हमारी मैसूर यात्रा के दूसरे दिन अगर टैक्सी वाले ने हमें निर्धारित कार्यक्रमानुसार
सभी स्थल घुमा कर जल्दी मुक्त न कर दिया होता और बैंगलोर लौटने से पहले तीन-चार घण्टे कहीं बिताने की विवशता न होती और अगर चामुण्डी
हिल जाते वक़्त एक सूचना पट्ट पर लिखी इबारत मेरे
जेह्न में अटकी न रह गई होती, तो यह बात
पक्की है कि हम इस शानदार संग्रहालय को देखने से वंचित रह गए होते. दरअसल मैसूर के
जितने भी दर्शनीय स्थलों के बारे में कहीं पढ़ा था उन सबको तो हमने देख लिया था, लेकिन इस संग्रहालय का तो कहीं कोई ज़िक्र ही नहीं था. मैं बात कर रहा हूं
विहार मार्ग, सिद्धार्थ ले आउट पर स्थित वाद्य यंत्रों पर आधारित मेलॉडी वर्ल्ड
नाम क वैक्स
म्यूज़ियम की.
जब भी कभी मोम के पुतलों के संग्रहालय की चर्चा होती है, मैडम तुसाद के
संग्रहालय का नाम अनिवार्यत: लिया जाता है.
तुसाद के संग्रहालय अमरीका, यूरोप, और एशिया के बारह शहरों में हैं और मुझे भी इनमें से लास
वेगस में स्थित
उनके संग्रहालय को
देखने का मौका मिला है. कहने की ज़रूरत नहीं है कि उनकी निर्मितियां विलक्षण होती हैं. अगर आप किसी बुत के सामने खड़े हो जाएं
तो आपको लगेगा कि यह अभी आपसे बात कर ने
लगेगा. हमने विभिन्न पत्रिकाओं में ऐसी बहुत सारी तस्वीरें भी देखी हैं जिनमें जीवित व्यक्ति अपने बुत के साथ खड़ा है और हम यह तै नहीं कर पाये
हैं कि जीवित व्यक्ति कौन-सा है और बुत कौन-सा! यह उचित ही है कि मैडम तुसाद के मोम
के पुतलों की इतनी चर्चा और सराहना होती है. मैडम तुसाद के संग्रहालयों का इतिहास
दौ सौ साल पुराना है और उनके पास साधनों और तकनीकी संसाधनों का कोई अभाव नहीं है. संग्रहालय
की उत्कृष्टता में इन सब बातों का भी कम योगदान नहीं है.
लेकिन भला यह कौन सोच सकेगा, कि हमारे
अपने देश के
मैसूर शहर में भी करीब-करीब वैसा ही एक संग्रहालय मौज़ूद है! बड़ी
बात यह कि यह संग्रहालय एक अकेले इंसान के
जुनून, श्रम और कौशल का परिणाम है.
47 वर्षीय श्रीजी भास्करन ने, जो पेशे से
एक व्यवसायी
और सूचना प्रौद्योगिकी इंजीनियर हैं, अकेले अपने दम
पर इस संग्रहालय को
बनाया है. श्रीजी ने मार्च 2007 में इस तरह का पहला संग्रहालय ऊटी में वैक्स
वर्ल्ड नाम से बनाया था. इसके बाद
जुलाई 2009 में उन्होंने पुराने गोआ में ऐसा ही एक संग्रहालय बनाया और फिर अक्टोबर 2010 में मैसूर में
यह संग्रहालय उन्होंने खड़ा
किया. मैसूर का यह संग्रहालय इस माने में खास है कि यह एक थीम आधारित संग्रहालय
है. इस संग्रहालय में वाद्य यंत्रों और संगीत से सम्बद्ध लगभग
100 मोम के पुतले हैं. इसके अलावा इसी
संग्रहालय में दुनिया के विभिन्न हिस्सों से खरीदे और जुटाए गए करीब 300 वाद्य यंत्र
भी हैं.
