Sunday, September 13, 2009

माइकल जैक्सन की ज़िन्दगी के आखिरी बरस


खोजी पत्रकारिता के लिए विख्यात और फायर एण्ड रेन: द जेम्स टेलर स्टोरी और सेलिन डियोन: बिहाइण्ड द फेयरी टेल जैसी बेस्ट सेलर्स के लेखक इयान हाल्पेरिन, जिन्होंने दिसम्बर 2008 के आखिरी दिनों में यह कह कर दुनिया को चौंका दिया था कि माइकल जैक्सन के पास सिर्फ छह महीने की ज़िन्दगी शेष है, अब अपनी सद्य प्रकाशित किताब अनमास्क्ड: द फाइनल ईयर्स ऑफ माइकल जैक्सन में पॉप संगीत की दुनिया के इस दिवंगत शहंशाह के बारे में कई सनसनीखेज जानकारियां लेकर आए हैं. हाल्पेरिन के खाते में नौ सनसनीखेज रहस्योद्घाटन अंकित हैं. इस किताब में उन्होंने माइकल की ज़िन्दगी के शुरू के 35 बरसों को क़तई न छूते हुए, उनकी ज़िन्दगी के आखिरी 15 बरसों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया है.

कहा जाने लगा है कि माइकल लालच के शिकार हुए हैं. उनके दोस्तों और सहकर्मियों ने उनकी ज़िन्दगी के आखिरी दिनों की जो छवि पेश की है वह व्यथित कर देने वाली है. माइकल अपने आखिरी दिनों में जुलाई 2009 में लंदन में होने वाली कंसर्ट श्रंखला की तैयारियों में जुटे थे. ज़ाहिर है कि इन कंसर्टों से माइकल और उनके सहयोगियों को अकूत धनराशि मिलती, लेकिन माइकल न तो शारीरिक रूप से और न मानसिक रूप से इन कंसर्टों के लिए तैयार थे. इस बात को वे और उनके साथी भली भांति जानते थे. जिनसे भी उन्हें देखा वह उनके कॉस्ट्यूम्स और मेक अप के पीछे भी यह देख पाने में नहीं चूका कि लंदन कंसर्ट एक पागलपन के सिवा और कुछ नहीं है. न्यूयॉर्क टाइम्स के इस लेखक ने पागलपन भरे उन दिनों के बीच से ही माइकल को जानने की कोशिश की है.

माइकल के साथ अनेक प्रवाद जुड़े हुए थे. इयान बताते हैं कि माइकल रात को लड़कियों के कपड़े पहन कर सोया करता था और स्कर्ट और टॉप पहन कर अपने बॉय फ्रैण्ड्स से मिला करता था. किताब यह भी बताती है कि उसके दो मुख्य बॉय फ्रैण्ड थे. संकेत यह कि वे गे थे, हालांकि इस संकेत को पर्याप्त प्रमाणों से पुष्ट नहीं किया गया है. माइकल को उनके होटल के कमरे में उनके एक बॉय फ्रैण्ड लॉरेंस के साथ देखा गया था. लॉरेंस हॉलीवुड के एक स्ट्रगलर थे. खुद लॉरेंस ने भी यह बात कबूल की है कि वे जैक्सन के गे पार्टनर थे. माइकल के दूसरे गे पार्टनर एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम किया करते थे. किताब में उनका नाम उजागर नहीं किया गया है. वैसे, यहीं यह बता देना भी ज़रूरी होगा कि खुद माइकल ताज़िन्दगी अपने गे होने को नकारते रहे हैं.

1993 और 2004 में माइकल पर लगे चाइल्ड मोलेस्टेशन के आरोपों से हम सब वाक़िफ हैं. पहले मामले को माइकल ने बड़ी धन राशि देकर खत्म किया तो दूसरे मामले में अदालत ने उन्हें बरी किया. हाल्पेरिन बलपूर्वक कहते हैं कि ये आरोप बे बुनियाद हैं. वे बताते हैं कि पहले मामले में तो माइकल अपनी बेगुनाही सिद्ध करना चहते थे लेकिन उनकी इंश्योरेंस कम्पनी ने उन्हें ले-देकर मामले को रफा दफा करने को बाध्य किया. दूसरे मामले का बहुत विस्तृत वर्णन लेखक ने किया है कि किस तरह माइकल को अदालत में रुसवा होना पड़ा. माइकल की ज़िन्दगी में रुचि रखने वालों के लिए ये अध्याय बहुत दिलचस्प साबित होंगे.

हाल्पेरिन यह भी बताते हैं कि उनके नेवरलैण्ड रैंच पर 2003 में पड़े छापे के बाद माइकल का मन वहां से उखड़ गया था और वे मंट्रियल में जा बसने की सोच रहे थे.

हाल्पेरिन ने इस किताब के लिए सामग्री जुटाने के लिए हेयर ड्रेसर के छद्म रूप में माइकल जैक्सन के कैम्प में प्रवेश किया और वहां अनेक लोगों से बात करके जानकारियां जुटाईं. इस किताब को, जो अनेक अध्यायों में विभक्त है, माइकल जैक्सन की अनधिकृत जीवनी के रूप में प्रचारित किया जा रहा है.

Discussed book:
UNMASKED: The Final years of Michael Jackson
By Ian Halperin
Published by Simon Spotlight Entertainment
Hardcover, 224 pages
US $ 25.00

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 13 सितंबर, 2009 को प्रकाशित.









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Thursday, September 10, 2009

उलझा-उलझा है भाषाई परिदृश्य

फेसबुक के अपने मित्र सुयश सुप्रभ के ब्लॉग अनुवाद, हिंदी और भाषाओं की दुनिया पर उनका विचारोत्तेजक लेख क्या हम दुनिया की आधी भाषाओं को दम तोड़ते देखते रहेंगे तो लगभग् इसी विषय पर लिखा अपना एक थोड़ा पुराना लेख मुझे याद आ गया, जो अब भी प्रासंगिक है.


18 मई 2007 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने एक प्रस्ताव पारित कर वर्ष 2008 को अंतर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा की. विश्व संस्था का यह निर्णय उसके इस सोच को पुष्ट करता है कि भाषाओं की असल बहुलता के द्वारा ही अनेकता में एकता की रक्षा और अंतर्राष्ट्रीय समझ का विकास सम्भव है. इसी सन्दर्भ में यूनेस्को के महानिदेशक मात्सुरा कोईचोरो का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि भाषाओं की जितनी अहमियत वैयक्तिक अस्मिता के लिए है उतनी ही शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के लिए भी है. उनके कथन की महता इस बात से और भी बढ जाती है कि यूनेस्को को ही अंतर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष विषयक गतिविधियों के समन्वय का दायित्व सौंपा गया है. हम भी अगर भाषाओं की महत्ता पर विचार करें तो पाएंगे कि साक्षरता और शिक्षा की तो कोई कल्पना ही भाषा के बिना समभव है. आखिर शिक्षक भाषा के बिना अपनी बात कह ही कैसे सकता है?

अगर हम भाषाओं के महत्व पर थोडी और गहराई से विचार करें तो पाते हैं कि व्यक्तियों और समूहों की पहचान बनाये रखने में भी भाषाओं की बडी भूमिका होती है. सांस्कृतिक वैविध्य की कोई भी परिकल्पना भाषाई विविधता के बिना असम्भव है. लेकिन, बावज़ूद इस सच्चाई के, दुखद तथ्य यह है कि दुनिया में बोली जा रही लगभग सात हज़ार भाषाओं में से आधी से अधिक तो आगामी कुछ सालों में ही विलुप्त हो जाने वाली है. 1996 में पहली बार प्रकाशित ‘विलुप्त होने के कगार पर दुनिया की भाषाओं का एटलस’ में इस समस्या को बखूबी उभारा गया है. यह भी एक दुखद तथ्य है कि अभी हमने जिन सात हज़ार भाषाओं का ज़िक्र किया उनमें से एक चौथाई से भी कम का प्रयोग स्कूलों वगैरह में होता है और हज़ारों भाषाएं ऐसी हैं जो वैसे तो दुनिया की आबादी के एक बडे हिस्से की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में शरीक हैं लेकिन शिक्षा व्यवस्था, संचार तंत्र, प्रकाशन जगत आदि से पूरी तरह अनुपस्थित हैं. शायद यही वजह है कि यूनेस्को के महानिदेशक ने कहा है कि इस मुद्दे पर गहनता से विचार करते हुए हमें एक ऐसी भाषा नीति की तरफ बढना चहिए जो प्रत्येक भाषाई समूह को इस बात के लिए प्रेरित करे कि वह प्रथम भाषा के रूप में अपनी मातृ भाषा का व्यापकतम प्रयोग तो करे ही, साथ ही किसी क्षेत्रीय अथवा राष्ट्रीय भाषा को भी सीखे और अगर सम्भव हो तो एक या अधिक अंतर्राष्ट्रीय भाषा का भी ज्ञान प्राप्त करे. उन्होंने यह भी सलाह दी है कि एक वर्चस्वशाली भाषा के प्रयोक्ताओं को किसी अन्य क्षेत्रीय या राष्ट्रीय भाषा को भी सीखना चाहिए. आखिर भषाओं की बहुलता के द्वारा ही तो सभी भाषाओं के अस्तित्व की रक्षा की जा सकेगी.

संयुक्त राष्ट्र संघ और उसके घटक यूनेस्को के ये विचार बहुत ही सदाशयतापूर्ण हैं. इनके पीछे की पवित्र भावनाओं से भी भला कोई असहमति हो सकती है? लेकिन हो गई. जहां दुनिया के ज़्यादातर देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के इस विचार का स्वागत करते हुए उसके साथ सहयोग करने का इरादा ज़ाहिर किया वहीं दुनिया के चौधरी अमरीका ने एक विवादी स्वर लगा दिया. विश्व संगठन में अमरीकी राजदूत ने बुश प्रशासन के इस दावे को आधार बनाते हुए कि भाषा कोई विज्ञान द्वारा पुष्ट तथ्य नहीं अपितु एक सिद्धांत मात्र है, और खुद राष्ट्रपति बुश यह मानते हैं कि ईश्वर ने मात्र छह दिनों में अंग्रेज़ी का निर्माण किया था, इस प्रस्ताव से अपनी असहमति की घोषणा कर डाली. अमरीका सरकार की असहमति के मूल में उसकी यह आशंका भी है कि उसके किसी बहु-देशीय संधि में शरीक होने से दुनिया में अंग्रेज़ी के प्रसार को अघात पहुंचेगा. और इस नेक इरादे से अपनी असहमति ज़ाहिर करने वाला अमरीका अकेला देश नहीं है. यूनेस्को में अरबी बोलने वाले प्रतिनिधियों ने भी इसी तरह हिब्रू का विरोध कर इस प्रस्ताव की क्रियान्विति में अडंगा लगाया. और ऐसा ही कुछ किया कोरियाई प्रतिनिधियों ने भी.

वैसे, अगर अतीत की तरफ झांकें तो हम पाते हैं कि भाषाओं के मामले में खुद संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका भी प्रशंसनीय नहीं रही है. जब चीन में दूसरी भाषाओं को कुचला जा रहा था तो संयुक्त राष्ट्र संघ मौन दर्शक था. जब पाकिस्तान में जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने सिंधी बोलने वालों को देखते ही गोली मार देने के आदेश दिये तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने किसी हस्तक्षेप की ज़रूरत नहीं समझी. ऐसा ही उसने फ्रांस द्वारा अंग्रेज़ी पर रोक के वक़्त भी किया. वैसे भी, जिस संयुक्त राष्ट्र संघ के देखते-देखते यूरोपीय संघ अपनी 23 आधिकारिक भाषाओं के बावज़ूद अपना ज़्यादा काम अंग्रेज़ी में करता है, और खुद यह विश्व संगठन लगभग सारा ही काम अंग्रेज़ी में करता है, वही जब भाषाओं की बहुलता की बात करता है तो आश्चर्य होता है.

लेकिन अगर आप आशावादी हों, और किसी की नीयत पर सन्देह करने के शौकीन न हों तो यह भी सोच सकते हैं कि सुबह का भूला संयुक्त राष्ट्र संघ अब शाम को घर लौट रहा है. वह कम से कम अब तो अंग्रेज़ी के दिग्विजय अभियान को रोकना चाहता है. यूनेस्को ने तो यह भी कहा है कि वह दुनिया की उन गडबडी वाली जगहों पर अपने नीले हेलमेट वाले संयुक्त राष्ट्रीय भाषाई रक्षक तैनात करेगा जहां जबरन दूसरी भाषाओं का दमन किया जाता है, जैसे आयरलैण्ड में जहां हालांकि सरकारी भाषा आयरिश है लेकिन नये नागरिकों पर बलात अंग्रेज़ी लादी जा रही है.

इसी उथल-पुथल भरे वैश्विक परिदृश्य के साथ ही आइये, ज़रा भारत के भाषाई परिदृश्य का भी जायज़ा ले लें. संविधान ने हमारे यहां दो राज भाषाओं – हिन्दी और अंग्रेज़ी- को मान्यता दे रखी है. इनके अलावा संविधान की आठवीं अनुसूची में 18 और भाषाएं भी सूचीबद्ध हैं. राजस्थानी जैसी महत्वपूर्ण भाषा अभी भी इस अनुसूची में प्रवेश पाने के लिए संघर्षरत है. इनके अलावा, 418 और ऐसी सूचीबद्ध भाषाएं हैं जिनमें से प्रत्येक के बोलने वालों की संख्या कम से कम दस हज़ार है. हमारा सरकारी रेडियो – आकाशवाणी 24 भाषाओं और 146 बोलियों में प्रसारण करता है. कम से कम 34 भाषाओं में हमारे यहां अखबार छपते हैं और 67 भाषाओं में प्राथमिक शिक्षा दी जाती है. संविधान सभी नागरिकों को उनकी भाषा के संरक्षण का अधिकार देते हुए सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी रुचि की शैक्षिक संस्था चुनने का अधिकार प्रदान करता है. लेकिन ये सारे तथ्य और आंकडे उस वक़्त किताबी लगते हैं जब हम यह देखते हैं कि बहु भाषा भाषी हमारे देश में ही कम से कम 1600 भाषाएं और बोलियां ऐसी हैं जिन्हें लोग अपनी मातृ भाषा के रूप में तो प्रयुक्त करते हैं लेकिन जिन्हें किसी भी तरह का वैधानिक या सरकारी संरक्षण प्राप्त नहीं है.

भाषाई आधार पर हुए राज्यों के पुनर्गठन पर अब भी सवालिया निशान लगाए जाते हैं. इसी के साथ भाषाओं को लेकर हुए हिंसक विवादों को भी भुलाया नहीं जा सकता. दक्षिण के कतिपय इलाकों में हुआ हिन्दी का तथाकथित उग्र विरोध और एक दूसरे समय में उत्तर भारत में तेज़ी से फैला अंग्रेज़ी हटाओ आन्दोलन आज भी लोगों की स्मृतियों में है. भाषाओं को लेकर वैसा उत्तेजक माहौल आज भले ही न हो, जानने वाले जानते हैं कि आज भारत में हर बडी भाषा अपनी से छोटी भाषा का अधिकार छीन-हडप रही है. ऐसा करने में शीर्ष पर है अंग्रेज़ी. कहने को यह देश की दो राज भाषाओं में से एक है लेकिन कभी-कभी लगता है कि असल राज भाषा तो यही है. इस देश में अंग्रेज़ी जाने बगैर आपका कोई अस्तित्व ही नहीं है. कोई छोटी से छोटी सरकारी नौकरी आपको अंग्रेज़ी ज्ञान के बगैर नहीं मिल सकती. जबकि दूसरी राजभाषा हिन्दी के साथ ऐसा नहीं है. अगर आप हिन्दी नहीं भी जानते हैं तो कोई बात नहीं. बल्कि बहुतों के लिए तो हिन्दी न जानना गर्व का कारण होता है. इधर वैश्वीकरण और उदारीकरण के चलते और दुनिया के सपाट होते जाने के कारण अंग्रेज़ी का वर्चस्व और बढता जा रहा है. रही सही कसर सूचना प्रौद्योगिकी ने पूरी कर दी है. लोगों ने मान लिया है कि वहां तो अंग्रेज़ी के बिना काम चल ही नहीं सकता, और बिना सूचना प्रौद्योगिकी के आज की दुनिया में जीना बेकार है. हालांकि दोनों ही बातें सच से बहुत दूर हैं. सूचना प्रौद्योगिकी में हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में काम करने की भी पूरी सुविधाएं हैं, और भारत जैसे धीमी गति और संतोषी मानसिकता वाले देश में द्रुतगामी सूचना प्रौद्योगिकी जीवन शैली का हिस्सा बनेगी, इसमें अभी काफी वक़्त लगेगा.

लेकिन अंग्रेज़ी हमारे मन मष्तिष्क पर बुरी तरह हावी है. हमारे फिल्मी सितारे काम भले ही भाषाई फिल्मों में करें, बात अंग्रेज़ी में ही करना पसन्द करते हैं. नेता लोग चुनाव के वक़्त भले ही हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाएं काम में ले लें, अपने प्रभाव स्थापन के लिए टूटी-फूटी और हास्यास्पद ही सही अंग्रेज़ी बोलने की कोशिश करते दिखाई सुनाई देते हैं. समाज का प्रभु वर्ग अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम वाले स्कूलों में ही भेजता है. यहां तक कि जो लोग परम्परा, धर्म, संस्कृति वगैरह की कमाई खाते हैं वे भी अपने बच्चों का भविष्य अंग्रेज़ी में ही देखते हैं. निश्चय ही यह मनोवृत्ति हिन्दी सहित तमाम देशी भाषाओं के लिए घातक सिद्ध हो रही है. इनका विकास अवरुद्ध हो रहा है, और इनके प्रयोक्ताओं की संख्या निरंतर घटती जा रही है. हिन्दी की स्थिति तो फिर भी ठीक है, लेकिन जिन भाषाओं या बोलियों को बोलने वाले कम हैं उनके अस्तित्व पर मण्डराते खतरों को साफ देखा जा सकता है.

ऐसे में एक तरफ जहां संयुक्त राष्ट्र संघ की इस सदाशयता पूर्ण पहल का महत्व समझ में आता है वहीं दूसरी तरफ लुप्त होती जा रही भाषाओं की स्वाभाविक परिणति सांस्कृतिक वैविध्य की क्षति चिंतित भी करती है. चिंताजनक बात यह भी है आज भाषाएं किसी के भी एजेण्डा में नहीं हैं. कहीं हम भाषा विहीन भविष्य की तरफ तो नहीं बढ रहे हैं?
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