Saturday, October 6, 2012

“हममें यह योग्यता भरपूर है कि हम अच्छी से अच्छी योजना को मिट्टी में मिला सकते हैं”

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डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल से कालू लाल कुलमी की बातचीत


वर्तमान शिक्षा पद्धति के बारे में आपकी क्या राय है?  
मोटे तौर पर तो मैं यह मानता हूं कि पद्धतियां सब ठीक होती हैं, असल  बात तो यह है कि आप उन्हें बरतते किस तरह से हैं. और जहां तक बरतने का सवाल है, अपने देश के सन्दर्भ में जितना कम कहा जाए उतना ही अच्छा है. हममें और कोई योग्यता हो न हो, यह योग्यता भरपूर है कि अच्छी से अच्छी पद्धति, अच्छी से अच्छी योजना को हम मिट्टी में मिला सकते हैं. अपने देश में आज़ादी के बाद भी अनेक आयोग बने, और उन्होंने शिक्षा पद्धति में बदलाव के लिए अनेक बेहतरीन अनुशंसाएं भी कीं. कुछ अनुशंसाओं को स्वीकार भी किया गया. लेकिन नीचे तक आते-आते उनका कोई मतलब नहीं रह जाता है. आपको लगता है कि कहीं कुछ भी नहीं बदला है. और अगर  बदला है तो इतना कि चीज़ें बदतर ही हुई हैं. देखो, असल बात यह होती है कि आपकी मंशा  क्या है. आपके  इरादे क्या हैं. जहां आपके इरादे नेक होते हैं वहां बिना किसी पद्धति के भी उम्दा काम हो जाते हैं, और जहां इरादे नेक नहीं होते हैं वहां बेचारी पद्धति भी क्या कर लेगी? यह बात कहने में भले ही खराब लगे, लेकिन मुझे तो लगता है कि हमारे देश में कोई काम करना ही नहीं चाहता है. न मंत्री, न अफसर और न अध्यापक. विद्यार्थी भी पढ़ना नहीं चाहता. वह यह चाहता है कि बिना पढ़े पास हो  जाए, डिग्री  मिल जाए, नौकरी मिल जाए और फिर बिना कुछ किए उसे मोटी तनख्वाह मिलती रहे. और बेचारे विद्यार्थी को भी दोष क्यों दें! आखिर वह भी तो इसी हवा में सांस ले रहा है.  ऐसे में मुझे तो पद्धति की बात करना ही व्यर्थ लगता है.  

शिक्षा  का बुनियादी ढांचा किसके अनुकूल और किसके प्रतिकूल होता जा रहा है? 
यहां मैं आपके प्रश्न को पूरे देश के परिदृश्य  के साथ जोड़कर देखना-समझना चाहूंगा. आज़ादी के बाद के बरसों में भले ही हमारा आदर्श समाजवाद  रहा हो और हमने उस दिशा में काफी प्रयास भी किए हों, अब कम से कम मुझे तो इस बात में कोई संशय नहीं रह गया है कि हम समाजवाद को पूरी तरह त्याग चुके हैं. आज का समय बेशर्म पूंजीवाद का समय है. मुझे लगता है कि इससे आपको अपने सवाल का जवाब भी मिल गया होगा. फिर भी अगर आप मुझी से सुनना चाहते हैं तो मैं कहूंगा कि आज न सिर्फ शिक्षा, सब कुछ सिर्फ़ और सिर्फ उनके पक्ष में है जो अमीर या ताकतवर है.

स्कूली शिक्षा का ग्रामीण और नगरीय स्वरूप किस तरह से पटने की जगह बंटता जा रहा है? 
आपके इस प्रश्न का भी जवाब ऊपर वाले उत्तर में आ जाता है. भाई, हम तो गांवों  को नष्ट करने और शहरों को फैलाने में जुटे हैं. ग्रामीण शिक्षा हमारी प्राथमिकता में है ही नहीं.  अलबत्ता चुनावी विवशताओं की वजह से इसका दिखावा ज़रूर किया जाता है. और उस दिखावे में भी थोड़ा-बहुत सार्थक हो जाता, अगर निचले स्तर पर काम करने वालों में ज़रा भी ईमानदारी, नैतिकता और आदर्श-भाव होता. गांव के स्कूल के मास्टर का बर्ताव आप देख लीजिए. हो सकता है कुछ अध्यापकों में उचित मात्रा में आदर्श भाव भी बचा हो, अधिसंख्य  अध्यापक केवल अपनी नौकरी बजाने और तनख्वाह कमाने से ताल्लुक रखते हैं. और वैसे बेचारे अध्यापक को भी क्यों दोष दें? जब चारों तरफ का माहौल ऐसा है तो वो उससे अलग कैसे हो सकता है! तो, आपके सवाल पर लौटूं. मुझे यह कहने की अनुमति दें  कि ग्रामीण शिक्षा का जो स्वरूप अब बचा है वह अत्यधिक दारुण है और उसके और शिक्षा के नगरीय स्वरूप के बीच बहुत बड़ी खाई है.

सरकारी स्कूलों के प्रति सरकार की उदासीनता के बारे में क्या कहेंगे? जिस समय तारे ज़मीन पर फिल्म आई थी उस समय इस बात पर बहुत बहस हुई. शिक्षाविद फिल्म की सराहना करते हुए कहते रहे कि यह फिल्म अगर किसी सरकारी स्कूल पर बनती तो ज़्यादा तथ्य और सत्य सामने आते. 
अपनी नौकरी में मेरा सम्बन्ध स्कूली शिक्षा से नहीं रहा, लेकिन मैं बराबर महसूस करता हूं कि सरकार की सरकारी स्कूलों में दिलचस्पी दिखावटी है, वास्तविक नहीं. सरकार खुद अपने तामाम कल्याणकारी प्रतिष्ठान नष्ट करने में जी-जान से जुटी है. मेरा सम्बन्ध उच्च शिक्षा से रहा है और वहां भी यही हाल है. अस्पतालों का भी यही हाल है. सड़कों का भी. लगता है कि सरकार  खुद यही चाहती है कि ये तमाम कल्याणकारी काम जल्दी से जल्दी बन्द हो जाएं. पूंजीवाद की गोद में जा बैठने की परिणति और हो भी क्या सकती है? इस सारी स्थिति  को तारे ज़मीन  पर  से जोड़ कर देखने की मुझे कोई ज़रूरत नहीं लगती. वह बहुत उम्दा फिल्म थी, लेकिन उसका फोकस इस बात पर तो नहीं था. इसलिए उसे अलग ही रहने दें.

आप अध्यापक के रूप में अपने पेशे में सफल रहे! आपको क्या बात परेशान करती रही, जिसको आप बदलने के लिए सदैव तत्पर रहे? 
यह तो मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं अपने ‘पेशे’ में सफल रहा! मूल्यांकन दूसरे ही करें तो ज़्यादा ठीक रहता है. लेकिन हां, अब पीछे मुड़कर देखने पर मुझे इस बात का संतोष है मैं अपना काम पूरी निष्ठा से कर सका. मैंने इस बात की परवाह बहुत कम की कि और लोग, मेरे साथी वगैरह  क्या कर रहे हैं. खुद पर ध्यान केन्द्रित किया कि मुझे क्या करना है. एक अध्यापक का कर्म बहुत हद तक एकल होता है. औरों के सहयोग की उसमें बहुत ज़्यादा अनिवार्यता नहीं होती. अगर कमरा नहीं खुला है तो आप बाहर बैठकर भी पढ़ा सकते हैं. जीवन के ज़्यादा बड़े हिस्से में तो मैं अध्यापक ही रहा, और मैं इस बात पर अपनी पीठ थपथपा सकता हूं कि मैंने पढ़ाने में कभी कोताही नहीं की. अच्छा पढ़ाया  या  बुरा, यह मेरे विद्यार्थी  जानें.  बाद में जब प्रशासनिक दायित्व वहन करने का समय आया तो यह ज़रूरी हो गया कि मेरी टीम और मेरे बीच तालमेल हो. हमारे लक्ष्य समान हों. प्रशासन में आप जानते ही हैं कि बहुत सारा काम होता है जो आपको अपने अधीनस्थों से करवाना होता है. आप एक पत्र लिख देंगे, लेकिन उसे टाइप कोई और करेगा, पुट अप कोई और करेगा, डिस्पैच कोई और करेगा. यह एक उदाहरण है. तो ऐसे में कहीं एक भी कड़ी कमज़ोर हो तो सारा किया-कराया व्यर्थ हो जाता है. मेरे प्रशासनिक कार्यकाल में भी ऐसा होता रहा है. इसीलिए मैं उसे अपने अध्यापन के अनुभव से अलग करके देखना चाहता हूं. लेकिन, अपने प्रशासनिक कार्यकाल में भी मेरी कोशिश रही कि जो लोग मेरे पास आएं उनके काम जितना मुमकिन हो उतनी सहजता से हो जाएं. मेरी इस मंशा को पूरा करने में मुझे बहुत हद तक अपने अधीनस्थों और अधिकारियों का सहयोग भी मिला. हालांकि मैं जितना करना चाहता था, लेकिन उतना हो नहीं पाया. इसे आप चाहे तो मेरी सीमा भी मान लीजिए. मैं जिस पद पर था उस पद पर मैंने महसूस  किया कि जो निर्णय प्रशासनिक स्तर पर होने चाहिये थे वे सारे के सारे राजनीतिक स्तर पर होने लगे हैं. कभी कभी तो यह भी महसूस हुआ कि क्यों हम पर तनख्वाह का इतना भारी खर्च किया जा रहा है? जिस काम के लिए हमें रखा गया है वो सारा काम तो मंत्री महोदय या उनके आगे-पीछे घूमने वाले  ही कर रहे हैं. हमारे पास तो बस एक काम बचा था, और वो था फाइल पर ‘यथाप्रस्तावित’ लिख देना. हो सकता है बहुत सारे मित्रों को लगे कि हथियार डाल कर मैंने पलायन किया. यह भी हो सकता है कि अगर मेरी जगह कोई और रहा होता तो उसने उससे कुछ अलग किया होता जो मैंने किया.  जो हो, अब वह बात काफी पुरानी हो गई है. लेकिन यदा-कदा मित्रों से बात होती है तो पता चलता है कि अब स्थितियां और भी अधिक खराब हो गई हैं. पहले पाँच-दस प्रतिशत गुंजाइश इस बात की थी कि हम अपनी बात कह लें, अब शायद वो भी नहीं बची है. मुझे हमेशा लगता रहा और अब भी लगता है कि नीति निर्माण का काम नेताओं का है और उसे क्रियान्वित  करने का काम अधिकारियों का. दोनों के बीच संवाद हो लेकिन कर्तव्य निर्वहन करते वक़्त दोनों अपनी-अपनी लक्ष्मण रेखाओं का खयाल रखें. कहना अनावश्यक है कि  मैं इस दिशा में कुछ ख़ास नहीं कर सका. अपने बचाव में मैं यह और जोड़ना चाहूंगा कि इस स्थिति को बदलने के लिए मैं बहुत छोटा और निष्प्रभावी था.

आज़ादी के बाद हमारा समाज मूल्यों के साथ जड़ताओं को ख़त्म करने का संकल्प करता हुआ आगे बढ़ता है. आज़ादी के पैंसठ वर्षों बाद तकनीकी शिक्षा की बाढ़ आ गई है. तमाम व्यापारी शिक्षा के बाज़ार में उतर रहे हैं. अपने नाम पर विश्वविद्यालय खोल कर बैठ गए हैं. यह किस तरह के भविष्य का संकेत है? 
वैसे तो आपके सवाल में ही जवाब भी छिपा हुआ है. आज़ादी के बाद के हमारे संकल्प बहुत बेहतरीन थे, लेकिन हुआ यह कि हमने धीरे-धीरे उनको विस्मृत कर दिया. और अब तो से सिर्फ किताबों में बचे रह गए हैं. तकनीकी शिक्षा की बाढ़ असल में एक विश्वव्यापी फिनोमिना  है. सारी दुनिया में यही हो रहा है. भारत कोई अकेला नहीं है. लेकिन मैं इसी के साथ यह भी जोड़ना चाहता हूं कि इस स्थिति को विकट बनाने में हम लोगों का यानि अकादमिक विषयों की शिक्षा देने वालों का भी बहुत बड़ा योगदान है. अब आप मेरे विषय की यानि हिंदी की बात लीजिए. हमारे अधिकांश विश्वविद्यालयों में हिंदी का जो पाठ्यक्रम है उसे देखिए और फिर बताइये कि आखिर क्यों पढ़े कोई हिंदी? यह पाठ्यक्रम पढ़ा कर आप उसे यानि एक युवा को किस काबिल बना रहे हैं? स्तर को गिराते-गिराते हम यहां तक ले आए हैं कि अब आम विद्यार्थी मूल कृति को पढ़ना तो दूर उसे देखता तक नहीं है. समझने की तो बात ही छोड़  दीजिए. कमोबेश यही हालत अन्य अनुशासनों की भी है. और वैसे तो तकनीकी शिक्षा के हाल भी कोई खास अच्छे नहीं हैं. लेकिन उस शिक्षा का बाज़ार तो है.
आपने सही कहा कि तमाम व्यापारी शिक्षा की दुकानें खोल कर बैठ गए हैं. मुझे तो लगता है कि आज देश में सबसे बड़ा और मुनाफे का धन्धा ही शिक्षा का है. सरकार धीरे-धीरे  न सिर्फ उससे हाथ खींचती जा रही है, लूटने वालों को खुली छूट भी देती जा रही है. बेशक हालात  एक अन्धकारमय भविष्य के ही हैं.

आज की शिक्षा हमें न तो काबिल बनाती है न कामयाब! हां, वह युवा बेरोज़गार ज़रूर बनाती है. क्या कहेंगे? 
देखो, इतने बरस शिक्षा के क्षेत्र में काम करने और स्थितियों को नज़दीक से देखने समझने के बाद मैं यह कहने में ज़रा भी झिझक महसूस नहीं करता कि  आज की शिक्षा किसी को भी काबिल नहीं बना रही है. हर जगह तो शॉर्ट कट अपनाए जा रहे हैं. पास बुक्स, इम्पोर्टेण्ट प्रश्न, दस में से पाँच सवाल, उपस्थिति की अनिवार्यता से मुक्ति, इण्टरनेट से उठाई गई सामग्री, पैसे  देकर बनवाए गए प्रोजेक्ट्स... क्या है यह सब? जो विद्यार्थी हिंदी में एम. ए. करके निकलता है  वह ‘सुरदास’ लिखता है और हम उसे पास करते हैं. शुद्ध भाषा में वो चार पंक्तियां नहीं लिख सकता. मेरा सवाल है, वो कामयाब हो भी क्यों? उसमें ऐसी क्या बात है कि वो कामयाब हो? और बेरोजगार वो शिक्षा की वजह से है? या अपने निकम्मेपन की वजह से? अपनी काहिली की वजह से? उसे तो बस मस्ती मारने के लिए कॉलेज में एडमिशन लेना है. फिर न तो क्लास में आना है, न पढ़ना है, न मेहनत करनी है. आप मुझे बताइये कि उसे बेरोज़गार क्यों नहीं होना चाहिये? हां, इस बीच एक बात और हुई है. नेहरु का समाजवादी मॉडल त्याग देने की वजह से सरकारी नौकरियां बहुत कम हो गई हैं. ये सारे निकम्मे लोग सरकारी नौकरियों में खप जाया करते थे. अब इनके लिए वे चरागाह तो बहुत सीमित हो गए हैं. निजी क्षेत्र नौकरी देता है तो काम भी चाहता है और काम न ये कर सकते हैं, न करना चाहते हैं. इसलिए मेरे भाई, इनकी बेरोज़गारी के लिए मैं सिर्फ शिक्षा को दोषी नहीं मानता.

हर जगह निजी स्कूल कॉलेजों की बाढ़ आ रही है. यह इस देश की साठ प्रतिशत गरीब आबादी को किस तरह का भविष्य देने का वादा है? 
यह बात पहले भी कही जा चुकी है कि सरकार धीरे-धीरे अपने दायित्वों से पीछे हट रही है. शिक्षा, चिकित्सा सब उसने निजी क्षेत्र के हवाले करने की मुहिम चला रखी है. ज़ाहिर है कि यह स्थिति बहुत बुरी है.

समाज के निर्माण में शिक्षा का योगदान कम होता जा रहा है. शिक्षा पर व्यय को  अनुत्पादक खर्च के रूप में देखा जा रहा है. यह किस तरह  का संकेत है? 
आने वाले बुरे दिनों का सूचक है. और क्या कहूं?
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डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल 
ई-2/211, चित्रकूट, जयपुर -302021.
dpagrawal24@gmail.com

कालू लाल कुलमी
गांव राजपुरा, पोस्ट कानोड़, तहसील वल्लभनगर ज़िला उदयपुर (राजस्थान) पिन- 313604.
Paati.kalu@gmail.com