इस संगीत केन्द्रित संग्रहालय में संगीत से इतर भी कुछ प्रस्तुतियां हैं जो दर्शक पर
अमिट छाप छोड़ जाती हैं. मैसूर के महाराजा का राजसी और महात्मा
गांधी का सादगीपूर्ण स्टेच्यू तो इनमें से प्रमुख हैं ही, दो और प्रस्तुतियों के
ज़िक्र के बगैर यह वृत्तांत अपूर्ण रहेगा.
एक प्रस्तुति में ड्रग के कुपरिणामों को उनकी पूरी भयावहता के साथ उभारते हुए ‘से
नो टू ड्रग्स’ का संदेश दिया गया है तो एक
अन्य प्रस्तुति में एक सुंदरी एक क्रिकेटर को दस लाख रुपये का चैक थमा रही है,
ज़मीन पर कंकाल हो चुकी एक वृद्धा भिखारिन
बैठी है और पास ही एक बालक सिर पर कंक्रीट का
टोकरा लिए खड़ा है. इन सबके बाजू में कॉल सेंटर का आभास देती अलग-अलग देशों
का वक़्त बताने वाली छह घड़ियों के सामने खड़ा है एक सूटेड बूटेड युवक. भारत की तेज़ी
से बढ़ती जा रही आर्थिक विषमता पर भला इससे कड़ी टिप्पणी और क्या हो सकती है!
इस संग्रहालय के निर्माता श्रीजी भास्कर न डॉ ए पीजे अब ्दुल कलाम और कई अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के
स्टेच्यू बनाकर ख्याति
अर्जित करने के अलावा 500
किलोग्राम मोम से
बनाए हुए अपने 22 फुट लम्बे ‘द लास्ट सप्पर’ स्टेच्यू के लिए भी बहुत चर्चित रहे हैं. यह
स्टेच्यू अब गोआ के संग्रहालय में
रखा हुआ है. कहना
अनावश्यक है
कि इस तरह का काम
कोई जुनूनी इंसान ही कर
सकता है. मध्य पूर्व और ऑस्ट्रेलिया में अनेक कामयाब सूचना प्रौद्यौगिकी प्रोजेक्ट
कर चुके श्रीजी भास्करन अपने व्यवसाय
से जैसे-तैसे समय निकाल कर
और अपने संसाधनों के बल पर इतने उम्दा
संग्रहालय बना चुके हैं और पत्नी रीना तथा मात्र एक और सहयोगी के दम पर इन सबका
संचालन कर रहे हैं, इसकी जितनी तारीफ की जाए कम है. हम जानते हैं कि किसी भी सरकार
से सब कुछ करने की आशा करना
अनुचित होता है, लेकिन, अगर कोई अपने दम पर सब कुछ कर रहा हो तो सरकार से यह
उम्मीद करना कि वो उसकी तरफ सहायता और सम्बल का हाथ बढायेगी, क़तई अनुचित नहीं है.
हमें तो यह भी जानकर आश्चर्य हुआ कि राज्य सरकारों ने श्रीजी भास्करन के इन निजी
प्रयत्नों से बनाए गए शानदार संग्रहालयों को सम्बद्ध शहरों के दर्शनीय स्थलों की सूची
तक में जगह देने की ज़रूरत तक नहीं समझी है.
श्रीजी भास्करन इन संग्रहालयों के माध्यम से न केवल कुछ खूबसूरत को देखने का सुख प्रदान करते हैं, अपनी
प्रस्तुतियों के माध्यम से वे देश की विरासत के संरक्षण और सकारा त्मक मूल्यों के प्रचार का काम भी करते हैं. जहां ये तीन
संग्रहालय स्थित हैं उन कर्नाटक ,
तमिलनाडु और गोआ की सरकारों तथा भारत सरकार से यह उम्मीद करना अनुचित नहीं होगा कि वह कम से कम इन
शानदार संग्रहालयों का समुचित प्रचार-प्रसार तो करेगी. और भी अच्छा तो यह हो कि ये
सरकारें इस कलाकार को सम्मानित और पुरस्कृत करें तथा आर्थिक सम्बल भी प्रदान करे
ताकि वह अपने उम्दा काम को और विस्तार दे सके.
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दैनिक नवज्योति में रविवार दिनांक 15 जुलाई 2012 को प्रकाशित आलेख.