Wednesday, July 13, 2011

क्या यात्रा भीरु है हमारा हिंदी समाज?

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल से डॉ पल्लव की बातचीत


पल्ल्व: हिंदी में शुरुआत में ही घुमक्कड़ शास्त्र (राहुल सांकृत्यायन) जैसी किताब, और उससे भी पहले हमारी परंपरा की जड़ में रामायण (राम का अयन. अयन का अर्थ भ्रमण भी है) होने के बावज़ूद क्या कारण हैं कि हिंदी में यात्राओं पर लिखने की कोई बड़ी परंपरा नहीं मिलती.
दुर्गाप्रसाद: तुमने तो शुरू में ही मुझे उलझन में डाल दिया है. आम तौर पर कहा-माना जाता है कि हमारे देश में पर्यटन, देशाटन -चाहे जो भी नाम उसे दे लो- की बड़ी अच्छी परंपरा रही है. चार धाम वाली परिकल्पना को इस संदर्भ में अक्सर स्मरण किया जाता है. लेकिन मुझे यह लगता है कि हमारा समाज एक यात्रा-भीरु समाज रहा है. अब यही बात देख लो ना कि दूर-दूर के देशों से न जाने कितने विदेशी भारत आए और उन्होंने यहां की अनजानी जगहों को देखा और उनके बारे में लिखा. फाह्यान, ह्वेनसांग, इब्न बतूता, अल बरूनी, बर्नियर, मार्कोपोलो – ये नाम तो तुरंत ही याद आ रहे हैं. लेकिन मुझे एक भी ऐसा भारतीय याद नहीं आता है जो किसी पराये देश में गया हो, उसने वहां की पड़ताल की हो और उसके बारे में कोई वृत्तांत लिखा हो. पराये देश में भी, और अपने देश में भी. ऐसा बिना किसी वजह के तो नहीं रहा होगा ना. तो, इस बात के कारण भी हैं. मसलन हमारी खान-पान की आदतें और संस्कार. हरेक का खान-पान दूसरे से इतना अलग कि पूछिये मत, और अनेकानेक वर्जनाएं. यह भी कि मैं उसके हाथ का खाना नहीं खाता, और अगर मैं उसके हाथ का बना खाना खा भी लेता हूं तो वह मेरे हाथ का बना खाना नहीं खाता. शुद्धता और पवित्रता को लेकर अलग ही किस्म के आग्रह.

अब तुम्हारे प्रश्न पर आता हूं. देखो, एक तो मुझे लगता है कि हमारा साहित्य परिदृश्य कविता से अत्यधिक आतंकित रहा है. साहित्य का मतलब ही एक तरह से कविता रहा. जिसे साहित्य में दिलचस्पी होती है, वह फौरन कविता लिखना शुरू कर देता है. अगर कविता नहीं तो कहानी, और उससे थोड़ा आगे बढे तो उपन्यास. बहुत हुआ तो नाटक. बात खत्म. अन्य विधाओं को तो हाशिये तक भी नहीं पहुंचने दिया गया. ऐसा किसने किया? तो मैं कहूंगा कि साहित्य के अध्यापकों ने यह गड़बड़झाला किया. साहित्य के संस्कार तो वे ही बनाते हैं ना. तो उन्होंने यह स्थापित कर दिया (चाहे अनचाहे ही सही) कि साहित्य का मतलब कविता कहानी उपन्यास नाटक है, बस. तो जिन्हें लिखना था वे इसी तरफ चल पड़े.

दूसरी बात यह हुई कि हमारी आलोचना भी मुख्यत: इन्हीं विधाओं के इर्द- गिर्द घूमती रही. परिणाम यह हुआ कि इतर विधाओं में जो कुछ भी, जितना भी और जैसा भी लिखा गया, उस पर लोगों का ध्यान ही नहीं गया. आलोचना का एक काम ‘प्रकाश डालना’ भी तो है. इतर विधाएं आलोचना के इस प्रकाश से वंचित ही रहीं. अब यात्रा साहित्य की ही बात लो. अभी कुछ समय पहले समकालीन सृजन का यात्राओं का ज़िक्र शीर्षक से जो विशेषांक आया था, उसमें परिशिष्ट के रूप में हिंदी में प्रकाशित यात्रा विषयक पुस्तकों की एक सूची भी दी गई थी. हममें से शायद ही किसी को पता हो कि हिंदी में इतनी पुस्तकें इस विधा में आ चुकी हैं. और स्वाभाविक ही है कि कोई भी सूची पूर्ण नहीं हो सकती. तो, जितनी बड़ी वह सूची है, वास्तव में तो पुस्तकों की संख्या उससे अधिक ही है. तो, मैं कहना यह चाहता हूं कि हिंदी में यात्रा साहित्य की स्थिति उतनी दयनीय नहीं है, जितनी का रोना रोया जाता है. असल में पल्लव मैं हिंदी में एक खास बीमारी यह देखता हूं कि अगर एक बार कोई एक बयान जारी कर देता है तो फिर शेष लोग उसी बयान को दुहराते तिहराते रहते हैं, बिना उसकी सत्यता की पड़ताल किए. ऐसे अनेक उदाहरण तुम्हें भी ज्ञात हैं ही.

पल्लव: मैं तो अगला सवाल आपसे यही पूछना चाहता था कि क्या हिंदी समाज यात्रा भीरु है? आपने जिन बातों की तरफ संकेत किया उनमें से अधिकतर गुज़रे ज़माने की बातें हैं. अब जबकि काफी कुछ बदल चुका है तब भी यात्राओं का न होना और यात्रा लेखन का कम होना किस तरफ इंगित करता है?
दुर्गाप्रसाद: देखो पल्लव, जैसा मैंने अभी कहा, यह सही है कि हिंदी समाज यात्रा भीरु समाज है और इसके अपने कारण हैं, जिनकी तरफ थोड़ा-सा संकेत मैंने अभी किया है. अगर हम अपने एक दूसरे के हाथ का छुआ न खाने की और खान-पान विषयक वर्जनाओं की बात करें तो निश्चय ही काफी कुछ बदला है. लोगों के आपसी संपर्क बढे हैं और उनके व्यवहार में पहले की तुलना में अधिक उदारता का समावेश हुआ है. इसके बहुत सारे कारण हैं, जिन पर अलग से कभी बात हो सकती है, अभी करने लगेंगे तो विषयांतर हो जाएगा. लेकिन एक और बात, जिसका ताल्लुक हमारे वर्तमान से है, अभी की जानी ज़रूरी है. मुझे लगता है कि हिंदी का हमारा जो आम लेखक है (अपवादों की बात छोड़ दो) वह जिस मध्यवर्ग, बल्कि निम्न मध्यवर्ग से ताल्लुक रखता है, उस वर्ग के लिए यात्रा अब भी एक बड़ी और लगभग अलभ्य विलासिता है. उसके अपने रोजी-रोटी के संकट ही उसे सांस लेने की फुरसत नहीं देते. बेचारा यात्रा की कहां से सोचेगा? हम-तुम जो थोड़ी ठीक-ठाक और सुरक्षित स्थिति में हैं, हमीं कितनी यात्राएं कर पाते हैं? यात्राएं शायद हमारी प्राथमिकता में भी नहीं हैं. अगर होतीं तो हम जैसे-तैसे उनके लिए समय और साधन भी निकालते. यह लगभग उसी तरह की बात है जिस तरह की यह कि हिंदी पट्टी में किताब लोगों की प्राथमिकता सूची में बहुत नीचे है. दूसरी बात यह कि सारी बातों के बावज़ूद हमारे यहां यात्रा आनंद का नहीं असुविधा का पर्याय है. वह हिंदी-उर्दूका सफ़र न होकर अंग्रेज़ी का सफर (Suffer) है. हां, अगर आप पंच सितारा यात्री हों या उच्च सरकारी अफसर हों तो बात अलग है. लेकिन वे लोग भला लिखेंगे क्यों? यात्रा के साधनों की अस्त व्यस्तता, बसों रेलों की भीड़-भाड़, आरक्षण का नहीं मिलना, और मध्यवर्ग अफोर्ड कर सके ऐसी दरों पर रहने खाने की साफ सुथरी सुविधाओं का अभाव, ये भी हिंदी समाज के लिए यात्राओं को बाधित करने वाले तत्व हैं. लेकिन, इसके विरुद्ध तुम यह भी कह सकते हो कि यात्रा का अर्थ किसी पर्वतीय पर्यटन स्थल या दूरस्थ प्रदेश की यात्रा ही तो नहीं होता. घर से पांच मील दूर की किसी जगह का भी तो यात्रा वृत्तांत हो सकता है. तो यहां बीच में आता है हमारा प्रकाशन तंत्र. अगर आप अपने घर से पांच मील दूर की किसी जगह की यात्रा पर जाकर वहां का वृत्तांत लिखें तो उसे छापेगा कौन? न कोई पत्रिका छापेगी न कोई प्रकाशक छापेगा. हरेक ही अमृत लाल वेगड़ तो नहीं होता ना. तो बताइये, लेखक किसके लिए लिखेगा? हमारे यहां तो धारणा ही बन गई है कि जहां का वृत्तांत हो वह जगह बड़े नाम वाली होनी चाहिए. शिमला, हिमालय, पेरिस कुछ तो हो. यह क्या बात हुई कि आप साइकिल उठा कर घूम आये. और इसी क्रम में एक और बात यह कि भारतीय मन इतिहास और आत्म प्रक्षेपण में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं रखता. इसलिए अगर एक भारतीय यात्रा कर भी लेता है तो उसका वृत्तांत लिखने में उसकी कोई खास रुचि नहीं होती.

तो, बहुत सारी बातें मिलाकर एक परिदृश्य रचती हैं. लेकिन इसके बावज़ूद काफी लिखा गया है, यह बात मैं ज़ोर देकर कहना चाहूंगा. और इसके लिए हमें उन तमाम लेखकों का आभारी होना चाहिए जिन्होंने न केवल सारी असुविधाएं उठाकर यात्राएं कीं, उनके बारे में लिखा भी, बावज़ूद इस बात के कि यह विधा मुख्यधारा की विधा नहीं थी.

पल्लव: यात्रा संस्मरणों के कई नाम हैं... यात्रा आख्यान, यात्रा चित्र, यात्रा वर्णन, यात्रा संस्मरण इत्यादि. अरुण प्रकाश लिखते हैं कि यात्रा आख्यान कहने से आत्मपरकता और वस्तुपरकता का मेल हो जाता है. आप क्या ठीक समझते हैं?
दुर्गाप्रसाद: देखो पल्लव, मैं तो पुरानी पीढ़ी से ताल्लुक रखता हूं, इसलिए नाम भी मुझे पुराना ही पसंद आएगा. यात्रा संस्मरण - इस नाम से मुझे तो कोई दिक्कत नहीं है. इतने वर्षों में यह नाम प्रचलित हो चला है, तो इसे चलते रहने देना चाहिए. वैसे, हर लेखन की अपनी कुछ विशेषताएं होती हैं. कभी कोई अपनी यात्रा को लेकर आख्यान रचता है, तो कभी कोई चित्र उकेरने की कोशिश करता है. कभी कोई संस्मरणात्मक होता है तो कोई मात्र वर्णन करने में रुचि रखता है. इस तरह हर रचना का अपना एक नाम हो जाएगा. लेकिन जहां तक विधा के नामकरण का प्रश्न है, मुझे तो अभी भी यात्रा संस्मरण नाम ही उपयुक्त लगता है. मुझे नहीं लगता कि हर यात्रा वर्णन को यात्रा आख्यान कहना उचित होगा, जबकि यात्रा आख्यान को भी यात्रा वर्णन कह देने में कोई असंगति नहीं होगी.

पल्लव: आपने योजना बनाकर लिखा या आकस्मिक ही रहा यह लेखन?
दुर्गाप्रसाद: पूरी तरह से आकस्मिक था यह लेखन. तुम जानते ही हो कि मेरी ये यात्राएं पारिवारिक थीं. बेटी चारु के पास जाते रहे हैं हम लोग. और इन यात्राओं के साथ ऐसी कोई योजना दूर-दूर तक नहीं थी कि कुछ लिखना भी है. वैसे भी मैं बेहद आलसी हूं. रोज़ या योजना बनाकर नियमित रूप से लिखने वालों में से मैं नहीं हूं. लेकिन हो सकता है कि कहीं कोई छोटा-सा कीड़ा दिमाग में कुलबुला भी रहा हो. मुझे अपने जीवन में बहुत अधिक यात्राएं करने का अवसर नहीं मिला. ऐसे में जब अमरीका जाने का मौका मिला तो शायद लगा हो कि अपने अनुभवों को साझा करना चाहिए. कहीं मन में सतह के नीचे बहुत सारी यात्रा पुस्तकों की स्मृतियां भी रही होंगी. जब आप किसी को पढते हैं तो साथ ही साथ यह विचार भी चलता रहता है ना कि अगर मुझे ऐसा मौका मिलता तो मैं यह करता. तुम्हें याद होगा हमारे यहां बहुत सारे ऐसे लेख आदि हैं कि अगर मैं कामायनी लिखता, अगर मैं गोदान लिखता... तो हो सकता है कि कहीं मेरे मन में भी रहा हो कि अगर मुझे यात्रा करने का मौका मिलता तो मैं इस नज़र से देखता और यह भी लिखता. एक रोचक बात बताऊं. जब हम लोग पहली बार अमरीका जा रहे थे, तो उससे कुछ दिन पहले यहां जयपुर में एक मुद्रणालय में किसी काम से काफी देर बैठना पड़ा. वहां अमरीका यात्रा पर लिखी एक किताब पड़ी थी. शीर्षक था क्षितिज के उस पार. लेखिका थीं डॉ सुदेश बत्रा. राजस्थान विश्वविद्यालय की तत्कालीन हिंदी विभागाध्यक्षा. उनसे वैसे भी आत्मीयता है. वक्त काटने के लिए उस किताब को पढना शुरू किया तो खत्म करके ही दम लिया. बल्कि कहूं कि किताब ने ही अपने आप को पढ़वा लिया. बात खत्म हो गई. जब अमरीका पहुंच गए, तो वह किताब जैसे स्वत: उभर आई. यानि कहीं उस किताब ने भी प्रेरित किया कि मुझे भी कुछ लिखना चाहिए. यह तो हुई एक बात.

