Friday, November 30, 2012

कैसे समझाएं इन्हें

Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा


काफी दिनों से बढ़ते जा रहे मोतियाबिंद से परेशान था. ऑपरेशन कराना टालता जा रहा था.  बात यह है कि ऑपरेशन चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो, उससे डर तो लगता ही है. लेकिन वो कहा जाता है ना कि बकरे की अम्मा कब तक ख़ैर मनाएगी. कई दोस्तों से पूछा, और सबकी राय का आकलन करने के बाद जा पहुंचा शहर के सबसे नामी, सर्वाधिक आधुनिक सुविधाओं वाले (और  इसीलिए स्वाभाविक रूप से खासे महंगे भी)  नेत्र चिकित्सालय में. रिसेप्शन काउण्टर पर लगी एक पट्टिका पर नज़र पड़ी तो दिल खुश हो गया. लिखा था: “अस्पताल में मरीज़ कृपया अपने मोबाइल बन्द रखें.” यह हुई ना बात. लोगों को मोबाइल इस्तेमाल करने का शऊर ही कहां है? जहां देखो वहीं शुरू हो जाते हैं, बिना आस-पास वालों की असुविधा का ज़रा भी खयाल किए. रिसेप्शन काउण्टर पर रजिस्ट्रेशन करवाया, दो जगह जूनियर डॉक्टरों से अपनी आंखें जंचवाई और फिर मुझे पहुंचा दिया गया अस्पताल के मुख्य डॉक्टर के कक्ष में. उन्हीं के नाम पर यह अस्पताल है. वे एक मरीज़ को देख रहे थे, मुझे पास पड़े सोफे पर बिठा दिया गया. वे मरीज़ को देख रहे थे, पास खड़े एक दोस्त से बात कर रहे थे और कान में लगे ईयर फोन पर किसी की बात सुनते हुए यदा-कदा उन्हें भी जवाब देते जा रहे थे. इसी बीच वो मरीज़ निपट गया. अब  मुझे डॉक्टर के सामने वाली स्टूल पर बिठा दिया गया. मेरा कार्ड डॉक्टर के सामने था. उनका द्वि-चैनली संवाद पूर्ववत जारी रहा. और उसी के साथ मेरी आंखों की जांच भी हो गई. मुझसे कुछ पूछने की ज़रूरत उन्हें महसूस नहीं हुई. पास खड़े उनके सहायक ने जब मुझे उठने का संकेत किया तो मैंने ढीढ बनकर डॉक्टर से कहा कि आपने मुझसे कुछ भी तो नहीं पूछा. और तब बेमन से उन्होंने एक दो सवाल किए और मुझे बाहर भेज दिया. उनकी जल्दी में शायद इतना ही सम्भव था.

बाहर मुझे बताया गया कि मुझे अपनी दोनों आंखों का ऑपरेशन करवाना होगा. बहरहाल, किस्सा कोताह यह कि निर्धारित तिथि को निर्धारित समय पर मैं अपनी आँख का ऑपरेशन करवाने अस्पताल पहुंच गया और कुछ प्रारम्भिक चिकित्सकीय कामों के बाद लेजाकर मुझे ऑपरेशन टेबल पर लिटा दिया गया. कक्ष में कुल तीन लोग थे. एक स्वयं वे डॉक्टर, एक उनकी सहायिका और एक परिचारक. सहायिका जी ने बहुत कोमलता से मेरी आँख के नीचे निश्चेतन करने वाला इंजेक्शन लगाया, मेरी दोनों आंखों को ढक दिया गया और जिस आँख का ऑपरेशन होना था, उस पर पड़े आवरण में एक खिड़की बना दी गई. अब जो करना था मुख्य डॉक्टर को करना था. मुझे आभास तो हो रहा था कि मेरी आँख के साथ क्या हो रहा है, लेकिन महसूस कुछ नहीं हो रहा था. डॉक्टर अपने दक्ष हाथों से मेरी आँख में कुछ कर रहे थे और साथ-साथ अपनी सहायिका जी से गपशप भी करते जा रहे थे. मुझे वो गपशप क़तई अच्छी नहीं लग रही थी, लेकिन इतनी हिम्मत भी नहीं हो रही थी कि उन्हें मना करूं. थोड़ी देर बाद मुझे आवाज़ से पता लगा कि डॉक्टर साहब मोबाइल पर किसी से बात भी कर रहे हैं. हाथ उनके बदस्तूर चल रहे थे. बात सामान्य किस्म की थी, लेकिन लम्बी चली. मैं कुढ़ता रहा. कोई पन्द्रह मिनिट लगे होंगे इस सब में, और मेरी ऑपरेशन की गई आँख पर पट्टी चिपका कर मुझे ऑपरेशन थिएटर से बाहर छोड़ दिया गया.

पन्द्रह दिन बाद मेरी दूसरी आँख का ऑपरेशन हुआ और उस दौरान भी यही सब हुआ. यानि डॉक्टर साहब का फोन पर बतियाना, अपनी सहकर्मी से  गपशप करना वगैरह. ख़ैर! ऑपरेशन हो गया, और मैं घर आ गया. लेकिन घर आकर तमाम दूसरी व्यस्तताओं के बीच भी यह बात मन में घुमड़ती रही कि मरीज़ को देखते वक़्त और उसके बाद ऑपरेशन के वक़्त डॉक्टर का अपने सहकर्मी से और मोबाइल पर गपशप करते रहना कितना वाज़िब था. यह सब करते हुए उनके हाथ ज़रा भी इधर-उधर हो  जाएं तो? क्या आँख के ऑपरेशन जैसे नाज़ुक काम में एकाग्रता की ज़रूरत नहीं होती है? क्या किसी डॉक्टर का अपने मरीज़ के साथ इस तरह का गैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार उचित है? वगैरह. काफी सोच-विचार के बाद,  अपनी तमाम नाराज़गी पर काबू पाते हुए, यथासम्भव संयत लहज़े में मैंने एक पत्र इन डॉक्टर महोदय को लिखा और ई मेल कर दिया.

बहुत जल्दी ही मुझे डॉक्टर महोदय का उत्तर भी मिला. मुझे खुशी इस बात की हुई कि अपने उत्तर में उन्होंने मेरी प्रतिक्रिया पर, जो शालीन होने के बावज़ूद मधुर तो नहीं ही थी, कोई नाराज़गी ज़ाहिर नहीं की, लेकिन  उनका जवाब यह था कि वे खुद भी चाहते हैं कि ऐसा न करें, लेकिन मरीज़ों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए उन्हें ऐसा करना पड़ता है. यानि, बहुत कुशलता से उन्होंने अपने व्यवहार का दायित्व मरीज़ों की सुविधा के नाम कर दिया. या फिर उन्होंने समझकर भी मेरी बात को नहीं समझा.  अब उनके इस उत्तर पर क्या कहा जा सकता है सिवा चचा ग़ालिब को याद करने के :
                            या रब न वो  समझे  हैं न  समझेंगे मेरी बात
                            दे और दिल उनको जो न दें मुझको ज़ुबाँ और!
***
दिनांक 30 नवम्बर 2012 को जनसत्ता में 'दुनिया मेरे आगे' स्तम्भ में 'सुविधा के ख़तरे' शीर्षक से प्रकाशित. 

Saturday, October 6, 2012

“हममें यह योग्यता भरपूर है कि हम अच्छी से अच्छी योजना को मिट्टी में मिला सकते हैं”

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डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल से कालू लाल कुलमी की बातचीत


वर्तमान शिक्षा पद्धति के बारे में आपकी क्या राय है?  
मोटे तौर पर तो मैं यह मानता हूं कि पद्धतियां सब ठीक होती हैं, असल  बात तो यह है कि आप उन्हें बरतते किस तरह से हैं. और जहां तक बरतने का सवाल है, अपने देश के सन्दर्भ में जितना कम कहा जाए उतना ही अच्छा है. हममें और कोई योग्यता हो न हो, यह योग्यता भरपूर है कि अच्छी से अच्छी पद्धति, अच्छी से अच्छी योजना को हम मिट्टी में मिला सकते हैं. अपने देश में आज़ादी के बाद भी अनेक आयोग बने, और उन्होंने शिक्षा पद्धति में बदलाव के लिए अनेक बेहतरीन अनुशंसाएं भी कीं. कुछ अनुशंसाओं को स्वीकार भी किया गया. लेकिन नीचे तक आते-आते उनका कोई मतलब नहीं रह जाता है. आपको लगता है कि कहीं कुछ भी नहीं बदला है. और अगर  बदला है तो इतना कि चीज़ें बदतर ही हुई हैं. देखो, असल बात यह होती है कि आपकी मंशा  क्या है. आपके  इरादे क्या हैं. जहां आपके इरादे नेक होते हैं वहां बिना किसी पद्धति के भी उम्दा काम हो जाते हैं, और जहां इरादे नेक नहीं होते हैं वहां बेचारी पद्धति भी क्या कर लेगी? यह बात कहने में भले ही खराब लगे, लेकिन मुझे तो लगता है कि हमारे देश में कोई काम करना ही नहीं चाहता है. न मंत्री, न अफसर और न अध्यापक. विद्यार्थी भी पढ़ना नहीं चाहता. वह यह चाहता है कि बिना पढ़े पास हो  जाए, डिग्री  मिल जाए, नौकरी मिल जाए और फिर बिना कुछ किए उसे मोटी तनख्वाह मिलती रहे. और बेचारे विद्यार्थी को भी दोष क्यों दें! आखिर वह भी तो इसी हवा में सांस ले रहा है.  ऐसे में मुझे तो पद्धति की बात करना ही व्यर्थ लगता है.  

शिक्षा  का बुनियादी ढांचा किसके अनुकूल और किसके प्रतिकूल होता जा रहा है? 
यहां मैं आपके प्रश्न को पूरे देश के परिदृश्य  के साथ जोड़कर देखना-समझना चाहूंगा. आज़ादी के बाद के बरसों में भले ही हमारा आदर्श समाजवाद  रहा हो और हमने उस दिशा में काफी प्रयास भी किए हों, अब कम से कम मुझे तो इस बात में कोई संशय नहीं रह गया है कि हम समाजवाद को पूरी तरह त्याग चुके हैं. आज का समय बेशर्म पूंजीवाद का समय है. मुझे लगता है कि इससे आपको अपने सवाल का जवाब भी मिल गया होगा. फिर भी अगर आप मुझी से सुनना चाहते हैं तो मैं कहूंगा कि आज न सिर्फ शिक्षा, सब कुछ सिर्फ़ और सिर्फ उनके पक्ष में है जो अमीर या ताकतवर है.

स्कूली शिक्षा का ग्रामीण और नगरीय स्वरूप किस तरह से पटने की जगह बंटता जा रहा है? 
आपके इस प्रश्न का भी जवाब ऊपर वाले उत्तर में आ जाता है. भाई, हम तो गांवों  को नष्ट करने और शहरों को फैलाने में जुटे हैं. ग्रामीण शिक्षा हमारी प्राथमिकता में है ही नहीं.  अलबत्ता चुनावी विवशताओं की वजह से इसका दिखावा ज़रूर किया जाता है. और उस दिखावे में भी थोड़ा-बहुत सार्थक हो जाता, अगर निचले स्तर पर काम करने वालों में ज़रा भी ईमानदारी, नैतिकता और आदर्श-भाव होता. गांव के स्कूल के मास्टर का बर्ताव आप देख लीजिए. हो सकता है कुछ अध्यापकों में उचित मात्रा में आदर्श भाव भी बचा हो, अधिसंख्य  अध्यापक केवल अपनी नौकरी बजाने और तनख्वाह कमाने से ताल्लुक रखते हैं. और वैसे बेचारे अध्यापक को भी क्यों दोष दें? जब चारों तरफ का माहौल ऐसा है तो वो उससे अलग कैसे हो सकता है! तो, आपके सवाल पर लौटूं. मुझे यह कहने की अनुमति दें  कि ग्रामीण शिक्षा का जो स्वरूप अब बचा है वह अत्यधिक दारुण है और उसके और शिक्षा के नगरीय स्वरूप के बीच बहुत बड़ी खाई है.

सरकारी स्कूलों के प्रति सरकार की उदासीनता के बारे में क्या कहेंगे? जिस समय तारे ज़मीन पर फिल्म आई थी उस समय इस बात पर बहुत बहस हुई. शिक्षाविद फिल्म की सराहना करते हुए कहते रहे कि यह फिल्म अगर किसी सरकारी स्कूल पर बनती तो ज़्यादा तथ्य और सत्य सामने आते. 
अपनी नौकरी में मेरा सम्बन्ध स्कूली शिक्षा से नहीं रहा, लेकिन मैं बराबर महसूस करता हूं कि सरकार की सरकारी स्कूलों में दिलचस्पी दिखावटी है, वास्तविक नहीं. सरकार खुद अपने तामाम कल्याणकारी प्रतिष्ठान नष्ट करने में जी-जान से जुटी है. मेरा सम्बन्ध उच्च शिक्षा से रहा है और वहां भी यही हाल है. अस्पतालों का भी यही हाल है. सड़कों का भी. लगता है कि सरकार  खुद यही चाहती है कि ये तमाम कल्याणकारी काम जल्दी से जल्दी बन्द हो जाएं. पूंजीवाद की गोद में जा बैठने की परिणति और हो भी क्या सकती है? इस सारी स्थिति  को तारे ज़मीन  पर  से जोड़ कर देखने की मुझे कोई ज़रूरत नहीं लगती. वह बहुत उम्दा फिल्म थी, लेकिन उसका फोकस इस बात पर तो नहीं था. इसलिए उसे अलग ही रहने दें.

