Monday, December 7, 2009

टेढ़ी नज़र वाला अर्थशास्त्र


सन 2005 में प्रकाशित एक छोटी-सी किताब फ्रीकोनोमिक्स ने अर्थशास्त्र और दुनिया के प्रति लोगों का नज़रिया बदलने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की. न्यूयॉर्क टाइम्स की बेस्ट सेलर सूची में रही स्टीवेन डी. लेविट्ट और स्टीफ़ेन जे. ड्युबनेर कृत इस किताब की दुनिया की 35 भाषाओं में 40 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं. और अब हाल ही में इस जोड़ी की नई किताब आई है सुपर फ्रीकोनोमिक्स. किताब का शीर्षक ही संकेत कर देता है कि यह पिछली किताब के विचार को ही आगे बढ़ाने का उपक्रम है. चार साल की मेहनत से तैयार यह किताब पहले वाली किताब से अधिक साहसिक, अधिक मज़ेदार और अधिक चौंकाने वाली है.

2005 से अब तक दुनिया के आर्थिक परिदृश में क्रांतिकारी बदलाव हुए हैं और वर्तमान आर्थिक संकट के दौर में तो अर्थशास्त्रियों की उपादेयता तक पर सवाल उठाये जाने लगे हैं. तो क्या इस अर्थशास्त्री जोड़ी के पास है कोई समाधान वर्तमान आर्थिक संकट से उबरने का? लेखक द्वय तो कहते हैं कि उन्हें हमारे आर्थिक संकटमोचक होने की कोई ग़लतफहमी नहीं है. वे यह भी कहते हैं कि इस किताब में वर्तमान आर्थिक संकट, ऋण संकट, सी ई ओ की तनख्वाहों या हेल्थकेयर सुधारों के बारे में कोई समाधान नहीं दिए गए हैं. तो फिर? क्यों पढ़ी जाए यह किताब? असल में किताब की उपादेयता एक व्यापक संदर्भ में है.

लेखक स्टीवेन कहते हैं कि हम खुद अपनी स्थितियों को आधारभूत आर्थिक तत्वों के साथ रखकर देख पाने में असफल रहते हैं. वे तीन बड़े सुझाव देते हैं. एक: हमें वैयक्तिक बढ़ावा देने वाले कारणों (इनसेंटिव्ज़) को और इस बात को समझना चाहिए कि वे किस तरह हमारे व्यवहार को प्रभावित करते हैं, दो: हमें बाज़ार के व्यवहार को समझना चाहिए और इस बात को भी समझना चाहिए कि किस तरह सरकारी नीतियों और सामाजिक संस्कृति में आए बदलाव हमारे वैयक्तिक बढ़ावा देने वाले कारकों को प्रभावित करते हैं, और तीन: आंकड़ों और उनके सूझबूझपूर्ण विश्लेषण के बग़ैर बहुत कम समझा जा सकता है. किताब का मूल मंत्र यह है कि नीतियों द्वारा रचे गए वैयक्तिक बढ़ावा देने वाले कारकों की समुचित समझ के बिना अनपेक्षित परिणामों का नियम (लॉ ऑफ अनइनटेण्डेड कॉंसिक्वेंसेस) तमाम सुधारों का सत्यानाश कर सकता है.
इन महत्वपूर्ण आर्थिक बातों के साथ ही यह किताब इर्द-गिर्द की बहुत सारी बातों की भी दिलचस्प चर्चा करती है.

लेखकगण अच्छे और बुरे की अवधारणाओं पर विचार करते हुए बताते हैं कि जो टेलीविज़न भारत में स्त्रियों की दशा में सुधार लाने के कारण अच्छा सिद्ध हुआ है वही टी वी अमरीका में संपत्ति विषयक और हिंसक अपराधों को बढावा देने वाला साबित हो रहा है. स्टीवेन मानते हैं कि भारत में टीवी देखने वाली महिलाएं घरेलू हिंसा का प्रतिरोध करने लगी हैं, उनका नर संतान के प्रति मोह घटा है और वे अधिक निजी स्वायत्तता का प्रयोग करने लगी हैं. लोगों के संबंध में इस अच्छे और बुरे की अवधारणा पर विचार करते हुए वे कहते हैं कि लोग न अच्छे होते हैं न बुरे. वे तो बढावा देने वाले कारकों की तरफ आकृष्ट होते हैं और इसका इस्तेमाल अच्छी या बुरी किसी भी तरह किया जा सकता है. अपनी बात की पुष्टि में वे ईरान का उदाहरण देते हैं जहां इंसेंटिव का इस्तेमाल करके किडनी डोनर्स की संख्या बढाई गई है. इसका उलट उदाहरण भी इस किताब में है. डॉक्टर लोग जानते हैं कि कीमोथैरेपी जान बचाने में कारगर साबित नहीं होती है, फिर भी आर्थिक लाभ के लालच में वे इसका भरपूर इस्तेमाल करते हैं.

इस लेखक जोड़ी की ख्याति अर्थशास्त्र जैसे नीरस विषय को दिलचस्प बनाकर पेश करने के लिए है. इस मामले में ये लोग इस किताब में भी निराश नहीं करते. वेश्यावृत्ति, आतंकवाद और किन्हीं भी दो या अधिक असम्बद्ध प्रतीत होने वाली चीज़ों की अंतरनिर्भरता का विश्लेषण इस किताब को रोचक और विचारोत्तेजक बनाता है. अगर आप किसी एक किताब में आतंकवादी को पकड़ने का सबसे अच्छा तरीका क्या है, आंधी, हार्ट अटैक और हाइवे पर होने वाली दुर्घटना मौतों में समान बात क्या है, मनुष्य मूलभूत रूप से स्वार्थी होता है या परमार्थी, जैसी अजीबोगरीब बातों के माध्यम से कुछ आधारभूत महत्व के सिद्धांतो तक पहुंचना पसंद करते हों, तो यह किताब आपको ज़रूर अच्छी लगेगी.
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Discussed book:
Super Freakonomics: Global Cooling, Patriotic Prostitutes, and Why Suicide Bombers Should Buy Life Insurance
By Steven D. Levitt, Stephen J. Dubner
Published by William Morrow
Hardcover 288 Pages
US $ 29.99

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 13 दिसंबर, 2009 को प्रकाशित.








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Thursday, November 5, 2009

व्यथा-कथा आधे आकाश की


पुलित्ज़र पुरस्कार जीतने वाले पहले विवाहित दम्पती निकोलस डी क्रिस्टोफ और शेरिल वुडन ने अफ़्रीका और एशिया की सघन यात्राओं के बाद लिखी इस किताब में बताया है कि कैसे एक छोटी-सी सहायता भी पद दलित, पीड़ित बच्चियों और स्त्रियों की ज़िंदगी में महत्वपूर्ण बदलाव ला सकती है. इस दंपती को पत्रकारिता की दुनिया का यह बड़ा पुरस्कार न्यूयॉर्क टाइम्स के संवाददाता के रूप में इनकी चीन की कवरेज के लिए मिला था. बाद में क्रिस्टोफ को एक और पुलित्ज़र उनके कॉलम्स के लिए भी मिला.

इनकी सद्य प्रकाशित किताब हाफ़ द स्काई: टर्निंग ओप्परेसन इंटु अपोर्चुनिटी फॉर वुमन वर्ल्डवाइड विकाशशील देशों में लड़कियों और औरतों के दमन के रूप में विद्यमान हमारे समय के सबसे ज़्यादा मारक मानवाधिकार हनन के बारे में है. विवाह के बाद यह जोड़ी चीन चली गई थी और वहां जाने के सात महीने बाद ही इन्होंने खुद को थियानमेन स्क्वेयर नर संहार का साक्षी पाया. इससे अगले बरस इन्हें एक शोधपरक अध्ययन की मार्फत और भी बड़े मानवाधिकार हनन का पता चला. चीन में जहां चार से आठ सौ लोगों ने ही अपनी जान गंवाई थी, इस अध्ययन से इन्हें पता चला कि अकेले चीन में ही हर साल कम से कम 39,000 कन्याएं इसलिए काल का ग्रास बन जाती हैं कि उन्हें वह चिकित्सा सुविधा नहीं मिलती है जो लड़कों को मिलती है. एक चीनी पर्रिवार नियोजन अधिकारी ने इन्हें बताया, “अगर कोई लड़का बीमार पड़ता है तो उसके मां-बाप उसे तुरंत अस्पताल ले जाते हैं, लेकिन अगर कोई लड़की बीमार पड़ती है तो मां-बाप सोचते हैं कि देख लेते हैं अगले दिन इसकी तबियत कैसी रहती है.”

दुर्भाग्य की बात यह कि इन बेचारी चीनी लड़कियों को संचार माध्यमों में कोई उल्लेख तक नसीब नहीं होता. इस दंपती को तभी महसूस हुआ कि पत्रकारिता की दुनिया की प्राथमिकताएं कितनी विकृत हैं! और इसी बात से शुरू हुई उनकी खोज यात्रा. लेखक दंपती बहुत व्यथा के साथ कहते हैं कि अगर चीन में कोई महत्वपूर्ण विरोधी नेता गिरफ्तार भी कर लिया जाता है तो हम तुरंत एक फ्रण्ट पेज आर्टिकल लिख मारते हैं, लेकिन जब एक लाख लड़कियां अपहरण कर चकलों तक पहुंचा दी जाती हैं तो हमें लगता ही नहीं कि यह भी कोई खबर है. ऐसा शायद इसलिए भी होता है कि हम पत्रकारों का ध्यान किसी एक दिन की घटना पर तो चला जाता है लेकिन रोज़ घटने वाली घटनाएं हमें विचलित नहीं करती हैं. और ऐसा पत्रकारों के साथ ही नहीं होता. सरकारों का भी यही हाल है. अमरीका जो विदेशी सहायता देता है, उसका बमुश्क़िल 1 प्रतिशत स्त्रियों और लड़कियों के लिए होता है.

इन्हें महसूस हुआ कि कि कमोबेश दूसरे देशों में, ख़ास तौर पर दक्षिण एशियाई और मुस्लिम देशों में, भी हालात ऐसे ही हैं. इन्होंने पाया कि भारत में हर दो घण्टे में एक स्त्री कम दहेज लाने के ‘अपराध’ में या इस आस में कि उसके बाद दूसरी बहू लाई जा सकेगी, जला दी जाती है. पिछले नौ बरसों में इस्लामाबाद और रावलपिंडी में कम से कम पांच हज़ार लड़कियां और औरतें तथाकथित अवज्ञा के ज़ुर्म में केरोसिन या तेजाब से जला दी गईं.

इस किताब का महत्व इस बात में है कि यह हमें हताश-निराश-उदास नहीं छोड़ती. किताब में ऐसी अनेक स्त्रियों के वृत्तांत हैं जो तमाम अंधेरों के बीच उजाले की किरण की मानिंद चमकते हैं. अब इस पाकिस्तानी युवती को ही लीजिए जो एक ऊंची जाति के मर्द के बलात्कार की शिकार हुई. गांव में रिवाज़ तो यह था कि ऐसी युवतियां घर जाकर जान दे दिया करती थीं. लेकिन इसने न्याय की गुहार लगाई, इसकी आवाज़ तत्कालीन राष्ट्रपति मुशर्रफ तक पहुंची और उन्होंने इसे मुआवज़े के रूप में 8300 डॉलर भिजवाये. इस लड़की ने इस राशि से एक स्कूल खोल लिया. इसी तरह की कहानी है इथियोपिया की एक लड़की की जो अपने पहले प्रसव के दौरान फिस्चुला से ग्रस्त हो जाती है. वह एक अस्पताल में जाकर जैसे-तैसे अपना इलाज करवाती है, और वहीं शल्य चिकित्सक की सहायिका बन जाती है, और खुद फिस्चुला का ऑपरेशन करना सीख लेती है. इसमें वह इतनी निपुण हो जाती है कि अब प्रख्यात शल्य चिकित्सक भी उससे इस काम की बारीकियां सीखने आते हैं. या उस कंबोडियाई लड़की को लीजिए जो जैसे-तैसे एक वेश्यागृह से भाग निकली और फिर एक सहायता समूह की मदद से शुरू किए गए छोटे-से व्यापार का विस्तार कर अब अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही है. या फिर ज़िम्बाब्वे की पांच बच्चों की वह मां जो किसी की प्रेरणा से स्कूल गई और अब न केवल पी-एच डी कर चुकी है, एड्स की विशेषज्ञा के रूप में भी सुपरिचित है.

लेखक दंपती की दिलचस्पी सरकारों और संस्थानों के बड़े कामों को उजागर करने की बजाय व्यक्तियों के कामों पर ध्यान केन्द्रित करने में अधिक रही है. इनको उन्होंने सामाजिक उद्यमी की संज्ञा दी है. संस्थानों को तो इन्होंने आड़े हाथों ही लिया है. अमरीकी फेमिनिस्टों की इन्होंने यह कहकर आलोचना की है कि उनकी दिलचस्पी विकासशील देशों की स्त्रियों की दशा सुधारने की बजाय टाइटल नाइन जैसे स्पोर्ट्स कार्यक्रमों के आयोजन में रहती है. बड़े समूहों पर उनकी यह टिप्पणी भी गौर तलब है कि एक तरफ तो रूढ़िवादी ईसाई हैं जो गर्भ निरोध को रोकने में जी-जान से जुटे हैं तो दूसरी तरफ सेक्युलर अभिजन हैं जो इसके प्रचार में जी-जान से जुटे हैं.

लेखक द्वय का स्पष्ट मत है कि स्त्रियों की क्षमता को मुक्त करके ही आर्थिक विकास की राह पर बढ़ा जा सकता है. अपनी बात की पुष्टि में वे चीन का उदाहरण देते हैं कि किस तरह उसने अपने देश की स्त्रियों को बंधन मुक्त किया, और उन्हें देश की मुख्य अर्थ-धारा में लाकर खुद को समृद्ध किया. किताब पाठक को उत्साहित करके ही खत्म नहीं हो जाती, यह हमारे उत्साह को एक दिशा भी देने की चेष्टा करती है. यह छोटे अस्पतालों, स्कूलों और सहायता संस्थानों की एक सूची भी देती है जहां हम अपना योगदान कर सकते हैं या जहां ज़रूरतमंदों को भेज सकते हैं.

Discussed book:
Half the Sky: Turning Oppression into Opportunity for Women Worldwide
By Nicholas D. Kristof & Sheryl WuDunn
Published by Knopf.
Hardcover, 294 pages
US $ 27.95

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 01 नवंबर, 2009 को प्रकाशित.








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Thursday, October 22, 2009

एक गायिका की ज़िन्दगी के बहाने भारतीय शास्त्रीय संगीत का वृत्तांत


टाइम्स ऑफ इण्डिया की पत्रकार नमिता देवीदयाल की पहली किताब द म्यूज़िक रूम: अ मेमोयर एक तरह से शिष्या की क़लम से लिखी अपने गुरु की जीवनी है. नमिता लगभग 20 वर्ष तक जयपुर घराने की सुविख्यात गायिका ढोंढुताई कुलकर्णी की शिष्या रही थीं. लेकिन असल में तो यह किताब ढोंढुताई के बहाने से भारतीय शास्त्रीय संगीत की ही जीवनी है. नमिता की यह किताब 1920 के दशक के मुंबई से शुरू होती है जब उनकी मां उन्हें भावी गुरु ढोंढुताई से मिलाने ले जाती हैं. नमिता तब महज़ 10-11 बरस की थीं. तभी हमारा पहला परिचय उस्ताद अल्लादिया खां साहब और केसरबाई केरकर से भी होता है जिनकी तस्वीरें ढोंढुताई के घर की दीवार पर लगी हैं. नमिता कहती हैं कि जैसे ही वे अपनी गुरु से मिलीं उन्हें एक नई दुनिया ही मिल गई. और नमिता की यह किताब भारतीय शास्त्रीय संगीत की दुनिया की एक अलग और अंतरंग छवि से हमारा साक्षात्कार कराती है.