पल्लव: मेरी रुचि यह जानने में है कि ‘आंखन देखी’ ने कैसे आकार ग्रहण किया.
दुर्गाप्रसाद: हां, मैं उसी तरफ बढ़ रहा हूं. अब बताता हूं कि वास्तव में क्या हुआ. तुम्हें पता ही है कि हम लोग चारु की डिलीवरी के लिए अमरीका गए थे. यह जो अनुभव था, डिलीवरी से संबद्ध, अस्पताल का, चिकित्सा सुविधाओं का, अस्पताल कर्मियों के व्यवहार का, वहां रह रहे भारतीयों के पारस्परिक संबंधों का – इन सबने मुझे बहुत प्रभावित किया. और जाने कब ऐसा हुआ कि वह सारा अनुभव शब्द बद्ध हो गया. कोई योजना नहीं थी. चारु ने पूछा कि पापा क्या लिख रहे हो, तो उसे बताया, और उसने इसका ज़िक्र अपनी कुछ मित्रों से कर दिया. फिर एक दिन यह संयोग हुआ कि कुछेक परिवार इकट्ठे हुए तो मुझसे कहा गया कि मैं वह लेख पढ कर सुनाऊं. वाचन किया तो जिस तरह की प्रतिक्रियाएं मिलीं वे बहुत उत्साहवर्धक थीं. एक मित्र ने कहा कि आपने जो लिखा है उसका एक पहलू यह भी है कि इसमें इस समाज के सकारात्मक पहलू को देखने-दिखाने की कोशिश की गई है, जबकि आम तौर पर भारत से जो आता है वह इस समाज की लानत-मलामत ही करता है. तो यह लेख अमरीकी समाज का दूसरा पहलू सामने लाता है. यह टिप्पणी मुझे महत्वपूर्ण लगी. महत्वपूर्ण इसलिए लगी कि क्या मैं वाकई अमरीकी समाज की तारीफ करना चाहता था? क्या मैं अमरीका का पक्षधर बन गया था? क्या मेरा राजनीतिक सोच बदल गया था? और यही वह बिंदु था जिसने मुझे प्रेरित किया कि मुझे इस समाज को खुले मन से देखना परखना चाहिए. लिखने की बात तब भी मन में कुछ ख़ास नहीं थी. लेकिन जब इस तरह चीज़ों को देखने लगा, तो लिखता भी गया. और इस तरह एक पूरी किताब बन गई. लेकिन अब पीछे मुड़कर देखता हूं तो पाता हूं कि पारंपरिक अर्थ में तो मेरी किताब यात्रा संस्मरण, यात्रा आख्यान या यात्रा वृत्तांत नहीं है. लेकिन क्योंकि इसका संबंध यात्रा से है, इसलिए मैंने भी इसे यात्रा वर्णन मान लिया है.

पल्लव: मूलत: आलोचक होने के कारण क्या किस्सागोई में असुविधा नहीं रही? क्या यही कारण मानना चाहिए कि आपने छोटे-छोटे प्रसंग लिखे, न कि लंबे और धारावाहिक.
दुर्गाप्रसाद: मैंने जो लिखा उसमें विस्तार नहीं है, इस बात को मैं स्वीकार करता हूं. लेकिन मुझे नहीं लगता कि मेरे आलोचक होने से इस बात का कोई सम्बन्ध है. असल में बात यह है कि विस्तार मेरे स्वभाव में ही नहीं है. जो कहना है सीधे-सीधे कह दो. क्यों व्यर्थ में लंबी भूमिका बनाई जाए? जो लोग बात को विस्तार देते हैं, उनसे मुझे ईर्ष्या नहीं चिढ़ होती है. मन ही मन कहता हूं कि इसे इतना लंबा खींचने की कहां ज़रूरत थी? आप मुझे बोलने को कहेंगे तो बिना किसी भूमिका के अपनी बात कहकर बैठ जाऊंगा. कहने को नहीं होगा तो खड़ा ही नहीं होऊंगा. लिखते वक़्त भी ऐसा ही होता है. मैं कोशिश करूं तो भी अनावश्यक विस्तार नहीं ला पाता. और यह इस बात के बावज़ूद कि मैं पूरी ज़िन्दगी अध्यापक रहा हूं जो इस बात के लिए कुख्यात हैं कि अगर उनके पास कहने को कुछ भी न हो तो भी वे 45 मिनिट तो बोलेंगे ही. तो, एक बात तो यह है.
दूसरी बात यह कि जहां तक इस किताब (शीघ्र प्रकाश्य ‘देस परदेश’ – पल्लव) का सवाल है, यहां संक्षेप के कारण दूसरे भी हैं.

पल्लव: वे दूसरे कारण क्या हैं?
दुर्गाप्रसाद: असल में अपनी दो यात्राओं के समय मैंने क्रमश: राजस्थान पत्रिका और डेली न्यूज़ के लिए लगभग नियमितता से वहां से स्तंभ लेखन किया था. राजस्थान पत्रिका में देस में निकला होगा चांद शीर्षक से और डेली न्यूज़ में हम तो हैं परदेस में शीर्षक से. जब आप कोई कॉलम लिखते हैं तो शब्द सीमा पहले से तै होती है. आपको उसके भीतर ही रहना होता है. अब इधर हमारी पत्रकारिता में एक और प्रवृत्ति तुम भी लक्षित कर रहे होगे. वहां चीज़ों का, मतलब पाठ्य सामग्री का, आकार निरंतर छोटा होता जा रहा है. अखबार चलाने वालों ने मान लिया है कि उनके पाठक अब लंबी चीज़ें नहीं पढते. तुम देखोगे कि संपादकीय टिप्पणियां भी छोटी होती जा रही हैं. सब कुछ छोटा, बहुत छोटा. तो शायद यही वजह रही होगी कि अपनी बाद वाली यात्राओं में जब मैं कॉलम लिख रहा था तो मुझसे कहा गया कि मैं एक ही कॉलम में दो-तीन मुद्दे उठाऊं. स्वाभाविक है कि मुझे बहुत कम शब्दों में अपनी बात कहनी थी. मज़ाक में कहूं तो यह कि मुझे अपनी बात को कम शब्दों में कहने का एक और बहाना मिल गया. संक्षेप मेरे स्वभाव में है, लेकिन इतना अधिक संक्षेप बाह्य कारणों से ही हुआ.

पल्लव: अमरीका जैसे देश पर लिखते हुए आपके मन में संशय रहे, यह बात आपने आंखन देखी की भूमिका में लिखी है, और अभी भी कही. संशय इसलिए कि आप अमरीका के उजले पक्ष को देख-दिखा रहे थे. मेरा प्रश्न यह है कि आप वहां के अंधेरे पक्ष को भी तो देख सकते थे.
दुर्गाप्रसाद: तुम जानते ही हो, कि पिछले बरस मैं चौथी बार अमरीका जाकर आया हूं. पहली और दूसरी बार जब वहां गया था तो मुझे अच्छाई ज़्यादा नज़र आई थी, और वैसा ही मैंने लिखा भी. आंखन देखी की भूमिका में मैंने अपने एक विद्यार्थी की टिप्पणी का उल्लेख किया है, जिसने मुझ पर यह आरोप लगाया था कि आप तो चीज़ों के उजले पक्ष को ही देखते हैं, वह तुम्हें स्मरण होगा. इसे मेरी कमज़ोरी भी कह सकते हो. लेकिन, अगर मैं वहां के अंधेरे पक्ष को देखता और लिखता तो भी तुम या कोई और पूछ सकता था कि आप अमरीका का उजला पक्ष भी तो देख सकते थे? असल में वहां के बारे में लिखते समय हर वक़्त मेरे मन में अपना देश रहा है. वहां जो भी मुझे अच्छा लगा उसे मैंने कुछ इस विचार से लिख दिया कि काश हमारे यहां भी ऐसा ही हो. कुछ-कुछ प्रेरणा लेने जैसी बात. और मुझे यह देखकर खुशी हुई भी कि मैंने जो लिखा उसका कुछ असर भी हुआ. लेकिन अपनी तीसरी और चौथी यात्राओं में ऐसा नहीं हुआ है. इस किताब की कई टिप्पणियों में तुम वहां के जीवन के अंधेरे पक्षों को भी देखोगे.

तुम्हारे इस सवाल ने मुझे एक बार फिर से अपने लिखे के बारे में सोचने को प्रेरित किया है. और मैं पाता हूं कि लिखने से पहले मैंने यह तै नहीं किया था कि मुझे अच्छाइयों के बारे में लिखना है या बुराइयों के बारे में. मैं नहीं जानता कि वैसा करना, यानि पहले से तै करके लिखना, कितना उचित होता. लेकिन मैंने जो किया, उसके लिए लज्जित होने की, क्षमा प्रार्थी होने की कोई ज़रूरत मुझे अब भी नहीं लगती है. अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को बरक़रार रखते हुए, पूंजीवाद से पूरी तरह असहमत होते हुए और जहां भी प्रसंग आया इसे अभिव्यक्त करते हुए जैसा मुझे लगा, मैंने लिख दिया. वैसे, मुझे यह भी लगता है कि मैं ही नहीं, कोई भी अगर पहली बार वह सब देखेगा जो मैंने देखा, तो वह भी प्रशंसा ही करेगा.

