Sunday, June 1, 2008

तो फिर भगवान ही मालिक है....


राजस्थान में पिछले लगभग एक सप्ताह से एक बडे आन्दोलन की वजह से जन-जीवन बुरी तरह दुष्प्रभावित है. जन-धन की अपार हानि हुई है और लोगों को भयंकर असुविधाओं का सामना करना पड रहा है. राज्य के आधे ज़िलों में इस आन्दोलन का असर है. आन्दोलन राजस्थान की सीमाओं को पार कर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को भी अपनी लपटों से झुलसा चुका है. जिन मांगों को लेकर यह आन्दोलन हुआ है, उन्हीं मांगों को लेकर ठीक एक बरस पहले भी ऐसा ही आन्दोलन हुआ था. यहां हम इस आन्दोलन के पीछे की मांगों के औचित्य पर कोई चर्चा नहीं करना चाहते. वह अलग से चर्चा और बहस का विषय है. महत्वपूर्ण और विचारणीय बात यह है कि एक स्वस्थ प्रजातंत्र में क्या इस तरह के आन्दोलन की कोई जगह होनी चाहिए? मेरा ज़ोर इस तरह पर है. इस तरह का, यानि जिसमें हिंसा हो, गोलियां चलें, बसों के शीशे तोडे जाएं, चलती गाडियों पर पथराव किए जाएं, रेलों की पटरियां उखाडी जाएं, सम्पत्ति का -चाहे निजी हो या सार्वजनिक- नुकसान किया जाए, लोगों को अपने काम पर जाने से रोका जाए, रास्ते रोके जाएं, रेलों बसों का संचालन बन्द करना पडे, सैंकडों हज़ारों लोगों को रोजी रोटी से महरूम रहना पडे, आदि. और यह सब इसलिए कि समाज का एक वर्ग सरकार से कुछ चाहे और सरकार वह न देना चाहे या न दे सकती हो. अगर यह उचित है और यही होना है तो फिर मैं यह जानना चाहूंगा कि यह एक सभ्य समाज है या जंगल की दुनिया? ऐसी दुनिया, जिसमें बाहुबल ही सब कुछ है! समाज का एक वर्ग अपनी ताकत के बल पर यह ज़िद ठान ले कि जो उसे चाहिए वह लेकर रहेगा. अगर एक साथ कई वर्ग ऐसा करने लगें तो? कल्पना करके ही डर लगने लगता है. वैसे, इसी आन्दोलन वाली मांग के सन्दर्भ में हम इस भयावह स्थिति के कगार पर जाकर पिछले ही साल लौटे हैं. अब भी पता नहीं कि वैसा खतरा हमसे कितनी दूर है!
लेकिन, जैसा मैंने अभी कहा मैं यहां इस आन्दोलन की मांगों के औचित्य पर कोई चर्चा नहीं कर रहा. इसलिए नहीं कि उस पर मेरे कोई विचार नहीं हैं. बल्कि इसलिए कि मैं उससे पहले एक आधारभूत मुद्दे पर बात करना चाहता हूं.
सोचिए, एक वर्ग अपनी कोई मांग सरकार के सामने रखता है और कहता है कि आप इस मांग पर विचार कर इसे अमुक तारीख तक पूरा कीजिए. वह वर्ग सरकार को पर्याप्त समय देता है कि सरकार उस मांग को पूरा करने की दिशा में कुछ करे, अगर मांग पूरा करना किसी भी कारण सम्भव न हो, या तुरंत पूरा करना सम्भव न हो, सरकार के अधिकार क्षेत्र के बाहर हो, तो भी इस समय में सरकार उस पक्ष से बात तो कर ही सकती है. लेकिन सरकार कुछ नहीं करती. मुहावरे की भाषा में कहें तो सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. न केवल इतना, वह वर्ग एक बडे आन्दोलन की तैयारी करता रहता है और सरकार के आंख कान ज़रा भी हरकत में नहीं आते. यानि अपनी इण्टेलीजेंस से भी सरकार को उस वर्ग के आन्दोलन की भीषण तैयारियों की कोई सूचना नहीं मिलती. और आन्दोलन शुरू हो जाता है. तब भी सरकार आन्दोलनकारियों से कोई सम्वाद नहीं करती. आखिर सरकार तो सरकार होती है ना! वह भला कैसे ऐसे वैसों से बात कर सकती है? लेकिन जब पानी हद से गुज़रने लगता है तो सरकार के हाथ-पांव फूलने लगते हैं. लेकिन तब तक आन्दोलनकारी ऐसे मुकाम पर पहुंच चुके होते हैं कि वहां से उनके लिए पीछे हटना मुमकिन नहीं रह जाता...
सवाल यह है कि क्या प्रजातंत्र में ऐसा होना चाहिए? क्या जनता की बात सरकार को नहीं सुननी चाहिए? मैं केवल सुनने की बात कर रहा हूं, न कि मांग पूरी करने की. हम जानते हैं कि प्रारम्भिक स्तर पर बहुत सारी समस्याएं संवाद से ही सुलझ जाती हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कोई मामूली चोट लगे तो छोटा-मोटा प्राथमिक उपचार ही काफी होता है, लेकिन जब उस चोट की उपेक्षा की जाती है तो चोट को घाव में और घाव को नासूर में तब्दील होते वक़्त नहीं लगता. तो, सरकार अपनी प्रजा से बात न करे यह बहुत बडी गडबड है. यहां यह बात भी सामने आएगी कि जनता की सरकार से इतनी अधिक अपेक्षाएं होती हैं कि उन्हें पूरा करना तो दूर, सुनना भी सम्भव नहीं होता. और यहीं यह बात भी सामने आएगी, कि ऐसा तभी होता है जब सरकार चन्द लोगों तक सिमट कर रह जाए. सरकार का मतलब केवल मुख्य मंत्री या मंत्री मण्डल ही नहीं होता, विधायक भी सरकार है, पार्षद भी सरकार है, हर जन प्रतिनिधि सरकार है. आखिर जनता और सरकार के बीच इतनी दूरी क्यों हो? दूरी केवल चुनाव के वक़्त पाटी जाए और फिर सरकार अपने महलों में घुस कर ‘प्रवेश निषेध’ का बोर्ड लटका दे, तो ऐसा ही होगा. जिन्हें जनता ने चुना है वे जनता से संवाद भी न कर सकें, तो यह माना जाना चाहिए वे सही जन प्रतिनिधि नहीं हैं. और यह भी कि जनता ने अपने प्रतिनिधि चुनने में गलती की है. गलती की है तो सज़ा भी भुगतनी ही पडेगी. और वही सज़ा आज हम सब भुगत रहे हैं. वरना यह तो नहीं होना था न कि जनता एक तरफ, यानि जनता का एक बडा हिस्सा, और सरकार दूसरी तरफ. मैं फिर कह रहा हूं कि इस आन्दोलन की मांगों के औचित्य पर मैं यहां कोई टिप्पणी नहीं कर रहा. लेकिन अगर दस बीस पचास हज़ार लोग भी कोई मांग रख रहे हैं तो ऐसा कैसे कि उनके प्रतिनिधि न तो उस मांग से सहमत हैं और न वे अपने उन मतदाताओं को समझा पा रहे हैं कि तुम्हारी मांग गलत है! आप किसी भी आन्दोलन को याद कर लीजिए, जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि सदा ही कोई स्टैंड लेने से कतराते हैं. इसलिए कि वे अपने मतदाताओं को नाराज़ नहीं करना चाहते. न केवल इतना, वे चुनाव के वक़्त या कि किसी भी आन्दोलन के वक़्त, अगर वह उनके प्रतिपक्षी द्वारा चलाया जा रहा हो, किसी भी हद तक जाकर अव्यावहारिक वादे करने से नहीं चूकते.

दूसरी बात, सरकार की ताकत की. एक वर्ग या समूह आन्दोलन की चेतावनी देता है, उसकी तैयारी करता है. सरकार उसे रोक पाने में कतई समर्थ नहीं रहती. पहले तो उसे पता ही नहीं चलता और फिर उस आन्दोलन को कुचलना उचित या सम्भव नहीं रह जाता. क्या यह क्षम्य है? इस आन्दोलन में जो जन-धन की हानि हुई है, रेलों की पटरियां उखाडी गई हैं, सम्पत्ति का नाश किया गया है, मानवीय दिवसों का नुकसान किया गया है, उस सब का नुकसान किसे उठाना पडेगा? आपको और मुझे! हम क्यों उठायें यह नुकसान? करे कोई भरे कोई! क्या इसकी जवाबदेही नही तै होनी चाहिए?
यह सब कहते हुए मैंने एक बात अब तक नहीं कही है. जब मैं प्रजातंत्र की बात करता हूं तो प्रजा के तंत्र की बात करता हूं. एक ऐसा तंत्र जिसमें हम सब एक बडे तंत्र के हिस्से हैं. क्या हमने, यानि इस देश के आम नागरिक ने अपनी कोई ज़िम्मेदारी समझी है? एक पूरे प्रांत में आन्दोलन करने वाले लोग कितने हैं और वे कितने जो उस आन्दोलन से असहमत या अलग हैं? अगर प्रतिशत में बात करें तो शायद 5 और 95 होंगे. या इससे कुछ कम ज़्यादा. तो, बडा हिस्सा तो उनका है जो इस सारी तोड फोड से सहमत नहीं है. वह बडा हिस्सा क्या कर रहा है? एक वर्ग ‘बन्द’ की घोषणा करता है, सारे लोग चुपचाप बन्द कर देते हैं, यह कहते हुए कि ‘कौन झगडा मोल ले?’ शायद सरकार भी यही सोचती है. शायद नहीं, निश्चित रूप से. जो वर्ग मांग कर रहा है, उसे मना करके क्यों नाराज़ किया जाए? चलो गेंद केन्द्र के पाले में फेंक देते हैं. वैसे मांग पूरी कर भी देते, अगर दूसरे वर्ग की नाराज़गी का डर नहीं होता. अपनी जेब से क्या जा रहा है? बडे ‘पैकेज’ यही सोच कर तो घोषित किए जाते हैं. उनकी जेब से कुछ नहीं जा रहा, लेकिन जिनकी जेब से जा रहा है वह भी तो चुप है. यानि आप और हम.

हालात बहुत गंभीर हैं. आप जितना सोचते हैं उतने ही भयाक्रांत होते हैं. कभी शिव मंगल सिंह सुमन ने लिखा था, ‘मेरा देश जल रहा कोई नहीं बुझाने वाला.’ जो मेरे प्रांत राजस्थान में हो रहा है कमोबेश वही अन्य प्रांतों में, पूरे देश में हो रहा है. लेकिन, सोचिए, बुझाने वाला क्या किसी और लोक से आएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस निष्क्रिय उदासीनता के मूल में यह उम्मीद छिपी है कि ‘यदा यदा ही धर्मस्य...’. जब भी द्रौपदी पर संकट आएगा, भगवान उसकी मदद को हाज़िर हो जाएंगे.... यह कि हमारी मदद करने आसमां से फरिश्ते उतर कर आयेंगे. हमें कुछ करने की क्या ज़रूरत है? अगर ऐसा है तो फिर भगवान ही मालिक है!
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तो फिर भगवान ही मालिक है....

राजस्थान में पिछले लगभग एक सप्ताह से एक बडे आन्दोलन की वजह से जन-जीवन बुरी तरह दुष्प्रभावित है. जन-धन की अपार हानि हुई है और लोगों को भयंकर असुविधाओं का सामना करना पड रहा है. राज्य के आधे ज़िलों में इस आन्दोलन का असर है. आन्दोलन राजस्थान की सीमाओं को पार कर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को भी अपनी लपटों से झुलसा चुका है. जिन मांगों को लेकर यह आन्दोलन हुआ है, उन्हीं मांगों को लेकर ठीक एक बरस पहले भी ऐसा ही आन्दोलन हुआ था. यहां हम इस आन्दोलन के पीछे की मांगों के औचित्य पर कोई चर्चा नहीं करना चाहते. वह अलग से चर्चा और बहस का विषय है. महत्वपूर्ण और विचारणीय बात यह है कि एक स्वस्थ प्रजातंत्र में क्या इस तरह के आन्दोलन की कोई जगह होनी चाहिए? मेरा ज़ोर इस तरह पर है. इस तरह का, यानि जिसमें हिंसा हो, गोलियां चलें, बसों के शीशे तोडे जाएं, चलती गाडियों पर पथराव किए जाएं, रेलों की पटरियां उखाडी जाएं, सम्पत्ति का -चाहे निजी हो या सार्वजनिक- नुकसान किया जाए, लोगों को अपने काम पर जाने से रोका जाए, रास्ते रोके जाएं, रेलों बसों का संचालन बन्द करना पडे, सैंकडों हज़ारों लोगों को रोजी रोटी से महरूम रहना पडे, आदि. और यह सब इसलिए कि समाज का एक वर्ग सरकार से कुछ चाहे और सरकार वह न देना चाहे या न दे सकती हो. अगर यह उचित है और यही होना है तो फिर मैं यह जानना चाहूंगा कि यह एक सभ्य समाज है या जंगल की दुनिया? ऐसी दुनिया, जिसमें बाहुबल ही सब कुछ है! समाज का एक वर्ग अपनी ताकत के बल पर यह ज़िद ठान ले कि जो उसे चाहिए वह लेकर रहेगा. अगर एक साथ कई वर्ग ऐसा करने लगें तो? कल्पना करके ही डर लगने लगता है. वैसे, इसी आन्दोलन वाली मांग के सन्दर्भ में हम इस भयावह स्थिति के कगार पर जाकर पिछले ही साल लौटे हैं. अब भी पता नहीं कि वैसा खतरा हमसे कितनी दूर है!
लेकिन, जैसा मैंने अभी कहा मैं यहां इस आन्दोलन की मांगों के औचित्य पर कोई चर्चा नहीं कर रहा. इसलिए नहीं कि उस पर मेरे कोई विचार नहीं हैं. बल्कि इसलिए कि मैं उससे पहले एक आधारभूत मुद्दे पर बात करना चाहता हूं.
सोचिए, एक वर्ग अपनी कोई मांग सरकार के सामने रखता है और कहता है कि आप इस मांग पर विचार कर इसे अमुक तारीख तक पूरा कीजिए. वह वर्ग सरकार को पर्याप्त समय देता है कि सरकार उस मांग को पूरा करने की दिशा में कुछ करे, अगर मांग पूरा करना किसी भी कारण सम्भव न हो, या तुरंत पूरा करना सम्भव न हो, सरकार के अधिकार क्षेत्र के बाहर हो, तो भी इस समय में सरकार उस पक्ष से बात तो कर ही सकती है. लेकिन सरकार कुछ नहीं करती. मुहावरे की भाषा में कहें तो सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. न केवल इतना, वह वर्ग एक बडे आन्दोलन की तैयारी करता रहता है और सरकार के आंख कान ज़रा भी हरकत में नहीं आते. यानि अपनी इण्टेलीजेंस से भी सरकार को उस वर्ग के आन्दोलन की भीषण तैयारियों की कोई सूचना नहीं मिलती. और आन्दोलन शुरू हो जाता है. तब भी सरकार आन्दोलनकारियों से कोई सम्वाद नहीं करती. आखिर सरकार तो सरकार होती है ना! वह भला कैसे ऐसे वैसों से बात कर सकती है? लेकिन जब पानी हद से गुज़रने लगता है तो सरकार के हाथ-पांव फूलने लगते हैं. लेकिन तब तक आन्दोलनकारी ऐसे मुकाम पर पहुंच चुके होते हैं कि वहां से उनके लिए पीछे हटना मुमकिन नहीं रह जाता...
सवाल यह है कि क्या प्रजातंत्र में ऐसा होना चाहिए? क्या जनता की बात सरकार को नहीं सुननी चाहिए? मैं केवल सुनने की बात कर रहा हूं, न कि मांग पूरी करने की. हम जानते हैं कि प्रारम्भिक स्तर पर बहुत सारी समस्याएं संवाद से ही सुलझ जाती हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कोई मामूली चोट लगे तो छोटा-मोटा प्राथमिक उपचार ही काफी होता है, लेकिन जब उस चोट की उपेक्षा की जाती है तो चोट को घाव में और घाव को नासूर में तब्दील होते वक़्त नहीं लगता. तो, सरकार अपनी प्रजा से बात न करे यह बहुत बडी गडबड है. यहां यह बात भी सामने आएगी कि जनता की सरकार से इतनी अधिक अपेक्षाएं होती हैं कि उन्हें पूरा करना तो दूर, सुनना भी सम्भव नहीं होता. और यहीं यह बात भी सामने आएगी, कि ऐसा तभी होता है जब सरकार चन्द लोगों तक सिमट कर रह जाए. सरकार का मतलब केवल मुख्य मंत्री या मंत्री मण्डल ही नहीं होता, विधायक भी सरकार है, पार्षद भी सरकार है, हर जन प्रतिनिधि सरकार है. आखिर जनता और सरकार के बीच इतनी दूरी क्यों हो? दूरी केवल चुनाव के वक़्त पाटी जाए और फिर सरकार अपने महलों में घुस कर ‘प्रवेश निषेध’ का बोर्ड लटका दे, तो ऐसा ही होगा. जिन्हें जनता ने चुना है वे जनता से संवाद भी न कर सकें, तो यह माना जाना चाहिए वे सही जन प्रतिनिधि नहीं हैं. और यह भी कि जनता ने अपने प्रतिनिधि चुनने में गलती की है. गलती की है तो सज़ा भी भुगतनी ही पडेगी. और वही सज़ा आज हम सब भुगत रहे हैं. वरना यह तो नहीं होना था न कि जनता एक तरफ, यानि जनता का एक बडा हिस्सा, और सरकार दूसरी तरफ. मैं फिर कह रहा हूं कि इस आन्दोलन की मांगों के औचित्य पर मैं यहां कोई टिप्पणी नहीं कर रहा. लेकिन अगर दस बीस पचास हज़ार लोग भी कोई मांग रख रहे हैं तो ऐसा कैसे कि उनके प्रतिनिधि न तो उस मांग से सहमत हैं और न वे अपने उन मतदाताओं को समझा पा रहे हैं कि तुम्हारी मांग गलत है! आप किसी भी आन्दोलन को याद कर लीजिए, जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि सदा ही कोई स्टैंड लेने से कतराते हैं. इसलिए कि वे अपने मतदाताओं को नाराज़ नहीं करना चाहते. न केवल इतना, वे चुनाव के वक़्त या कि किसी भी आन्दोलन के वक़्त, अगर वह उनके प्रतिपक्षी द्वारा चलाया जा रहा हो, किसी भी हद तक जाकर अव्यावहारिक वादे करने से नहीं चूकते.

दूसरी बात, सरकार की ताकत की. एक वर्ग या समूह आन्दोलन की चेतावनी देता है, उसकी तैयारी करता है. सरकार उसे रोक पाने में कतई समर्थ नहीं रहती. पहले तो उसे पता ही नहीं चलता और फिर उस आन्दोलन को कुचलना उचित या सम्भव नहीं रह जाता. क्या यह क्षम्य है? इस आन्दोलन में जो जन-धन की हानि हुई है, रेलों की पटरियां उखाडी गई हैं, सम्पत्ति का नाश किया गया है, मानवीय दिवसों का नुकसान किया गया है, उस सब का नुकसान किसे उठाना पडेगा? आपको और मुझे! हम क्यों उठायें यह नुकसान? करे कोई भरे कोई! क्या इसकी जवाबदेही नही तै होनी चाहिए?
यह सब कहते हुए मैंने एक बात अब तक नहीं कही है. जब मैं प्रजातंत्र की बात करता हूं तो प्रजा के तंत्र की बात करता हूं. एक ऐसा तंत्र जिसमें हम सब एक बडे तंत्र के हिस्से हैं. क्या हमने, यानि इस देश के आम नागरिक ने अपनी कोई ज़िम्मेदारी समझी है? एक पूरे प्रांत में आन्दोलन करने वाले लोग कितने हैं और वे कितने जो उस आन्दोलन से असहमत या अलग हैं? अगर प्रतिशत में बात करें तो शायद 5 और 95 होंगे. या इससे कुछ कम ज़्यादा. तो, बडा हिस्सा तो उनका है जो इस सारी तोड फोड से सहमत नहीं है. वह बडा हिस्सा क्या कर रहा है? एक वर्ग ‘बन्द’ की घोषणा करता है, सारे लोग चुपचाप बन्द कर देते हैं, यह कहते हुए कि ‘कौन झगडा मोल ले?’ शायद सरकार भी यही सोचती है. शायद नहीं, निश्चित रूप से. जो वर्ग मांग कर रहा है, उसे मना करके क्यों नाराज़ किया जाए? चलो गेंद केन्द्र के पाले में फेंक देते हैं. वैसे मांग पूरी कर भी देते, अगर दूसरे वर्ग की नाराज़गी का डर नहीं होता. अपनी जेब से क्या जा रहा है? बडे ‘पैकेज’ यही सोच कर तो घोषित किए जाते हैं. उनकी जेब से कुछ नहीं जा रहा, लेकिन जिनकी जेब से जा रहा है वह भी तो चुप है. यानि आप और हम.

हालात बहुत गंभीर हैं. आप जितना सोचते हैं उतने ही भयाक्रांत होते हैं. कभी शिव मंगल सिंह सुमन ने लिखा था, ‘मेरा देश जल रहा कोई नहीं बुझाने वाला.’ जो मेरे प्रांत राजस्थान में हो रहा है कमोबेश वही अन्य प्रांतों में, पूरे देश में हो रहा है. लेकिन, सोचिए, बुझाने वाला क्या किसी और लोक से आएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस निष्क्रिय उदासीनता के मूल में यह उम्मीद छिपी है कि ‘यदा यदा ही धर्मस्य...’. जब भी द्रौपदी पर संकट आएगा, भगवान उसकी मदद को हाज़िर हो जाएंगे.... यह कि हमारी मदद करने आसमां से फरिश्ते उतर कर आयेंगे. हमें कुछ करने की क्या ज़रूरत है? अगर ऐसा है तो फिर भगवान ही मालिक है!
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