Monday, June 29, 2009

क्यों अच्छा लगता है कोई विचार?


अगर कभी आपके मन में भी यह सवाल उठा हो कि लोग क्यों और कैसे धर्म, सम्प्रदायों, विज्ञापनों, वगैरह के ग़ुलाम बन जाते हैं, तो यह किताब आपके लिए है. रिचर्ड ब्रोडी का कहना है कि यह सब दिमागी विषाणुओं (माइण्ड वाइरस) यानी मीम्स की वजह से होता है. जो लोग इस बात को समझते हैं वे इन्हें सफलतापूर्वक आपके दिमाग में घुसा देते हैं.
अपनी पिछली किताब, अंतर्राष्ट्रीय बेस्ट सेलर गेटिंग पास्ट ओ के के रचनाकार रिचर्ड ब्रोडी की एक और ख्याति यह है कि उन्हें माइक्रोसॉफ्ट वर्ड का मूल रचनाकार माना जाता है. इन्हीं रिचर्ड ब्रोडी की सद्य प्रकाशित किताब वाइरस ऑफ द माइण्ड: द न्यू साइंस ऑफ द मीम्स का सम्बन्ध विज्ञान की एक नई लेकिन विवादास्पद शाखा मीमेटिक्स से है. मीमेटिक्स असल में मनोविज्ञान, जीव विज्ञान, नृतत्वशास्त्र और संज्ञानात्मक विज्ञान की ऐसी शाखा है जो मानवीय समाज के अदृश्य किंतु यथार्थ डी एन ए का अध्ययन विश्लेषण करती है. रिचर्ड डॉकिंस, डगलस हॉफ्स्टेडटर, डैनियल डैनेट वगैरह ने विज्ञान की इस शाखा पर काफी काम किया है, लेकिन ब्रोडी इनके अध्ययन से आगे जाकर यह पड़ताल करते हैं कि इस विज्ञान का हमारी ज़िन्दगी पर क्या असर पडने वाला है. यह कुछ-कुछ उसी तरह का अध्ययन है कि आणविक भौतिकी का शीत युद्ध पर क्या प्रभाव पड़ा था? ब्रोडी का कहना है कि भले ही अणु बम ने दुनिया को बुरी तरह प्रभावित किया था, इन दिमागी विषाणुओं का असर भी उनसे कम नहीं होगा क्योंकि ये हमारी निजी ज़िन्दगी को ज़्यादा घातक तरह से प्रभावित करने वाले हैं.

यह समस्या कोई भावी समस्या नहीं है. इन विषाणुओं को फैलाने वाले अपने काम में दिन-ब-दिन अधिक सफल होते हा रहे हैं और जन संचार माध्यमों के हालिया विस्फोट और इंफर्मेशन हाइवे के विकास ने हमारी पृथ्वी को इन दिमागी विषाणुओं के पनपने की आदर्श जगह बना दिया है. ब्रोडी कहते हैं कि दिमागी विषाणु सरकारों, शिक्षा व्यवस्था और शहरों को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं और आज की अनेक समस्याएं जैसे यूथ गैंग, सरकारी स्कूलों के स्तर में गिरावट और बढती जा रही सरकारी लाल फीताशाही इसी वजह से है. सवाल यह है कि क्या मानवता एक दिमागी महामारी की तरफ बढ रही है? क्या चन्द लोग ही ऐसे होंगे जो इन विषाणुओं से अप्रभावित रहेंगे? रिचार्ड इन सब बातों पर पूरी तार्किकता से विचार करते हैं.
रिचार्ड बताते हैं कि किसी भी मानसिक विषाणु की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसमें कितनी संक्रमण क्षमता है, और विषाणु की इस क्षमता का उसकी उपादेयता या किसी अन्य मूल्य बोध से कोई लेना-देना नहीं होता. असल में तमाम मानसिक विषाणु मानव मस्तिष्क के एक अंतर्निर्मित तंत्र का इस्तेमाल करते हैं और इस तंत्र का सम्बन्ध होता है मनुष्य की चार मूल भावनाओं से: भय, लड़ाई, भोजन और साथी की तलाश. जो भी विषाणु इन या इनमें से किसी या किन्हीं भावनाओं के अनुकूल होता है वह ज़्यादा तेज़ी से संक्रमित होता है. समझा जा सकता है कि सारे धर्म, विज्ञान, कला, कानून, विधिक संस्थाएं, विज्ञापन, खतरे की आकांक्षाएं, अपराध और यौनाकांक्षा, यहां तक कि नारीवाद और पुरुषवाद- ये सब मानसिक विषाणु ही हैं. इस बात को और इस तरह समझें कि मनुष्य की आधारभूत रोटी, कपड़ा और मकान की ज़रूरत से आगे जो भी है वह मानसिक विषाणु ही है.

रिचार्ड एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात यह कहते हैं कि ये विषाणु लगातार प्रजनन करते और बढते रहते हैं, बगैर इस बात की परवाह किए कि उनसे मनुष्य को लाभ हो रहा है या हानि. यानि, मानसिक विषाणु सदा ही समूह के लिए काम करते हैं, व्यक्ति के लिए नहीं.

ब्रोडी की यह किताब एक दुधारी तलवार है. आप इसको पढकर अपने दिमाग को विषाणुओं से बचा सकते हैं, तो जिनका कोई स्वार्थ निहित है, वे इसी किताब को पढकर आपके दिमाग के लिए नए विषाणुओं के हमले की योजना भी बना सकते हैं.

Discussed book:
Virus of the Mind: The New Science of the Meme
By Richard Brodie
Publisher: Hay House
Hardcover, Pages 288
US $ 24.95

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम 'किताबों की दुनिया' के अंतर्गत रविवार, 28 जून, 2009 को प्रकाशित.









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Sunday, June 14, 2009

गेब्रियल गार्सिया मार्ख़ेस की जीवनी


साहित्यानुरागियों के लिए गेब्रियल गार्सिया मार्ख़ेस (जन्म 1928) का नाम अनजाना नहीं है. बीसवीं शताब्दी के तीन महानतम उपन्यासों ‘वन हण्ड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’, ‘द ऑटम ऑफ पैट्रियार्क’ और ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा’ का यह रचियता अपने लातिन अमरीका के सार्वजनिक जीवन में भी सक्रिय रहा है और राष्ट्रपतियों तथा तानाशाहों से उनकी अंतरंगता, विशेष रूप से फिडेल कास्त्रो से उनकी निकटता, वाम राजनीति में उनकी सक्रिय भागीदारी और फिल्म निर्माण और उनकी पत्रकारिता पर भी निरंतर चर्चा होती रही है. मार्खेज़ को 1982 में साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका है. अपने देश में तो मार्ख़ेस को एक सुपरस्टार का दर्ज़ा प्राप्त है ही, अमरीका जैसे उन देशों में भी उनको खूब पढ़ा और सराहा जाता है जिनकी आलोचना मार्ख़ेस के साहित्य में खूब है. उनको अपनी धरती का मार्क ट्वेन, देश का प्रतीक और राष्ट्रीय हास्य बोध का परिभाषक भी कहा जाता है. हिन्दी पाठकों ने जादुई यथार्थवाद के सन्दर्भ में भी उनको जाना है.
हाल ही में लातिन अमरीकी साहित्य के विशेषज्ञ, ब्रिटिश विद्वान गेराल्ड मार्टिन रचित इसी महान रचनाकार की जीवनी गेब्रियल गार्सिया मार्ख़ेस: अ लाइफ शीर्षक से प्रकाशित हुई है. इस जीवनी का महत्व इसी बात से समझा जा सकता है कि जब 2006 में उनसे उनके अतीत के बारे में कुछ पूछा गया तो मार्ख़ेस ने कहा था कि इस तरह की बातों के लिए तो आपको मेरे ऑफिशियल जीवनीकार गेराल्ड मार्टिन से ही पूछना चाहिये. खुद मार्ख़ेस ने कभी कहा था कि हरेक शख़्स की तीन ज़िन्दगियां होती हैं: एक सार्वजनिक ज़िन्दगी, एक निजी ज़िन्दगी और एक गोपनीय ज़िन्दगी. अब यह तो पाठक ही तै करेंगे कि मार्टिन 17 वर्षों की शोध और लगभग 300 इण्टरव्यू करने के बाद अपने नायक मार्ख़ेस की इन तीनों ज़िन्दगियों की उलझनों को किस हद तक सुलझा पाये हैं. यह उलझन इसलिए और बढ़ जाती है कि खुद मार्ख़ेस ने 2001 में प्रकाशित अपनी संस्मरण कृति ‘लिविंग टू टेल द ट्रुथ’ में और अन्यत्र अपने बारे में काफी कुछ ऐसा लिखा-कहा है जिसे अर्ध सत्य या किंवदंती की श्रेणी में रखा जा सकता है. वैसे, यहां यह बता देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि मार्टिन मार्ख़ेस की ज़िन्दगी पर एक और वृहद किताब तैयार कर रहे हैं जिसके 2000 पृष्ट और 6000 पाद टिप्पणियां तो अभी तैयार हैं.

1965 में रचित और 1966 में प्रकाशित ‘वन हण्ड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ मार्ख़ेस का चौथा उपन्यास (और पांचवीं किताब) है. इससे पहले ‘लीफ स्टोर्म’ (1955), ‘नो वन राइट्स टू द कर्नल’ (1961) और ‘इन इविल आवर’ (1962) उनके परिचित साहित्यिक समुदाय के बाहर कम ही पढ़े गए और इनके अंग्रेज़ी अनुवाद भी सॉलिट्यूड की ख्याति के बाद ही हो पाये. वैसे, इस जीवनी से ज्ञात होता है कि मार्ख़ेस ने सॉलिट्यूड पर 1940 में ही काम करना शुरू कर दिया था. इसे मार्ख़ेस की साहित्यिक महानता के रूप में रेखांकित किया जाता है कि सॉलिट्यूड के आठ बरस बाद वे ‘द ऑटम ऑफ द पैट्रियार्क’ के रूप में एक और मास्टरपीस दे पाये. मर्टिन ने ठीक ही कहा है कि पैट्रियार्क एक लातिन अमरीकी किताब है, न कि कोलम्बिया के बारे में है. इस किताब में सत्ता विमर्श के प्रति मार्ख़ेस का ज़बर्दस्त रुझान साफ देखा जा सकता है. पैट्रियार्क के एक दशक बाद आया उनका तीसरा महान उपन्यास ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा’. इन के अतिरिक्त भी मार्ख़ेस की कई किताबें प्रकाशित होती रही हैं.

खुद मार्ख़ेस का जीवन जैसा है, उसे देखते हुए यह उचित ही है कि जीवनीकार मार्टिन ने खुद को तथ्यों तक सीमित रखा है. मार्ख़ेस के बाल्यकाल के बारे में तो पहले भी काफी कुछ लिखा जा चुका है, इसलिए मार्टिन के पास नया कुछ बताने का अधिक स्कोप नहीं था, लेकिन उन्होंने एक महत्वपूर्ण काम यह किया है कि उनके बाल्यकाल और शेष जीवन को उनके रचनाकर्म के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है. मार्ख़ेस का बचपन उनके नाना निकोलस मार्ख़ेस मेज़िया के सान्निध्य में बीता था, वे नौ वर्ष की उम्र तक अपने नाना के पास ही रहे. नाना एक समृद्ध जौहरी थे और उन्होंने कोलम्बिया के विख्यात विनाशक एक हज़ार दिनों तक चले गृह युद्ध में भाग लिया था और उन्हें कर्नल की उपाधि प्रदान की गई थी. मार्टिन उस काल को इस महान कथाकार के साहित्य में चिह्नित करते हैं. इस जीवनी से हमें ज्ञात होता है कि सॉलिट्यूड और जादुई यथार्थवाद की जड़ें मार्ख़ेस के अराकटाका में बीते बचपन की घटनाओं में हैं. उपन्यास का काल्पनिक कस्बा मकोण्डो वहीं निकट के एक केले के बगीचे वाली जगह का रूपांतरण है और उपन्यास का विख्यात नरसंहार 1928 के एक वास्तविक नरसंहार का पुनर्सृजन है. मार्ख़ेस के जादुई यथार्थवाद की जड़ें उनकी नानी ट्रैंक्वेलिना में बी देखी जा सकती हैं जो खुद एक अन्ध विश्वासी औरत थी और अपनी दिनचर्या आंधी तूफान, तितलियां, सपने, गुज़रती हुई शव यात्राओं जैसे वातावरणीय संकेतों के आधार पर संचालित करती थी. तो इस तरह मार्ख़ेस पर उनके नाना और नानी के परस्पर भिन्न व्यक्तित्वों की गहरी छाप पड़ी. मार्टिन ने मार्ख़ेस के उनके पिता से तनावपूर्ण रिश्तों, 13 वर्ष की अल्प वय में उनके वेश्या गमन, 9 साल की मर्सीडीज़ से उनके 10 बरस लम्बे प्रणय प्रसंग वगैरह का रोचक और रंगारंग वृत्तांत प्रस्तुत किया है. उनके जीवन में आने वाली कई स्त्रियों से भी वे हमें परिचित कराते हैं. मार्टिन यह भी बताते हैं कि उम्र के दूसरे दशक के उत्तरार्ध में जब मार्ख़ेस पेरिस में थे, वे स्पैनिश एक्ट्रेस टैकिया क़्विंटाना के प्रेम में पागल हो उठे थे. इस प्रणय प्रसंग को मार्टिन ने मार्ख़ेस की कृति ‘नो वन राइट्स टू द कर्नल’ में ढूंढ निकाला है. मार्टिन ने अपने नायक के पत्रकारिता जीवन का भी विस्तृत ब्यौरा दिया है.

बावज़ूद इस बात के कि मार्ख़ेस ने उन्हें अपना आधिकारिक जीवनीकार कहा है, मार्टिन मार्ख़ेस के जीवन की बहुत सारे कोनों को प्रकाशित नहीं भी कर पाये हैं. मसलन जब मार्टिन इस पेरिस वाले प्रेम प्रसंग के बारे में मार्ख़ेस से जानना चाहते हैं तो वे कुछ भी बताने से इंकार कर देते हैं. तब मार्टिन अपने स्तर पर उस 82 वर्षीय महिला को तलाशते हैं और उससे इण्टरव्यू करके सेक्स प्रेम, और तीनों तरह की ज़िन्दगियों के बारे में मार्ख़ेस के सोच को उभारने का प्रयास करते हैं. यह एक उदाहरण है. मार्टिन का प्रयास निश्चय ही अपने समय के इस बड़े कथाकार को समझने में सहायक सिद्ध होगा.
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Discussed book:
Gabriel Garcia Màrquez: A Life
By Gerald Martin
Alfred A. Knopf,
642 pages, Illustrated
US $ 37.50

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित मेरे पक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 14 जून, 2009 को प्रकाशित आलेख का असंक्षिप्त रूप.








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