Monday, July 16, 2012

एक अनूठा संग्रहालय

हमारी मैसूर यात्रा के दूसरे दिन अगर टैक्सी वाले ने हमें निर्धारित कार्यक्रमानुसार सभी स्थल घुमा कर जल्दी मुक्त न कर दिया होता और बैंगलोर लौटने से पहले तीन-चार  घण्टे कहीं बिताने की विवशता न होती और अगर चामुण्डी हिल जाते वक़्त एक सूचना पट्ट पर लिखी इबारत मेरे जेह्न  में अटकी न रह गई होती, तो यह बात पक्की है कि हम इस शानदार संग्रहालय को देखने से वंचित रह गए होते. दरअसल मैसूर के जितने भी दर्शनीय स्थलों के बारे में कहीं पढ़ा था उन सबको तो हमने देख लिया था,  लेकिन इस संग्रहालय का तो कहीं कोई ज़िक्र ही नहीं था. मैं बात कर रहा हूं विहार मार्ग, सिद्धार्थ ले आउट पर स्थित वाद्य यंत्रों पर आधारित मेलॉडी वर्ल्ड नामवैक्स म्यूज़ियम की.

जब भी कभी मोम के पुतलों के संग्रहालय की चर्चा होती है, मैडम तुसाद के संग्रहालय  का नाम अनिवार्यत: लिया जाता है. तुसाद के संग्रहालय अमरीका,  यूरोप,  और एशिया के बारह शहरों में हैं और मुझे भी इनमें से लास वेगस में स्थित उनके संग्रहालय को देखने का मौका मिला है. कहने की ज़रूरत नहीं है कि उनकी निर्मितियां विलक्षण होती हैं. अगर आप किसी बुत के सामने खड़े हो जाएं तो आपको लगेगा कि यह अभी आपसे बात करने लगेगा. हमने विभिन्न पत्रिकाओं में ऐसी बहुत सारी तस्वीरें भी देखी हैं जिनमें जीवित व्यक्ति अपने बुत के साथ खड़ा है और हम यह तै नहीं कर पाये हैं कि जीवित व्यक्ति कौन-सा है और बुत कौन-सा! यह उचित ही है कि मैडम तुसाद के मोम के पुतलों की इतनी चर्चा और सराहना होती है. मैडम तुसाद के संग्रहालयों का इतिहास दौ सौ साल पुराना है और उनके पास साधनों और तकनीकी संसाधनों का कोई अभाव नहीं है. संग्रहालय की उत्कृष्टता में इन सब बातों का भी कम योगदान नहीं है.

लेकिन भला यह कौन सोच सकेगा, कि हमारे अपने देश के मैसूर शहर में भी करीब-करीब वैसा ही एक संग्रहालय मौज़ूद है! बड़ी बात यह कि यह संग्रहालय एक अकेले इंसान के  जुनून, श्रम और कौशल  का परिणाम है. 47 वर्षीय श्रीजी भास्करन ने, जो पेशे से एक व्यवसायी और सूचना प्रौद्योगिकी इंजीनियर हैं, अकेले अपने दम पर इस संग्रहालय को बनाया है. श्रीजी ने मार्च 2007 में इस तरह का पहला संग्रहालय ऊटी में वैक्स वर्ल्ड नाम से बनाया था. इसके बाद जुलाई 2009 में उन्होंने पुराने गोआ में ऐसा ही एक संग्रहालय बनाया और फिर अक्टोबर 2010 में मैसूर में यह संग्रहालय उन्होंने खड़ा किया. मैसूर का यह संग्रहालय इस माने में खास है कि यह एक थीम आधारित संग्रहालय है. इस संग्रहालय में वाद्य यंत्रों और संगीत से सम्बद्ध लगभग 100 मोम के पुतले हैं. इसके अलावा इसी संग्रहालय में दुनिया के विभिन्न हिस्सों से खरीदे और जुटाए गए करीब 300 वाद्य यंत्र भी हैं.

कदाचित अपनी तरह के इस अकेले संग्रहालय में विभिन्न भारतीय वाद्य वृन्दों  और पाश्चात्य बैण्डों को उनकी पूरी सजधज और पूरे तामझाम के साथ प्रस्तुत किया गया है. यहां आपको उत्तर और दक्षिण भारतीय वाद्यवृंद देखने को मिलेगा तो जैज़ और रॉक समूह भी मौज़ूद मिलेंगे. अगर पंजाब का मस्ती भरा भंगड़ा यहाँ है तो आदिवासी जीवन का सादगी भरा संगीत भी मौज़ूद है. यहां अरब बैण्ड भी है और इजिप्शियन बैण्ड भी. इनमें से अधिकतर प्रस्तुतियों में मोम से बने 5-6 से लगाकर 10-12 तक  कलाकार हैं और उनके हाथों में हैं असली वाद्य यंत्र. अब इस तरह के संग्रहालय का निर्माण कोई आसान बात नहीं है. एक मोम के पुतले को बनाने की लागत ही तीन  से पन्द्रह  लाख रुपयों के बीच आती है और उसे बनाने में एक से चार महीने तक लग जाते हैं. और फिर इन पुतलों को समुचित परिवेश प्रदान करना, वह अलग से. एक दक्षिण भारतीय वाद्य वृंद की पन्द्रह कलाकारों वाली झांकी अपने टेठ ग्रामीण परिवेश की वजह से और दक्षिण भारत के ही ग्राम्यांचल के तीन लोक कलाकारों की झांकी जीर्ण शीर्ण दीवार और छत पर फैली दीमक के कारण एकदम यथार्थवादी बन पड़ी है. इनके विपरीत पाश्चात्य संगीत वाली झांकियां अपनी भव्यता के कारण ध्यान  आकृष्ट करती हैं. श्रीजी भास्करन की इस बात के लिए भी तारीफ करनी होगी कि उन्होंने जितना ध्यान अपने पुतलों की मुख मुद्रा और उनके अंगों की सानुपातिकता पर दिया है उतना ही ध्यान उनकी वेशभूषा की प्रामाणिकता पर भी दिया है.

इस संगीत केन्द्रित संग्रहालय में संगीत से इतर भी कुछ प्रस्तुतियां हैं जो दर्शक पर अमिट छाप  छोड़ जाती हैं. मैसूर के महाराजा का राजसी और महात्मा गांधी का सादगीपूर्ण स्टेच्यू तो इनमें से प्रमुख हैं ही, दो और प्रस्तुतियों के ज़िक्र के बगैर यह वृत्तांत  अपूर्ण रहेगा. एक प्रस्तुति में ड्रग के कुपरिणामों को उनकी पूरी भयावहता के साथ उभारते हुए ‘से नो टू ड्रग्स’ का संदेश  दिया गया है तो एक अन्य प्रस्तुति में एक सुंदरी एक क्रिकेटर को दस लाख रुपये का चैक थमा रही है, ज़मीन पर  कंकाल हो चुकी एक वृद्धा भिखारिन बैठी है और पास ही एक बालक सिर पर कंक्रीट का  टोकरा लिए खड़ा है. इन सबके बाजू में कॉल सेंटर का आभास देती अलग-अलग देशों का वक़्त बताने वाली छह घड़ियों के सामने खड़ा है एक सूटेड बूटेड युवक. भारत की तेज़ी से बढ़ती जा रही आर्थिक विषमता पर भला इससे कड़ी टिप्पणी और क्या हो सकती है!

इस संग्रहालय के निर्माता श्रीजी भास्करन डॉ ए पीजे अब्दुल कलाम और कई अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के स्टेच्यू बनाकर ख्याति अर्जित करने के अलावा 500 किलोग्राम मोम से बनाए हुए अपने 22 फुट लम्बे ‘द लास्ट सप्पर’ स्टेच्यू के लिए भी बहुत चर्चित रहे हैं. यह स्टेच्यू अब गोआ के संग्रहालय में रखा हुआ है. कहना अनावश्यक है कि इस तरह का काम कोई जुनूनी इंसान ही कर सकता है. मध्य पूर्व और ऑस्ट्रेलिया में अनेक कामयाब सूचना प्रौद्यौगिकी प्रोजेक्ट कर चुके श्रीजी भास्करन अपने व्यवसाय से जैसे-तैसे समय निकालकर  और अपने संसाधनों के बल पर इतने उम्दा संग्रहालय बना चुके हैं और पत्नी रीना तथा मात्र एक और सहयोगी के दम पर इन सबका संचालन कर रहे हैं, इसकी जितनी तारीफ की जाए कम है. हम जानते हैं कि किसी भी सरकार से सब कुछ करने की आशा करना अनुचित होता है, लेकिन, अगर कोई अपने दम पर सब कुछ कर रहा हो तो सरकार से यह उम्मीद करना कि वो उसकी तरफ सहायता और सम्बल का हाथ बढायेगी, क़तई अनुचित नहीं है. हमें तो यह भी जानकर आश्चर्य हुआ कि राज्य सरकारों ने श्रीजी भास्करन के इन निजी प्रयत्नों से बनाए गए शानदार संग्रहालयों को सम्बद्ध शहरों के दर्शनीय स्थलों की सूची तक में जगह देने की ज़रूरत तक नहीं समझी है.

श्रीजी भास्करन इन संग्रहालयों के माध्यम सेकेवल कुछ खूबसूरत को देखने का सुख प्रदान करते हैं, अपनी प्रस्तुतियों  के माध्यम  से वे देश की विरासत के संरक्षण और सकारात्मक मूल्यों के प्रचार का काम भी करते हैं. जहां ये तीन संग्रहालय स्थित हैं उन कर्नाटक, तमिलनाडु और गोआ की सरकारों तथा भारत सरकार से यह उम्मीद करना अनुचित नहीं होगा कि वह कम से कम इन शानदार संग्रहालयों का समुचित प्रचार-प्रसार तो करेगी. और भी अच्छा तो यह हो कि ये सरकारें इस कलाकार को सम्मानित और पुरस्कृत करें तथा आर्थिक सम्बल भी प्रदान करे ताकि वह अपने उम्दा काम को और विस्तार दे सके.
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दैनिक नवज्योति में रविवार दिनांक 15 जुलाई 2012 को प्रकाशित आलेख. 

राजस्थान में उच्च शिक्षा: कुछ असुविधापूर्ण सवाल



पिछले दिनों अखबारों में पढ़ा कि राजस्थान सरकार अपने कॉलेजों में पाँच हज़ार  सीटों की वृद्धि करने का इरादा रखती है. इस बात से खुश हुआ जाना चाहिये कि अपनी सरकार अपनी युवा पीढ़ी के भविष्य को बेहतर बनाने के लिए चिंतित और कृत संकल्प है. मैं भी खुश हूं. आखिर जिन्होंने ठीक-ठाक, बल्कि अच्छे अंकों से सीनियर सैकण्ड्री परीक्षा उत्तीर्ण की है उन्हें उच्च शिक्षा का अवसर मिलना ही चाहिए. 


लेकिन क्या बात इतनी सीधी-सरल है? पहली बात तो मेरे मन में यह आती है कि  हर बरस महाविद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या घटाने-बढ़ाने का यह प्रहसन क्यों मंचित किया जाता है? इस बार भी पहले एक ख़बर संख्या घटाने की आई थी, फिर दूसरे-तीसरे दिन पूर्ववत कर देने की, और अब वृद्धि की यह खबर. क्या कोई सुनिश्चित नीति नहीं बनाई जानी चाहिए? क्या सीधे-सीधे यह नहीं किया जा सकता कि एक निश्चित प्रतिशत से अधिक अंक लाने वाले सारे विद्यार्थियों को प्रवेश दिया जाएगा! हर बार सेक्शन में संख्या बढ़ाने और नए सेक्शन के लिए हड़ताल-आन्दोलन वगैरह की ज़रूरत को ख़त्म क्यों नहीं किया जाना चाहिए? आखिर हर बार यह क्यों ज़रूरी हो कि पहले विद्यार्थी आन्दोलन करें और उसके बाद सरकार ‘कृपा पूर्वक’ हर सेक्शन में साठ की बजाय सत्तर या अस्सी विद्यार्थी प्रविष्ट करने की घोषणा कर अपनी उदारता प्रदर्शित करे?

