Thursday, September 23, 2010

इधर की कविताओं को लेकर टिप्पणी जैसा कुछ !


इंटरनेट पर अपनी एक टिप्पणी में अमरीका में रह रहे मेरे मित्र श्री अनूप भार्गव ने  हिंदी  कवि सम्मेलनों की स्तरहीनता पर अपना क्षोभ व्यक्त किया है. उन्होंने महाकवि निराला के एक अति प्रसिद्ध कथन, गिर कर कोई चीज़ मत उठाओ, चाहे वह कविता ही क्यों न हो’ को भी स्मरण किया है.  उनकी बात का समर्थन जाने माने कोशकार श्री अरविंद कुमार जी ने भी किया है और इस बात की तरफ भी इशारा किया है कि कवि सम्मेलनों के स्तर में गिरावट की शुरुआत कब से हुई. 

इस बात से कोई असहमति हो ही नहीं सकती कि आज कवि सम्मेलन फूहड़ता के पर्याय बन चुके हैं. वहां फूहड़ हास्य होता है, चुटकुलेबाजी होती है, लटके-झटके होते हैं, गायकी होती है, अदायगी होती है, नाटक  होता है, एक दूसरे की टांग  खिंचाई होती है, नूरा कुश्ती होती है, अगर कोई महिला भी मंच पर हो (जो कि होती ही है) तो उसे लेकर अशालीन टिप्पणियां  होती हैं.  और भी बहुत कुछ होता है. नहीं होती है तो बस, कविता नहीं होती है. और जो लोग यह सब कुकर्म करते हैं, उन्हें इसके लिए काफी अच्छा पैसा मिलता है. ज़ाहिर है यह पैसा जनता  देती है. कभी-कभार सरकार भी देती है. खास तौर पर हिंदी सप्ताह या पखवाड़े  के दौरान. हमारे ये कवि सम्मेलनी परफॉर्मर गिर कर काफी कुछ उठाते हैं. पैसा भी, नाम भी, यश भी, और यदा-कदा सरकार भी इन्हें नवाज़ देती है–संस्थानों के शीर्ष पर आसीन करके, जैसे कि ऐसे ही एक मंचीय विदूषक को देश की राजधानी में नवाज़ा गया. अब ऐसा करते–करते अगर कविता गिरती भी है तो गिरे. तथाकथित कवि जी का स्तर तो उठ रहा है. 

अनूप जी और अरविंद जी की चिंता  बहुत वाज़िब है कि यह सब कविता के नाम पर हो रहा है. लेकिन मेरी चिंता यहीं खत्म नहीं हो रही है. बल्कि यहीं से आगे बढ़ रही है. आज कवि सम्मेलन में  कविता नहीं रह गई है, ठीक बात है. लेकिन, क्या हमारी पत्र पत्रिकाओं में  कविता के नाम पर जो छप रहा है, उसमें से अधिकांश  को  कविता कहा जाना ठीक होगा? मैं जानता हूं कि मेरा यह सवाल अति सामान्यीकरण का शिकार है.  वहां काफी कुछ अच्छा भी छप रहा है. लेकिन, जो भी अच्छा छप रहा है क्या वह भूसे के ढेर  में खोया-सा नहीं लगता आपको? और चलिये यह भी मान लेते हैं कि उत्कृष्ट  और सामान्य के बीच  असंतुलन तो रहेगा ही. फिर भी. 

आज हिंदी में सबसे ज्यादा कविताएं ही लिखी जाती हैं. लिखने की शुरुआत करने वाले कविता से ही श्रीगणेश करते हैं. कुछ दिलजलों का कहना है कि ऐसा इसलिए होता  है कि कविता लिखना अपेक्षाकृत आसान है. मुझे नहीं पता, क्योंकि मैंने तो कभी लिखी नहीं. लेकिन हां, इधर पत्र-पत्रिकाओं में छपी ज़्यादातर कविताओं को देखता हूं तो दिलजलों की इस बात से असहमत होने का भी मन नहीं करता. उदाहरण देने की कोई ज़रूरत नहीं है. आप किसी भी  पत्रिका के पन्ने पलट लीजिए. एक ढूंढो, हज़ार मिल जायेंगे. आज कविता की दुनिया में कुछ ऐसी अराजकता है कि आप चाहे जो लिख दीजिए, और कह दीजिए कि यह कविता है. किसी माई के लाल में यह दम नहीं है कि कहे, राजा नंगा है. पिछले दिनों, मैंने कुछ ऐसा ही करने का दुस्साहस किया. हिंदी के एक प्रतिष्ठित (कहूं कि एकमात्र) साहित्यिक रुझान वाले समाचार पत्र के रविवारीय परिशिष्ट में छपी एक जाने-माने और समादृत कवि की तथाकथित कविता को स्कैन किया (हां, उनका नाम मैंने हटा दिया) और उसे फेसबुक पर पोस्ट करके पूछा कि क्या इसे कविता कहा जा सकता है? मेरा आशय  कवि की अवमानना करना क़तई नहीं था. इसीलिए मैंने उनका नाम हटा दिया था. मुझे वह रचना सीधे-सीधे एक वृत्तांत लग रही थी, कविता कहीं से भी नहीं लग रही थी, जबकि वह एक बहुत प्रतिष्ठित कवि की कलम से उपजी थी और एक ऐसे अखबार में छपी थी जिसके संपादक के साहित्य विवेक पर कोई  संदेह  नहीं किया  जा सकता. फेसबुक पर जो टिप्पणियां आईं, उनमें से अधिकांश  में उस रचना के कविता  होने को नकारा गया था.  दो-एक टिप्पणियों में ज़रूर उसे महान बताया  गया.  यह तो एक उदाहरण है. और इस तरह की चीज़ें आये दिन छपती ही रहती हैं. 

आप किसी भी पत्रिका, साहित्यिक पत्रिका,  के पन्ने पलट लें. वहां  आप कविता  के नाम पर जो छपा देखते हैं, क्या वह वाकई कविता कहने योग्य होता है? क्या कविता करना इतना आसान होता है कि उठाई कलम और लिख दी! कोई तैयारी नहीं. कोई अभ्यास नहीं. कुछ भी नहीं. लेकिन एक छद्म, एक पाखण्ड  चल रहा है. मैं तेरी तारीफ करूं, तू मेरी तारीफ कर. कविताओं की किताब छप जाती है, उसका लोकार्पण हो जाता है, कसीदे पढ़ दिये जाते हैं, दो-चार समीक्षाएं छप जाती हैं जिनमें उस किताब को न भूतो न भविष्यति बताया गया होता है, और बस. इस सबके पीछे जो प्रहसन घटित होता है, क्या उसे बताने की ज़रूरत है? मैं कुछ पंक्तियां लिखता हूं, उन्हें इकट्ठा करके, अपने पैसों से एक किताब छपवाता हूं. फिर अपने किसी मित्र से कहता हूं कि वह अपनी संस्था के बैनर तले मेरी किताब का लोकार्पण  समारोह आयोजित कर दे. सारा खर्चा  मैं वहन करूंगा, यह कहना अनावश्यक है. फिर मैं ही अपने कुछ मित्रों  से कहता हूं कि उन्हें मेरी किताब पर पत्रवाचन करना है, या वक्तव्य देना है. या तो मैं ऐसा उनके लिए पहले कर चुका हूं, या भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर कर दूंगा. उन मित्रों के पास कविता को लेकर जितनी भी अच्छी बातें हैं वे उन्हें मेरी  तथाकथित कविता पर लाद देते हैं. अगर आप उन वक्तव्यों  को सुनें तो आपको लगेगा कि न कालिदास कुछ थे, न मुक्तिबोध, न निराला. सब दो कौड़ी के थे. असल कवि तो यही है. जैसे-तैसे इस गोष्ठी की रपट भी कहीं न कहीं छप ही जाती है. जैसे-तैसे इसलिए कि आजकल समाचार पत्रों में साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों के लिए जगह ज़रा कम ही होती है.  और इसके बाद, जैसे गोष्ठी में वक्तव्य दिलवाये गए थे, वैसे ही समीक्षा भी लिखवा ली जाती है. बेचारे संपादक को भी तो अपनी पत्रिका के समीक्षा खण्ड में दो-एक किताबों की समीक्षा छापनी होती है ना.  अगर आप ही उन्हें किताब और समीक्षा दोनों उपलब्ध करा दें तो फिर नेकी और पूछ-पूछ.  और समीक्षा जब फरमाइश पर ही लिखी जानी है तो फिर उसमें वचनों की दरिद्रता क्यों? जितनी तारीफ मुमकिन हो उतनी हो जाए. आप पढ लीजिए इधर छपने वाली ज्यादातर समीक्षाएं. उनमें समीक्षित कविता या  कविता संग्रह की वो-वो खूबियां आपको नज़र आएंगी कि आपको  लगेगा कि आप तो अब तक भाड़ ही झोंकते रहे थे. क्या खाक समझ है आपको कविता की! 

यह पाखण्ड यहीं खत्म नहीं होता. छोटे लोग पत्रिकाओं में कविता छपवा कर वाहवाही लूटते है, उनसे बड़े संकलन छपवा कर, और जो उनसे  भी बड़े हैं वे संपादक बन कर ऐसा करते हैं. अगर विश्वास न हो तो मैं बताता हूं.  कविता और तद्विषयक चिंतन की  एक पत्रिका  है. लघु पत्रिका. नाम लेना उचित नहीं होगा. संपादक बहुत वरिष्ठ और आदरणीय  कवि हैं. बल्कि थे. कोई ग़लतफहमी पैदा हो उससे पहले ही स्पष्ट  कर दूं कि  यह भूतकालिक प्रयोग उनके संपादक के लिए है, कवि के लिए नहीं. अब उन्होंने संपादन का यह दायित्व एक   अपेक्षाकृत युवा कवि आलोचक को सौंप दिया है. पहले भी, जब वे खुद संपादन करते थे, और अब भी, जब संपादन कोई अन्य कर रहा है, उस पत्रिका में छपने वाला हर समीक्षा लेख उन कवि जी की  प्रशस्ति के बिना पूरा नहीं होता.  जब भी किसी नए कवि की प्रशंसा की जाती है यह बताना ज़रूरी होता है कि वह उस परंपरा का कवि है जिस परंपरा के शीर्ष पर उस पत्रिका के संस्थापक कवि बिराजते हैं. लिहाज़ के लिए दो-तीन नाम साथ में और ले लिए जाते हैं.  ऐसा करने में (यानि आत्मप्रशंसा  में) जब खुद उन कवि जी को कोई संकोच नहीं होता था तो फिर जिन्हें उन्होंने संपादक बनाया है वे भला क्यों कोई संकोच बरतने लगे. आजकल उस पत्रिका में नए  कवियों के काव्यकर्म पर एक श्रंखला चल रही है. मज़ाल है कि कोई कवि उन वरिष्ठ कवि जी के आई एस आई ठप्पे के बिना निकल जाए. और यह सारा कारोबार एकतरफा हो, ऐसा भी नहीं है. आखिर बदला तो चुकाना ही होता है ना. तो वे संस्थापक  संपादक जी भी, जब भी मौका मिलता है, उन आलोचकों के नाम ले  लेते हैं जिन्होंने उनकी प्रशंसा  की है. न इन्हें और कवि नज़र आते हैं और न उन्हें और आलोचक. तुझे ठौर नहीं, मुझे और नहीं. एक बहुत मज़े की बात यह कि इस पत्रिका के वर्तमान संपादक जब इस पत्रिका से बाहर कुछ  लिखते हैं तो वे  महान कवियों की रेडीमेड सूची चस्पां करने वाली आचार संहिता से मुक्त होते हैं. मुझे न उन कवि जी की महानता में कोई संदेह है और न वर्तमान संपादक जी के संपादकीय विवेक में.  लेकिन मन में एक ही सवाल है. अगर वे कवि इतने ही  महान हैं तो सिर्फ अपनी ही पत्रिका में इतने महान क्यों हैं? और अगर उनकी पत्रिका के वर्तमान संपादक उन्हें इतना ही अपरिहार्य मानते हैं कि उनके नाम  के बिना कोई समीक्षा कर्म पूरा नहीं होता तो फिर ऐसा उस पत्रिका में छपने वाले लेखों में ही क्यों होता है? यह तो एक उदाहरण  है. ज़्यादातर पत्रिकाओं की हालत ऐसी ही है. हर पत्रिका में छपने की पहली और ज़रूरी शर्त उसके संपादक का यशोगान होता है. हर, यानि अधिकांश पत्रिकाओं में. तो कवि (और आलोचक भी) के रूप में प्रतिष्ठित होने का एक और तरीका यह है कि आप संपादक बन जाएं.

