Sunday, August 30, 2009

जिन्ना, भारत का विभाजन और आज़ादी


भारत में हाल के वर्षों में किसी किताब ने ऐसी हलचल पैदा नहीं की है जैसी भाजपा के अब भूतपूर्व हो गए नेता जसवंत सिंह की हाल ही में प्रकाशित किताब जिन्ना - इंडिया पार्टीशन इंडिपेंडेंस ने की है. इस एक किताब ने जसवंत सिंह को ‘हनुमान से रावण’ बना दिया है. यह किताब भाजपा शासित गुजरात की सरकार को इतनी बुरी लगी है कि उसने तुरत फुरत इस पर प्रतिबंध लगा दिया.

भारतीय सेना में कमीशंड अधिकारी रहे जसवंत सिंह ने राजनीति में भी खासा नाम कमाया. वे सात बार संसद के सदस्य रहे और भारत सरकार में छह महत्वपूर्ण विभाग उन्होंने संभाले इनमें विदेश मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय और वित्त मंत्रालय भी शामिल हैं. वे भारतीय विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ माने जाते हैं. यह सोच पाना आसान नहीं है कि जिस जिन्ना पर दिए गए एक बयान ने भाजपा के दिग्गज नेता लाल कृष्ण आडवाणी को दिक्कत में डाल दिया था, उसी जिन्ना पर एक पूरी किताब लिखने का फैसला जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ और अनुभवी नेता ने क्यों किया? खुद जसवंत सिंह का कहना है कि वे जिन्ना के व्यक्तित्व से इस हद तक प्रभावित हुए कि यह किताब लिखे बगैर नहीं रह सके. जसवंत सिंह कहते हैं, “वे (यानि जिन्ना) न केवल स्वतंत्र भारत के लिए अंग्रेज़ों से लड़े, भारत के मुसलमानों के लिए भी दृढता से अनवरत लड़ते रहे.” इस विवादास्पद व्यक्तित्व के लिए जसवंत सिंह के मन में कैसे भाव हैं, यह जानने के लिए उनकी इस किताब से एक उद्धरण देखना रोचक होगा: “उन्होंने (यानि जिन्ना ने) शून्य से कुछ रच डाला और अकेले कॉंग्रेस और ब्रिटिश ताकतों के आगे डटे रहे, जिन्होंने उन्हें कभी पसंद नहीं किया.... खुद गांधी ने जिन्ना को एक महान भारतीय कहा था. तो फिर हम उन्हें क्यों नहीं स्वीकार करते? हम क्यों नहीं यह जानने-समझने की कोशिश करते कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा? ....मैं उनके व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं का प्रशंसक हूं; उनका दृढ़ निश्चय और ऊपर उठने का उनका जज़्बा. वे एक स्व-निर्मित व्यक्ति थे. महात्मा गांधी एक दीवान के बेटे थे. ये सारे लोग, नेहरु वगैरह अमीर और बड़े खानदानों में पैदा हुए थे. जिन्ना ने खुद अपने जगह पैदा की. उन्होंने बम्बई में अपने लिए जगह बनाई. वे इतने ग़रीब थे कि पैदल चल कर काम पर जाते थे. एक बार उन्होंने अपने जीवनीकारों से कहा था कि शीर्ष पर हमेशा जगह होती है, लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए कोई लिफ्ट नहीं होती......... और उन्होंने कभी लिफ्ट तलाशी भी नहीं.” जसवंत को भारतीय नेताओं से यह शिकायत है कि उन्होंने जिन्ना को हमेशा ग़लत समझा और उन्हें राक्षस के रूप में देखा. जसवंत सिंह यह कहने से भी नहीं चूकते कि जिन्ना का यह राक्षसीकरण विभाजन के कटु अनुभव की प्रत्यक्ष परिणति था.

किताब की शुरुआत होती है इस्लाम से भारत के संपर्क के वृत्तांत के साथ और फिर यह 1857 से होती हुई स्वाधीनता संग्राम तक आ पहुंचती है. इसके बाद शुरू होती है राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर अपने लिए जगह तलाशते जिन्ना की संघर्ष गाथा. उस मंच पर पहले से मोहनदास करमचंद गांधी के चहेतों का कब्ज़ा है. जब वहां जिन्ना को अपने लिए कोई गुंजाइश नज़र नहीं आती तो वे मुस्लमानों को लेकर मुस्लिम लीग़ नाम से अपना अलग मंच बनाते हैं और क्रमश: उनके एकमात्र प्रवक्ता बनते जाते हैं.

जसवंत सिंह कहते हैं कि भारत में जो आम धारणा है कि जिन्ना हिंदुओं से नफरत करते थे, वह ग़लत है. इस लिहाज़ से जिन्ना और गांधी की तुलना करते हुए वे कहते हैं, “गांधी में सदा ही एक धार्मिक क्षेत्रीय गंध थी जबकि जिन्ना बेशक गैर साम्प्रदायिक राष्ट्रीय भावना से लबरेज़ थे.” यहीं यह ज़िक्र भी प्रासंगिक होगा कि प्रख्यात हिंदी विद्वान डॉ नामवर सिंह ने भी जिन्ना के राक्षसीकरण को गलत मानते हुए कहा है कि वे धर्म निरपेक्ष थे लेकिन उन्हें मुस्लिम लीग की लड़ाई लड़ने को बाध्य होना पड़ा. जसवंत सिंह ने अपनी इस किताब में उन मुहम्मद अली जिन्ना की राजनीतिक जीवन यात्रा को चीन्हने का प्रयास किया है जिन्हें कभी गोपाल कृष्ण गोखले ने ‘हिन्दु-मुस्लिम एकता का राजदूत’ कहा था. आखिर क्या हुआ कि वही शख़्स भारत में मुसलमानों की एकलौती आवाज़ और उसके बाद पाकिस्तान का निर्माता, क़ायदे आज़म बन गया? इसी क्रम में लेखक यह भी पड़ताल करता है कि मुस्लिमों के लिए अलग राष्ट्र की परिकल्पना का अभ्युदय कैसे हुआ. जसवंत सिंह यह भी कहते हैं कि अपने समय के दो प्रख्यात संविधानविद जिन्ना और नेहरु मुसलमानों के लिए विशेष दर्ज़े के पैरोकार बन गए थे. जिन्ना प्रयक्ष रूप से और नेहरु परोक्ष रूप से. लेकिन दोनों में मुसलमानों का प्रवक्ता बनने की होड़ थी.

जसवंत सिंह ने भारत विभाजन का दोषारोपण कॉंग्रेस और नेहरु पर करना चाहा है, जो स्पष्ट ही उनकी राजनीतिक विचारधारा को रास आने वाली बात है. लेकिन ऐसा करते हुए वे जब यह कहते हैं कि “जिन्ना ने पाकिस्तान जीत में हासिल नहीं किया. कॉंग्रेस के नेताओं नेहरु और पटेल ने पाकिस्तान जिन्ना को प्रदान (कंसीड) किया. ब्रिटिश लोगों ने सदा सहायता को तत्पर दाई (मिडवाइफ) की भूमिका अदा की” तो बात जैसे सीमा से बाहर निकलती लगती है. अपने इस कथन को लेखक ने एक इण्टरव्यू में और स्पष्ट किया: “नेहरु का विश्वास एक अत्यधिक केन्द्रीकृत राज्य व्यवस्था में था. वे भारत को ऐसा ही बनाना चाहते थे. जिन्ना एक संघीय राज्य व्यवस्था चाहते थे. अंतत: गांधी ने भी इसे स्वीकार कर लिया, लेकिन नेहरु नहीं कर पाए. वे अनवरत रूप से, 1947 तक जब तक कि विभाजन नहीं हो गया, संघीय भारत की राह में रोड़ा बने रहे.” ज़ाहिर है कि भाजपा के गले यह बात नहीं उतरती कि जसवंत नेहरु के साथ पटेल का भी नाम लें.

असल में यह किताब तीन मुख्य स्थापनाओं पर टिकी है:

1. जिन्ना को बेवजह राक्षस के रूप में देखा और दिखाया गया है. वह तो एक महान व्यक्ति था और उसे पूरी तरह विभाजन का दोषी नहीं माना जाना चाहिए,

2. भारत विभाजन के मुख्य दोषी तो जवाहरलाल नेहरु हैं क्योंकि उनका विश्वास एक ऐसे केन्द्रीकृत भारत में था जिसमें हिन्दु वर्चस्व से मुस्लिमों के बचाव की कोई गुंजाइश नहीं थी. विभाजन के विचार के मूल में था ‘फाल्स माइनोरिटी सिंड्रोम’ और जिन्ना का विचार था कि इसका एकमात्र उपचार विभाजन है. नेहरु , पटेल और कॉंग्रेस के दूसरे लोग इस बात से सहमत हो गए,

3. महात्मा गांधी और अन्य नेता विभाजन से सहमत नहीं थे लेकिन उन्हें नेहरु की ज़िद के आगे झुकना पड़ा. जसवंत सिंह कहते हैं कि नेहरु विभाजन के मुख्य वास्तुविदों में से एक, बल्कि असल में तो उसके आरेखकार ही हैं.
जसवंत सिंह की स्थापना है कि अगर कॉंग्रेस और खास तौर पर नेहरु ने दूरदर्शितापूर्ण रवैया अपनाया होता और जिन्ना के प्रति ज़्यादा उदार नज़रिया बरता होता तो भारत का विभाजन ही नहीं होता. उन्हीं के शब्दों में, “जिन्ना का विरोध हिंदुओं या हिंदुत्व से नहीं था. वे तो कॉंग्रेस को मुस्लिम लीग़ का असल प्रतिद्वन्द्वी मानते थे और लीग़ उन्हें अपना आत्म विस्तार लगती थी.” जिन्ना का विश्लेषण करने में कहीं-कहीं जसवंत बहुत निर्मम भी नज़र आते हैं. जैसे, जब बे कहते हैं, “मुस्लिम समुदाय जिन्ना के लिए एक निर्वाचक निकाय भर था और मुस्लिम राष्ट्र की उनकी मांग उनके लिए एक राजनीतिक मंच भर थी. जो लड़ाई वे लड़ रहे थे वह पूरी तरह राजनीतिक थी, मुस्लिम लीग़ और कॉंग्रेस के बीच. पाकिस्तान उनके लिए एक ऐसी राजनीतिक मांग थी जिस जिसके दम पर वे और मुस्लिम लीग़ राज कर सकते थे.” जसवंत यह भी कहते हैं कि मुस्लिमों के लिए एक अलग राष्ट्र की मांग जिन्ना की आधारभूत गलती थी. लेकिन, इस गलती में वे अकेले नहीं थे. असल में इस ग़लती की ज़मीन तो अंग्रेज़ों ने ही सुलभ कराई थी और नेहरु ने भी द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का पुरज़ोर विरोध नहीं किया.

किताब पर उठे विवाद, जो अकादमिक कम और राजनीतिक ज़्यादा हैं, से अलग हटकर मैं इस किताब को अपने निकटवर्ती अतीत को खंगालने के एक महत्वपूर्ण प्रयास के रूप में देखता हूं. हम जसवंत सिंह की स्थापनाओं से सहमत हों या न हों, उनके प्रयास की सराहना तो की ही जानी चाहिए. इस प्रयास का महत्व इस बात से और बढ जाता है कि इसे एक राजनीतिज्ञ ने किया है और यह करते हुए ‘अभिव्यक्ति के ख़तरे’ उठाये हैं. यहां यह उल्लेख भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि इसी विषय पर हिंदी में एक महत्वपूर्ण किताब आई थी वीरेन्द्र कुमार बर्नवाल की “जिन्ना:एक पुनर्दृष्टि” जो कदाचित अभी भी जिन्ना को समझने के लिहाज़ से अद्वितीय है.
☻☻☻

Discussed book:
Jinnah India- Partition- Independence
Jaswant Singh
Rupa and Co.
669 Pages , Hardcover
Rs 695.00









Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा

Tuesday, August 11, 2009

अब वह सपने भी हिंदी में देखने लगी है


पुरस्कृत संस्मरण पुस्तक द रेड डेविल: टू हेल विथ कैंसर – एण्ड बैक की लेखिका कैथरीन रसेल रिच जो न्यूयॉर्क टाइम्स मैगज़ीन, वाशिगटन पोस्ट, नेशनल पब्लिक रेडियो और सलोन डॉट कॉम जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के लिए लिखती रही हैं, की नवीनतम पुस्तक ड्रीमिंग इन हिंदी का सम्बन्ध हमारे अपने देश और अपनी भाषा से है.

कैथरीन लिखती हैं, “मुझे कैंसर था और यह भीतर ही भीतर मेरी हड्डियों को नष्ट कर रहा था. एक रात मैंने सपना देखा कि मैं एक छोटे-से कपड़े के लिए एक औरत से जूझ रही हूं. कपड़ा मुलायम और नीला है. वह औरत उसे मुझसे छीन लेना चह रही है. मैं चिल्लाती हूं, ‘यह तो मेरा है, मैंने ही तो इसे बुना है.’ वह औरत थोड़ी शांत होती है और कहती है, ‘हो सकता है तुमने इसे बनाया हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम इसे अपने पास रख भी सकती हो.’ बाद में मेरी एक दोस्त मुझे समझाती है कि यह कपड़ा मेरी ज़िन्दगी का प्रतीक था.” तो, इस तरह अपनी ज़िन्दगी के लिए जूझ रही और इसी दौरान अपने प्यार में भी असफल हो चुकी कैथरीन अनायास ही सम्पर्क में आती है न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी की हिंदी प्रोफेसर, मूलत: अल्जीरिया की गैब्रियाला इलियेवा के. गैब्रियाला जब कैथरीन को हिंदी भाषा की विशेषताओं से परिचित कराती है तो वह इसकी काव्यात्मकता पर मुग्ध हो उठती है. कैथरीन कहती हैं, “इन हिंदी, यू ड्रिंक अ सिगरेट, नाइट स्प्रेड्स, यू ईट ए बीटिंग. यू ईट द सन.” और वह भारत जाकर एक साल हिंदी सीखने का फैसला कर लेती है, बावज़ूद इस बात के कि ऐसा करने के लिए कोई खास योग्यता उसके पास नहीं थी. लेकिन वह जैसे अपने कष्टपूर्ण रोग से दूर भागना चाहती थी.

जब कैथरीन अपनी कैंसर चिकित्सक को यह बताती है कि वह एक बरस के लिए भारत जा रही है तो एक बारगी तो वह भी चौंक पड़ती है. कैथरीन की दशा कोई खास अच्छी नहीं है और डॉक्टर लोग भी उसका निश्चित इलाज़ करने की बजाय प्रयोग ही कर रहे हैं, क्योंकि वे और कुछ कर पाने में समर्थ नहीं हैं. कैथरीन की स्थिति वाला शायद ही कोई मरीज़ अपने देश से दूर गया हो, लेकिन डॉक्टर और रोगी के बीच एक गहरी आत्मीय समझ विकसित हो चुकी है. कैथरीन कहती हैं, “उन्होंने मुझे इतने बरसों ज़िन्दा रखा है. अब भला वे मुझे अपनी ज़िन्दगी को जीने से कैसे रोक सकती हैं?”

और कैथरीन भारत आने को तैयार हो जाती हैं. सप्ताह में बीस घण्टे का उच्चारण, व्याकरण और फिल्म चर्चा का कार्यक्रम, और हिंदी भाषी परिवारों के साथ सहजीवन का अनुभव. कैथरीन उदयपुर आती हैं और हिंदी भाषी लोगों व परिवारों के साथ रहकर हिंदी और भारतीय जीवन पद्धति सीखती हैं.

कैथरीन एक जगह लिखती हैं, “मेरे पास अपनी ज़िन्दगी को बयान करने वाली भाषा नहीं थी. इसलिए मैंने कोई दूसरी भाषा उधार लेने का फैसला किया.” और यह करते हुए वे खुद भी बदलती गईं. कहा जाता है कि जब आप किसी पराई भाषा को अपनाते हैं तो आप खुद भी थोड़े बदल जाते हैं. कैथरीन को भी ऐसा ही लगा. उन्होंने नोट किया कि हिंदी में यह कह पाना कठिन है कि यह चीज़ मेरी है, और इस तरह उनसे अपने पराये का भाव छूटा, हिंदी में मैं की बजाय हम कहना अधिक प्रचलित है, तो कैथरीन को लगा कि जैसे वे सबसे जुड़ती जा रही हैं. इस बीच कुछेक दुर्घटनाएं भी हुईं. जैसे, कैथरीन जिस जैन परिवार के साथ रह रही थीं, उनको कैथरीन की वैवाहिक स्थिति को लेकर कुछ गलतफहमी हुई, और कैथरीन को उन लोगों का घर छोड़ना पड़ा. लेकिन इस तरह उन्होंने एक इतर भाषा को सीखते हुए उसकी संस्कृति को भी आत्मसात किया. धीरे-धीरे वे इस भाषा में इतनी निष्णात हो गईं कि न केवल हिंदी में मज़ाक करने लगीं, उन्हें सपने भी हिंदी में ही आने लगे.

कैथरीन की यह संस्मरणात्मक किताब हमें एक अलग तरह की भारत की सांस्कृतिक-ऐतिहासिक यात्रा पर ले जाती है. एक अनुभवी पत्रकार, संपादक और लेखक होने के नाते वे अपनी इस किताब को केवल अपने वर्णनों तक ही सीमित नहीं रखतीं, बल्कि यथास्थान भाषाविदों और न्यूरोलॉजिस्ट्स के साक्षात्कारों से इसे प्रामाणिक भी बनाती हैं. हमारी भाषा और संस्कृति दूसरों को कैसी दिखाई देती है, अगर यह जानने की इच्छा हो तो इस किताब को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए.


Discussed book:
Dreaming in Hindi
By Katherine Russell Rich
Published by Houghton Mifflin Co
Hardcover, 384 pages
US $ 26.00

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 09 अगस्त, 2009 को प्रकाशित.








Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा