Monday, December 27, 2010

मारियो वर्गास लोसा


वर्ष 20101 के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मारियो वर्गास लोसा की गणना एक अति महत्वपूर्ण लातीन अमरीकी लेखक के रूप में की जाती है तथा उनका नाम ऑक्टावियो पाज़ और गैब्रियल गार्सिया मार्खेज़ जैसे लेखकों के साथ लिया जाता है. साहित्यालोचक गेराल्ड मार्टिन ने उचित ही लिखा है कि लोसा कदाचित “पिछले 25 वर्षों के सर्वाधिक सफल और निश्चय ही सर्वाधिक विवादास्पद लातिनी अमरीकी उपन्यासकारों में से हैं.”

मारियो वर्गास लोसा का जन्म 28 मार्च 1936 को पेरु के एक कस्बे अरेक्विपा में एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था. उनके पिता एक पूर्व बस-ड्राइवर थे. लोसा के मां-बाप उनके जन्म से ठीक पहले अलग हो गए थे. अपने संघर्षपूर्ण जीवन के मध्य लोसा ने 1957 में अपनी कहानियों ‘द लीडर्स’ और ‘द ग्राण्डफादर’ के प्रकाशन के साथ अपना लेखकीय जीवन प्रारंभ किया. उनका पहल उपन्यास ‘द टाइम ऑफ द हीरो’ 1963 में प्रकाशित हुआ. प्रादो मिलिट्री अकादमी के लेखक के निजी अनुभवों पर आधारित इस उपयास को बहुत सराहा गया लेकिन इस उपन्यास में पेरु के मिलिट्री संस्थानों की जो आलोचना थी उसकी वजह से इस पर विवाद भी खूब हुआ. पेरु के सैन्य अधिकारियों ने तो यहां तक कह दिया कि यह उपन्यास एक बीमार दिमाग की रचना है और वर्गास को यह पेरु के सैन्य प्रतिष्ठान की छवि बिगाड़ने वाला यह उपन्यास लिखने के लिए इक्वाडोर से धन मिला है. विवाद और आलोचना से अप्रभावित वर्गास ने अपना लेखन जारी रखा और 1965 में ग्रीन हाउस नामक एक चकलाघर पर आधारित उनका नया उपन्यास ‘द ग्रीन हाउस’ प्रकाशित हुआ. इस उपन्यास को भी भरपूर आलोचकीय सराहना मिली और वर्गास को लातीन अमरीकी कथाकारों की पहली कतर में जगह मिल गई. इस उपन्यास को पुरस्कार भी खूब मिले. कुछ आलोचक ‘द ग्रीन हाउस’ को ही वर्गास का श्रेष्ठतम और सबसे महत्वपूर्ण कृतित्व मानते हैं. वर्गास का तीसरा उपन्यास ‘कन्वरसेशन इन द कैथेड्रल’ 1969 में आया. इस उपन्यास में उन्होंने ऑड्रिया की तनाशाह सरकार पर कड़े प्रहार किए थे.

‘कैथेड्रल’ की अपार सफलता के बाद वर्गास के लेखन में एक नया मोड़ आया. लातीन अमरीकी विद्वान रेमण्ड एल. विलियम्स ने उनके रचनाकर्म के इस काल को ‘द डिस्कवरी ऑफ ह्युमर’ कहा है. इस काल में 1973 में उनका एक लघु हास्य उपन्यास ‘कैप्टेन पाण्टोजा एण्ड द स्पेशल सर्विस’ आया जिसे उनके ‘द ग्रीन हाउस’ की एक पैरोडी की तरह देखा गया. लोसा का अगला महत्वपूर्ण उपन्यास ‘द वार ऑफ द एंड ऑफ द वर्ल्ड’ 1981 में प्रकाशित हुआ. यहां लोसा ने अपने लेखन की दिशा को ऐतिहासिक उपन्यास की तरफ मोड़ा. इसमें 19 वीं सदी के ब्राज़ील की एक घटना को आधार बनाया गया था. ब्राज़ील में इस उपन्यास को सराहा गया लेकिन अन्यत्र इसे कभी क्रांतिकारी तो कभी असामाजिक तक कहा गया. खुद लोसा इसे अपनी प्रिय किताब मानते हैं और कहते हैं कि इसे लिखना उनके लिए बेहद मुश्क़िल था. इस उपन्यास के बाद लोसा अपेक्षाकृत छोटे उपन्यासों की तरफ मुड़े. 1984 में उनका उपन्यास ‘द रियल लाइफ ऑफ अलेजाण्ड्रो’ प्रकाशित हुआ जो 1962 के एक वामपंथी विप्लव पर आधारित था. इसके बाद सन 2000 में उनका एक और महत्वपूर्ण उपन्यास, एक पॉलिटिकल थ्रिलर ‘द फीस्ट ऑफ द गोट’ प्रकाशित हुआ. विलियम्स ने इसे ‘द वार ऑफ द एण्ड ऑफ द वर्ल्ड’ के बाद का लोसा का सबसे ज़्यादा मुकम्मल और महत्वाकांक्षी काम माना है. वर्ष 2006 में लोसा ने ‘द बेड गर्ल’ की रचना की, जो कुछ लोगों के अनुसार गुस्ताव फ्लाबेयर के मदाम बॉवेरी का पुनर्सृजन था.

लोसा के उपन्यासों में ऐतिहासिक घटनाओं, तथ्यों और उनके निजी जीवनानुभवों का सुंदर सम्मिश्रण देखने को मिलता है. इस सामग्री का उपयोग प्राय: लेखक समाज की न्यूनताओं को उजागर करने के लिए करता है. अपने उपन्यासों में वे बार-बार एक दमनकारी व्यवस्था से अपनी स्वतंत्रता के लिए जूझते-टकराते व्यक्ति को सामने लाते हैं. उनके शुरुआती उपन्यास जहां पेरु में अवस्थित हैं वहीं बाद के कई उपन्यास लातीन अमरीका के अन्य क्षेत्रों जैसे ब्राज़ील और डॉमिनिकन रिपब्लिक तक भी पहुंचते हैं. उनका एक ताज़ा उपन्यास ‘द वे टू पैरेडाइस’ तो फ्रांस और ताहिती में अवस्थित है.

आलोचकों ने लोसा के उपन्यासों को मॉडर्निस्ट और पोस्ट मॉडर्निस्ट की श्रेणी में रखा है. यह कहा गया है कि उनके शुरुआती उपन्यासों की जटिलता और तकनीकी सघनता उन्हें मॉडर्निस्ट ठहराती है जबकि बाद के उपन्यासों का खिलंदड़ापन उन्हें उत्तर आधुनिक शैली के नज़दीक ले जाता है. लोसा पर उनके अनेक पूर्ववर्ती और समकालीन कथाकारों-रचनाकारों का प्रभाव भी लक्षित किया गया है. शुरू में तो वे अपने ही देश के कुछ कथाकारों से प्रभावित पाए जाते हैं लेकिन बाद में उन पर ज्यां पाल सार्त्र, गुस्ताव फ्लाबेयर, और विलियम फॉकनर का प्रभाव भी चीन्हा गया.

कथा लेखन के साथ-साथ लोसा ने पत्रकारी लेखन भी खूब किया. इसे उनकी राजनीतिक-सामाजिक सक्रियता के एक अंग के रूप में देखा जा सकता है. इसके अतिरिक्त उन्होंने 1975 में अपने ही उपन्यास के फिल्मी रूपांतरण के सह निर्देशक का दायित्व भी वहन किया. वे अंतर्राष्त्रीय लेखक संगठन पेन के प्रेसिडेण्ट भी निर्वाचित हुए.

अधिकांश लातीन अमरीकी बुद्धिजीवियों की तरह लोसा भी प्रारंभ में तो फिडेल कास्त्रो की क्यूबाई क्रांतिकारी सरकार के समर्थक थे. मार्क्सवाद क उन्होंने गहन अध्ययन किया था और क्यूबाई क्रांति की कामयाबी के बाद इसमें उनका विश्वास और सघन हुआ था. लेकिन बाद में उन्हें लगने लगा कि क्यूबाई समाजवाद और वैयक्तिक स्वाधीनता में टकराव है. जब 1971 में कास्त्रो की सरकार ने कवि हरबर्टो पाडिल्ला को कैद किया तो लोसा ने अपने कई मित्र बुद्धिजीवियों के साथ कास्त्रो को एक पत्र भी लिखा जिसमें क्यूबाई राजनीतिक व्यवस्था और कवि की गिरफ्तारी की निंदा की गई. उसके बाद से उनका झुकाव उदारवाद की तरफ होता गया. बाद में तो उन्हें प्रखर नव उदारवादी माना जाने लगा. लोसा ने 1990 में पेरु के राष्ट्रपति पद का चुनाव भी लड़ा.

1990 के बाद से लोसा आम तौर पर लंदन में रहते हैं, लेकिन हर साल वे कम से कम तीन महीने पेरु में भी बिताते हैं. 1993 में उन्होंने स्पेन की नागरिकता ले ली थी अत: वे प्राय: स्पेन भी जाते रहते हैं और वहां छुट्टियां बिताना उन्हें अच्छा भी लगता है. 1994 में उन्हें स्पैनिश रॉयल अकादमी का सदस्य चुना गया था अत: वे इसके माध्यम से वहां की राजनीति में भी सक्रिय हैं. उनके राजनीतिक विचार इतने महत्वपूर्ण हैं कि उन पर अनेक किताबों में चर्चा की गई है.

अज्ञेय ने अपने एक साक्षात्कार में महान कवि की जो कसौटियां निर्धारित की हैं वे हैं: 1. उसे बहुत लिखने वाला होना चाहिए, 2. उसमें निरंतर विकास दीखना चाहिए, और 3. अपने समय के समाज पर उसका काफी प्रभाव होना चाहिए. वर्गास के जीवन और रचनाकर्म के बारे में पढ़ते हुए मुझे अज्ञेय की ये तीनों कसौटियां याद आती रहीं और मुझे लगा कि अगर इन कसौटियों पर विश्वास करें तो बेशक वर्गास एक बड़े लेखक हैं. उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद स्वाभाविक ही है कि उनकी रचनाओं का और गहराई से अध्ययन-विश्लेषण होगा.
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Thursday, September 23, 2010

इधर की कविताओं को लेकर टिप्पणी जैसा कुछ !


इंटरनेट पर अपनी एक टिप्पणी में अमरीका में रह रहे मेरे मित्र श्री अनूप भार्गव ने  हिंदी  कवि सम्मेलनों की स्तरहीनता पर अपना क्षोभ व्यक्त किया है. उन्होंने महाकवि निराला के एक अति प्रसिद्ध कथन, गिर कर कोई चीज़ मत उठाओ, चाहे वह कविता ही क्यों न हो’ को भी स्मरण किया है.  उनकी बात का समर्थन जाने माने कोशकार श्री अरविंद कुमार जी ने भी किया है और इस बात की तरफ भी इशारा किया है कि कवि सम्मेलनों के स्तर में गिरावट की शुरुआत कब से हुई. 

इस बात से कोई असहमति हो ही नहीं सकती कि आज कवि सम्मेलन फूहड़ता के पर्याय बन चुके हैं. वहां फूहड़ हास्य होता है, चुटकुलेबाजी होती है, लटके-झटके होते हैं, गायकी होती है, अदायगी होती है, नाटक  होता है, एक दूसरे की टांग  खिंचाई होती है, नूरा कुश्ती होती है, अगर कोई महिला भी मंच पर हो (जो कि होती ही है) तो उसे लेकर अशालीन टिप्पणियां  होती हैं.  और भी बहुत कुछ होता है. नहीं होती है तो बस, कविता नहीं होती है. और जो लोग यह सब कुकर्म करते हैं, उन्हें इसके लिए काफी अच्छा पैसा मिलता है. ज़ाहिर है यह पैसा जनता  देती है. कभी-कभार सरकार भी देती है. खास तौर पर हिंदी सप्ताह या पखवाड़े  के दौरान. हमारे ये कवि सम्मेलनी परफॉर्मर गिर कर काफी कुछ उठाते हैं. पैसा भी, नाम भी, यश भी, और यदा-कदा सरकार भी इन्हें नवाज़ देती है–संस्थानों के शीर्ष पर आसीन करके, जैसे कि ऐसे ही एक मंचीय विदूषक को देश की राजधानी में नवाज़ा गया. अब ऐसा करते–करते अगर कविता गिरती भी है तो गिरे. तथाकथित कवि जी का स्तर तो उठ रहा है. 

अनूप जी और अरविंद जी की चिंता  बहुत वाज़िब है कि यह सब कविता के नाम पर हो रहा है. लेकिन मेरी चिंता यहीं खत्म नहीं हो रही है. बल्कि यहीं से आगे बढ़ रही है. आज कवि सम्मेलन में  कविता नहीं रह गई है, ठीक बात है. लेकिन, क्या हमारी पत्र पत्रिकाओं में  कविता के नाम पर जो छप रहा है, उसमें से अधिकांश  को  कविता कहा जाना ठीक होगा? मैं जानता हूं कि मेरा यह सवाल अति सामान्यीकरण का शिकार है.  वहां काफी कुछ अच्छा भी छप रहा है. लेकिन, जो भी अच्छा छप रहा है क्या वह भूसे के ढेर  में खोया-सा नहीं लगता आपको? और चलिये यह भी मान लेते हैं कि उत्कृष्ट  और सामान्य के बीच  असंतुलन तो रहेगा ही. फिर भी. 

आज हिंदी में सबसे ज्यादा कविताएं ही लिखी जाती हैं. लिखने की शुरुआत करने वाले कविता से ही श्रीगणेश करते हैं. कुछ दिलजलों का कहना है कि ऐसा इसलिए होता  है कि कविता लिखना अपेक्षाकृत आसान है. मुझे नहीं पता, क्योंकि मैंने तो कभी लिखी नहीं. लेकिन हां, इधर पत्र-पत्रिकाओं में छपी ज़्यादातर कविताओं को देखता हूं तो दिलजलों की इस बात से असहमत होने का भी मन नहीं करता. उदाहरण देने की कोई ज़रूरत नहीं है. आप किसी भी  पत्रिका के पन्ने पलट लीजिए. एक ढूंढो, हज़ार मिल जायेंगे. आज कविता की दुनिया में कुछ ऐसी अराजकता है कि आप चाहे जो लिख दीजिए, और कह दीजिए कि यह कविता है. किसी माई के लाल में यह दम नहीं है कि कहे, राजा नंगा है. पिछले दिनों, मैंने कुछ ऐसा ही करने का दुस्साहस किया. हिंदी के एक प्रतिष्ठित (कहूं कि एकमात्र) साहित्यिक रुझान वाले समाचार पत्र के रविवारीय परिशिष्ट में छपी एक जाने-माने और समादृत कवि की तथाकथित कविता को स्कैन किया (हां, उनका नाम मैंने हटा दिया) और उसे फेसबुक पर पोस्ट करके पूछा कि क्या इसे कविता कहा जा सकता है? मेरा आशय  कवि की अवमानना करना क़तई नहीं था. इसीलिए मैंने उनका नाम हटा दिया था. मुझे वह रचना सीधे-सीधे एक वृत्तांत लग रही थी, कविता कहीं से भी नहीं लग रही थी, जबकि वह एक बहुत प्रतिष्ठित कवि की कलम से उपजी थी और एक ऐसे अखबार में छपी थी जिसके संपादक के साहित्य विवेक पर कोई  संदेह  नहीं किया  जा सकता. फेसबुक पर जो टिप्पणियां आईं, उनमें से अधिकांश  में उस रचना के कविता  होने को नकारा गया था.  दो-एक टिप्पणियों में ज़रूर उसे महान बताया  गया.  यह तो एक उदाहरण है. और इस तरह की चीज़ें आये दिन छपती ही रहती हैं. 

आप किसी भी पत्रिका, साहित्यिक पत्रिका,  के पन्ने पलट लें. वहां  आप कविता  के नाम पर जो छपा देखते हैं, क्या वह वाकई कविता कहने योग्य होता है? क्या कविता करना इतना आसान होता है कि उठाई कलम और लिख दी! कोई तैयारी नहीं. कोई अभ्यास नहीं. कुछ भी नहीं. लेकिन एक छद्म, एक पाखण्ड  चल रहा है. मैं तेरी तारीफ करूं, तू मेरी तारीफ कर. कविताओं की किताब छप जाती है, उसका लोकार्पण हो जाता है, कसीदे पढ़ दिये जाते हैं, दो-चार समीक्षाएं छप जाती हैं जिनमें उस किताब को न भूतो न भविष्यति बताया गया होता है, और बस. इस सबके पीछे जो प्रहसन घटित होता है, क्या उसे बताने की ज़रूरत है? मैं कुछ पंक्तियां लिखता हूं, उन्हें इकट्ठा करके, अपने पैसों से एक किताब छपवाता हूं. फिर अपने किसी मित्र से कहता हूं कि वह अपनी संस्था के बैनर तले मेरी किताब का लोकार्पण  समारोह आयोजित कर दे. सारा खर्चा  मैं वहन करूंगा, यह कहना अनावश्यक है. फिर मैं ही अपने कुछ मित्रों  से कहता हूं कि उन्हें मेरी किताब पर पत्रवाचन करना है, या वक्तव्य देना है. या तो मैं ऐसा उनके लिए पहले कर चुका हूं, या भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर कर दूंगा. उन मित्रों के पास कविता को लेकर जितनी भी अच्छी बातें हैं वे उन्हें मेरी  तथाकथित कविता पर लाद देते हैं. अगर आप उन वक्तव्यों  को सुनें तो आपको लगेगा कि न कालिदास कुछ थे, न मुक्तिबोध, न निराला. सब दो कौड़ी के थे. असल कवि तो यही है. जैसे-तैसे इस गोष्ठी की रपट भी कहीं न कहीं छप ही जाती है. जैसे-तैसे इसलिए कि आजकल समाचार पत्रों में साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों के लिए जगह ज़रा कम ही होती है.  और इसके बाद, जैसे गोष्ठी में वक्तव्य दिलवाये गए थे, वैसे ही समीक्षा भी लिखवा ली जाती है. बेचारे संपादक को भी तो अपनी पत्रिका के समीक्षा खण्ड में दो-एक किताबों की समीक्षा छापनी होती है ना.  अगर आप ही उन्हें किताब और समीक्षा दोनों उपलब्ध करा दें तो फिर नेकी और पूछ-पूछ.  और समीक्षा जब फरमाइश पर ही लिखी जानी है तो फिर उसमें वचनों की दरिद्रता क्यों? जितनी तारीफ मुमकिन हो उतनी हो जाए. आप पढ लीजिए इधर छपने वाली ज्यादातर समीक्षाएं. उनमें समीक्षित कविता या  कविता संग्रह की वो-वो खूबियां आपको नज़र आएंगी कि आपको  लगेगा कि आप तो अब तक भाड़ ही झोंकते रहे थे. क्या खाक समझ है आपको कविता की! 

यह पाखण्ड यहीं खत्म नहीं होता. छोटे लोग पत्रिकाओं में कविता छपवा कर वाहवाही लूटते है, उनसे बड़े संकलन छपवा कर, और जो उनसे  भी बड़े हैं वे संपादक बन कर ऐसा करते हैं. अगर विश्वास न हो तो मैं बताता हूं.  कविता और तद्विषयक चिंतन की  एक पत्रिका  है. लघु पत्रिका. नाम लेना उचित नहीं होगा. संपादक बहुत वरिष्ठ और आदरणीय  कवि हैं. बल्कि थे. कोई ग़लतफहमी पैदा हो उससे पहले ही स्पष्ट  कर दूं कि  यह भूतकालिक प्रयोग उनके संपादक के लिए है, कवि के लिए नहीं. अब उन्होंने संपादन का यह दायित्व एक   अपेक्षाकृत युवा कवि आलोचक को सौंप दिया है. पहले भी, जब वे खुद संपादन करते थे, और अब भी, जब संपादन कोई अन्य कर रहा है, उस पत्रिका में छपने वाला हर समीक्षा लेख उन कवि जी की  प्रशस्ति के बिना पूरा नहीं होता.  जब भी किसी नए कवि की प्रशंसा की जाती है यह बताना ज़रूरी होता है कि वह उस परंपरा का कवि है जिस परंपरा के शीर्ष पर उस पत्रिका के संस्थापक कवि बिराजते हैं. लिहाज़ के लिए दो-तीन नाम साथ में और ले लिए जाते हैं.  ऐसा करने में (यानि आत्मप्रशंसा  में) जब खुद उन कवि जी को कोई संकोच नहीं होता था तो फिर जिन्हें उन्होंने संपादक बनाया है वे भला क्यों कोई संकोच बरतने लगे. आजकल उस पत्रिका में नए  कवियों के काव्यकर्म पर एक श्रंखला चल रही है. मज़ाल है कि कोई कवि उन वरिष्ठ कवि जी के आई एस आई ठप्पे के बिना निकल जाए. और यह सारा कारोबार एकतरफा हो, ऐसा भी नहीं है. आखिर बदला तो चुकाना ही होता है ना. तो वे संस्थापक  संपादक जी भी, जब भी मौका मिलता है, उन आलोचकों के नाम ले  लेते हैं जिन्होंने उनकी प्रशंसा  की है. न इन्हें और कवि नज़र आते हैं और न उन्हें और आलोचक. तुझे ठौर नहीं, मुझे और नहीं. एक बहुत मज़े की बात यह कि इस पत्रिका के वर्तमान संपादक जब इस पत्रिका से बाहर कुछ  लिखते हैं तो वे  महान कवियों की रेडीमेड सूची चस्पां करने वाली आचार संहिता से मुक्त होते हैं. मुझे न उन कवि जी की महानता में कोई संदेह है और न वर्तमान संपादक जी के संपादकीय विवेक में.  लेकिन मन में एक ही सवाल है. अगर वे कवि इतने ही  महान हैं तो सिर्फ अपनी ही पत्रिका में इतने महान क्यों हैं? और अगर उनकी पत्रिका के वर्तमान संपादक उन्हें इतना ही अपरिहार्य मानते हैं कि उनके नाम  के बिना कोई समीक्षा कर्म पूरा नहीं होता तो फिर ऐसा उस पत्रिका में छपने वाले लेखों में ही क्यों होता है? यह तो एक उदाहरण  है. ज़्यादातर पत्रिकाओं की हालत ऐसी ही है. हर पत्रिका में छपने की पहली और ज़रूरी शर्त उसके संपादक का यशोगान होता है. हर, यानि अधिकांश पत्रिकाओं में. तो कवि (और आलोचक भी) के रूप में प्रतिष्ठित होने का एक और तरीका यह है कि आप संपादक बन जाएं.

अब जब यह सब कारोबार चलता है तो फिर बेचारे पाठक की क्या गति होती है? लेखक तो इस तंत्र को समझ और तदनुसार समझौते कर अपना काम  चला लेता है. लेकिन पाठक? वह रचना पढ़ता है तो उसे दो कौड़ी की लगती है. समीक्षा पढ़ता है तो पाता है कि जो रचना उसने पढ़कर यों ही छोड़ दी थी वह तो ऐसी थी जैसी सदियों में कभी-कभार  ही लिखी  जाती है.  बेचारा  अपने अज्ञान पर दुखी होता  है.  हैरां हूं,  दिल को रोऊं, कि  पीटूं जिगर को मैं.  कभी-कभी उसे लगता है कि साहित्य कहां से कहां पहुंच गया है और मैं ही हूं कि पीछे छूट गया हूं. मेरी समझ में ही कोई कमी   जब राधेश्याम जी कह रहे हैं कि सीताराम जी की कविता महान है, तो फिर होगी ही. लेकिन जब उस बेचारे पाठक को यह पता चलता है कि राधेश्याम  जी तो हर उस कवि को महान घोषित करने के असाध्य रोग से ग्रस्त हैं जो उन्हें ऐसा करने का अवसर देता है, तो सोचिये कि उस बेचारे पाठक के दिल पर क्या बीतती होगी. क्या वह खुद को ठगा हुआ महसूस नहीं करता होगा? क्या यह अनुभूति उसे साहित्य से थोड़ा दूर नहीं कर देती होगी?

इतना सब लिखते हुए मेरे मन में यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि आखिर मैं कविता किसे मानता हूं? आसान नहीं है इस सवाल का जवाब. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का प्रसिद्ध निबंध ‘कविता क्या है’  खूब पढ़ा है.  लेकिन रस, छंद, लय, अलंकार, लक्षणा, व्यंजना ये सब बीते ज़माने की चीज़ें हैं.  साहित्य का विद्यार्थी हूं तो इतना तो जानता ही हूं. काफी कुछ बदल चुका है. यह भी जानता हूं कि केवल छंद  से ही कविता नहीं हो जाती. रस भी उतना ज़रूरी नहीं है. छंद की मुक्ति और सपाट बयानी के बारे में भी थोड़ा-बहुत जानता हूं. अर्थ की लय के बारे में भी पढ़-सुन रखा है. बिंब, प्रतीक के बारे में भी जाना-सुना है....  साहित्य की सभी विधाओं के स्वरूप में बहुत बदलाव आया है. कविता को लेकर जो प्रचलित धारणाएं और मान्यताएं थीं वे एकदम बदल चुकी हैं. फिर भी, शायद सीधे-सीधे कहीं उंगली रख कर भले ही न कहा जा सके कि कविता यहां है, महसूस तो हो ही जाता है कि कविता यहां है, या नहीं है.  अगर ऐसा न होता तो हम कवि सम्मेलनों के कविता न होने को लेकर भी दुखी नहीं होते. दुख केवल फूहड़ता को लेकर ही नहीं है. जब हम छंदोबद्ध कविता को कविता मानने से मना करते हैं तब भी हमारे मन में कोई अवधारणा  तो कविता की होती  ही है.

परिदृश्य बहुत साफ नहीं है. कहां ईमानदारी है और कहां बे ईमानी, कहना बहुत मुश्क़िल है. लेकिन बातें साफ तो होनी ही चाहिये. लिहाज़ में प्रशंसा बहुत हो गई. अब खरी बातें भी की जानी चाहिए. अगर कहीं  अधकचरापन है, कविता नहीं है, तो उसे भी इंगित किया जाना  चाहिए.  कविता लिखने वालों और उनके पेशेवर सराहना करने वालों का जो गिरोह बन गया है, कविता को उससे बाहर निकाला  जाना बेहद ज़रूरी है. पत्र पत्रिकाओं में कविता के नाम पर जो भी ऊल जुलूल छप रहा है उस पर कोई तो नियंत्रण  हो. अगर आपको लगे कि आपने कविता लिखने में नई ज़मीन तोड़ी है, तो बताइये ना पाठक को  उसके बारे में. पाठक अगर ना समझ  है तो उसकी समझ को विकसित कीजिए. पाठक से संवाद कायम कीजिए. एक जीवंत रिश्ता बनाइये. अपनी कहिये, तो उसकी भी सुनिये. अगर समय रहते ऐसा न किया गया तो आज जो बात कवि सम्मेलनी कविता के लिए कही जा रही है, कल वही बात पत्रिकाओं और किताबों में   छपने वाली कविताओं के बारे में भी कही जाने लगेगी.
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अक्सर त्रैमासिक के अंक-13  (जुलाई-सितंबर, 2010) में प्रकाशित आलेख! 



Monday, September 13, 2010

हिंदी दिवस: कुछ खरी-खरी बातें


Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा

हिंदी दिवस फिर आ गया है. हर साल आ जाता है. विभिन्न सरकारी संस्थानों के  हिंदी अधिकारियों के लिए अपनी दक्षता के दिखावे का  वार्षिक महोत्सव. (दिखावे शब्द का प्रयोग मैंने जान-बूझकर किया है. यह मानते हुए कि वे वर्ष भर काफी कुछ सार्थक भी करते रहते हैं, लेकिन हिंदी दिवस या हिंदी सप्ताह या हिंदी पखवाड़ा उनकी कारगुज़ारियों के प्रदर्शन का मौका होता है.)  हिंदी लेखकों-कवियों के लिए इस बात पर गर्व करने का एक अवसर कि वे एक महान भाषा के रचनाकार हैं, मंचीय किस्म के कवियों के लिए सूर कबीर मीरा तुलसी की भाषा को दुनिया की सबसे महान भाषा घोषित करने और कुछ भावुकता भरे जुमले उछलने के वार्षिक  कर्मकाण्ड का मौसम,  और  अपनी सामग्री में अंग्रेज़ी शब्दों की मात्रा लगातार बढ़ाते  जाने वाले हिंदी अखबारों के लिए यह प्रदर्शित करने का एक और मौका कि वे हिंदी से गहरा अनुराग रखते हैं. लेकिन इन सबसे हटकर उन लोगों के लिए, जिनकी रोजी-रोटी से तो सीधे  इस दिन का कोई सम्बन्ध नहीं है लेकिन जो दिन-रात इसी भाषा को बरतते  हैं, यह दिन भी साल के बाकी दूसरे 364 दिनों जैसा ही एक और दिन होता है.
      
आइये देखें, क्या है हक़ीक़त इस दिन की!

भारत की संविधान सभा ने 14 सितम्बर,  1949 को हिन्दी को राजभाषा बनाने का फैसला किया था, उसी को याद करते हुए हिन्दी दिवस मनाया जाता है. कहने को हिन्दी हमारे देश की राजभाषा है भी सही, लेकिन इससे अधिक मिथ्या कथन और कोई शायद हो नहीं सकता. हिन्दी कितनी राजभाषा है, बताने की ज़रूरत नहीं. फिर भी, इस दिन हिन्दी प्रेमी इकट्ठा होते हैं, हिन्दी की शान में कसीदे पढते हैं, हिन्दी के लिए जीने-मरने की कसमें खाते हैं, और शाम होते-होते ये पर उपदेश कुशल वीर फिर से अपनी उस दुनिया में लौट जाते हैं जहां हिन्दी या तो होती नहीं, या बहुत ही कम होती है. घर में अंग्रेज़ी के अखबार, अंग्रेज़ी की पत्र-पत्रिकाएं, बातचीत और अगर वह किसी ‘बडे’ आदमी से हो तो अनिवार्यत: अंग्रेज़ी में, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा अंग्रेज़ी में. यानि हिन्दी के प्रयोग का उपदेश दूसरों को. उपदेश देने वाला भी इस हक़ीक़त से वाक़िफ, लेने वाला भी. इतना ही नहीं, हिन्दी के प्रति दिखावटी अनुराग का यह भाव भी क्रमश: फीका पडता जा रहा है. आज़ादी के बाद के कुछ सालों में हिन्दी के प्रति जिस तरह का लगाव नज़र आता था और लोग जिस उत्साह और भावना से हिन्दी के लिए खून-पसीना बहाने की बातें किया करते थे, अब धीरे-धीरे उसका भी लोप होता जा रहा है. अब हिन्दी दिवस महज़ एक गैर-ज़रूरी रस्म अदायगी बन कर रह गया है. राजभाषा  विभाग या उसके अधिकारी  को एक दिन यह ढोल बजाना   है सो जैसे-तैसे बजा दिया जाता है.  स्कूल कॉलेजों में तो शायद अब इस दिन को मनाने की भी कोई खास ज़रूरत महसूस नहीं की जाती. बाज़ार की भी इस दिवस में कोई दिलचस्पी नहीं है. न इस दिन के लिए कोई ग्रीटिंग कार्ड, क्षमा कीजिए, शुभकामना पत्र बेचे जाते हैं, और न लोग ई मेल या एस एम एस से एक दूसरे को इस दिवस की बधाई देते हैं. अगर भूले से कोई बधाई-वधाई दे भी देता है तो उसमें व्यंग्य का भाव ही अधिक होता है.  

निश्चय ही यह स्थिति लाने में सबसे बडी भूमिका हिन्दी वालों की रही है. मुझे लगता है कि हिन्दी का सबसे बडा अहित उसके राजभाषा बन जाने से हुआ. इसे गलत न समझा जाए. राजभाषा किसी न किसी भाषा को बनना ही था. हिन्दी का राजभाषा बनना उचित था. लेकिन गलत यह हुआ कि इसे हिन्दी वालों ने दादागिरी के भाव से ग्रहण किया: सारे देश को अब हिन्दी में काम करना पडेगा. अगर हम लोगों  ने अन्य भाषाओं के प्रति अपनत्व रखा होता, अगर दूसरी भाषाओं को सीखने में ज़रा भी रुचि दिखाई होती तो हिन्दी के प्रति अन्य भाषा-भाषियों में वैसी अरुचि न होती जैसी गाहे-बगाहे प्रकट हो जाती है. आखिर कितने हिन्दी भाषी होंगे जो दक्षिण की भी, बल्कि किसी भी हिन्दीतर प्रदेश की कोई भाषा जानते हैं? प्रभाष जोशी ने ठीक ही कहा है अन्य भारतीय भाषाओं के लोगों को हिन्दी से तभी ऐतराज़ होता है जब हिन्दी भाषी, भाषा द्वारा सत्ता को संचालित करना चाहते हैं. यानि सत्ता पर सिर्फ हिन्दी का  एकाधिकार देखना अन्य भारतीय भाषी लोग पसन्द नहीं करते. और यहीं यह बात भी याद कर लूं कि पिछले दिनों इंटरनेट  पर इस बात को लेकर बहुत बहस हुई और उत्तेजना का माहौल रहा कि कानून  की निगाह में हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा है. उत्तेजित लोग यह मानने-समझने को  तैयार ही नहीं थे और हैं कि हमारे देश में राष्ट्रभाषा जैसी कोई वैधानिक व्यवस्था है ही नहीं. ठीक उसी तरह जिस तरह राष्ट्रपिता की कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं है, या राष्ट्रकवि की कोई आधिकारिक स्थिति नहीं है. वैसे भी ज़्यादातर लोग राष्ट्रभाषा और राष्ट्रभाषा के बीच के अंतर को या तो समझते नहीं या समझना नहीं चाहते. बहुत सारे लोग नासमझी में भी इनका प्रयोग पर्यायवाची के रूप में कर लेते हैं.

दूसरी बात, हिन्दी समर्थक ‘निज भाषा उन्नति’ की केवल बात ही करते हैं, उसे क्रिया रूप में परिणत करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते. आज हिन्दी में अधिकांश  किताबें  300 के संस्करण से आगे नहीं जा पाती, इससे अधिक क्रूर टिप्पणी हमारे भाषा प्रेम पर क्या होगी? बडे-से-बडे शहर में हिन्दी किताबों की दुकान का होना अपवाद ही होगा. यह कहना अर्ध सत्य है कि प्रकाशक या पुस्तक विक्रेता की रुचि किताब बेचने में नहीं है. आखिर वह तो बेचने को बैठा है, आप खरीदने को निकलिये तो सही. लेकिन दस हज़ार का मोबाइल, दो हज़ार का जूता और दो सौ का पिज़्ज़ा खरीदने वाले को दो सौ रुपये की किताब महंगी लगती है. न केवल अधिसंख्य हिन्दी प्रेमी खरीदते नहीं, पढते भी नहीं. वे अपनी कूपमण्डूकता में ही मगन रहते हैं. हिन्दी लेखकों  की स्थिति भी, जो अपने आप को हिन्दी का सबसे बडा पैरोकार मानते हैं, कोई बेहतर नहीं है. हिन्दी का बडा (बल्कि छोटा भी) लेखक किताब खरीदकर पढना अपमान की बात मानता है. अगर आप चाहते हैं कि वह आपकी किताब पढ़े  तो आप उसे भेंट कीजिए. फुरसत होगी तो पढ़ लेंगे. और फुरसत होगी, इसकी ज़्यादउम्मीद कीजिये मत. हिन्दी लेखक अपना लिखा ही नहीं पढता औरों पर क्या कृपा करेगा! कभी कोई इस बात की पड़ताल करे कि हिंदी के लेखक लोग कितनी और कौन-सी किताबें खरीदते हैं, और सामान्यत: वे किताबों पर प्रतिमाह कितना व्यय करते हैं, तो बहुत रोचक नतीज़े सामने आ सकते हैं.

भाषा के प्रति उसका रवैया भी कम अधिनायकवादी नहीं है. वह चाहता है कि सब उससे पूछ कर, जैसी वह कहे वैसी भाषा का प्रयोग करें. इसीलिए कभी वह अखबारों की भाषा पर कुढता है, कभी टी वी की भाषा पर नाक-भौं सिकोडता है. वह खुद चाहे अपने जीवन में चाहे जैसी मिश्रित भाषा बोलता हो, आपसे चाहता है कि आप अपनी भाषा निहायत शुद्ध, परिष्कृत, प्रांजल, संस्कृतनिष्ठ वगैरह रखें. उसके लिए भाषा पण्डित का चौका है जहां काफी कुछ वर्जित रहता है. मज़े की बात कि यही भाषाविद इस बात पर खूब गर्व करता है कि ऑक्सफॉर्ड डिक्शनरी में इस साल इतने हिन्दी शब्द शामिल हो गए. हां, उसकी भाषा के चौके में अगर एक भी शब्द अंग्रेज़ी का आ गया तो चौका अपवित्र! इस संकुचित-संकीर्ण भाव को रखते हुए बात की जाती है हिन्दी को विश्व भाषा बनाने की. घर में नहीं दाने, अम्मां चली भुनाने!

हम हिन्दी अपनाने की बात तो बहुत करते हैं पर हिन्दी कैसी हो, इस पर कोविमर्श नहीं करते. यह समझा जाना चाहिए कि जब हमारे दैनिक जीवन की भाषा बदली है, यह बदलाव सब जगह दिखाई देगा. जिस भाषा में साहित्य रचा जाता है, वह भाषा आम आदमी की नहीं हो सकती. किसी भी काल में नहीं रही, हालांकि भवानी प्रसाद मिश्र ने कहा था, ‘जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख’. वैसे, नई तकनीक के आने से साहित्य की दुनिया में भी आम आदमी और उसकी भाषा की आमद-रफ्त बढी है, इसे भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए. कम्प्यूटर और इण्टरनेट के लगातार सुलभ और लोकप्रिय होने से आज हममें से बहुत सारे लोग अपने लिखे के खुद ही प्रकाशक भी हो गए हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण है. अब साहित्य कुछ खास लोगों तक सीमित नहीं रह गया है. आज हिन्दी में ही लगभग 3000  ब्लॉग चल रहे हैं. इनमें से अधिकतर की भाषा उस भाषा से बहुत अलग है जिसे आदर्श भाषा के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है. यहां दूसरी भाषाओं से शब्दों की खुली आवाजाही है और व्याकरण के नियमों में भारी शिथिलता है. सारा बल अपनी बात को सीधे-सादे तरीके से कहकर सामने वाले तक पहुंचाने पर, यानि अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण   पर है. दलित साहित्य ने भी भाषा को एक हद तक आज़ाद किया है. इस बात का स्वागत किया जाना चाहिए.

इधर तकनीक ने भाषा के प्रचार-प्रसार में बहुत बडी भूमिका अदा की है. कम्प्यूटर पर  सारा काम हिन्दी में करना सम्भव हुआ है और बहुत सारे हिन्दी प्रेमियों ने हिन्दी को तकनीक के लिए स्वीकार्य बनाने में वह काम किया है जो सरकारों को करना चाहिये था. बालेन्दु दाधीच और रविशंकर श्रीवास्तव उर्फ रवि रतलामी ऐसे लोगों में अग्रगण्य हैं.  लेकिन आम हिन्दी लेखक ने तकनीक से एक दूरी ही बना रखी है. नई तकनीक के विरोध में उनके पास अनगिनत तर्क हैं.  ‘मैं कम्प्यूटर नहीं जानता’ इस बात को संकोच से नहीं, गर्व से कहने वाले ‘एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं.’ इस परहेज़ से न उनका भला है न हिन्दी का. सुखद आश्चर्य तो यह कि ऐसे लोगों के बावज़ूद तकनीक की दुनिया में हिन्दी फल-फूल रही है. जैसा मैंने अभी  कहा, कम्प्यूटर पर सारा काम हिंदी  में संभव हो गया है और फेसबुक या ऑर्कुट जैसे मेल-जोल  के ठिकानों पर लोग हिंदी में खूब और धड़ल्ले से संवाद करते हैं.   दर असल पारम्परिक साहित्यकारों से अलग एक नई पीढी इण्टरनेट के माध्यम से साहित्य द्वार पर ज़ोरदार दस्तक दे रही है. इनके भाषा संस्कार भिन्न हैं और अलग है साहित्य को लेकर इनका नज़रिया. नेट पत्रिकाओं और ब्लॉग्ज़ में इनके तेवर अलग से देखे-जाने जा सकते हैं. कोई आश्चर्य नहीं होगा कि अगले कुछ सालों में ये ही साहित्य की मुख्यधारा का रूप ले लें. आखिर कहां हिन्दी की एक किताब का 300  का संस्करण और कहां नेट की असीमित दुनिया! नेट पर हिंदी प्रेमियों की बढ़ती  जा रही सक्रियता का एक प्रमाण  पिछले दिनों देखने को मिला. नया ज्ञानोदय में छपे विभूतिनारायण राय के साक्षात्कार में प्रयुक्त छिनाल शब्द को लेकर जो भारी शोर-शराबा और विरोध हुआ उसका बहुलांश इंटरनेट पर ही था. मेरे देखे यह हिंदी का पहला बड़ा आंदोलन था जो लगभग पूरी तरह नेट पर चला था.  अपने आप में भले ही यह कोई खुशी की बात न हो कि नेट पर एक आंदोलन चला, इस बात पर तो खुश हुआ ही जाना चाहिए कि हिंदी समाज नेट पर सक्रिय होता जा रहा है.  

हिन्दी फल-फूल बाज़ार में भी रही है. यह वैश्वीकरण का युग है. सबको अपना-अपना माल बेचने की पडी है. शहरों में बेच चुके तो अब कस्बों का रुख किया जा रहा है. और कस्बों की जनता को, बल्कि कहें उपभोक्ता को, तो हिन्दी में ही सम्बोधित किया जा सकता है, सो बाज़ार दौड कर हिन्दी को गले लगा रहा है. यह बात अगर गर्व करने की नहीं है तो स्यापा करने की भी नहीं है. आखिर हिन्दी का प्रसार तो हो ही रहा है. वैसे वैश्वीकरण की भाषा, एक बडे भू भाग में अंग्रेज़ी है, लेकिन भारत में उसने बाज़ार के दबाव में आकर हिन्दी के आगे घुटने टिकाये  हैं. इसी प्रक्रिया में हिन्दी और अंग्रेज़ी के रिश्ते भी पहले की तुलना में अधिक सद्भावपूर्ण बने हैं. ज़रूरत इस बात की है कि आज इन नए बने रिश्तों को समझा जाए और पुरानी शत्रुताओं को भुलाया जाए. आज जो अंग्रेज़ी हमारे चारों तरफ है उसे ब्रिटिश साम्राज्य से जोड कर देखना उचित नहीं. हमें इस नई अंग्रेज़ी के साथ रहना है, इसे स्वीकार कर अपनी भाषा के विकास की रणनीति तैयार की जानी  चाहिए.

आज भाषा और हिन्दी भाषा के प्रश्न पर न तो भावुकता के साथ सही विचार हो सकता है और न अपने अतीत के प्रति अन्ध भक्ति भाव रखते हुए. ऐसा हमने बहुत कर लिया. अब तो ज़रूरत इस बात की है कि बदलते समय की आहटों को सुना जाए और भाषा को तदनुरूप विकसित होने दिया जाए. इसी में हिन्दी का भला है, और हमारा भी.
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Monday, August 23, 2010

सी पी जोशी: साथ काम करने के दिनों की कुछ यादें

अब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो सोचता हूं कि उस प्रख्यात अंग्रेज़ी कहावत के राजेन्द्र यादवीय अनुवाद को साकार करने की क्या सूझी थी मुझे? अग्रेज़ी कहावत है fools rush in where angels fear to tread in. राजेंद्र जी ने इसका जो अनुवाद किया, वह शालीन भले ही न हो, उससे सटीक अनुवाद और कोई हो नहीं सकता. उनका किया अनुवाद था, “चू** धंस पड़ते हैं वहां, फरिश्तों की फ*ती है जहां.” कोई 33 साल सरकारी कॉलेजों में नौकरी कर लेने के बाद, और अगर इसे अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना न माना जाए, तो एक उम्दा शिक्षक की प्रतिष्ठा अर्जित कर लेने के बाद, एक छोटे-से कस्बे में सुख-चैन की ज़िन्दगी जीते हुए मुझ नासमझ को क्या सूझी कि तबादले पर जयपुर आने को तैयार हो गया. बात केवल इतनी ही नहीं थी कि करीब-करीब पूरी नौकरी छोटे-छोटे कस्बों में करने के बाद राज्य की राजधानी में एडजस्ट कर पाऊंगा या नहीं. बात इससे कहीं ज्यादा बड़ी थी. हम शिक्षकों का, खास तौर पर कॉलेज शिक्षकों का, ईगो कुछ ज़्यादा ही बड़ा होता है. अपने काम से काम रखते हैं हम लोग, और वो जिसे दुनियादारी कहा जाता है, उस मामले में हम लोग ज़रा कमज़ोर होते हैं. लेकिन यहां जयपुर में मुझे शिक्षक के रूप में नहीं आना था. एक शिक्षक के रूप में आप स्वायत्त होते हैं. फिर प्रिंसिपल हुआ तो यह स्वायत्तता और बढ़ गई. लेकिन यहां जयपुर आकर तो मुझे कई सासों की बहू बन जाना था. यहां की कार्यशैली भी एकदम अलग होती है. इसका मुझे क़तई अभ्यास नहीं था. वहीं फाइल पर नोटिंग वगैरह. यथाप्रस्तावित!

जब तक कॉलेज शिक्षक रहा, अफसरों नेताओं वगैरह से एक सम्मानजनक दूरी बनी रही. मुझे लगता रहा कि उनकी दुनिया अलग है, मेरी अलग. इन लोगों से समानता के स्तर पर मिला नहीं जा सकता, और दास्य भाव मेरे स्वभाव में नहीं है. तो, निहायत ही औपचारिक संबंध रहे. न कभी कोई कटुता हुई और न कभी निकटता. बल्कि, यह और हुआ कि जिन लोगों से पहले आत्मीयता रही, जब वे विधायक मंत्री वगैरह बने तो मेरा उनसे मिलना जुलना ही खत्म हो गया. हमसे आया न गया, तुमसे बुलाया न गया वाली बात.

तो, अपने ऐसे स्वभाव की गठरी लिए जब जयपुर आया तो खुद ही कम आशंकित नहीं था. पद के दायित्व ऐसे कि अफसरों और मंत्री गण से लगातार संपर्क आवश्यक. संयुक्त निदेशक, कॉलेज शिक्षा का पद विभाग और सचिवालय के बीच की ज़रूरी कड़ी होता है. दिन में दसियों बार इनसे संपर्क की ज़रूरत होती है. मन में बहुत सारी आशंकाएं लिए आ तो गया ही था. उन दिनों मेरे विभाग के मंत्री थे डॉ सी पी जोशी. मुझे पता था कि वे भी मेवाड़ी हैं और उसी विश्वविद्यालय से निकले हैं जहां से मैंने अपनी शिक्षा ग्रहण की थी. अलबता वे मुझसे कई वर्ष बाद के अधिस्नातक थे. लेकिन इससे क्या फर्क़ पड़ता है. मन में कहीं यह तो लगता ही था कि कोई सूत्र है जो हमें जोड़ता है. सीपी जी को खासा कड़क मंत्री माना जाता था. सुना था कि खुर्राट अफसर भी उनके पास जाते हुए घबराते हैं.

अब यह तो याद नहीं कर पा रहा हूं कि अपने मंत्री जी से मेरा पहली बार सामना कब हुआ और उस मुलाक़ात में क्या हुआ, लेकिन यह अच्छी तरह याद है कि उनसे मिलकर भय मुझे ज़रा भी नहीं लगा. कुछ बाद में मैंने मन ही मन जब उनका मूल्यांकन किया तो पाया कि यह आदमी काम को समझता है, इसे बेवक़ूफ नहीं बनाया जा सकता, और इस आदमी को साफ सुथरी, नपी तुली बात पसंद है. शायद दो-तीन मुलाक़ातों के ही बाद मेरे लिए यह व्यवस्था हो गई थी कि जब भी मैं उनके दफ्तर जाऊं बिना अनावश्यक प्रतीक्षा के सीधे उनके कक्ष में जा सकता हूं. यहीं यह उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा, कि उसी काल में अपने विभाग के एक उच्चाधिकारी के यहां मेरा अनुभव इसके ठीक विपरीत रहा. उन्हें इस बात में खुशी महसूस होती कि उनके अधिकारी गण उनकी प्रतीक्षा में दो-चार घण्टे बर्बाद करें. उनके बुलावे पर सरकारी काम से आप उनके पास जाएं, और वे अपना दरबार लगाए रहें, ठकुरसुहाती का सुख लेते रहें और आप भकुए की तरह हाथ बांधे खड़े रहें क्योंकि आपको बैठने को कहना उनकी शान के खिलाफ हुआ करता था (यह बात अलग है कि मैं उन विरल लोगों में से एक था जो जाते ही उनके सामने खाली पड़ी किसी कुर्सी पर जम जाया करता था, यह जानते हुए भी कि ऐसा करना ब्यूरोक्रेटिक शिष्टाचार के खिलाफ है. खैर! वह प्रसंग फिर कभी). सीपी जी के चैंबर में जाने के बाद शायद ही कभी अनावश्यक प्रतीक्षा करनी पड़ी हो. नाम से संबोधित करते वे, और तुरत फुरत निर्णय कर या निर्देश देकर मुझे रुखसत कर देते. न कभी वे अनावश्यक आत्मीय हुए और न कभी किंचित भी कटु. एक सम्मानजनक दूरी सदैव बनाये रखी.

आज स्थानांतरणों वगैरह में मंत्रियों की भूमिका को लेकर काफी कुछ कहा जाता है (और कहा ही क्यों जाता है, सीपी जी के उत्तराधिकारी के साथ काम करते हुए मैंने खुद ही अनुभव भी कर लिया था) लेकिन सीपी जी के साथ मेरा अनुभव विलक्षण रहा. कुछ समय मेरे पास प्रिंसिपलों के स्थानांतरण पोस्टिंग वगैरह का भी दायित्व था. सीपी जी हमेशा यह चाहते कि मैं उनके स्थानांतरण के प्रस्ताव बनाकर उनके पास ले जाऊं. शुरू-शुरू में एक-दो बार मैंने उनसे पूछा भी कि अगर उनकी कोई खास आकांक्षा हो तो मुझे बता दें ताकि प्रस्ताव तैयार करते वक़्त ही उसका निर्वाह कर लिया जाए, लेकिन उन्होंने हमेशा यही कहा कि मुझे प्रशासनिक दृष्टि से जो उपयुक्त लगे वही करूं. जब मैं प्रस्ताव बनाकर उनके पास ले जाता तो वे उन प्रस्तावों में से रैंडम तौर पर दो-एक के बारे में पूछते कि मैं इस प्रिंसिपल को यहां क्यों भेजना चाह रहा हूं, और जब मैं उन्हें उस प्रस्ताव का कारण बताता तो वे तुरंत स्वीकार कर लेते. उन्होंने कभी तबादलों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया. न केवल इतना, बल्कि अगर सीधे मेरे पास कोई आग्रह या आदेश आता भी तो मैं उन्हें बताता और वे सारी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेकर मुझे मुक्त कर देते. यह मामूली बात नहीं है.

सीपी जी के साथ काम करने के छोटे बड़े अनेक संस्मरण मेरी स्मृति में हैं. एक बार एक निकटवर्ती राज्य के शिक्षा मंत्री जी जयपुर के दौरे पर आए. उनके साथ मेरी प्रोटोकॉल ड्यूटी थी. मंत्री जी बेहद सज्जन. उन्होंने चाहा कि मैं राज्य के शिक्षा मंत्री जी यानि सीपी जी से उनकी मुलाक़ात तै कर दूं. मैंने फोन करके समय निर्धारित कर दिया और अतिथि मंत्री जी को लेकर सीपी जी के बंगले पर पहुंच गया. यह सोचकर कि दो राजनीतिज्ञों की गुफ्तगू के वक़्त मेरा उपस्थित रहना उचित नहीं होगा, मैं बाहर ही बैठ गया. सीपी जी ने तुरंत किसी को भेज कर मुझे भीतर बुलाया और अपनी सहज मेवाड़ी में मुझे मीठा उलाहना दिया कि मैं अंदर क्यों नहीं आ गया. घर पर उनका बर्ताव दफ्तर से अलग हुआ करता था. नाथद्वारा का प्रसाद उन्होंने बहुत आत्मीयता से हमें खिलाया.

आज मुझे सबसे ज़्यादा यह आता है सीपी जी का संसदीय कौशल. विधान सभा में प्रतिपक्ष को कैसे फेस किया जाए, और अपनी बौद्धिकता का इस्तेमाल कर कैसे सामने वाले को हक्का-बक्का करके साफ बचके निकल जाया जाए, यह कोई सीपी जी से सीखे. विधानसभा में उनका कौशल देखते ही बनता था. आज जब विधान सभाओं में हल्ला-ब्रिगेड को देखता हूं तो मुझे सीपी जी की प्रखर बौद्धिक शैली की बहुत याद आती है.

मंत्री मण्डल में हुए फेर बदल के बाद जब सीपी जी मेरे विभाग के मंत्री नहीं रहे, तो मुझे यह बेहद ज़रूरी लगा कि मैं उनकी सदाशयता, सज्जनता और तमाम अच्छी बातों के लिए उनके पास जाकर अपनी कृतज्ञता व्यक्त करूं. मैं उनके दफ्तर गया और अपनी कृतज्ञता गिने-चुने शब्दों में व्यक्त की. उस दिन मुझे सीपी जी एक नया ही रूप देखने को मिला. मेवाड़ी में मुझसे बोले, “यार आप तो मनैं कदी क्यो ई नीं के आप कॉलेज में म्हारा सीनियर हा! (यार! आपने तो मुझे कभी कहा ही नहीं कि आप कॉलेज में मेरे सीनियर थे!)” अब भला मैं क्या बोलता?

तब से अब तक सीपी जी के कद में खूब इज़ाफा हुआ है. अब वे प्रादेशिक नेता न रहकर राष्ट्रीय स्तर के नेता हो गए हैं. ऊपर उल्लिखित कृतज्ञता ज्ञापन वाली भेंट के बाद प्रत्यक्ष उनसे कभी मुलाक़ात नहीं हुई. सयानों ने मुझे सुझाव भी दिया कि मुझे ‘बड़े’ लोगों से मेल जोल बनाये रखना चाहिए. उनका कहना भी सही है, लेकिन क्या करूं. अपने कैफियत तो वो राजकपूर वाली है कि सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी. सीपी जी से प्रत्यक्ष मुलाक़ात नहीं हुई, लेकिन मीडिया की बदौलत उनसे मिलना होता ही रहता है. जब भी उनकी किसी उपलब्धि के बारे में जानने को मिलता है, मैं भी यह याद करके खुश हो लेता हूं कि कभी इनके साथ मुझे भी काम करने का सौभाग्य मिला था. यही कामना है कि सीपी जी स्वस्थ रहें और दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करें.
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केंद्रीय पंचायती राज मंत्री डॉ सीपी जोशी की षष्ठि पूर्ति के अवसर पर उदयपुर से प्रकाशित स्मारिका में प्रकाशित आलेख.



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Sunday, August 22, 2010

दो कविताएं : नारायण सुर्वे


मेरी मां

हर सुबह
जब तारे हो जाते अस्त
ऊंची-ऊंची चिमनियों के सायरनों से निकलती आवाज़ के बीच
मिल की तरफ़ जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते
कौन पीछे मुड़कर हमें देखती
और कहती इतने प्यार से
“लड़ना मत किसी से”
और थमा देती दो पैसे

दशहरे के एक दिन पहले
वो गई थी हम पांचों के साथ
मेले में
हम गलियों में कर रहे थे मस्ती
कितना मज़ा आया क्या कहें
लौटे तो हमारे हाथों में थे गुब्बारे
सीटियां और पीपनियां
हम बन गए थे परिंदे

एक दिन हुआ ऐसा
वे उसे गाड़ी में डालकर लाए
उसकी आंखें खुली थीं
और मुंह से बह रहा था खून
उसके साथी ने प्रणाम किया नज़दीक आया,
हमें बाहों में भरा और कहा ‘बालू’
हमने देखा सब कुछ चुपचाप
और ढूंढा अपनी छतरी को
अपनी छत को, और अपनी मां को.

उस रात हम पांचों
अपनी गुदड़ी में
चिपटे एक दूसरे से और भी ज़्यादा
जैसे गुदड़ी ही हो मां का दुलार
वैसे तो पहले से कुछ नहीं था हमारे पास
अब तो रही नहीं मां भी
हम जागते रहे सारी रात बहते रहे आंसू
अब हम हो गए थे पूरी तरह निस्संग.

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यह उस दिन की कहानी है जिस दिन नेहरु नहीं रहे

जो घर देते थे उनकी पीठों को गर्माहट, अचानक चरमराने लगे
शहर अचानक कैसे हो गया इतना क्रूर!
और फिर अंधेरे ने निगल लिया मणि को.

पत्थरों के परिधानों वाली फैक्ट्रियां
डूब गई गहन विचारों में, जलाए हुए अपने सिगार
और फिर वे लौटे
अपने-अपने दड़बों में
डाले हुए अपने-अपने कंधों पर अपनी गीली कमीज़ें.

“क्या हुआ सुंदरी?” पूछा एक वेश्या ने
”आज मत जलाना अगरबत्ती. नेहरु जी चले गए!”
दिया जवाब दूसरी ने.
“सच्ची? ठीक. चलो फिर आज रात हमारी भी छुट्टी!!”

भारी बोझ उठाने वाली दुनिया कर रही है आराम, मौन.

एक हाथ में कागज़ की लालटेन थामे दूसरे से हाथगाड़ी धकेलते
आदमी को रोककर मैं पूछता हूं, ”अब यह रोशनी क्यों, साथी?”
“किसलिए!”
आगे है घोर अंधेरा” उसने कहा.


यह उस दिन की कहानी है जिस दिन नेहरु नहीं रहे
यह उस दिन की कहानी है जिस दिन नेहरु नहीं रहे.
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अनुवाद: डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल


जयपुर से प्रकाशित डेली न्यूज़ के रविवारीय परिशिष्ट हम लोग में 22 अगस्त , 2010 को प्रकाशित.


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Wednesday, August 18, 2010

पूरे देश का गीत

कभी-कभी एक अकेला गीत ही सिर्फ साढ़े सात मिनिट में पूरे देश को अपने आगोश में समेट लेता है. 15 अगस्त, 1988 की सुबह भारत के टीवी दर्शकों ने देखा एक केशरिया सूरज, समुद्र और उसकी उत्ताल तरंगों की छवियों में से उभरते अधमुंदी आंखों वाले भीमसेन जोशी को, जो अधमुंदी आंखों के साथ गा रहे थे, मिले...सुर मेरा तुम्हारा. राग थी शाही भैरवी – बहुतों को इस राग का नाम ज्ञात नहीं था लेकिन जैसे-जैसे पंडित जी की आवाज़ टीवी सेट्स से बाहर निकल रही थी -और करीब एक मिनिट तक वे एक अकेले तबले की ताल के साथ गा रहे थे- इसकी जादुई स्वर लहरी लोगों को मंत्र मुग्ध करती जा रही थी. धीरे-धीरे संगीत ने गति पकड़ी और दृश्य डल झील में तब्दील हुआ, और फिर पंजाब के खेतों में चलता हुआ ट्रैक्टर, आकाश से ली हुई ताजमहल की एक छवि, उसके पार्श्व में बहती हुई यमुना की जलधारा... यह था देशभक्ति के मुलायम रंगों में रंगा हुआ भारत. और कई अनेक लोगों के साथ-साथ हेमा मालिनी और एक अनाम महावत, अमिताभ बच्चन और एम बाला मुरली कृष्णन, शर्मिला टैगोर और तमस की पूरी कास्ट, जिन्होंने पंजाबी और उड़िया में, कन्नड़ और मराठी में, तमिळ और मलयालम में, असमी और तेलुगु में गाया. बहुत जल्दी ही कश्मीरी लोगों ने तमिळ पंक्ति एंते स्वरवुम निंगलुडे स्वरवुम को गुनगुनाना सीख लिया और मराठी बोलने वालों ने बांगला पंक्ति तोमार शोनार मोदेर शुर गाना सीख लिया. और मिले सुर बहुत ही उम्दा तरह से गाया जा सकने वाला टी वी गान बन गया और बन गया राष्ट्रीयता की एक झांकी.

उस स्वाधीनता दिवस पर बहुत घबराया हुआ एक आदमी -विज्ञापन पुरुष सुरेश मलिक- अपने चौकोर बीपीएल टी वी के सामने इंतज़ार कर रहा था कि कब प्रधान मंत्री राजीव गांधी का भाषण खत्म हो और कब मिले सुर मेरा का पहला प्रसारण शुरू हो. “यह वीडियो उन्हीं के दिमाग की उपज था.” कैलाश सुरेंद्रनाथ, जो उस कार्यक्रम के सहायक निदेशक थे, याद करते हैं. “हमने सोचा भी नहीं था कि यह एक कल्ट एंथम बन जायेगा.”

स्वर्गीय मलिक (मार्च, 2003 में उनका निधन हो गया था) ओगिल्वी एण्ड मेथर के नेशनल डाइरेक्टर थे. इससे पहले, 1988 में उन्होंने ही आज़ादी की मशाल वीडियो की भी परिकल्पना की थी जिसमें खेल की दुनिया के सितारों को लिया गया था. “राजीव जी, जिन्होंने यह आज़ादी की मशाल वीडियो देखा था, ने ही हमें मिले सुर वीडियो का विचार दिया था”, सुरेंद्रनाथ बताते हैं. उनका विचार यह था कि एक ही अंश में हिंदुस्तानी, कर्नाटक, पॉप्युलर, लोक और कंटेमपररी संगीत लीजिये, देश के कई प्रदेशों को लीजिए और उसे चाक्षुष और सांगीतिक दृष्टि से आकर्षक बना दीजिए.

सुरेंद्रनाथ बताते हैं, “हमने कलाकारों को लिखा कि वे इस कार्यक्रम का हिस्सा बनें और वे तुरंत तैयार हो गए.” मलिक साहब ने जैज़ संगीतकार लुइ बैंक्स, कम्पोज़र पी. वैद्यनाथन और सिनेमेटोग्राफर आर के राव को शामिल कर लिया. अब समस्या थी गीत के बोलों की. मलिक साहब को मंजे हुए गीतकारों, और यहां तक कि उनकी कंपनी के वरिष्ठ कॉपी राइटर्स का कोई भी गीत पसंद नहीं आया. इसके बाद उन्होंने अपनी टीम के एक युवा सदस्य को कोशिश कर देखने को कहा. और उसकी कोशिश कामयाब रही - अठारहवें प्रयास में. यह सदस्य था पीयूष पांडे. “मलिक साहब मेरे बॉस थे और उन्होंने मुझे कहा था कि मैं झण्डा, देश जैसे अगणित बार प्रयुक्त कर लिए गए शब्द इस्तेमाल न करूं. वे चाहते थे कि मैं लोगों को जोड़ने के लिए सरल शब्दों का इस्तेमाल करूं,” पाण्डे बताते हैं जो अब ओगिल्वी एण्ड मेथर के सी ई ओ हैं.

मलिक साहब के इस देशभक्ति पूर्ण प्रोजेक्ट का दूसरा ज़रूरी तत्व था राग भैरवी. यह एक संपूर्ण राग है जिसमें 12 स्वर (आधारभूत सात स्वरों में से कुछ के तीव्र और मध्यम स्वरूपों सहित) होते हैं, और जो हिंदुस्तानी और कर्नाटक दोनों शैलियों में प्रयुक्त होता है. लेकिन, पूरे देश को सम्मोहित कर लेने वाले इस गीत की धुन के कम्पोज़र के बारे में बहुत कम जानकारी है. “अधिकांश लोग इस गीत की धुन का श्रेय बैंक्स और वैद्यनाथन को देते हैं, लेकिन उनका काम तो काफी बाद में शुरू हुआ,” पांडे बताते हैं. इसके कम्पोज़र थे पण्डित भीमसेन जोशी. “हमने उन्हें इस गीत की शुरुआती छह पंक्तियां दीं और कहा कि हमारी इच्छा है कि यह राग भैरवी में हो. एक दिन पंडितजी स्टूडियो में आए और उन्होंने आधे घण्टे तक इस गीत को गाया. हमें तुरंत वह पसंद आ गया”, सुरेंद्रनाथ बताते हैं. वैद्यनाथन और बैंक्स ने विभिन्न भाषाओं के लिए संगीत अरेंज किया, अलग-अलग राज्यों के संगीतकारों की मदद से एक से दूसरी भाषा में अंतरण की व्यवस्था की और राष्ट्र गान को समाहित करते हुए इसके अंतिम उत्कर्ष का सृजन किया.

“हमारा राष्ट्रगान के अंतिम अंश को समाहित करना दूरदर्शन को पसंद नहीं आया. उन्हें लगा कि अपूर्ण राष्ट्रगान को प्रयुक्त करना उपयुक्त नहीं होगा. लेकिन राजीव जी ने इसे देखा और बेहद पसंद किया. उन्हें इसमें किसी भी बदलाव की ज़रूरत महसूस नहीं हुई,” बैंक्स कहते हैं.

सिनेमेटोग्राफर राव ने इस फिल्म को शूट करने के लिए पूरे देश की यात्रा की. “वीडियो की सादगी, सामान्य लोगों की मौज़ूदगी और ज़बान पर चढ़ जाने वाली धुन ने हमारे लिए जादू का काम किया,” वे कहते हैं. “इसमें कोई ज़ोरदार कैमरा मूमेंट्स नहीं थे. ज़्यादातर तो एक बार में ही ले लिए गए शॉट्स थे और उन सभी को मैंने ही लिया था. इससे फिल्म में एकरूपता बनी रह सकी.” कुल 20 लोकेशनों पर इसे महज़ 31 दिनों में शूट कर लिया गया था.”

ऐसा नहीं है कि शूटिंग में कोई दिक्कतें नहीं आईं. लता मंगेशकर उन दिनों रूस में एक कंसर्ट कर रही थीं अत: अंतिम अंश कविता कृष्णमूर्ति ने गाया. कृष्णमूर्ति को सुनते हुए लता जी को उस हिस्से को डब करना था लेकिन उन्हें यह बात पसंद नहीं आई.” वे खुश तो नहीं थीं, लेकिन अंतत: उन्होंने यह भी किया,” हंसते हुए राव बताते हैं.

जनवरी 2010 में इसी टीम ने, अलबता इस बार मलिक और वैद्यनाथन इसमें नहीं थे, फिर मिले सुर की रचना की. लेकिन यह पुनर्सृजन दुखद था. फिर मिले सुर पर बॉलीवुड और उसके नखरे हावी थे. यह मूल की मासूमियत समाहित कर पाने में नाकामयाब था,” राव कहते हैं.

वैसे उस मासूमियत का ताल्लुक 1988 से भी था, जब रंगीन दूरदर्शन महज़ छह बरस पुराना था और अपने रंगों से हमें सम्मोहित करने की काबिलियत रखता था. तब कमल हासन और कलकत्ता मेट्रो शायद पहली बार एक साथ हमारे टेलीविज़न सेट्स पर आए थे, और यह वह वक़्त था जब राष्ट्रवाद को कुल जमा इतने नखरे की ज़रूरत थी कि एक अदद लता मंगेशकर गाना गाए और उनके दांये कंधे पर केसरिया, श्वेत और हरा वस्त्र हो!
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15 अगस्त 2010 के इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित सुआंशु खुराना के लेख द वन ट्यून का डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल द्वारा मुक्त अनुवाद.






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Friday, July 2, 2010

हम कितने सभ्य है?

पिछले दिनों पत्नी ने अपने घुटने बदलवाने का ऑपरेशन करवाया तो उनकी देखभाल करते हुए मुझे भारतीय मानसिकता के कुछ खास पहलुओं से रू-बरू होने का अवसर मिला.

पत्नी ऑपरेशन के लिए जिस अस्पताल में भर्ती हुई थीं वहां रोगियों से मिलने वालों की आवाजाही पर कड़ा प्रतिबंध था. प्रत्येक भर्ती रोगी के साथ एक परिचारक सदैव रह सकता था और सुबह दस से ग्यारह बजे तथा शाम पांच से सात बजे के बीच दो मुलाक़ाती उससे मिल सकते थे. कहना अनावश्यक है कि यह व्यवस्था रोगी के हित में की गई थी. रोगी आराम से रह सके, स्वास्थ्य लाभ कर सके, और अनावश्यक संक्रमण से बचा रह सके. लेकिन मैंने पाया कि अधिकांश लोग इस व्यवस्था से नाखुश थे. न केवल नाखुश, इस व्यवस्था को तोड़ने के लिए भरसक प्रयत्नरत भी. जो गार्ड इस व्यवस्था की अनुपालना करवाने के लिए तैनात थे उनके साथ बदतमीजी और गाली-गलौज अपवाद नहीं सामान्य बात थी. बिना पास के भीतर घुसने या मुलाक़ात के समय के अतिरिक्त भी रोगी के पास जाने की हर मुमकिन चेष्टा करते लोग नज़र आए. इस बात को समझने को जैसे कोई तैयार ही नहीं कि रोगी को आराम भी मिलना चाहिए. जैसे कि अगर मुलाक़ाती ने रोगी से भेंट न की तो आसमान टूट पड़ेगा. कुछ लोग यह कहते मिले कि इतना महंगा अस्पताल फिर भी रोगी से मिलने ही नहीं देते हैं.

मुझे तकलीफ इस बात से हुई कि ज्यादातर लोग यह समझने को तैयार ही नहीं हैं कि यह व्यवस्था रोगी के हित में है. अब भला इस बात में क्या तुक है कि रोगी को आराम की ज़रूरत है और दो चार पांच दस मिलने वाले उसे घेरे हुए बैठे हैं. न केवल बैठे हैं, तमाम बेमतलब और बेहूदा बातें किए जा रहे हैं. उसे उन सब मामलों में सलाह दे रहे हैं जिन्हें देने की कोई योग्यता उनमें नहीं है. रोग और इलाज के बारे में हर किस्म की बेहूदा और बेतुकी बातें किए जा रहे हैं. रोगी अपने जिस कष्ट के निवारण के लिए वहां भर्ती है उसके निवारण के अब तक के तमाम असफल प्रयासों का ब्यौरा देकर उसका मनोबल तोड़ने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं. रोगी सोना चाहता है लेकिन उसके ये शुभ चिंतक हैं कि उसे अकेला छोड़ ही नहीं रहे हैं.

इस अस्पताल में रोगी के पास बारह साल से कम उम्र के बच्चों का आना वर्जित था. यह व्यवस्था भी इस कारण की गई है कि छोटे बच्चे संक्रमण के शिकार जल्दी हो सकते हैं. मेरी पत्नी जिस कमरे में थी, उसी में दूसरी शैया पर एक सद्य प्रसूता युवती थीं. युवती के वीर पतिदेव एक रात साढे नौ बजे अपने चार साल के बेटे को कमरे में ले आए. मैंने कुछ जिज्ञासा और कुछ आपत्ति के भाव से उनसे पूछा कि बच्चे तो आ नहीं सकते हैं, वे अपने बेटे को कैसे ले आए, तो वे बड़े गर्व से बोले कि साहब पैसे के बल पर क्या नहीं हो सकता. यानि उन्होंने गार्ड की मुट्ठी गरम की थी. बच्चा कुछ ज्यादा ही शरारती था. थोड़ी देर में इंचार्ज नर्स आई और उसने उन सज्जन से अनुरोध किया कि वे बच्चे को वहां से ले जाएं तो वे उस नर्स से जिस बद्तमीजी से पेश आए उसका वर्णन न ही किया जाए तो ठीक होगा. बच्चे की शरारत से जब मेरी पत्नी, जिनका पिछले ही दिन ऑपरेशन हुआ था, परेशान होने लगी तो मैंने भी उनसे अनुरोध किया कि वे बच्चे को ले जाएं, तो वे मुझसे भी लगभग वैसी ही बदतमीजी से पेश आए. मेरी इच्छा तो बहुत हुई कि अस्पताल प्रशासन को शिकायत करूं पर यह सोच कर बहुत मुश्क़िल से खुद को रोका कि इससे उस गार्ड की नौकरी पर बन आएगी.

असल में दूसरों की सुविधा असुविधा के बारे में क़तई नहीं सोचना हमारी जीवन पद्धति का एक अविभाज्य अंग बन चुका है. हम चाहे कितनी ही बड़ी-बड़ी बातें क्यों न करें, हमारा सारा ध्यान सिर्फ स्वयं पर ही केन्द्रित होता है. अगर मेरा यह सोचना सही है तो फिर निश्चय ही यह सवाल उठाया जाना चाहिए कि हम कितने सभ्य हैं? बल्कि सभ्य हैं भी या नहीं. कहना अनावश्यक है कि सभ्य होना, सांस्कृतिक होना, केवल बातों से ही सिद्ध नहीं होता है, हमारे कर्म, हमारा व्यवहार भी तदनुरूप होना चाहिए.



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Thursday, May 6, 2010

बदलाव मुश्क़िल है फिर भी मुमकिन है!


अक्सर कहा जाता है कि लोग आसानी से बदलना नहीं चाहते और बदलाव बहुत मुश्क़िल होता है आप धूम्रपान छोड़ना चाहते हैं, छोड़ नहीं पाते. वज़न घटाना चाहते हैं, कामयाब नहीं होते. फिज़ूलखर्ची रोकना चाहते हैं, रोक नहीं पाते. आप सब कुछ समझते हैं फिर भी वह नहीं कर पाते जो करना चाहते हैं. क्यों होता है ऐसा? इस सवाल का जवाब देते हैं मनोवैज्ञानिक लोग. उनका कहना है कि हमारे दिमाग में दो अलग-अलग व्यवस्थाएं, होती हैं. एक तर्क वाली और दूसरी भावना वाली. जब इन दोनों व्यवस्थाओं में तालमेल होता है तो बदलाव सुगम होता है, अन्यथा बहुत मुश्क़िल या कष्टसाध्य. इसी बात का अध्ययन और विश्लेषण प्रस्तुत किया है चिप हीथ और डैन हीथ ने अपनी नई किताब स्विच: हाउ टू चेंज थिंग्स व्हेन चेंज इज़ हार्ड में. चिप और डैन हीथ की पहली किताब मेड टू स्टिक 2007 में प्रकाशित हुई थी और बेहद लोकप्रिय हुई थी.

इन हीथ भ्राताओं को अपने अध्ययन की प्रेरणा जोनाथन हाइड्ट की प्रख्यात किताब द हेपीनेस हाइपोथीसिस से मिली. जोनाथन ने मनुष्य के दिमाग की कार्यप्रणाली की तुलना हाथी और महावत से की है और कहा है कि हाथी मनुष्य का भावनात्मक पक्ष है जबकि महावत उसका तार्किक पक्ष. इन दोनों ही पक्षों की अपनी-अपनी ताकतें और कमज़ोरियां होती हैं. कई बार हमारा भावनात्मक पक्ष हमारे तार्किक पक्ष पर हावी हो जाता है, हाथी भी तो महावत से ज़्यादा बड़ा और ताकतवर होता है. लेकिन अकेले तार्किक पक्ष के सबल होने से भी कुछ नहीं होता. आपने भी ऐसे बहुत सारे लोगों को देखा होगा जो तर्क तो बहुत अच्छा कर लेते हैं, लेकिन उसे कार्य रूप में परिणत नहीं कर पाते. वैसे भी, तर्क की बात करें तो हम समझते ही हैं कि हमारा भला किन बातों में है, लेकिन हम वैसा कर नहीं पाते हैं.

हीथ भ्राता एक ख़ास बात की तरफ़ ध्यान आकृष्ट करते हैं. मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि लोगों का बर्ताव उनके परिवेश के अनुसार बदलता रहता है. जब आप किसी शांत जगह, जैसे किसी चर्च में होते हैं तो आप भी शांत रहते हैं, लेकिन जब आप किसी शोर-शराबे वाली जगह, जैसे किसी स्टेडियम में होते हैं तो आप भी शोर मचाने लगते हैं. इसी तरह ड्राइव करते समय जब आप किसी संकड़ी लेन में होते हैं तो अपनी गाड़ी की रफ़्तार कम कर लेते हैं, लेकिन चौड़ी लेन में आते ही गाड़ी की रफ़्तार बढ़ा लेते हैं. इन उदाहरणों के बाद हीथ लोग कहते हैं कि ये बातें हमें सामान्य और स्वाभाविक लगती हैं, लेकिन जब हम अपने कार्य स्थल पर कोई बदलाव करने लगते हैं तो हम केवल लोगों पर ध्यान देते हैं और परिवेश को भुला देते हैं. हीथ भ्राताओं के अनुसार, परिवर्तन लाने के लिए सबसे सरल तरीका यह है कि परिवेश को बदला जाए. हीथ भ्राता अपनी सलाह को तीन सरल बिंदुओं में समेटते हैं. ये ही किताब के तीन प्रमुख अध्याय भी हैं. एक, महावत को निर्देश दें. इसमें उज्ज्वल पक्षों की पहचान, महत्वपूर्ण चरणों की रूपरेखा तैयार करना और गंतव्य की पहचान शामिल हैं. लेखक द्वय की सलाह है कि अपने तार्किक मस्तिष्क को स्पष्ट निर्देश दें ताकि उसे यह समझ में आ जाए कि उससे क्या चाहा गया है; दो, हाथी को प्रेरित करें. यानि भावनाओं का इस्तेमाल करके पशु मस्तिष्क को प्रेरित करें. यह करते हुए परिवर्तन को संकुचित कर लें, और तीन, परिवर्तन के लिए रास्ता तैयार करें अर्थात परिवेश में ऐसा बदलाव लाएं कि सही बर्ताव आसान और ग़लत बर्ताव मुश्क़िल हो जाए. लोगों की आदतों का निर्माण करें और भीड़ को दिशा दें.

हीथ भ्राताओं की यह सलाह बहुत महत्वपूर्ण है कि जब भी आप कोई बदलाव करना चाहें, उसे संकुचित करके इतना छोटा कर लें कि वह आपके नियंत्रण में आ जाए. अपनी बात की पुष्टि में लेखकगण बिल पार्सल का यह कथन उद्धृत करते हैं : “हमने ऐसे स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित किए जिन तक तुरंत पहुंचना संभव था....जब आप छोटे और नज़र आने वाले लक्ष्य निर्धारित करते हैं तो लोग उन तक पहुंच भी जाते हैं, और इससे उनके दिमाग में यह बात आती है कि वे कामयाब हो सकते हैं.” इस उद्धरण से प्रेरित हो हमारे हीथ भ्राता सलाह देते हैं कि छोटी कामयाबियों के लिए ज़रूरी है कि वे सार्थक हों, और हमारी तुरंत पहुंच के भीतर हों.

किताब का हर अध्याय एक रोचक कथा से प्रारंभ होता है और फिर हर अध्याय में और अनेक कहानियां हैं. ऊपर से देखने पर लगता है कि किताब कोई बड़ी और नई बात नहीं कह रही है, लेकिन अगर हम अपनी ज़िंदगी के इर्द-गिर्द नज़र डालें तो पाएंगे कि लोगों को परिवर्तन के लिए तैयार करने से ज़्यादा बड़ी बात और क्या हो सकती है? किताब हमें बहुत उम्दा तरह से समझाती है कि जड़ता यानि बदलाव के अभाव के मूल में हमारे मस्तिष्क का द्वैत होता है. अगर हम इस बात को समझ कर तदनुकूल आचरण करें तो काफी कुछ बदल सकता है.

Discussed book:
Switch: How to Change Things When Change Is Hard
By Chip Heath and Dan Heath
Published by: Broadway Business
320 Pages, Hardcover
US $ 26.00


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Sunday, March 7, 2010

कैसे हो बेहतर तरह से काम


2005 में प्रकाशित बहु-चर्चित पुस्तक अ होल न्यू माइंड: व्हाय राइट-ब्रेनर्स विल रूल द फ्यूचर के लेखक डेनियल एच पिंक अपनी हालिया प्रकाशित किताब ड्राइव: द सरप्राइज़िंग ट्रुथ अबाउट व्हाट मोटिवेट्स अस में यह कहकर हमें चौंकाते हैं कि कुछ करने के लिए हम क्यों प्रेरित होते हैं इसके बारे में हमारा अब तक का सोच ग़लत है. अनेक वैज्ञानिक पड़तालों का हवाला देकर वे स्थापित कर देते हैं कि कुछ करने न करने के बारे में पुरस्कार और दण्ड की व्यवस्था उपयुक्त नहीं है और इससे समस्याओं के सर्जनात्मक समाधान तलाशने की कामगारों की क्षमता घटती है.

पिंक बताते हैं कि अन्य सभी जीवधारियों की ही तरह मनुष्य की भी पहली प्रेरक शक्ति तो जीवित या बचे रहने की आकांक्षा है. इसे मोटिवेशन 1.0 कहा जा सकता है. यह शुद्ध रूप से जैविक प्रेरक शक्ति है. हमारी दूसरी प्रेरक शक्ति, जिसे पिंक ने मोटिवेशन 2.0 का नाम दिया है पुरस्कार और दण्ड से चालित होती है और यह भी पशु जगत के समान ही है. यह अपेक्षाकृत बाह्य प्रेरक शक्ति है. फर्क सिर्फ इतना है कि केवल मनुष्य ही इस प्रेरक शक्ति का उपयोग कर भवन और संगठन तक बल्कि इससे भी ज़्यादा का निर्माण कर सकते हैं. यह मोटिवेशन 2.0 बहुत लंबे समय से विद्यमान है और एक तरह से हमारे अस्तित्व का हिस्सा ही बन चुका है. लेकिन अब स्थितियां बदल रही हैं. पैसा, सुविधाएं या नौकरी चले जाने का डर जैसी चीज़ें अब अपना प्रभाव खोती जा रही हैं. लोग बिना किसी लाभ की आकांक्षा के ऑनलाइन एन्साइक्लोपीडिया विकीपीडिया या एक नए ऑपरेटिंग सिस्टम लाइनक्स के लिए काम कर रहे हैं.

पिंक बताते हैं कि मोटिवेशन 2.0 का आधार दो बातें हैं: किसी काम के लिए पुरस्कार से आप वह काम और अधिक करेंगे और दण्ड मिलने पर वह काम कम करेंगे. पिंक के अनुसार जो लोग इस तरह, यानि बाह्य पुरस्कारों के लिए काम करते हैं उन्हें टाइप एक्स कहा जा सकता है. पिंक आज के समय में इस प्रवृत्ति को सही नहीं मानते और कहते हैं कि इसके कम से कम सात ख़तरे हैं- इससे मोटिवेशन खत्म हो सकता है, कार्य निष्पादन की क्षति हो सकती है, सर्जनात्मकता नष्ट हो सकती है, सद्व्यवहार खत्म हो सकता है, धोखेबाजी की संभावना बढ़ सकती है, शॉर्टकट और अनैतिक व्यवहार की प्रवृत्ति बढ़ सकती है, लोग लती हो सकते हैं, और अल्प कालिक सोच को बढ़ावा मिल सकता है. पिंक तो यहां तक कहते हैं कि दुनिया में 2008 में जो भीषण आर्थिक संकट पैदा हुआ वह भी इसी मोटिवेशन 2.0 की उपज था. और इसीलिए, पिंक की सलाह है कि हमें मोटिवेशन 2.0 से मोटिवेशन 3.0 की तरफ बढ़ जाना चाहिए. तो क्या है यह मोटिवेशन 3.0 ?

पिंक के अनुसार, आप जो करना चाहें वह करने की आज़ादी, चुनौती स्वीकार करने का माद्दा और जो काम आप हाथ में लें उसे आनंदपूर्वक भली भांति पूरा करें यही है मोटिवेशन 3.0 और इसके मूल में है टाइप आई व्यवहार. अपनी बात के समर्थन में पिंक गूगल की 20% टाइम व्यवस्था का हवाला देते हैं. इस व्यवस्था के तहत गूगल अपने कर्मचारियों को उनके काम के कुल घण्टों के 20 प्रतिशत में उनका मन चाहा नया काम करने की आज़ादी देता है. और इससे बहुत सारे नए विचार सामने आते हैं जिससे कंपनी को फायदा होता है.

अब सवाल यह है कि स्वयं को या स्वयं की टीम को टाइप एक्स से टाइप आई में कैसे रूपांतरित किया जाए? इस सवाल का जवाब पिंक किताब के उत्तरार्ध में देते हैं. वे सलाह देते हैं कि लोग जो और जैसे कर रहे हैं उसमें उन्हें स्वायत्तता दी जाए. साथ ही उन्हें यह एहसास कराया जाए कि जो भी वे कर रहे हैं वह बहुत महत्वपूर्ण है. पिंक इसके लिए तीन चीज़ों को महत्वपूर्ण मानते हैं: 1. स्वायत्तता, यानि अपनी ज़िन्दगी को अपनी तरह से जीने का हक़, 2. निष्णातता, यानि जो भी महत्वपूर्ण है उसे और अधिक अच्छी तरह से करने की आकांक्षा, और 3. उद्देश्य, यानि स्व से इतर के लिए कुछ करने की आकांक्षा. बकौल पिंक, बेस्ट बाय जैसी बहुत सारी कंपनियां ऐसा ही कर रही हैं. तीन भागों में विभक्त इस किताब के तीसरे भाग में टाइप आई के लिए एक टूल किट है जो आपको अब तक सीखी बातों को प्रयोग में लाने के तरीके सिखाती है.

यह सारी चर्चा करते हुए पिंक हमारे स्कूलों पर भी एक टिप्पणी करते हैं और कहते हैं कि ये नई पीढी को काम के प्रति अनुरक्त और प्रेरित करने में नाकामयाब रहे हैं. इनका तो सारा ज़ोर परीक्षाओं में अच्छे अंक प्राप्त करने तथा अप्रासंगिक रटंत को बढावा देने में रहा है. इसके अलावा भी, स्कूल कला संगीत और व्यायाम जैसी गतिविधियों में निरंतर कटौती करते जा रहे हैं, जबकि ये गतिविधियां विद्यार्थियों के मानसिक क्षितिजों का विस्तार करती हैं.
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Discussed book:
Drive: The Surprising Truth About What Motivates Us
By Daniel H. Pink
Hardcover: 256 Pages
Published by: Riverhead
US $ 26.95

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत रविवार, 07 मार्च, 2010 को प्रकाशित.








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