Monday, January 14, 2008

ज़माना है मीडियाक्रिटी का

13 जनवरी 2008 की दैनिक जनसत्ता में अपने साप्ताहिक कॉलम ‘कभी कभार’ में अशोक वाजपेयी ने एक मार्के की बात कही है. मैं उन्हीं को उद्धृत कर रहा हूं :समकालीन भारत की कई विडम्बनाओं में से एक बडी यह है कि हम अर्थ और वाणिज्य में तो मूर्धन्यता की ओर लगातार बढ रहे हैं, लेकिन ज्ञान-विज्ञान जैसे क्षेत्रों में मूर्धन्यता से अपसरण हो रहा है. सिर्फ अपसरण भर नहीं, मीडियाक्रिटी का राज तेज़ी से फैल रहा है. यह कहने के बाद अशोक जी ने अनेक क्षेत्रों की चर्चा की है जिनमें राजनीति, शिक्षा,धर्म, सार्वजनिक जीवन आदि सम्मिलित हैं. अपनी टिप्पणी का अंत उन्होंने साहित्य अकादेमी के भावी अध्य़क्ष की चर्चा से किया है. हम सभी जानते हैं कि वर्तमान अध्यक्ष अपने क्रिया-कलापों की वजह से खासे विवादास्पद रहे हैं. अशोक जी ने यह खबर देते हुए कि जल्दी ही नारंग जी से छुटकारा मिल जाएगा (वैसे चर्चा तो यह भी है कि वे दुबारा चुने जाने के लिए जी-तोड प्रयास कर रहे हैं) लिखा है कि “उनके विकल्प के रूप में जो दो नाम सामने हैं - मलयालम के एमटी वासुदेवन नायर और बांग्ला के सुनील गंगोपाध्याय का – वे किस प्रतिमान से मूर्धन्य माने जा सकते हैं?”

सहज जिज्ञासावश मैंने शब्द कोश टटोला तो पाया कि कोश के अनुसार मूर्धन्य का अर्थ है श्रेष्ठ या शीर्ष- स्थानीय. अब अगर आप शीर्ष की बात करेंगे तो पाएंगे कि शीर्ष कोई भी हो सकता है. अगर एक खराब अभिव्यक्ति याद करूं तो ‘अन्धों में....’ याद आती है. यानि जहां सारे ही लल्लू हों वहां उनसे थोडा कम लल्लू भी तो मूर्धन्य ही कहा-माना जाना चाहिए. लेकिन यह तो हुई शब्दार्थ की बात. असल में जब हम मूर्धन्य की बात करते हैं तो हमारा आशय उससे होता है जो सामान्य से बहुत अलग, असाधारण हो. मैं मलयालम और बांग्ला साहित्य से अधिक परिचित नहीं हूं इसलिए नहीं कह सकता कि नायर और गंगोपाध्याय सही अर्थों में मूर्धन्य हैं या नहीं, लेकिन इस टिप्पणी को पढकर सोचने लगा कि अगर साहित्य अकादेमी की अध्यक्षता के लिए हिन्दी साहित्य के वर्तमान लेखकों में से किसी के नाम पर विचार किया जाना हो तो कौन उपयुक्त हो सकता है? यानि मन ही मन हिन्दी साहित्य के मूर्धन्यों की एक सूची बनाने लगा. ऐसे नाम जो रामचन्द्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय के कद वाले हों. बीते ज़माने के तो और भी अनेक नाम याद आए, प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, जयशंकर प्रसाद, अमृत लाल नागर, रांगेय राघव, महादेवी वर्मा, दिनकर...... लेकिन जब वर्तमान पर आया, यानि उनके बारे में सोचने लगा जो अभी भी हमारे बीच हैं तो कुछ उलझन में पडा. बडे-बडे नाम याद आए, जैसे नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, मन्नू भण्डारी, खुद अशोक वाजपेयी, मैनेजर पण्डेय, केदारनाथ सिंह या इनके थोडा बाद उदय प्रकाश, असगर वज़ाहत, मैत्रेयी पुष्पा, काशीनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया,.... लेकिन लगा कि ये सब तो ‘खद्योत सम’ हैं जो ‘जहां तहां करत प्रकास’. हो सकता है अचानक लिखी जा रही इस टिप्पणी में कुछ महत्वपूर्ण नाम लेना मैं भूल गया होऊं. लेकिन अपनी व्यक्तिगत पसन्द नापसन्द और लाभ हानि की सम्भावनाओं को परे रखकर अगर मुझे ही इनमें से किसी एक को मूर्धन्य कहना-मानना हो तो? सूची को घटाते-घटाते मैं केवल नामवर सिंह पर टिकूंगा. लेकिन मूर्धन्य कहने में या कि जो नाम मैंने पहले गिनाये, उनकी कतार में इन्हें रखने में तो मुझे फिर भी थोडी उदारता का ही प्रयोग करना पडेगा. आप क्या सोचते हैं? क्या आपके मन में ऐसा कोई एक या एकाधिक नाम हिन्दी जगत से है जिसे आप मूर्धन्य कह सकें?

