. अब मैं पाता हूं कि कुछ बहुत महंगी कूरियर सेवाओं के सिवा अधिकांश में यह व्यवस्था नहीं  रह गई है. आप किसी महंगे अस्पताल में जाते हैं और पाते हैं कि वहां भी पहले पर्ची बनवाने के लिए और फिर डॉक्टर को दिखाने के लिए आपको खासा इंतज़ार करना पड़ता है. उन लोगों को तो अपनी सुविधाओं का विस्तार करने में और नए लोगों की भर्ती करने में उन तमाम बाधाओं से नहीं गुज़रना पड़ता है जिनसे सरकारी तंत्र को गुज़रना पड़ता है, फिर भी हालात एक से क्यों होते हैं? निजी शिक्षण संस्थाओं की तो बात ही मत कीजिए. वहां के शिक्षकों से बात कीजिए तो शोषण की अनेक व्यथा-कथाएं आपको सुनने को मिल जाएंगी. कम वेतन, अधिक से अधिक काम. अब अगर ऐसे शोषित शिक्षक बच्चों से दुर्व्यवहार भी करें तो क्या ताज्जुब? कभी-कभी लगता है कि निजी और सरकारी शिक्षा  संस्थानों में बस परिसरों और शिक्षकों की टीम टाम का फर्क़ रह गया है.
                                
इस स्थिति की हास्यास्पद और एक हद तक अपमानजनक परिणति हाल ही में नगर के एक लोकप्रिय ग्राम्य रिसोर्ट में देखने को मिली. यह स्थल पर्यटकों के बीच बेहद लोकप्रिय है और गुलाबी नगरी में आने वाला हर पर्यटक एक बार तो यहां ज़रूर ही जाना चाहता है. इस बार वहां जाना हुआ तो मौज मज़े की बजाय भीड़-भड़क्के का माहौल देखने को मिला. यानि जितनी उस स्थान की क्षमता है उससे काफी अधिक पर्यटक वहां थे. और इस सबकी दारुण परिणति इस बात में हो रही थी कि वहां की भोजनशाला में प्रवेश करने से पहले आपको लगभग एक घण्टा धक्का-मुक्की वाले क्यू में खड़े रहना पड़ रहा था. कह सकता हूं कि लंगरों का माहौल इससे बेहतर होता है. हालत यह थी कि अन्दर लोग पंगत में बैठ कर जीम रहे थे और दरवाज़े पर खड़े लोग आंखें गड़ाये अपनी तमाम भंगिमाओं से जैसे उन्हें कह रहे थे – ‘अबे भुक्खड़! अब तो उठ! बहुत भकोस लिया!’ मैं सोच रहा था कि अगर ये लोग अपनी सुविधाओं का  विस्तार नहीं कर सकते तो कम से कम यह तो कर सकते हैं कि अपने इस स्थल की क्षमता निर्धारित  कर दें और उससे अधिक लोगों को विनम्रतापूर्वक वापस लौटा दिया करें! पश्चिम के अपने प्रवासों के दौरान मैंने देखा है कि हर रेस्तरां के बाहर यह अंकित होता है कि उसमें कितने लोगों को लिए जगह है और वे लोग उस क्षमता से अधिक लोगों को प्रवेश नहीं देते हैं. हमारे यहां अगर ऐसा नहीं होता है तो इसे आप हमारा लालच कहेंगे या निकम्मापन? 


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जयपुर से प्रकाशित अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत दिनांक 12 नवंबर 2013 को प्रकाशित आलेख  का मूल पाठ. 

Tuesday, November 5, 2013

प्रवक्ता प्रशिक्षण महाविद्यालय

इधर जब से वीवीआईपी लोगों के सरकारी मेहमान बनने का सिलसिला परवान चढ़ा है, उनके प्रवक्ताओं की मांग और महत्व में भी बड़ा उछाल आया है. जब तक ये सरकारी मेहमान नहीं बने थे, किसी को पता भी नहीं था कि इनके पास भी प्रवक्ता नामक पुछल्ला है. लेकिन जब से हुज़ूर अन्दर हुए हैं, प्रवक्ता ही हैं जो बिना नागा छोटे पर्दे पर अपनी काबलियत के जलवे बिखेरते नज़र आते हैं. इन प्रवक्ताओं का काम है बड़ा मुश्क़िल. आखिर दागदार को बेदाग साबित करना कोई बच्चों का खेल थोड़े ही है! जैसा ये  खुद कहते हैं, आजकल मीडिया ट्रायल का ज़माना है और उसी मीडिया ट्रायल में ये अपने पूरे दमखम के साथ अपने मालिक को पाक दामन साबित करने के लिए तमाम तरह के करतब करते नज़र आते हैं.

मुझे यह उम्मीद है कि वीवीआईपी लोगों के सरकारी मेहमान बनने का यह सिलसिला चलता रहेगा और इसलिए इनके प्रवक्ताओं की मांग भी बढ़ेगी. शिक्षा के क्षेत्र में अपने लम्बे अनुभव और फिलहाल फुर्सत में होने के कारण मैं सोच रहा हूं कि क्यों न एक प्रवक्ता प्रशिक्षण महाविद्यालय खोल लिया जाए! इस दिशा में मैंने कुछ चिंतन किया है. उसी को आपके सामने पेश कर रहा हूं. अगर आप भी कुछ सुझाव देंगे तो मेरी योजना और बेहतर हो जाएगी, और अगर आपका समर्थन मिला तो मैं जल्दी ही यह महाविद्यालय शुरु करके देश की सेवा कर सकूंगा.  इतना  तो मैंने जान ही लिया है कि अपने यहां जो कुछ भी होता है वो देश के लिए होता है, खुद के लिए नहीं. यहां तक कि अपनी जेब का पैसा खर्च करके तीर्थ यात्रा पर जाने वाले भी अपने लिए कुछ नहीं मांगते हैं, देश के लिए ही मांगते हैं.

मेरी सोच  यह है कि  इस महाविद्यालय में प्रवेश के लिए किसी शैक्षिक योग्यता की  कोई ज़रूरत नहीं होनी चाहिए. जो भी चाहे प्रवेश ले सकता है. लेकिन अगर वो लफ्फाज हो, अगर बिना रुके, बिना किसी की टोका-टोकी से  प्रभावित हुए, और बिना यह सोचे कि जो वह बोल रहा है उसका पूछे गए सवाल से कोई लेना-देना है भी या नहीं, तो वो हमारे महाविद्यालय का एक बेहतर विद्यार्थी साबित हो सकता है. प्रवेश मिल जाने के बाद हम सबसे पहले तो उसे सौ दौ सौ शेर, इतने ही श्लोक और दस-बीस उद्धरण अंग्रेजी के रटवाएंगे. एक पीरियड  प्रैक्टिकल का  भी होगा  जहां विद्यार्थियों को बहुत ऊंची आवाज़ में बोलने का अभ्यास कराया जाएगा. उस कालांश  में उन्हें यह भी सिखाया जाएगा कि अगर सामने वाला कोई वज़नी तर्क दे, या उनसे कोई ऐसा सवाल पूछ लिया जाय जिसका जवाब उनके पास न हो या जिसका जवाब देना उसके बॉस के हितों के अनुकूल न हो तो किस  तरह उन्हें  अपनी आवाज़ को तार सप्तक तक ले जाकर सामने वाले की आवाज़ को दबा देना है. जब सामने वाले की बात या उसका सवाल लोग सुनेंगे ही नहीं तो बॉस के हित की कुछ न कुछ रक्षा तो हो  ही जाएगी.