अब जब यह सब कारोबार चलता है तो फिर बेचारे पाठक की क्या गति होती है? लेखक तो इस तंत्र को समझ और तदनुसार समझौते कर अपना काम  चला लेता है. लेकिन पाठक? वह रचना पढ़ता है तो उसे दो कौड़ी की लगती है. समीक्षा पढ़ता है तो पाता है कि जो रचना उसने पढ़कर यों ही छोड़ दी थी वह तो ऐसी थी जैसी सदियों में कभी-कभार  ही लिखी  जाती है.  बेचारा  अपने अज्ञान पर दुखी होता  है.  हैरां हूं,  दिल को रोऊं, कि  पीटूं जिगर को मैं.  कभी-कभी उसे लगता है कि साहित्य कहां से कहां पहुंच गया है और मैं ही हूं कि पीछे छूट गया हूं. मेरी समझ में ही कोई कमी   जब राधेश्याम जी कह रहे हैं कि सीताराम जी की कविता महान है, तो फिर होगी ही. लेकिन जब उस बेचारे पाठक को यह पता चलता है कि राधेश्याम  जी तो हर उस कवि को महान घोषित करने के असाध्य रोग से ग्रस्त हैं जो उन्हें ऐसा करने का अवसर देता है, तो सोचिये कि उस बेचारे पाठक के दिल पर क्या बीतती होगी. क्या वह खुद को ठगा हुआ महसूस नहीं करता होगा? क्या यह अनुभूति उसे साहित्य से थोड़ा दूर नहीं कर देती होगी?

इतना सब लिखते हुए मेरे मन में यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि आखिर मैं कविता किसे मानता हूं? आसान नहीं है इस सवाल का जवाब. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का प्रसिद्ध निबंध ‘कविता क्या है’  खूब पढ़ा है.  लेकिन रस, छंद, लय, अलंकार, लक्षणा, व्यंजना ये सब बीते ज़माने की चीज़ें हैं.  साहित्य का विद्यार्थी हूं तो इतना तो जानता ही हूं. काफी कुछ बदल चुका है. यह भी जानता हूं कि केवल छंद  से ही कविता नहीं हो जाती. रस भी उतना ज़रूरी नहीं है. छंद की मुक्ति और सपाट बयानी के बारे में भी थोड़ा-बहुत जानता हूं. अर्थ की लय के बारे में भी पढ़-सुन रखा है. बिंब, प्रतीक के बारे में भी जाना-सुना है....  साहित्य की सभी विधाओं के स्वरूप में बहुत बदलाव आया है. कविता को लेकर जो प्रचलित धारणाएं और मान्यताएं थीं वे एकदम बदल चुकी हैं. फिर भी, शायद सीधे-सीधे कहीं उंगली रख कर भले ही न कहा जा सके कि कविता यहां है, महसूस तो हो ही जाता है कि कविता यहां है, या नहीं है.  अगर ऐसा न होता तो हम कवि सम्मेलनों के कविता न होने को लेकर भी दुखी नहीं होते. दुख केवल फूहड़ता को लेकर ही नहीं है. जब हम छंदोबद्ध कविता को कविता मानने से मना करते हैं तब भी हमारे मन में कोई अवधारणा  तो कविता की होती  ही है.

परिदृश्य बहुत साफ नहीं है. कहां ईमानदारी है और कहां बे ईमानी, कहना बहुत मुश्क़िल है. लेकिन बातें साफ तो होनी ही चाहिये. लिहाज़ में प्रशंसा बहुत हो गई. अब खरी बातें भी की जानी चाहिए. अगर कहीं  अधकचरापन है, कविता नहीं है, तो उसे भी इंगित किया जाना  चाहिए.  कविता लिखने वालों और उनके पेशेवर सराहना करने वालों का जो गिरोह बन गया है, कविता को उससे बाहर निकाला  जाना बेहद ज़रूरी है. पत्र पत्रिकाओं में कविता के नाम पर जो भी ऊल जुलूल छप रहा है उस पर कोई तो नियंत्रण  हो. अगर आपको लगे कि आपने कविता लिखने में नई ज़मीन तोड़ी है, तो बताइये ना पाठक को  उसके बारे में. पाठक अगर ना समझ  है तो उसकी समझ को विकसित कीजिए. पाठक से संवाद कायम कीजिए. एक जीवंत रिश्ता बनाइये. अपनी कहिये, तो उसकी भी सुनिये. अगर समय रहते ऐसा न किया गया तो आज जो बात कवि सम्मेलनी कविता के लिए कही जा रही है, कल वही बात पत्रिकाओं और किताबों में   छपने वाली कविताओं के बारे में भी कही जाने लगेगी.
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अक्सर त्रैमासिक के अंक-13  (जुलाई-सितंबर, 2010) में प्रकाशित आलेख! 



