पिछले दिनों अखबारों में पढ़ा कि राजस्थान
सरकार अपने कॉलेजों में पाँच हज़ार सीटों
की वृद्धि करने का इरादा रखती है. इस बात से खुश हुआ जाना चाहिये कि अपनी सरकार
अपनी युवा पीढ़ी के भविष्य को बेहतर बनाने के लिए चिंतित और कृत संकल्प है. मैं भी
खुश हूं. आखिर जिन्होंने ठीक-ठाक, बल्कि अच्छे अंकों से सीनियर सैकण्ड्री परीक्षा
उत्तीर्ण की है उन्हें उच्च शिक्षा का अवसर मिलना ही चाहिए.
लेकिन क्या बात इतनी सीधी-सरल है? पहली
बात तो मेरे मन में यह आती है कि हर बरस महाविद्यालयों
में विद्यार्थियों की संख्या घटाने-बढ़ाने का यह प्रहसन क्यों मंचित किया जाता है?
इस बार भी पहले एक ख़बर संख्या घटाने की आई थी, फिर दूसरे-तीसरे दिन पूर्ववत कर
देने की, और अब वृद्धि की यह खबर. क्या कोई सुनिश्चित नीति नहीं बनाई जानी चाहिए?
क्या सीधे-सीधे यह नहीं किया जा सकता कि एक निश्चित प्रतिशत से अधिक अंक लाने वाले
सारे विद्यार्थियों को प्रवेश दिया जाएगा! हर बार सेक्शन में संख्या बढ़ाने और नए
सेक्शन के लिए हड़ताल-आन्दोलन वगैरह की ज़रूरत को ख़त्म क्यों नहीं किया जाना चाहिए? आखिर
हर बार यह क्यों ज़रूरी हो कि पहले विद्यार्थी आन्दोलन करें और उसके बाद सरकार
‘कृपा पूर्वक’ हर सेक्शन में साठ की बजाय सत्तर या अस्सी विद्यार्थी प्रविष्ट करने
की घोषणा कर अपनी उदारता प्रदर्शित करे?
लेकिन चिंता की बात यही नहीं है. सरकार यह
जो पाँच हज़ार विद्यार्थियों की वृद्धि
अपने कॉलेजों में करने जा रही है, क्य उनके
लिए समुचित सुविधाएं पहले से विद्यमान थीं और अब तक उनका उपयोग नहीं हो रहा
था? या अब प्रवेश के बाद इनके लिए सुविधाओं का सृजन होगा, और या यह कि बिना किसी
सुविधा विस्तार के इन विद्यार्थियों को प्रवेश दे दिया जाएगा? अपनी बात को और स्पष्ट करूं. क्या हमारे महाविद्यालयों
में इन पाँच हज़ार अतिरिक्त विद्यार्थियों
के बैठने के लिए कमरे हैं, इनके लिए फर्नीचर आदि है, इनके लिए प्रयोगशाला उपकरण
हैं, इनके लिए पुस्तकालय में किताबें हैं,
इनके अभिलेख आदि संधारित करने के लिए लिपिकीय संसाधन हैं, आदि. हमने हर सेक्शन में जितने छात्रों को प्रवेश देने का निर्णय किया है क्या हमारे
कॉलेजों में उनके वास्ते उतने बड़े कमरे हैं, और क्या उन कॉलेजों के पास उतने
विद्यार्थियों को बिठाने के लिए आवश्यक फर्नीचर है? हक़ीक़त यह है कि हमारे अधिकांश महाविद्यालयों में जो कक्षा कक्ष हैं उनमें साठ
विद्यार्थियों को बिठाना भी मुश्क़िल होता है. तो फिर ये बढ़े हुए विद्यार्थी कहां
बैठेंगे? हमारे ज़्यादातर महाविद्यालय फर्नीचर के अभाव से ग्रस्त हैं. अब उसी कम
पड़ते फर्नीचर का इस्तेमाल ये पाँच हज़ार नए विद्यार्थी और करेंगे तो क्या हाल होगा!
और यह तो बहुत स्पष्ट है कि तुरंत न तो इन कमरों का आकार बढने वाला है, न नए कमरे
बनने वाले हैं. फर्नीचर के लिए भी बजट स्वीकृत होगा, आवंटित होगा, कॉलेजों तक
पहुंचेगा और फिर क्रय प्रक्रिया शुरू होगी, निविदा सूचनाएं जारी होंगी, क्रयादेश
जारी होंगे, सामान की आपूर्ति होगी, भण्डार पंजिकाओं में उनका इन्द्राज होगा – इस सबमें, अगर यह
प्रक्रिया आज ही शुरू हो जाए तब भी कम से कम छह आठ महीने तो लग ही जाएंगे. और मुझे
पूरा विश्वास है कि अभी इस प्रक्रिया को
शुरू करने की कोई सुगबुगाहट तक नहीं होगी. यानि कम से कम इस बरस तो ये नए
पाँच हज़ार विद्यार्थी बगैर कमरों और बगैर
फर्नीचर के (पता नहीं कहां और कैसे) पढ़ेंगे.
अब इससे आगे की बात! क्या इन
विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए अतिरिक्त शिक्षकों भी भी ज़रूरत होगी, या
हमारे पास पहले से ही इतने ज़्यादा शिक्षक हैं और अब तक वे फालतू बैठे तनख्वाह ले
रहे थे, वे इनको पढ़ा लेंगे. जहां तक मेरी
जानकारी है, अभी जितने विद्यार्थी हमारे
पास हैं उनके लिए भी समुचित संख्या में
प्राध्यापक नहीं हैं. यह बात और भी अलग है कि जो शिक्षक हमारे पास हैं उनका
न तो समान और संतुलित वितरण हमारे कॉलेजों में है और न उनके पदस्थापन में कोई तर्क
संगतता नज़र आती है. एक तरफ बड़े शहरों (जैसे अजमेर, बीकानेर, भरतपुर, कोटा वगैरह) या उनके पास के कस्बों (जैसे किशनगढ़, नसीराबाद,
दौसा वगैरह) वाले कॉलेजों में लगभग शत
प्रतिशत पद भरे हुए हैं (बल्कि कहीं-कहीं तो उससे भी ज़्यादा लोग कार्यरत हैं) तो
वहीं दूसरी तरफ दूरस्थ और ग्रामीण इलाकों के महाविद्यालयों में शिक्षकों का भयंकर
अभाव है. जो लोग प्रभावशाली हैं वे किसी न किसी तरह प्रतिनियुक्ति आदि का जुगाड़
करके कॉलेजों में जाने से भी बच जाते हैं. यह विषयांतर होगा, लेकिन मेरी निजी
जानकारी है कि बहुत सारे महापुरुषों और महामहिषियों ने बरसों से कॉलेजों का मुंह
ही नहीं देखा है. कुछेक तो इतने महान हैं कि अपने दामन पर पढ़ाने का एक भी कलंक
लगाए बगैर रिटायर तक हो गए. सरकार किसी की भी आई, वे पढ़ाने नहीं गए तो नहीं ही गए.
तो ऐसे में ये जो नए पाँच हज़ार विद्यार्थी
हम अपनी संस्थाओं में लाने जा रहे हैं, उन्हें कौन पढ़ाएगा? क्या इनको पढ़ाने वालों
के लिए नए पद मांग लिए गए हैं, उन पदों को प्रशासनिक और वित्तीय स्वीकृति मिल गई
है, उन पदों को भरने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई ? अगर इन सारे सवालों के जवाब हां
में हो तो भी हम सब जानते हैं कि इस सारी प्रक्रिया से गुज़र कर नए प्राध्यापकों को
आने में एक साल से अधिक ही लग जाता है. यानि अगले शैक्षिक सत्र से पहले तो उम्मीद
ही मत कीजिये. लेकिन यह सब तो तब की बात है, जब वो प्रक्रिया शुरू कर दी गई हो.
असल में तो ऐसा हुआ नहीं है. यानि हमारे
पास इन नवागंतुक विद्यार्थियों के लिए न अध्यापक हैं, न कमरे, न फर्नीचर न
कोई और संसाधन और हम इन्हें प्रवेश देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ रहे हैं. क्या यह बात किसी को भी नज़र नहीं आती है? क्या
यह विद्यार्थियों के साथ छल नहीं है? हम उनसे फीस लेंगे, लेकिन उनको पढ़ाएंगे नहीं.
हमारे पास न पढ़ाने वाले हैं और न उन्हें बिठाने की जगह! हम क्यों प्रवेश दे रहे
हैं इनको?
लेकिन दुखद बात यह कि इस पर कोई सवाल नहीं
उठा रहा है. न विद्यार्थी, न उनके संगठन, न जन प्रतिनिधि, न शिक्षक और न शिक्षक
संगठन. जैसे पाँच हज़ार विद्यर्थियों को प्रवेश देते ही सारी समस्याएं हल होने जा
रही हैं. संकट प्रवेश का था, पढ़ाई का नहीं! विद्यार्थी संगठनों की जीत हो गई, पाँच हज़ार नए वोटर मिल गए. और क्या
चाहिये? पढाई की कहां और किसे ज़रूरत है? पढ़ाई हो यह तो किसी की भी चिंता में
दूर-दूर तक नहीं है.
तो क्या सबने यह मान लिया है कि उच्च
शिक्षा की गाड़ी तो ऐसे ही चलेगी? विद्यार्थी प्रवेश ले ले, जिसको स्कॉलरशिप मिलनी
है वो स्कॉलरशिप ले ले, और घर जाए, मज़े
करे. अध्यापक भी बहुत सहज निर्लिप्त भाव
से कॉलेज जाए, अपना रजिस्टर उठाए, कक्षा तक जाए और यह कहता हुआ लौट आए कि क्या
करें, विद्यार्थी आते ही नहीं हैं. प्रिंसिपल साहब भी डेढ़ दो बजे के बाद चैन की
सांस लें कि चलो आज का दिन तो बीता. डेढ़
दो बजे के बाद ज़्यादातर कॉलेजों का माहौल
कैसा होता है, यह बताने की ज़रूरत नहीं है. विश्वास न हो तो कभी जाकर देख लें. टाइमटेबल
में भले ही कक्षाएं पाँच बजे तक दिखाई जाती हों, दो बजे के बाद ज़्यादातर कॉलेजों
में सन्नाटा पसरा होता है.
यानि सब, मंत्री जी से लेकर चपरासी तक इस झूठ-फरेब में
शामिल हैं. क्या यह स्थिति क्षोभ जनक नहीं है? न कोई पढ़ाना चाहता है न कोई पढ़ना.
बस आंकड़े पूरे हो जाएं. क्या मतलब है
उपस्थिति की अनिवार्यता का? हर साल कितने विद्यार्थियों को उपस्थिति की कमी की वजह
से नियमित विद्यार्थी के रूप में परीक्षा देने से रोका जाता है? न्यायालय का आदेश
है कि कक्षाओं में पिचहत्तर प्रतिशत उपस्थिति अनिवार्य होनी चाहिए. अगर हर बरस अधिकांश विद्यार्थी
नियमित परीक्षा देते हैं तो इसका मतलब यह है कि वे अपनी 75% कक्षाओं में हाज़िर
रहते हैं. अब जो नए विद्यार्थी आएंगे वे भी हाज़िर रहेंगे, भले ही कॉलेजों में न कमरे
हों, न फर्नीचर और न अध्यापक. है ना कमाल की बात!
यही बात विभिन्न छात्रवृत्तियों के सम्बन्ध में भी है. विद्यार्थी
छात्रवृत्ति पाने का हक़दार तभी होता है जब कक्षा में उसकी उपस्थिति पूरी हो. यह
हक़ीक़त है कि जो भी छात्रवृत्ति का पात्र है उसे छात्रवृत्ति मिलती ही है, यानि वह
कक्षा में यथानियम उपस्थित रहता है. अगर इस नज़र से देखें तो एक चमत्कार का सामना
करना होगा. चमत्कार यह कि दूर दराज़ के कॉलेजों में जहां न फर्नीचर है न कमरे और न अध्यापक, वहां भी हमारे अध्ययनशील विद्यार्थी नियमित रूप से
उपस्थित होकर अध्ययन करते हैं! बहुत मुमकिन है कि वे पेड़ों के नेचे अपने-अपने रुमल
बिछाकर बैठ जाते होंगे और स्वाध्याय करते होंगे. जय हो!
क्या कोई यह बताएगा कि यह सारा नाटक क्यों
हो रहा है और कब तक होगा? इस तरह किसको बेवक़ूफ बनाया जा रहा है? और बेवक़ूफ बनाने के इस धत्कर्म पर कितना पैसा फूंका जा
रहा है? क्यों आधे-अधूरे मन से उच्च शिक्षा के प्रसार का यह भ्रमजाल फैलाया जा रहा है? क्यों इस तरह
निर्ममता से पैसा फूंक कर अधकचरे स्नातकों की फौज तैयार की जा रही है जो कोई
योग्यता न रखने पर भी (योग्य तो हम उन्हें बना ही कहां रहे हैं?) डिग्री धारी हो
जाएगी और फिर यह रोना रोया जाएगा कि इतने सारे उच्च शिक्षा प्राप्त युवा बेरोज़गार
हैं!
सोचिये, आखिर कब तक यह बेहूदा प्रहसन चलता
रहेगा और आपकी हमारी ग़ाढ़ी कमाई का पैसा फूंका जाता रहेगा, युवाओं के हाथ में उच्च
शिक्षा का झुनझुना पकड़ा कर उनको मूर्ख बनाया जाता और देश के भविष्य को धूमिल किया
जाता रहेगा? कब तक?
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जयपुर से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र 'मॉर्निंग न्यूज़' में 16 जुलाई, 2012 को प्रकाशित.
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