पल्लव: आपको वहां के जीवन में ऐसा सबसे बड़ा क्या गुण नज़र आया जिसका हम भारतीयों में सर्वथा अभाव है?
दुर्गाप्रसाद: अगर मुझे एक ही गुण बताना हो तो मैं कहूंगा, दूसरों का खयाल रखने का भाव. वहां के आम नागरिक में भी मैंने यह बात लक्ष्य की कि वह हमेशा यह ध्यान रखता है कि उसके कारण किसी अन्य को कोई असुविधा न हो. अगर उसे ज़रा भी ऐसा लगता है कि उसके कारण आपको असुविधा हुई होगी तो वह आपसे अनिवार्यत: क्षमा याचना करेगा. मुझे एक प्रसंग याद आता है. सिएटल में जहां चारु का घर है, वह खासा सुनसान इलाका है. एक बात बताऊं. अमरीका में सुनसान इलाकों में रहना अधिक प्रतिष्ठा पूर्ण माना जाता है. तो एक दिन हमारे पड़ोस के घर में गैस लीकेज जैसा कुछ हो गया. एक अमरीकी परिवार रहता है उसमें. परिवार मतलब पति पत्नी, दो छोटे बच्चे और तीन कुत्ते. तो गैस लीकेज हुई तो स्मोक अलार्म बज गया और आनन-फानन में फायर ब्रिगेड की गाड़ियां आ गईं. कुछ ऐसा माहौल बन गया मानो कोई बहुत भयंकर दुर्घटना घट गई हो. यह व्यवहार वहां की व्यवस्था का अंग है. आपको मदद मांगनी, या उसकी याचना नहीं करनी पड़ती है, वह स्वत: और तुरंत सुलभ होती है. शोर सुनकर हम लोग भी घर से बाहर निकल आए. जैसे ही हम लोग बाहर आए, वे दोनों पति पत्नी आकर हमसे क्षमा याचना करने लगे कि उनके कारण हमें असुविधा हो रही है. अब यह बात मुझे बहुत महत्वपूर्ण लगती है. वे और उनका घर संकट में है, लेकिन वे पहले हमसे क्षमा याचना आवश्यक समझते हैं. क्या आप अपने देश में इस तरह के व्यवहार की कोई कल्पना भी कर सकते हैं? कोई सार्वजनिक स्थान पर या अन्यत्र भी अपने मोबाइल पर उच्च स्वर में बात नहीं करता है, कोई आपका मार्ग अवरुद्ध नहीं करता है, कोई सफाई करके अपने घर का कचरा आपके घर के सामने नहीं खिसकाता है. अगर आप क्यू में खड़े हैं और बाद में आने वाले को संशय है तो बजाय बीच में घुस जाने के वह आपसे पूछता है कि क्या आप क्यू में हैं? आपकी निजता का हर व्यक्ति पूरा सम्मान करता है. अगर आप पैदल सड़क पार कर रहे हैं तो हर वाहन आपके सड़क पार कर लेने तक रुका रहता है. कहां तक गिनाऊं. और याद रखिये, ये सारे उदाहरण एक ही गुण के हैं, क्योंकि आपने मुझसे एक गुण के ही बारे में पूछा था. इसी सिलसिले में, जब बात निकल ही गई है तो एक ज़िक्र और कर दूं. सिएटल शहर में, जहां हमने अपने प्रवास का अधिकांश वक़्त बिताया, सार्वजनिक पुस्तकालयों की एक बहुत बड़ी चेन है. मेरे वहां के पुस्तकालय अनुभव पर आंखन देखी में एक पूरा लेख तुमने पढा ही है. जिन्होंने वह लेख नहीं पढ़ा है उन्हें यह बताता चलूं कि अमरीका में सार्वजनिक पुस्तकालय व्यवस्था बहुत उम्दा है. पुस्तकालय में न केवल पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं, बल्कि कैसेट, रिकॉर्ड्स, वीडियो कैसेट्स, सीडी, डीवीडी, सीडी रोम वगैरह भी होती हैं और इन सबको आप इश्यू करवा के घर ले जा सकते हैं. यह भी कि हमारे देश की तरह प्रति व्यक्ति एक या दो पुस्तकों की सीमा भी वहां नहीं है. आप चाहें तो एक साथ पचास चीज़ें इश्यू करवा कर ले जाएं. तो जिस शहर में हम लोग थे, वहां की लाइब्रेरी का मैं भी नियमित उपयोग करता था. उसमें हिंदी पुस्तकें, हिंदी पत्र पत्रिकाएं, हिंदी फिल्में और भारतीय संगीत भी विपुल मात्रा में था. एक बात जो मैंने लक्षित की, और जिसे बताने के लिए मैंने यह सब बताया, वह बहुत त्रासद है. मैंने पाया कि वहां सबसे ज्यादा बुरी हालत में हिंदी की किताबें, हिंदी की पत्रिकाएं और हिंदी फिल्मों की सीडी, डीवीडी वगैरह थीं. इसलिए कि जो लोग इन्हें ले जाते वे शायद इनकी कतई परवाह नहीं करते. किताब का पन्ना फट रहा है, पत्रिका पर सब्ज़ी के दाग लग रहे हैं और सीडी पर खरोंच पड़ रही है, तो हमारी बला से. कौन हमारे घर की संपत्ति है – इस भाव का जीता-जागता नमूना थी वह सारी सामग्री जिसका उपयोग हम भारतीय करते हैं. होने को तो यह भी हो सकता है कि कोई किताब या पत्रिका हमें थोड़ी फटी हुई मिले तो हम उसे दुरुस्त करके लौटायें. लेकिन नहीं. यह बात तो हमारे संस्कार में ही नहीं है ना. अब एक और गुण की चर्चा मैं अपनी तरफ से कर रहा हूं. मैंने पाया कि वहां हर नागरिक हर व्यवस्था का अक्षरश: पालन करता है. चाहे कोई देख रहा हो या न देख रहा हो. किसी क्रॉसिंग पर अगर ब्लिंक करती हुई लाल बत्ती है तो हर वाहन वहां रुक कर ही आगे बढ़ेगा. हो सकता है हमारे यहां तो अधिकतर ड्राइव करने वालों को ब्लिंक करती हुई लाल बत्ती का अर्थ ही पता न हो. मैंने कभी किसी को रेड लाइट जंप करते हुए, गलत तरफ से ओवरटेक करते हुए, गलत दिशा में ड्राइव करते हुए, सड़क पर कचरा फेंकते हुए नहीं देखा. सफाई के एक प्रसंग का तो मैंने ज़िक्र किया भी है. एक रात जब हम लोग किसी पार्टी में थे, मैंने देखा कि एक वृद्ध दंपती अपने कुत्ते को घुमाने निकले हैं. कुत्ते ने एक जगह, सड़क पर अपनी हाजत रफा की. उन लोगों ने अपने हाथ से वह गंदगी एक पोलीथिन में समेटी और उसको इसी निमित्त विशेष रूप से निर्धारित जगह पर डाला. क्या आप इस बात की भी कल्पना अपने देश में करेंगे? बहुत छोटे बच्चे अगर अपनी गली में भी साइकिल चलायेंगे तो हेलमेट लगा कर ही चलायेंगे. अब आप चाहें तो इन बातों के लिए बहुत कुछ कह सकते हैं, मसलन यह कि वहां दंड के प्रावधान बहुत कड़े हैं, या कि उन्हें आज़ाद हुए दो सौ बरस हो गए हैं और यह सब उनकी आदत में शुमार हो गया है वगैरह. जब भी मैंने अपने मित्रों से यहां इन मुद्दों पर बात की, मुझे ऐसे ही तर्क सुनने को मिले. लेकिन अभी तो मेरा कहना यह है कि हम इस विस्तार में नहीं जा रहे हैं कि वहां ऐसा क्यों है, और यहां क्यों नहीं है.

पल्लव: आपकी दृष्टि से इनके पीछे मूल बात क्या है?
दुर्गाप्रसाद: अगर कारण के मूल में जाना चाहें तो? क्या केवल दंड प्रावधान होने से ही इतना अंतर पड़ जाता है? दंड प्रावधान तो हमारे यहां भी हैं. लेकिन हमारा व्यवहार तो इस बात से तै होता है कि कोई देख रहा है या नहीं देख रहा है. अगर चौराहे पर ट्रैफिक का सिपाही न हो तो आप बतायें कितने लोग रेड लाइट होने पर अपनी गाड़ी रोकेंगे? आप कभी किसी चौराहे पर खड़े होकर देख लीजिये. किसी भी गंभीर से गंभीर गोष्ठी या कंसर्ट में लोग अपना मोबाइल स्विच ऑफ नहीं करेंगे. विधान सभाओं तक में तो हमारे माननीय विधायक गण अपने मोबाइल ऑफ नहीं करते और आए दिन आसन की अवमानना के लिए दंडित होते हैं. सिनेमा हॉल में लोग बिना दूसरों के रस भंग की फ़िक्र किए फुल वॉल्यूम में बतियाते मिल जायेंगे. गलत साइड से ओवरटेक करते हुए किसी को संकोच नहीं होगा. ड्राइव करते हुए मोबाइल बात करने में लोग शान समझते हैं. एक प्रसंग याद आता है. एक दिन हम कुछ मित्र गपशप कर रहे थे. एक पुलिस अधिकारी, एक प्रोफेसर और मैं. प्रोफेसर साहब बहुत गर्व से बोले कि जब तक इस शहर में वे पुलिस अधिकारी मित्र पदस्थापित हैं, वे कार ड्राइव करते हुए सीट बैल्ट नहीं लगाने वाले. “आखिर पुलिस अधिकारी मित्र होने का कुछ तो लाभ हो!” और इसी से मुझे यह बात भी याद हो आती है कि जब मैं एक कॉलेज में विश्वविद्यालय परीक्षा करवा रहा था को एक परिचित पुलिस अधिकारी का फोन आया कि उनकी साली परीक्षा दे रही है, मैं ‘ज़रा ध्यान रख लूं.’ ध्यान रख लेने का आशय समझाने की ज़रूरत नहीं है. मैंने बहुत मुश्क़िल से खुद को उन्हें यह अनुरोध करने से रोका कि मेरा साला आज रात एक घर में चोरी करेगा, वे भी ज़रा उसका ध्यान रख लें. आप देखते ही हैं कि सरकारी तंत्र कोई कार्यवाही करता है तो तुरंत ही उसके विरुद्ध सिफारिशें होती हैं और किए कराये पर पानी फिर जाता है. कहां तक गिनाऊं? चौराहे पर खड़ा सिपाही ट्रैफिक नियम के उल्लंघन के लिए आपका चालान करता है, आप अपने परिचित किसी पुलिस अधिकारी को फोन करते हैं, पुलिस अधिकारी उस सिपाही को फोन करता है, और उस बेचारे को आपको छोड़ देना पड़ता है. अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हम सब ये तमाशे रोज़ देखते हैं. होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे. अमरीका में ऐसा नहीं होता. अगर कोई व्यवस्था है तो हरेक उसका पालन करता है. यह मामूली बात नहीं है.

पल्लव: हिंदी में आपके पसंदीदा यात्रा आख्यान लेखक कौन हैं?
दुर्गाप्रसाद: यह तुम भी जानते हो कि मेरा उत्तर क्या होगा. शायद सभी का उत्तर एक-सा ही होगा. अज्ञेय, निर्मल वर्मा, कृष्णनाथ, मंगलेश डबराल और अमृत लाल वेगड़. ये नाम मैंने किसी क्रम में नहीं लिए हैं. वैसे यह सूची थोड़ी और लंबी हो सकती है. मैं राहुल सांकृत्यायन से शुरू कर सकता हूं, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, हरिवंश राय बच्चन, कुमुद, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, मुज़्तबा हुसैन आदि के नाम ले सकता हूं. लेकिन हम यहां सूची तो बना नहीं रहे हैं ना, इसलिए यह मोह तो छोड़ना होगा. अगर मुझे मन से किसी एक किताब का नाम लेना हो तो मैं निर्मल वर्मा की ‘चीड़ों पर चांदनी’ का नाम लेना चाहूंगा. शायद मैं कॉलेज का विद्यार्थी था जब मैंने पहली बार यह किताब पढ़ी थी. देखो, एक तो उस समय तक हम दुनिया के देशों के बारे में अधिक नहीं जानते थे, दूसरे निर्मल जी की भाषा, जो आप पर जादू करती है. लेकिन महत्व इन दोनों बातों का नहीं है. यह बात मुझे काफी बाद में समझ आयी. असल में निर्मल जहां जाते हैं उन जगहों की आत्मा से साक्षात्कार करते और करवाते हैं. आप उन स्थानों को केवल देखते जानते नहीं, उन्हें महसूस करने लगते हैं. निर्मल जी की बाद में एक और किताब आई धुंध से उठती धुन . इस किताब में उन्होंने यात्रा वृत्तांत तो दिए ही, उसी के साथ भारतीय सभ्यता और संस्कृति को नई तरह से देखने-दिखाने की चेष्टा भी की. निर्मल जी के नज़रिए की काफी आलोचना हुई है. लेकिन मुझे लगता है कि तमाम असहमतियों के बावज़ूद उनके दाय को खारिज तो नहीं किया जा सकता. यह माद्दा बहुत कम लेखकों में होता है. जितना मुझे इन किताबों ने प्रभावित किया, उतना ही प्रभावित मुझे एक दूसरी तरह के यात्रा वृत्तांत ने भी किया. मेरा इशारा अमृत लाल वेगड़ की किताब सौंदर्य की नदी नर्मदा की तरफ है. इस किताब के एक-एक शब्द से नर्मदा के प्रति वेगड़ जी का प्यार टपकता है. अद्भुत है यह किताब. और जब मैं वेगड़ जी के लेखन की बात करूं तो मुझे कृष्णनाथ जी याद न आ जाएं ऐसा कैसे हो सकता है. स्फीति में बरिश, लद्दाख राग विराग उनकी ऐसी किताबें हैं जो हिम प्रदेश की धार्मिक सांस्कृतिक विरासत को समझने में भी हमारी सहायता करती हैं. वैसे बहुत सारे लेखकों ने अपने-अपने वृत्तांतों में अपने कमाल दिखाये हैं. लेकिन उन सबकी बात फिर कभी.

पल्लव: आपकी इस किताब (आंखन देखी) पर राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैया लाल सहल पुरस्कार मिलने पर कैसा लगा?
दुर्गाप्रसाद: बेझिझक कहूंगा, अच्छा लगा. मैं इतना महान नहीं हूं कि कहूं कि पुरस्कार का मेरे लिए कोई अर्थ नहीं है. मुझे लगता है कि मैंने जो लिखा वह किसी को पसंद आया, इस पर तो मुझे खुश होना ही चाहिए. लेकिन जितनी खुशी मुझे इस पुरस्कार से हुई, उतनी ही खुशी, बल्कि उससे भी ज़्यादा, मुझे पाठकों की प्रतिक्रियाओं से हुई. पाठकों की यानि ऐसे पाठकों की प्रतिक्रियाएं जिनका मुझसे कोई परिचय नहीं है. असल में इस किताब को मैंने नेट पर डाल दिया था. वहां से पूरी दुनिया में इसे डाउनलोड करके लोगों ने पढ़ा. दुनिया भर से लोगों ने मुझे अपनी प्रतिक्रियाएं भेजीं. जिनसे आपका कोई परिचय ही न हो, जब वे आपको अपनी प्रतिक्रिया भेजने का, सराहना करने का कष्ट करें तो खुशी होना स्वाभाविक ही है. लेकिन इसी स्वर में यह भी कहूंगा कि मुझे लगा कि मेरी मुद्रित किताब उतने पाठकों तक नहीं पहुंची जितनों तक इसे पहुंचना चाहिए था. हो सकता है इसमें मेरे प्रकाशक की भी सीमा हो.

पल्लव: क्या आप यात्रा वृत्तांत के शिल्प पर भी कुछ कहना चाहेंगे?
दुर्गाप्रसाद: हिंदी के दो अध्यापक (भले ही उनमें से एक भूतपूर्व ही क्यों न हो) बात करें और उसमें शास्त्रीय, बल्कि अध्यापकीय शैली का समावेश न हो तो फिर बात करने का मतलब ही क्या है? अगर अध्यापक की अब कुख्यात हो चली शैली में मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देना चाहूं तो मुझे भी काफी ज़ोर लगाना पड़ेगा, क्योंकि वह शैली मेरी भी है नहीं. लेकिन मैं वैसा उत्तर नहीं दूंगा. असल में बात यह है कि मुझे लगता है कि किसी भी विधा के लिए कोई एक शिल्प हो ही नहीं सकता. क्या गोदान, बाणभट्ट की आत्मकथा, राग दरबारी, मैला आंचल और कलिकथा का शिल्प एक है? इसी तरह कौन यह कहेगा कि रामचरितमानस, प्रियप्रवास और कामायनी का शिल्प एक है? मुझे तो हमेशा लगता है कि हर समर्थ रचना शिल्प के पुराने ढांचे को तोड़ कर अपने लिए एक नए शिल्प को गढ़ती है. ऐसे में यात्रा वृत्तांत के लिए किसी सामान्य शिल्प की बात करने का कोई अर्थ मुझे नहीं लगता.

पल्लव: बहुत बहुत धन्यवाद!
दुर्गाप्रसाद: धन्यवाद मेरी तरफ से भी. इसलिए कि इस बातचीत के बहाने मुझे भी काफी कुछ सोचने का अवसर मिला. एक बार फिर धन्यवाद.
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