Monday, September 13, 2010

हिंदी दिवस: कुछ खरी-खरी बातें


Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा

हिंदी दिवस फिर आ गया है. हर साल आ जाता है. विभिन्न सरकारी संस्थानों के  हिंदी अधिकारियों के लिए अपनी दक्षता के दिखावे का  वार्षिक महोत्सव. (दिखावे शब्द का प्रयोग मैंने जान-बूझकर किया है. यह मानते हुए कि वे वर्ष भर काफी कुछ सार्थक भी करते रहते हैं, लेकिन हिंदी दिवस या हिंदी सप्ताह या हिंदी पखवाड़ा उनकी कारगुज़ारियों के प्रदर्शन का मौका होता है.)  हिंदी लेखकों-कवियों के लिए इस बात पर गर्व करने का एक अवसर कि वे एक महान भाषा के रचनाकार हैं, मंचीय किस्म के कवियों के लिए सूर कबीर मीरा तुलसी की भाषा को दुनिया की सबसे महान भाषा घोषित करने और कुछ भावुकता भरे जुमले उछलने के वार्षिक  कर्मकाण्ड का मौसम,  और  अपनी सामग्री में अंग्रेज़ी शब्दों की मात्रा लगातार बढ़ाते  जाने वाले हिंदी अखबारों के लिए यह प्रदर्शित करने का एक और मौका कि वे हिंदी से गहरा अनुराग रखते हैं. लेकिन इन सबसे हटकर उन लोगों के लिए, जिनकी रोजी-रोटी से तो सीधे  इस दिन का कोई सम्बन्ध नहीं है लेकिन जो दिन-रात इसी भाषा को बरतते  हैं, यह दिन भी साल के बाकी दूसरे 364 दिनों जैसा ही एक और दिन होता है.
      
आइये देखें, क्या है हक़ीक़त इस दिन की!

भारत की संविधान सभा ने 14 सितम्बर,  1949 को हिन्दी को राजभाषा बनाने का फैसला किया था, उसी को याद करते हुए हिन्दी दिवस मनाया जाता है. कहने को हिन्दी हमारे देश की राजभाषा है भी सही, लेकिन इससे अधिक मिथ्या कथन और कोई शायद हो नहीं सकता. हिन्दी कितनी राजभाषा है, बताने की ज़रूरत नहीं. फिर भी, इस दिन हिन्दी प्रेमी इकट्ठा होते हैं, हिन्दी की शान में कसीदे पढते हैं, हिन्दी के लिए जीने-मरने की कसमें खाते हैं, और शाम होते-होते ये पर उपदेश कुशल वीर फिर से अपनी उस दुनिया में लौट जाते हैं जहां हिन्दी या तो होती नहीं, या बहुत ही कम होती है. घर में अंग्रेज़ी के अखबार, अंग्रेज़ी की पत्र-पत्रिकाएं, बातचीत और अगर वह किसी ‘बडे’ आदमी से हो तो अनिवार्यत: अंग्रेज़ी में, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा अंग्रेज़ी में. यानि हिन्दी के प्रयोग का उपदेश दूसरों को. उपदेश देने वाला भी इस हक़ीक़त से वाक़िफ, लेने वाला भी. इतना ही नहीं, हिन्दी के प्रति दिखावटी अनुराग का यह भाव भी क्रमश: फीका पडता जा रहा है. आज़ादी के बाद के कुछ सालों में हिन्दी के प्रति जिस तरह का लगाव नज़र आता था और लोग जिस उत्साह और भावना से हिन्दी के लिए खून-पसीना बहाने की बातें किया करते थे, अब धीरे-धीरे उसका भी लोप होता जा रहा है. अब हिन्दी दिवस महज़ एक गैर-ज़रूरी रस्म अदायगी बन कर रह गया है. राजभाषा  विभाग या उसके अधिकारी  को एक दिन यह ढोल बजाना   है सो जैसे-तैसे बजा दिया जाता है.  स्कूल कॉलेजों में तो शायद अब इस दिन को मनाने की भी कोई खास ज़रूरत महसूस नहीं की जाती. बाज़ार की भी इस दिवस में कोई दिलचस्पी नहीं है. न इस दिन के लिए कोई ग्रीटिंग कार्ड, क्षमा कीजिए, शुभकामना पत्र बेचे जाते हैं, और न लोग ई मेल या एस एम एस से एक दूसरे को इस दिवस की बधाई देते हैं. अगर भूले से कोई बधाई-वधाई दे भी देता है तो उसमें व्यंग्य का भाव ही अधिक होता है.  