आप अध्यापक के रूप में अपने पेशे में सफल रहे! आपको क्या बात परेशान करती रही, जिसको आप बदलने के लिए सदैव तत्पर रहे? 
यह तो मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं अपने ‘पेशे’ में सफल रहा! मूल्यांकन दूसरे ही करें तो ज़्यादा ठीक रहता है. लेकिन हां, अब पीछे मुड़कर देखने पर मुझे इस बात का संतोष है मैं अपना काम पूरी निष्ठा से कर सका. मैंने इस बात की परवाह बहुत कम की कि और लोग, मेरे साथी वगैरह  क्या कर रहे हैं. खुद पर ध्यान केन्द्रित किया कि मुझे क्या करना है. एक अध्यापक का कर्म बहुत हद तक एकल होता है. औरों के सहयोग की उसमें बहुत ज़्यादा अनिवार्यता नहीं होती. अगर कमरा नहीं खुला है तो आप बाहर बैठकर भी पढ़ा सकते हैं. जीवन के ज़्यादा बड़े हिस्से में तो मैं अध्यापक ही रहा, और मैं इस बात पर अपनी पीठ थपथपा सकता हूं कि मैंने पढ़ाने में कभी कोताही नहीं की. अच्छा पढ़ाया  या  बुरा, यह मेरे विद्यार्थी  जानें.  बाद में जब प्रशासनिक दायित्व वहन करने का समय आया तो यह ज़रूरी हो गया कि मेरी टीम और मेरे बीच तालमेल हो. हमारे लक्ष्य समान हों. प्रशासन में आप जानते ही हैं कि बहुत सारा काम होता है जो आपको अपने अधीनस्थों से करवाना होता है. आप एक पत्र लिख देंगे, लेकिन उसे टाइप कोई और करेगा, पुट अप कोई और करेगा, डिस्पैच कोई और करेगा. यह एक उदाहरण है. तो ऐसे में कहीं एक भी कड़ी कमज़ोर हो तो सारा किया-कराया व्यर्थ हो जाता है. मेरे प्रशासनिक कार्यकाल में भी ऐसा होता रहा है. इसीलिए मैं उसे अपने अध्यापन के अनुभव से अलग करके देखना चाहता हूं. लेकिन, अपने प्रशासनिक कार्यकाल में भी मेरी कोशिश रही कि जो लोग मेरे पास आएं उनके काम जितना मुमकिन हो उतनी सहजता से हो जाएं. मेरी इस मंशा को पूरा करने में मुझे बहुत हद तक अपने अधीनस्थों और अधिकारियों का सहयोग भी मिला. हालांकि मैं जितना करना चाहता था, लेकिन उतना हो नहीं पाया. इसे आप चाहे तो मेरी सीमा भी मान लीजिए. मैं जिस पद पर था उस पद पर मैंने महसूस  किया कि जो निर्णय प्रशासनिक स्तर पर होने चाहिये थे वे सारे के सारे राजनीतिक स्तर पर होने लगे हैं. कभी कभी तो यह भी महसूस हुआ कि क्यों हम पर तनख्वाह का इतना भारी खर्च किया जा रहा है? जिस काम के लिए हमें रखा गया है वो सारा काम तो मंत्री महोदय या उनके आगे-पीछे घूमने वाले  ही कर रहे हैं. हमारे पास तो बस एक काम बचा था, और वो था फाइल पर ‘यथाप्रस्तावित’ लिख देना. हो सकता है बहुत सारे मित्रों को लगे कि हथियार डाल कर मैंने पलायन किया. यह भी हो सकता है कि अगर मेरी जगह कोई और रहा होता तो उसने उससे कुछ अलग किया होता जो मैंने किया.  जो हो, अब वह बात काफी पुरानी हो गई है. लेकिन यदा-कदा मित्रों से बात होती है तो पता चलता है कि अब स्थितियां और भी अधिक खराब हो गई हैं. पहले पाँच-दस प्रतिशत गुंजाइश इस बात की थी कि हम अपनी बात कह लें, अब शायद वो भी नहीं बची है. मुझे हमेशा लगता रहा और अब भी लगता है कि नीति निर्माण का काम नेताओं का है और उसे क्रियान्वित  करने का काम अधिकारियों का. दोनों के बीच संवाद हो लेकिन कर्तव्य निर्वहन करते वक़्त दोनों अपनी-अपनी लक्ष्मण रेखाओं का खयाल रखें. कहना अनावश्यक है कि  मैं इस दिशा में कुछ ख़ास नहीं कर सका. अपने बचाव में मैं यह और जोड़ना चाहूंगा कि इस स्थिति को बदलने के लिए मैं बहुत छोटा और निष्प्रभावी था.

आज़ादी के बाद हमारा समाज मूल्यों के साथ जड़ताओं को ख़त्म करने का संकल्प करता हुआ आगे बढ़ता है. आज़ादी के पैंसठ वर्षों बाद तकनीकी शिक्षा की बाढ़ आ गई है. तमाम व्यापारी शिक्षा के बाज़ार में उतर रहे हैं. अपने नाम पर विश्वविद्यालय खोल कर बैठ गए हैं. यह किस तरह के भविष्य का संकेत है? 
वैसे तो आपके सवाल में ही जवाब भी छिपा हुआ है. आज़ादी के बाद के हमारे संकल्प बहुत बेहतरीन थे, लेकिन हुआ यह कि हमने धीरे-धीरे उनको विस्मृत कर दिया. और अब तो से सिर्फ किताबों में बचे रह गए हैं. तकनीकी शिक्षा की बाढ़ असल में एक विश्वव्यापी फिनोमिना  है. सारी दुनिया में यही हो रहा है. भारत कोई अकेला नहीं है. लेकिन मैं इसी के साथ यह भी जोड़ना चाहता हूं कि इस स्थिति को विकट बनाने में हम लोगों का यानि अकादमिक विषयों की शिक्षा देने वालों का भी बहुत बड़ा योगदान है. अब आप मेरे विषय की यानि हिंदी की बात लीजिए. हमारे अधिकांश विश्वविद्यालयों में हिंदी का जो पाठ्यक्रम है उसे देखिए और फिर बताइये कि आखिर क्यों पढ़े कोई हिंदी? यह पाठ्यक्रम पढ़ा कर आप उसे यानि एक युवा को किस काबिल बना रहे हैं? स्तर को गिराते-गिराते हम यहां तक ले आए हैं कि अब आम विद्यार्थी मूल कृति को पढ़ना तो दूर उसे देखता तक नहीं है. समझने की तो बात ही छोड़  दीजिए. कमोबेश यही हालत अन्य अनुशासनों की भी है. और वैसे तो तकनीकी शिक्षा के हाल भी कोई खास अच्छे नहीं हैं. लेकिन उस शिक्षा का बाज़ार तो है.
आपने सही कहा कि तमाम व्यापारी शिक्षा की दुकानें खोल कर बैठ गए हैं. मुझे तो लगता है कि आज देश में सबसे बड़ा और मुनाफे का धन्धा ही शिक्षा का है. सरकार धीरे-धीरे  न सिर्फ उससे हाथ खींचती जा रही है, लूटने वालों को खुली छूट भी देती जा रही है. बेशक हालात  एक अन्धकारमय भविष्य के ही हैं.

आज की शिक्षा हमें न तो काबिल बनाती है न कामयाब! हां, वह युवा बेरोज़गार ज़रूर बनाती है. क्या कहेंगे? 
देखो, इतने बरस शिक्षा के क्षेत्र में काम करने और स्थितियों को नज़दीक से देखने समझने के बाद मैं यह कहने में ज़रा भी झिझक महसूस नहीं करता कि  आज की शिक्षा किसी को भी काबिल नहीं बना रही है. हर जगह तो शॉर्ट कट अपनाए जा रहे हैं. पास बुक्स, इम्पोर्टेण्ट प्रश्न, दस में से पाँच सवाल, उपस्थिति की अनिवार्यता से मुक्ति, इण्टरनेट से उठाई गई सामग्री, पैसे  देकर बनवाए गए प्रोजेक्ट्स... क्या है यह सब? जो विद्यार्थी हिंदी में एम. ए. करके निकलता है  वह ‘सुरदास’ लिखता है और हम उसे पास करते हैं. शुद्ध भाषा में वो चार पंक्तियां नहीं लिख सकता. मेरा सवाल है, वो कामयाब हो भी क्यों? उसमें ऐसी क्या बात है कि वो कामयाब हो? और बेरोजगार वो शिक्षा की वजह से है? या अपने निकम्मेपन की वजह से? अपनी काहिली की वजह से? उसे तो बस मस्ती मारने के लिए कॉलेज में एडमिशन लेना है. फिर न तो क्लास में आना है, न पढ़ना है, न मेहनत करनी है. आप मुझे बताइये कि उसे बेरोज़गार क्यों नहीं होना चाहिये? हां, इस बीच एक बात और हुई है. नेहरु का समाजवादी मॉडल त्याग देने की वजह से सरकारी नौकरियां बहुत कम हो गई हैं. ये सारे निकम्मे लोग सरकारी नौकरियों में खप जाया करते थे. अब इनके लिए वे चरागाह तो बहुत सीमित हो गए हैं. निजी क्षेत्र नौकरी देता है तो काम भी चाहता है और काम न ये कर सकते हैं, न करना चाहते हैं. इसलिए मेरे भाई, इनकी बेरोज़गारी के लिए मैं सिर्फ शिक्षा को दोषी नहीं मानता.

हर जगह निजी स्कूल कॉलेजों की बाढ़ आ रही है. यह इस देश की साठ प्रतिशत गरीब आबादी को किस तरह का भविष्य देने का वादा है? 
यह बात पहले भी कही जा चुकी है कि सरकार धीरे-धीरे अपने दायित्वों से पीछे हट रही है. शिक्षा, चिकित्सा सब उसने निजी क्षेत्र के हवाले करने की मुहिम चला रखी है. ज़ाहिर है कि यह स्थिति बहुत बुरी है.

समाज के निर्माण में शिक्षा का योगदान कम होता जा रहा है. शिक्षा पर व्यय को  अनुत्पादक खर्च के रूप में देखा जा रहा है. यह किस तरह  का संकेत है? 
आने वाले बुरे दिनों का सूचक है. और क्या कहूं?
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डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल 
ई-2/211, चित्रकूट, जयपुर -302021.
dpagrawal24@gmail.com

कालू लाल कुलमी
गांव राजपुरा, पोस्ट कानोड़, तहसील वल्लभनगर ज़िला उदयपुर (राजस्थान) पिन- 313604.
Paati.kalu@gmail.com

Thursday, August 2, 2012

“संगीत सतत साधना है और यहां सफलता का कोई शॉर्ट कट नहीं है” सुविख्यात वायलिन वादिका डॉ एन. राजम से डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल की बातचीत

1930 के दशक में चैन्नई में एक विख्यात सांगीतिक  परिवार में जन्मीं एन. राजम आज देश की शीर्षस्थ वायलिन वादिकाओं में से एक मानी जाती हैं. लेकिन उनकी इस प्रतिष्ठा  के पीछे है साधना और समर्पण की सुदीर्घ महागाथा.  चार वर्ष की अल्प वय में उनके पिता, सुपरिचित एवम सम्मानित वायलिन वादक विद्वान ए. नारायणन ने उन्हें वायलिन बजाना सिखाना शुरू कर दिया था. निष्णात पिता की शिक्षा और कुशाग्र-बुद्धि पुत्री-शिष्या के इस मणिकांचन  संयोग की एक परिणति तो यह हुई कि नौ बरस की होते-होते तो एन. राजम आकाशवाणी पर वायलिन बजाने लग गई और मात्र 13 वर्ष की होने पर उन्हें आकाशवाणी के ही नेशनल प्रोग्राम में श्रीमती एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी के साथ बजाने का अवसर  मिल गया. इसी दौरान उन्हें पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर के कुछ रिकॉर्ड्स सुनने का अवसर मिला और वे पण्डित जी के गायन से इतनी अधिक प्रभावित हुईं कि उनकी शिष्या बनने का सपना देखने लगीं. लेकिन यह स्वप्न साकार बहुत बाद में हो सका. पण्डित जी की शिष्या बनीं वे 1954 में और फिर तो 1970 में पण्डित जी के स्वर्गवास तक वे उनकी शिष्या ही बनी रहीं.  पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का यह शिष्यत्व एन. राजम की संगीत साधना का अत्यधिक महत्वपूर्ण पड़ाव है.  


एन. राजम ने संगीत साधना के साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखी. दसवीं  तक की पढ़ाई उन्होंने चैन्नई में ही की और उसके बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राइवेट विद्यार्थी के  रूप में इण्टर, बी.ए. तथा एम. ए. की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं. इनके अलावा उन्होंने गन्धर्व महाविद्यालय से बी.म्यूज़. तथा प्रयाग संगीत समिति से एम. म्यूज़. की उपाधियां भी अर्जित कीं. 


अपनी अकादमिक शिक्षा पूरी कर एन. राजम ने 1959 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक पद पर काम करना शुरू किया और उसी विश्वविद्यालय से हिंदुस्तानी और कर्नाटक प्रणालियों का तुलनात्मक अध्ययन विषयक शोध-कार्य कर पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की. श्रीमती राजम ने लगभग चार दशकों तक विश्वविद्यालय की सेवा की और  अपने विश्वविद्यालय के संगीत विभाग की अध्यक्षा और संगीत नाट्य संकाय विभाग की अधिष्ठाता के पदों तक पहुंचीं. 


श्रीमती एन राजम के शिष्यों की संख्या तो इतनी है कि उसकी गिनती भी मुमकिन नहीं है, लेकिन उनकी सबसे ज़्यादा विख्यात शिष्या उनकी पुत्री संगीता शंकर ही हैं, हालांकि  उनकी भतीजी कला रामनाथ ने भी खूब नाम कमाया है. इनके अलावा रागिनी और नंदिनी शंकर, प्रणव कुमार, सत्य प्रकाश मोहंती, वी. बालाजी और स्वर्ण खूंटिया आदि का नाम भी सुपरिचित है.  श्रीमती एन राजम के भाई टी. एन कृष्णन खुद बहुत नामी वायलिन वादक हैं. 


श्रीमती एन राजम को अनगिनत पुरस्कारों  और सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है और यह सिलसिला अभी भी जारी है. सुर सिंगार संसद ने उन्हें 1967 में ‘सुरमणि’ की उपाधि प्रदान की तो संगीत नाटक अकादमी ने पुरस्कृत किया और काशी हिंदू  विश्वविद्यालय ने मदनमोहन मालवीय पुरस्कार प्रदान किया. भारत सरकार ने 1984 में आपको पद्मश्री से और 2004 में पद्म भूषण से अलंकृत किया. 2004 में ही आपको पुत्ताराजा सम्मान भी प्रदान किया गया. वर्ष 2010 में आपको पुणे की आर्ट एण्ड म्यूज़िक फाउण्डेशन ने पुणे पण्डित अवार्ड से नवाज़ा. 


कई बरस पहले मुझे वाराणसी में एक शाम श्रीमती एन. राजम से  लम्बी बातचीत करने का मौका मिला. इस बातचीत का आलेख मेरे कागज़ों में कहीं दबा रह गया. प्रस्तुत है उसी बातचीत के कुछ अंश: 

हम अपनी बातचीत यहीं से प्रारम्भ करें कि आज़ादी के बाद से भारतीय संगीत परिदृश्य में क्या बड़े परिवर्तन आए हैं? 
सबसे बड़ा परिवर्तन तो यह आया है कि जो संगीत पहले कुछ लोगों तक सीमित था, वह अब सर्व-सुलभ हो गया है. यह बात सीखने और सुनने दोनों पर समान रूप से लागू होती है. विश्वविद्यालयों में भी संगीत की शिक्षा दी जाने लगी है. इस सांस्थानिक शिक्षण की नींव पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने रखी थी.

क्या आप ऐसा मानती हैं कि संस्थाओं में दी गई शिक्षा से कलाकार तैयार हो सकते हैं? 
हां, अगर गुरुकुल परम्परा की अच्छाई संस्थागत शिक्षण में अंगीकार की जाए तो कलाकार भी तैयार हो सकते हैं. गुरुकुल में कई वर्ष तक एक ही राग सिखाया जाता था. अब पाठ्यक्रमों में विस्तार पर ज़्यादा बल होता है. इस पर पुनर्विचार आवश्यक है. फिर, यह मत भूलिये कि संस्थागत शिक्षण मात्र कुछ ही बरस पुराना तो है. लम्बे समय तक तो यह कहकर ही संगीत शिक्षा का विरोध किया जाता रहा है कि तबला वगैरह विश्वविद्यालय में क्यों ला रहे हैं!  संस्थागत शिक्षण को अभी बहुत कम समय हुआ है. अभी उसके मूल्यांकन का उपयुक्त अवसर  नहीं है.

आप दक्षिण भारत से हैं, इसलिए आपसे यह जानना चाहता हूं कि आज कर्नाटक और हिंदुस्तानी संगीत परिदृश्य में क्या बड़े अंतर हैं? 
मुझे तो दोनों जगह एक-सी स्थितियां लगती हैं. कोई आधारभूत अंतर दिखाई नहीं देता. दोनों ही जगह पहले संगीत का मतलब शास्त्रीय संगीत होता था, फिर सिनेमा आया और अब टीवी वगैरह, और इन्होंने क्रमश: संगीत की परिभाषा बदलने में बड़ी भूमिका अदा की.

आपने अभी कहा कि सिनेमा और टीवी ने संगीत को बदलने में बड़ी भूमिका अदा की है. किस तरह हुआ है यह?
पूरी तरह से इनकी बुराई तो मैं नहीं करना चाहती. इनके कारण शास्त्रीय आधार वाले अनेक गीत लोकप्रिय होकर जनता तक पहुंचे ही हैं, लेकिन कुल मिलाकर इनके कारण जनता का ध्यान शास्त्रीय संगीत से हटा भी है.

शास्त्रीय संगीत के प्रचार-प्रसार में सरकार की भूमिका के बारे में आप क्या सोचती हैं? 
सरकार ने सांस्कृतिक छात्रवृत्तियों, सांस्कृतिक केन्द्रों आदि के माध्यम से और कलाकारों को संरक्षण देकर काफी काम किया है, पर हमारा देश इतना बड़ा है कि जो किया गया है वह दिखाई ही नहीं देता है. यानि, और भी काफी कुछ किया जाना ज़रूरी है. भारत महोत्सवों आदि में ज़्यादा ज़ोर लोक कलाओं पर ही रहा है. मैं यह कहना चाहती हूं कि सरकार को चाहिये कि वो संगीत को अनिवार्य विषय बनाए, पहली कक्षा  से ही संगीत की शिक्षा सबको दी जाए. ऐसा करने से लोग कान से तैयार होंगे. तब अपने आप संगीत  का संवर्धन होगा.

आज की युवा पीढ़ी शास्त्रीय संगीत के प्रति कैसा नज़रिया रखती है?
जहां परिवारों में शास्त्रीय संगीत के प्रति कुछ रुझान है वहां तो बच्चे भी उसमें  रुचि लेते हैं, लेकिन जहां ऐसा नहीं है वहां ज़्यादा उम्मीद नहीं रखी जा सकती. हमारे संचार माध्यम शास्त्रीय संगीत की तुलना में फिल्म संगीत को अधिक समय देते हैं, इसका भी युवा पीढ़ी  पर खासा असर पड़ता है. लेकिन इस सबके  बावज़ूद  ‘स्पिक मैके’ जैसी संस्थाओं ने बहुत बड़ा काम किया है. मैं प्रारम्भ से ही इस संस्था के साथ हूं. वैसे भी मेरे मन में विद्यार्थियों के प्रति एक सहज अनुराग का भाव है. मैं पाती हूं कि जहां भी पहले ‘स्पिक मैके’  का कोई आयोजन होता है, उपस्थिति थोड़ी कम होती है, लेकिन धीरे-धीरे वातावरण बनने लगता है.

अपने समकालीन कलाकारों के साथ जुगलबन्दी के आपके अनुभव कैसे रहे हैं? मुझे लगता है कि इस बारे में आप अधिक उत्साही नहीं रही हैं.
हां, आपका खयाल ठीक है. मैंने इस तरफ ज़्यादा रुचि नहीं दिखाई. इसका कारण यह है कि जुगलबन्दी में बहुत जल्दी अहम का टकराव होने लगता है. कलाकार एक दूसरे को नीचा दिखाने के तरीके ढूंढ़ने लगते हैं. किसी को डाउन करना बड़ी बात नहीं है, पर मैं मानती हूं कि इस दृष्टि से स्टेज पर जाना ही नहीं चाहिए. आखिर क्यों किसी से सम्बन्ध खराब किये जाएं? लेकिन ऐसा नहीं है कि हर कलाकार के साथ ऐसा ही होता हो. बिस्मिल्लाह खां साहब के साथ मेरे बहुत अच्छे अनुभव रहे हैं. इसका एक कारण यह भी रहा कि उनकी और मेरी दोनों ही की वादन शैली गायकी अंग की है.

इधर हमारे कलाकारों में प्रयोगशीलता की तरफ़ भी काफी झुकाव दिखाई देता है. कईयों ने पूर्व-पश्चिम मिलन के प्रयास भी किए हैं. क्या आपने भी ऐसा कुछ किया है?
मेरा विश्वास परम्परा की शुद्धता में है. यह कहकर मैं दूसरे कलाकारों की आलोचना नहीं कर रही हूं. हो सकता है कि उनकी प्रयोगशीलता में भी कोई अच्छी बात हो, पर मैं मानती हूं कि दो अलग-अलग संगीत धाराओं या शैलियों को मिलाने की कोशिश का कोई औचित्य नहीं है. यह मेरी अपनी पसन्द की बात है.

भारत में और विशेषत: भारतीय भाषाओं में संगीत-समीक्षा की क्या स्थिति है? 
बड़े शहरों में, ख़ास तौर पर महानगरों में तो कुछ वाकई जानकार लोग इस क्षेत्र में हैं, लेकिन छोटी जगहों में बिना जानकारी के कुछ भी लिख डालने वाले लोग अपने काम के साथ न्याय नहीं कर पाते हैं. अंग्रेज़ी में मोहन नाडकर्णी, माधव मेनन और हिंदी में मदन लाल व्यास गहरी समझ के साथ लिखते हैं.

क्या आपको भी ऐसा लगता है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत में महिलाओं की भागीदारी कुछ कम है? अगर ऐसा है तो इसके कारण क्या हैं? 
ऐसा तो नहीं है कि महिलाएं बहुत कम हैं, लेकिन वे कई कारणों से आगे नहीं आ पाती हैं. उचित वातावरण उन्हें नहीं मिल पाता है और इसलिए वे इतनी ख्याति भी अर्जित नहीं कर पाती हैं.

एक महिला होने की वजह से क्या आप पर भी कोई अतिरिक्त दबाव रहते हैं? 
मुझे तो एकसाथ दोहरी तिहरी ज़िम्मेदारी निबाहनी होती है. दबाव तो रहते ही हैं. फिर, अनेक त्याग करने पड़ते हैं – और यह इस बात के बावज़ूद कि मुझे मेरे ससुराल से पूरा सहयोग मिला है, पति ने हर तरह से प्रोत्साहित किया है. फिर भी, संगीत साधना करते हुए, प्रोग्राम देते हुए, घर परिवार की ज़िम्मेदारी तो पूरी ही निबाहनी होती है. इतना सब करने का लाभ क्या है?

आपने अभी घर-परिवार की बात की. आप काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ाती रही हैं और संगीत जगत की भी एक बहुत बड़ी शख्सियत हैं. क्या इन दो भूमिकाओं में भी कभी कोई टकराव हुआ?  
जी नहीं, हालांकि ऐसा होना असम्भव भी नहीं है. टकराव तो कभी भी, कहीं भी हो सकता है. लेकिन मैंने विश्वविद्यालय में पढ़ाते हुए एक सबड्यूड रोल रखा, लो प्रोफाइल रखा. मैंने यह बात हमेशा ध्यान में रखी कि कलाकर तो मैं सिर्फ स्टेज पर हूं, उसके बाद तो औरों की तरह एक मामूली इंसान ही हूं.   यही कारण है कि मेरी दो या तीन भूमिकाओं में कभी कोई टकराव नहीं हुआ.  घर पर गृहिणी, विश्वविद्यालय में अध्यापिका या अधिष्ठाता, मंच पर कलाकार – मेरे मन में ये विभाजन सदैव स्पष्ट रहे.

आपने तो लगभग पूरे हिन्दुस्तान में बजाया है. कहां बजाकर आपको सबसे ज़्यादा सुख मिला? 
मुंबई और पूना में  बजाना मुझे हमेशा अच्छा  लगा है. देखिये, बात यह है कि रसिक श्रोता तो सब जगह होते हैं, असली बात होती है आयोजकीय कुशलता. जहां संगठन अच्छा होता है वहां प्रोग्राम भी अच्छा होता है. छोटे शहरों में भी कई बार बड़े समझदार श्रोता मिल जाते हैं. राजस्थान में कोटा में मुझे ऐसा ही सुखद अनुभव हुआ है.

कोई बेहद सुखद अनुभव भी तो होगा आपकी स्मृति मंजूषा में! 
हां है ना. पूना में पण्डित भीमसेन जोशी जी सवाई गन्धर्व समारोह किया करते थे. एक बार  मैं उसमें बजा रही थी. बजाते-बजाते बीच में ही अचानक लाइट चली गई. क्योंकि वहां आम तौर पर बिजली जाती नहीं थी इसलिए आयोजकों ने कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं कर रखी थी. एकदम घुप्प अन्धेरा हो गया. मैंने भी बजाना बन्द कर दिया. उस वक़्त विलम्बित खयाल बजा रही थी. आलाप पूरा किया ही था, बोल तान  बजाने थे.  थोड़ी देर बाद जब लाइट आई तो मैं दूसरी चीज़ बजाने लगी. लेकिन यह क्या! ऑडियंस चिल्लने लगी कि जहां आपने छोड़ा था वहीं से शुरू कीजिए. बीस-पच्चीस हज़ार श्रोता थी, ज़रा भी अव्यवस्था नहीं हुई, कोई शोर-शराबा नहीं हुआ. उस वक़्त मुझे जो सुख मिला उसे शब्दों में बयान नहीं कर सकती.
इसी तरह, एक बार यहीं की, यानि बी एच यू की बात है, कोई समारोह था. लड़के लोग हूटिंग पर उतारू थे और मुझे बजाना था. गुरुजी –पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर जी-  सामने बैठे थे. मुझे तो बहुत डर लग रहा था. बजाना ही नहीं चाह रही थी. चाह क्या रही थी, हिम्मत ही नहीं हो रही थी. गुरुजी ने कहा,  “मेरी शिष्या हो, जाओ, बजाओ!” अब उनके आदेश को तो भला कैसे टालती? मैंने बजाया, और उस पर जो वंस मोर की आवाज़ें उभरी कि कुछ पूछिये मत. गुरुजी मुझे अकसर संगत के लिए ले जाया करते थे. वे लोगों से कहते थे, मुझे अगर हू-ब-हू सुनना है तो इस लड़की को सुनो. उनकी तो बहुत  सारी यादें मन में संजो रखी हैं मैंने.

कुछ लोगों को लगता है कि आपकी वायलिन वादन की शैली अपने समकालीन सारे कलाकारों से अलहदा है. क्या आप भी ऐसा मानती हैं? 
बात यह है कि भारत के ज़्यादातर वादक गतकारी शैली में बजाते हैं. उनसे अलग, मैं गायकी शैली में बजाती हूं. जैसे गायक एक-एक फ्रेज़ को, एक-एक टुकड़े को अलग करके गाते हैं, वही प्रभाव मैं अपने वादन में पैदा करने की कोशिश करती हूं. आपने पूछ ही है तो यह कहने की गुस्ताखी कर रही हूं कि यह मेरी अपनी देन है.

संगीत के अतिरिक्त आपकी और भी कुछ रुचियां ज़रूर होंगी. कुछ उस बारे में भी बताएं! 
मेरे पास वक़्त ही नहीं है कि मैं कोई और शौक पालूं. अगर कोई शौक पाल लिया होता तो फिर संगीत को पूरा समय कैसे दे पाती? मेरा जो भी समय है वह सारा का सारा संगीत को समर्पित है.

अब भी, इतनी लम्बी साधना के बाद भी क्या संगीत को नियमित समय देना पड़ता है? 
हां, अगर खाना न खायें तो चल सकता है लेकिन रियाज़ किये बगैर नहीं चलता. रियाज़ तो नियमित रूप से करना ही पड़ता है. हर बार जब स्टेज पर जाते हैं तो लगता है कि एक परीक्षा दे रहे हैं, और उस परीक्षा के लिए पूरी तैयारी करनी होती है. इतना ज़रूर है कि अब और-और चीज़ों का दबाव भी समय पर बढ़ा है. यही कारण है कि पहले जहां आठ नौ घण्टे रियाज़ करती थी अब वह घट कर कम हो गया है. लेकिन रियाज़ तो करना ही होता है.

आखिरी सवाल. संगीत के क्षेत्र में आने वाली नई पीढ़ी को क्या सलाह, क्या गुरु मंत्र देना चाहेंगी?  
यही कि संगीत तो एक निरंतर साधना है, तपस्या है. यहां सफलता का कोई शॉर्ट कट नहीं है. जो लोग यह सोचते हैं कि दो-तीन साल सीख कर यश प्राप्त कर लेंगे, उन्हें तो निराश ही होना पड़ेगा. यहां सफलता के लिए कड़ी और लगातार मेहनत ज़रूरी है. आपमें अगर गुण है और मेहनत करके आपने उसे मांजा है, तराशा है, तो आपकी पूछ भी ज़रूर होगी. हीरे की चमक को कोई ताकत छिपा कर नहीं रख सकती है.

इस बातचीत के बाद भी श्रीमती राजम से काफी देर तक अनौपचारिक गपशप होती रही थी. उनसे बात करते हुए एक क्षण को भी यह नहीं लगा कि मैं एक बहुत बड़ी कलाकार से रू-ब-रू हूं. यही लगता रहा कि अपने परिवार की किसी  ऐसी बड़ी से बात कर रहा हूं जो उम्र के थोड़े-से अंतराल के बावज़ूद संवेदना के स्तर पर समान धरातल पर हैं. बरसों बीत गए हैं इस बातचीत  को लेकिन इसकी स्मृतियां अभी भी ताज़ी हैं.  


Wednesday, August 1, 2012

यहां फोटो खींचना मना है! क्यों?

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जब हम छोटे थे, बार-बार पढ़ने को मिला करता था, ‘भारत एक कृषि  प्रधान देश  है’. तब से अब तक काफी कुछ बदल चुका है. अब अपने चारों तरफ नज़र डालता हूं तो मेरा मन करता है कि कहूं, ‘भारत निषेध प्रधान देश है’. जैसे मना करना हमारा राष्ट्रीय शौक,  नहीं-नहीं स्वभाव है. आप अपने आस-पास की तमाम दीवारों को देख लीजिए. थूकना मना है, फालतू बैठना मना है, फूल तोड़ना मना है, घास पर चलना मना है, धूम्रपान करना मना है, चलती बस से शरीर का कोई अंग बाहर निकालना मना है, गंदगी फैलाना मना है, शोर करना मना है, इस पानी से हाथ धोना मना है..... और ऐसे अनगिनत  निर्देश  वाक्य आपको भी याद आ जाएंगे. कभी-कभी लगता है कि हमारे यहां सब कुछ करना मना ही है, कुछ भी करने की इजाज़त नहीं है. यही शायद हमारा राष्ट्रीय स्वभाव है.

लेकिन ज़रा ठहरिये. ऊपर मैंने जो वाक्य लिखे हैं, उनमें से ज़्यादातर ज़रूरी भी हैं. लोग चाहे जहां थूक देते हैं, इसलिए लिखना पड़ता है कि थूकना मना है. लोग हर कहीं कचरा फेंक देते हैं, इसलिए लिखना पड़ता है कि गन्दगी फैलाना मना है. अब यह बात अलग है कि लिखने वाले लिख कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं और करने वाले फिर भी अपनी मनमानी करते रहते हैं. मुझे तो यह भी लगता है कि शायद निषेधों की अतिशयता ही उन्हें निष्प्रभावी बना डालती है.  अगर आप बीस बातों के लिए मना न करके सिर्फ एक या दो बातों के लिए ही मना करें तो शायद उस मना का कुछ अधिक प्रभाव भी हो.

अभी ऊपर मैंने जिन निषेधों का ज़िक्र किया वे आवश्यक निषेध हैं. लेकिन हमारे निषेध प्रेमी स्वभाव की वजह से ऐसे भी अनेक निषेध प्रचलन में आ गए हैं जिनकी वस्तुत: कोई ज़रूरत ही नहीं है. ऐसा ही एक निषेध है ‘यहां फोटो खींचना मना है’. आम तौर पर यह निषेध पर्यटन स्थलों पर देखने को मिलता है. पहले इस निषेध वाक्य को सरकारी भवनों पर भी लटकाने की परम्परा थी. मेरे शहर में बिजली घर के ग्रिड सब स्टेशन पर बहुत लम्बे समय तक फोटो खींचने की मनाही लटकी  रही थी. और मैं सदा यह सोचता था कि कौन मूर्ख होगा जो इस बदसूरत निर्मिति का फोटो खींचने में अपने कम से कम दसेक रुपये (वो ज़माना डिजिटल फोटोग्राफी से पहले का था) बर्बाद  करेगा!  बाद में किसी ने समझाया कि सुरक्षा कारणों से यह निषेध लागू किया गया था. तब भी मुझे लगता था कि किसी को कोई विध्वंसात्मक हरक़त करने के लिए ही अगर इस निर्मिति का फोटो खींचना होगा तो  क्या वो इतना मूर्ख होगा कि सामने खड़े होकर इसका फोटो खींचेगा? वो किसी अत्याधुनिक तकनीक (जैसे हवाई छायांकन) का उपयोग करके फोटो नहीं ले लेगा?

कई मन्दिरों के बाहर भी फोटो  खींचने की मनाही अंकित होती है. कुछ जगहों पर पूरे मंदिर का और कुछ जगहों पर केवल देव विग्रह का छायांकन  वर्जित होता है. कुछ जगहों पर कोई निषेध नहीं होता. निषेध करने वालों का तर्क यह होता है कि  फोटोग्राफी करने वाले मंदिर में अपेक्षित शालीनता का उल्लंघन कर जाते हैं इसलिए उन्हें फोटोग्राफी का निषेध करना पड़ता है. यह बात उपयुक्त भी लगती है. अगर कोई उत्साही युगल देव प्रतिमा  के सामने खड़े होकर किसी अंतरंग मुद्रा में  फोटो खिंचवाए तो अन्य भक्तगण का बुरा मानना स्वाभाविक है. और देव प्रतिमा के सामने ही क्यों  पूरे ही मन्दिर परिसर में भी ऐसा करना अवांछित माना जाएगा. जिन  मन्दिरों के  प्रबंधकगण किसी भी तरह का निषेध नहीं करते हैं वे शायद वहां आने वालों के विवेक पर अधिक विश्वास करते हैं.

कुछ ऐतिहासिक या  पर्यटक महत्व के दर्शनीय स्थलों  में इसलिए छायाचित्रांकन का निषेध कर दिया जाता है कि वहां का प्रबंधन खुद वहां के छायाचित्र बेचता है और चाहता है कि अगर आपको उस स्थल की किसी स्मृति को संजो कर ले जाना है तो आप उन्हें इसका मोल चुकाएं. कहना अनावश्यक है कि यह शुद्ध व्यावसायिक दृष्टि वाला निषेध है. कुछ अन्य जगहों पर आपको कैमरे का इस्तेमाल करने के लिए अतिरिक्त शुल्क भी देना होता है. यह भी व्यावसायिक नज़रिया ही है.

अपनी ताज़ा मैसूर यात्रा के दौरान मैंने मैसूर के विश्वविख्यात राजमहल में छायांकन का ऐसा निषेध देखा जो मुझे बहुत अटपटा लगा. असल में इसी निषेध ने मुझे यह टिप्पणी लिखने को प्रेरित भी किया. मैसूर पैलेस में प्रवेश करते ही आपको पता चल जाता है कि वहां भीतर कैमरा ले जाना मना है. प्रवेश द्वार के पास ही उन्होंने यह व्यवस्था भी कर रखी है कि आप अपने कैमरे वहां जमा करा दें. बाकायदा एक रसीद और जिस लॉकर में आपका कैमरा रखा गया है उसे बन्द करके उसकी चाबी आपको दे दी जाती है. वहां लिखा तो यह हुआ है कि यह सुविधा निशुल्क है, लेकिन उसका शुल्क लिया जाता है. शायद शुल्क लेने का निर्णय बाद का हो और सूचना पट्ट पर तदनुसार संशोधन नहीं हो पाया  हो. बहरहाल, पर्यटकों के कैमरों को सुरक्षित रखने की यह व्यवस्था तो मुझे बहुत अच्छी लगी.

लेकिन मेरे मन में सवाल यह उठ रहा है कि क्या इस व्यवस्था की कोई ज़रूरत भी थी? एक पूरा  कमरा और दो-तीन लोग इस व्यवस्था में लगे हुए हैं. इन लोगों की तनख्वाह पर भी ठीक-ठाक खर्च होता होगा. पर्यटक को भी कई बार अपने कैमरे जमा करवाने या उन्हें वापस लेने के लिए लम्बी कतार की यातना सहनी पड़ती होगी.

लेकिन पहला सवाल तो यही कि एक महल, जिसे आप टिकिट बेच कर और भरपूर प्रचार कर दिखा रहे हैं, अगर कोई उसके फोटो ले तो आपको आपत्ति क्यों हो? यह तो गुड़ खाये और गुलगुलों से परहेज़ करे जैसी बात हुई ना! समझने की बात तो यह है कि अगर कोई उसका फोटो खींचेगा तो वह अप्रत्यक्ष रूप से उस महल का प्रचार ही करेगा. जब भी हम अपने मित्रों परिजनों को अपनी यात्रा की तस्वीरें दिखाते हैं  तो वे भी उन स्थलो के सौन्दर्य से प्रभावित हुए बग़ैर नहीं रहते हैं और उनके मन में भी उन स्थलों  की यात्रा करने की चाहत जागती है. इस तरह उस स्थल का प्रचार ही होता है. फोटोग्राफी से उस इमारत का कुछ भी नहीं बिगड़ता है. फिर मनाही क्यों? शायद इसीलिए कि निषेध हमारे स्वभाव का एक अंग बन चुका है.

यहां मैंने एक बात और लक्ष्य की जिससे मुझे इस मनाही की मूर्खता पर गुस्सा भी आया और हंसी भी. इस महल में कैमरे ले जाना निषिद्ध है (हालांकि बहुत कड़ाई से तलाशी वगैरह न  होने की वजह से कुछ ‘वीर’  लोग अपने कैमरे ले भी आए और उनका इस्तेमाल करते रहे) लेकिन मोबाइल पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है. अब आजकल सामान्य से सामान्य मोबाइल फोन में भी काम चलाऊ कैमरा तो होता ही है और थोड़े बेहतर मोबाइल हैण्ड सेटों में तो खासे उम्दा कैमरे होते हैं. अभी नोकिया ने तो इकतालीस मेगापिक्सल वाला कैमरा निकाल कर सबको पीछे छोड़ दिया है.  लोग अपने मोबाइल कैमरों का भरपूर इस्तेमाल कर रहे थे. यानि प्रकारांतर से, रोक सिर्फ कैमरे पर थी, फोटोग्राफी पर नहीं. शायद वहां व्यवस्था करने वालों को लगा हो कि मोबाइल का भीतर ले जाना वर्जित करना व्यावहारिक नहीं होगा. लेकिन उनका ध्यान शायद इस बात पर नहीं गया कि मोबाइल से फोटोग्राफी भी की जा सकती है.  और इस तरह उनका फोटोग्राफी पर रोक का इरादा महज़ एक मज़ाक बन कर रह गया.

मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि हमारे पर्यटक स्थलों के प्रबंधक  इस बात पर खुले मन से विचार करें कि क्या फोटोग्राफी पर प्रतिबंध  लगाना उचित है, और व्यावहारिक भी? अपनी विदेश यात्राओं के दौरान मैंने पाया है कि वहां फोटोग्राफी पर न केवल  कोई प्रतिबंध नहीं होता है, इसके विपरीत वे लोग बाकायदा सूचना पट्ट लगाकर  आपको यह और बताते हैं कि अगर आप यहां से फोटो लेंगे तो अच्छा आएगा. फोटोग्राफी के लिए अलग से पैसे ले लेने  की बात  भी उस ज़माने में भले ही उपयुक्त रही हो जब कैमरों का प्रचलन बहुत कम था और विशिष्ठ (और धनी ) लोग ही कैमरे रखा करते थे. अब कैमरों के सस्ते, सुलभ और आम आदमी की पहुंच में आ जाने के बाद, डिजिटल फोटोग्राफी के चलन से फोटोग्राफी के इस शौक़  के सस्ता हो जाने के बाद और मोबाइल हैण्ड सेटों में कैमरों के आ जाने की वजह से लगभग हर हाथ में कैमरा पहुंच जाने के बाद,  किसी तरह के प्रतिबन्ध का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है. और फिर प्रतिबन्ध हो भी क्यों?

और जो बात यहां मैंने फोटोग्राफी के सन्दर्भ में कही है वही बात बहुत सारे अन्य निषेधों पर भी लागू होती है. लेकिन उसकी चर्चा फिर कभी.
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जयपुर से प्रकाशित दैनिक नवज्योति में 29 जुलाई, 2012 को प्रकाशित.

Monday, July 16, 2012

एक अनूठा संग्रहालय

हमारी मैसूर यात्रा के दूसरे दिन अगर टैक्सी वाले ने हमें निर्धारित कार्यक्रमानुसार सभी स्थल घुमा कर जल्दी मुक्त न कर दिया होता और बैंगलोर लौटने से पहले तीन-चार  घण्टे कहीं बिताने की विवशता न होती और अगर चामुण्डी हिल जाते वक़्त एक सूचना पट्ट पर लिखी इबारत मेरे जेह्न  में अटकी न रह गई होती, तो यह बात पक्की है कि हम इस शानदार संग्रहालय को देखने से वंचित रह गए होते. दरअसल मैसूर के जितने भी दर्शनीय स्थलों के बारे में कहीं पढ़ा था उन सबको तो हमने देख लिया था,  लेकिन इस संग्रहालय का तो कहीं कोई ज़िक्र ही नहीं था. मैं बात कर रहा हूं विहार मार्ग, सिद्धार्थ ले आउट पर स्थित वाद्य यंत्रों पर आधारित मेलॉडी वर्ल्ड नामवैक्स म्यूज़ियम की.

जब भी कभी मोम के पुतलों के संग्रहालय की चर्चा होती है, मैडम तुसाद के संग्रहालय  का नाम अनिवार्यत: लिया जाता है. तुसाद के संग्रहालय अमरीका,  यूरोप,  और एशिया के बारह शहरों में हैं और मुझे भी इनमें से लास वेगस में स्थित उनके संग्रहालय को देखने का मौका मिला है. कहने की ज़रूरत नहीं है कि उनकी निर्मितियां विलक्षण होती हैं. अगर आप किसी बुत के सामने खड़े हो जाएं तो आपको लगेगा कि यह अभी आपसे बात करने लगेगा. हमने विभिन्न पत्रिकाओं में ऐसी बहुत सारी तस्वीरें भी देखी हैं जिनमें जीवित व्यक्ति अपने बुत के साथ खड़ा है और हम यह तै नहीं कर पाये हैं कि जीवित व्यक्ति कौन-सा है और बुत कौन-सा! यह उचित ही है कि मैडम तुसाद के मोम के पुतलों की इतनी चर्चा और सराहना होती है. मैडम तुसाद के संग्रहालयों का इतिहास दौ सौ साल पुराना है और उनके पास साधनों और तकनीकी संसाधनों का कोई अभाव नहीं है. संग्रहालय की उत्कृष्टता में इन सब बातों का भी कम योगदान नहीं है.

लेकिन भला यह कौन सोच सकेगा, कि हमारे अपने देश के मैसूर शहर में भी करीब-करीब वैसा ही एक संग्रहालय मौज़ूद है! बड़ी बात यह कि यह संग्रहालय एक अकेले इंसान के  जुनून, श्रम और कौशल  का परिणाम है. 47 वर्षीय श्रीजी भास्करन ने, जो पेशे से एक व्यवसायी और सूचना प्रौद्योगिकी इंजीनियर हैं, अकेले अपने दम पर इस संग्रहालय को बनाया है. श्रीजी ने मार्च 2007 में इस तरह का पहला संग्रहालय ऊटी में वैक्स वर्ल्ड नाम से बनाया था. इसके बाद जुलाई 2009 में उन्होंने पुराने गोआ में ऐसा ही एक संग्रहालय बनाया और फिर अक्टोबर 2010 में मैसूर में यह संग्रहालय उन्होंने खड़ा किया. मैसूर का यह संग्रहालय इस माने में खास है कि यह एक थीम आधारित संग्रहालय है. इस संग्रहालय में वाद्य यंत्रों और संगीत से सम्बद्ध लगभग 100 मोम के पुतले हैं. इसके अलावा इसी संग्रहालय में दुनिया के विभिन्न हिस्सों से खरीदे और जुटाए गए करीब 300 वाद्य यंत्र भी हैं.

कदाचित अपनी तरह के इस अकेले संग्रहालय में विभिन्न भारतीय वाद्य वृन्दों  और पाश्चात्य बैण्डों को उनकी पूरी सजधज और पूरे तामझाम के साथ प्रस्तुत किया गया है. यहां आपको उत्तर और दक्षिण भारतीय वाद्यवृंद देखने को मिलेगा तो जैज़ और रॉक समूह भी मौज़ूद मिलेंगे. अगर पंजाब का मस्ती भरा भंगड़ा यहाँ है तो आदिवासी जीवन का सादगी भरा संगीत भी मौज़ूद है. यहां अरब बैण्ड भी है और इजिप्शियन बैण्ड भी. इनमें से अधिकतर प्रस्तुतियों में मोम से बने 5-6 से लगाकर 10-12 तक  कलाकार हैं और उनके हाथों में हैं असली वाद्य यंत्र. अब इस तरह के संग्रहालय का निर्माण कोई आसान बात नहीं है. एक मोम के पुतले को बनाने की लागत ही तीन  से पन्द्रह  लाख रुपयों के बीच आती है और उसे बनाने में एक से चार महीने तक लग जाते हैं. और फिर इन पुतलों को समुचित परिवेश प्रदान करना, वह अलग से. एक दक्षिण भारतीय वाद्य वृंद की पन्द्रह कलाकारों वाली झांकी अपने टेठ ग्रामीण परिवेश की वजह से और दक्षिण भारत के ही ग्राम्यांचल के तीन लोक कलाकारों की झांकी जीर्ण शीर्ण दीवार और छत पर फैली दीमक के कारण एकदम यथार्थवादी बन पड़ी है. इनके विपरीत पाश्चात्य संगीत वाली झांकियां अपनी भव्यता के कारण ध्यान  आकृष्ट करती हैं. श्रीजी भास्करन की इस बात के लिए भी तारीफ करनी होगी कि उन्होंने जितना ध्यान अपने पुतलों की मुख मुद्रा और उनके अंगों की सानुपातिकता पर दिया है उतना ही ध्यान उनकी वेशभूषा की प्रामाणिकता पर भी दिया है.

इस संगीत केन्द्रित संग्रहालय में संगीत से इतर भी कुछ प्रस्तुतियां हैं जो दर्शक पर अमिट छाप  छोड़ जाती हैं. मैसूर के महाराजा का राजसी और महात्मा गांधी का सादगीपूर्ण स्टेच्यू तो इनमें से प्रमुख हैं ही, दो और प्रस्तुतियों के ज़िक्र के बगैर यह वृत्तांत  अपूर्ण रहेगा. एक प्रस्तुति में ड्रग के कुपरिणामों को उनकी पूरी भयावहता के साथ उभारते हुए ‘से नो टू ड्रग्स’ का संदेश  दिया गया है तो एक अन्य प्रस्तुति में एक सुंदरी एक क्रिकेटर को दस लाख रुपये का चैक थमा रही है, ज़मीन पर  कंकाल हो चुकी एक वृद्धा भिखारिन बैठी है और पास ही एक बालक सिर पर कंक्रीट का  टोकरा लिए खड़ा है. इन सबके बाजू में कॉल सेंटर का आभास देती अलग-अलग देशों का वक़्त बताने वाली छह घड़ियों के सामने खड़ा है एक सूटेड बूटेड युवक. भारत की तेज़ी से बढ़ती जा रही आर्थिक विषमता पर भला इससे कड़ी टिप्पणी और क्या हो सकती है!

इस संग्रहालय के निर्माता श्रीजी भास्करन डॉ ए पीजे अब्दुल कलाम और कई अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के स्टेच्यू बनाकर ख्याति अर्जित करने के अलावा 500 किलोग्राम मोम से बनाए हुए अपने 22 फुट लम्बे ‘द लास्ट सप्पर’ स्टेच्यू के लिए भी बहुत चर्चित रहे हैं. यह स्टेच्यू अब गोआ के संग्रहालय में रखा हुआ है. कहना अनावश्यक है कि इस तरह का काम कोई जुनूनी इंसान ही कर सकता है. मध्य पूर्व और ऑस्ट्रेलिया में अनेक कामयाब सूचना प्रौद्यौगिकी प्रोजेक्ट कर चुके श्रीजी भास्करन अपने व्यवसाय से जैसे-तैसे समय निकालकर  और अपने संसाधनों के बल पर इतने उम्दा संग्रहालय बना चुके हैं और पत्नी रीना तथा मात्र एक और सहयोगी के दम पर इन सबका संचालन कर रहे हैं, इसकी जितनी तारीफ की जाए कम है. हम जानते हैं कि किसी भी सरकार से सब कुछ करने की आशा करना अनुचित होता है, लेकिन, अगर कोई अपने दम पर सब कुछ कर रहा हो तो सरकार से यह उम्मीद करना कि वो उसकी तरफ सहायता और सम्बल का हाथ बढायेगी, क़तई अनुचित नहीं है. हमें तो यह भी जानकर आश्चर्य हुआ कि राज्य सरकारों ने श्रीजी भास्करन के इन निजी प्रयत्नों से बनाए गए शानदार संग्रहालयों को सम्बद्ध शहरों के दर्शनीय स्थलों की सूची तक में जगह देने की ज़रूरत तक नहीं समझी है.

श्रीजी भास्करन इन संग्रहालयों के माध्यम सेकेवल कुछ खूबसूरत को देखने का सुख प्रदान करते हैं, अपनी प्रस्तुतियों  के माध्यम  से वे देश की विरासत के संरक्षण और सकारात्मक मूल्यों के प्रचार का काम भी करते हैं. जहां ये तीन संग्रहालय स्थित हैं उन कर्नाटक, तमिलनाडु और गोआ की सरकारों तथा भारत सरकार से यह उम्मीद करना अनुचित नहीं होगा कि वह कम से कम इन शानदार संग्रहालयों का समुचित प्रचार-प्रसार तो करेगी. और भी अच्छा तो यह हो कि ये सरकारें इस कलाकार को सम्मानित और पुरस्कृत करें तथा आर्थिक सम्बल भी प्रदान करे ताकि वह अपने उम्दा काम को और विस्तार दे सके.
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दैनिक नवज्योति में रविवार दिनांक 15 जुलाई 2012 को प्रकाशित आलेख. 

राजस्थान में उच्च शिक्षा: कुछ असुविधापूर्ण सवाल



पिछले दिनों अखबारों में पढ़ा कि राजस्थान सरकार अपने कॉलेजों में पाँच हज़ार  सीटों की वृद्धि करने का इरादा रखती है. इस बात से खुश हुआ जाना चाहिये कि अपनी सरकार अपनी युवा पीढ़ी के भविष्य को बेहतर बनाने के लिए चिंतित और कृत संकल्प है. मैं भी खुश हूं. आखिर जिन्होंने ठीक-ठाक, बल्कि अच्छे अंकों से सीनियर सैकण्ड्री परीक्षा उत्तीर्ण की है उन्हें उच्च शिक्षा का अवसर मिलना ही चाहिए. 


लेकिन क्या बात इतनी सीधी-सरल है? पहली बात तो मेरे मन में यह आती है कि  हर बरस महाविद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या घटाने-बढ़ाने का यह प्रहसन क्यों मंचित किया जाता है? इस बार भी पहले एक ख़बर संख्या घटाने की आई थी, फिर दूसरे-तीसरे दिन पूर्ववत कर देने की, और अब वृद्धि की यह खबर. क्या कोई सुनिश्चित नीति नहीं बनाई जानी चाहिए? क्या सीधे-सीधे यह नहीं किया जा सकता कि एक निश्चित प्रतिशत से अधिक अंक लाने वाले सारे विद्यार्थियों को प्रवेश दिया जाएगा! हर बार सेक्शन में संख्या बढ़ाने और नए सेक्शन के लिए हड़ताल-आन्दोलन वगैरह की ज़रूरत को ख़त्म क्यों नहीं किया जाना चाहिए? आखिर हर बार यह क्यों ज़रूरी हो कि पहले विद्यार्थी आन्दोलन करें और उसके बाद सरकार ‘कृपा पूर्वक’ हर सेक्शन में साठ की बजाय सत्तर या अस्सी विद्यार्थी प्रविष्ट करने की घोषणा कर अपनी उदारता प्रदर्शित करे?

लेकिन चिंता की बात यही नहीं है. सरकार यह जो पाँच हज़ार  विद्यार्थियों की वृद्धि अपने कॉलेजों में करने जा रही है, क्य उनके  लिए समुचित सुविधाएं पहले से विद्यमान थीं और अब तक उनका उपयोग नहीं हो रहा था? या अब प्रवेश के बाद इनके लिए सुविधाओं का सृजन होगा, और या यह कि बिना किसी सुविधा विस्तार के इन विद्यार्थियों को प्रवेश दे दिया जाएगा?  अपनी बात  को और स्पष्ट करूं. क्या हमारे महाविद्यालयों में इन पाँच हज़ार  अतिरिक्त विद्यार्थियों के बैठने के लिए कमरे हैं, इनके लिए फर्नीचर आदि है, इनके लिए प्रयोगशाला उपकरण हैं, इनके लिए पुस्तकालय  में किताबें हैं, इनके अभिलेख आदि संधारित करने के लिए लिपिकीय संसाधन हैं, आदि.  हमने हर सेक्शन में जितने छात्रों  को प्रवेश देने का निर्णय किया है क्या हमारे कॉलेजों में उनके वास्ते उतने बड़े कमरे हैं, और क्या उन कॉलेजों के पास उतने विद्यार्थियों को बिठाने के लिए आवश्यक फर्नीचर है? हक़ीक़त यह है कि हमारे अधिकांश  महाविद्यालयों में जो कक्षा कक्ष हैं उनमें साठ विद्यार्थियों को बिठाना भी मुश्क़िल होता है. तो फिर ये बढ़े हुए विद्यार्थी कहां बैठेंगे? हमारे ज़्यादातर महाविद्यालय फर्नीचर के अभाव से ग्रस्त हैं. अब उसी कम पड़ते फर्नीचर का इस्तेमाल ये पाँच हज़ार नए विद्यार्थी और करेंगे तो क्या हाल होगा! और यह तो बहुत स्पष्ट है कि तुरंत न तो इन कमरों का आकार बढने वाला है, न नए कमरे बनने वाले हैं. फर्नीचर के लिए भी बजट स्वीकृत होगा, आवंटित होगा, कॉलेजों तक पहुंचेगा और फिर क्रय प्रक्रिया शुरू होगी, निविदा सूचनाएं जारी होंगी, क्रयादेश जारी होंगे, सामान की आपूर्ति होगी, भण्डार पंजिकाओं  में उनका इन्द्राज होगा – इस सबमें, अगर यह प्रक्रिया आज ही शुरू हो जाए तब भी कम से कम छह आठ महीने तो लग ही जाएंगे. और मुझे पूरा विश्वास है कि अभी इस  प्रक्रिया को शुरू करने की कोई सुगबुगाहट तक नहीं होगी. यानि कम से कम इस बरस तो ये नए पाँच  हज़ार विद्यार्थी बगैर कमरों और बगैर फर्नीचर के (पता नहीं कहां और कैसे) पढ़ेंगे. 
    
अब इससे आगे की बात!  क्या इन  विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए अतिरिक्त शिक्षकों भी भी ज़रूरत होगी, या हमारे पास पहले से ही इतने ज़्यादा शिक्षक हैं और अब तक वे फालतू बैठे तनख्वाह ले रहे थे, वे इनको पढ़ा लेंगे.  जहां तक मेरी जानकारी है, अभी जितने विद्यार्थी हमारे  पास हैं उनके लिए भी समुचित संख्या में  प्राध्यापक नहीं हैं. यह बात और भी अलग है कि जो शिक्षक हमारे पास हैं उनका न तो समान और संतुलित वितरण हमारे कॉलेजों में है और न उनके पदस्थापन में कोई तर्क संगतता नज़र आती है. एक तरफ बड़े शहरों (जैसे अजमेर, बीकानेर, भरतपुर, कोटा वगैरह)  या उनके पास के कस्बों (जैसे किशनगढ़, नसीराबाद, दौसा वगैरह)  वाले कॉलेजों में लगभग शत प्रतिशत पद भरे हुए हैं (बल्कि कहीं-कहीं तो उससे भी ज़्यादा लोग कार्यरत हैं) तो वहीं दूसरी तरफ दूरस्थ और ग्रामीण इलाकों के महाविद्यालयों में शिक्षकों का भयंकर अभाव है. जो लोग प्रभावशाली हैं वे किसी न किसी तरह प्रतिनियुक्ति आदि का जुगाड़ करके कॉलेजों में जाने से भी बच जाते हैं. यह विषयांतर होगा, लेकिन मेरी निजी जानकारी है कि बहुत सारे महापुरुषों और महामहिषियों ने बरसों से कॉलेजों का मुंह ही नहीं देखा है. कुछेक तो इतने महान हैं कि अपने दामन पर पढ़ाने का एक भी कलंक लगाए बगैर रिटायर तक हो गए. सरकार किसी की भी आई, वे पढ़ाने नहीं गए तो नहीं ही गए. तो ऐसे में ये जो नए पाँच हज़ार  विद्यार्थी हम अपनी संस्थाओं में लाने जा रहे हैं, उन्हें कौन पढ़ाएगा? क्या इनको पढ़ाने वालों के लिए नए पद मांग लिए गए हैं, उन पदों को प्रशासनिक और वित्तीय स्वीकृति मिल गई है, उन पदों को भरने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई ? अगर इन सारे सवालों के जवाब हां में हो तो भी हम सब जानते हैं कि इस सारी प्रक्रिया से गुज़र कर नए प्राध्यापकों को आने में एक साल से अधिक ही लग जाता है. यानि अगले शैक्षिक सत्र से पहले तो उम्मीद ही मत कीजिये. लेकिन यह सब तो तब की बात है, जब वो प्रक्रिया शुरू कर दी गई हो. असल में तो ऐसा हुआ नहीं है. यानि हमारे  पास इन नवागंतुक विद्यार्थियों के लिए न अध्यापक हैं, न कमरे, न फर्नीचर न कोई और संसाधन और हम इन्हें प्रवेश देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ रहे हैं.  क्या यह बात किसी को भी नज़र नहीं आती है? क्या यह विद्यार्थियों के साथ छल नहीं है? हम उनसे फीस लेंगे, लेकिन उनको पढ़ाएंगे नहीं. हमारे पास न पढ़ाने वाले हैं और न उन्हें बिठाने की जगह! हम क्यों प्रवेश दे रहे हैं इनको?

लेकिन दुखद बात यह कि इस पर कोई सवाल नहीं उठा रहा है. न विद्यार्थी, न उनके संगठन, न जन प्रतिनिधि, न शिक्षक और न शिक्षक संगठन. जैसे पाँच हज़ार विद्यर्थियों को प्रवेश देते ही सारी समस्याएं हल होने जा रही हैं. संकट प्रवेश का था, पढ़ाई का नहीं! विद्यार्थी संगठनों की  जीत हो गई, पाँच हज़ार नए वोटर मिल गए. और क्या चाहिये? पढाई की कहां और किसे ज़रूरत है? पढ़ाई हो यह तो किसी की भी चिंता में दूर-दूर तक नहीं है.
  
तो क्या सबने यह मान लिया है कि उच्च शिक्षा की गाड़ी तो ऐसे ही चलेगी? विद्यार्थी प्रवेश ले ले, जिसको स्कॉलरशिप मिलनी है वो स्कॉलरशिप ले ले, और घर  जाए, मज़े करे. अध्यापक भी बहुत सहज  निर्लिप्त भाव से कॉलेज जाए, अपना रजिस्टर उठाए, कक्षा तक जाए और यह कहता हुआ लौट आए कि क्या करें, विद्यार्थी आते ही नहीं हैं. प्रिंसिपल साहब भी डेढ़ दो बजे के बाद चैन की सांस लें कि चलो आज  का दिन तो बीता. डेढ़ दो बजे के  बाद ज़्यादातर कॉलेजों का माहौल कैसा होता है, यह बताने की ज़रूरत नहीं है. विश्वास न हो तो कभी जाकर देख लें. टाइमटेबल में भले ही कक्षाएं पाँच बजे तक दिखाई जाती हों, दो बजे के बाद ज़्यादातर कॉलेजों में सन्नाटा पसरा होता है.

यानि सब,  मंत्री जी से लेकर चपरासी तक इस झूठ-फरेब में शामिल हैं. क्या यह स्थिति क्षोभ जनक नहीं है? न कोई पढ़ाना चाहता है न कोई पढ़ना. बस आंकड़े पूरे हो जाएं. क्या  मतलब है उपस्थिति की अनिवार्यता का? हर साल कितने विद्यार्थियों को उपस्थिति की कमी की वजह से नियमित विद्यार्थी के रूप में परीक्षा देने से रोका जाता है? न्यायालय का आदेश है कि कक्षाओं में पिचहत्तर प्रतिशत उपस्थिति अनिवार्य  होनी चाहिए. अगर हर बरस अधिकांश विद्यार्थी नियमित परीक्षा देते हैं तो इसका मतलब यह है कि वे अपनी 75% कक्षाओं में हाज़िर रहते हैं. अब जो नए विद्यार्थी आएंगे वे भी हाज़िर रहेंगे, भले ही कॉलेजों में न कमरे हों, न फर्नीचर और न अध्यापक. है ना कमाल की बात!  यही बात विभिन्न छात्रवृत्तियों के सम्बन्ध में भी है. विद्यार्थी छात्रवृत्ति पाने का हक़दार तभी होता है जब कक्षा में उसकी उपस्थिति पूरी हो. यह हक़ीक़त है कि जो भी छात्रवृत्ति का पात्र है उसे छात्रवृत्ति मिलती ही है, यानि वह कक्षा में यथानियम उपस्थित रहता है. अगर इस नज़र से देखें तो एक चमत्कार का सामना करना होगा. चमत्कार यह कि दूर दराज़ के कॉलेजों में जहां न फर्नीचर है न कमरे  और न अध्यापक, वहां भी  हमारे अध्ययनशील विद्यार्थी नियमित रूप से उपस्थित होकर अध्ययन करते हैं! बहुत मुमकिन है कि वे पेड़ों के नेचे अपने-अपने रुमल बिछाकर बैठ जाते होंगे और स्वाध्याय करते होंगे. जय हो! 

क्या कोई यह बताएगा कि यह सारा नाटक क्यों हो रहा है और कब तक होगा? इस तरह किसको बेवक़ूफ बनाया जा रहा है? और बेवक़ूफ  बनाने के इस धत्कर्म पर कितना पैसा फूंका जा रहा है? क्यों आधे-अधूरे मन से उच्च शिक्षा के प्रसार का यह  भ्रमजाल फैलाया जा रहा है? क्यों इस तरह निर्ममता से पैसा फूंक कर अधकचरे स्नातकों की फौज तैयार की जा रही है जो कोई योग्यता न रखने पर भी (योग्य तो हम उन्हें बना ही कहां रहे हैं?) डिग्री धारी हो जाएगी और फिर यह रोना रोया जाएगा कि इतने सारे उच्च शिक्षा प्राप्त युवा बेरोज़गार हैं!

सोचिये, आखिर कब तक यह बेहूदा प्रहसन चलता रहेगा और आपकी हमारी ग़ाढ़ी कमाई का पैसा फूंका जाता रहेगा, युवाओं के हाथ में उच्च शिक्षा का झुनझुना पकड़ा कर उनको मूर्ख बनाया जाता और देश के भविष्य को धूमिल किया जाता रहेगा? कब तक?

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जयपुर से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र 'मॉर्निंग न्यूज़' में 16 जुलाई, 2012 को प्रकाशित. 


Thursday, April 26, 2012

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पर बातचीत

हाल ही में सम्पन्न हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के बारे में डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल से डॉ रजनीश भारद्वाज की बातचीत आप हिंदी के वरिष्ठ लेखक हैं, सजग आलोचक हैं, वस्तुपरक विश्लेषक हैं, देश-विदेश घूमने का आपको समृद्ध अनुभव है, अभिव्यक्ति की वर्तमान तकनीकों को अच्छी तरह समझते हैं तथा उनका उपयोग भी करते हैं. इसी दृष्टि से मैं आपके समक्ष ऐसे कुछ प्रश्न रख रहा हूं जिनका उत्तर आप ही दे सकते हैं. आप जयपुर में आयोजित जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के हर आयोजन को देखते आ रहे है. अब तक हुए उत्सवों की साहित्यिक उपलब्धियों को आप किस प्रकार रेखांकित करेंगे? जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की शुरुआत 2006 में हुई थी, और उस बरस इसमें मात्र 18 लेखकों और 14 अन्य लोगों ने भाग लिया था. इन्हें सुनने वालों की संख्या बमुश्क़िल 100 रही होगी. इस बरस यानि 2012 के फेस्टिवल में लगभग 250 लेखकों ने शिरकत की और उन्हें देखने-सुनने वालों की संख्या एक लाख के लगभग बताई जाती है. यानि बहुत कम समय में यह उत्सव बहुत बड़ा हो गया है. इन बरसों में इस आयोजन में देश विदेश के अनेक बड़े और बहुत बड़े लेखकों ने शिरकत की है. इस बरस बेन ओकरी, रिचर्ड डॉकिंस, स्टीवन पिंकर, एमी चुआ जैसे विदेशी और गिरीश कर्नाड, के. सच्चिदानंदन, प्रतिभा रे, कुलदीप नैयर, एम. जे. अकबर, अशोक वाजपेयी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, नीलाभ अश्क़ जैसे अनेक भारतीय लेखक इसमें आए. मुझे लगता है कि किसी भी साहित्यिक आयोजन की उपलब्धि यही हो सकती है कि वह लेखक-पाठक को नज़दीक लाए. इस लिहाज़ से तो मैं इस आयोजन को उपलब्धिमूलक ही कहना चाहूंगा.  इस फेस्टिवल से साहित्य और समाज को क्या लाभ हुआ? इस सवाल का जवाब देना तो बहुत मुश्क़िल है. क्या किसी भी साहित्यिक आयोजन के बारे में यह सवाल करके कोई सीधा उत्तर पाया जा सकता है? एक बड़ा लेखक शहर में आता है, कोई संस्था उनके व्याख्यान का आयोजन करती है, या किसी विषय पर कोई चर्चा आयोजित की जाती है, किसी पुस्तक पर कोई चर्चा होती है. इन सबके सन्दर्भ में अगर कोई यह पूछे कि इनसे साहित्य और समाज को क्या लाभ हुआ, तो क्या उत्तर देंगे? मेरा यह मानना है कि किसी भी साहित्यिक आयोजन का मक़सद होता है विमर्श का मंच प्रदान करना और वृहत्तर समुदाय तक पहुंचना. तो इस लिहाज़ से यही कहा जाएगा कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ने साहित्य और समाज दोनों को लाभान्वित किया है. साहित्यकारों को पाठक मिले और पाठकों को साहित्य और साहित्यकार. अगर हम यह भी मान लें कि यह कोई गम्भीर आयोजन नहीं था, एक फेस्टिवल था, एक उत्सव था, तो भी इस बात के महत्व को कम करके आंकना उचित नहीं होगा कि पूरे पाँच दिन हर दिन एक साथ चलने वाले सात गुणा पाँच यानि पैंतीस सत्रों में से हरेक में लगभग हाउसफुल की स्थिति रही. लोगों ने हर तरह के लेखकों को न केवल दत्तचित्त होकर सुना, उनसे गम्भीर सवाल भी किए. समाज को यह लाभ हुआ कि उसे इतने सारे लेखकों, विचारकों, पत्रकारों और अन्य बहुत सारे अनुशासनों के शीर्षस्थ लोगों से रूबरू होने का और उनके विचारों से अवगत होने का मौका मिला, और साहित्य का लाभ यह हुआ कि उसका प्रसार हुआ. प्रसंगवश, यह भी कहूं कि इस फेस्टिवल में किताबों की जो दुकानें थीं, और जिन पर इस फेस्टिवल में शिरकत करने वाले लेखकों की किताबें उपलब्ध थीं, अंतिम दिन उनमें से अधिकांश खाली हो चुकी थीं. यानि लोगों ने न सिर्फ चर्चाओं को सुना, चर्चा करने वाले लेखकों की किताबों को खरीदा भी सही. किताबों पर लेखकों के ऑटोग्राफ लेने वालों की भी बहुत लम्बी कतारें देखने को मिलीं.  इस उत्सव को आयोजित करने वालों की मूल प्रतिज्ञा शायद बड़े-बड़े लेखकों को एक मंच पर इकट्ठा करना और उनके माध्यम से दर्शकों को चमत्कृत करना है जिसकी परिणति मनोरंजन में होती है. क्या साहित्य की मूल प्रतिज्ञा से इस आयोजन की मूल प्रतिज्ञा मेल खाती है? इस बात में कोई शक़ नहीं है कि इस आयोजन में बहुत सारे बड़े लेखकों की सहभागिता रहती है. यह सहभागिता हर बरस बढ़ती जा रही है. बड़े नामों के प्रति आकर्षण हम सबमें होता है. अगर हम कोई बहुत छोटा आयोजन करते हैं तब भी हमारी यह कोशिश तो होती ही है कि अपने संसाधनों के हिसाब से किसी ‘बड़े’ लेखक को उसमें बुलाएं. हम जयपुर में कोई आयोजन करते हैं तो और नहीं तो यही कोशिश करते हैं कि दिल्ली का कोई लेखक आ जाए. ऐसे में अगर इतने बड़े पैमाने का कोई आयोजन है तो यह बहुत स्वाभाविक है कि उसमें बड़े-बड़े लेखक बुलाए जाएंगे. अगर आप बड़े लेखकों को नहीं बुलाएंगे तो इस पैमाने का आयोजन हो ही नहीं सकता. लेकिन आपने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी यह की है कि आयोजक बड़े-बड़े लेखकों को एक मंच पर इकट्ठा करके दर्शकों को चमत्कृत करना चाहते हैं. आपने अपनी टिप्पणी के साथ ‘शायद’ जोड़कर यह आशंका व्यक्त की है. मैं एक उदाहरण देकर फिर अपनी बात कहूंगा. इस बार के स्टार लेखकों में से एक थे बेन ओकरी. 23 जनवरी की शाम जिस समय उनका सत्र था उसी समय के चार दूसरे सत्रों में से एक सत्र उतने ही महत्वपूर्ण लेखक रिचर्ड डॉकिंस का था, और एक अन्य सत्र कविता समय शीर्षक से था जिसमें अशोक वाजपेयी, नन्द किशोर आचार्य, नन्द भारद्वाज, पीयूष दईया और लता शर्मा थे. इसी तरह आयोजन के पहले दिन एक सत्र में हैरी कुंजुरू थे, दूसरे में (यह बात अलग है कि उन्हें लेखक मानें भी या न मानें, लेकिन ‘बड़े’ तो वे हैं ही) कपिल सिब्बल थे, एक अन्य सत्र में के. सच्चिदानंदन थे और एक और अन्य सत्र कथा कोश में नवतेज सरना और दीप्ति नवल के साथ हमारे अपने चरण सिंह पथिक, और लक्ष्मी शर्मा थे. जो बात मैं रेखांकित करना चाहता हूं वह यह कि किसी एक सत्र में स्टार लेखक के होने के बावज़ूद शेष सभी सत्रों में भी दर्शकों-श्रोताओं की भरपूर उपस्थिति थी. अब बताइये, कि चमत्कार का क्या असर रहा? जिस वक़्त गुलज़ार और जावेद अख्तर जैसे स्टार एक सत्र में मौज़ूद हों उसी वक़्त अगर लोग रोसामुण्ड बार्टलेट, पवन वर्मा, पुरुषोत्तम अग्रवाल और जेम्स शैपिरो को दत्त चित्त होकर सुनें तो बताइये कि चमत्कार का क्या असर रहा? मुझे नहीं लगता है कि आयोजकों का मक़सद चमत्कार पैदा करना रहा है. अलबत्ता बड़े लेखकों को उन्होंने ज़रूर जुटाना चाहा और इसमें वे कामयाब भी रहे हैं. लेकिन, आयोजन में सिर्फ बहुत बड़े लेखक ही हों, ऐसा भी नहीं है. ऐसे बहुत सारे लेखक भी इसमें आते रहे हैं जिनकी अभी पहली ही किताब आई है और जो साहित्य की दुनिया में अपनी पहचान बना रहे हैं. यानि, कुल मिलाकर एक समन्वय की स्थिति मुझे तो नज़र आई. वैसे, आपने यह सवाल नहीं पूछा है, लेकिन मैं बता दूं कि इस आयोजन में हर दफा कुछ फिल्मी सितारे भी शिरकत करते रहे हैं. कभी अमिताभ बच्चन, कभी आमिर खान, कभी देव आनंद तो कभी ओम पुरी, आदि. आम तौर पर हुआ यह है कि किसी सितारे की कोई किताब उस दौरान प्रकाशित हुई तो उसके प्रोमोशन के लिए उस सितारे को भी बुला लिया गया. बेशक ऐसा करने के पीछे व्यावसायिक नज़रिया होता है. लेकिन एक बात तो यह कि इस आयोजन के कर्ताधर्ताओं ने साहित्य की एक व्यापक परिभाषा ली है. हम लोग आम तौर पर जिसे साहित्य कहते हैं, ये उससे काफी दूर तक जाते हैं और राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, सिनेमा, मनोरंजन, पत्रकारिता सभी को साहित्य की परिधि में लेते हैं. यही वजह है कि इनके आयोजनों में तरुण तेजपाल भी होते हैं, एम. जे. अकबर भी, कुलदीप नैयर भी, मार्क टुली भी, बरखा दत्त भी और ओप्रा विनफ्रे भी. मुझे तो लगता है कि ज्ञान की विविध शाखाओं के बीच पारस्परिक सम्वाद का यह खयाल बुरा नहीं है. मैं आयोजन में आने वाले लोगों की तारीफ करूंगा कि वे महज़ ग्लैमर के पीछे नहीं भागते हैं और जब किसी ग्लैमर वाले स्टार का सत्र चल रहा होता है उस वक़्त भी वे किसी गम्भीर लेखक के सत्र को अपनी पसंद बनाते हैं. लेकिन इसके बावज़ूद मुझे इस बात को लेकर चिंता होती है कि इस आयोजन में ग्लैमर का अनुपात बढ़ता जा है. मैं चाहूंगा कि आयोजक इस प्रवृत्ति पर लगाम लगाएं.  इस उत्सव के दर्शक कौन हैं? क्या इनमें में वे लोग शामिल हैं जिनकी पीड़ाओं की बात हम अपनी बहसों में करते हैं? इस उत्सव के दरवाज़े सबके लिए खुले रहते हैं. आपको भी स्मरण होगा कि शुरुआती बरसों में तो आयोजकगण निमंत्रणों की बाकायदा बाढ़ ही ला दिया करते थे. धीरे-धीरे कागज़ की उस बर्बादी में कमी करने की सद्बुद्धि इन्हें आई और संचार माध्यमों के ज़रिये लोगों को आमंत्रित किया जाने लगा. इस वर्ष पहली बार आयोजकों ने आगंतुकों के लिए पंजीकरण का प्रावधान किया, और उसके पीछे सुरक्षा सम्बन्धी कारण थे, लेकिन पंजीकरण निशुल्क था. अलबत्ता शाम के मनोरंजन कार्यक्रमों के लिए टिकिट लगाया गया, लेकिन वह अलग बात है. तो, इस उत्सव में कोई भी आ सकता है. स्वाभाविक है कि जब इतना बड़ा आयोजन होगा तो आने वालों का स्तर एक समान तो हो नहीं सकता. जैसा आपने कहा, ‘जिनकी पीड़ाओं की बात हम अपनी बहसों में करते हैं’ वे अगर इस आयोजन में आते हैं तो वे भी आते हैं जो (शायद) उन पीड़ाओं को जन्म देते हैं. और इसमें मुझे कोई हर्ज़ भी नहीं लगता. महत्व तो इस बात का है कि इस आयोजन के दरवाज़े सबके लिए खुले हैं. बल्कि, मैं तो आगे बढ़कर यह भी कहना चाहूंगा कि यहां जो प्रजातांत्रिक व्यवस्था होती है उसका विस्तार और अनुकरण होना चाहिए. कोई भी कहीं भी बैठ सकता है. एक सत्र में मैंने देखा कि पवन के. वर्मा (वे भूटान में भारत के राजदूत हैं) आए और उन्हें कोई कुर्सी खाली नज़र नहीं आई तो वे गुलज़ार के पास ज़मीन पर ही बैठ गए. उनके लिए कुर्सी खाली करने के वास्ते किसी आम श्रोता को उठाया नहीं गया. कभी-कभी मुझे लगता है कि हम जिस समानता की बात जोर-शोर से करते हैं, वो क्रिया रूप में परिणत होती तो यहां नज़र आती है. लेकिन आपने बात पीड़ाओं की की थी. इस आयोजन में लगातार जाकर मैंने पाया है कि यहां सिर्फ उस साहित्य की बात नहीं होती है जो आम जन की पीड़ाओं से ताल्लुक रखता है. जैसा मैंने अभी कहा, यहां साहित्य को व्यापक अर्थ में लिया जाता है, इसलिए यहां जो दर्शक श्रोता समुदाय आता है वह भी वैविध्यपूर्ण होता है.  इस उत्सव में आने वाले दर्शकों की स्थिति से क्या इस उत्सव का मूल्यांकन नहीं होना चाहिए? आपका इशारा शायद इस तरफ है कि इस आयोजन में जो दर्शक आते हैं वे सम्पन्न वर्ग के होते हैं. आपके इस प्रश्न का उत्तर पिछले उत्तर में आ गया है.  क्या अपको नहीं लगता है कि एक प्रायोजित एलीट वर्ग यहां आ रहा है जो देश और समाज की समस्याओं के प्रति गम्भीर नहीं है? इसकी जड़ें भी हमारी देशजता में नहीं हैं शायद? इस प्रश्न का उत्तर हां में भी है और ना में भी. पहले हां की बात करूं. यह एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर का आयोजन है. पूरी दुनिया से इसमें लोग आते हैं. न सिर्फ लेखक, वे भी जिनकी लेखन में रुचि है. अब अगर कोई अमरीका से, जर्मनी से, जापान से, या कहिये चेन्नई से, अहमदाबाद से एक साहित्यिक आयोजन में आ रहा है तो ज़ाहिर है कि उसका सामाजिक-आर्थिक-बौद्धिक स्तर उस तरफ झुका होगा जिसे आप एलीट वर्ग कह रहे हैं. यह मेरी अपनी जानकारी है कि हर बरस इस आयोजन में दुनिया भर से लोग अपने खर्चे पर (भी) आते हैं. यह स्वाभाविक बात है कि उन सबकी जड़ें ‘हमारी देशजता’ में नहीं है. लेकिन इस आयोजन में जो स्थानीय लोग आते हैं, उनके बारे में तो ऐसा नहीं है. वे उस वर्ग से इतर के भी हैं जिनकी अभी मैं बात कर रहा था. बहुत साधारण किस्म के लोगों को मैंने इस आयोजन में देखा है. न केवल देखा है, सम्मान और अधिकार से अगली पंक्ति में ठाठ से बैठकर चर्चाओं को सुनते देखा है. तो दोनों ही तरह के लोग इस आयोजन में आते हैं. और रही बात समस्याओं की, तो मैंने यह महसूस किया है कि आयोजकों का नज़रिया साहित्य के प्रति व्यापक है और वे केवल उसी को साहित्य नहीं मानते हैं जो समस्याओं की फिक्र करता हो. इससे मेरी व्यक्तिगत असहमति भी हो सकती है, लेकिन इसके बावज़ूद मैं यह मानता हूं कि आयोजन का फॉर्मेट तै करने का हक़ तो आयोजकों को ही है.  क्या इस उत्सव का प्रारूप आपको उपयुक्त लगता है जिसमें सब जल्दी में हैं, भागमभाग में हैं? बस, हैलो, हाय, बाय तक ही रिश्ते बन पा रहे हैं? आपका यह प्रश्न मुझे बहुत सार्थक लगा. इस आयोजन में हर दिन एक-एक घण्टे के सात सत्र होते हैं. ये सत्र एक साथ पाँच जगहों पर चलते हैं. मोटे तौर पर लगभग 175 सत्र. ज़ाहिर है कि कोई भी व्यक्ति एक वक़्त में एक ही सत्र में उपस्थित रहेगा, अंत: वह अधिक से अधिक 35 सत्र देख सुन सकता है. लेकिन वह कौन-से 35 सत्र देखे सुने, यह चयन उसका अपना होगा. यानि 175 में से 35 (या कम) चुनने की आज़ादी उसे आयोजक देते हैं. यह विविधता तो प्रशंसनीय है. अगर आपका प्रश्न यह है कि एक सत्र के लिए एक घण्टे का वक़्त कम है, तो मैं यह कहना चाहूंगा कि अगर लेखक व्यवस्थित और सुविचारित रूप से अपनी बात कहे तो यह समय कम नहीं है. हां, अगर कोई पन्द्रह मिनिट की बात कहने के लिए दो घण्टे की भूमिका बांधना ज़रूरी समझता हो तो बात अलग है. दूसरे यहां बहुत सारे सत्र तो रचना पाठ के होते हैं. उस लिहाज़ से तो यह समय वैसे भी कम नहीं है. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में जो बात मुझे सबसे महत्वपूर्ण लगी वह है समय के प्रति उनका आदर भाव. अगर कोई सत्र दस बजे शुरू और ग्यारह बजे खत्म होना है तो वह दस बजे ही शुरू होगा और ग्यारह बजे ही खत्म होगा. किसी का इंतज़ार नहीं, किसी को अपनी बात पूरी करने के लिए अतिरिक्त समय नहीं. हम लोग, विशेष रूप से हिंदी वाले इस बात के अभ्यस्त नहीं हैं. हमारा कार्यक्रम अगर तीन बजे घोषित है तो बड़े लोगों को तो वैसे ही साढे तीन का वक़्त बताया जाएगा, और अगर चार बजे वो कार्यक्रम शुरू हो जाए तो गनीमत मानिए. फिर माल्यार्पण, स्वागत, वक्ताओं का परिचय और उसके बाद खुद वक्ता, जिसे अनंतकाल तक बोलने का विशेषाधिकार मिला होता है. कार्यक्रम खत्म होने का तो कोई समय होता ही नहीं. कोई वक्ता जब एक बार बोलना शुरू कर दे, चाहे वह आभार प्रदर्शन ही क्यों न कर रहा हो, तो समझिये गया कम से कम आधा घण्टा. तो, हमारे इस अभ्यास की नज़र से देखें तो बेशक यह आयोजन भागमभाग और जल्दबाजी का आयोजन है. लेकिन, इस बार सवाल मुझे पूछने दें, कि क्या हमें भी अपने आयोजनों में समय की कद्र नहीं करनी चाहिए? क्या समयबद्धता कोई अपराध है? क्या अपनी बात सलीके से और सुगठित रूप से, पूरी तैयारी करके नहीं कही जानी चाहिए? क्या एक निश्चित समय में अपनी बात कहने का अनुशासन हममें नहीं आना चाहिए?  हम जल्दी-जल्दी में, अधिकाधिक लोगों की शिरकत के चक्कर में समाज और व्यक्ति की मूलभूत समस्याओं से टकराने के बजाय उनसे बचने का प्रयास नहीं कर रहे हैं? मेरे खयाल से ये दो अलग-अलग बातें हैं. जल्दी-जल्दी और अधिकाधिक लोगों की शिरकत की बात अभी अपन ने की. हो सकता है कि यह देखने का एक भिन्न नज़रिया भी हो. जिसे मैं समयबद्धता कह कर सराह रहा हूं वही किसी और को जल्दबाजी भी लग सकती है. सोच का यह फर्क़ तो रहेगा ही. लेकिन इसे समाज की और व्यक्ति की मूलभूत समस्याओं से टकराने की बजाय उनसे कतराने का नाम देना मुझे उचित नहीं लगता. समस्याओं से टकराने के लिए समय की बरबादी और बात को बेवजह विस्तार देना ज़रूरी नहीं है. अगर वक्ता की तैयारी है और वह सलीके से अपनी बात कह सकता है तो उसके लिए तीस मिनिट भी काफी हैं, अन्यथा.... . अगर मैं कहूंगा तो छोटे मुंह बड़ी बात हो जाएगी, इसलिए मैं श्रीलाल शुक्ल से शब्द उधार ले रहा हूं. उन्होंने कहीं कहा था कि हिंदी लेखक संक्षेप में अपनी बात कह ही नहीं सकता. बात को फैलाना उसके स्वभाव में ही है. अगर यह बात सही है, तो क्या आपको नहीं लगता कि हिंदी लेखक को भी अपना स्वभाव बदलना चाहिए? आपका जो दूसरा सवाल है उसका ताल्लुक आयोजन के फॉर्मेट से है. और जैसा मैंने पहले भी कहा है, किसी आयोजन का फॉर्मेट क्या हो यह तो आयोजक ही तै करेगा. इस साहित्य उत्सव का फॉर्मेट अगर हमारी अपेक्षाओं से अलग है, तो है.  क्या आपने देखा है कि डिग्गी पैलेस के बाहर यातायात व्यवस्था, पार्किंग आदि को लेकर कितनी मारामारी है? इस उत्सव के कारण रिक्शावालों, टैक्सी वालों तथा आम जन को कितनी तक़लीफें हो रही हैं? क्या इन बातों का एहसास आयोजकों को है? क्या वे अपनी बनावटी दुनिया में मस्त हैं और इस तथ्य से बेखबर हैं कि उनके आयोजन से जयपुर के आम जीवन में कितनी तक़लीफें आम जन को सहनी पड़ रही हैं? जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल बहुत बड़ा आयोजन बन गया है और किसी भी बड़े आयोजन के कारण कुछ असुविधाओं का होना अपरिहार्य है. लेकिन मेरा ऐसा खयाल है कि आयोजक भी और स्थानीय प्रशासन भी लगातार यह कोशिश करते हैं कि आम लोगों को कम से कम असुविधा हो.  डिग्गी पैलेस को जैसे किले में तबदील कर दिया गया है. चारों ओर पुलिस है, चारों ओर पहरा है, आम आदमी के लिए आम रास्ते तक बंद हैं जबकि पास ही प्रदेश का सबसे बड़ा अस्पताल है, अजमेरी गेट है, महाराजा-महारानी कॉलेज हैं, कुल मिलाकर यह बहुत व्यस्त इलाका है. क्या इस ओर आयोजकों को ध्यान नहीं देना चाहिए? क्या इस बाबत रचनाकारों का कुछ संवेदनात्मक दायित्व नहीं बनता है? ऐसा इसी बार हुआ है. कारण आप भी जानते हैं. सलमान रुश्दी प्रकरण. यह कानून-व्यवस्था का मामला था और अगर प्रशासन को एहतियाद बरतना ज़रूरी लगा, तो उसने वैसा किया. अगर हम आयोजकों को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं, तो मेरे जेह्न में यह सवाल उठता है कि क्या उन्होंने जान-बूझकर सलमान रुश्दी को बुलाकर ‘आ बैल मुझे मार’ को चरितार्थ किया होगा? भला कौन अपना इतना बड़ा आयोजन दांव पर लगाना चाहेगा? हो सकता है कि उन्होंने इस बात का पूर्वानुमान न किया हो कि समाज का एक हिस्सा रुश्दी को बुलाये जाने के विरोध में उठ खड़ा होगा और सरकार भी ज़रूरत से ज़्यादा संवेदनशील हो जाएगी! मुझे लगता है कि इस मामले को सरकार ने तो ग़लत तरह से हैंडल किया ही, मीडिया ने भी ज़रूरत से ज़्यादा अहमियत दी. जो लोग आयोजन में शरीक नहीं थे उन्हें (मीडिया की वजह से) यह एहसास हुआ कि सारा आयोजन रुश्दी के इर्द-गिर्द ही सिमटा हुआ है. जबकि यथार्थ इससे बहुत भिन्न था. लेकिन यह तो विषयांतर हो गया. आपने रचनाकारों के संवेदनात्मक दायित्व का सवाल उठाया था. इस मामले में हम रचनाकार से किस तरह के संवेदनात्मक व्यवहार की उम्मीद करते हैं?  क्या यह आयोजकों की आत्ममुग्धता नहीं है कि वे जयपुर की आम ज़िन्दगी की तक़लीफों से बेखबर मानसिक विलास में डूबे हैं? बेहतर हो, यह सवाल आयोजकों से ही पूछा जाए. मैं भला उनकी तरफ से कोई सफाई देने वाला कौन होता हूं?  क्या यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि इसके आयोजन के लिए किसी एकांत की जगह को चुना जाए जहां लेखकों को भौतिक तक़लीफों का भी एहसास हो? यह सवाल तो बहुत मज़ेदार है. ऐसी जगह चुनी जाए जहां लेखकों को भौतिक तक़लीफों का एहसास हो. बात सुनने में तो प्रभावशाली लगती है. लेकिन क्या असल ज़िन्दगी में हमेशा ऐसा ही होता और किया जाता है? अपने मेहमानों को हम सुविधा देना चाहते हैं या तक़लीफ का एहसास कराना चाहते हैं? आप मुझे बताएं कि कौन-सी साहित्यिक संस्था अपने लेखकों को भौतिक तक़लीफों का एहसास कराने के लिए स्लम्स में या कच्ची बस्तियों में ठहराती है?  बाहर से आने वाले लेखकों को पाँच सितारा या अच्छे होटलों में ठहराया जा रहा है. क्या आने वालों के लिए नए प्रकार के रैन बसेरों की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए? हम नेताओं की अय्याशी की तो बात करते हैं, पर हम भी दुःख पाने के लिए तैयार कहां हैं? एक लेखक का एक दिन एक सत्र में प्रेजेण्टेशन और वह पाँच दिन यहां होटल में मज़े कर रहा है इसे अय्याशी नहीं कहेंगे? क्या ऐसे लेखकों पर बंदिश नहीं लगनी चाहिए? क्या यह सर्वेक्षण नहीं होना चाहिए कि कितने लेखक अपने खर्चे पर इस उत्सव में बाहर से आते हैं? हां, ये लोग अपने अतिथि लेखकों वगैरह को पाँच सितारा या उसी तरह के बेहतर होटलों में ठहराते हैं. मुझे नहीं पता कि अब तक किसी आगत लेखक ने इस बात का विरोध किया या नहीं. किया होता तो कहीं पढ़ने को भी मिला होता. मुझे नहीं पता कि ऐसे कौन से साहित्यिक संगठन हैं जो अपने लेखकों को रैन बसेरों में ठहराते हैं? आदर्श के लिहाज़ से तो बात भली लगती है कि लेखक भी फुटपाथ पर सोये, पैदल चले, पसीना बहाए, रूखी-सूखी खाकर ठण्डा पानी पी ले. लेकिन यथार्थ यह है कि हम सब सुविधाओं के आदी होते जा रहे हैं. अब यह बात आयोजक की क्षमता पर है कि वह कितनी सुविधा दे पाता है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि कोई भी लेखक इस बात पर आपत्ति करेगा कि उसे अमुक-अमुक सुविधा क्यों दी जा रही है. और जहां तक एक सत्र में प्रस्तुति और पाँच दिन के मज़े की बात है, इस सवाल के पीछे मुझे एक खास तरह की मानसिकता का आभास मिल रहा है, जो कम से कम मुझे तो कभी नहीं रुचि. हमारे प्रांत के एक बड़े लेखक ने एक बार किसी सन्दर्भ में चिढ़ कर कहा था, कि हम क्या ताली बजाने जाएंगे? यानि, अगर लेखक बड़ा है तो वह सिर्फ मंच पर बिराजेगा. श्रोता समूह में तो वह बैठ ही नहीं सकता. वह सिर्फ बोल सकता है, किसी को सुन नहीं सकता. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में मैंने ऐसा नहीं पाया. अगर कोई लेखक एक सत्र में अपनी बात कह रहा है तो बाकी सत्र में वह औरों की बात सुनता भी है, उनके सत्रों में बतौर श्रोता भी उपस्थित रहता है. मैंने बहुत बड़े और नामी लेखकों को दूसरों के सत्र में बैठे और बातें सुनते देखा है. किसी का आग्रह यह नहीं रहता कि वह सिर्फ मंचासीन ही होगा. तो यह तो प्रशंसनीय बात है कि एक लेखक एक सत्र में अपनी बात कहता है और बाकी सत्रों में औरों की बात सुनता है. इसे भला अय्याशी कैसे और क्यों कहा जाए?  क्या आयोजकों को उत्सव के आय-व्यय का हिसाब जनता के सामने नहीं रखना चाहिए? वे प्रायोजकों के नाम तो घोषित कर देते हैं, आभार व्यक्त करने के साथ, पर यह नहीं बताते कि किसने कितने पैसे दिए, कितने पैसे किस मद पर खर्च हुए. क्या कुछ राशि बची और अगर बची तो वह कहां गई. क्या यह पारदर्शिता आवश्यक नहीं है? पारदर्शिता होनी चाहिए, ज़रूर होनी चाहिए. लेकिन क्या जीवन के अन्य किसी क्षेत्र में हमें इस आदर्श पारदर्शिता के दर्शन होते हैं? विभिन्न लेखक संगठन या संस्थान जो आयोजन करते हैं क्या वे उसका लेखा-जोखा सार्वजनिक करते हैं? आप कह सकते हैं कि उनके आयोजन इतने बड़े नहीं होते हैं और उसमें इतने अधिक वित्तीय संसाधन प्रयुक्त नहीं होते हैं. ठीक है. लेकिन सिद्धांत तो सिद्धांत है. छोटे और बड़े का भेद क्यों किया जाना चाहिए? और एक बात. हो सकता है कि यह कहना ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ न हो लेकिन हम जब बात कर ही रहे हैं तो जो बात मेरे मन में है मुझे उसे कहने में संकोच नहीं करना चाहिए. मुझे यह भी लगता है कि एक ऐसे आयोजन जिसमें मेरा कोई आर्थिक योगदान नहीं है, के आयोजकों से मैं उनके आय व्यय के बारे में पूछने का क्या हक़ रखता हूं? यह हक़ तो उनका बनता है जिन्होंने उसमें कोई अंशदान किया है.  यह उत्सव किन मूल्यों की स्थापना कर रहा है तथा इसका वास्तविक प्रभाव क्या है इसका आकलन किस प्रकार होना चाहिए? मेरे खयाल से तो कोई भी उत्सव उत्सव होता है, वह मूल्यों की स्थापना के निमित्त नहीं होता है. हां, इतना ज़रूर देखा जाना चाहिए कि उसके कारण कोई विकृतियां समाज में न आएं. जहां तक प्रभाव की बात है, मुझे लगता है कि यह उत्सव समाज की साहित्य में दिलचस्पी बढ़ाने में काफी हद तक कामयाब रहा है. इसका आकलन कैसे हो, यह तो मैं भी नहीं जानता.  एक और बात. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि इस आयोजन का बहुत अधिक झुकाव अंग्रेज़ी की तरफ है और इसमें हिंदी सहित तमाम भारतीय भाषाओं की गहन उपेक्षा होती है? जी, मुझे क़तई ऐसा नहीं लगता है. इसकी वजह यह है कि मेरे मन में यह बात बहुत स्पष्ट है कि यह साहित्य उत्सव है, भारतीय या हिंदी साहित्य का उत्सव नहीं. अगर आप सारी दुनिया के सन्दर्भ में देखेंगे तो पाएंगे कि हिंदी सहित भारतीय भाषाओं को जो प्रतिनिधित्व मिल रहा है वह संतोषप्रद है. थोड़ा असंतुलन हमें इसलिए भी लगता है कि दुनिया के दूसरे देशों के साहित्य में से ज़्यादातर का प्रतिनिधित्व यहां अंग्रेज़ी के माध्यम से होता है (और यह स्वाभाविक भी है. अगर कल को कोई फ्रेंच साहित्यकार फ्रेंच भाषा में अपनी बात कहेगा तो उसे सुनने-समझने वाले कितने कम होंगे! यह एक सच्चाई है कि अन्य भाषाओं की तुलना में अंग्रेज़ी बोलने समझने वाले अधिक हैं.). फिर भी, अगर इसमें भारतीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व और बढेगा तो मुझे भी प्रसन्नता ही होगी.  हमारी अब तक की बातचीत से लग रहा है कि आप इस आयोजन से पूरी तरह संतुष्ट हैं. क्या आपको इस आयोजन में कुछ भी अप्रिय नहीं लगा? देखिए, सुधार की गुंजाइश तो हर जगह होती है. मेरा स्वभाव है कि मैं चीज़ों को उनके खास सन्दर्भ में देखता हूं और मूल्यांकन करते वक़्त सामने वाले पक्ष की सीमाओं को भी ध्यान में रखने की कोशिश करता हूं. वरना आम तौर पर होता यह है कि हम दूसरों से हद दर्ज़े के आदर्श की उम्मीद करने लगते हैं और फिर निराश होते हैं. यह बात मेरे स्वभाव में नहीं है. अब मुझे यह लगता है कि यह आयोजन कुल मिलाकर साहित्य और जन को नज़दीक लाने का एक उम्दा प्रयास है और इसी रूप में मैं इसका प्रशंसक हूं. बेशक यहां कोई गम्भीर विमर्श नहीं होता है, आम तौर पर. लेकिन इतने बड़े मेले से आपको गम्भीर विमर्श की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए. दूसरे, क्योंकि यह बहुत बड़ा आयोजन है, ज़ाहिर है कि आयोजकों पर बहुत सारे व्यावसायिक दबाव भी होते होंगे. वे नज़र भी आते हैं. मुझे नहीं लगता कि उनसे बचा जा सकता है. बचने की एक ही राह हो सकती है और वह यह कि आयोजन किया ही न जाए. अगर कोई मुझे छूट दे तो मैं तो इस विकल्प को नहीं चुनूंगा. मुझे लगता है कि नहीं करने से तो यह बेहतर है. अब आप कह सकते हैं कि इतना बड़ा आयोजन किया ही क्यों जाए! अगर आप यह कहें तो इसका कोई जवाब मेरे पास नहीं होगा. फिर भी, अगर आदर्श की बात करूं तो कहना चाहूंगा कि आयोजकों को व्यावसायिक पक्ष, ग्लैमर और तड़क भड़क से बचना चाहिए. एक बात और कहना चाहूंगा और वह यह कि अब यह आयोजन इतना बड़ा हो गया है कि डिग्गी पैलेस इसके लिए उपयुक्त नहीं रह गया है. मैं जानता हूं कि डिग्गी पैलेस के मालिकान यह स्थान आयोजकों को निशुल्क उपलब्ध कराते हैं और आयोजकों को अपने आयोजन की मार्केटिंग के लिहाज़ से एक ‘पैलेस’ रास भी आता है, लेकिन अब उन्हें कोई दूसरी जगह तलाश करनी ही चाहिए. और एक बात. मैं भी इस आयोजन की खूब सारी आलोचनाएं पढ़ता रहा हूं. वैसे तो मुझे यह बात दिलचस्प लगी कि अधिकांश आलोचनाएं लोगों ने बगैर इस आयोजन में आए, और बिना इसे समझे ही की है. सुनी-सुनाई, पढी-पढाई बातों के आधार पर. जो लोग कभी इस आयोजन में शरीक हुए उनमें से बहुत ही कम ने इसके बारे में प्रतिकूल कुछ कहा-लिखा है. फिर भी, एक बात मेरे मन में अवश्य आती है. थोड़ी देर के लिए मैं मान लेता हूं कि यह आयोजन बहुत खराब है, बहुत निकृष्ट है. तो, क्यों नहीं हम एक आदर्श और उत्कृष्ट आयोजन करके दिखाते हैं? हमें किसने रोका है? मैं जानता हूं कि हमारे यहां यानि इस फेस्टिवल से बाहर भी काफी कुछ होता है, अच्छा होता है. हाल ही में कविता समय का आयोजन हुआ. ऐसे और आयोजन हों तो कुछ बात बने. ◙◙◙ सम्पर्क सूत्र: डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल, ई-2/211, चित्रकूट, जयपुर- 302021. डॉ रजनीश भारद्वाज, ए-243, त्रिवेणी नगर, गोपालपुरा बाय पास, जयपुर. 'एक और अंतरीप' के जनवरी-मार्च 2012 अंक में प्रकाशित. Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा

Thursday, January 26, 2012

मीडिया: कल, आज और कल

मीडिया की आज़ादी की बात अभिव्यक्ति की आज़ादी के समानांतर है. जितनी ज़रूरी अभिव्यक्ति की आज़ादी है उतनी ही ज़रूरी मीडिया की आज़ादी भी है. और मुझे यह कहने में गर्व का अनुभव हो रहा है कि भारत में कुछ छुट-पुट अपवादों को छोड़कर ये दोनों ही आज़ादियां विद्यमान हैं. इन छुट-पुट अपवादों का भी समुचित विरोध होता है और इसलिए उन्हें नज़रन्दाज़ कर दिया जाना चाहिए. लेकिन जब हम बदलते परिवेश में मीडिया की आज़ादी की बात करना चाहते हैं तो पहला सवाल तो यही उठता है कि यह बदलता परिवेश क्या है. वैसे तो इसके अनेक सन्दर्भ हो सकते हैं लेकिन मैं फिलहाल बाज़ार और पूंजी के सन्दर्भ में इस परिवर्तित परिवेश को देखते हुए कुछ कहना चाहूंगा. पिछले कुछ बरसों में, मुक्त अर्थव्यवस्था और उदारीकरण के प्रसार से देश में काफी कुछ बदला है, और उस काफी कुछ में मीडिया भी शामिल है. एक समय था जब इस मीडिया को पत्रकारिता के नाम से जाना जाता था और उसे एक मिशन माना जाता था. लेकिन अब सिर्फ उसके नाम में ही नहीं चरित्र में भी बदलाव हुआ है और वह मिशन न रहकर एक व्यवसाय में तब्दील हो गया है. और जब वह व्यवसाय बन गया है तो ज़ाहिर है कि उसका लक्ष्य भी लाभ अर्जित करना हो गया है. अब इसी बदले हुए परिवेश में हम मीडिया की भूमिका पर विचार कर सकते हैं. मेरा ऐसा मानना है कि लाभ के बावज़ूद एक आधारभूत नैतिकता और आदर्श का भाव तो बना ही रहना चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य से कई दफा ऐसा नज़र नहीं आता है. चाक्षुष मीडिया में, खास तौर पर निजी चैनलों में, जहां टीआरपी ही सर्वोपरि हो गई है, और मुद्रण माध्यमों में भी, कई बार लगता है कि मुनाफा ही सब कुछ हो गया है. समाचारों पर विज्ञापन हावी दिखाई देते हैं और पेड न्यूज़ वाली बात भी इतनी पुरानी नहीं हुई है कि हमारी स्मृति से विलुप्त हो जाए. समाचारों के चयन में लाभ-हानि का नज़रिया साफ लक्षित होता है. मुद्रण माध्यमों में हमारी भाषा के साथ जो सुलूक हो रहा है उसके मूल में भी यही लाभ की प्रवृत्ति काम करती दिखाई देती है. लगता है कि अखबारों के मालिकों को भाषा की शुचिता की नहीं कोई चिंता नहीं है. बल्कि वे तो यह सोचकर कि इससे उनको ज़्यादा लाभ होगा, भाषा को और भी विकृत करने ज़रा भी संकोच नहीं कर रहे हैं. कोई भी माध्यम जड़ होकर नहीं जी सकता, लेकिन यह देखा जाना चाहिए कि वह किस तरह बदल रहा है. इधर अधिकांश अखबारों में गम्भीर, विचारोत्तेजक और सकारात्मक सामग्री का अनुपात निरंतर घट और हल्की-फुल्की, चटपटी, अश्लीलता की तरफ झुकी हुई और एक हद तक विकृत रुझान वाली सामग्री का अनुपात बढ रहा है. बहुत बार लगता है कि मीडिया को जिन चीज़ों के प्रतिपक्ष में होना चाहिए वह उन्हीं के समर्थन और सेवा में खड़ा है. निश्चय ही यह स्थिति चिंताजनक है. दृश्य माध्यमों में तो अर्थशास्त्र का वह नियम बहुत स्पष्ट नज़र आता है कि जब अच्छी और बुरी मुद्रा एक साथ चलती है तो बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को प्रचलन से हटा देती है. निजी चैनलों ने दूरदर्शन को लगभग अदृश्य ही कर दिया है. निजी चैनल मतलब केवल और केवल फिल्मी सामग्री. यहां भी जैसे नीचे गिरने की एक होड़ लगी है. रियलिटी शोज़ के नाम पर न जाने क्या-क्या दिखाया जा रहा है. अब सवाल यह रह जाता है कि ऐसे में मीडिया से हमारी अपेक्षाएं क्या हों? मैं जानता हूं कि बेशर्म पूंजी के इस दौर में मुनाफे की बात को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सकता, लेकिन फिर भी मैं यह उम्मीद करना चाहता हूं कि मीडिया अपने सामाजिक दायित्व को विस्मृत न करे. वह लोगों का मनोरंजन करने के साथ ही उन्हें शिक्षित और संस्कृत करने के अपने दायित्व का भी निर्वहन करे. मनोरंजन का अर्थ केवल फूहड़ नाच ही नहीं है, मनोरंजन सुरुचिपूर्ण भी हो सकता है. लाभ खबरों के विवेकपूर्ण चयन और संतुलित प्रस्तुतिकरण से भी कमाया जा सकता है. मैं उदास तो हूं, लेकिन निराश नहीं हूं. मुझे विश्वास है कि मीडिया अपने भटकाव के इस दौर से जल्दी ही उबरेगा और फिर से वह भूमिका अदा करने लगेगा जो उससे अपेक्षित है. ◙◙◙ जयपुर के समाचार पत्र डेली न्यूज़ में 26 जनवरी, 2012 को प्रकाशित. Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा