Monday, August 23, 2010

सी पी जोशी: साथ काम करने के दिनों की कुछ यादें

अब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो सोचता हूं कि उस प्रख्यात अंग्रेज़ी कहावत के राजेन्द्र यादवीय अनुवाद को साकार करने की क्या सूझी थी मुझे? अग्रेज़ी कहावत है fools rush in where angels fear to tread in. राजेंद्र जी ने इसका जो अनुवाद किया, वह शालीन भले ही न हो, उससे सटीक अनुवाद और कोई हो नहीं सकता. उनका किया अनुवाद था, “चू** धंस पड़ते हैं वहां, फरिश्तों की फ*ती है जहां.” कोई 33 साल सरकारी कॉलेजों में नौकरी कर लेने के बाद, और अगर इसे अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना न माना जाए, तो एक उम्दा शिक्षक की प्रतिष्ठा अर्जित कर लेने के बाद, एक छोटे-से कस्बे में सुख-चैन की ज़िन्दगी जीते हुए मुझ नासमझ को क्या सूझी कि तबादले पर जयपुर आने को तैयार हो गया. बात केवल इतनी ही नहीं थी कि करीब-करीब पूरी नौकरी छोटे-छोटे कस्बों में करने के बाद राज्य की राजधानी में एडजस्ट कर पाऊंगा या नहीं. बात इससे कहीं ज्यादा बड़ी थी. हम शिक्षकों का, खास तौर पर कॉलेज शिक्षकों का, ईगो कुछ ज़्यादा ही बड़ा होता है. अपने काम से काम रखते हैं हम लोग, और वो जिसे दुनियादारी कहा जाता है, उस मामले में हम लोग ज़रा कमज़ोर होते हैं. लेकिन यहां जयपुर में मुझे शिक्षक के रूप में नहीं आना था. एक शिक्षक के रूप में आप स्वायत्त होते हैं. फिर प्रिंसिपल हुआ तो यह स्वायत्तता और बढ़ गई. लेकिन यहां जयपुर आकर तो मुझे कई सासों की बहू बन जाना था. यहां की कार्यशैली भी एकदम अलग होती है. इसका मुझे क़तई अभ्यास नहीं था. वहीं फाइल पर नोटिंग वगैरह. यथाप्रस्तावित!

जब तक कॉलेज शिक्षक रहा, अफसरों नेताओं वगैरह से एक सम्मानजनक दूरी बनी रही. मुझे लगता रहा कि उनकी दुनिया अलग है, मेरी अलग. इन लोगों से समानता के स्तर पर मिला नहीं जा सकता, और दास्य भाव मेरे स्वभाव में नहीं है. तो, निहायत ही औपचारिक संबंध रहे. न कभी कोई कटुता हुई और न कभी निकटता. बल्कि, यह और हुआ कि जिन लोगों से पहले आत्मीयता रही, जब वे विधायक मंत्री वगैरह बने तो मेरा उनसे मिलना जुलना ही खत्म हो गया. हमसे आया न गया, तुमसे बुलाया न गया वाली बात.

तो, अपने ऐसे स्वभाव की गठरी लिए जब जयपुर आया तो खुद ही कम आशंकित नहीं था. पद के दायित्व ऐसे कि अफसरों और मंत्री गण से लगातार संपर्क आवश्यक. संयुक्त निदेशक, कॉलेज शिक्षा का पद विभाग और सचिवालय के बीच की ज़रूरी कड़ी होता है. दिन में दसियों बार इनसे संपर्क की ज़रूरत होती है. मन में बहुत सारी आशंकाएं लिए आ तो गया ही था. उन दिनों मेरे विभाग के मंत्री थे डॉ सी पी जोशी. मुझे पता था कि वे भी मेवाड़ी हैं और उसी विश्वविद्यालय से निकले हैं जहां से मैंने अपनी शिक्षा ग्रहण की थी. अलबता वे मुझसे कई वर्ष बाद के अधिस्नातक थे. लेकिन इससे क्या फर्क़ पड़ता है. मन में कहीं यह तो लगता ही था कि कोई सूत्र है जो हमें जोड़ता है. सीपी जी को खासा कड़क मंत्री माना जाता था. सुना था कि खुर्राट अफसर भी उनके पास जाते हुए घबराते हैं.

अब यह तो याद नहीं कर पा रहा हूं कि अपने मंत्री जी से मेरा पहली बार सामना कब हुआ और उस मुलाक़ात में क्या हुआ, लेकिन यह अच्छी तरह याद है कि उनसे मिलकर भय मुझे ज़रा भी नहीं लगा. कुछ बाद में मैंने मन ही मन जब उनका मूल्यांकन किया तो पाया कि यह आदमी काम को समझता है, इसे बेवक़ूफ नहीं बनाया जा सकता, और इस आदमी को साफ सुथरी, नपी तुली बात पसंद है. शायद दो-तीन मुलाक़ातों के ही बाद मेरे लिए यह व्यवस्था हो गई थी कि जब भी मैं उनके दफ्तर जाऊं बिना अनावश्यक प्रतीक्षा के सीधे उनके कक्ष में जा सकता हूं. यहीं यह उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा, कि उसी काल में अपने विभाग के एक उच्चाधिकारी के यहां मेरा अनुभव इसके ठीक विपरीत रहा. उन्हें इस बात में खुशी महसूस होती कि उनके अधिकारी गण उनकी प्रतीक्षा में दो-चार घण्टे बर्बाद करें. उनके बुलावे पर सरकारी काम से आप उनके पास जाएं, और वे अपना दरबार लगाए रहें, ठकुरसुहाती का सुख लेते रहें और आप भकुए की तरह हाथ बांधे खड़े रहें क्योंकि आपको बैठने को कहना उनकी शान के खिलाफ हुआ करता था (यह बात अलग है कि मैं उन विरल लोगों में से एक था जो जाते ही उनके सामने खाली पड़ी किसी कुर्सी पर जम जाया करता था, यह जानते हुए भी कि ऐसा करना ब्यूरोक्रेटिक शिष्टाचार के खिलाफ है. खैर! वह प्रसंग फिर कभी). सीपी जी के चैंबर में जाने के बाद शायद ही कभी अनावश्यक प्रतीक्षा करनी पड़ी हो. नाम से संबोधित करते वे, और तुरत फुरत निर्णय कर या निर्देश देकर मुझे रुखसत कर देते. न कभी वे अनावश्यक आत्मीय हुए और न कभी किंचित भी कटु. एक सम्मानजनक दूरी सदैव बनाये रखी.

आज स्थानांतरणों वगैरह में मंत्रियों की भूमिका को लेकर काफी कुछ कहा जाता है (और कहा ही क्यों जाता है, सीपी जी के उत्तराधिकारी के साथ काम करते हुए मैंने खुद ही अनुभव भी कर लिया था) लेकिन सीपी जी के साथ मेरा अनुभव विलक्षण रहा. कुछ समय मेरे पास प्रिंसिपलों के स्थानांतरण पोस्टिंग वगैरह का भी दायित्व था. सीपी जी हमेशा यह चाहते कि मैं उनके स्थानांतरण के प्रस्ताव बनाकर उनके पास ले जाऊं. शुरू-शुरू में एक-दो बार मैंने उनसे पूछा भी कि अगर उनकी कोई खास आकांक्षा हो तो मुझे बता दें ताकि प्रस्ताव तैयार करते वक़्त ही उसका निर्वाह कर लिया जाए, लेकिन उन्होंने हमेशा यही कहा कि मुझे प्रशासनिक दृष्टि से जो उपयुक्त लगे वही करूं. जब मैं प्रस्ताव बनाकर उनके पास ले जाता तो वे उन प्रस्तावों में से रैंडम तौर पर दो-एक के बारे में पूछते कि मैं इस प्रिंसिपल को यहां क्यों भेजना चाह रहा हूं, और जब मैं उन्हें उस प्रस्ताव का कारण बताता तो वे तुरंत स्वीकार कर लेते. उन्होंने कभी तबादलों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया. न केवल इतना, बल्कि अगर सीधे मेरे पास कोई आग्रह या आदेश आता भी तो मैं उन्हें बताता और वे सारी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेकर मुझे मुक्त कर देते. यह मामूली बात नहीं है.

सीपी जी के साथ काम करने के छोटे बड़े अनेक संस्मरण मेरी स्मृति में हैं. एक बार एक निकटवर्ती राज्य के शिक्षा मंत्री जी जयपुर के दौरे पर आए. उनके साथ मेरी प्रोटोकॉल ड्यूटी थी. मंत्री जी बेहद सज्जन. उन्होंने चाहा कि मैं राज्य के शिक्षा मंत्री जी यानि सीपी जी से उनकी मुलाक़ात तै कर दूं. मैंने फोन करके समय निर्धारित कर दिया और अतिथि मंत्री जी को लेकर सीपी जी के बंगले पर पहुंच गया. यह सोचकर कि दो राजनीतिज्ञों की गुफ्तगू के वक़्त मेरा उपस्थित रहना उचित नहीं होगा, मैं बाहर ही बैठ गया. सीपी जी ने तुरंत किसी को भेज कर मुझे भीतर बुलाया और अपनी सहज मेवाड़ी में मुझे मीठा उलाहना दिया कि मैं अंदर क्यों नहीं आ गया. घर पर उनका बर्ताव दफ्तर से अलग हुआ करता था. नाथद्वारा का प्रसाद उन्होंने बहुत आत्मीयता से हमें खिलाया.

आज मुझे सबसे ज़्यादा यह आता है सीपी जी का संसदीय कौशल. विधान सभा में प्रतिपक्ष को कैसे फेस किया जाए, और अपनी बौद्धिकता का इस्तेमाल कर कैसे सामने वाले को हक्का-बक्का करके साफ बचके निकल जाया जाए, यह कोई सीपी जी से सीखे. विधानसभा में उनका कौशल देखते ही बनता था. आज जब विधान सभाओं में हल्ला-ब्रिगेड को देखता हूं तो मुझे सीपी जी की प्रखर बौद्धिक शैली की बहुत याद आती है.

मंत्री मण्डल में हुए फेर बदल के बाद जब सीपी जी मेरे विभाग के मंत्री नहीं रहे, तो मुझे यह बेहद ज़रूरी लगा कि मैं उनकी सदाशयता, सज्जनता और तमाम अच्छी बातों के लिए उनके पास जाकर अपनी कृतज्ञता व्यक्त करूं. मैं उनके दफ्तर गया और अपनी कृतज्ञता गिने-चुने शब्दों में व्यक्त की. उस दिन मुझे सीपी जी एक नया ही रूप देखने को मिला. मेवाड़ी में मुझसे बोले, “यार आप तो मनैं कदी क्यो ई नीं के आप कॉलेज में म्हारा सीनियर हा! (यार! आपने तो मुझे कभी कहा ही नहीं कि आप कॉलेज में मेरे सीनियर थे!)” अब भला मैं क्या बोलता?

तब से अब तक सीपी जी के कद में खूब इज़ाफा हुआ है. अब वे प्रादेशिक नेता न रहकर राष्ट्रीय स्तर के नेता हो गए हैं. ऊपर उल्लिखित कृतज्ञता ज्ञापन वाली भेंट के बाद प्रत्यक्ष उनसे कभी मुलाक़ात नहीं हुई. सयानों ने मुझे सुझाव भी दिया कि मुझे ‘बड़े’ लोगों से मेल जोल बनाये रखना चाहिए. उनका कहना भी सही है, लेकिन क्या करूं. अपने कैफियत तो वो राजकपूर वाली है कि सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी. सीपी जी से प्रत्यक्ष मुलाक़ात नहीं हुई, लेकिन मीडिया की बदौलत उनसे मिलना होता ही रहता है. जब भी उनकी किसी उपलब्धि के बारे में जानने को मिलता है, मैं भी यह याद करके खुश हो लेता हूं कि कभी इनके साथ मुझे भी काम करने का सौभाग्य मिला था. यही कामना है कि सीपी जी स्वस्थ रहें और दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करें.
◙◙◙

केंद्रीय पंचायती राज मंत्री डॉ सीपी जोशी की षष्ठि पूर्ति के अवसर पर उदयपुर से प्रकाशित स्मारिका में प्रकाशित आलेख.



Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा

Sunday, August 22, 2010

दो कविताएं : नारायण सुर्वे


मेरी मां

हर सुबह
जब तारे हो जाते अस्त
ऊंची-ऊंची चिमनियों के सायरनों से निकलती आवाज़ के बीच
मिल की तरफ़ जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते
कौन पीछे मुड़कर हमें देखती
और कहती इतने प्यार से
“लड़ना मत किसी से”
और थमा देती दो पैसे

दशहरे के एक दिन पहले
वो गई थी हम पांचों के साथ
मेले में
हम गलियों में कर रहे थे मस्ती
कितना मज़ा आया क्या कहें
लौटे तो हमारे हाथों में थे गुब्बारे
सीटियां और पीपनियां
हम बन गए थे परिंदे

एक दिन हुआ ऐसा
वे उसे गाड़ी में डालकर लाए
उसकी आंखें खुली थीं
और मुंह से बह रहा था खून
उसके साथी ने प्रणाम किया नज़दीक आया,
हमें बाहों में भरा और कहा ‘बालू’
हमने देखा सब कुछ चुपचाप
और ढूंढा अपनी छतरी को
अपनी छत को, और अपनी मां को.

उस रात हम पांचों
अपनी गुदड़ी में
चिपटे एक दूसरे से और भी ज़्यादा
जैसे गुदड़ी ही हो मां का दुलार
वैसे तो पहले से कुछ नहीं था हमारे पास
अब तो रही नहीं मां भी
हम जागते रहे सारी रात बहते रहे आंसू
अब हम हो गए थे पूरी तरह निस्संग.

◙◙◙



यह उस दिन की कहानी है जिस दिन नेहरु नहीं रहे

जो घर देते थे उनकी पीठों को गर्माहट, अचानक चरमराने लगे
शहर अचानक कैसे हो गया इतना क्रूर!
और फिर अंधेरे ने निगल लिया मणि को.

पत्थरों के परिधानों वाली फैक्ट्रियां
डूब गई गहन विचारों में, जलाए हुए अपने सिगार
और फिर वे लौटे
अपने-अपने दड़बों में
डाले हुए अपने-अपने कंधों पर अपनी गीली कमीज़ें.

“क्या हुआ सुंदरी?” पूछा एक वेश्या ने
”आज मत जलाना अगरबत्ती. नेहरु जी चले गए!”
दिया जवाब दूसरी ने.
“सच्ची? ठीक. चलो फिर आज रात हमारी भी छुट्टी!!”

भारी बोझ उठाने वाली दुनिया कर रही है आराम, मौन.

एक हाथ में कागज़ की लालटेन थामे दूसरे से हाथगाड़ी धकेलते
आदमी को रोककर मैं पूछता हूं, ”अब यह रोशनी क्यों, साथी?”
“किसलिए!”
आगे है घोर अंधेरा” उसने कहा.


यह उस दिन की कहानी है जिस दिन नेहरु नहीं रहे
यह उस दिन की कहानी है जिस दिन नेहरु नहीं रहे.
◙◙◙

अनुवाद: डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल


जयपुर से प्रकाशित डेली न्यूज़ के रविवारीय परिशिष्ट हम लोग में 22 अगस्त , 2010 को प्रकाशित.


Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा

Wednesday, August 18, 2010

पूरे देश का गीत

कभी-कभी एक अकेला गीत ही सिर्फ साढ़े सात मिनिट में पूरे देश को अपने आगोश में समेट लेता है. 15 अगस्त, 1988 की सुबह भारत के टीवी दर्शकों ने देखा एक केशरिया सूरज, समुद्र और उसकी उत्ताल तरंगों की छवियों में से उभरते अधमुंदी आंखों वाले भीमसेन जोशी को, जो अधमुंदी आंखों के साथ गा रहे थे, मिले...सुर मेरा तुम्हारा. राग थी शाही भैरवी – बहुतों को इस राग का नाम ज्ञात नहीं था लेकिन जैसे-जैसे पंडित जी की आवाज़ टीवी सेट्स से बाहर निकल रही थी -और करीब एक मिनिट तक वे एक अकेले तबले की ताल के साथ गा रहे थे- इसकी जादुई स्वर लहरी लोगों को मंत्र मुग्ध करती जा रही थी. धीरे-धीरे संगीत ने गति पकड़ी और दृश्य डल झील में तब्दील हुआ, और फिर पंजाब के खेतों में चलता हुआ ट्रैक्टर, आकाश से ली हुई ताजमहल की एक छवि, उसके पार्श्व में बहती हुई यमुना की जलधारा... यह था देशभक्ति के मुलायम रंगों में रंगा हुआ भारत. और कई अनेक लोगों के साथ-साथ हेमा मालिनी और एक अनाम महावत, अमिताभ बच्चन और एम बाला मुरली कृष्णन, शर्मिला टैगोर और तमस की पूरी कास्ट, जिन्होंने पंजाबी और उड़िया में, कन्नड़ और मराठी में, तमिळ और मलयालम में, असमी और तेलुगु में गाया. बहुत जल्दी ही कश्मीरी लोगों ने तमिळ पंक्ति एंते स्वरवुम निंगलुडे स्वरवुम को गुनगुनाना सीख लिया और मराठी बोलने वालों ने बांगला पंक्ति तोमार शोनार मोदेर शुर गाना सीख लिया. और मिले सुर बहुत ही उम्दा तरह से गाया जा सकने वाला टी वी गान बन गया और बन गया राष्ट्रीयता की एक झांकी.

उस स्वाधीनता दिवस पर बहुत घबराया हुआ एक आदमी -विज्ञापन पुरुष सुरेश मलिक- अपने चौकोर बीपीएल टी वी के सामने इंतज़ार कर रहा था कि कब प्रधान मंत्री राजीव गांधी का भाषण खत्म हो और कब मिले सुर मेरा का पहला प्रसारण शुरू हो. “यह वीडियो उन्हीं के दिमाग की उपज था.” कैलाश सुरेंद्रनाथ, जो उस कार्यक्रम के सहायक निदेशक थे, याद करते हैं. “हमने सोचा भी नहीं था कि यह एक कल्ट एंथम बन जायेगा.”

स्वर्गीय मलिक (मार्च, 2003 में उनका निधन हो गया था) ओगिल्वी एण्ड मेथर के नेशनल डाइरेक्टर थे. इससे पहले, 1988 में उन्होंने ही आज़ादी की मशाल वीडियो की भी परिकल्पना की थी जिसमें खेल की दुनिया के सितारों को लिया गया था. “राजीव जी, जिन्होंने यह आज़ादी की मशाल वीडियो देखा था, ने ही हमें मिले सुर वीडियो का विचार दिया था”, सुरेंद्रनाथ बताते हैं. उनका विचार यह था कि एक ही अंश में हिंदुस्तानी, कर्नाटक, पॉप्युलर, लोक और कंटेमपररी संगीत लीजिये, देश के कई प्रदेशों को लीजिए और उसे चाक्षुष और सांगीतिक दृष्टि से आकर्षक बना दीजिए.

सुरेंद्रनाथ बताते हैं, “हमने कलाकारों को लिखा कि वे इस कार्यक्रम का हिस्सा बनें और वे तुरंत तैयार हो गए.” मलिक साहब ने जैज़ संगीतकार लुइ बैंक्स, कम्पोज़र पी. वैद्यनाथन और सिनेमेटोग्राफर आर के राव को शामिल कर लिया. अब समस्या थी गीत के बोलों की. मलिक साहब को मंजे हुए गीतकारों, और यहां तक कि उनकी कंपनी के वरिष्ठ कॉपी राइटर्स का कोई भी गीत पसंद नहीं आया. इसके बाद उन्होंने अपनी टीम के एक युवा सदस्य को कोशिश कर देखने को कहा. और उसकी कोशिश कामयाब रही - अठारहवें प्रयास में. यह सदस्य था पीयूष पांडे. “मलिक साहब मेरे बॉस थे और उन्होंने मुझे कहा था कि मैं झण्डा, देश जैसे अगणित बार प्रयुक्त कर लिए गए शब्द इस्तेमाल न करूं. वे चाहते थे कि मैं लोगों को जोड़ने के लिए सरल शब्दों का इस्तेमाल करूं,” पाण्डे बताते हैं जो अब ओगिल्वी एण्ड मेथर के सी ई ओ हैं.

मलिक साहब के इस देशभक्ति पूर्ण प्रोजेक्ट का दूसरा ज़रूरी तत्व था राग भैरवी. यह एक संपूर्ण राग है जिसमें 12 स्वर (आधारभूत सात स्वरों में से कुछ के तीव्र और मध्यम स्वरूपों सहित) होते हैं, और जो हिंदुस्तानी और कर्नाटक दोनों शैलियों में प्रयुक्त होता है. लेकिन, पूरे देश को सम्मोहित कर लेने वाले इस गीत की धुन के कम्पोज़र के बारे में बहुत कम जानकारी है. “अधिकांश लोग इस गीत की धुन का श्रेय बैंक्स और वैद्यनाथन को देते हैं, लेकिन उनका काम तो काफी बाद में शुरू हुआ,” पांडे बताते हैं. इसके कम्पोज़र थे पण्डित भीमसेन जोशी. “हमने उन्हें इस गीत की शुरुआती छह पंक्तियां दीं और कहा कि हमारी इच्छा है कि यह राग भैरवी में हो. एक दिन पंडितजी स्टूडियो में आए और उन्होंने आधे घण्टे तक इस गीत को गाया. हमें तुरंत वह पसंद आ गया”, सुरेंद्रनाथ बताते हैं. वैद्यनाथन और बैंक्स ने विभिन्न भाषाओं के लिए संगीत अरेंज किया, अलग-अलग राज्यों के संगीतकारों की मदद से एक से दूसरी भाषा में अंतरण की व्यवस्था की और राष्ट्र गान को समाहित करते हुए इसके अंतिम उत्कर्ष का सृजन किया.

“हमारा राष्ट्रगान के अंतिम अंश को समाहित करना दूरदर्शन को पसंद नहीं आया. उन्हें लगा कि अपूर्ण राष्ट्रगान को प्रयुक्त करना उपयुक्त नहीं होगा. लेकिन राजीव जी ने इसे देखा और बेहद पसंद किया. उन्हें इसमें किसी भी बदलाव की ज़रूरत महसूस नहीं हुई,” बैंक्स कहते हैं.

सिनेमेटोग्राफर राव ने इस फिल्म को शूट करने के लिए पूरे देश की यात्रा की. “वीडियो की सादगी, सामान्य लोगों की मौज़ूदगी और ज़बान पर चढ़ जाने वाली धुन ने हमारे लिए जादू का काम किया,” वे कहते हैं. “इसमें कोई ज़ोरदार कैमरा मूमेंट्स नहीं थे. ज़्यादातर तो एक बार में ही ले लिए गए शॉट्स थे और उन सभी को मैंने ही लिया था. इससे फिल्म में एकरूपता बनी रह सकी.” कुल 20 लोकेशनों पर इसे महज़ 31 दिनों में शूट कर लिया गया था.”

ऐसा नहीं है कि शूटिंग में कोई दिक्कतें नहीं आईं. लता मंगेशकर उन दिनों रूस में एक कंसर्ट कर रही थीं अत: अंतिम अंश कविता कृष्णमूर्ति ने गाया. कृष्णमूर्ति को सुनते हुए लता जी को उस हिस्से को डब करना था लेकिन उन्हें यह बात पसंद नहीं आई.” वे खुश तो नहीं थीं, लेकिन अंतत: उन्होंने यह भी किया,” हंसते हुए राव बताते हैं.

जनवरी 2010 में इसी टीम ने, अलबता इस बार मलिक और वैद्यनाथन इसमें नहीं थे, फिर मिले सुर की रचना की. लेकिन यह पुनर्सृजन दुखद था. फिर मिले सुर पर बॉलीवुड और उसके नखरे हावी थे. यह मूल की मासूमियत समाहित कर पाने में नाकामयाब था,” राव कहते हैं.

वैसे उस मासूमियत का ताल्लुक 1988 से भी था, जब रंगीन दूरदर्शन महज़ छह बरस पुराना था और अपने रंगों से हमें सम्मोहित करने की काबिलियत रखता था. तब कमल हासन और कलकत्ता मेट्रो शायद पहली बार एक साथ हमारे टेलीविज़न सेट्स पर आए थे, और यह वह वक़्त था जब राष्ट्रवाद को कुल जमा इतने नखरे की ज़रूरत थी कि एक अदद लता मंगेशकर गाना गाए और उनके दांये कंधे पर केसरिया, श्वेत और हरा वस्त्र हो!
◙◙◙


15 अगस्त 2010 के इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित सुआंशु खुराना के लेख द वन ट्यून का डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल द्वारा मुक्त अनुवाद.






Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा