Sunday, November 23, 2008

गरीबी विहीन दुनिया का सपना

नोबल शांति पुरस्कार विजेता और ग्रामीण बैंक के संस्थापक सुपरिचित बांगलादेशी अर्थ शास्त्री मुहम्मद यूनुस की सद्य प्रकाशित किताब क्रिएटिंग अ वर्ल्ड विदाउट पॉवर्टी एक अभिनव अवधारणा प्रस्तुत करती है. अवधारणा है सामाजिक व्यापार, सोश्यल बिज़नेस की; जिसके द्वारा आज के समय की सबसे बड़ी समस्या -गरीबी- का उन्मूलन किया जा सकता है. यूनुस मानते हैं कि विश्व शांति के लिए गरीबी सबसे बड़ी चुनौती है; आतंकवाद, धार्मिक कठमुल्लेपन, जातीय घृणा, राजनैतिक विद्वेष या किसी भी अन्य ऐसी ताकत जिसे हिंसा और युद्ध के लिए उत्तरदायी माना जाता हो, से बढकर. बकौल यूनुस, गरीबी निराशा को जन्म देती है और निराशा लोगों को इस तरह के कृत्यों में लिप्त होने को उकसाती है.

यूनुस ने अपनी पहली किताब बैंकर टू द पुअर में ग्रामीण बैंक की स्थापना और उसके शुरुआती वर्षों के विकास का परिचय दिया था. अब इस नई किताब में वे इसी बात को आगे बढाते हैं और ग्रामीण बैंक और माइक्रो क्रेडिट ने जिस आर्थिक और सामाजिक क्रांति का सूत्रपात किया, उसके अगले दौर की रूपरेखा पेश करते हैं. वह अगला दौर है सामाजिक व्यापार का, जो विश्व स्तर पर गरीबी उन्मूलन करेगा और तमाम लोगों की सर्जनात्मक ऊर्जा को इस्तेमाल कर हर मनुष्य के लिए संसाधनों की विपुलता के स्वप्न को साकार करेगा.

किताब में तीन मुख्य बातें हैं. पहली है गरीबी, उसके कारण और निवारण के उपाय. यहां वे बताते हैं कि गरीबी के मूल में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था तथा गलत विचार हैं, न कि गरीबों का आलस्य, अज्ञान और नैतिक न्यूनताएं. दूसरी बात है इस आने वाली क्रांति में महिलाओं की भूमिका. यूनुस मानते हैं कि अगर लाखों-करोडो ऐसी महिलाओं के मन में दबी सर्जनात्मकता, ऊर्जा और परिवार के उत्थान की आकांक्षा को पंख दे दिए जाएं तो फिर उनकी उड़ान को कोई ताकत नहीं रोक सकती. तीसरी बात यह कि तकनीक की भूमिका इस क्रांति में बहुत महत्वपूर्ण है. संचार और प्रबन्धन के नवीनतम औज़ार हरेक को, विशेष रूप से एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीका के दूरस्थ गांवों के लोगों को मुहैया कराये जाने चाहिये. इसका परिणाम आर्थिक और राजनीतिक ताकत के विकेन्द्रीकरण के रूप में सामने आएगा.

यूनुस इस किताब में समस्या के समाधान के लिए सामाजिक व्यापार की अवधारणा पेश करते हैं. उनका यह सामाजिक व्यापार कोई चेरिटी न होकर व्यापार है, और यह दान पर निर्भर न होकर स्व-अर्जित लाभ पर निर्भर है. फर्क़ केवल यह है कि जहां सामान्य व्यापार का लक्ष्य केवल मुनाफा कमाना होता है, सामाजिक व्यापार का लक्ष्य सामाजिक समस्या हल करना, सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति करना और सामाजिक मुनाफा पैदा करना है. सामाजिक व्यापार में कोई काम मुफ्त नहीं किया जाएगा. यह जो भी काम करेगा वह स-मूल्य होगा, हालांकि वह मूल्य बाज़ार मूल्य से बहुत कम हो सकेगा. इस सामाजिक व्यापार का आकलन इसके द्वारा कमाए गए मुनाफे से न होकर इस बात से होगा कि इसने सामाजिक समस्याओं को हल करने की दिशा में कितनी सकारात्मक भूमिका निबाही. एक और फर्क़ यह भी होगा कि यह सामाजिक व्यापार कोई लाभांश वितरित नहीं करेगा. इसमें जो भी मुनाफा होगा उसका पुनर्निवेश कर दिया जाएगा.

अपनी इस अवधारणा को आगे बढाते हुए यूनुस दो तरह के सामाजिक व्यापार की रूपरेखा पेश करते हैं. पहले प्रकार का व्यापार भोजन, मकान, स्वास्थ्य शिक्षा आदि के क्षेत्र में होगा जो एक तरह से सामाजिक लाभ के लिए होगा. दूसरे तरह का व्यापार किसी सामाजिक लाभ के लिए भले ही न होगा, वह गरीबों द्वारा संचालित होगा और उसमें होने वाला मुनाफा गरीबों की दशा सुधारने में प्रयुक्त होगा. यूनुस का ग्रामीण बैंक इसी तरह का व्यापार है. इन दोनों किस्मों के व्यापारों को मिलाकर भी किया जा सकता है, लेकिन यूनुस बहुत साफ कहते हैं कि सामाजिक और पारम्परिक व्यापार को कभी नहीं मिलाया जा सकता.

इस बात में गहरा भरोसा रखने वाले कि जब सही वक़्त आता है तो एक छोटा-सा नया विचार ही दुनिया को बदल डालता है, मोहम्मद यूनुस उन लोगों को करारा जवाब देते हैं जो गरीबी उन्मूलन को अब भी एक पूरा न हो सकने वाला सपना मानते हैं. वे कहते हैं कि हज़ारों साल से दुनिया में चेचक रही है, लाखों औरतें प्रसव के दौरान मौत का शिकार होती रही हैं. दुनिया में लम्बे समय तक उम्र के तीस बरस पार करना दुर्लभ हुआ करता था. लेकिन आज यह सब भी तो बदला है. विज्ञान, तकनीक, शिक्षा और सामाजिक प्रगति ने हमें समझा दिया है कि बीमरियां रोगाणुओं या गन्दगी की वजह से होती है न कि भूत-प्रेत की वजह से. अगर यह सब हुआ है तो गरीबी क्यों नहीं हट सकती?

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Discussed book:
Creating a World without Poverty
By Muhammad Yunus, Karl Weber
Published by: Public Affairs
Hardcover, Pages 296
US $ 26.00

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 23 नवम्बर, 2008 को प्रकाशित.


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Thursday, November 20, 2008

स्वागत का एक तरीका यह भी

आप सभी ने यह नोट किया होगा कि जब भी कोई आयोजन होता है, चाहे वह सामाजिक हो, सांस्कृतिक हो, साहित्यिक हो, या राजनीतिक हो, खास मेहमानों का स्वागत माला पहना कर या पुष्प गुच्छ भेंट कर किया जाता है. सामाजिक या पारिवारिक आयोजनों की बात ज़रा अलग है, वहां तो जो मालाएं पहनाई जाती हैं, उसे या उन्हें लोग कुछ देर पहने रहते हैं. राजनीतिक आयोजनों की भी बात थोड़ी अलग है. आजकल चुनाव का मौसम है और मालाओं से लदे-फंदे नेता गली-गली नज़र आते हैं. शायद अपने गले में अधिकाधिक मालाएं डाल कर वे यह दर्शाने का प्रयास करते हैं कि वे कितने लोकप्रिय हैं. लेकिन साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में अतिथिगण को जो मालाएं पहनाई जाती हैं, उन्हें पहनाते ही उतार कर सामने टेबल पर रख देने का रिवाज़ आम है. अगर पुष्प गुच्छ भेंट किया जाता है तो उसे भी वहीं टेबल पर छोड़ दिया जाता है. किस अतिथि को कितनी मालाएं पहनाई जाएं यह आयोजकों की श्रद्धा या क्षमता या दोनों पर निर्भर करता है. मालाओं का सस्ता या महंगा होना भी इन्हीं बातों पर निर्भर करता है. उधर दक्षिण भारत में तो बहुत ही बड़ी और भारी मालाओं का रिवाज़ है.
क्या यह औपचारिकता संसाधनों की बरबादी नहीं है? मैं तो कई बार अपने मित्रों से मज़ाक-मज़ाक में कहा करता था कि अगर अतिथि जी को प्रति माला की दर से दस रुपये भी भेंट कर दिए जाएं तो उन्हें अधिक प्रसन्नता होगी. शायद ऐसी ही कुछ मानसिकता रही होगी, कि जब मेरा वश चला, मैंने इस माल्यार्पण की रस्म को टाला. मंच से कह दिया गया कि हम अमुक-अमुक जी का स्वागत करते हैं. अधिकांश ने इसे पसन्द किया, एकाध ने घुमा-फिरा कर अपनी अप्रसन्नता भी सम्प्रेषित की. जो भी हो, जब मेरा वश चला, मैंने माल्यार्पण की निरर्थक और फिज़ूलखर्ची वाली रस्म को टाला. मुझे याद है कि राजस्थान के एक राजनेता ने भी यह नीतिगत घोषणा कर रखी थी कि उन्हें मालाएं नहीं पहनाई जाएं. वैसे, किसी भी राजनेता के लिए ऐसी घोषणा करना कितना कठिन होगा, हम कल्पना कर सकते हैं.
ऐसे में आज जयपुर में एक आयोजन में एक सुखद अनुभव हुआ, और मेरा मन हुआ कि उसे आप सबके साथ साझा करूं. आज यहां राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति के तत्वावधान में चिल्डृन्स बुक ट्रस्ट, दिल्ली ने बाल साहित्य पर एक सेमिनार का आयोजन किया. सी बी टी ने अतिथियों का स्वागत किया, लेकिन पुष्प मालाओं से नहीं, बल्कि एक अनूठे और सार्थक तरीके से. आयोजकों ने अपने विशिष्ट अतिथिगण का स्वागत करते हुए उन्हें पुस्तक का पैकेट भेंट किया. कहना अनावश्यक है कि अतिथिगण के लिए भी उस पैकेट को (माला की तरह) टेबल पर छोड़ जाने की कोई पारम्परिक विवशता नहीं थी. हर अतिथि अपना उपहार अपने साथ ले गया. और, एक सारस्वत आयोजन में पुस्तक भेंट करके स्वागत करने से बेहतर और क्या हो सकता है, मैं तो नहीं सोच पा रहा हूं.
कितना अच्छा हो कि हम पुस्तक भेंट कर स्वागत करने की इस परम्परा को लोकप्रिय बनाएं. इससे अतिथि को आपके स्वागत के स्मृति चिह्न को लम्बे समय तक अपने साथ रखने का अवसर मिलेगा, पुस्तक संस्कृति विकसित होगी, और फूलों की बेकद्री पर रोक लगेगी.

आप क्या सोचते हैं?









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Sunday, November 2, 2008

समतल दुनिया में हरी क्रांति की ज़रूरत

तीन बार के पुलिट्ज़र पुरस्कार विजेता पत्रकार-लेखक थॉमस एल फ्रीडमैन ने करीब एक दशक पहले अपनी किताब लेक्सस एण्ड द ऑलिव ट्री में भूमण्डलीकरण का स्वागत किया था. उसके बाद 2005 में आई और अब तक की बेहद चर्चित किताबों में से एक, द वर्ल्ड इज़ फ्लैट में उन्होंने यह बताया कि सूचना क्रांति किस तरह दुनिया को समतल कर रही है और हमारे रोज़गार के अवसरों को कुछ इस तरह पुनर्संयोजित कर रही है अब उसे रोक पाना सीमाओं, समुद्रों और दूरियों के लिए भी मुमकिन नहीं रह गया है. इन्हीं फ्रीडमैन ने अब अपनी सद्य प्रकाशित किताब हॉट, फ्लैट एण्ड क्राउडेड: व्हाई वी नीड अ ग्रीन रिवोल्यूशन – एण्ड हाउ इट केन रिन्यू अमेरिका में बताया है कि हमारे समय के तीन बहुत बड़े बदलाव हैं ग्लोबल वार्मिंग, ग्लोबल फ्लैटनिंग और ग्लोबल क्राउडिंग. ये तीन बदलाव ऐसी तीन लपटों की तरह है जो आपस में मिलकर बहुत बड़ी आग में बदल चुकी है. यह आग पांच बड़ी समस्याओं को पैदा कर रही है. ये समस्याएं हैं – मौसम का बदलाव, पेट्रो-तानाशाही, ऊर्जा और प्राकृतिक संसाधनों के के उपभोग और उपलब्धता का बिगड़ता जा रहा संतुलन, जैव विविधता का खत्म होते जाना, और ऊर्जा दारिद्रय. आने वाला समय कैसा होगा, यह इसी बात पर निर्भर करेगा कि हम इन पांचों समस्याओं का सामना कैसे करते हैं.

फ्रीडमैन चेताते हैं कि हममें से हरेक को यह जान लेना चाहिए कि अब तेल की कीमतें कभी भी घटेंगी नहीं और अपव्यय करने और प्रदूषण फैलाने वाली तकनीकों को और बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए. फ्रीडमैन कहते हैं कि ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में आखिरी बड़ा नवाचार आणविक ऊर्जा का पचास बरस पहले हुआ था. उसके बाद तो जैसे जड़ता ही आ गई है. वे एक उम्दा बात यह कहते हैं कि पाषाण युग की समाप्ति इसलिए नहीं हुई थी कि पत्थर खत्म हो गया था. इसी तरह, वातावरण को नष्ट करने वाले जीवाश्म ईंधन का युग भी खत्म हो सकता है, अगर हम उसके लिए सचेष्ट हों.
फ्रीडमैन जीवाश्म ईंधन जैसे तेल, कोयला और प्राकृतिक गैस के जलाने से पैदा कार्बन डाइ ऑक्साइड की वृद्धि पर बहुत चिंतित हैं. वे बताते हैं कि कार्बन डाइ ऑक्साइड से उपजा प्रदूषण वायुमण्डल में इकट्ठा होता रहता है और इसी कारण मौसम में बदलाव आ रहे हैं. अपने देश अमरीका को वे विशेष रूप से लताड़ते हैं कि वहां प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत सबसे ज़्यादा है और इसीलिए पर्यावरण को बिगाड़ने का सबसे ज़्यादा दोषी भी उन्हीं का देश है. स्वाभाविक है कि वे स्थिति को सुधारने के लिए अमरीकी नेतृत्व से सक्रियता की उम्मीद करते हैं. वैसे, वे चिंतित एशियाई देशों के व्यवहार से भी कम नहीं हैं. फ्रीडमैन कहते हैं कि दुनिया के औद्योगिक उत्पाद को बढाने के मामले में भले ही चीन ने कमाल किया हो, उसने पर्यावरण को भी कम क्षति नहीं पहुंचाई है. वे बताते हैं कि पिछले छह सालों में चीन में कोयला जनित विकास में इतनी वृद्धि हुई है कि उसे अपने कोयला उत्पाद में उतनी वृद्धि करनी पड़ी है जितनी कि पूरे अमरीका की उत्पाद क्षमता है. अब इसी के साथ यह बात और जोड़ लीजिए कि सारी दुनिया में आबादी शहरों की तरफ जा रही है. इसी की परिणति है दुनिया का ‘हॉट, फ्लैट और क्राउडेड’ होते जाना. अपनी सारी चिंताओं के बावज़ूद फ्रीडमैन उम्मीद भी करते हैं कि चीन और अन्य देश नए पर्यावरण-मित्र उद्योगों में ज़्यादा निवेश कर इस मामले में अमरीका को भी पीछे छोड़ देंगे.

जैसा कि इसके शीर्षक से ही साफ है, किताब अमरीका को केन्द्र में रखकर लिखी गई है, लेकिन फ्रीडमैन की लेखन शैली उनकी चिंताओं में पूरी दुनिया को समेटती चलती है. जब वे यह कहते हैं कि पर्यावरण की चिंता केवल हमारे अस्तित्व का ही प्रश्न नहीं है, बल्कि इससे अमरीका अधिक समृद्ध, अधिक उत्पादक और अधिक सुरक्षित भी बनेगा, तो हम बहुत आसानी से समझ सकते हैं कि यह बात और देशों पर भी उतनी ही अच्छी तरह से लागू होती है.

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Discussed book:
Hot, Flat and Crowded: Why We Need a Green Revolution – and How It Can Renew America
By Thomas L. Friedman
Published by Farrar, Straus and Giroux
448 Pages. Hardcover
US $ 27.95

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय संस्करण में प्रकाशित मेरे साप्ताहिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 2 नवम्बर, 2008 को प्रकाशित.











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