और जब इस मूर्धन्य पर मेरा मन अटका था तभी मन का एक हिस्सा भारत रत्न विवाद की तरफ भी भटक गया. सबसे पहले अडवानी जी ने वाजपेयी जी के लिए भारत रत्न की मांग की (दुष्टों को इसमें ‘इस हाथ ले, उस हाथ दे’ नज़र आया. वाजपेयी जी ने अडवानी जी को प्रधानमंत्री का ख्वाब दिखाया तो बदले में अडवानी जी ने उन्हें भारत रत्न का सपना दिखा दिया!) और फिर तो जैसे भावी भारत रत्नों की क़्यू ही लग गई. ज्योति बसु, जगजीवन राम, कांशी राम और भी न जाने कौन-कौन! और अभी मांगों का सिलसिला खत्म कहां हुआ है? वैसे हमारे देश में इतने बडे पैमाने पर यह पहली बार हुआ है कि भारत रत्न की मांग की जा रही है! कहना अनावश्यक है कि इस तरह की बयान बाजी से भारत रत्न जैसे अलंकरण का तो अवमूल्यन हो ही रहा है, उन लोगों के सम्मान पर भी थोडी-बहुत आंच आ रही है जिन्हें विगत में यह अलंकार प्रदान किया गया था. वैसे, कुछेक अपवादों को छोडकर, भारत रत्न पर प्राय: राजनेताओं का ही एकाधिकार रहा है. लगभग हर प्रधानमंत्री-पूर्व प्रधानमंत्री को पदेन भारत रत्न बना दिया गया. यह राजनीति के प्रति हमारे अतिरिक्त मोह का परिचायक होने के साथ ही उन लोगों की निकट दृष्टि का भी परिचायक रहा जो इस तरह के अलंकरणों के निर्णायक-नियामक होते हैं. अब भी अगर हम यह सोचें कि राजनीति की दुनिया में से ही भारत रत्न चुने जाने हैं तो कौन-कौन से नाम आपके जेह्न में आते हैं? लेकिन सोचते वक़्त एक काम ज़रूर करें. अपनी राजनीतिक संलग्नता को ज़रा अलग रख दें. यानि अगर आप भाजपा के प्रति सहानुभूतिशील हैं तो कृपया वाजपेयी-अडवानी से अलग हटकर और वामपंथी हैं तो ज्योति बसु को छोडकर और बसपा समर्थक हैं तो कांशीराम-मायावती से अलग हटकर विचार करें. मैंने इस तरह सोचा तो पाया कि अगर मेरे वश में हो तो मैं किसी को भी भारत रत्न न दूं. कम से कम राजनीति की दुनिया से तो किसी को भी नहीं. आप का क्या विचार है?