निश्चय ही यह स्थिति लाने में सबसे बडी भूमिका हिन्दी वालों की रही है. मुझे लगता है कि हिन्दी का सबसे बडा अहित उसके राजभाषा बन जाने से हुआ. इसे गलत न समझा जाए. राजभाषा किसी न किसी भाषा को बनना ही था. हिन्दी का राजभाषा बनना उचित था. लेकिन गलत यह हुआ कि इसे हिन्दी वालों ने दादागिरी के भाव से ग्रहण किया: सारे देश को अब हिन्दी में काम करना पडेगा. अगर हम लोगों  ने अन्य भाषाओं के प्रति अपनत्व रखा होता, अगर दूसरी भाषाओं को सीखने में ज़रा भी रुचि दिखाई होती तो हिन्दी के प्रति अन्य भाषा-भाषियों में वैसी अरुचि न होती जैसी गाहे-बगाहे प्रकट हो जाती है. आखिर कितने हिन्दी भाषी होंगे जो दक्षिण की भी, बल्कि किसी भी हिन्दीतर प्रदेश की कोई भाषा जानते हैं? प्रभाष जोशी ने ठीक ही कहा है अन्य भारतीय भाषाओं के लोगों को हिन्दी से तभी ऐतराज़ होता है जब हिन्दी भाषी, भाषा द्वारा सत्ता को संचालित करना चाहते हैं. यानि सत्ता पर सिर्फ हिन्दी का  एकाधिकार देखना अन्य भारतीय भाषी लोग पसन्द नहीं करते. और यहीं यह बात भी याद कर लूं कि पिछले दिनों इंटरनेट  पर इस बात को लेकर बहुत बहस हुई और उत्तेजना का माहौल रहा कि कानून  की निगाह में हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा है. उत्तेजित लोग यह मानने-समझने को  तैयार ही नहीं थे और हैं कि हमारे देश में राष्ट्रभाषा जैसी कोई वैधानिक व्यवस्था है ही नहीं. ठीक उसी तरह जिस तरह राष्ट्रपिता की कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं है, या राष्ट्रकवि की कोई आधिकारिक स्थिति नहीं है. वैसे भी ज़्यादातर लोग राष्ट्रभाषा और राष्ट्रभाषा के बीच के अंतर को या तो समझते नहीं या समझना नहीं चाहते. बहुत सारे लोग नासमझी में भी इनका प्रयोग पर्यायवाची के रूप में कर लेते हैं.

दूसरी बात, हिन्दी समर्थक ‘निज भाषा उन्नति’ की केवल बात ही करते हैं, उसे क्रिया रूप में परिणत करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते. आज हिन्दी में अधिकांश  किताबें  300 के संस्करण से आगे नहीं जा पाती, इससे अधिक क्रूर टिप्पणी हमारे भाषा प्रेम पर क्या होगी? बडे-से-बडे शहर में हिन्दी किताबों की दुकान का होना अपवाद ही होगा. यह कहना अर्ध सत्य है कि प्रकाशक या पुस्तक विक्रेता की रुचि किताब बेचने में नहीं है. आखिर वह तो बेचने को बैठा है, आप खरीदने को निकलिये तो सही. लेकिन दस हज़ार का मोबाइल, दो हज़ार का जूता और दो सौ का पिज़्ज़ा खरीदने वाले को दो सौ रुपये की किताब महंगी लगती है. न केवल अधिसंख्य हिन्दी प्रेमी खरीदते नहीं, पढते भी नहीं. वे अपनी कूपमण्डूकता में ही मगन रहते हैं. हिन्दी लेखकों  की स्थिति भी, जो अपने आप को हिन्दी का सबसे बडा पैरोकार मानते हैं, कोई बेहतर नहीं है. हिन्दी का बडा (बल्कि छोटा भी) लेखक किताब खरीदकर पढना अपमान की बात मानता है. अगर आप चाहते हैं कि वह आपकी किताब पढ़े  तो आप उसे भेंट कीजिए. फुरसत होगी तो पढ़ लेंगे. और फुरसत होगी, इसकी ज़्यादउम्मीद कीजिये मत. हिन्दी लेखक अपना लिखा ही नहीं पढता औरों पर क्या कृपा करेगा! कभी कोई इस बात की पड़ताल करे कि हिंदी के लेखक लोग कितनी और कौन-सी किताबें खरीदते हैं, और सामान्यत: वे किताबों पर प्रतिमाह कितना व्यय करते हैं, तो बहुत रोचक नतीज़े सामने आ सकते हैं.

भाषा के प्रति उसका रवैया भी कम अधिनायकवादी नहीं है. वह चाहता है कि सब उससे पूछ कर, जैसी वह कहे वैसी भाषा का प्रयोग करें. इसीलिए कभी वह अखबारों की भाषा पर कुढता है, कभी टी वी की भाषा पर नाक-भौं सिकोडता है. वह खुद चाहे अपने जीवन में चाहे जैसी मिश्रित भाषा बोलता हो, आपसे चाहता है कि आप अपनी भाषा निहायत शुद्ध, परिष्कृत, प्रांजल, संस्कृतनिष्ठ वगैरह रखें. उसके लिए भाषा पण्डित का चौका है जहां काफी कुछ वर्जित रहता है. मज़े की बात कि यही भाषाविद इस बात पर खूब गर्व करता है कि ऑक्सफॉर्ड डिक्शनरी में इस साल इतने हिन्दी शब्द शामिल हो गए. हां, उसकी भाषा के चौके में अगर एक भी शब्द अंग्रेज़ी का आ गया तो चौका अपवित्र! इस संकुचित-संकीर्ण भाव को रखते हुए बात की जाती है हिन्दी को विश्व भाषा बनाने की. घर में नहीं दाने, अम्मां चली भुनाने!

हम हिन्दी अपनाने की बात तो बहुत करते हैं पर हिन्दी कैसी हो, इस पर कोविमर्श नहीं करते. यह समझा जाना चाहिए कि जब हमारे दैनिक जीवन की भाषा बदली है, यह बदलाव सब जगह दिखाई देगा. जिस भाषा में साहित्य रचा जाता है, वह भाषा आम आदमी की नहीं हो सकती. किसी भी काल में नहीं रही, हालांकि भवानी प्रसाद मिश्र ने कहा था, ‘जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख’. वैसे, नई तकनीक के आने से साहित्य की दुनिया में भी आम आदमी और उसकी भाषा की आमद-रफ्त बढी है, इसे भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए. कम्प्यूटर और इण्टरनेट के लगातार सुलभ और लोकप्रिय होने से आज हममें से बहुत सारे लोग अपने लिखे के खुद ही प्रकाशक भी हो गए हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण है. अब साहित्य कुछ खास लोगों तक सीमित नहीं रह गया है. आज हिन्दी में ही लगभग 3000  ब्लॉग चल रहे हैं. इनमें से अधिकतर की भाषा उस भाषा से बहुत अलग है जिसे आदर्श भाषा के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है. यहां दूसरी भाषाओं से शब्दों की खुली आवाजाही है और व्याकरण के नियमों में भारी शिथिलता है. सारा बल अपनी बात को सीधे-सादे तरीके से कहकर सामने वाले तक पहुंचाने पर, यानि अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण   पर है. दलित साहित्य ने भी भाषा को एक हद तक आज़ाद किया है. इस बात का स्वागत किया जाना चाहिए.

इधर तकनीक ने भाषा के प्रचार-प्रसार में बहुत बडी भूमिका अदा की है. कम्प्यूटर पर  सारा काम हिन्दी में करना सम्भव हुआ है और बहुत सारे हिन्दी प्रेमियों ने हिन्दी को तकनीक के लिए स्वीकार्य बनाने में वह काम किया है जो सरकारों को करना चाहिये था. बालेन्दु दाधीच और रविशंकर श्रीवास्तव उर्फ रवि रतलामी ऐसे लोगों में अग्रगण्य हैं.  लेकिन आम हिन्दी लेखक ने तकनीक से एक दूरी ही बना रखी है. नई तकनीक के विरोध में उनके पास अनगिनत तर्क हैं.  ‘मैं कम्प्यूटर नहीं जानता’ इस बात को संकोच से नहीं, गर्व से कहने वाले ‘एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं.’ इस परहेज़ से न उनका भला है न हिन्दी का. सुखद आश्चर्य तो यह कि ऐसे लोगों के बावज़ूद तकनीक की दुनिया में हिन्दी फल-फूल रही है. जैसा मैंने अभी  कहा, कम्प्यूटर पर सारा काम हिंदी  में संभव हो गया है और फेसबुक या ऑर्कुट जैसे मेल-जोल  के ठिकानों पर लोग हिंदी में खूब और धड़ल्ले से संवाद करते हैं.   दर असल पारम्परिक साहित्यकारों से अलग एक नई पीढी इण्टरनेट के माध्यम से साहित्य द्वार पर ज़ोरदार दस्तक दे रही है. इनके भाषा संस्कार भिन्न हैं और अलग है साहित्य को लेकर इनका नज़रिया. नेट पत्रिकाओं और ब्लॉग्ज़ में इनके तेवर अलग से देखे-जाने जा सकते हैं. कोई आश्चर्य नहीं होगा कि अगले कुछ सालों में ये ही साहित्य की मुख्यधारा का रूप ले लें. आखिर कहां हिन्दी की एक किताब का 300  का संस्करण और कहां नेट की असीमित दुनिया! नेट पर हिंदी प्रेमियों की बढ़ती  जा रही सक्रियता का एक प्रमाण  पिछले दिनों देखने को मिला. नया ज्ञानोदय में छपे विभूतिनारायण राय के साक्षात्कार में प्रयुक्त छिनाल शब्द को लेकर जो भारी शोर-शराबा और विरोध हुआ उसका बहुलांश इंटरनेट पर ही था. मेरे देखे यह हिंदी का पहला बड़ा आंदोलन था जो लगभग पूरी तरह नेट पर चला था.  अपने आप में भले ही यह कोई खुशी की बात न हो कि नेट पर एक आंदोलन चला, इस बात पर तो खुश हुआ ही जाना चाहिए कि हिंदी समाज नेट पर सक्रिय होता जा रहा है.  

हिन्दी फल-फूल बाज़ार में भी रही है. यह वैश्वीकरण का युग है. सबको अपना-अपना माल बेचने की पडी है. शहरों में बेच चुके तो अब कस्बों का रुख किया जा रहा है. और कस्बों की जनता को, बल्कि कहें उपभोक्ता को, तो हिन्दी में ही सम्बोधित किया जा सकता है, सो बाज़ार दौड कर हिन्दी को गले लगा रहा है. यह बात अगर गर्व करने की नहीं है तो स्यापा करने की भी नहीं है. आखिर हिन्दी का प्रसार तो हो ही रहा है. वैसे वैश्वीकरण की भाषा, एक बडे भू भाग में अंग्रेज़ी है, लेकिन भारत में उसने बाज़ार के दबाव में आकर हिन्दी के आगे घुटने टिकाये  हैं. इसी प्रक्रिया में हिन्दी और अंग्रेज़ी के रिश्ते भी पहले की तुलना में अधिक सद्भावपूर्ण बने हैं. ज़रूरत इस बात की है कि आज इन नए बने रिश्तों को समझा जाए और पुरानी शत्रुताओं को भुलाया जाए. आज जो अंग्रेज़ी हमारे चारों तरफ है उसे ब्रिटिश साम्राज्य से जोड कर देखना उचित नहीं. हमें इस नई अंग्रेज़ी के साथ रहना है, इसे स्वीकार कर अपनी भाषा के विकास की रणनीति तैयार की जानी  चाहिए.

आज भाषा और हिन्दी भाषा के प्रश्न पर न तो भावुकता के साथ सही विचार हो सकता है और न अपने अतीत के प्रति अन्ध भक्ति भाव रखते हुए. ऐसा हमने बहुत कर लिया. अब तो ज़रूरत इस बात की है कि बदलते समय की आहटों को सुना जाए और भाषा को तदनुरूप विकसित होने दिया जाए. इसी में हिन्दी का भला है, और हमारा भी.
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