Sunday, July 26, 2009

आने वाला समय मुफ़्त का है


2006 की बेस्ट सेलर द लोंग टैल के लेखक, वायर्ड पत्रिका के सम्पादक क्रिस एंडरसन की स्थापना है कि हमारी अर्थव्यवस्था की नियति है मुफ़्त, यानि फ्री. अपनी सद्य प्रकाशित किताब फ्री: द फ्यूचर ऑफ अ रेडिकल प्राइस के शुरू में ही वे लिखते हैं कि देर-सबेर हर कंपनी को किसी न किसी तरह यह देखना पड़ेगा कि वह अपने व्यापार के विस्तार के लिए फ्री का प्रयोग कैसे करे, या कैसे फ्री से प्रतिस्पर्धा करे. यह बात वे मुख्यत: डिजिटल अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में करते हैं, लेकिन समझा जा सकता है कि अंतत: इससे शेष अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हुए बग़ैर नहीं रहने वाली है.

डिजिटल दुनिया में आज बहुत कुछ मुफ़्त में उपलब्ध है. आप मुफ्त में अपना ई मेल खाता बनाते हैं, आप मुफ्त में फेस बुक, यू ट्यूब वगैरह का इस्तेमाल करते हैं. टेलीविज़न तो आप बहुत पहले से मुफ्त में देख ही रहे थे. एंडरसन इसे इस तरह समझाते हैं. वे कहते हैं कि तकनीक निरंतर सस्ती होती जा रही है. 1961 में जहां एक ट्रांज़िस्टर की कीमत दस डॉलर थी, आज इंटेल आपको दो बिलियन ट्रांज़िस्टर सिर्फ़ 1100 डॉलर में दे रहा है, यानि एक ट्रांज़िस्टर का मूल्य आज घट कर सिर्फ .000055 सेंट रह गया है. इसी तरह आज एक घण्टे का वीडियो कार्यक्रम एक व्यक्ति तक पहुंचाने का खर्च मात्र 0.25 डॉलर है और अगले साल तक यह घट कर 0.15 डॉलर ही रह जायेगा. कीमतों के घटने की परिणति मांग के बहुत ज़्यादा बढने में होती है और इस मुफ्त से अभाव की जगह इफरात का दौर शुरू होता है. लेकिन, यहीं से एंडरसन एक खास बात कहते हैं. वे कहते हैं कि उपभोक्ता के लिहाज़ से सस्ते और मुफ्त में बड़ा फर्क़ है. बहुत सारे उदाहरणों से वे साफ करते हैं कि कोई चीज़ चाहे कितनी ही सस्ती क्यों ना हो, वह उतने लोगों को आकृष्ट नहीं करती जितनी कोई मुफ्त चीज़ करती है. क्यों?

एंडरसन समझाते हैं कि हम सब मानसिक रूप से आलसी हैं और यही बात मुफ्त को प्रोत्साहित करती है. जब आपको किसी वस्तु का मूल्य चुकाना होता है, चाहे वह एक पैसा ही क्यों ना हो, आप सोचते हैं कि कहीं यह क़ीमत अधिक तो नहीं है. जब कोई चीज़ मुफ्त में मिलती है तो आपके दिमाग को सोचने की यह ज़हमत नहीं उठानी पड़ती और आप तुरंत उस चीज़ को ले लेने के लिए तैयार हो जाते हैं. दो प्रख्यात चाकलेटों के उदाहरण से वे इस बात को पुष्ट करते हैं. जब किसेज़ नाम की चॉकलेट 1 सेंट और ट्रफल्स नाम की चॉकलेट 15 सेंट में दी गई तो 75 प्रतिशत लोगों ने ट्रफल्स को चुना. इसके बाद एक और प्रयोग किया गया. दोनों की कीमत एक सेंट घटा दी गई. यानि किसेज़ मुफ्त में और ट्रफल्स 14 सेंट में दी गई. परिणाम चौंकाने वाले थे. 69 प्रतिशत ने किसेज़ को चुना. अब देखिए, कीमत का फर्क़ तो सिर्फ एक सेंट था, लेकिन पसंद बदल गई.

एंडरसन कहते हैं कि सारी दुनिया में पीढिगत दृष्टि से मूल्य को लेकर एक बड़ा परिवर्तन आ रहा है. 30 साल से कम उम्र के लोग अब सूचना के लिए कुछ भी खर्च नहीं करना चाहते, क्योंकि वे जानते हैं कि यह कहीं न कहीं तो मुफ़्त में मिल ही जायेगी. विचारों से निर्मित उत्पाद प्राय: मुफ्त उपलब्ध होने लगे हैं. मज़े की बात यह है कि यह मुफ़्त भी चिंताजनक नहीं है. चीन में जितने संगीत का उपभोग होता है, उसका 95% पाइरेसी से होता है. लेकिन कलाकार फिर भी खुश हैं. उन्हें प्रचार मिलता है और इससे उनके कंसर्ट और दूसरी आय में इज़ाफा होता है.

एंडरसन अपनी इस चर्चा को पत्रकारिता की दुनिया तक भी ले जाते हैं और भविष्यवाणी करते हैं बहुत जल्दी पत्रकारिता एक व्यवसाय के साथ-साथ शौक़ भी बन जाने वाली है. लोग आजीविका के लिए पत्रकारिता पर निर्भर नहीं रह पायेंगे. पत्रकारों को पेट भरने के लिए पढ़ाने या दूसरों से बेहतर लिखवाने के काम में लगना पड़ेगा. हम देख ही रहे हैं कि आज ब्लॉग़्ज़ के प्रचलन के साथ शौकिया पत्रकार व्यावसायिक पत्रकारों को कड़ी टक्कर देने लगे हैं और प्रकाशन की दुनिया पर भी भी पेशेवर लोगों का एकाधिकार नहीं रह गया है. पत्रकारों और प्रकाशकों के लिए चुनौतियां बढती जा रही है. लेकिन एंडरसन इसे पत्रकारों के लिए बुरा नहीं बताते. वे इसे उनकी मुक्ति का नाम देते हैं.

एंडरसन ने अपनी किताब का ढांचा कुल चार स्थापनाओं पर खड़ा किया है: तकनीकी(डिजिटल संरचना प्रभावी रूप से मुफ्त में उपलब्ध है), मनोवैज्ञानिक(हर उपभोक्ता मुफ्त में पाना पसंद करता है), प्रक्रियात्मक(मुफ्त के लिए आपके दिमाग को कोई तक़लीफ नहीं करनी पड़ती) और व्यावसायिक(मुफ्त की तकनीक और मनोवैज्ञानिक मुफ्त की परिणति भरपूर मुनाफे में होती है).

और अंत में यह और बताता चलूं कि एंडरसन की यह किताब इंटरनेट पर मुफ्त में पढ़ी जा सकती है.

Discussed book:
Free: The Future of a Radical Price
By Chris Anderson
Published by: Hyperion
288 pages, Hardcover
US $ 26.99

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 26 जुलाई, 2009 को प्रकाशित.








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Sunday, July 12, 2009

ईश्वर का विकास




इधर कुछ वर्षों में ईश्वर विषयक अनेक पुस्तकें आई हैं. नास्तिक लेखकों जैसे सेम हैरिस, रिचार्ड डॉकिंस, क्रिस्टोफर हिचेंस ने लगभग बेबाक शब्दों में कहा है कि अगर आप ईश्वर के प्रति अनास्थावान नहीं हैं तो आप नशेड़ी हैं. हैरिस ने तो अपने एथीस्ट मेनिफेस्टो (प्रथम प्रकाशन 2005) में साफ कहा है कि “धार्मिक मध्यमार्गियों का यह कहना कि कोई विवेकवान इंसान सिर्फ इसलिए ईश्वर में भरोसा कर सकता है कि यह भरोसा उसे सुख प्रदान करता है, बेहूदा है.” इसी क्रम में हाल ही में आई मार्क्सवादी चिंतक टेरी ईगलटन की नई किताब रीज़न, फेथ, एण्ड रिवोल्यूशन: रिफलेक्शंस ऑन द गॉड डिबेट भी बहुत चर्चा में है. लेकिन आज हम एक और किताब की चर्चा कर रहे हैं. रॉबर्ट राइट अपनी ताज़ा किताब द इवोल्यूशन ऑफ गॉड में इस बहस में नहीं उलझते है कि ईश्वर है या नहीं है. हालांकि वे ईश्वर का होना सिद्ध करने के लिए उसकी तुलना वैज्ञानिकों की दुनिया के इलेक्ट्रॉन से करते हैं और कहते हैं कि इलेक्ट्रॉन को भी तो हममें से किसी ने नहीं देखा है, लेकिन दुनिया पर पड़ने वाले उसके प्रभावों के कारण उसके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं. यही बात ईश्वर के बारे में भी है. ईश्वर के प्रभावों के रूप में वे सत्य और प्रेम का नाम लेते हैं. राइट मूलत: एक पत्रकार हैं और विकासवादी मनोविज्ञान के विशेषज्ञ हैं. उनकी पिछली किताब नॉनज़ीरो: द लॉजिक ऑफ ह्युमन डेस्टिनी बहु चर्चित रही है.

राइट इस किताब में हमें एक ऐतिहासिक यात्रा पर ले जाते हैं और यह बताते हैं कि ईश्वर की अवधारणा का विकास किस तरह हुआ है और उसमें समय के साथ क्या बदलाव आये हैं. राइट अपनी यह खोज यात्रा मानवीय विकास की यात्रा के समानांतर चलाते हैं. प्रारंभ के आखेट जीवी लोगों के लिए प्रकृति से भी बड़ी चीज़ थी आत्मा, कबीलाई ज़िन्दगी में बहुलदेव वाद आ गया और और उनके बहुत सारे देवता ज़िन्दगी के तमाम पहलुओं पर नियंत्रण करने लगे. लेकिन, राइट बताते हैं कि इनमें से अधिकतर देवता सही जीवन के आदर्श नहीं हैं. ये सनकी और क्रूर भी हैं. कालांतर में इन देवताओं की जगह देवताओं की एक आधिपत्य पूर्ण व्यवस्था ने ले ली जिसमें एक सर्वशक्तिमान ईश्वर सबका प्रभारी होने लगा, और इसके बाद एक ऐसी व्यवस्था बनी जिसमें नगर-राज्यों में सिर्फ एक ईश्वर की उपासना होने लगी, बग़ैर यह स्वीकार किए कि वही एकमात्र ईश्वर है, हालांकि उसे अन्य ईश्वरों से बेहतर ज़रूर माना जाता था.

राइट बलपूर्वक कहते हैं कि तीन प्रमुख अब्राहमी धर्मों के धर्मग्रंथ वास्तविक व्यक्तियों के द्वारा लिखे गए हैं और उनका मक़सद था आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक सुधार करना. कालांतर में जैसे-जैसे समाजों का विकास होता गया, और वे अधिक जटिल और वैश्विक होते गये, ईश्वर की अवधारणा भी बदलती गई और समाजों की उससे अपेक्षा भी अधिक नैतिक होती गई. राइट इसी बात को आगे बढाते हुए ईश्वर और धर्म की अवधारणा को इसलिए पसंद करते हैं कि इनसे हमारी ज़िन्दगी का अनुकूलन होता है, हम अच्छे और बुरे में अंतर करते हैं और जीवन के सुख दुख को सम दृष्टि से देखना सीखते हैं.
किताब का बहुलांश एकेश्वरवादी सम्प्रदायों जैसे हिब्रू, इसाई बाइबिल और क़ुरान शरीफ के इर्द- गिर्द ही है. स्वाभाविक ही है कि राइट बाइबिल का विश्लेषण अधिक विस्तार से करते हैं. भारतीय सन्दर्भ में किताब की एक बड़ी सीमा यह नज़र आती है कि यह हिन्दु और बौद्ध धर्मों को स्पर्श ही नहीं करती. और यह भी कि हमारे यहां यह स्वीकार करना मुश्क़िल लगता है कि हम सब एक सहकारी किस्म के एकेश्वरवाद की तरफ अग्रसर हो रहे हैं. बौद्ध लोग जहां अपने धर्म में किसी देवी-देवता की ज़रूरत ही महसूस नहीं करते, वहीं हिन्दु 36 करोड़ देवी देवताओं को भी कम मानते हैं. लेकिन इस सबके बावज़ूद जब राइट यह उम्मीद करते हैं कि सब कुछ के बावज़ूद दुनिया के लोग शांति से रह सकते हैं, और इसके लिए वे अब तक के बदलावों को प्रमाण के तौर पर पेश करते हैं, तो उनसे असहमत होने का मन नहीं करता.

Discussed book:
Let’s Talk About God
By Robert Wright
Published by Little, Brown and Company
Hardcover, 576 pages
US $ 25.99

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 12 जुलाई 2009 को प्रकाशित.







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