Monday, December 27, 2010

मारियो वर्गास लोसा


वर्ष 20101 के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मारियो वर्गास लोसा की गणना एक अति महत्वपूर्ण लातीन अमरीकी लेखक के रूप में की जाती है तथा उनका नाम ऑक्टावियो पाज़ और गैब्रियल गार्सिया मार्खेज़ जैसे लेखकों के साथ लिया जाता है. साहित्यालोचक गेराल्ड मार्टिन ने उचित ही लिखा है कि लोसा कदाचित “पिछले 25 वर्षों के सर्वाधिक सफल और निश्चय ही सर्वाधिक विवादास्पद लातिनी अमरीकी उपन्यासकारों में से हैं.”

मारियो वर्गास लोसा का जन्म 28 मार्च 1936 को पेरु के एक कस्बे अरेक्विपा में एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था. उनके पिता एक पूर्व बस-ड्राइवर थे. लोसा के मां-बाप उनके जन्म से ठीक पहले अलग हो गए थे. अपने संघर्षपूर्ण जीवन के मध्य लोसा ने 1957 में अपनी कहानियों ‘द लीडर्स’ और ‘द ग्राण्डफादर’ के प्रकाशन के साथ अपना लेखकीय जीवन प्रारंभ किया. उनका पहल उपन्यास ‘द टाइम ऑफ द हीरो’ 1963 में प्रकाशित हुआ. प्रादो मिलिट्री अकादमी के लेखक के निजी अनुभवों पर आधारित इस उपयास को बहुत सराहा गया लेकिन इस उपन्यास में पेरु के मिलिट्री संस्थानों की जो आलोचना थी उसकी वजह से इस पर विवाद भी खूब हुआ. पेरु के सैन्य अधिकारियों ने तो यहां तक कह दिया कि यह उपन्यास एक बीमार दिमाग की रचना है और वर्गास को यह पेरु के सैन्य प्रतिष्ठान की छवि बिगाड़ने वाला यह उपन्यास लिखने के लिए इक्वाडोर से धन मिला है. विवाद और आलोचना से अप्रभावित वर्गास ने अपना लेखन जारी रखा और 1965 में ग्रीन हाउस नामक एक चकलाघर पर आधारित उनका नया उपन्यास ‘द ग्रीन हाउस’ प्रकाशित हुआ. इस उपन्यास को भी भरपूर आलोचकीय सराहना मिली और वर्गास को लातीन अमरीकी कथाकारों की पहली कतर में जगह मिल गई. इस उपन्यास को पुरस्कार भी खूब मिले. कुछ आलोचक ‘द ग्रीन हाउस’ को ही वर्गास का श्रेष्ठतम और सबसे महत्वपूर्ण कृतित्व मानते हैं. वर्गास का तीसरा उपन्यास ‘कन्वरसेशन इन द कैथेड्रल’ 1969 में आया. इस उपन्यास में उन्होंने ऑड्रिया की तनाशाह सरकार पर कड़े प्रहार किए थे.

‘कैथेड्रल’ की अपार सफलता के बाद वर्गास के लेखन में एक नया मोड़ आया. लातीन अमरीकी विद्वान रेमण्ड एल. विलियम्स ने उनके रचनाकर्म के इस काल को ‘द डिस्कवरी ऑफ ह्युमर’ कहा है. इस काल में 1973 में उनका एक लघु हास्य उपन्यास ‘कैप्टेन पाण्टोजा एण्ड द स्पेशल सर्विस’ आया जिसे उनके ‘द ग्रीन हाउस’ की एक पैरोडी की तरह देखा गया. लोसा का अगला महत्वपूर्ण उपन्यास ‘द वार ऑफ द एंड ऑफ द वर्ल्ड’ 1981 में प्रकाशित हुआ. यहां लोसा ने अपने लेखन की दिशा को ऐतिहासिक उपन्यास की तरफ मोड़ा. इसमें 19 वीं सदी के ब्राज़ील की एक घटना को आधार बनाया गया था. ब्राज़ील में इस उपन्यास को सराहा गया लेकिन अन्यत्र इसे कभी क्रांतिकारी तो कभी असामाजिक तक कहा गया. खुद लोसा इसे अपनी प्रिय किताब मानते हैं और कहते हैं कि इसे लिखना उनके लिए बेहद मुश्क़िल था. इस उपन्यास के बाद लोसा अपेक्षाकृत छोटे उपन्यासों की तरफ मुड़े. 1984 में उनका उपन्यास ‘द रियल लाइफ ऑफ अलेजाण्ड्रो’ प्रकाशित हुआ जो 1962 के एक वामपंथी विप्लव पर आधारित था. इसके बाद सन 2000 में उनका एक और महत्वपूर्ण उपन्यास, एक पॉलिटिकल थ्रिलर ‘द फीस्ट ऑफ द गोट’ प्रकाशित हुआ. विलियम्स ने इसे ‘द वार ऑफ द एण्ड ऑफ द वर्ल्ड’ के बाद का लोसा का सबसे ज़्यादा मुकम्मल और महत्वाकांक्षी काम माना है. वर्ष 2006 में लोसा ने ‘द बेड गर्ल’ की रचना की, जो कुछ लोगों के अनुसार गुस्ताव फ्लाबेयर के मदाम बॉवेरी का पुनर्सृजन था.

लोसा के उपन्यासों में ऐतिहासिक घटनाओं, तथ्यों और उनके निजी जीवनानुभवों का सुंदर सम्मिश्रण देखने को मिलता है. इस सामग्री का उपयोग प्राय: लेखक समाज की न्यूनताओं को उजागर करने के लिए करता है. अपने उपन्यासों में वे बार-बार एक दमनकारी व्यवस्था से अपनी स्वतंत्रता के लिए जूझते-टकराते व्यक्ति को सामने लाते हैं. उनके शुरुआती उपन्यास जहां पेरु में अवस्थित हैं वहीं बाद के कई उपन्यास लातीन अमरीका के अन्य क्षेत्रों जैसे ब्राज़ील और डॉमिनिकन रिपब्लिक तक भी पहुंचते हैं. उनका एक ताज़ा उपन्यास ‘द वे टू पैरेडाइस’ तो फ्रांस और ताहिती में अवस्थित है.

आलोचकों ने लोसा के उपन्यासों को मॉडर्निस्ट और पोस्ट मॉडर्निस्ट की श्रेणी में रखा है. यह कहा गया है कि उनके शुरुआती उपन्यासों की जटिलता और तकनीकी सघनता उन्हें मॉडर्निस्ट ठहराती है जबकि बाद के उपन्यासों का खिलंदड़ापन उन्हें उत्तर आधुनिक शैली के नज़दीक ले जाता है. लोसा पर उनके अनेक पूर्ववर्ती और समकालीन कथाकारों-रचनाकारों का प्रभाव भी लक्षित किया गया है. शुरू में तो वे अपने ही देश के कुछ कथाकारों से प्रभावित पाए जाते हैं लेकिन बाद में उन पर ज्यां पाल सार्त्र, गुस्ताव फ्लाबेयर, और विलियम फॉकनर का प्रभाव भी चीन्हा गया.

कथा लेखन के साथ-साथ लोसा ने पत्रकारी लेखन भी खूब किया. इसे उनकी राजनीतिक-सामाजिक सक्रियता के एक अंग के रूप में देखा जा सकता है. इसके अतिरिक्त उन्होंने 1975 में अपने ही उपन्यास के फिल्मी रूपांतरण के सह निर्देशक का दायित्व भी वहन किया. वे अंतर्राष्त्रीय लेखक संगठन पेन के प्रेसिडेण्ट भी निर्वाचित हुए.

अधिकांश लातीन अमरीकी बुद्धिजीवियों की तरह लोसा भी प्रारंभ में तो फिडेल कास्त्रो की क्यूबाई क्रांतिकारी सरकार के समर्थक थे. मार्क्सवाद क उन्होंने गहन अध्ययन किया था और क्यूबाई क्रांति की कामयाबी के बाद इसमें उनका विश्वास और सघन हुआ था. लेकिन बाद में उन्हें लगने लगा कि क्यूबाई समाजवाद और वैयक्तिक स्वाधीनता में टकराव है. जब 1971 में कास्त्रो की सरकार ने कवि हरबर्टो पाडिल्ला को कैद किया तो लोसा ने अपने कई मित्र बुद्धिजीवियों के साथ कास्त्रो को एक पत्र भी लिखा जिसमें क्यूबाई राजनीतिक व्यवस्था और कवि की गिरफ्तारी की निंदा की गई. उसके बाद से उनका झुकाव उदारवाद की तरफ होता गया. बाद में तो उन्हें प्रखर नव उदारवादी माना जाने लगा. लोसा ने 1990 में पेरु के राष्ट्रपति पद का चुनाव भी लड़ा.

1990 के बाद से लोसा आम तौर पर लंदन में रहते हैं, लेकिन हर साल वे कम से कम तीन महीने पेरु में भी बिताते हैं. 1993 में उन्होंने स्पेन की नागरिकता ले ली थी अत: वे प्राय: स्पेन भी जाते रहते हैं और वहां छुट्टियां बिताना उन्हें अच्छा भी लगता है. 1994 में उन्हें स्पैनिश रॉयल अकादमी का सदस्य चुना गया था अत: वे इसके माध्यम से वहां की राजनीति में भी सक्रिय हैं. उनके राजनीतिक विचार इतने महत्वपूर्ण हैं कि उन पर अनेक किताबों में चर्चा की गई है.

अज्ञेय ने अपने एक साक्षात्कार में महान कवि की जो कसौटियां निर्धारित की हैं वे हैं: 1. उसे बहुत लिखने वाला होना चाहिए, 2. उसमें निरंतर विकास दीखना चाहिए, और 3. अपने समय के समाज पर उसका काफी प्रभाव होना चाहिए. वर्गास के जीवन और रचनाकर्म के बारे में पढ़ते हुए मुझे अज्ञेय की ये तीनों कसौटियां याद आती रहीं और मुझे लगा कि अगर इन कसौटियों पर विश्वास करें तो बेशक वर्गास एक बड़े लेखक हैं. उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद स्वाभाविक ही है कि उनकी रचनाओं का और गहराई से अध्ययन-विश्लेषण होगा.
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