हम अपने इन विद्यार्थियों को यह भी सिखाएंगे कि एंकर या चर्चा के अन्य प्रतिभागी चाहे उनके बारे में कितनी ही प्रतिकूल टिप्पणी क्यों न करे, उन्हें  अविचलित रहना चाहिए. मसलन सामने वाला कहे कि हमने जो पूछा है आप उसका जवाब नहीं दे रहे हैं, तो भी इसे उसको अनसुना करके वही कहते रहना चाहिए और अगर कुछ और न सूझे तो उसी बात को दुबारा-तिबारा कहने से भी नहीं हिचकना चाहिए. हम अपने इन विद्यार्थियों को बहुत सारी शाश्वत और सैद्धांतिक बातें भी कंठस्थ करवा देंगे ताकि जब ये किसी ऐसे सवाल में  उलझें जिसका जवाब देना इनके मालिक के हित में न हों तो वह सिद्धांत चर्चा शुरु कर दें और सामने वाले से पूरी दबंगई से पूछें कि बताओ आप इससे सहमत हो या नहीं! अगर सामने वाला प्रतिप्रश्न करे कि इस बात का मूल चर्चा से क्या सम्बन्ध है तो इन्हें चाहिए कि उसी बल्कि उससे भी अधिक अत्मविश्वास से अपने खज़ाने से दूसरा प्रसंग निकाल कर सामने वालों के मुंह पर दे मारें! वे हतप्रभ रह जाएंगे और आपका काम बन जाएगा.

हमारा सबसे अधिक बल इस बात पर होगा कि हमारे यहां प्रशिक्षण लेने वालों में आत्मविश्वास भरपूर  मात्रा में आ जाए. हम ठोकपीट कर उन्हें ऐसा बना देंगे कि किसी भी स्थिति में उनका आत्मविश्वास न डगमगाए. अपने प्रशिक्षण को बेहतर बनाने के लिए हम ऑडियो वीडियो सामग्री की भी खूब मदद लेंगे और कुछ कामयाब प्रवक्ताओं, कुछ बाबाओं, कुछ नेताओं, कुछ कॉमेडी कलाकारों के वीडियो बार-बार अपने विद्यार्थियों को दिखा कर उनके अनुभव को धार देंगे.

हमें पूरा भरोसा है कि हमारे यहां से प्रशिक्षित प्रवक्ता अधम से अधम, नीच से नीच, पापी से पापी बॉस का बहुत कामयाबी से बचाव कर सकेंगे और टीवी के पर्दे पर होने वाली बहसों और चर्चाओं में उन्हें उजली छवि वाला साबित कर पाएंगे.   जैसा मैंने शुरु में ही कह दिया है इस क्षेत्र में रोज़गार की अपरिमित सम्भावनाएं हैं और उनमें और वृद्धि की पूरी उम्मीद है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक 'न्यूज़ टुडै' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'कुछ इधर कुछ उधर' के अंतर्गत दिनांक 5 नवंबर, 2013 को किंचित परिवर्तित रूप में प्रकाशित  मेरी टिप्पणी  का मूल आलेख! 

Wednesday, October 30, 2013

कौन बदला है: समय, संगीत या सुनने वाले?

जयपुर से प्रकाशित अपराह्न समाचार पत्र न्यूज़ टुडै में 'कुछ इधर कुछ उधर' शीर्षक से मरा एक साप्ताहिक कॉलम पिछले कुछ समय से प्रकाशित हो रहा है. इस बार मैंने स्वर्गीय मन्ना डे को याद करते हुए एक टिप्पणी लिखी थी. कुछ व्यावहारिक कारणों  से  वह टिप्पणी प्रकाशित नहीं हो सकी और मुझे उसमें थोड़ा परिवर्तन करना पड़ा. 

यहां ये दोनों टिप्पणियां प्रस्तुत हैं. पहले मेरी मूल टिप्पणी, और फिर उसके नीचे वो टिप्पणी जो बदलाव के बाद आज 30 अक्टोबर को प्रकाशित हुई. 

1. 
हाल ही में जयपुर में ए आर रहमान को कंसर्ट में देखने-सुनने का मौका मिला. क्या तो चकाचक इंतज़ाम और क्या झक्कास प्रस्तुतियां! तीन घण्टे कब और कैसे बीते पता ही नहीं चला. रोशनी की चकाचौंध, तकनीक के नायाब चमत्कार, लगभग कानों  को फाड़ देने वाली (लेकिन फिर भी  कर्कश नहीं) ध्वनि. और भीड़! उसका तो कहना ही क्या! युवा लोग जिस तरह कुर्सियों पर खड़े होकर और अनवरत नाचते हुए उस कंसर्ट का आनन्द ले रहे थे उसे देखना एक अलग तरह का अनुभव था. और जब इतना सब कुछ हो तो यह बात करने की ज़रूरत ही कहां रह जाती है कि उस कंसर्ट में क्या गाया और क्या बजाया गया! हमारे आस-पास जो भीड़ थी, उसे भी शायद इस बात से कम ही ताल्लुक था कि रहमान और उनकी मण्डली क्या गा-बजा रही है! उन्हें मतलब था तो इस बात से कि वे अपने खर्चे पैसों का पूरा मज़ा लें, और अपने मोबाइलों में जितना ज़्यादा मुमकिन हो उन क्षणों को कैद कर लें ताकि बाद में दोस्तों और परिचितों को बता सकें कि वे भी वहां मौज़ूद थे.  इससे यह न समझ लिया जाए कि उस कंसर्ट में संगीत नहीं था, या दोयम दर्ज़े का था. बेशक बेहतरीन संगीत वहां था, लेकिन जो लोग वहां, और कम से कम हमारे इर्द-गिर्द थे, उनकी बहुत कम रुचि उस संगीत में थी. रहमान के संगीत बद्ध किए सुरीले गानों में तो और भी कम.

यह बात मुझे बहुत शिद्दत से याद आई मन्ना डे के निधन की खबर पढ़ने के बाद. असल में जैसे ही मैंने मन्ना डे के निधन की खबर पढ़ी, मुझे कुछ बरस पहले पढ़ी एक कहानी याद आने लगी. कहानी जाने-माने कवि कुमार अम्बुज की लिखी हुई थी, और मन्ना डे को लेकर थी. कहानी का शीर्षक मुझे तुरंत याद नहीं आया. मैंने फेसबुक की अपनी वॉल पर उस कहानी का ज़िक्र किया, और कोई दस मिनिट भी नहीं बीते होंगे कि एक मित्र ने वह कहानी वहां पोस्ट कर दी. मैंने भी फिर से वह कहानी पढ़ी. कहानी का शीर्षक है ‘एक दिन मन्ना डे’. यह कहानी पढ़ते हुए ही मुझे रहमान के इस कंसर्ट का खयाल आया. मैं सोचने लगा कि फर्क संगीत में है या संवेदनाओं में? इस कहानी में नरेटर मन्ना डे का एक कंसर्ट सुनने  जाता है और वहां ‘प्रसाधन’ में अनायास उसकी मुलाकात एक अजीब इंसान से हो जाती है. वह आदमी रुंआसा है. जब हमारा नरेटर उससे उसकी उदासी का सबब पूछता है तो हमें पता चलता है कि वो आदमी इस बात को लेकर फिक्रमंद है कि मन्ना डे, जो 86 बरस के हो गए हैं, जब नहीं रहेंगे तो क्या होगा! – अजीब दुःख है ना यह! लेकिन वो आदमी सच्चा संगीत रसिक है, डूब कर संगीत सुनता है, बल्कि संगीत को ओढ़ता-बिछाता है. अपने प्रिय गायक को सुनते हुए महसूस करता है कि जैसा वो सामने गाते हैं वैसा कोई भी तकनीक प्रस्तुत नहीं कर सकती है. उसे इस बात का भी अफसोस है कि आज पुराने और अच्छे  गाने ढूंढे से भी नहीं मिलते हैं. और इसीलिए उसे फिक्र है कि डेढ़ सौ  दो सौ साल बाद लोग मन्ना डे की आवाज़ कैसे सुन पाएंगे!  हमारा नरेटर उसके ग़म को हल्का करने के लिए मज़ाक में कहता भी है कि तीस-चालीस साल बाद तो हम दोनों भी नहीं रह जाएंगे, फिर आप इतनी दूर की फिक्र क्यों कर  रहे हो, जिसके जवाब में वो कहता है कि  ‘आप नहीं समझ सकते!’


कहानी में आगे क्या होता है, यह बात यहां प्रासंगिक नहीं है इसलिए मैं भी  उसे छोड़ता हूं और वापस रहमान पर लौटता हूं. मतलब उनके श्रोताओं-दर्शकों  पर. मैं  सोच रहा था कि इतनी  भारी भीड़ में क्या एक भी श्रोता ऐसा  होगा जो इस महान संगीतकार के बारे में इस तरह से सोचता होगा? इस कहानी में तो वो व्यक्ति कहता है कि “ज़रूरत पड़ने पर मन्ना डे को मैं अपना खून, अपनी किडनी, अपना लिवर तक दे सकता हूं. लेकिन मन्ना डे  को यह बात मालूम होनी चाहिए ताकि वक़्त-ज़रूरत आने पर वे किसी तरह का संकोच न करें!” रहमान के इस कंसर्ट को देखते-सुनते हुए मुझे लगा कि समय बहुत बदल गया है. आज शायद संगीत को ऐसे लगाव के साथ नहीं सुना जाता  है. लोग  उसमें डूबते  नहीं हैं, बस सतह पर ही तैर कर लौट आते हैं. उनके  पास खूब  सारा पैसा है, दो-चार पाँच दस  हज़ार रुपये  का टिकिट खरीदते हैं और चाहते हैं  कि बदले में जो मिले वह पूरी तरह से ‘पैसा वसूल’ हो. अपनी तरफ से सुख को निचोड़ लेने  में वो भी कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.  हो सकता है मेरा सोचना ग़लत हो. व्यक्ति  नहीं बदला हो, संगीत ही बदल गया हो. शायद आज के संगीत को उस तरह से सुना ही नहीं जा सकता हो जिस तरह से मन्ना डे के ज़माने के संगीत को सुना जाता था.  आप क्या सोचते हैं?  

2. 
मन्ना डे चले गए! वैसे भी, इधर संगीत में जिस तरह के बदलाव हुए हैं उनके चलते मन्ना डे केन्द्र में नहीं रह गए थे. कुछ उम्र का तकाज़ा भी था. उम्र का असर आवाज़ पर पड़ना स्वाभाविक है और जिस फिल्मी दुनिया के लिए मन्ना डे गाते रहे, उसमें बूढों के लिए गाने की सम्भावनाएं नहीं के बराबर है. लेकिन मैं जिस बदलाव की बात करना चाहता हूं वह कलाओं से हमारे रिश्तों में  आया बदलाव है. राजेन्द्र यादव के निधन पर बहुत सारे लोगों ने याद किया है कि किस तरह वे उनकी किताबों खरीदने के लिए बेताब रहा करते थे. यही हाल संगीत का भी रहा है. मैं अपने एक मित्र से जुड़ा एक अनुभव आपसे साझा करना चाहता हूं.  बात 1967 की है. वर्ष  इसलिए याद है कि उसी साल मैंने नौकरी शुरु की थी. अपने एक प्राध्यापक साथी के घर गया तो उनके पास मोहम्मद रफी और बेग़म अख़्तर की आवाज़ वाला गालिब की ग़ज़लों का एक एल पी देखा. मैंने उनसे इसरार किया कि वे मुझे वह रिकॉर्ड सुनवाएं. उन्होंने बहुत सरलता से जवाब दिया कि उनके पास रिकॉर्ड प्लेयर नहीं है. मैंने तुरंत  पूछा कि अगर आपके पास रिकॉर्ड  प्लेयर नहीं है तो फिर आपने यह एल  पी क्यों खरीदा? उनका दिया जवाब आज भी मुझे ज्यों का त्यों याद है! उन्होंने कहा, “दुर्गा बाबू! जब मेरे पास पैसे इकट्ठे हो जाएंगे तभी तो मैं रिकॉर्ड प्लेयर खरीदूंगा. लेकिन तब अगर यह रिकॉर्ड न मिला तो? इसलिए अभी खरीद कर रख लिया है.”  

और उनकी कही यह बात मुझे मन्ना डे के निधन की खबर पढ़ने के बाद बहुत शिद्दत से याद आई. असल में जैसे ही मैंने मन्ना डे के निधन की खबर पढ़ी, मुझे कुछ बरस पहले पढ़ी एक कहानी याद आने लगी. कहानी जाने-माने कवि कुमार अम्बुज की लिखी हुई थी, और मन्ना डे को लेकर थी. कहानी का शीर्षक मुझे तुरंत याद नहीं आया. मैंने फेसबुक की अपनी वॉल पर उस कहानी का ज़िक्र किया, और कोई दस मिनिट भी नहीं बीते होंगे कि एक मित्र ने वह कहानी वहां पोस्ट कर दी. मैंने भी फिर से वह कहानी पढ़ी. कहानी का शीर्षक है एक दिन मन्ना डे’. यह कहानी पढ़ते हुए ही मुझे अपने उन प्रिय मित्र का खयाल आया. मैं सोचने लगा कि आज कितना कुछ बदल गया है!  इस कहानी में नरेटर मन्ना डे का एक कंसर्ट सुनने  जाता है और वहां प्रसाधनमें अनायास उसकी मुलाकात एक अजीब इंसान से हो जाती है. वह आदमी रुंआसा है. जब हमारा नरेटर उससे उसकी उदासी का सबब पूछता है तो हमें पता चलता है कि वो आदमी इस बात को लेकर फिक्रमंद है कि मन्ना डे, जो 86 बरस के हो गए हैं, जब नहीं रहेंगे तो क्या होगा! अजीब दुःख है ना यह! लेकिन वो आदमी सच्चा संगीत रसिक है, डूब कर संगीत सुनता है, बल्कि संगीत को ओढ़ता-बिछाता है. अपने प्रिय गायक को सुनते हुए महसूस करता है कि जैसा वो सामने गाते हैं वैसा कोई भी तकनीक प्रस्तुत नहीं कर सकती है. उसे इस बात का भी अफसोस है कि आज पुराने और अच्छे  गाने ढूंढे से भी नहीं मिलते हैं. और इसीलिए उसे फिक्र है कि डेढ़ सौ  दो सौ साल बाद लोग मन्ना डे की आवाज़ कैसे सुन पाएंगे!  हमारा नरेटर उसके ग़म को हल्का करने के लिए मज़ाक में कहता भी है कि तीस-चालीस साल बाद तो हम दोनों भी नहीं रह जाएंगे, फिर आप इतनी दूर की फिक्र क्यों कर  रहे हो, जिसके जवाब में वो कहता है कि  आप नहीं समझ सकते!


कहानी में आगे क्या होता है, यह बात यहां प्रासंगिक नहीं है इसलिए मैं भी उसे छोड़ता हूं और बदले हुए वक़्त पर लौटता हूं. आज कलाओं  की उपलब्धता बढ़ी है लेकिन उनके साथ हमारा लगाव वैसा नहीं रह गया है जैसा पहले हुआ करता था.  इस कहानी में वो व्यक्ति कहता है कि ज़रूरत पड़ने पर मन्ना डे को मैं अपना खून, अपनी किडनी, अपना लिवर तक दे सकता हूं. लेकिन मन्ना डे  को यह बात मालूम होनी चाहिए ताकि वक़्त-ज़रूरत आने पर वे किसी तरह का संकोच न करें!क्या आज भी यही स्थिति है? क्या आज हममें से कोई अपने प्रिय कवि, कथाकार, गायक, चित्रकार वगैरह के लिए इस तरह की बात सोच या कह सकता है? हमारे पास पैसे की आमद बढ़ी है, तकनीक ने चीज़ों को सहज और सुलभ कर दिया है. लेकिन जिस  परिमाण में यह सब हुआ है, उसी अनुपात में इनसे हमारी संलग्नता कम हुई है. क्या इस बात पर फिक्र  नहीं होनी चाहिए? 
   

Tuesday, October 22, 2013

महाभोज जारी आहे....

महाभोज जारी आहे...

चुनाव का बिगुल बज गया है. योद्धा अपने-अपने हथियार लेकर और जिरह बख्तर धारण कर युद्ध के लिए तैयार हो गए हैं. अभी वार्मिंग अप चल रहा है. असल युद्ध तो थोड़ा दूर है. पहले युद्ध होगा, फिर महायुद्ध. युद्ध बोले तो विधान सभा के चुनाव, और महायुद्ध बोले तो लोक सभा के चुनाव. वैसे आजकल यह युद्ध शब्द इतना लोकप्रिय हो चला है कि सब जगह युद्ध ही होता है. सुरों का युद्ध, शब्दों का युद्ध और यहां तक कि पकवान बनाने का भी युद्ध! ऐसे में चुनाव जो कि लड़ा जाता है, वो तो युद्ध है ही.  जब युद्ध होगा तो शोर-शराबा (यलगार हो!) भी होगा, खून-खराबा भी होगा और मार-काट भी होगी. तैयारियां जारी है. शोर-शराबा शुरु हो ही चुका है. शब्दों के तीर-तलवार-गोले-बम सब चल रहे हैं. आक्रमण  और प्रति आक्रमण जारी हैं. एक पक्ष दूसरे पर वार करता है तो दूसरा पक्ष पहले पर पलट वार करता है. एक पक्ष गरजता है, जवाब में दूसरा पक्ष बरसता है. रोज़ यह हो रहा है. रण भूमि हैं अख़बार और टेलीविज़न का पर्दा. एक पक्ष अपने शब्द बाण छोड़ता है तो हमें पता चल जाता है कि दूसरा पक्ष कितना पतित है, लेकिन दूसरे ही दिन जब दूसरा पक्ष अपने तरकश के तीर चलाकर  इस पक्ष के कपड़े तार-तार करता है तो हमें पता लगता है  कि कम तो यह पक्ष भी नहीं है. नागनाथ – सांपनाथ वाला मामला है.  और इन्हीं अधमों-पतितों-निकम्मों-नाकारों-बेगैरतों वगैरह में से किसी को हमें अपना बहुमूल्य वोट देना है. मुझे लगता है कि मतदान का दिन आते-आते तो हम अपने तमाम उम्मीदवारों के बारे में, उनके प्रतिपक्षियों की कृपा से,  इतना ज़्यादा जान जाएंगे कि बजाय किसी को वोट देने के नोटा (उपर्युक्त में से कोई नहीं) के विकल्प का प्रयोग  करना ही ज़्यादा सही लगेगा.

लेकिन क्या यह नोटा का विकल्प स्थिति में कोई बदलाव लाएगा? क्या आपके-मेरे और अपन जैसे बहुत सारों के ‘इनमें से कोई नहीं’ विकल्प को चुन लेने से इनमें से किसी एक का चुना जाना रुक जाएगा? कोई न कोई चुना तो फिर भी जाएगा! बस इतना-सा फर्क़ पड़ेगा कि चुनाव के बाद आने वाली खबरों में एक इबारत और जुड़ जाएगी, कि इतने प्रतिशत मतदाताओं ने इनमें से किसी को भी योग्य नहीं पाया! यानि किसी को न चुनने से तो किसी ऐसे  उम्मीदवार को जो हमारे मानदण्डों पर सबसे ज़्यादा खरा साबित हो रहा हो, चुनना ही बेहतर होगा.

अभी के तमाम शोर-शराबे में मुझे बार-बार मन्नू भण्डारी का लोकप्रिय उपन्यास ‘महाभोज’  याद आ रहा है. सरोहा नामक एक गांव में एक दलित युवक बिसेसर की हत्या हो जाती है. इस मामूली आदमी की हत्या अचानक महत्वपूर्ण इसलिए हो जाती है कि डेढ महीने बाद ही वहां विधानसभा की एक खाली सीट के लिए उपचुनाव होना है. मैदान में एक तरफ दा साहब और उनके समर्थक हैं तो दूसरी तरफ सुकुल बाबू और उनके समर्थक. ये लोग किस निर्ममता से उस बेचारे बिसेसर की मौत को अपने लिए एक महाभोज में तब्दील  कर देते हैं यही इस उपन्यास का कथ्य है. आज जब अपने नेताओं की ज़बानी मैं यह सुनता हूं कि इस पक्ष ने यह नहीं किया और उस पक्ष ने वो नहीं किया, इसने ग़रीबी नहीं हटाई और उसने महंगाई कम नहीं की, इसने मस्जिद नहीं बचाई और उसने मन्दिर नहीं बनाया, तो मुझे यही एहसास होता है कि मैं, इस देश का आम नागरिक,  खेत में पड़ी एक लाश हूं और ऊपर आकाश में बहुत सारे गिद्ध मुझे अपना जीमण बनाने को मेरे सर के ऊपर मण्डरा रहे हैं! 


बस एक चुप-सी लगी है....

इन दिनों निर्वस्त्र करने का अभियान ज़ोरों पर है. पहले एक बाबा जी का नम्बर लगा, फिर उनके सपूत का. वो वो बातें सामने आईं कि दिल दहल गया. लेकिन जिस समय में हम रह रहे हैं उसमें सच और झूठ के बीच अंतर करना बहुत मुश्क़िल हो गया है. अगर बाबा जी पर आरोप लगाने वाले तमाम संचार माध्यमों पर अपनी बात कह रहे हैं  तो ऐसे भी लोगों की कमी नहीं है जो इन तमाम आरोपों के मूल में किसी मां-बेटे का ‘हाथ’  देख रहे हैं. वैसे अपने देश में यह आम परम्परा है. जब भी किसी पर कोई आरोप लगता है,  मैं इंतज़ार करने लगता हूं कि अब कोई न कोई वीर पुरुष (या वीरांगना) आकर यह कहेगा/कहेगी कि यह सब अमुक का रचा हुआ षड़यंत्र है. और मुझे निराश नहीं होना पड़ता है. नेताओं और बाबाओं के बाद इस बार बहुत दिन बाद साहित्य के एक बाबा का भी नम्बर लगा. इन दिनों पत्र-पत्रिकाओं से ज़्यादा चहल-पहल फेसबुक और ट्विट्टर पर रहती है. तो पिछले दिनों इसी  सोशल मीडिया पर हिन्दी के एक जाने-माने कथाकार और स्त्री विमर्श के पुरोधा के बर्ताव को लेकर खूब हो-हल्ला हुआ. असल में हुआ यह कि एक युवा कथाकार ने एक लम्बा वक्तव्य जारी कर अपने साथ हुए दुर्व्यवहार के सन्दर्भ में इस वरिष्ठ कथाकार की स्त्री-विषयक संवेदनहीनता को रेखांकित किया. फिर तो कढ़ी में उबाल आना ही था. एक अन्य चर्चित यात्रा वृत्तांतकार ने इस पूरे वृत्तांत को दूसरे एंगल से देखा-दिखाया और उसके बाद बहुत सारे शब्द वीर मैदान में कूद पड़े. साहित्य पीछे रह गया, चर्चा के केन्द्र में साहित्यकार, उनके शब्द और कर्म के बीच का अंतर, उनकी नैतिकता, उनका सामाजिक चिंतन  जैसे मुद्दे आ गए. वो-वो बारीक बातें की गईं कि अपने अनपढ़ होने का एहसास शिद्दत से होने लगा. इस सारे विमर्श की ख़ास बात यह रही कि युवा कथाकार ने तो विस्तार से अपनी बात कही, लेकिन वरिष्ठ कथाकार अब तक मौन व्रत धारण किए हैं. जब तक उनका पक्ष सामने नहीं आ जाता, तस्वीर धुंधली ही रहेगी. जिज्ञासु हंसों को नीर-क्षीर विवेक के लिए वरिष्ठ कथाकार की पत्रिका के अगले अंक का बेसब्री से इंतज़ार है.   


जयपुर से प्रकाशित अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 22 अक्टोबर, 2013 को किंचित सम्पादित रूप में प्रकाशित टिप्पणियों का मूल रूप.