शास्त्रीय संगीत सीखने से भी ज़्यादा नमिता की दिलचस्पी ढोंढुताई से बतियाने में रहती. जैसे जैसे किताब आगे बढती है, घटनाएं और प्रसंग एक-एक करके खुलते हैं. नमिता कहती हैं, “इन लोगों की ज़िन्दगी के बारे में अचरज की बात यह है कि हक़ीक़त किस्सों से भी ज़्यादा चौंकाने वाली है. अल्लादिया खां साहब की कथा, और यह बात कि उन्होंने किस तरह एक हिंदू ब्राह्मण लड़की ढोंढुताई को अंगीकार किया, बेहद मार्मिक है. विडम्बना की बात यह कि खां साहब के संगीत की विरासत को ग्रहण करने के लिए ताई को उनके खानदान से बाहर जन्म लेना पड़ा क्योंकि खान साहब के परिवार में तो औरतों को गाने बजाने की इजाज़त थी नहीं.” इसी तरह केसरबाई की विलक्षण कथा ज़ाहिर करती है कि गाने वाली औरतों के प्रति दोगले व्यवहार से लबरेज़ समाज में ऐसी किसी औरत को जगह बनाने के लिए कितना कड़ा संघर्ष करना पड़ता था. और ये वे लोग थे जिन्होंने भारतीय संगीत की एक खास शैली की नींव रखी थी. दुर्भाग्य की बात यह भी है कि खान साहब की या केसरबाई की कोई रिकॉर्डिंग भी उपलब्ध नहीं है. खान साहब तो उस ज़माने के गायक थे जब आधुनिक रिकॉर्डिंग तकनीक प्रचलन में ही नहीं आई थी, जबकि केसरबाई किसी को रिकॉर्ड ही नहीं करने देती थीं. उनका खयाल था कि उनका संगीत इतना सस्ता नहीं है कि उसकी एल पी संगीत की दुकानों में कुछ रुपयों में बेची जाने लगें.

किताब में अल्लादिया खां साहब और केसरबाई के बारे में अनेक मार्मिक प्रसंग हैं. खां साहब सदा आर्थिक अभावों से जूझते रहे तो केसरबाई महारानी की-सी ज़िन्दगी जीती थीं. नमिता लिखती हैं, “अल्लादिया खां चैन से नहीं मर पाए. उनको सबसे बड़ा अफ़सोस तो इस बात का था कि उनके बच्चे उनके संगीत की विरासत को पूरी तरह से ग्रहण नहीं कर सके. उनकी शव यात्रा में महज़ 10-12 लोग थे.” केसरबाई के लिए नमिता लिखती हैं कि एक कंसर्ट के बाद उनकी आवाज़ जाती रही थी और जब संगीत ने उनकी ज़िन्दगी को छोड़ दिया तो सेहत भी उनका साथ छोड़ने लगी. उनके निधन से कुछ महीने पहले जब नमिता उनसे मिली तो उन्हें लगा कि ताई अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं. वह स्त्री जो सदा बेहतरीन शिफॉन और सिल्क में सजी धजी नज़र आती थी, उस समय एक पतली-सी सूती साड़ी लपेटे थी.

अपनी गुरु के साथ अपने रिश्तों का वर्णन करते हुए नमिता कहती हैं, “संगीत ही एकमात्र ऐसी भाषा है जो सारी दीवारों के पार जा पाती है. मेरे खयाल से यह संगीत ही था जिसके कारण अविश्वसनीय रूप से अलग-अलग स्पेस में रहने वाले हम दोनों एक दूसरे से इतने वर्षों तक जुड़े रह सके. जब मैं ढोंढुताई के साथ होती हूं तो जैसे एक मंदिर के भीतर होती हूं. ...... मेरे खयाल से मैंने ढोंढुताई से यह सीखा है कि बिना पुरस्कार की परवाह किए किसी लक्ष्य के प्रति निर्भीक रूप से और बिना किसी शर्त के कैसे समर्पित हुआ जाए.”

नमिता भारतीय संगीत परंपरा के भविष्य के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त हैं. वे कहती हैं कि “भारतीय परंपरा कभी खत्म नहीं होगी. हो सकता है कि यह बदलते श्रोताओं और उनकी रुचियों के अनुरूप खुद को किंचित बदल ले, और यह अच्छा भी है क्योंकि परंपरा और संस्कृति कभी जड़ हो भी नहीं सकते. असल में तो ऐसा तभी होता है जब वे मरते हैं.”
किताब की एक विशेषता यह है कि लेखिका ने अपने बारे में बात करने में बहुत संयम बरता है. अपनी ज़िन्दगी की घटनाओं की उन्होंने मात्र सूचना दी है. इसी तरह वे अपनी गुरु के जीवन की घटनाओं को सिलसिलेवार पेश नहीं करतीं, बल्कि अतीत और वर्तमान के बीच सहज रूप से आवाजाही करती रहती हैं और उसी के बीच अपनी बात कहने का भी अवकाश निकाल लेती हैं.

नमिता देवीदयाल की इस किताब को भारत का सर्वाधिक प्रतिष्ठित पुस्तक सम्मान वोडाफोन क्रॉसवर्ड पॉप्युलर बुक अवार्ड मिल चुका है और पण्डित रविशंकर ने कहा है कि यह किताब हर संगीतकार और संगीत प्रेमी के लिए ज़रूरी है.


Discussed book:
The Music Room
By Namita Devidayal
Random House Publishers India Pvt Lts.,
301-A, World Trade Tower, Barakhamba lane,
New Delhi-110001.
316Pages, Hardcover.
Rs 395.00

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय संस्करण में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 11 अक्टोबर, 2009 को प्रकाशित.









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Sunday, September 13, 2009

माइकल जैक्सन की ज़िन्दगी के आखिरी बरस


खोजी पत्रकारिता के लिए विख्यात और फायर एण्ड रेन: द जेम्स टेलर स्टोरी और सेलिन डियोन: बिहाइण्ड द फेयरी टेल जैसी बेस्ट सेलर्स के लेखक इयान हाल्पेरिन, जिन्होंने दिसम्बर 2008 के आखिरी दिनों में यह कह कर दुनिया को चौंका दिया था कि माइकल जैक्सन के पास सिर्फ छह महीने की ज़िन्दगी शेष है, अब अपनी सद्य प्रकाशित किताब अनमास्क्ड: द फाइनल ईयर्स ऑफ माइकल जैक्सन में पॉप संगीत की दुनिया के इस दिवंगत शहंशाह के बारे में कई सनसनीखेज जानकारियां लेकर आए हैं. हाल्पेरिन के खाते में नौ सनसनीखेज रहस्योद्घाटन अंकित हैं. इस किताब में उन्होंने माइकल की ज़िन्दगी के शुरू के 35 बरसों को क़तई न छूते हुए, उनकी ज़िन्दगी के आखिरी 15 बरसों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया है.

कहा जाने लगा है कि माइकल लालच के शिकार हुए हैं. उनके दोस्तों और सहकर्मियों ने उनकी ज़िन्दगी के आखिरी दिनों की जो छवि पेश की है वह व्यथित कर देने वाली है. माइकल अपने आखिरी दिनों में जुलाई 2009 में लंदन में होने वाली कंसर्ट श्रंखला की तैयारियों में जुटे थे. ज़ाहिर है कि इन कंसर्टों से माइकल और उनके सहयोगियों को अकूत धनराशि मिलती, लेकिन माइकल न तो शारीरिक रूप से और न मानसिक रूप से इन कंसर्टों के लिए तैयार थे. इस बात को वे और उनके साथी भली भांति जानते थे. जिनसे भी उन्हें देखा वह उनके कॉस्ट्यूम्स और मेक अप के पीछे भी यह देख पाने में नहीं चूका कि लंदन कंसर्ट एक पागलपन के सिवा और कुछ नहीं है. न्यूयॉर्क टाइम्स के इस लेखक ने पागलपन भरे उन दिनों के बीच से ही माइकल को जानने की कोशिश की है.

माइकल के साथ अनेक प्रवाद जुड़े हुए थे. इयान बताते हैं कि माइकल रात को लड़कियों के कपड़े पहन कर सोया करता था और स्कर्ट और टॉप पहन कर अपने बॉय फ्रैण्ड्स से मिला करता था. किताब यह भी बताती है कि उसके दो मुख्य बॉय फ्रैण्ड थे. संकेत यह कि वे गे थे, हालांकि इस संकेत को पर्याप्त प्रमाणों से पुष्ट नहीं किया गया है. माइकल को उनके होटल के कमरे में उनके एक बॉय फ्रैण्ड लॉरेंस के साथ देखा गया था. लॉरेंस हॉलीवुड के एक स्ट्रगलर थे. खुद लॉरेंस ने भी यह बात कबूल की है कि वे जैक्सन के गे पार्टनर थे. माइकल के दूसरे गे पार्टनर एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम किया करते थे. किताब में उनका नाम उजागर नहीं किया गया है. वैसे, यहीं यह बता देना भी ज़रूरी होगा कि खुद माइकल ताज़िन्दगी अपने गे होने को नकारते रहे हैं.

1993 और 2004 में माइकल पर लगे चाइल्ड मोलेस्टेशन के आरोपों से हम सब वाक़िफ हैं. पहले मामले को माइकल ने बड़ी धन राशि देकर खत्म किया तो दूसरे मामले में अदालत ने उन्हें बरी किया. हाल्पेरिन बलपूर्वक कहते हैं कि ये आरोप बे बुनियाद हैं. वे बताते हैं कि पहले मामले में तो माइकल अपनी बेगुनाही सिद्ध करना चहते थे लेकिन उनकी इंश्योरेंस कम्पनी ने उन्हें ले-देकर मामले को रफा दफा करने को बाध्य किया. दूसरे मामले का बहुत विस्तृत वर्णन लेखक ने किया है कि किस तरह माइकल को अदालत में रुसवा होना पड़ा. माइकल की ज़िन्दगी में रुचि रखने वालों के लिए ये अध्याय बहुत दिलचस्प साबित होंगे.

हाल्पेरिन यह भी बताते हैं कि उनके नेवरलैण्ड रैंच पर 2003 में पड़े छापे के बाद माइकल का मन वहां से उखड़ गया था और वे मंट्रियल में जा बसने की सोच रहे थे.

हाल्पेरिन ने इस किताब के लिए सामग्री जुटाने के लिए हेयर ड्रेसर के छद्म रूप में माइकल जैक्सन के कैम्प में प्रवेश किया और वहां अनेक लोगों से बात करके जानकारियां जुटाईं. इस किताब को, जो अनेक अध्यायों में विभक्त है, माइकल जैक्सन की अनधिकृत जीवनी के रूप में प्रचारित किया जा रहा है.

Discussed book:
UNMASKED: The Final years of Michael Jackson
By Ian Halperin
Published by Simon Spotlight Entertainment
Hardcover, 224 pages
US $ 25.00

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 13 सितंबर, 2009 को प्रकाशित.









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Thursday, September 10, 2009

उलझा-उलझा है भाषाई परिदृश्य

फेसबुक के अपने मित्र सुयश सुप्रभ के ब्लॉग अनुवाद, हिंदी और भाषाओं की दुनिया पर उनका विचारोत्तेजक लेख क्या हम दुनिया की आधी भाषाओं को दम तोड़ते देखते रहेंगे तो लगभग् इसी विषय पर लिखा अपना एक थोड़ा पुराना लेख मुझे याद आ गया, जो अब भी प्रासंगिक है.


18 मई 2007 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने एक प्रस्ताव पारित कर वर्ष 2008 को अंतर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा की. विश्व संस्था का यह निर्णय उसके इस सोच को पुष्ट करता है कि भाषाओं की असल बहुलता के द्वारा ही अनेकता में एकता की रक्षा और अंतर्राष्ट्रीय समझ का विकास सम्भव है. इसी सन्दर्भ में यूनेस्को के महानिदेशक मात्सुरा कोईचोरो का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि भाषाओं की जितनी अहमियत वैयक्तिक अस्मिता के लिए है उतनी ही शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के लिए भी है. उनके कथन की महता इस बात से और भी बढ जाती है कि यूनेस्को को ही अंतर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष विषयक गतिविधियों के समन्वय का दायित्व सौंपा गया है. हम भी अगर भाषाओं की महत्ता पर विचार करें तो पाएंगे कि साक्षरता और शिक्षा की तो कोई कल्पना ही भाषा के बिना समभव है. आखिर शिक्षक भाषा के बिना अपनी बात कह ही कैसे सकता है?

अगर हम भाषाओं के महत्व पर थोडी और गहराई से विचार करें तो पाते हैं कि व्यक्तियों और समूहों की पहचान बनाये रखने में भी भाषाओं की बडी भूमिका होती है. सांस्कृतिक वैविध्य की कोई भी परिकल्पना भाषाई विविधता के बिना असम्भव है. लेकिन, बावज़ूद इस सच्चाई के, दुखद तथ्य यह है कि दुनिया में बोली जा रही लगभग सात हज़ार भाषाओं में से आधी से अधिक तो आगामी कुछ सालों में ही विलुप्त हो जाने वाली है. 1996 में पहली बार प्रकाशित ‘विलुप्त होने के कगार पर दुनिया की भाषाओं का एटलस’ में इस समस्या को बखूबी उभारा गया है. यह भी एक दुखद तथ्य है कि अभी हमने जिन सात हज़ार भाषाओं का ज़िक्र किया उनमें से एक चौथाई से भी कम का प्रयोग स्कूलों वगैरह में होता है और हज़ारों भाषाएं ऐसी हैं जो वैसे तो दुनिया की आबादी के एक बडे हिस्से की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में शरीक हैं लेकिन शिक्षा व्यवस्था, संचार तंत्र, प्रकाशन जगत आदि से पूरी तरह अनुपस्थित हैं. शायद यही वजह है कि यूनेस्को के महानिदेशक ने कहा है कि इस मुद्दे पर गहनता से विचार करते हुए हमें एक ऐसी भाषा नीति की तरफ बढना चहिए जो प्रत्येक भाषाई समूह को इस बात के लिए प्रेरित करे कि वह प्रथम भाषा के रूप में अपनी मातृ भाषा का व्यापकतम प्रयोग तो करे ही, साथ ही किसी क्षेत्रीय अथवा राष्ट्रीय भाषा को भी सीखे और अगर सम्भव हो तो एक या अधिक अंतर्राष्ट्रीय भाषा का भी ज्ञान प्राप्त करे. उन्होंने यह भी सलाह दी है कि एक वर्चस्वशाली भाषा के प्रयोक्ताओं को किसी अन्य क्षेत्रीय या राष्ट्रीय भाषा को भी सीखना चाहिए. आखिर भषाओं की बहुलता के द्वारा ही तो सभी भाषाओं के अस्तित्व की रक्षा की जा सकेगी.

संयुक्त राष्ट्र संघ और उसके घटक यूनेस्को के ये विचार बहुत ही सदाशयतापूर्ण हैं. इनके पीछे की पवित्र भावनाओं से भी भला कोई असहमति हो सकती है? लेकिन हो गई. जहां दुनिया के ज़्यादातर देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के इस विचार का स्वागत करते हुए उसके साथ सहयोग करने का इरादा ज़ाहिर किया वहीं दुनिया के चौधरी अमरीका ने एक विवादी स्वर लगा दिया. विश्व संगठन में अमरीकी राजदूत ने बुश प्रशासन के इस दावे को आधार बनाते हुए कि भाषा कोई विज्ञान द्वारा पुष्ट तथ्य नहीं अपितु एक सिद्धांत मात्र है, और खुद राष्ट्रपति बुश यह मानते हैं कि ईश्वर ने मात्र छह दिनों में अंग्रेज़ी का निर्माण किया था, इस प्रस्ताव से अपनी असहमति की घोषणा कर डाली. अमरीका सरकार की असहमति के मूल में उसकी यह आशंका भी है कि उसके किसी बहु-देशीय संधि में शरीक होने से दुनिया में अंग्रेज़ी के प्रसार को अघात पहुंचेगा. और इस नेक इरादे से अपनी असहमति ज़ाहिर करने वाला अमरीका अकेला देश नहीं है. यूनेस्को में अरबी बोलने वाले प्रतिनिधियों ने भी इसी तरह हिब्रू का विरोध कर इस प्रस्ताव की क्रियान्विति में अडंगा लगाया. और ऐसा ही कुछ किया कोरियाई प्रतिनिधियों ने भी.

वैसे, अगर अतीत की तरफ झांकें तो हम पाते हैं कि भाषाओं के मामले में खुद संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका भी प्रशंसनीय नहीं रही है. जब चीन में दूसरी भाषाओं को कुचला जा रहा था तो संयुक्त राष्ट्र संघ मौन दर्शक था. जब पाकिस्तान में जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने सिंधी बोलने वालों को देखते ही गोली मार देने के आदेश दिये तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने किसी हस्तक्षेप की ज़रूरत नहीं समझी. ऐसा ही उसने फ्रांस द्वारा अंग्रेज़ी पर रोक के वक़्त भी किया. वैसे भी, जिस संयुक्त राष्ट्र संघ के देखते-देखते यूरोपीय संघ अपनी 23 आधिकारिक भाषाओं के बावज़ूद अपना ज़्यादा काम अंग्रेज़ी में करता है, और खुद यह विश्व संगठन लगभग सारा ही काम अंग्रेज़ी में करता है, वही जब भाषाओं की बहुलता की बात करता है तो आश्चर्य होता है.

लेकिन अगर आप आशावादी हों, और किसी की नीयत पर सन्देह करने के शौकीन न हों तो यह भी सोच सकते हैं कि सुबह का भूला संयुक्त राष्ट्र संघ अब शाम को घर लौट रहा है. वह कम से कम अब तो अंग्रेज़ी के दिग्विजय अभियान को रोकना चाहता है. यूनेस्को ने तो यह भी कहा है कि वह दुनिया की उन गडबडी वाली जगहों पर अपने नीले हेलमेट वाले संयुक्त राष्ट्रीय भाषाई रक्षक तैनात करेगा जहां जबरन दूसरी भाषाओं का दमन किया जाता है, जैसे आयरलैण्ड में जहां हालांकि सरकारी भाषा आयरिश है लेकिन नये नागरिकों पर बलात अंग्रेज़ी लादी जा रही है.

इसी उथल-पुथल भरे वैश्विक परिदृश्य के साथ ही आइये, ज़रा भारत के भाषाई परिदृश्य का भी जायज़ा ले लें. संविधान ने हमारे यहां दो राज भाषाओं – हिन्दी और अंग्रेज़ी- को मान्यता दे रखी है. इनके अलावा संविधान की आठवीं अनुसूची में 18 और भाषाएं भी सूचीबद्ध हैं. राजस्थानी जैसी महत्वपूर्ण भाषा अभी भी इस अनुसूची में प्रवेश पाने के लिए संघर्षरत है. इनके अलावा, 418 और ऐसी सूचीबद्ध भाषाएं हैं जिनमें से प्रत्येक के बोलने वालों की संख्या कम से कम दस हज़ार है. हमारा सरकारी रेडियो – आकाशवाणी 24 भाषाओं और 146 बोलियों में प्रसारण करता है. कम से कम 34 भाषाओं में हमारे यहां अखबार छपते हैं और 67 भाषाओं में प्राथमिक शिक्षा दी जाती है. संविधान सभी नागरिकों को उनकी भाषा के संरक्षण का अधिकार देते हुए सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी रुचि की शैक्षिक संस्था चुनने का अधिकार प्रदान करता है. लेकिन ये सारे तथ्य और आंकडे उस वक़्त किताबी लगते हैं जब हम यह देखते हैं कि बहु भाषा भाषी हमारे देश में ही कम से कम 1600 भाषाएं और बोलियां ऐसी हैं जिन्हें लोग अपनी मातृ भाषा के रूप में तो प्रयुक्त करते हैं लेकिन जिन्हें किसी भी तरह का वैधानिक या सरकारी संरक्षण प्राप्त नहीं है.

भाषाई आधार पर हुए राज्यों के पुनर्गठन पर अब भी सवालिया निशान लगाए जाते हैं. इसी के साथ भाषाओं को लेकर हुए हिंसक विवादों को भी भुलाया नहीं जा सकता. दक्षिण के कतिपय इलाकों में हुआ हिन्दी का तथाकथित उग्र विरोध और एक दूसरे समय में उत्तर भारत में तेज़ी से फैला अंग्रेज़ी हटाओ आन्दोलन आज भी लोगों की स्मृतियों में है. भाषाओं को लेकर वैसा उत्तेजक माहौल आज भले ही न हो, जानने वाले जानते हैं कि आज भारत में हर बडी भाषा अपनी से छोटी भाषा का अधिकार छीन-हडप रही है. ऐसा करने में शीर्ष पर है अंग्रेज़ी. कहने को यह देश की दो राज भाषाओं में से एक है लेकिन कभी-कभी लगता है कि असल राज भाषा तो यही है. इस देश में अंग्रेज़ी जाने बगैर आपका कोई अस्तित्व ही नहीं है. कोई छोटी से छोटी सरकारी नौकरी आपको अंग्रेज़ी ज्ञान के बगैर नहीं मिल सकती. जबकि दूसरी राजभाषा हिन्दी के साथ ऐसा नहीं है. अगर आप हिन्दी नहीं भी जानते हैं तो कोई बात नहीं. बल्कि बहुतों के लिए तो हिन्दी न जानना गर्व का कारण होता है. इधर वैश्वीकरण और उदारीकरण के चलते और दुनिया के सपाट होते जाने के कारण अंग्रेज़ी का वर्चस्व और बढता जा रहा है. रही सही कसर सूचना प्रौद्योगिकी ने पूरी कर दी है. लोगों ने मान लिया है कि वहां तो अंग्रेज़ी के बिना काम चल ही नहीं सकता, और बिना सूचना प्रौद्योगिकी के आज की दुनिया में जीना बेकार है. हालांकि दोनों ही बातें सच से बहुत दूर हैं. सूचना प्रौद्योगिकी में हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में काम करने की भी पूरी सुविधाएं हैं, और भारत जैसे धीमी गति और संतोषी मानसिकता वाले देश में द्रुतगामी सूचना प्रौद्योगिकी जीवन शैली का हिस्सा बनेगी, इसमें अभी काफी वक़्त लगेगा.

लेकिन अंग्रेज़ी हमारे मन मष्तिष्क पर बुरी तरह हावी है. हमारे फिल्मी सितारे काम भले ही भाषाई फिल्मों में करें, बात अंग्रेज़ी में ही करना पसन्द करते हैं. नेता लोग चुनाव के वक़्त भले ही हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाएं काम में ले लें, अपने प्रभाव स्थापन के लिए टूटी-फूटी और हास्यास्पद ही सही अंग्रेज़ी बोलने की कोशिश करते दिखाई सुनाई देते हैं. समाज का प्रभु वर्ग अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम वाले स्कूलों में ही भेजता है. यहां तक कि जो लोग परम्परा, धर्म, संस्कृति वगैरह की कमाई खाते हैं वे भी अपने बच्चों का भविष्य अंग्रेज़ी में ही देखते हैं. निश्चय ही यह मनोवृत्ति हिन्दी सहित तमाम देशी भाषाओं के लिए घातक सिद्ध हो रही है. इनका विकास अवरुद्ध हो रहा है, और इनके प्रयोक्ताओं की संख्या निरंतर घटती जा रही है. हिन्दी की स्थिति तो फिर भी ठीक है, लेकिन जिन भाषाओं या बोलियों को बोलने वाले कम हैं उनके अस्तित्व पर मण्डराते खतरों को साफ देखा जा सकता है.

ऐसे में एक तरफ जहां संयुक्त राष्ट्र संघ की इस सदाशयता पूर्ण पहल का महत्व समझ में आता है वहीं दूसरी तरफ लुप्त होती जा रही भाषाओं की स्वाभाविक परिणति सांस्कृतिक वैविध्य की क्षति चिंतित भी करती है. चिंताजनक बात यह भी है आज भाषाएं किसी के भी एजेण्डा में नहीं हैं. कहीं हम भाषा विहीन भविष्य की तरफ तो नहीं बढ रहे हैं?
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Sunday, August 30, 2009

जिन्ना, भारत का विभाजन और आज़ादी


भारत में हाल के वर्षों में किसी किताब ने ऐसी हलचल पैदा नहीं की है जैसी भाजपा के अब भूतपूर्व हो गए नेता जसवंत सिंह की हाल ही में प्रकाशित किताब जिन्ना - इंडिया पार्टीशन इंडिपेंडेंस ने की है. इस एक किताब ने जसवंत सिंह को ‘हनुमान से रावण’ बना दिया है. यह किताब भाजपा शासित गुजरात की सरकार को इतनी बुरी लगी है कि उसने तुरत फुरत इस पर प्रतिबंध लगा दिया.

भारतीय सेना में कमीशंड अधिकारी रहे जसवंत सिंह ने राजनीति में भी खासा नाम कमाया. वे सात बार संसद के सदस्य रहे और भारत सरकार में छह महत्वपूर्ण विभाग उन्होंने संभाले इनमें विदेश मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय और वित्त मंत्रालय भी शामिल हैं. वे भारतीय विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ माने जाते हैं. यह सोच पाना आसान नहीं है कि जिस जिन्ना पर दिए गए एक बयान ने भाजपा के दिग्गज नेता लाल कृष्ण आडवाणी को दिक्कत में डाल दिया था, उसी जिन्ना पर एक पूरी किताब लिखने का फैसला जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ और अनुभवी नेता ने क्यों किया? खुद जसवंत सिंह का कहना है कि वे जिन्ना के व्यक्तित्व से इस हद तक प्रभावित हुए कि यह किताब लिखे बगैर नहीं रह सके. जसवंत सिंह कहते हैं, “वे (यानि जिन्ना) न केवल स्वतंत्र भारत के लिए अंग्रेज़ों से लड़े, भारत के मुसलमानों के लिए भी दृढता से अनवरत लड़ते रहे.” इस विवादास्पद व्यक्तित्व के लिए जसवंत सिंह के मन में कैसे भाव हैं, यह जानने के लिए उनकी इस किताब से एक उद्धरण देखना रोचक होगा: “उन्होंने (यानि जिन्ना ने) शून्य से कुछ रच डाला और अकेले कॉंग्रेस और ब्रिटिश ताकतों के आगे डटे रहे, जिन्होंने उन्हें कभी पसंद नहीं किया.... खुद गांधी ने जिन्ना को एक महान भारतीय कहा था. तो फिर हम उन्हें क्यों नहीं स्वीकार करते? हम क्यों नहीं यह जानने-समझने की कोशिश करते कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा? ....मैं उनके व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं का प्रशंसक हूं; उनका दृढ़ निश्चय और ऊपर उठने का उनका जज़्बा. वे एक स्व-निर्मित व्यक्ति थे. महात्मा गांधी एक दीवान के बेटे थे. ये सारे लोग, नेहरु वगैरह अमीर और बड़े खानदानों में पैदा हुए थे. जिन्ना ने खुद अपने जगह पैदा की. उन्होंने बम्बई में अपने लिए जगह बनाई. वे इतने ग़रीब थे कि पैदल चल कर काम पर जाते थे. एक बार उन्होंने अपने जीवनीकारों से कहा था कि शीर्ष पर हमेशा जगह होती है, लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए कोई लिफ्ट नहीं होती......... और उन्होंने कभी लिफ्ट तलाशी भी नहीं.” जसवंत को भारतीय नेताओं से यह शिकायत है कि उन्होंने जिन्ना को हमेशा ग़लत समझा और उन्हें राक्षस के रूप में देखा. जसवंत सिंह यह कहने से भी नहीं चूकते कि जिन्ना का यह राक्षसीकरण विभाजन के कटु अनुभव की प्रत्यक्ष परिणति था.

किताब की शुरुआत होती है इस्लाम से भारत के संपर्क के वृत्तांत के साथ और फिर यह 1857 से होती हुई स्वाधीनता संग्राम तक आ पहुंचती है. इसके बाद शुरू होती है राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर अपने लिए जगह तलाशते जिन्ना की संघर्ष गाथा. उस मंच पर पहले से मोहनदास करमचंद गांधी के चहेतों का कब्ज़ा है. जब वहां जिन्ना को अपने लिए कोई गुंजाइश नज़र नहीं आती तो वे मुस्लमानों को लेकर मुस्लिम लीग़ नाम से अपना अलग मंच बनाते हैं और क्रमश: उनके एकमात्र प्रवक्ता बनते जाते हैं.

जसवंत सिंह कहते हैं कि भारत में जो आम धारणा है कि जिन्ना हिंदुओं से नफरत करते थे, वह ग़लत है. इस लिहाज़ से जिन्ना और गांधी की तुलना करते हुए वे कहते हैं, “गांधी में सदा ही एक धार्मिक क्षेत्रीय गंध थी जबकि जिन्ना बेशक गैर साम्प्रदायिक राष्ट्रीय भावना से लबरेज़ थे.” यहीं यह ज़िक्र भी प्रासंगिक होगा कि प्रख्यात हिंदी विद्वान डॉ नामवर सिंह ने भी जिन्ना के राक्षसीकरण को गलत मानते हुए कहा है कि वे धर्म निरपेक्ष थे लेकिन उन्हें मुस्लिम लीग की लड़ाई लड़ने को बाध्य होना पड़ा. जसवंत सिंह ने अपनी इस किताब में उन मुहम्मद अली जिन्ना की राजनीतिक जीवन यात्रा को चीन्हने का प्रयास किया है जिन्हें कभी गोपाल कृष्ण गोखले ने ‘हिन्दु-मुस्लिम एकता का राजदूत’ कहा था. आखिर क्या हुआ कि वही शख़्स भारत में मुसलमानों की एकलौती आवाज़ और उसके बाद पाकिस्तान का निर्माता, क़ायदे आज़म बन गया? इसी क्रम में लेखक यह भी पड़ताल करता है कि मुस्लिमों के लिए अलग राष्ट्र की परिकल्पना का अभ्युदय कैसे हुआ. जसवंत सिंह यह भी कहते हैं कि अपने समय के दो प्रख्यात संविधानविद जिन्ना और नेहरु मुसलमानों के लिए विशेष दर्ज़े के पैरोकार बन गए थे. जिन्ना प्रयक्ष रूप से और नेहरु परोक्ष रूप से. लेकिन दोनों में मुसलमानों का प्रवक्ता बनने की होड़ थी.

जसवंत सिंह ने भारत विभाजन का दोषारोपण कॉंग्रेस और नेहरु पर करना चाहा है, जो स्पष्ट ही उनकी राजनीतिक विचारधारा को रास आने वाली बात है. लेकिन ऐसा करते हुए वे जब यह कहते हैं कि “जिन्ना ने पाकिस्तान जीत में हासिल नहीं किया. कॉंग्रेस के नेताओं नेहरु और पटेल ने पाकिस्तान जिन्ना को प्रदान (कंसीड) किया. ब्रिटिश लोगों ने सदा सहायता को तत्पर दाई (मिडवाइफ) की भूमिका अदा की” तो बात जैसे सीमा से बाहर निकलती लगती है. अपने इस कथन को लेखक ने एक इण्टरव्यू में और स्पष्ट किया: “नेहरु का विश्वास एक अत्यधिक केन्द्रीकृत राज्य व्यवस्था में था. वे भारत को ऐसा ही बनाना चाहते थे. जिन्ना एक संघीय राज्य व्यवस्था चाहते थे. अंतत: गांधी ने भी इसे स्वीकार कर लिया, लेकिन नेहरु नहीं कर पाए. वे अनवरत रूप से, 1947 तक जब तक कि विभाजन नहीं हो गया, संघीय भारत की राह में रोड़ा बने रहे.” ज़ाहिर है कि भाजपा के गले यह बात नहीं उतरती कि जसवंत नेहरु के साथ पटेल का भी नाम लें.

असल में यह किताब तीन मुख्य स्थापनाओं पर टिकी है:

1. जिन्ना को बेवजह राक्षस के रूप में देखा और दिखाया गया है. वह तो एक महान व्यक्ति था और उसे पूरी तरह विभाजन का दोषी नहीं माना जाना चाहिए,

2. भारत विभाजन के मुख्य दोषी तो जवाहरलाल नेहरु हैं क्योंकि उनका विश्वास एक ऐसे केन्द्रीकृत भारत में था जिसमें हिन्दु वर्चस्व से मुस्लिमों के बचाव की कोई गुंजाइश नहीं थी. विभाजन के विचार के मूल में था ‘फाल्स माइनोरिटी सिंड्रोम’ और जिन्ना का विचार था कि इसका एकमात्र उपचार विभाजन है. नेहरु , पटेल और कॉंग्रेस के दूसरे लोग इस बात से सहमत हो गए,

3. महात्मा गांधी और अन्य नेता विभाजन से सहमत नहीं थे लेकिन उन्हें नेहरु की ज़िद के आगे झुकना पड़ा. जसवंत सिंह कहते हैं कि नेहरु विभाजन के मुख्य वास्तुविदों में से एक, बल्कि असल में तो उसके आरेखकार ही हैं.
जसवंत सिंह की स्थापना है कि अगर कॉंग्रेस और खास तौर पर नेहरु ने दूरदर्शितापूर्ण रवैया अपनाया होता और जिन्ना के प्रति ज़्यादा उदार नज़रिया बरता होता तो भारत का विभाजन ही नहीं होता. उन्हीं के शब्दों में, “जिन्ना का विरोध हिंदुओं या हिंदुत्व से नहीं था. वे तो कॉंग्रेस को मुस्लिम लीग़ का असल प्रतिद्वन्द्वी मानते थे और लीग़ उन्हें अपना आत्म विस्तार लगती थी.” जिन्ना का विश्लेषण करने में कहीं-कहीं जसवंत बहुत निर्मम भी नज़र आते हैं. जैसे, जब बे कहते हैं, “मुस्लिम समुदाय जिन्ना के लिए एक निर्वाचक निकाय भर था और मुस्लिम राष्ट्र की उनकी मांग उनके लिए एक राजनीतिक मंच भर थी. जो लड़ाई वे लड़ रहे थे वह पूरी तरह राजनीतिक थी, मुस्लिम लीग़ और कॉंग्रेस के बीच. पाकिस्तान उनके लिए एक ऐसी राजनीतिक मांग थी जिस जिसके दम पर वे और मुस्लिम लीग़ राज कर सकते थे.” जसवंत यह भी कहते हैं कि मुस्लिमों के लिए एक अलग राष्ट्र की मांग जिन्ना की आधारभूत गलती थी. लेकिन, इस गलती में वे अकेले नहीं थे. असल में इस ग़लती की ज़मीन तो अंग्रेज़ों ने ही सुलभ कराई थी और नेहरु ने भी द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का पुरज़ोर विरोध नहीं किया.

किताब पर उठे विवाद, जो अकादमिक कम और राजनीतिक ज़्यादा हैं, से अलग हटकर मैं इस किताब को अपने निकटवर्ती अतीत को खंगालने के एक महत्वपूर्ण प्रयास के रूप में देखता हूं. हम जसवंत सिंह की स्थापनाओं से सहमत हों या न हों, उनके प्रयास की सराहना तो की ही जानी चाहिए. इस प्रयास का महत्व इस बात से और बढ जाता है कि इसे एक राजनीतिज्ञ ने किया है और यह करते हुए ‘अभिव्यक्ति के ख़तरे’ उठाये हैं. यहां यह उल्लेख भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि इसी विषय पर हिंदी में एक महत्वपूर्ण किताब आई थी वीरेन्द्र कुमार बर्नवाल की “जिन्ना:एक पुनर्दृष्टि” जो कदाचित अभी भी जिन्ना को समझने के लिहाज़ से अद्वितीय है.
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Discussed book:
Jinnah India- Partition- Independence
Jaswant Singh
Rupa and Co.
669 Pages , Hardcover
Rs 695.00









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Tuesday, August 11, 2009

अब वह सपने भी हिंदी में देखने लगी है


पुरस्कृत संस्मरण पुस्तक द रेड डेविल: टू हेल विथ कैंसर – एण्ड बैक की लेखिका कैथरीन रसेल रिच जो न्यूयॉर्क टाइम्स मैगज़ीन, वाशिगटन पोस्ट, नेशनल पब्लिक रेडियो और सलोन डॉट कॉम जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के लिए लिखती रही हैं, की नवीनतम पुस्तक ड्रीमिंग इन हिंदी का सम्बन्ध हमारे अपने देश और अपनी भाषा से है.

कैथरीन लिखती हैं, “मुझे कैंसर था और यह भीतर ही भीतर मेरी हड्डियों को नष्ट कर रहा था. एक रात मैंने सपना देखा कि मैं एक छोटे-से कपड़े के लिए एक औरत से जूझ रही हूं. कपड़ा मुलायम और नीला है. वह औरत उसे मुझसे छीन लेना चह रही है. मैं चिल्लाती हूं, ‘यह तो मेरा है, मैंने ही तो इसे बुना है.’ वह औरत थोड़ी शांत होती है और कहती है, ‘हो सकता है तुमने इसे बनाया हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम इसे अपने पास रख भी सकती हो.’ बाद में मेरी एक दोस्त मुझे समझाती है कि यह कपड़ा मेरी ज़िन्दगी का प्रतीक था.” तो, इस तरह अपनी ज़िन्दगी के लिए जूझ रही और इसी दौरान अपने प्यार में भी असफल हो चुकी कैथरीन अनायास ही सम्पर्क में आती है न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी की हिंदी प्रोफेसर, मूलत: अल्जीरिया की गैब्रियाला इलियेवा के. गैब्रियाला जब कैथरीन को हिंदी भाषा की विशेषताओं से परिचित कराती है तो वह इसकी काव्यात्मकता पर मुग्ध हो उठती है. कैथरीन कहती हैं, “इन हिंदी, यू ड्रिंक अ सिगरेट, नाइट स्प्रेड्स, यू ईट ए बीटिंग. यू ईट द सन.” और वह भारत जाकर एक साल हिंदी सीखने का फैसला कर लेती है, बावज़ूद इस बात के कि ऐसा करने के लिए कोई खास योग्यता उसके पास नहीं थी. लेकिन वह जैसे अपने कष्टपूर्ण रोग से दूर भागना चाहती थी.

जब कैथरीन अपनी कैंसर चिकित्सक को यह बताती है कि वह एक बरस के लिए भारत जा रही है तो एक बारगी तो वह भी चौंक पड़ती है. कैथरीन की दशा कोई खास अच्छी नहीं है और डॉक्टर लोग भी उसका निश्चित इलाज़ करने की बजाय प्रयोग ही कर रहे हैं, क्योंकि वे और कुछ कर पाने में समर्थ नहीं हैं. कैथरीन की स्थिति वाला शायद ही कोई मरीज़ अपने देश से दूर गया हो, लेकिन डॉक्टर और रोगी के बीच एक गहरी आत्मीय समझ विकसित हो चुकी है. कैथरीन कहती हैं, “उन्होंने मुझे इतने बरसों ज़िन्दा रखा है. अब भला वे मुझे अपनी ज़िन्दगी को जीने से कैसे रोक सकती हैं?”

और कैथरीन भारत आने को तैयार हो जाती हैं. सप्ताह में बीस घण्टे का उच्चारण, व्याकरण और फिल्म चर्चा का कार्यक्रम, और हिंदी भाषी परिवारों के साथ सहजीवन का अनुभव. कैथरीन उदयपुर आती हैं और हिंदी भाषी लोगों व परिवारों के साथ रहकर हिंदी और भारतीय जीवन पद्धति सीखती हैं.

कैथरीन एक जगह लिखती हैं, “मेरे पास अपनी ज़िन्दगी को बयान करने वाली भाषा नहीं थी. इसलिए मैंने कोई दूसरी भाषा उधार लेने का फैसला किया.” और यह करते हुए वे खुद भी बदलती गईं. कहा जाता है कि जब आप किसी पराई भाषा को अपनाते हैं तो आप खुद भी थोड़े बदल जाते हैं. कैथरीन को भी ऐसा ही लगा. उन्होंने नोट किया कि हिंदी में यह कह पाना कठिन है कि यह चीज़ मेरी है, और इस तरह उनसे अपने पराये का भाव छूटा, हिंदी में मैं की बजाय हम कहना अधिक प्रचलित है, तो कैथरीन को लगा कि जैसे वे सबसे जुड़ती जा रही हैं. इस बीच कुछेक दुर्घटनाएं भी हुईं. जैसे, कैथरीन जिस जैन परिवार के साथ रह रही थीं, उनको कैथरीन की वैवाहिक स्थिति को लेकर कुछ गलतफहमी हुई, और कैथरीन को उन लोगों का घर छोड़ना पड़ा. लेकिन इस तरह उन्होंने एक इतर भाषा को सीखते हुए उसकी संस्कृति को भी आत्मसात किया. धीरे-धीरे वे इस भाषा में इतनी निष्णात हो गईं कि न केवल हिंदी में मज़ाक करने लगीं, उन्हें सपने भी हिंदी में ही आने लगे.

कैथरीन की यह संस्मरणात्मक किताब हमें एक अलग तरह की भारत की सांस्कृतिक-ऐतिहासिक यात्रा पर ले जाती है. एक अनुभवी पत्रकार, संपादक और लेखक होने के नाते वे अपनी इस किताब को केवल अपने वर्णनों तक ही सीमित नहीं रखतीं, बल्कि यथास्थान भाषाविदों और न्यूरोलॉजिस्ट्स के साक्षात्कारों से इसे प्रामाणिक भी बनाती हैं. हमारी भाषा और संस्कृति दूसरों को कैसी दिखाई देती है, अगर यह जानने की इच्छा हो तो इस किताब को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए.


Discussed book:
Dreaming in Hindi
By Katherine Russell Rich
Published by Houghton Mifflin Co
Hardcover, 384 pages
US $ 26.00

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 09 अगस्त, 2009 को प्रकाशित.








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Sunday, July 26, 2009

आने वाला समय मुफ़्त का है


2006 की बेस्ट सेलर द लोंग टैल के लेखक, वायर्ड पत्रिका के सम्पादक क्रिस एंडरसन की स्थापना है कि हमारी अर्थव्यवस्था की नियति है मुफ़्त, यानि फ्री. अपनी सद्य प्रकाशित किताब फ्री: द फ्यूचर ऑफ अ रेडिकल प्राइस के शुरू में ही वे लिखते हैं कि देर-सबेर हर कंपनी को किसी न किसी तरह यह देखना पड़ेगा कि वह अपने व्यापार के विस्तार के लिए फ्री का प्रयोग कैसे करे, या कैसे फ्री से प्रतिस्पर्धा करे. यह बात वे मुख्यत: डिजिटल अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में करते हैं, लेकिन समझा जा सकता है कि अंतत: इससे शेष अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हुए बग़ैर नहीं रहने वाली है.

डिजिटल दुनिया में आज बहुत कुछ मुफ़्त में उपलब्ध है. आप मुफ्त में अपना ई मेल खाता बनाते हैं, आप मुफ्त में फेस बुक, यू ट्यूब वगैरह का इस्तेमाल करते हैं. टेलीविज़न तो आप बहुत पहले से मुफ्त में देख ही रहे थे. एंडरसन इसे इस तरह समझाते हैं. वे कहते हैं कि तकनीक निरंतर सस्ती होती जा रही है. 1961 में जहां एक ट्रांज़िस्टर की कीमत दस डॉलर थी, आज इंटेल आपको दो बिलियन ट्रांज़िस्टर सिर्फ़ 1100 डॉलर में दे रहा है, यानि एक ट्रांज़िस्टर का मूल्य आज घट कर सिर्फ .000055 सेंट रह गया है. इसी तरह आज एक घण्टे का वीडियो कार्यक्रम एक व्यक्ति तक पहुंचाने का खर्च मात्र 0.25 डॉलर है और अगले साल तक यह घट कर 0.15 डॉलर ही रह जायेगा. कीमतों के घटने की परिणति मांग के बहुत ज़्यादा बढने में होती है और इस मुफ्त से अभाव की जगह इफरात का दौर शुरू होता है. लेकिन, यहीं से एंडरसन एक खास बात कहते हैं. वे कहते हैं कि उपभोक्ता के लिहाज़ से सस्ते और मुफ्त में बड़ा फर्क़ है. बहुत सारे उदाहरणों से वे साफ करते हैं कि कोई चीज़ चाहे कितनी ही सस्ती क्यों ना हो, वह उतने लोगों को आकृष्ट नहीं करती जितनी कोई मुफ्त चीज़ करती है. क्यों?

एंडरसन समझाते हैं कि हम सब मानसिक रूप से आलसी हैं और यही बात मुफ्त को प्रोत्साहित करती है. जब आपको किसी वस्तु का मूल्य चुकाना होता है, चाहे वह एक पैसा ही क्यों ना हो, आप सोचते हैं कि कहीं यह क़ीमत अधिक तो नहीं है. जब कोई चीज़ मुफ्त में मिलती है तो आपके दिमाग को सोचने की यह ज़हमत नहीं उठानी पड़ती और आप तुरंत उस चीज़ को ले लेने के लिए तैयार हो जाते हैं. दो प्रख्यात चाकलेटों के उदाहरण से वे इस बात को पुष्ट करते हैं. जब किसेज़ नाम की चॉकलेट 1 सेंट और ट्रफल्स नाम की चॉकलेट 15 सेंट में दी गई तो 75 प्रतिशत लोगों ने ट्रफल्स को चुना. इसके बाद एक और प्रयोग किया गया. दोनों की कीमत एक सेंट घटा दी गई. यानि किसेज़ मुफ्त में और ट्रफल्स 14 सेंट में दी गई. परिणाम चौंकाने वाले थे. 69 प्रतिशत ने किसेज़ को चुना. अब देखिए, कीमत का फर्क़ तो सिर्फ एक सेंट था, लेकिन पसंद बदल गई.

एंडरसन कहते हैं कि सारी दुनिया में पीढिगत दृष्टि से मूल्य को लेकर एक बड़ा परिवर्तन आ रहा है. 30 साल से कम उम्र के लोग अब सूचना के लिए कुछ भी खर्च नहीं करना चाहते, क्योंकि वे जानते हैं कि यह कहीं न कहीं तो मुफ़्त में मिल ही जायेगी. विचारों से निर्मित उत्पाद प्राय: मुफ्त उपलब्ध होने लगे हैं. मज़े की बात यह है कि यह मुफ़्त भी चिंताजनक नहीं है. चीन में जितने संगीत का उपभोग होता है, उसका 95% पाइरेसी से होता है. लेकिन कलाकार फिर भी खुश हैं. उन्हें प्रचार मिलता है और इससे उनके कंसर्ट और दूसरी आय में इज़ाफा होता है.

एंडरसन अपनी इस चर्चा को पत्रकारिता की दुनिया तक भी ले जाते हैं और भविष्यवाणी करते हैं बहुत जल्दी पत्रकारिता एक व्यवसाय के साथ-साथ शौक़ भी बन जाने वाली है. लोग आजीविका के लिए पत्रकारिता पर निर्भर नहीं रह पायेंगे. पत्रकारों को पेट भरने के लिए पढ़ाने या दूसरों से बेहतर लिखवाने के काम में लगना पड़ेगा. हम देख ही रहे हैं कि आज ब्लॉग़्ज़ के प्रचलन के साथ शौकिया पत्रकार व्यावसायिक पत्रकारों को कड़ी टक्कर देने लगे हैं और प्रकाशन की दुनिया पर भी भी पेशेवर लोगों का एकाधिकार नहीं रह गया है. पत्रकारों और प्रकाशकों के लिए चुनौतियां बढती जा रही है. लेकिन एंडरसन इसे पत्रकारों के लिए बुरा नहीं बताते. वे इसे उनकी मुक्ति का नाम देते हैं.

एंडरसन ने अपनी किताब का ढांचा कुल चार स्थापनाओं पर खड़ा किया है: तकनीकी(डिजिटल संरचना प्रभावी रूप से मुफ्त में उपलब्ध है), मनोवैज्ञानिक(हर उपभोक्ता मुफ्त में पाना पसंद करता है), प्रक्रियात्मक(मुफ्त के लिए आपके दिमाग को कोई तक़लीफ नहीं करनी पड़ती) और व्यावसायिक(मुफ्त की तकनीक और मनोवैज्ञानिक मुफ्त की परिणति भरपूर मुनाफे में होती है).

और अंत में यह और बताता चलूं कि एंडरसन की यह किताब इंटरनेट पर मुफ्त में पढ़ी जा सकती है.

Discussed book:
Free: The Future of a Radical Price
By Chris Anderson
Published by: Hyperion
288 pages, Hardcover
US $ 26.99

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 26 जुलाई, 2009 को प्रकाशित.








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Sunday, July 12, 2009

ईश्वर का विकास




इधर कुछ वर्षों में ईश्वर विषयक अनेक पुस्तकें आई हैं. नास्तिक लेखकों जैसे सेम हैरिस, रिचार्ड डॉकिंस, क्रिस्टोफर हिचेंस ने लगभग बेबाक शब्दों में कहा है कि अगर आप ईश्वर के प्रति अनास्थावान नहीं हैं तो आप नशेड़ी हैं. हैरिस ने तो अपने एथीस्ट मेनिफेस्टो (प्रथम प्रकाशन 2005) में साफ कहा है कि “धार्मिक मध्यमार्गियों का यह कहना कि कोई विवेकवान इंसान सिर्फ इसलिए ईश्वर में भरोसा कर सकता है कि यह भरोसा उसे सुख प्रदान करता है, बेहूदा है.” इसी क्रम में हाल ही में आई मार्क्सवादी चिंतक टेरी ईगलटन की नई किताब रीज़न, फेथ, एण्ड रिवोल्यूशन: रिफलेक्शंस ऑन द गॉड डिबेट भी बहुत चर्चा में है. लेकिन आज हम एक और किताब की चर्चा कर रहे हैं. रॉबर्ट राइट अपनी ताज़ा किताब द इवोल्यूशन ऑफ गॉड में इस बहस में नहीं उलझते है कि ईश्वर है या नहीं है. हालांकि वे ईश्वर का होना सिद्ध करने के लिए उसकी तुलना वैज्ञानिकों की दुनिया के इलेक्ट्रॉन से करते हैं और कहते हैं कि इलेक्ट्रॉन को भी तो हममें से किसी ने नहीं देखा है, लेकिन दुनिया पर पड़ने वाले उसके प्रभावों के कारण उसके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं. यही बात ईश्वर के बारे में भी है. ईश्वर के प्रभावों के रूप में वे सत्य और प्रेम का नाम लेते हैं. राइट मूलत: एक पत्रकार हैं और विकासवादी मनोविज्ञान के विशेषज्ञ हैं. उनकी पिछली किताब नॉनज़ीरो: द लॉजिक ऑफ ह्युमन डेस्टिनी बहु चर्चित रही है.

राइट इस किताब में हमें एक ऐतिहासिक यात्रा पर ले जाते हैं और यह बताते हैं कि ईश्वर की अवधारणा का विकास किस तरह हुआ है और उसमें समय के साथ क्या बदलाव आये हैं. राइट अपनी यह खोज यात्रा मानवीय विकास की यात्रा के समानांतर चलाते हैं. प्रारंभ के आखेट जीवी लोगों के लिए प्रकृति से भी बड़ी चीज़ थी आत्मा, कबीलाई ज़िन्दगी में बहुलदेव वाद आ गया और और उनके बहुत सारे देवता ज़िन्दगी के तमाम पहलुओं पर नियंत्रण करने लगे. लेकिन, राइट बताते हैं कि इनमें से अधिकतर देवता सही जीवन के आदर्श नहीं हैं. ये सनकी और क्रूर भी हैं. कालांतर में इन देवताओं की जगह देवताओं की एक आधिपत्य पूर्ण व्यवस्था ने ले ली जिसमें एक सर्वशक्तिमान ईश्वर सबका प्रभारी होने लगा, और इसके बाद एक ऐसी व्यवस्था बनी जिसमें नगर-राज्यों में सिर्फ एक ईश्वर की उपासना होने लगी, बग़ैर यह स्वीकार किए कि वही एकमात्र ईश्वर है, हालांकि उसे अन्य ईश्वरों से बेहतर ज़रूर माना जाता था.

राइट बलपूर्वक कहते हैं कि तीन प्रमुख अब्राहमी धर्मों के धर्मग्रंथ वास्तविक व्यक्तियों के द्वारा लिखे गए हैं और उनका मक़सद था आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक सुधार करना. कालांतर में जैसे-जैसे समाजों का विकास होता गया, और वे अधिक जटिल और वैश्विक होते गये, ईश्वर की अवधारणा भी बदलती गई और समाजों की उससे अपेक्षा भी अधिक नैतिक होती गई. राइट इसी बात को आगे बढाते हुए ईश्वर और धर्म की अवधारणा को इसलिए पसंद करते हैं कि इनसे हमारी ज़िन्दगी का अनुकूलन होता है, हम अच्छे और बुरे में अंतर करते हैं और जीवन के सुख दुख को सम दृष्टि से देखना सीखते हैं.
किताब का बहुलांश एकेश्वरवादी सम्प्रदायों जैसे हिब्रू, इसाई बाइबिल और क़ुरान शरीफ के इर्द- गिर्द ही है. स्वाभाविक ही है कि राइट बाइबिल का विश्लेषण अधिक विस्तार से करते हैं. भारतीय सन्दर्भ में किताब की एक बड़ी सीमा यह नज़र आती है कि यह हिन्दु और बौद्ध धर्मों को स्पर्श ही नहीं करती. और यह भी कि हमारे यहां यह स्वीकार करना मुश्क़िल लगता है कि हम सब एक सहकारी किस्म के एकेश्वरवाद की तरफ अग्रसर हो रहे हैं. बौद्ध लोग जहां अपने धर्म में किसी देवी-देवता की ज़रूरत ही महसूस नहीं करते, वहीं हिन्दु 36 करोड़ देवी देवताओं को भी कम मानते हैं. लेकिन इस सबके बावज़ूद जब राइट यह उम्मीद करते हैं कि सब कुछ के बावज़ूद दुनिया के लोग शांति से रह सकते हैं, और इसके लिए वे अब तक के बदलावों को प्रमाण के तौर पर पेश करते हैं, तो उनसे असहमत होने का मन नहीं करता.

Discussed book:
Let’s Talk About God
By Robert Wright
Published by Little, Brown and Company
Hardcover, 576 pages
US $ 25.99

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 12 जुलाई 2009 को प्रकाशित.







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Monday, June 29, 2009

क्यों अच्छा लगता है कोई विचार?


अगर कभी आपके मन में भी यह सवाल उठा हो कि लोग क्यों और कैसे धर्म, सम्प्रदायों, विज्ञापनों, वगैरह के ग़ुलाम बन जाते हैं, तो यह किताब आपके लिए है. रिचर्ड ब्रोडी का कहना है कि यह सब दिमागी विषाणुओं (माइण्ड वाइरस) यानी मीम्स की वजह से होता है. जो लोग इस बात को समझते हैं वे इन्हें सफलतापूर्वक आपके दिमाग में घुसा देते हैं.
अपनी पिछली किताब, अंतर्राष्ट्रीय बेस्ट सेलर गेटिंग पास्ट ओ के के रचनाकार रिचर्ड ब्रोडी की एक और ख्याति यह है कि उन्हें माइक्रोसॉफ्ट वर्ड का मूल रचनाकार माना जाता है. इन्हीं रिचर्ड ब्रोडी की सद्य प्रकाशित किताब वाइरस ऑफ द माइण्ड: द न्यू साइंस ऑफ द मीम्स का सम्बन्ध विज्ञान की एक नई लेकिन विवादास्पद शाखा मीमेटिक्स से है. मीमेटिक्स असल में मनोविज्ञान, जीव विज्ञान, नृतत्वशास्त्र और संज्ञानात्मक विज्ञान की ऐसी शाखा है जो मानवीय समाज के अदृश्य किंतु यथार्थ डी एन ए का अध्ययन विश्लेषण करती है. रिचर्ड डॉकिंस, डगलस हॉफ्स्टेडटर, डैनियल डैनेट वगैरह ने विज्ञान की इस शाखा पर काफी काम किया है, लेकिन ब्रोडी इनके अध्ययन से आगे जाकर यह पड़ताल करते हैं कि इस विज्ञान का हमारी ज़िन्दगी पर क्या असर पडने वाला है. यह कुछ-कुछ उसी तरह का अध्ययन है कि आणविक भौतिकी का शीत युद्ध पर क्या प्रभाव पड़ा था? ब्रोडी का कहना है कि भले ही अणु बम ने दुनिया को बुरी तरह प्रभावित किया था, इन दिमागी विषाणुओं का असर भी उनसे कम नहीं होगा क्योंकि ये हमारी निजी ज़िन्दगी को ज़्यादा घातक तरह से प्रभावित करने वाले हैं.

यह समस्या कोई भावी समस्या नहीं है. इन विषाणुओं को फैलाने वाले अपने काम में दिन-ब-दिन अधिक सफल होते हा रहे हैं और जन संचार माध्यमों के हालिया विस्फोट और इंफर्मेशन हाइवे के विकास ने हमारी पृथ्वी को इन दिमागी विषाणुओं के पनपने की आदर्श जगह बना दिया है. ब्रोडी कहते हैं कि दिमागी विषाणु सरकारों, शिक्षा व्यवस्था और शहरों को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं और आज की अनेक समस्याएं जैसे यूथ गैंग, सरकारी स्कूलों के स्तर में गिरावट और बढती जा रही सरकारी लाल फीताशाही इसी वजह से है. सवाल यह है कि क्या मानवता एक दिमागी महामारी की तरफ बढ रही है? क्या चन्द लोग ही ऐसे होंगे जो इन विषाणुओं से अप्रभावित रहेंगे? रिचार्ड इन सब बातों पर पूरी तार्किकता से विचार करते हैं.
रिचार्ड बताते हैं कि किसी भी मानसिक विषाणु की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसमें कितनी संक्रमण क्षमता है, और विषाणु की इस क्षमता का उसकी उपादेयता या किसी अन्य मूल्य बोध से कोई लेना-देना नहीं होता. असल में तमाम मानसिक विषाणु मानव मस्तिष्क के एक अंतर्निर्मित तंत्र का इस्तेमाल करते हैं और इस तंत्र का सम्बन्ध होता है मनुष्य की चार मूल भावनाओं से: भय, लड़ाई, भोजन और साथी की तलाश. जो भी विषाणु इन या इनमें से किसी या किन्हीं भावनाओं के अनुकूल होता है वह ज़्यादा तेज़ी से संक्रमित होता है. समझा जा सकता है कि सारे धर्म, विज्ञान, कला, कानून, विधिक संस्थाएं, विज्ञापन, खतरे की आकांक्षाएं, अपराध और यौनाकांक्षा, यहां तक कि नारीवाद और पुरुषवाद- ये सब मानसिक विषाणु ही हैं. इस बात को और इस तरह समझें कि मनुष्य की आधारभूत रोटी, कपड़ा और मकान की ज़रूरत से आगे जो भी है वह मानसिक विषाणु ही है.

रिचार्ड एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात यह कहते हैं कि ये विषाणु लगातार प्रजनन करते और बढते रहते हैं, बगैर इस बात की परवाह किए कि उनसे मनुष्य को लाभ हो रहा है या हानि. यानि, मानसिक विषाणु सदा ही समूह के लिए काम करते हैं, व्यक्ति के लिए नहीं.

ब्रोडी की यह किताब एक दुधारी तलवार है. आप इसको पढकर अपने दिमाग को विषाणुओं से बचा सकते हैं, तो जिनका कोई स्वार्थ निहित है, वे इसी किताब को पढकर आपके दिमाग के लिए नए विषाणुओं के हमले की योजना भी बना सकते हैं.

Discussed book:
Virus of the Mind: The New Science of the Meme
By Richard Brodie
Publisher: Hay House
Hardcover, Pages 288
US $ 24.95

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम 'किताबों की दुनिया' के अंतर्गत रविवार, 28 जून, 2009 को प्रकाशित.









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Sunday, June 14, 2009

गेब्रियल गार्सिया मार्ख़ेस की जीवनी


साहित्यानुरागियों के लिए गेब्रियल गार्सिया मार्ख़ेस (जन्म 1928) का नाम अनजाना नहीं है. बीसवीं शताब्दी के तीन महानतम उपन्यासों ‘वन हण्ड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’, ‘द ऑटम ऑफ पैट्रियार्क’ और ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा’ का यह रचियता अपने लातिन अमरीका के सार्वजनिक जीवन में भी सक्रिय रहा है और राष्ट्रपतियों तथा तानाशाहों से उनकी अंतरंगता, विशेष रूप से फिडेल कास्त्रो से उनकी निकटता, वाम राजनीति में उनकी सक्रिय भागीदारी और फिल्म निर्माण और उनकी पत्रकारिता पर भी निरंतर चर्चा होती रही है. मार्खेज़ को 1982 में साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका है. अपने देश में तो मार्ख़ेस को एक सुपरस्टार का दर्ज़ा प्राप्त है ही, अमरीका जैसे उन देशों में भी उनको खूब पढ़ा और सराहा जाता है जिनकी आलोचना मार्ख़ेस के साहित्य में खूब है. उनको अपनी धरती का मार्क ट्वेन, देश का प्रतीक और राष्ट्रीय हास्य बोध का परिभाषक भी कहा जाता है. हिन्दी पाठकों ने जादुई यथार्थवाद के सन्दर्भ में भी उनको जाना है.
हाल ही में लातिन अमरीकी साहित्य के विशेषज्ञ, ब्रिटिश विद्वान गेराल्ड मार्टिन रचित इसी महान रचनाकार की जीवनी गेब्रियल गार्सिया मार्ख़ेस: अ लाइफ शीर्षक से प्रकाशित हुई है. इस जीवनी का महत्व इसी बात से समझा जा सकता है कि जब 2006 में उनसे उनके अतीत के बारे में कुछ पूछा गया तो मार्ख़ेस ने कहा था कि इस तरह की बातों के लिए तो आपको मेरे ऑफिशियल जीवनीकार गेराल्ड मार्टिन से ही पूछना चाहिये. खुद मार्ख़ेस ने कभी कहा था कि हरेक शख़्स की तीन ज़िन्दगियां होती हैं: एक सार्वजनिक ज़िन्दगी, एक निजी ज़िन्दगी और एक गोपनीय ज़िन्दगी. अब यह तो पाठक ही तै करेंगे कि मार्टिन 17 वर्षों की शोध और लगभग 300 इण्टरव्यू करने के बाद अपने नायक मार्ख़ेस की इन तीनों ज़िन्दगियों की उलझनों को किस हद तक सुलझा पाये हैं. यह उलझन इसलिए और बढ़ जाती है कि खुद मार्ख़ेस ने 2001 में प्रकाशित अपनी संस्मरण कृति ‘लिविंग टू टेल द ट्रुथ’ में और अन्यत्र अपने बारे में काफी कुछ ऐसा लिखा-कहा है जिसे अर्ध सत्य या किंवदंती की श्रेणी में रखा जा सकता है. वैसे, यहां यह बता देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि मार्टिन मार्ख़ेस की ज़िन्दगी पर एक और वृहद किताब तैयार कर रहे हैं जिसके 2000 पृष्ट और 6000 पाद टिप्पणियां तो अभी तैयार हैं.

1965 में रचित और 1966 में प्रकाशित ‘वन हण्ड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ मार्ख़ेस का चौथा उपन्यास (और पांचवीं किताब) है. इससे पहले ‘लीफ स्टोर्म’ (1955), ‘नो वन राइट्स टू द कर्नल’ (1961) और ‘इन इविल आवर’ (1962) उनके परिचित साहित्यिक समुदाय के बाहर कम ही पढ़े गए और इनके अंग्रेज़ी अनुवाद भी सॉलिट्यूड की ख्याति के बाद ही हो पाये. वैसे, इस जीवनी से ज्ञात होता है कि मार्ख़ेस ने सॉलिट्यूड पर 1940 में ही काम करना शुरू कर दिया था. इसे मार्ख़ेस की साहित्यिक महानता के रूप में रेखांकित किया जाता है कि सॉलिट्यूड के आठ बरस बाद वे ‘द ऑटम ऑफ द पैट्रियार्क’ के रूप में एक और मास्टरपीस दे पाये. मर्टिन ने ठीक ही कहा है कि पैट्रियार्क एक लातिन अमरीकी किताब है, न कि कोलम्बिया के बारे में है. इस किताब में सत्ता विमर्श के प्रति मार्ख़ेस का ज़बर्दस्त रुझान साफ देखा जा सकता है. पैट्रियार्क के एक दशक बाद आया उनका तीसरा महान उपन्यास ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा’. इन के अतिरिक्त भी मार्ख़ेस की कई किताबें प्रकाशित होती रही हैं.

खुद मार्ख़ेस का जीवन जैसा है, उसे देखते हुए यह उचित ही है कि जीवनीकार मार्टिन ने खुद को तथ्यों तक सीमित रखा है. मार्ख़ेस के बाल्यकाल के बारे में तो पहले भी काफी कुछ लिखा जा चुका है, इसलिए मार्टिन के पास नया कुछ बताने का अधिक स्कोप नहीं था, लेकिन उन्होंने एक महत्वपूर्ण काम यह किया है कि उनके बाल्यकाल और शेष जीवन को उनके रचनाकर्म के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है. मार्ख़ेस का बचपन उनके नाना निकोलस मार्ख़ेस मेज़िया के सान्निध्य में बीता था, वे नौ वर्ष की उम्र तक अपने नाना के पास ही रहे. नाना एक समृद्ध जौहरी थे और उन्होंने कोलम्बिया के विख्यात विनाशक एक हज़ार दिनों तक चले गृह युद्ध में भाग लिया था और उन्हें कर्नल की उपाधि प्रदान की गई थी. मार्टिन उस काल को इस महान कथाकार के साहित्य में चिह्नित करते हैं. इस जीवनी से हमें ज्ञात होता है कि सॉलिट्यूड और जादुई यथार्थवाद की जड़ें मार्ख़ेस के अराकटाका में बीते बचपन की घटनाओं में हैं. उपन्यास का काल्पनिक कस्बा मकोण्डो वहीं निकट के एक केले के बगीचे वाली जगह का रूपांतरण है और उपन्यास का विख्यात नरसंहार 1928 के एक वास्तविक नरसंहार का पुनर्सृजन है. मार्ख़ेस के जादुई यथार्थवाद की जड़ें उनकी नानी ट्रैंक्वेलिना में बी देखी जा सकती हैं जो खुद एक अन्ध विश्वासी औरत थी और अपनी दिनचर्या आंधी तूफान, तितलियां, सपने, गुज़रती हुई शव यात्राओं जैसे वातावरणीय संकेतों के आधार पर संचालित करती थी. तो इस तरह मार्ख़ेस पर उनके नाना और नानी के परस्पर भिन्न व्यक्तित्वों की गहरी छाप पड़ी. मार्टिन ने मार्ख़ेस के उनके पिता से तनावपूर्ण रिश्तों, 13 वर्ष की अल्प वय में उनके वेश्या गमन, 9 साल की मर्सीडीज़ से उनके 10 बरस लम्बे प्रणय प्रसंग वगैरह का रोचक और रंगारंग वृत्तांत प्रस्तुत किया है. उनके जीवन में आने वाली कई स्त्रियों से भी वे हमें परिचित कराते हैं. मार्टिन यह भी बताते हैं कि उम्र के दूसरे दशक के उत्तरार्ध में जब मार्ख़ेस पेरिस में थे, वे स्पैनिश एक्ट्रेस टैकिया क़्विंटाना के प्रेम में पागल हो उठे थे. इस प्रणय प्रसंग को मार्टिन ने मार्ख़ेस की कृति ‘नो वन राइट्स टू द कर्नल’ में ढूंढ निकाला है. मार्टिन ने अपने नायक के पत्रकारिता जीवन का भी विस्तृत ब्यौरा दिया है.

बावज़ूद इस बात के कि मार्ख़ेस ने उन्हें अपना आधिकारिक जीवनीकार कहा है, मार्टिन मार्ख़ेस के जीवन की बहुत सारे कोनों को प्रकाशित नहीं भी कर पाये हैं. मसलन जब मार्टिन इस पेरिस वाले प्रेम प्रसंग के बारे में मार्ख़ेस से जानना चाहते हैं तो वे कुछ भी बताने से इंकार कर देते हैं. तब मार्टिन अपने स्तर पर उस 82 वर्षीय महिला को तलाशते हैं और उससे इण्टरव्यू करके सेक्स प्रेम, और तीनों तरह की ज़िन्दगियों के बारे में मार्ख़ेस के सोच को उभारने का प्रयास करते हैं. यह एक उदाहरण है. मार्टिन का प्रयास निश्चय ही अपने समय के इस बड़े कथाकार को समझने में सहायक सिद्ध होगा.
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Discussed book:
Gabriel Garcia Màrquez: A Life
By Gerald Martin
Alfred A. Knopf,
642 pages, Illustrated
US $ 37.50

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित मेरे पक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 14 जून, 2009 को प्रकाशित आलेख का असंक्षिप्त रूप.








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Sunday, May 31, 2009

धोखा-धड़ी की दुनिया के भीतर से


अगर आप इंटरनेट और ई मेल का इस्तेमाल करते हैं तो आपको कभी न कभी इस आशय का ई मेल ज़रूर मिला होगा कि दूर किसी देश में कोई बेहद अमीर बहुत बड़ी दौलत छोड़ कर मर गया है और उसकी बेवा आपकी सहायता से वह दौलत देश से बाहर भेजना चाहती है. निश्चय ही आपको इस सेवा का पर्याप्त मोल चुकाया जाएगा. इतनी बड़ी रकम की बात सुनकर अगर आप ललचा जाएं और बाद के पत्राचारों में अपने बैंक खाते का विवरण भेज दें तो आपका ठगा जाना पक्का होता है. इस तरह की धोखाधड़ी का केन्द्र है नाइजीरिया. वहीं की लेखिका अडाओबी ट्रिशिया न्वाउबानी ने अपने पहले उपन्यास आई डू नॉट कम टु यू बाय चांस में इसी धोखाधड़ी को केन्द्र में रखकर एक दिलचस्प कथा कही है.

अपने परिवार का बड़ा बेटा किंग्सले इबे केमिकल इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर भी बेरोज़गार है. गरीब लेकिन आदर्शवादी मां-बाप ने बचपन से ही उसे सिखाया है कि शिक्षा से सारे बंद दरवाज़े खुल जाते हैं, लेकिन अब वह जानने लगा है कि दरवाज़े केवल शिक्षा से नहीं, जान-पहचान, जिसे नाइजीरिया में लोंग लेग कहा जाता है, से खुलते हैं. उसके बीमार पिता का निधन हो जाता है तो उसे अपने भाई बहनों की स्कूल की फीस तक चुकाना मुश्क़िल लगने लगता है. और जैसे इतना ही काफी न हो, उसकी खूबसूरत प्रेमिका ओला महंगी घड़ी और ब्राण्डेड चप्पलें दिला सकने वाले प्रेमी की खातिर उसे छोड़ देती है. मज़बूरन किंग्सले को अपने एक अंकल बोनीफेस की तरफ कर्ज़ के लिए हाथ पसारना पड़ता है. बहुत कम शिक्षित लेकिन खूब शान-ओ-शौकत से रहने वाले इस अंकल को कैश डैडी के नाम से जाना जाता है और यह उसी धोखा धड़ी का सफल संचालक है, जिसका मैंने प्रारम्भ में ज़िक्र किया और जिसे 419 के नाम से जाना जाता है. 419 असल में नाइजीरियाई कानून की वह धारा है जिसका सम्बन्ध धोखा-धड़ी से है. 419 को 420 का पर्याय माना जा सकता है.

परिवार की स्थिति बिगड़ती जाती है और किंग्सले कैश डैडी के जाल में गहरे फंसते जाता है. अपनी शिक्षा का इस्तेमाल करते हुए वह कैश डैडी के लिए भोले-भाले लोगों को मोहक ई मेल लिखना शुरू करता है. पहले तो उसे लगता है कि भला कौन इस तरह के ई मेल के झांसे में आयेगा, लेकिन जब उसके भेजे ई मेलों के जवाब आने लगते हैं तो उसकी अंतरात्मा उसे कचोटने लगती है कि वह भोले-भाले बेगुनाह लोगों को ठग रहा है. कैश डैडी उसे समझाता है कि अमरीका और यूरोप, जहां से ये जवाब आ रहे हैं, भला नाइजीरिया की तरह के मुल्क थोड़े ही हैं जहां अभाव और कष्ट हैं. उन समृद्ध मुल्कों में तो सरकार अपने नागरिकों के सारे दुख दर्द दूर करती ही रहती है. इसलिए किंग्सले को वहां के लोगों के कष्टों की चिंता नहीं करनी चाहिए. इस तरह अपराध बोध कम होने से वह धीरे-धीरे इस व्यवसाय में रमने लगता है और फिर तो आहिस्ता-आहिस्ता उसे भौतिक सुख-सुविधाएं रास आने लगती हैं. उसके भाई बहन भी उसकी इस नव अर्जित अमीरी का सुख भोगने लगते हैं. व्यवसाय में तरक्की करते-करते वह कैश डैडी का नम्बर दो ही बन जाता है.
उधर कैश डैडी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पालने लगता है और इसी क्रम में कुछ ऐसे ताकतवर लोगों को अपना शत्रु बना लेता है जो उसे नेस्तनाबूद करने पर उतारू हो जाते हैं तो कहानी एक नया मोड़ लेती है.

निश्चय ही इस कथा का नायक किंग्सले दूध का धुला नहीं है. लेकिन उन लोगों को क्या कहिए जो किंग्सले के शिकार इसलिए बनते हैं कि उन्हें बिना मेहनत किये अमीर होना है? याद आता है कि कई वर्ष पहले नाइजीरियाई दूतावास ने वाशिंगटन में एक बयान जारी किया था कि “419 जैसा कोई घोटाला न हो, अगर दुनिया में बिना बोये ही फसल काट लेने के इच्छुक सहज विश्वासी, लालची और अपराधी वृत्ति के लोग न हों.” नाइजीरिया के जन-जीवन और इस घोटाले की बारीकियों के चित्रण के लिहाज़ से उपन्यास खासा रोचक है.



Discussed book:
I Do Not Come To You By Chance
By Adaobi Tricia Nwaubani
Published by Hyperion
416 pages, Paperback
US $ 15.99

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 31 मई, 2009 को प्रकाशित.









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Monday, May 18, 2009

भारत: नई सुपरपॉवर


अपनी बहु-चर्चित किताब पोस्ट अमरीकन वर्ल्ड में फरीद ज़कारिया ने भविष्यवाणी की थी कि आने वाले वर्षों में अमरीका महाशक्ति नहीं रह जाएगा. और अब अपनी ताज़ा किताब इण्डिया एक्सप्रेस: द फ्यूचर ऑफ अ न्यू सुपरपॉवर में डेनियल लाक कह रहे हैं कि एशिया का अमरीका बनने की संभावनाएं भारत में हैं. कनाडा निवासी डेनियल लॉक लगभग दो दशक तक भारत और निकटवर्ती क्षेत्रों में बीबीसी के लिए काम कर चुके हैं और इस पूरे क्षेत्र से भली-भांति परिचित हैं. अपनी इस किताब में वे इतिहास, आंकड़ों, साक्षात्कारों और निजी अनुभवों के मेल से भारत की एक ऐसी उजली छवि रचते हैं जो काफी हद तक विश्वसनीय है. किताब की शुरुआत वे चेन्नई के एक कपड़े इस्तरी करने वाले राम नामक निम्न वर्गीय व्यक्ति के वृतांत से करते हैं जो अपने अमीर ग्राहकों से कर्ज़ा लेकर अपने बेटे को पढ़ाता है और इस तरह आर्थिक प्रगति की सीढियां चढता है. लाक इस इस्तरी वाले को समकालीन भारत के एक प्रतीक की तरह पेश करते हैं, जो पुरानी जंजीरों, जातिवाद और पिछड़ेपन से मुक्त हो कर अपने भविष्य का निर्माण कर रहा है.

डेनियल लाक मानते हैं कि आज़ादी के बाद से प्रजातंत्र का सतत निर्वाह करके भारत ने इस पूरे इलाके में खुद को बेजोड़ सिद्ध कर दिया है. उनका यह भी मानना है कि गठबंधन की राजनीति भारतीय प्रजातंत्र की परिपक्वता की सूचक है. उन्हें यह अच्छा लगा है कि गठबन्धन की राजनीति ने केन्द्र की ताकत में कमी की है. लाक याद दिलाते हैं कि भारत में 1996 से ही लगभग लगातार गठबन्धन सरकारें रही हैं और इन्हीं के दौर में महत्वपूर्ण आर्थिक बदलाव हुए हैं. आर्थिक मुद्दों की चर्चा करते हुए वे यह बताना भी नहीं भूलते कि हाल ही में अमरीका में बहुत सारी बड़ी वित्तीय संस्थाओं के चरमरा जाने से भारत, चीन, ब्रज़ील और रूस की अहमियत बढ़ी है.

प्रजातंत्र की वजह से वे इस इलाके में भारत को चीन की तुलना में बेहतर मानते हैं. उन्हें इस बात की खुशी है कि प्रजातांत्रिक भारत उन कई अतियों से बचा रह सका है जिनकी शिकार चीन की जनता हुई है. वे चीन से भारत की कोई तुलना इसलिए भी उचित नहीं मानते कि चीन की 94% जनता तो एक ही भाषा-भाषी है. लाक भारत की विविधता को इसकी बड़ी पूंजी मानते हैं. उन के अनुसार, भारत की जनता अपनी विविधता की वजह से व्यापक वैश्विक परिदृश्य में भी बेहतर स्थान पाने की हक़दार है क्योंकि पूरी दुनिया भी वैविध्यपूर्ण ही है और भारतीय जनता उसकी जटिलताओं को ज़्यादा अच्छी तरह समझ और उनके साथ निर्वाह कर सकती है. इसी विविधता की वजह से वे भारत की तुलना अमरीका से करना पसन्द करते हैं, जहां, उनके अनुसार, दुनिया का हर धर्म और विश्वास मौज़ूद है.

जब लाक भारत को एक महाशक्ति के रूप में देखते और पेश करते हैं तो यह बात वे सैन्य दृष्टि से नहीं कहते. वे भारत को पुराने अमरीका और रूस की तरह की सैन्य महाशक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक ऐसी महाशक्ति के रूप में देखते और पेश करते हैं जिसके पास अपने उदार मूल्य और दुनिया की बेहतरी की योजनाएं हैं और जो एड्स और पर्यावरण जैसे प्रश्नों को सुलझाने में जुटा है.

ऐसा नहीं है कि लाक का नज़रिया सिर्फ सकारात्मक है. भारत में बहुत सारी कमियां भी उन्हें नज़र आई हैं. गरीबी, भ्रष्टाचार, बढते शहरीकरण, विभिन्न धर्मों, जातियों और स्त्री-पुरुष के बीच की भारी असमानता आदि को वे भारत की प्रगति के राह की सबसे बड़ी अड़चनों के रूप में देखते हैं. लाक को भारत के पड़ोसी देश भी इसके लिए एक समस्या नज़र आते हैं लेकिन इसके लिए वे चाहते हैं कि भारत बेहतर डिप्लोमेसी का इस्तेमाल करे और इन देशों के साथ अपना बर्ताव सुधारे.

डेनियल लाक के पास भारत की उन्नति के लिए एक ख़ास नुस्खा यह है कि भारत को शासन का संघीय ढांचा अपना लेना चाहिए. वे चाहते हैं कि भारत में भी अमरीका की तरह लगभग स्वतंत्र राज्य सरकारें हों जो टैक्स वगैरह लगाकर खुद अपने वित्तीय संसाधन जुटा सके. केन्द्र के पास तो सिर्फ बड़े मुद्दे जैसे रक्षा, आर्थिक नीतियां, अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, स्वास्थ्य, शिक्षा वगैरह रहने चाहिए. अपनी बात को पुष्ट करने के लिए वे अमरीका के अलावा कनाडा, स्विटज़रलैण्ड और जर्मनी का उदाहरण देते हैं जिन्होंने संघीय ढांचा अपना कर खुद को आगे बढाया है.

डेनियल लाक अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में बेपनाह संघर्ष करने वाली भारत की जनता को इसकी सबसे बड़ी सम्पदा मानते हैं. मैं उन्हीं को उद्धृत कर रहा हूं: “एक भारतीय होने का अर्थ है दुनिया का सबसे बड़ा समस्या हल करने वाला होना, क्योंकि हर रोज़ आपको बेहद मुश्किल ज़िन्दगी से जूझना पड़ता है. बच्चों की शिक्षा से लगाकर चिकित्सा सुविधा और जीवन की आधारभूत ज़रूरतों तक, यानि अपने दैनिक जीवन के तमाम क्षेत्रों में गतिशील रहने के लिए आपको अत्यधिक चरित्रिक शक्ति की आवश्यकता होती है.” डेनियल लाक को यह शक्ति भारतीय जनता में नज़र आई है और इसीलिए उन्हें लगता है कि 2040 तक भारत एक महाशक्ति के रूप में पहचाना जाने लगेगा.
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Discussed book:
INDIA EXPRESS: The future of the New Superpower
By Daniel Lak
Published by Palgrave Macmillan
272 pages, Hardcover
US $ 26.95

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत रविवार, 17 मई, 2009 को प्रकाशित.








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Monday, May 4, 2009

दास्तान लापता पाण्डुलिपि, हत्या और अफीम व्यापार की


कथाकार चार्ल्स डिकेंस एक बार फिर से चर्चा में हैं. 2009 के शुरू में डैन साइमंस की किताब आई ड्रुड जो डिकेंस की अपूर्ण कृति द मिस्ट्री ऑफ एडविन ड्रुड पर आधारित थी, और अब आई है मैथ्यू पर्ल की किताब द लास्ट डिकेंस. चार्ल्स डिकेंस का निधन 9 जून 1870 को मात्र 58 वर्ष की उम्र में हृदयाघात से हुआ था. उस समय वे अपने उपन्यास द मिस्ट्री ऑफ एडविन ड्रुड की, जो कुल 12 धारावाहिक किश्तों में छपना था, महज़ छह किश्तें लिख पाए थे. धारावाहिक के बाद इसे पुस्तकाकार छपना था. इस उपन्यास का अंत क्या हो सकता था, यह आज भी साहित्यिक हलकों में चर्चा का प्रिय विषय है. एड्विन ड्रुड ज़िन्दा है या मारा जा चुका है? क्या उसे उसके चाचा जॉन जैस्पर ने मारा? या कि वह बच निकला? कुछ ऐसे ही सवालों की रोचक परिणति है मैथ्यू पर्ल का यह उपन्यास. पर्ल आधी हक़ीक़त आधा फसाना शैली में अपने उपन्यास लिखा करते हैं, जिन्हें अब ऐतिहासिक उपन्यास विधा की एक उप शैली साहित्यिक थ्रिलर के अंतर्गत रखा जाने लगा है. इस शैली के उनके दो उपन्यास पहले ही खासे चर्चित रह चुके हैं: द दांते क्लब और द पो शेडो.

अपने इस ताज़ा उपन्यास द लास्ट डिकेंस की शुरुआत वे डिकेंस के बेटे फ्रैंक के वर्णन के साथ करते हैं जो भारत में बंगाल माउण्टेड पुलिस में सुपरिंटेंडेंट है. लेकिन उपन्यास की केन्द्रीय कथा का ताल्ल्लुक चार्ल्स डिकेंस के इस असमाप्त उपन्यास से है. फ्रैंक की कथा बाद में इससे जुड़ती है.

यह कथा बोस्टन शहर से शुरू होती है जहां डिकेंस के अमरीकी प्रकाशक फ़ील्ड्स, ऑस्गुड एण्ड कम्पनी के लोग इंग्लैण्ड से इस धारावाहिक उपन्यास की अगली किश्त के आने के इंतज़ार में हैं. कम्पनी के पार्टनर जेम्स ऑस्गुड ने अपने एक युवा क्लर्क डैनियल सैण्ड्स को बोस्टन समुद्र तट पर भेजा है कि वह लंदन से भेजी हुई यह किश्त लेकर आए, लेकिन कुछ किताब तस्कर और एक रहस्यपूर्ण व्यक्ति उसका पीछा करते हैं और उसे घायल करके मार डालते हैं. उपन्यास की किश्त गायब हो जाती है. पुलिस को शक़ है कि सैण्ड्स खुद इस पाण्डुलिपि को गायब करने के षडयंत्र में शामिल था. प्रकाशक के लिए यह जीवन मरण का प्रश्न है. डिकेंस उस ज़माने में इतने लोकप्रिय थे कि उनकी किताबों को खरीदने के लिए डेढ़ मील लम्बी कतार लगा करती थी. ऐसे लेखक का उपन्यास अधूरा रह जाए तो उन्हें भारी नुकसान होगा. तो, खुद जेम्स ऑस्गुड अपने प्रकाशन संस्थान की एक युवा विधवा कर्मी रेबेका सैण्ड को साथ लेकर लंदन रवाना होते हैं, यह पता करने कि डिकेंस ने उपन्यास पूरा भी किया या नहीं, और डिकेंस ने उपन्यास पूरा न भी किया हो तो, उपन्यास का अंत क्या हो सकता था? रेबेका उसी मृत क्लर्क की बहन है. ऑस्गुड के सामने दोहरी चुनौती है. एक, डिकेंस के उपन्यास के रहस्य की तह में पहुंच कर अपने व्यापार को बचाने की, और रेबेका का दिल जीतने की.

केण्ट में ऑस्गुड डिकेंस के परिवार के लोगों से मिलते हैं, उन ग्रामीणों से मिलते हैं, जिन के आधार पर कथाकार ने एड्विन ड्रुड सहित अपने कई चरित्रों की रचना की. और इस तरह मैथ्यू पर्ल उस महान कथाकार डिकेंस की एक प्रामाणिक तस्वीर भी उकेर पाते हैं. केण्ट में ही यह रचना एक नया मोड़ भी लेती है. पर्ल यहां से डिकेंस के अपूर्ण उपन्यास की कथा को उस अफीम व्यापार से जोड़ते हैं जो इंगलैण्ड द्वारा भारत से संचालित किया जा रहा था और जिसका लक्ष्य था पूरे चीन को नशे का गुलाम बना डालना. स्वाभाविक है कि इस नशे के व्यापार का एक आयाम संगठित अपराध भी था. और इसीलिए यह कृति साहित्यिक थ्रिलर की कोटि में आती है. पर्ल ने इतिहास और कल्पना का बहुत खूबसूरत मेल किया है.

बहुत कुशलता से बुना गया यह उपन्यास अपने पाठक को रोमांचक अनुभूति तो देता ही है, 19 वीं शताब्दी के मध्य के जन-जीवन से भी परिचित कराता है. यहां एक साहित्यकार, उसकी असमाप्त कृति, जटिल चरित्र, तेज़ गति से घटती घटनाएं, अफीम की तस्करी, खून-खराबा, प्रकाशकों की आपसी प्रतिस्पर्धा, साहित्यिक पायरेसी, और मोहक प्रेम-कथा सब कुछ है. एक पाठक को और भला चाहिए भी क्या?

Discussed book:
The Last Dickens
By Mathew Pearl
Random House
386 pages
US $ 25

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 03 मई 2009 को प्रकाशित.








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Monday, April 13, 2009

नए भारत में प्रेम की तलाश


तीस पार की अनिता जैन एक पत्रकार हैं. हॉर्वर्ड में पढी और न्यूयॉर्क मैगज़ीन, वाल स्ट्रीट जर्नल, फाइनेंशियल टाइम्स, ट्रेवल एण्ड लेज़र जैसी पत्रिकाओं में छपती रही हैं और मेक्सिको सिटी, लंदन, न्यूयॉर्क वगैरह में काम कर चुकी हैं. 2005 में उन्होंने न्यूयॉर्क मैगज़ीन में एक लेख लिखा कि वे अमरीकी डेटिंग व्यवस्था से ऊब चुकी हैं और अब उस परम्परागत ‘अरेंज्ड’ भारतीय विवाह के बारे में सोच रही हैं जिसके अब तक वे खिलाफ रही थीं. मेरिइंग अनिता: अ क्वेस्ट फोर लव इन द न्यू इण्डिया शीर्षक अपनी संस्मरणात्मक किताब में अनिता ने इसी बारे में अपनी भारत यात्रा का दिलचस्प वृत्तांत प्रस्तुत किया है. अनिता उन महिलाओं में से हैं जिन्होंने आधुनिकता को न केवल जिया, बल्कि भली भांति समझा भी है और इसीलिए वे उसके बारे में सवाल उठाने में भी समर्थ हैं. उनका यह पूछना कि क्या आधुनिकता वाकई हमें आगे ले जा रही है, बहुत अर्थपूर्ण है. इसलिए अर्थपूर्ण है कि अगर स्त्री के सदर्भ में आधुनिकता का अर्थ आज़ादी है तो फिर क्यों इतनी बड़ी तादाद में स्त्रियां अपने ही रचे अकेलेपन के जाल में कैद हैं?

हम भारतीयों को अनिता की इस टिप्पणी से खुशी होगी कि दिल्ली में डेटिंग न्यूयॉर्क की तुलना में कम जटिल, कम भरमाने वाली और अहं को कम आहत करने वाली है. यह बात वे पुराने किस्म के वधू-आकांक्षी मर्दों और नए ज़माने के आत्म-विश्वास से लबरेज़ भारतीय युवकों की तुलना के बाद कहती हैं. उन्होंने अनुभव किया कि न्यूयॉर्क के युवा ड्रिंक्स पर या ऑनलाइन डेटिंग पर भले ही मज़ाकिया और सुसंस्कृत होने का आभास देते हों, उनमें व्यक्तित्व और कमिटमेण्ट का अभाव साफ नज़र आता है. वे खुद को न्यूयॉर्क की अन्य महिलाओं की ही तरह मानती हैं जिनकी शिकायत होती है कि मर्द लोग या तो बेहद महत्वाकांक्षी होते हैं या क़तई नहीं, वे या तो बहुत आतुर होते हैं, या बिल्कुल भी नहीं. पत्नी के रूप में उन्हें एक ऐसी स्त्री की तलाश होती है जो उनके बॉस, दोस्तों और परिवार के सामने गर्व से प्रस्तुत की जा सके. वे चाहते हैं कि उनकी पत्नी किसी पार्टी में जाकर महज़ डाइट कोक ही न ले, मार्टिनी भी सिप करे. लेकिन उनकी चाहत यह भी होती है कि वह मार्टिनी के तीन गिलास न पी जाए.

अनिता दिल्ली आकर बदले हुए भारतीय यथार्थ से रू-ब-रू होती हैं और अमरीकी यथार्थ से उसकी तुलना करती चलती हैं. वैसे तो उन्हें लगता है कि अमरीका में अपने मूल देश के बारे में वे जो सुनती रही है, असलियत उससे काफी आगे निकल चुकी है और पिछले पांच-दस बरसों में शहरी भारत बहुत बदला है. फिर भी भारत का बड़ा हिस्सा अभी भी जाति और वर्ग की गिरफ्त में है. उन्हें भारत में ऐसे युवा मिलते हैं जो एक तरफ तो मुक्त जीवन के आकांक्षी हैं और दूसरी तरफ जाति की बेड़ियों में भी मज़बूती से जकड़े हुए हैं. उनकी कई चचेरी बहनें हैं जो छोटे कस्बों में रहती हैं और जिन्हें इतनी भी आज़ादी मयस्सर नहीं है कि वे अपने मन से अपने गहने तक उतार सकें, लेकिन फिर भी वे खुश हैं.

अनिता कहती हैं कि ज़्यादातर भारतीय भाषाओं में शादी या इसका समानार्थक शब्द ही वह शब्द है जो बच्चा मम्मी और पापा शब्दों के बाद सीख लेता है. मां-बाप के मन पर अपनी बेटी की चिंता सदा छायी रहती है. वे बताती हैं कि जब अपने छुटपन में वे एक तीन-मंज़िला इमारत की बालकनी से नीचे गिर पड़ी तो उनकी मां की पहली चिन्ता यही थी कि इस लड़की का हाथ टूट चुका है, यह जानने के बाद कौन लड़का इससे शादी करेगा?

अनिता पाती हैं कि भारत में शादी के मामले में पढाकू डॉक्टर या इंजीनियर की सबसे ज़्यादा मांग है, लेकिन उनकी अपनी मानसिकता इनकी बजाय किसी पढे लिखे, फेमिनिस्ट मानसिकता वाले, खूब दुनिया देखे जीवन साथी की चाह रखती है. यहां वे एक 35 वर्षीय भारतीय वकील से मिलती हैं, जिसका नाम नील है. नील कहता है कि यह कैसी अजीब बात है कि अमरीका में एक युगल वर्षों डेटिंग करता है फिर भी तै नहीं कर पाता कि उन्हें शादी करनी है या नहीं, जबकि भारत में एक या दो मुलाक़ातों में ही इस बात का निर्णय हो जाता है. अनिता कहती हैं कि उन जैसी स्त्रियों की तो यह आदत ही बन चुकी है कि डेटिंग के मामले में वे दो तरह के रवैये रखती हैं. जब वे किसी भारतीय के साथ डेट पर जाती हैं तो उससे जो बात कहती हैं (मैं चाहती हूं कि मेरा पति मेरे घर के काम काज में हाथ बंटाये) वह बात वे किसी अमरीकी युवक से कभी नहीं कहतीं.

अनिता सबसे खास बात यह कहती हैं कि न्यूयॉर्क में उनकी कुछ एकल मित्र अभी भी इस बात के प्रति आश्वस्त नहीं हैं कि उन्हें शादी कर ही लेनी चाहिए. असल में, कोई भी आधुनिक स्त्री किसी भी विकल्प का दरवाज़ा बन्द नहीं करना चाहती. अनिता यह भी कहती हैं कि अमरीका और भारत दोनों ही देशों में किसी स्वतंत्र विचारों वाली, मज़बूत राय रखने वाली और ज़्यादा मीन-मेख निकालने वाली लड़की की शादी हो पाना मुश्क़िल है. वे सबसे खास बात तो यह कहती हैं कि आप भले ही किसी लड़की को अमरीका से बाहर ले जाएं, अमरीकी आदर्शों को उसके दिल से बाहर नहीं निकाल सकते.

क्या यही बात हिन्दुस्तानी लड़कियों के बारे में भी नहीं कही जा सकती?


राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित मेरे पाक्षिक कॉलम 'किताबों की दुनिया' के अंतर्गत रविवार, दिनांक 12 अप्रेल, 2009 को प्रकाशित आलेख का किंचित विस्तृत पाठ.

Discussed book:
Marrying Anita: A Quest for Love in the New India
By Anita Jain
Published by Bloomsbury USA
Pages 320
Us $ 24.99










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Monday, March 23, 2009

अपना देश छोड़ने की पीड़ा


कैलिफोर्निया में बस चुके ईरानी आप्रवासी मां-बाप की संतान, लम्बे समय तक ‘टाइम’ पत्रिका की मध्यपूर्व सम्वाददाता और लिप्स्टिक जिहाद नामक चर्चित पुस्तक की लेखिका आज़ादेह मोआवेनी की नई संस्मरणात्मक किताब हनीमून इन तेहरान: टू ईयर्स ऑफ लव एण्ड डेंजर इन ईरान अपने पाठकों को एक बन्द समाज के भीतर झांकने का विरल अवसर प्रदान करती हैं. वे ‘टाइम’ पत्रिका के लिए महमूद अहमदीनेजाद के चुनाव की खबरें देने के लिए ईरान आती हैं और यहां आकर एक युवक के प्रेम में पड़कर ईरान के लिहाज़ से बहुत अपारम्परिक, बल्कि दुस्साहसिक ज़िन्दगी जीती हैं. वे वहां अपने बॉय फ्रैण्ड के साथ न केवल रहती हैं, विवाह पूर्व गर्भवती भी हो जाती हैं. ईरान में इस ‘ज़ुर्म’ की सज़ा मौत थी. वे लिखती हैं, “अगर हम न्यूयॉर्क, बर्लिन या ऐसी ही किसी और जगह रह रहे होते तो यह बात खास चिंता का विषय नहीं होती. लेकिन ईरान के इस्लामी गणतंत्र में यह मुमकिन नहीं है कि कोई शादी किए बगैर गर्भ धारण कर ले. किसी व्यक्ति के लिए ऐसी सामाजिक श्रेणी का यहां कोई अस्तित्व ही नहीं है.” आज़ादेह अपने गर्भ को छिपाते हुए मुस्लिम शैली से विवाह करने के लिए रिश्वत का सहारा लेती है. फिर भी यह भय तो बना ही रहता है कि अगर इस्लामी अधिकारियों को उसकी गर्भावस्था का पता चल गया तो खैर नहीं है. लेकिन, आज़ादेह बताती हैं कि रुढिग्रस्त ईरान में हर तरह की आज़ादी सुलभ थी, बशर्ते आप रिश्वत देने को तैयार हों.

किताब में आज़ादेह की प्रेम कथा के समानांतर एक और कथा चलती है. यह कथा एक मिस्टर एक्स की है जिन्हें उन पर जासूसी करने के लिए तैनात किया गया है. आज़ादेह लिखती हैं, “कुछ समय तो लगा जैसे यह शख्स एक नियंत्रक पति की भूमिका अदा कर रहा है.” कोई सात बरस तक लेखिका और मिस्टर एक्स लुका-छिपी का खेल खेलते रहते हैं. मिस्टर एक्स सब कुछ जानना चाहते हैं, लेखिका किससे मिल रही है, किसको इण्टरव्यू कर रही है, उसके दोस्त कौन- कौन हैं, वगैरह. और लेखिका यह जानने को व्यग्र हैं कि आखिर उसकी मंशा क्या है. और इस तरह उसके सामने उसकी मातृभूमि का नया चेहरा उभरता है. ऐसी मातृभूमि, जहां वाद्य वादन तक के लिए परमिट लेना पड़ता है और जहां शादी के स्वागत समारोह तक प्रतिबन्धित हैं.

बहुत सारे प्रसंग इस किताब को रोचक और मार्मिक बनाते हैं. ऐसा ही एक प्रसंग है जब वे एक विश्वविद्यालय में एक महत्वपूर्ण इण्टरव्यू के लिए जाती हैं लेकिन उन्हें दरवाज़े से ही महज़ इसलिए लौटा दिया जाता है कि उनके लबादे पर पर्याप्त बटन नहीं हैं. वे लिखती हैं, “इण्टरव्यू से वंचित किए जाने पर क्रोध और अपने अपमान की वजह से आंखों से आंसू फूट पड़े. मैंने बमुश्किल खुद को गार्ड लोगों के सामने हताश दिखाई देने से रोका और भाग कर अपनी टैक्सी में घुस गई. फिर खुल कर रोई.”. ईरान में औरतों की स्थिति पर टिप्पणी करती हुई वे बताती हैं कि उन्हें कभी भी यह कहा जा सकता है कि उन्होंने खुद को पर्याप्त रूप से ढक नहीं रखा है, या कभी भी किसी ऐसी वेब साइट को बन्द कर दिया जाता है जो स्त्री विषयक मुद्दों को उठाती है. इसी चक्कर में सरकार समाचार और राजनीति से सम्बद्ध हज़ारों वेब साइट्स को भी बन्द कर चुकी है. लेकिन इस सबके बीच भी ईरानी लोग उन नियमों-कानूनों को तोड़ने के अपने तरीके निकालते रहते हैं जिन्हें वे नापसन्द करते हैं. जैसे, बाहर की दुनिया से जुड़ने के लिए वे सेटेलाइट डिश का उपयोग कर लेते हैं. कभी युवा लोग हिम्मत करके प्रतिबन्ध तोड़ते हैं तो कभी अधिकारीगण अवहेलनाओं की अनदेखी करते हैं.

आज़ादेह के लेखन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि गहरे मानसिक संताप से गुज़रने के बवज़ूद बेहद संतुलित बनी रहती हैं और निर्मम तटस्थता के साथ चीज़ों को देखती-दिखाती हैं. उनकी निजी ज़िन्दगी के ये प्रसंग अंतत: हमें ईरान में विद्यमान स्थितियों की झलक दिखाते हैं और यह महसूस कराते हैं कि इंसान आज़ादी की कमी से कितना त्रस्त रहता है. मिस्टर एक्स उनसे कहते हैं कि जाओ दुनिया को कह दो कि हम जनतांत्रिक हैं, लेकिन आज़ादेह के अनुभव उन्हें इस बात को स्वीकार नहीं करने देते. उन्हें तो ईरान एक दमनकारी, बन्द देश ही लगता है और वे अंतत: अपने पति और बेटे के साथ देश छोड़कर लन्दन जा बसती हैं. देश छोड़ने का दर्द उनके एक-एक शब्द से रिसता है.

Discussed book:
Honeymoon in Tehran: Two Years of LOVE and DANGER in IRAN
By Azadeh Moaveni
Random House,
Hardcover, Pages 352
US $ 26

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 22 मार्च, 2009 को प्रकाशित.







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Sunday, March 8, 2009

आनन्द के पीछे छिपा अवसाद


अगर आपका यह खयाल है कि भ्रष्टाचार हिन्दी व्यंग्य लेखकों की कमज़ोरी है, तो कृपया विख्यात पत्रकार मैक्लीन जे स्टोरर की इस कृति, फॉर्वर्ड ओ पीजेण्ट को ज़रूर पढें. आप मान जाएंगे कि यह तो सर्वव्यापी है. अगर आप पहले से भी ऐसा मानते हैं तो भी कोई हर्ज़ नहीं. किताब फिर भी आपको निराश नहीं करेगी. तो, पहले किताब की ही बात कर ली जाए.

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक काल्पनिक शाखा यू एन मेट एक युवा ब्रिटिश समाज विज्ञानी डॉ फिलिप स्नो को वियतनाम भेजना चाहती है. इस शाखा का एक कर्मी, एक युवा स्वीडी, वहां से लापता हो गया है और इस कारण वहां भेजी जाने वाली सहायता राशि रुक गई है. यह भी शिकायत मिलती रही है कि बर्ड फ्लू पर शोध के लिए जो राशि दी जाती रही है उसके उपयोग में अनियमितताएं बरती जा रही हैं. स्नो को इस सबकी पड़ताल करनी है. स्नो वियतनाम के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जानता. लेकिन उसने सुन रखा है कि वहां की धरती पर एक खास तरह का हानिप्रद रसायन, जिसका नाम एजेण्ट ऑरेंज है, पाया जाता है. यह रसायन कैंसर उपजाता है. ज़ाहिर है कि वह वियतनाम जाने को उत्सुक नहीं है. लेकिन उसे जाना पड़ता है.

स्नो के वियतनाम पहुंचने से वे सारे अधिकारी परेशान हो उठते हैं जो अपने-अपने तरीके से उस शोध राशि को खर्च करने की तैयारी में थे और हैं. वे लोग स्नो को अपनी जांच से विचलित करने के लिए अजीबो-गरीब हरकतें करते हैं, और वे हरकतें ही इस कृति को दिलचस्प बनाती हैं. किसम-किसम के ये अधिकारी बेहद लोलुप हैं और शुरू-शुरू में तो स्नो के प्रति लिजलिजी विनम्रता का प्रदर्शन करते हैं, लेकिन जब उन्हें लगता है कि स्नो उनके झांसे में आने वाला नहीं है और अपने काम को ईमानदारी से अंजाम देने की ज़िद्द पर अड़ा है तो वे हताश होकर जासूसी के गम्भीर आरोप में उसके घर पर आधी रात गए एक छापा पड़वा देते हैं. वियतनाम में स्नो खुद को जिन चरित्रों से घिरा पाता है वे किसी भी तरह उस तथाकथित रसायन एजेण्ट ऑरेंज से कम घातक नहीं हैं, चाहे वे आक्रामक मार्क्सिस्ट चिंतक हों, वियतनाम में रह रहे विदेशी नशेड़ी हों, ज़रूरत से ज़्यादा सजग भिखारी हों, पगले वेटर हों या कठपुतली नौकरशाह.

रचना की रोचकता उन सारी स्थितियों में है जिन्हें ये बेईमान लोग अपनी कारगुजारियों से या बचाव के लिए पैदा करते हैं. एक फुटबाल मैच के दौरान वान इम्स्ट द्वारा खराब हो चुके टीके लगाने और उनके द्वारा जर्मन खिलाड़ियों की तबियत खराब हो जाने का वर्णन हो या एक मेक्सिकी अधिकारी की वियतनाम यात्रा के दौरान उसे खुश करने के हास्यास्पद प्रयासों और खुद उस अधिकारी की बेहूदा हरकतों का वर्णन, लेखक एब्सर्ड स्थितियां रचकर स्थितियों की भयावहता उजागर करने में कामयाब रहता है.

उसके इन प्रयासों में उसकी व्यंग्यात्मक भाषा खूब मददगार सिद्ध होती है. कुछ बानगियां पेश हैं: ‘वियतनाम में रहना ऐसा ही था जैसे आपको ओमेन के बीच धकेल दिया गया है. चारों तरफ डरावनी बातें घटित हो रही थीं और उनके खत्म होने के कोई आसार भी दिखाई नहीं दे रहे थे.’ या ‘पूरा परिवार एक आउटडोर कैफे में एक बड़ी गोल टेबल के चारों तरफ बैठ कर फुटबाल के आकार की एक आइसक्रीम को निपटाने की कोशिश कर रहा था’ या डॉ स्नो के बारे में लेखक की यह टिप्पणी कि ‘वियतनाम में उसकी नियति यही थी कि या तो वह उपहास का पात्र बने या एक एटीएम मशीन बना रहे. अक्सर तो उसे दोनों ही भूमिकाओं में रहना पड़ता था.’

स्टोरर ने खुद 15 बरस वियतनाम में बिताये हैं इसलिए उन्हें वहां की अन्दरूनी स्थितियों की अच्छी जानकारी है, और उस जानकारी का उन्होंने इस किताब में बहुत उम्दा तरह से इस्तेमाल किया है. फार्वर्ड ओ पीजेण्ट की कथा निकोलाई गोगोल की विख्यात कृति ‘इंस्पेक्टर जनरल’ की याद ताज़ा करती है तो इसका अन्दाज़े-बयां श्रीलाल शुक्ल की अमर कृति ‘राग दरबारी’ का स्मरण कराता है. किताब आपको बांधे रखने में पूरी तरह कामयाब है. आप पढते हुए आनंदित होते हैं, लेकिन उस आनंद के पीछे गहरा अवसाद भी घनीभूत होता रहता है.
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Discussed book:
Forward O Peasant
By Maclean J Storer
Published by Gauss Publishing
Paperback, 324 pages
Price US $ 16.95

राजस्थान पत्रिका के  रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 08 मार्च 2009 को प्रकाशित.



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Saturday, March 7, 2009

हम तो ऐसे हैं भैया

कोई चार बरस बाद फिर से दिल्ली के इन्दिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर आना हुआ तो उसकी बदली शक्ल-सूरत देख कर बड़ा अच्छा लगा. चौबीस घण्टों के अंतराल में ही तीन अलग-अलग हवाई अड्डों को छूने का मौका मिला और अलग-अलग तरह के अनुभव हुए. दिल्ली के इंदिरा गांधी हवाई अड्डे पर पहले से ज़्यादा चमक-दमक और सुविधाएं नज़र आईं लेकिन भीड़-भाड और अव्यवस्था में कोई बदलाव नहीं मिला. लंदन का हीथ्रो हवाई अड्डा अपनी विशालता की वजह से आतंकित करता लगा लेकिन यह भी महसूस हुआ कि उस विशालता के बावज़ूद वहां कोई अव्यवस्था नहीं है. अमरीका के सिएटल हवाई अड्डे को हालांकि उतना बड़ा तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन हमारे अपने हवाई अड्डे से काफी बड़ा होने के बावज़ूद वह अपनी सुविधाओं और व्यवस्थाओं में बहुत अंतरंग और आत्मीय लगा. इमिग्रेशन काउण्टर के ठीक पीछे बहुत बडी दीवार पर अमरीका में स्वागत की घोषणा देवनागरी लिपि में भी देखकर गर्व भी हुआ प्रसन्नता भी.

जयपुर से दिल्ली तक का टैक्सी का सफर यों तो ठीक था लेकिन बहरोड़ से निकलते ही जो भीषण ट्रैफिक जाम लगा मिला तो एक बार तो हमारे होश ही उड़ गए. गाड़ी से बाहर निकल कर पता किया तो बताया गया कि अगले दो-तीन घण्टे तो इस जाम के हटने की कोई सम्भावना नहीं है. यानि हमारी फ्लाइट तो मिस होनी ही है. गाड़ी में बैठे-बैठे ही अमरीका में बैठी बेटी से भी लगातार बात हो रही थी और हमारी चिंता के घेरे में वह भी आ रही थी. लेकिन जैसे कोई चमत्कार हुआ, जाम हटा और हम कुछ देर से ही सही, हवाई अड्डे पहुंच गये. फ्लाइट सात बजे थी, हम छह बजे पहुंच गए. वहां जाकर पता चला कि फ्लाइट भी एक घण्टा लेट है. इस बात से और ज़्यादा राहत मिली. चैक-इन हम जयपुर में अपने घर से ही कर चुके थे. तकनीक ने ज़िन्दगी को कितना आसान बना दिया है! जिस काम के लिए हवाई अड्डे पर लम्बी जद्दो-जहद करनी पड़ती थी, वह तो घर बैठे दो-चार मिनिट में ही हो गया था. न केवल दिल्ली की, लन्दन की चैक-इन भी हमने घर से ही कर ली थी और अपने बोर्डिंग पास हमारे हाथों में थे, अब तो बस सुरक्षा जांच और सामान जमा करवाने का काम बाकी था. ये काम भी आसानी से हो गए.

हम भारत में हैं और भारतीयों के बीच हैं यह एहसास हुआ कुछ देर बाद. ब्रिटिश एयरवेज़ की दिल्ली-लन्दन फ्लाइट में जहाज के अन्दर घुसने के इंतज़ार में हम जहां बैठे थे, उस जगह के ठीक सामने एक टेलीफोन बूथ था. नज़ारा यह था कि एक आदमी फोन पर बात करता और दस उससे करीब-करीब सटकर अपनी बारी का इंतज़ार करते. इंतज़ार करते हुए वे खूब जोर-जोर से बातें भी करते जा रहे थे. ज़ाहिर है ये दोनों स्थितियां टेलीफोन करने वाले के लिए कष्टप्रद थीं. थोडी देर बाद एक और नज़ारा सामने आया. जैसे ही यह घोषणा हुई कि बोर्डिंग शुरू हो रही है, लोग दरवाज़ों की तरफ उमड़ पडे. कुछ इस अन्दाज़ में कि अगर पहले नहीं घुसे तो सीट से हाथ धोना पड़ जाएगा, जबकि हरेक की सीट पूर्व निर्धारित होती है. आप पहले जाएं या बाद में, सीट वही रहती है. बार-बार कहा जा रहा था कि पहले अमुक-अमुक श्रेणी के लोग प्रवेश करेंगे, लेकिन इसके बावज़ूद दूसरी श्रेणियों के यात्री भी भीतर जाने के लिए संघर्ष कर रहे थे. बेचारी हवाई कम्पनी की लड़कियों की हालत उन्हें रोकने में खराब हो रही थी. मैं सोच रहा था, भारत में अभी भी हवाई यात्रा समाज के अपेक्षाकृत सम्पन्न और शिक्षित वर्ग तक सीमित है, लेकिन इस वर्ग के व्यवहार से यह कहीं भी नहीं लगता कि किसी तरह के अनुशासन और व्यवस्था के संस्कार इनमें हैं. ऐसा ही थोड़ी देर बाद फिर से महसूस हुआ. हवाई जहाज जब उड़ान भरने लगता है तो यात्रियों से अनुरोध किया जाता है कि वे अपने सेल फोन, लप टॉप वगैरह बन्द कर दें, सीट बेल्ट बांध लें और सीट अगर पीछे की हुई है तो उसे सीधा कर लें. ज़्यादातर यात्रियों ने इन निर्देशों की अनदेखी की और बेचारी एयर होस्टेसों को हर यात्री से अलग-अलग इस बात का अनुरोध करना पड़ा. लंदन से सिएटल की फ्लाइट में जहां, भारतीय यात्री अपेक्षाकृत कम थे, यह देखने को नहीं मिला. यात्रियों ने स्वत: निर्देशों का पालन किया बल्कि, जो थोड़े बहुत भारतीय भी फ्लाइट पर थे, देखा-देखी उनका व्यवहार भी बेहतर था. आखिर ऐसा क्यों होता है कि जब हम भारत में होते हैं तो हमारा व्यवहार अलग होता है, और जब हम भारत से बाहर होते हैं तो अलग!

क्या भारत में हम भारतीय हमेशा ऐसे ही रहेंगे?








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