लेकिन चिंता की बात यही नहीं है. सरकार यह जो पाँच हज़ार  विद्यार्थियों की वृद्धि अपने कॉलेजों में करने जा रही है, क्य उनके  लिए समुचित सुविधाएं पहले से विद्यमान थीं और अब तक उनका उपयोग नहीं हो रहा था? या अब प्रवेश के बाद इनके लिए सुविधाओं का सृजन होगा, और या यह कि बिना किसी सुविधा विस्तार के इन विद्यार्थियों को प्रवेश दे दिया जाएगा?  अपनी बात  को और स्पष्ट करूं. क्या हमारे महाविद्यालयों में इन पाँच हज़ार  अतिरिक्त विद्यार्थियों के बैठने के लिए कमरे हैं, इनके लिए फर्नीचर आदि है, इनके लिए प्रयोगशाला उपकरण हैं, इनके लिए पुस्तकालय  में किताबें हैं, इनके अभिलेख आदि संधारित करने के लिए लिपिकीय संसाधन हैं, आदि.  हमने हर सेक्शन में जितने छात्रों  को प्रवेश देने का निर्णय किया है क्या हमारे कॉलेजों में उनके वास्ते उतने बड़े कमरे हैं, और क्या उन कॉलेजों के पास उतने विद्यार्थियों को बिठाने के लिए आवश्यक फर्नीचर है? हक़ीक़त यह है कि हमारे अधिकांश  महाविद्यालयों में जो कक्षा कक्ष हैं उनमें साठ विद्यार्थियों को बिठाना भी मुश्क़िल होता है. तो फिर ये बढ़े हुए विद्यार्थी कहां बैठेंगे? हमारे ज़्यादातर महाविद्यालय फर्नीचर के अभाव से ग्रस्त हैं. अब उसी कम पड़ते फर्नीचर का इस्तेमाल ये पाँच हज़ार नए विद्यार्थी और करेंगे तो क्या हाल होगा! और यह तो बहुत स्पष्ट है कि तुरंत न तो इन कमरों का आकार बढने वाला है, न नए कमरे बनने वाले हैं. फर्नीचर के लिए भी बजट स्वीकृत होगा, आवंटित होगा, कॉलेजों तक पहुंचेगा और फिर क्रय प्रक्रिया शुरू होगी, निविदा सूचनाएं जारी होंगी, क्रयादेश जारी होंगे, सामान की आपूर्ति होगी, भण्डार पंजिकाओं  में उनका इन्द्राज होगा – इस सबमें, अगर यह प्रक्रिया आज ही शुरू हो जाए तब भी कम से कम छह आठ महीने तो लग ही जाएंगे. और मुझे पूरा विश्वास है कि अभी इस  प्रक्रिया को शुरू करने की कोई सुगबुगाहट तक नहीं होगी. यानि कम से कम इस बरस तो ये नए पाँच  हज़ार विद्यार्थी बगैर कमरों और बगैर फर्नीचर के (पता नहीं कहां और कैसे) पढ़ेंगे. 
    
अब इससे आगे की बात!  क्या इन  विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए अतिरिक्त शिक्षकों भी भी ज़रूरत होगी, या हमारे पास पहले से ही इतने ज़्यादा शिक्षक हैं और अब तक वे फालतू बैठे तनख्वाह ले रहे थे, वे इनको पढ़ा लेंगे.  जहां तक मेरी जानकारी है, अभी जितने विद्यार्थी हमारे  पास हैं उनके लिए भी समुचित संख्या में  प्राध्यापक नहीं हैं. यह बात और भी अलग है कि जो शिक्षक हमारे पास हैं उनका न तो समान और संतुलित वितरण हमारे कॉलेजों में है और न उनके पदस्थापन में कोई तर्क संगतता नज़र आती है. एक तरफ बड़े शहरों (जैसे अजमेर, बीकानेर, भरतपुर, कोटा वगैरह)  या उनके पास के कस्बों (जैसे किशनगढ़, नसीराबाद, दौसा वगैरह)  वाले कॉलेजों में लगभग शत प्रतिशत पद भरे हुए हैं (बल्कि कहीं-कहीं तो उससे भी ज़्यादा लोग कार्यरत हैं) तो वहीं दूसरी तरफ दूरस्थ और ग्रामीण इलाकों के महाविद्यालयों में शिक्षकों का भयंकर अभाव है. जो लोग प्रभावशाली हैं वे किसी न किसी तरह प्रतिनियुक्ति आदि का जुगाड़ करके कॉलेजों में जाने से भी बच जाते हैं. यह विषयांतर होगा, लेकिन मेरी निजी जानकारी है कि बहुत सारे महापुरुषों और महामहिषियों ने बरसों से कॉलेजों का मुंह ही नहीं देखा है. कुछेक तो इतने महान हैं कि अपने दामन पर पढ़ाने का एक भी कलंक लगाए बगैर रिटायर तक हो गए. सरकार किसी की भी आई, वे पढ़ाने नहीं गए तो नहीं ही गए. तो ऐसे में ये जो नए पाँच हज़ार  विद्यार्थी हम अपनी संस्थाओं में लाने जा रहे हैं, उन्हें कौन पढ़ाएगा? क्या इनको पढ़ाने वालों के लिए नए पद मांग लिए गए हैं, उन पदों को प्रशासनिक और वित्तीय स्वीकृति मिल गई है, उन पदों को भरने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई ? अगर इन सारे सवालों के जवाब हां में हो तो भी हम सब जानते हैं कि इस सारी प्रक्रिया से गुज़र कर नए प्राध्यापकों को आने में एक साल से अधिक ही लग जाता है. यानि अगले शैक्षिक सत्र से पहले तो उम्मीद ही मत कीजिये. लेकिन यह सब तो तब की बात है, जब वो प्रक्रिया शुरू कर दी गई हो. असल में तो ऐसा हुआ नहीं है. यानि हमारे  पास इन नवागंतुक विद्यार्थियों के लिए न अध्यापक हैं, न कमरे, न फर्नीचर न कोई और संसाधन और हम इन्हें प्रवेश देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ रहे हैं.  क्या यह बात किसी को भी नज़र नहीं आती है? क्या यह विद्यार्थियों के साथ छल नहीं है? हम उनसे फीस लेंगे, लेकिन उनको पढ़ाएंगे नहीं. हमारे पास न पढ़ाने वाले हैं और न उन्हें बिठाने की जगह! हम क्यों प्रवेश दे रहे हैं इनको?

लेकिन दुखद बात यह कि इस पर कोई सवाल नहीं उठा रहा है. न विद्यार्थी, न उनके संगठन, न जन प्रतिनिधि, न शिक्षक और न शिक्षक संगठन. जैसे पाँच हज़ार विद्यर्थियों को प्रवेश देते ही सारी समस्याएं हल होने जा रही हैं. संकट प्रवेश का था, पढ़ाई का नहीं! विद्यार्थी संगठनों की  जीत हो गई, पाँच हज़ार नए वोटर मिल गए. और क्या चाहिये? पढाई की कहां और किसे ज़रूरत है? पढ़ाई हो यह तो किसी की भी चिंता में दूर-दूर तक नहीं है.
  
तो क्या सबने यह मान लिया है कि उच्च शिक्षा की गाड़ी तो ऐसे ही चलेगी? विद्यार्थी प्रवेश ले ले, जिसको स्कॉलरशिप मिलनी है वो स्कॉलरशिप ले ले, और घर  जाए, मज़े करे. अध्यापक भी बहुत सहज  निर्लिप्त भाव से कॉलेज जाए, अपना रजिस्टर उठाए, कक्षा तक जाए और यह कहता हुआ लौट आए कि क्या करें, विद्यार्थी आते ही नहीं हैं. प्रिंसिपल साहब भी डेढ़ दो बजे के बाद चैन की सांस लें कि चलो आज  का दिन तो बीता. डेढ़ दो बजे के  बाद ज़्यादातर कॉलेजों का माहौल कैसा होता है, यह बताने की ज़रूरत नहीं है. विश्वास न हो तो कभी जाकर देख लें. टाइमटेबल में भले ही कक्षाएं पाँच बजे तक दिखाई जाती हों, दो बजे के बाद ज़्यादातर कॉलेजों में सन्नाटा पसरा होता है.

यानि सब,  मंत्री जी से लेकर चपरासी तक इस झूठ-फरेब में शामिल हैं. क्या यह स्थिति क्षोभ जनक नहीं है? न कोई पढ़ाना चाहता है न कोई पढ़ना. बस आंकड़े पूरे हो जाएं. क्या  मतलब है उपस्थिति की अनिवार्यता का? हर साल कितने विद्यार्थियों को उपस्थिति की कमी की वजह से नियमित विद्यार्थी के रूप में परीक्षा देने से रोका जाता है? न्यायालय का आदेश है कि कक्षाओं में पिचहत्तर प्रतिशत उपस्थिति अनिवार्य  होनी चाहिए. अगर हर बरस अधिकांश विद्यार्थी नियमित परीक्षा देते हैं तो इसका मतलब यह है कि वे अपनी 75% कक्षाओं में हाज़िर रहते हैं. अब जो नए विद्यार्थी आएंगे वे भी हाज़िर रहेंगे, भले ही कॉलेजों में न कमरे हों, न फर्नीचर और न अध्यापक. है ना कमाल की बात!  यही बात विभिन्न छात्रवृत्तियों के सम्बन्ध में भी है. विद्यार्थी छात्रवृत्ति पाने का हक़दार तभी होता है जब कक्षा में उसकी उपस्थिति पूरी हो. यह हक़ीक़त है कि जो भी छात्रवृत्ति का पात्र है उसे छात्रवृत्ति मिलती ही है, यानि वह कक्षा में यथानियम उपस्थित रहता है. अगर इस नज़र से देखें तो एक चमत्कार का सामना करना होगा. चमत्कार यह कि दूर दराज़ के कॉलेजों में जहां न फर्नीचर है न कमरे  और न अध्यापक, वहां भी  हमारे अध्ययनशील विद्यार्थी नियमित रूप से उपस्थित होकर अध्ययन करते हैं! बहुत मुमकिन है कि वे पेड़ों के नेचे अपने-अपने रुमल बिछाकर बैठ जाते होंगे और स्वाध्याय करते होंगे. जय हो! 

क्या कोई यह बताएगा कि यह सारा नाटक क्यों हो रहा है और कब तक होगा? इस तरह किसको बेवक़ूफ बनाया जा रहा है? और बेवक़ूफ  बनाने के इस धत्कर्म पर कितना पैसा फूंका जा रहा है? क्यों आधे-अधूरे मन से उच्च शिक्षा के प्रसार का यह  भ्रमजाल फैलाया जा रहा है? क्यों इस तरह निर्ममता से पैसा फूंक कर अधकचरे स्नातकों की फौज तैयार की जा रही है जो कोई योग्यता न रखने पर भी (योग्य तो हम उन्हें बना ही कहां रहे हैं?) डिग्री धारी हो जाएगी और फिर यह रोना रोया जाएगा कि इतने सारे उच्च शिक्षा प्राप्त युवा बेरोज़गार हैं!

सोचिये, आखिर कब तक यह बेहूदा प्रहसन चलता रहेगा और आपकी हमारी ग़ाढ़ी कमाई का पैसा फूंका जाता रहेगा, युवाओं के हाथ में उच्च शिक्षा का झुनझुना पकड़ा कर उनको मूर्ख बनाया जाता और देश के भविष्य को धूमिल किया जाता रहेगा? कब तक?

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जयपुर से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र 'मॉर्निंग न्यूज़' में 16 जुलाई, 2012 को प्रकाशित.