Monday, January 26, 2009

साहित्य का अविस्मरणीय मेला


पांच दिवसीय (21 से 25 जनवरी 2009) डी एस सी जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल सम्पन्न हो गया. अपने आयोजन के इस चौथे वर्ष में आ पहुंचे इस फेस्टिवल ने अब साहित्यकारों और साहित्य रसिकों के मन में सम्मान पूर्ण स्थान बना लिया है. राजस्थान की राजधानी -गुलाबी नगरी जयपुर- के बीचो बीच स्थित डिग़ी पैलेस में आयोजित इस फेस्टिवल में दुनिया भर के लगभग 200 लेखकों-प्रकाशकों, अनगिनत कलाकारों और बहुत बड़ी संख्या में साहित्यानुरागियों ने शिरकत की.

पहले ज़रा इस आयोजन में शामिल हुए लेखकों की सूची पर एक नज़र डालें. शशि थरूर, विक्रम सेठ, चेतन भगत, विलियम डालरिम्पल, उर्वशी बुटालिया, तरुण तेजपाल, पवन के. वर्मा, पंकज मिश्रा, विकास स्वरूप, लीला सेठ, नंदन नीलेकनी, तहमीना अनम, मोहम्मद हनीफ, आशीष नंदी, जिलियन राइट, गुरुचरन दास, दानियल मुइनुद्दीन, के सच्चिदानन्दन, यू आर अनंतमूर्ति, गुलज़ार, हरि कुंजुरु, पॉल ज़करिया, पिको अय्यर, निकिता लालवाने, निरुपमा दत्त, तुलसी बद्रीनाथ, अंतरा देव सेन, नबनीता देव सेन, अपूर्व नारायण, आलोक राय, अशोक वाजपेयी, अलका सरावगी, उदयन वाजपेयी, अशोक चक्रधर, नूर ज़हीर, शक्ति दान कविया, माली राम शर्मा, हरि राम मीणा, सत्यनारायण, गोविन्द माथुर आदि. कहना अनावश्यक है कि यह पूरी सूची नहीं है, लेकिन इस सूची से यह साफ ज़ाहिर है कि देश-विदेश के, हिन्दी और हिन्दीतर भाषाओं के अनेक शीर्षस्थ लेखक इस फेस्टिवल में शामिल हुए. गीतकार प्रसून जोशी, फिल्म निर्देशक मुज़फ्फर अली, विधु विनोद चोपड़ा, कलाकार अमिताभ बच्चन, नंदिता दास, दीप्ति नवल, अनुपम खेर, गंभीर फिल्म विश्लेषक नसरीन मुन्नी कबीर ने भी अलग-अलग सत्रों में शिरकत की और आयोजन स्थल पर मुक्त रूप से लोगों से मिलते-जुलते रहे. यह भी कहना ज़रूरी है कि अनुपम खेर, जो शहर में किसी शूटिंग के सिलसिले में थे, बिना निमंत्रण के ही फेस्टिवल में चले आए.

अब, जिस आयोजन में इतने सारे लेखक आए हों, उसकी भव्यता के बारे में तो कुछ भी कहना गैर ज़रूरी है. इस आयोजन ने न केवल लेखकों को आपस में मिलने-जुलने का और विभिन्न विषयों पर औपचारिक-अनौपचारिक विमर्श करने का अवसर उपलब्ध कराया, साहित्यानुरागियों को भी अपने प्रिय लेखकों से रू-ब-रू होने का अविस्मरणीय अनुभव प्रदान किया.
पांच दिनों तक सुबह दस बजे से शाम छह बजे तक डिग्गी पैलेस में ही तीन स्थलों पर (और कभी-कभी चार जगहों पर भी) एक-एक घण्टे के सत्र एक के बाद एक चलते रहे. जिसका जहां मन हो जाए. किसी भी सत्र में जाने का मन न हो तो लॉन में, मैदान में कहीं भी बैठ कर गपशप करे. खास बात यह कि तमाम बड़े और स्टार लेखक भी यही करते रहे. इसलिए यह बात बहुत आम रही कि जिस टेबल पर आप बैठें हैं उसके पास वाली टेबल पर चेतन भगत या विक्रम सेठ या तरुण तेजपाल या अशोक वाजपेयी बैठे हैं. कोई औपचारिकता नहीं, कोई रोक-पाबन्दी नहीं. आप का मन हो जिससे बात करें, उसके ऑटोग्राफ लें या उसके साथ फोटो खिंचवाएं. स्कूल कॉलेजों के विद्यार्थी दिन भर लेखकों को घेरे रहते और मुझ जैसे बूढे भी कभी यू आर अनंतमूर्ति तो कभी अशोक वाजपेयी तो कभी गुलज़ार के साथ फोटो खिंचवाते नज़र आते. कार्यक्रम शाम छह बजे बाद भी जारी रहते. एक दिन बाउल गायक थे तो एक दिन फ्यूज़न संगीत. एक शाम प्रसून जोशी और दीप्ति नवल ने अपनी कविताएं भी सुनाईं.

पूरे कार्यक्रम में कहीं भी खास और आम के बीच भेद नहीं था. जहां कुर्सी नज़र आए, बैठ जाएं. कुर्सी न हो तो ज़मीन पर बैठ जाएं, हॉल में न घुस पाएं तो बाहर बड़े-बडे एल सी डी स्क्रीन पर भीतर की कार्यवाही देख लें. एक सत्र में तरुण तेजपाल देर से आए और बिना किसी संकोच के ज़मीन पर बैठ गए. उसी सत्र में तरुण विजय कहीं पीछे ज़मीन पर बैठे थे. न इन लेखकों ने इसे अपना अपमान समझा और न आयोजक इस बात को लेकर अतिरिक्त सजग नज़र आए. यही हाल खाने पीने के दौरान भी रहा. सारे लेखक, चाहे वो विक्रम सेठ हों, गुलज़ार हों, प्रसून जोशी हों, चेतन भगत हो, विलियम डालरिम्पल हों, अशोक वाजपेयी हों, दूसरे तमाम ज्ञात-अज्ञात लोगों के साथ समान भाव से खाते-पीते रहे. आयोजकों की तारीफ इस बात के लिए भी करना ज़रूरी है कि उन्होंने लेखकों के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं किया. राजस्थान के किसी छोटे-से कस्बे से आने वाले लेखक को भी उसी होटल (पंच सितारा) में ठहराया जहां विक्रम सेठ, चेतन भगत, गुलज़ार, या प्रसून जोशी को ठहराया.

आयोजन के सत्रों में औपचारिकता न्यूनतम थी. माल्यार्पण वगैरह कुछ नहीं. एक दो वाक्यों में पैनल का परिचय और विमर्श शुरू. सत्र एकदम ठीक समय पर शुरू और ठीक वक़्त पर खतम. अगर ऐसी समय की पाबन्दी हमारी ज़िन्दगी में आ जाए, या कम से कम हमारे आयोजनों में ही आ जाए, तो कितना अच्छा हो. पैनल के विचार विमर्श के बाद श्रोताओं को खुली आज़ादी होती कि वे सवाल पूछें.

कुछ लोगों को लगा कि यह आयोजन अंग्रेज़ी की तरफ अधिक झुका हुआ था. हम लोगों का सम्बन्ध भारतीय भाषाओं से है इसलिए स्वाभाविक है कि हम ऐसे आयोजनों में उनकी अधिक सहभागिता की अपेक्षा करते हैं. अपनी अंतरराष्ट्रीय प्रकृति की वजह से इस फेस्टिवल में अंग्रेज़ी सहित अंक भारतीय-अभारतीय भाषाओं की मौज़ूदगी थी, इसलिए मुझे तो स्वाभाविक ही लगा कि हिन्दी, बांगला, उर्दू,राजस्थानी वगैरह के हिस्से में एक दो तीन सत्र ही आ पाए. लेकिन अगर भारतीय भाषाओं की सहभागिता और बढाई जाए तो अच्छा ही रहेगा.

आयोजन को सफल बनाने में नमिता गोखले और टीम वर्क के संजॉय रॉय जिस तरह जुटे रहे, उसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है. कुल मिलाकर, यह फेस्टिवल मुझ जैसे साहित्य प्रेमी के लिए तो किसी बहुत बड़ी दावत की मानिन्द था. एक ऐसी दावत, जिसका ज़ायका बहुत लम्बे समय तक मुंह में बना रहेगा.

आयोजन के कुछ फोटो यहां देखें:
http://picasaweb.google.com/dpagrawal24/JaipurLiteratureFestival?authkey=BbkqVwzdw8c#










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