Friday, July 2, 2010

हम कितने सभ्य है?

पिछले दिनों पत्नी ने अपने घुटने बदलवाने का ऑपरेशन करवाया तो उनकी देखभाल करते हुए मुझे भारतीय मानसिकता के कुछ खास पहलुओं से रू-बरू होने का अवसर मिला.

पत्नी ऑपरेशन के लिए जिस अस्पताल में भर्ती हुई थीं वहां रोगियों से मिलने वालों की आवाजाही पर कड़ा प्रतिबंध था. प्रत्येक भर्ती रोगी के साथ एक परिचारक सदैव रह सकता था और सुबह दस से ग्यारह बजे तथा शाम पांच से सात बजे के बीच दो मुलाक़ाती उससे मिल सकते थे. कहना अनावश्यक है कि यह व्यवस्था रोगी के हित में की गई थी. रोगी आराम से रह सके, स्वास्थ्य लाभ कर सके, और अनावश्यक संक्रमण से बचा रह सके. लेकिन मैंने पाया कि अधिकांश लोग इस व्यवस्था से नाखुश थे. न केवल नाखुश, इस व्यवस्था को तोड़ने के लिए भरसक प्रयत्नरत भी. जो गार्ड इस व्यवस्था की अनुपालना करवाने के लिए तैनात थे उनके साथ बदतमीजी और गाली-गलौज अपवाद नहीं सामान्य बात थी. बिना पास के भीतर घुसने या मुलाक़ात के समय के अतिरिक्त भी रोगी के पास जाने की हर मुमकिन चेष्टा करते लोग नज़र आए. इस बात को समझने को जैसे कोई तैयार ही नहीं कि रोगी को आराम भी मिलना चाहिए. जैसे कि अगर मुलाक़ाती ने रोगी से भेंट न की तो आसमान टूट पड़ेगा. कुछ लोग यह कहते मिले कि इतना महंगा अस्पताल फिर भी रोगी से मिलने ही नहीं देते हैं.

मुझे तकलीफ इस बात से हुई कि ज्यादातर लोग यह समझने को तैयार ही नहीं हैं कि यह व्यवस्था रोगी के हित में है. अब भला इस बात में क्या तुक है कि रोगी को आराम की ज़रूरत है और दो चार पांच दस मिलने वाले उसे घेरे हुए बैठे हैं. न केवल बैठे हैं, तमाम बेमतलब और बेहूदा बातें किए जा रहे हैं. उसे उन सब मामलों में सलाह दे रहे हैं जिन्हें देने की कोई योग्यता उनमें नहीं है. रोग और इलाज के बारे में हर किस्म की बेहूदा और बेतुकी बातें किए जा रहे हैं. रोगी अपने जिस कष्ट के निवारण के लिए वहां भर्ती है उसके निवारण के अब तक के तमाम असफल प्रयासों का ब्यौरा देकर उसका मनोबल तोड़ने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं. रोगी सोना चाहता है लेकिन उसके ये शुभ चिंतक हैं कि उसे अकेला छोड़ ही नहीं रहे हैं.

इस अस्पताल में रोगी के पास बारह साल से कम उम्र के बच्चों का आना वर्जित था. यह व्यवस्था भी इस कारण की गई है कि छोटे बच्चे संक्रमण के शिकार जल्दी हो सकते हैं. मेरी पत्नी जिस कमरे में थी, उसी में दूसरी शैया पर एक सद्य प्रसूता युवती थीं. युवती के वीर पतिदेव एक रात साढे नौ बजे अपने चार साल के बेटे को कमरे में ले आए. मैंने कुछ जिज्ञासा और कुछ आपत्ति के भाव से उनसे पूछा कि बच्चे तो आ नहीं सकते हैं, वे अपने बेटे को कैसे ले आए, तो वे बड़े गर्व से बोले कि साहब पैसे के बल पर क्या नहीं हो सकता. यानि उन्होंने गार्ड की मुट्ठी गरम की थी. बच्चा कुछ ज्यादा ही शरारती था. थोड़ी देर में इंचार्ज नर्स आई और उसने उन सज्जन से अनुरोध किया कि वे बच्चे को वहां से ले जाएं तो वे उस नर्स से जिस बद्तमीजी से पेश आए उसका वर्णन न ही किया जाए तो ठीक होगा. बच्चे की शरारत से जब मेरी पत्नी, जिनका पिछले ही दिन ऑपरेशन हुआ था, परेशान होने लगी तो मैंने भी उनसे अनुरोध किया कि वे बच्चे को ले जाएं, तो वे मुझसे भी लगभग वैसी ही बदतमीजी से पेश आए. मेरी इच्छा तो बहुत हुई कि अस्पताल प्रशासन को शिकायत करूं पर यह सोच कर बहुत मुश्क़िल से खुद को रोका कि इससे उस गार्ड की नौकरी पर बन आएगी.

असल में दूसरों की सुविधा असुविधा के बारे में क़तई नहीं सोचना हमारी जीवन पद्धति का एक अविभाज्य अंग बन चुका है. हम चाहे कितनी ही बड़ी-बड़ी बातें क्यों न करें, हमारा सारा ध्यान सिर्फ स्वयं पर ही केन्द्रित होता है. अगर मेरा यह सोचना सही है तो फिर निश्चय ही यह सवाल उठाया जाना चाहिए कि हम कितने सभ्य हैं? बल्कि सभ्य हैं भी या नहीं. कहना अनावश्यक है कि सभ्य होना, सांस्कृतिक होना, केवल बातों से ही सिद्ध नहीं होता है, हमारे कर्म, हमारा व्यवहार भी तदनुरूप होना चाहिए.



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