Wednesday, September 24, 2008

जावेद अख्तर का एक अद्भुत भाषण

कभी-कभी ऐसा कुछ पढ़ने को मिल जाता है कि मन उसे औरों के साथ साझा करने को व्याकुल हो उठता है. पिछले दिनों मेरे साथ ऐसा ही कुछ हुआ. इण्टरनेट पर जो बहुत सारी सामग्री दोस्तों की कृपा से मिलती है, उसमें हालांकि बहुत सारा कचरा होता है, कभी-कभी उस कचरे के ढेर में सोना, बल्कि उससे भी कीमती कुछ मिल जाता है. किसी ने मुझे जावेद अख्तर का एक भाषण भेजा. भाषण उन्होंने इण्डिया टुडे कॉंक्लेव में दिल्ली में कुछ बरस पहले दिया था. इस भाषण ने मुझ पर जादू का-सा असर किया. लगा, जो भी मिल जाए उसे पकड़ कर कहूं कि इस भाषण को पढो. और करीब-करीब यही किया भी. नेट पर जितनों को फॉरवर्ड कर सकता था, किया. जिन्हें डाक से भेज सकता था उन्हें इसकी फोटो कॉपी भेजी. मन फिर भी नहीं भरा. बिना किसी के कहे, इसका हिन्दी अनुवाद कर डाला. अपने मित्र, प्रख्यात कथाकार और प्रतिष्ठित पत्रिका 'अक्सर' के सम्पादक डॉ हेतु भारद्वाज को इसे पढने को दिया तो उन्होंने इसे अपनी पत्रिका में छापने का इरादा कर लिया. मुझे तो भला क्या ऐतराज़ होता. मैं तो चाहता ही यही था कि यह भाषण अधिकाधिक लोगों तक पहुंचे.

मन इस से भी नहीं भरा, तो अपने अनुवाद को इस ब्लॉग पर भी रख रहा हूं ताकि आप भी इसे पढ सकें.

तो प्रस्तुत है, जावेद अख्तर के भाषण का मेरे द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद:


मुझे पूरा विश्वास है देवियों और सज्जनों कि इस भव्य सभा में किसी को भी मेरी स्थिति से ईर्ष्या नहीं हो रही होगी. श्री श्री रविशंकर जैसे जादुई और दुर्जेय व्यक्तित्व के बाद बोलने के लिए खड़ा होना ठीक ऐसा ही है जैसे तेंदुलकर के चमचमाती सेंचुरी बना लेने के बाद किसी को खेलने के लिए मैदान में उतरना पड़े. लेकिन किन्हीं कमज़ोर क्षणों में मैंने वादा कर लिया था.
कुछ बातें मैं शुरू में ही साफ कर देना चाहता हूं. आप कृपया मेरे नाम –जावेद अख्तर- से प्रभावित न हों. मैं कोई रहस्य उजागर नहीं कर रहा. मैं तो वह बात कह रहा हूं जो मैं अनेक बार कह चुका हूं, लिखकर, टी वी पर या सार्वजनिक रूप से बोलकर, कि मैं नास्तिक हूं. मेरी कोई धार्मिक आस्थाएं नहीं हैं. निश्चय ही मैं किसी खास किस्म की आध्यात्मिकता में विश्वास नहीं करता. खास किस्म की!
एक और बात! मैं यहां बैठे इस भद्र पुरुष की आलोचना करने, इनका विश्लेषण करने, या इन पर प्रहार करने खड़ा नहीं हुआ हूं. हमारे रिश्ते बहुत प्रीतिकर और शालीन हैं. मैंने हमेशा इन्हें अत्यधिक शिष्ट पाया है.
मैं तो एक विचार, एक मनोवृत्ति, एक मानसिकता की बात करना चाहता हूं, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं.

मैं आपको बताना चाहता हूं कि जब राजीव ने इस सत्र की शुरुआत की, एक क्षण के लिए मुझे लगा कि मैं ग़लत जगह पर आ गया हूं. इसलिए कि अगर हम कृष्ण, गौतम और कबीर, या विवेकानन्द के दर्शन पर चर्चा कर रहे हैं तो मुझे कुछ भी नहीं कहना है. मैं इसी वक़्त बैठ जाता हूं. मैं यहां उस गौरवशाली अतीत पर बहस करने नहीं आया हूं जिस पर मेरे खयाल से हर हिन्दुस्तानी को, और उचित ही, गर्व है. मैं तो यहां एक सन्देहास्पद वर्तमान पर चर्चा करने आया हूं.

इण्डिया टुडे ने मुझे बुलाया है और मैं यहां आज की आध्यात्मिकता पर बात करने आया हूं. कृपया इस आध्यात्मिकता शब्द से भ्रमित न हों. एक ही नाम के दो ऐसे इंसान हो सकते हैं जो एक दूसरे से एकदम अलग हों. तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की. रामानंद सागर ने टेलीविज़न धारावाहिक बनाया. रामायण दोनों में है, लेकिन मैं नहीं सोचता कि तुलसीदास और रामानंद सागर को एक करके देख लेना कोई बहुत अक्लमन्दी का काम होगा. मुझे याद आता है कि जब तुलसी ने रामचरितमानस रची, उन्हें एक तरह से सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा था. भला कोई अवधी जैसी भाषा में ऐसी पवित्र पुस्तक कैसे लिख सकता है? कभी-कभी मैं सोचता हूं कि किसम-किसम के कट्टरपंथियों में, चाहे वे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के क्यों न हों, कितनी समानता होती है! 1798 में, आपके इसी शहर में, शाह अब्दुल क़ादिर नाम के एक भले मानुस ने पहली बार क़ुरान का तर्ज़ुमा उर्दू में किया. उस वक़्त के सारे उलेमाओं ने उनके खिलाफ एक फतवा ज़ारी कर डाला कि उन्होंने एक म्लेच्छ भाषा में इस पवित्र पुस्तक का अनुवाद करने की हिमाक़त कैसे की! तुलसी ने रामचरितमानस लिखी तो उनका बहिष्कार किया गया. मुझे उनकी एक चौपाई याद आती है :
”धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ जौलाहा कहौ कोऊ.

काहू की बेटी सौं बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगारन सोऊ..
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु कोऊ.
मांगि के खैबो, मसीत को सोइबो, लैबो एकू न दैबो को दोऊ..”


रामानंद सागर ने अपने धारावाहिक से करोड़ों की कमाई की. मैं उन्हें कम करके नहीं आंक रहा लेकिन निश्चय ही वे तुलसी से बहुत नीचे ठहरते हैं.
मैं एक और उदाहरण देता हूं. शायद यह ज़्यादा स्पष्ट और उपयुक्त हो. सत्य की खोज में गौतम महलों से निकले और जंगलों में गए. लेकिन आज हम देखते हैं कि वर्तमान युग के गुरु जंगल से निकलते हैं और महलों में जाकर स्थापित हो जाते हैं. ये विपरीत दिशा में जा रहे हैं. इसलिए हम लोग एक ही प्रवाह में इनकी बात नहीं कर सकते. इसलिए, हमें उन नामों की आड़ नहीं लेनी चाहिए जो हर भारतीय के लिए प्रिय और आदरणीय हैं.

जब मुझे यहां आमंत्रित किया गया तो मैंने महसूस किया कि हां, मैं नास्तिक हूं और किसी भी हालत में बुद्धिपरक रहने की कोशिश करता हूं. शायद इसीलिए मुझे बुलाया गया है. लेकिन, उसी क्षण मैंने महसूस किया कि एक और खासियत है जो मुझमें और आधुनिक युग के गुरुओं में समान रूप से मौज़ूद है. मैं फिल्मों के लिए काम करता हूं. हममें काफी कुछ एक जैसा है. हम दोनों ही सपने बेचते हैं, हम दोनों ही भ्रम-जाल रचते हैं, हम दोनों ही छवियां निर्मित करते हैं. लेकिन एक फर्क़ भी है. तीन घण्टों के बाद हम कहते हैं – “दी एण्ड, खेल खत्म! अपने यथार्थ में लौट जाइए.” वे ऐसा नहीं करते. इसलिए, देवियों और सज्जनों मैं एकदम स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं यहां उस आध्यात्मिकता के बारे में बात करने आया हूं जो दुनिया के सुपरमार्केट में बिकाऊ है. हथियार, ड्रग्स और आध्यात्मिकता ये ही तो हैं दुनिया के तीन सबसे बड़े धन्धे. लेकिन हथियार और ड्रग्स के मामले में तो आपको कुछ करना पड़ता है, कुछ देना पड़ता है. इसलिए वह अलग है. यहां तो आप कुछ देते भी नहीं.
इस सुपर मार्केट में आपको मिलता है इंस्टैण्ट निर्वाण, मोक्ष बाय मेल, आत्मानुभूति का क्रैश कोर्स – चार सरल पाठों में कॉस्मिक कांशियसनेस. इस सुपर मार्केट की चेनें सारी दुनिया में मौज़ूद हैं, जहां बेचैन आभिजात वर्गीय लोग आध्यात्मिक फास्ट फूड खरीद सकते हैं. मैं इसी आध्यात्मिकता की बात कर रहा हूं.
प्लेटो ने अपने डायलॉग्ज़ में कई बुद्धिमत्तापूर्ण बातें कही हैं. उनमें से एक यह है कि किसी भी मुद्दे पर बहस शुरू करने से पहले शब्दों के अर्थ निश्चित कर लो. इसलिए, हम भी इस शब्द- ‘आध्यात्मिकता’ का अर्थ निश्चित कर लेने का प्रयत्न करते हैं. अगर इसका अभिप्राय मानव प्रजाति के प्रति ऐसे प्रेम से है जो सभी धर्मों, जतियों, पंथों, नस्लों के पार जाता है, तो मुझे कोई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं उसे मानवता कहता हूं. अगर इसका अभिप्राय पेड़-पौधों, पहाड़ों, समुद्रों, नदियों और पशुओं के प्रति, यानि मानवेत्तर विश्व से प्रेम से है, तो भी मुझे क़तई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं इसे पर्यावरणीय चेतना कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का मतलब विवाह, अभिभावकत्व, ललित कलाओं, न्यायपालिका, अभिव्यक्ति की स्वाधीनता के प्रति हार्दिक सम्मान का नाम है? मुझे भला क्या असहमति हो सकती है श्रीमान? मैं इसे नागरिक ज़िम्मेदारी कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ अपने भीतर उतरकर स्वयं की ज़िन्दगी का अर्थ समझना है? इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? मैं इसे आत्मान्वेषण या स्व-मूल्यांकन कहता हूं. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ योग है? पतंजलि की कृपा से, जिन्होंने हमें योग, यम, यतम, आसन, प्राणायाम के मानी समझाए, हम इसे किसी भी नाम से कर सकते हैं. अगर हम प्राणायाम करते हैं, बहुत अच्छी बात है. मैं इसे हेल्थ केयर कहता हूं. फिजीकल फिटनेस कहता हूं.

तो अब मुद्दा सिर्फ अर्थ विज्ञान का है. अगर यही सब आध्यात्मिकता है तो फिर बहस किस बात पर है? जिन तमाम शब्दों का प्रयोग मैंने किया है वे अत्यधिक सम्मानित और पूरी तरह स्वीकार कर लिए गए शब्द हैं. इनमें कुछ भी अमूर्त या अस्पष्ट नहीं है. तो फिर इस शब्द- आध्यात्मिकता- पर इतनी ज़िद क्यों? आखिर आध्यात्मिकता शब्द में ऐसा क्या है जो इन शब्दों में नहीं सिमट आया है? वो ऐसा आखिर है क्या?
पलटकर कोई मुझी से पूछ सकता है कि आपको इस शब्द से क्या परेशानी है? क्यों मैं इस शब्द को बदलने, त्यागने, छोड़ देने, बासी मान लेने का आग्रह कर रहा हूं. आखिर क्यों? मैं आपको बताता हूं कि मेरी आपत्ति किस बात पर है. अगर आध्यात्मिकता का अर्थ इन सबसे है तो फिर बहस की कोई बात नहीं है. लेकिन कुछ और है जो मुझे परेशान करता है. शब्द कोष में आध्यात्मिकता शब्द, -स्पिरिचुअलिटी- की जड़ें आत्मा, स्पिरिट में हैं. उस काल में जब इंसान को यह भी पता नहीं था कि धरती गोल है या चपटी, तब उसने यह मान लिया था कि हमारा अस्तित्व दो चीज़ों के मेल से निर्मित है. शरीर और आत्मा. शरीर अस्थायी है. यह मरणशील है. लेकिन आत्मा, मैं कह सकता हूं, बायो डिग्रेडेबल है. आपके शरीर में लिवर है, हार्ट है, आंतें हैं, दिमाग है. लेकिन क्योंकि दिमाग शरीर का एक हिस्सा है और मन दिमाग के भीतर रहता है, वह घटिया है क्योंकि अंतत: शरीर के साथ दिमाग का भी मरना निश्चित है. लेकिन चिंता न करें, आप फिर भी नहीं मरेंगे, क्योंकि आप तो आत्मा हैं और क्योंकि आत्मा परम चेतस है, वह सदा रहेगी, और आपकी ज़िन्दगी में जो भी समस्याएं आती हैं वे इसलिए आती हैं कि आप अपने मन की बात सुनते हैं. अपने मन की बात सुनना बन्द कर दीजिए.. आत्मा की आवाज़ सुनिए – आत्मा जो कॉस्मिक सत्य को जानने वाली सर्वोच्च चेतना है. ठीक है. कोई ताज़्ज़ुब नहीं कि पुणे में एक आश्रम है, मैं भी वहां जाया करता था. मुझे वक्तृत्व कला अच्छी लगती थी. सभा कक्ष के बाहर एक सूचना पट्टिका लगी हुई थी: “अपने जूते और दिमाग बाहर छोड़ कर आएं”. और भी गुरु हैं जिन्हें इस बात से कोई ऐतराज़ नहीं होता है कि आप जूते बाहर नहीं छोड़ते. लेकिन दिमाग?.....नहीं.

अब, अगर आप अपना दिमाग ही बाहर छोड़ देते हैं तो फिर क्या होगा? आपको ज़रूरत होगी ऐसे गुरु की जो आपको चेतना के अगले मुकाम तक ले जाए. वह मुकाम जो आत्मा में कहीं अवस्थित है. वह सर्वोच्च चेतना तक पहुंच चुका है. उसे परम सत्य ज्ञात है. लेकिन क्या वह आपको बता सकता है? जी नहीं. वह आपको नहीं बता सकता. तो, अपना सत्य आप खुद ढूंढ सकेंगे?. जी नहीं. उसके लिए आपको गुरु की सहायता की ज़रूरत होगी. आपको तो उसकी ज़रूरत होगी लेकिन वह आपको इस बात की गारण्टी नहीं दे सकता कि आपको परम सत्य मिल ही जाएगा... और यह परम सत्य है क्या? कॉस्मिक सत्य क्या है? जिसका सम्बन्ध कॉस्मॉस यानि ब्रह्माण्ड से है? मुझे तो अब तक यह समझ में नहीं आया है. जैसे ही हम अपने सौर मण्डल से बाहर निकलते हैं, पहला नक्षत्र जो हमारे सामने आता है वह है अल्फा सेंचुरी, और वह हमसे केवल चार प्रकाश वर्ष दूर है. उससे मेरा क्या रिश्ता बनता है? क्यों बनता है?
तो, राजा ने ऐसे कपड़े पहन रखे हैं जो सिर्फ बुद्धिमानों को ही दिखाई देते हैं. और राजा लगातार बड़ा होता जा रहा है. और ऐसे बुद्धिमानों की संख्या भी निरंतर बढती जा रही है जिन्हें राजा के ये कपड़े दिखाई दे रहे हैं और जो उनकी तारीफ करते हैं. मैं सोचता था कि आध्यात्मिकता दरअसल धार्मिक लोगों की दूसरी रक्षा पंक्ति है. जब वे पारम्परिक धर्म से लज्जित अनुभव करने लगते हैं, जब यह बहुत चालू लगने लगता है तो वे कॉस्मॉस या परम चेतना के छद्म की ओट ले लेते हैं. लेकिन यह भी पूर्ण सत्य नहीं है. इसलिए कि पारम्परिक धर्म और आध्यात्मिकता के अनुयायीगण अलग-अलग हैं. आप ज़रा दुनिया का नक्शा उठाइए और ऐसी जगहों को चिह्नित कीजिए जो अत्यधिक धार्मिक हैं -चाहे भारत में या भारत के बाहर- एशिया, लातिन अमरीका, यूरोप.... कहीं भी. आप पाएंगे कि जहां-जहां धर्म का आधिक्य है वहीं-वहीं मानव अधिकारों का अभाव है, दमन है. सब जगह. हमारे मार्क्सवादी मित्र कहा करते थे कि धर्म गरीबों की अफीम है, दमित की कराह है. मैं उस बहस में नहीं पड़ना चाहता. लेकिन आजकल आध्यात्मिकता अवश्य ही अमीरों की ट्रांक्विलाइज़र है.
आप देखेंगे कि इनके अनुयायी खासे खाते-पीते लोग है, समृद्ध वर्ग से हैं. ठीक है. गुरु को भी सत्ता मिलती है, ऊंचा कद और पद मिलता है, सम्पत्ति मिलती है..(जिसका अधिक महत्व नहीं है), शक्ति मिलती है और मिलती है अकूत सम्पदा. और भक्तों को क्या मिलता है? जब मैंने ध्यान से इन्हें देखा तो पाया कि इन भक्तों की भी अनेक श्रेणियां हैं. ये सभी एक किस्म के नहीं हैं. अनेक तरह के अनुयायी, अनेक तरह के भक्त. एक वह जो अमीर है, सफल है, ज़िन्दगी में खासा कामयाब है, पैसा कमा रहा है, सम्पदा बटोर रहा है. अब, क्योंकि उसके पास सब कुछ है, वह अपने पापों का शमन भी चाहता है. तो गुरु उससे कहता है कि “तुम जो भी कर रहे हो, वह निष्काम कर्म है. तुम तो बस एक भूमिका अदा कर रहे हो, यह सब माया है, तुम जो यह पैसा कमा रहे हो और सम्पत्ति अर्जित कर रहे हो, तुम इसमें भावनात्मक रूप से थोड़े ही संलग्न हो. तुम तो बस एक भूमिका निबाह रहे हो.. तुम मेरे पास आओ, क्योंकि तुम्हें शाश्वत सत्य की तलाश है. कोई बात नहीं कि तुम्हारे हाथ मैले हैं, तुम्हारा मन और आत्मा तो शुद्ध है”. और इस आदमी को अपने बारे में सब कुछ अच्छा लगने लगता है. सात दिन तक वह दुनिया का शोषण करता है और सातवें दिन के अंत में जब वह गुरु के चरणों में जाकर बैठता है तो महसूस करता है कि मैं एक संवेदनशील व्यक्ति हूं.

लोगों का एक और वर्ग है. ये लोग भी धनी वर्ग से हैं. लेकिन ये पहले वर्ग की तरह कामयाब लोग नहीं हैं. आप जानते हैं कि कामयाबी-नाकामयाबी भी सापेक्ष होती है. कोई रिक्शा वाला अगर फुटपाथ पर जुआ खेले और सौ रुपये जीत जाए तो अपने आप को कामयाब समझने लगेगा, और कोई बड़े व्यावसायिक घराने का व्यक्ति अगर तीन करोड भी कमा ले, लेकिन उसका भाई खरबपति हो, तो वो अपने आप को नाकामयाब समझेगा. तो, यह जो अमीर लेकिन नाकामयाब इंसान है, यह क्या करता है? उसे तलाश होती है एक ऐसे गुरु की जो उससे कहे कि “कौन कहता है कि तुम नाकामयाब हो? तुम्हारे पास और भी तो बहुत कुछ है. तुम्हारे पास ज़िन्दगी का एक मक़सद है, तुम्हारे पास ऐसी संवेदना है जो तुम्हारे भाई के पास नहीं है. क्या हुआ जो वह खुद को कामयाब समझता है? वह कामयाब थोड़े ही है. तुम्हें पता है, यह दुनिया बड़ी क्रूर है. दुनिया बड़ी ईमानदारी से तुम्हें कहती है कि तुम्हें दस में से तीन नम्बर मिले हैं. दूसरे को तो सात मिले हैं. ठीक है. वे तुम्हारे साथ ऐसा ही सुलूक करेंगे.” तो इस तरह इसे करुणा मिलती है, सांत्वना मिलती है. यह एक दूसरी तरह का खेल है.
एक और वर्ग. मैं इस वर्ग के बारे में किसी अवमानना या श्रेष्ठता के भाव के साथ बात नहीं कर रहा. और न मेरे मन में इस वर्ग के प्रति कोई कटुता है, बल्कि अत्यधिक सहानुभूति है क्योंकि यह वर्ग आधुनिक युग के गुरु और आज की आध्यात्मिकता का सबसे बड़ा अनुयायी है. यह है असंतुष्ट अमीर बीबियों का वर्ग.

एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने अपनी सारी निजता, सारी आकांक्षाएं, सारे सपने, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व विवाह की वेदी पर कुर्बान कर दिया और बदले में पाया है एक उदासीन पति, जिसने ज़्यादा से ज़्यादा उसे क्या दिया? कुछ बच्चे! वह डूबा है अपने काम धन्धे में, या दूसरी औरतों में. इस औरत को तलाश है एक कन्धे की. इसे पता है कि यह एक अस्तित्ववादी असफलता है. आगे भी कोई उम्मीद नहीं है. उसकी ज़िन्दगी एक विराट शून्य है; एकदम खाली, सुविधाभरी लेकिन उद्देश्यहीन. दुखद किंतु सत्य!
और भी लोग हैं. ऐसे जिन्हें यकायक कोई आघात लगता है. किसी का बच्चा चल बसता है, किसी की पत्नी गुज़र जाती है. किसी का पति नहीं रहता. या उनकी सम्पत्ति नष्ट हो जाती है, व्यवसाय खत्म हो जाता है. कुछ न कुछ ऐसा होता है कि उनके मुंह से निकल पड़ता है: “आखिर मेरे ही साथ ऐसा क्यों हुआ?” किससे पूछ सकते हैं ये लोग यह सवाल? ये जाते हैं गुरु के पास. और गुरु इन्हें कहता है कि “यही तो है कर्म. लेकिन एक और दुनिया है जहां मैं तुम्हें ले जा सकता हूं, अगर तुम मेरा अनुगमन करो. वहां कोई पीड़ा नहीं है. वहां मृत्यु नहीं है. वहां है अमरत्व. वहां केवल सुख ही सुख है”. तो इन सारी दुखी आत्माओं से यह गुरु कहता है कि “मेरे पीछे आओ, मैं तुम्हें स्वर्ग में ले चलता हूं जहां कोई कष्ट नहीं है”. आप मुझे क्षमा करें, यह बात निराशाजनक लग सकती है लेकिन सत्य है, कि ऐसा कोई स्वर्ग नहीं है. ज़िन्दगी में हमेशा थोड़ा दर्द रहेगा, कुछ आघात लगेंगे, हार की सम्भावनाएं रहेंगी. लेकिन उन्हें थोड़ा सुकून मिलता है.
आपमें से कोई मुझसे पूछ सकता है कि अगर इन्हें कुछ खुशी मिल रही है, कुछ शांति मिल रही है तो आपको क्या परेशानी है? मुझे अपनी पढ़ी एक कहानी याद आती है. किसी संत की कही एक पुरानी कहानी है. एक भूखे कुत्ते को एक सूखी हड्डी मिल जाती है. वह उसी को चबाने की कोशिश करने लगता है और इसी कोशिश में अपनी जीभ काट बैठता है. जीभ से खून आने लगता है. कुत्ते को लगता है कि उसे हड्डी से ही यह प्राप्त हो रहा है. मुझे बहुत बुरा लग रहा है. मैं नहीं चाहता कि ये समझदार लोग ऐसा बर्ताव करें, क्योंकि मैं इनका आदर करता हूं. मानसिक शांति या थोड़ा सुकून तो ड्रग्स या मदिरा से भी मिल जाता है लेकिन क्या वह आकांक्ष्य है? क्या आप उसकी हिमायत करेंगे? जवाब होगा, नहीं. ऐसी कोई भी मानसिक शांति जिसकी जड़ें तार्किक विचारों में न हो, खुद को धोखा देने के सिवा और कुछ नहीं हो सकती. कोई भी शांति जो आपको सत्य से दूर ले जाए, एक भ्रम मात्र है, महज़ एक मृग तृष्णा है. मैं जानता हूं कि शांति की इस अनुभूति में एक सुरक्षा-बोध है, ठीक वैसा ही जैसी तीन पहियों की साइकिल में होता है. अगर आप यह साइकिल चलाएं, आप गिरेंगे नहीं. लेकिन बड़े हो गए लोग तीन पहियों की साइकिलें नहीं चलाया करते. वे दो पहियों वाली साइकिलें चलाते हैं, चाहे कभी गिर ही क्यों न जाएं. यही तो ज़िन्दगी है.

एक और वर्ग है. ठीक उसी तरह का जैसा गोल्फ क्लब जाने वालों का हुआ करता है. वहां जाने वाला हर व्यक्ति गोल्फ का शौकीन नहीं हुआ करता. ठीक उसी तरह हर वह इंसान जो आश्रम में नज़र आता है, आध्यात्मिक नहीं होता. एक ऐसे गुरु के, जिनका आश्रम दिल्ली से मात्र दो घण्टे की दूरी पर है, घनघोर भक्त एक फिल्म निर्माता ने एक बार मुझसे कहा था कि मुझे भी उनके गुरु के पास जाना चाहिए. वहां मुझे दिल्ली की हर बड़ी हस्ती के दीदार हो जाएंगे. सच तो यह है कि वे गुरु जी निर्माणाधीन दूसरे चन्द्रास्वामी हैं. तो, यह तो नेटवर्किंग के लिए एक मिलन बिन्दु है. ऐसे लोगों के प्रति मेरे मन में अगाध सम्मान है जो आध्यात्मिक या धार्मिक हैं और फिर भी भले इंसान हैं. इसकी वजह है. मैं मानता हूं कि किसी भी भाव या अनुभूति की तरह आपकी भी एक सीमा होती है. आप एक निश्चित दूरी तक ही देख सकते हैं. उससे आगे आप नहीं देख सकते. आप एक खास स्तर तक ही सुन सकते हैं, उससे परे की ध्वनि आपको सुनाई नहीं देगी. आप एक खास मुकाम तक ही शोक मना सकते हैं, दर्द हद से बढ़ता है तो खुद-ब-खुद दवा हो जाता है. एक खास बिन्दु तक आप प्रसन्न हो सकते हैं, उसके बाद वह प्रसन्नता भी प्रभावहीन हो जाती है. इसी तरह, मैं मानता हूं कि आपके भलेपन की भी एक निश्चित सीमा है. आप एक हद तक ही भले हो सकते हैं, उससे आगे नहीं. अब कल्पना कीजिए कि हम किसी औसत इंसान में इस भलमनसाहत की मात्रा दस इकाई मानते हैं. अब हर कोई जो मस्जिद में जाकर पांच वक़्त नमाज़ अदा कर रहा है वह इस दस में से पांच इकाई की भलमनसाहत रखता है, जो किसी मदिर में जाता है या गुरु के चरणों में बैठता है वह तीन इकाई भलमनसाहत रखता है. यह सारी भलमनसाहत निहायत गैर उत्पादक किस्म की है. मैं इबादतगाह में नहीं जाता, मैं प्रार्थना नहीं करता. अगर मैं किसी गुरु के पास, किसी मस्जिद या मंदिर या चर्च में नहीं जाता तो मैं अपने हिस्से की भलमनसाहत का क्या करता हूं? मुझे किसी की मदद करनी होगी, किसी भूखे को खाना खिलाना होगा, किसी को शरण देनी होगी. वे लोग जो अपने हिस्से की भलमनसाहत को पूजा-पाठ में, धर्म या आध्यात्म गुरुओं के मान-सम्मान में खर्च करने के बाद भी अगर कुछ भलमनसाहत बचाए रख पाते हैं, तो मैं उन्हें सलाम करता हूं.
आप मुझसे पूछ सकते हैं कि अगर धार्मिक लोगों के बारे में मेरे विचार इस तरह के हैं तो तो फिर मैं कृष्ण, कबीर या गौतम के प्रति इतना आदर भाव कैसे रखता हूं? आप ज़रूर पूछ सकते हैं. मैं बताता हूं कि क्यों मेरे मन में उनके प्रति आदर है. इन लोगों ने मानव सभ्यता को समृद्ध किया है. इनका जन्म इतिहास के अलग-अलग समयों पर, अलग-अलग परिस्थितियों में हुआ. लेकिन एक बात इन सबमें समान थी. ये अन्याय के विरुद्ध खड़े हुए. ये दलितों के लिए लड़े. चाहे वह रावण हो, कंस हो, कोई बड़ा धर्म गुरु हो या गांधी के समय में ब्रिटिश साम्राज्य या कबीर के वक़्त में फिरोज़ शाह तुग़लक का धर्मान्ध साम्राज्य हो, ये उसके विरुद्ध खड़े हुए.
और जिस बात पर मुझे ताज़्ज़ुब होता है, और जिससे मेरी आशंकाओं की पुष्टि भी होती है वह यह कि ये तमाम ज्ञानी लोग, जो कॉस्मिक सत्य, ब्रह्माण्डीय सत्य को जान चुके हैं, इनमें से कोई भी किसी सत्ता की मुखालिफत नहीं करता. इनमें से कोई सत्ता या सुविधा सम्पन्न वर्ग के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द नहीं करता. दान ठीक है, लेकिन वह भी तभी जब कि उसे प्रतिष्ठान और सत्ता की स्वीकृति हो. लेकिन आप मुझे बताइये कि कौन है ऐसा गुरु जो बेचारे दलितों को उन मंदिरों तक ले गया हो जिनके द्वार अब भी उनके लिए बन्द हैं? मैं ऐसे किसी गुरु का नाम जानना चाहता हूं जो आदिवासियों के अधिकारों के लिए ठेकेदारों से लड़ा हो. मुझे आप ऐसे गुरु का नाम बताएं जिसने गुजरात के पीड़ितों के बारे में बात की हो और उनके सहायता शिविरों में गया हो. ये सब भी तो आखिर इंसान हैं.
मान्यवर, यह काफी नहीं है कि अमीरों को यह सिखाया जाए कि वे सांस कैसे लें. यह तो अमीरों का शगल है. पाखण्डियों की नौटंकी है. यह तो एक दुष्टता पूर्ण छद्म है. और आप जानते हैं कि ऑक्सफर्ड डिक्शनरी में इस छद्म के लिए एक खास शब्द है, और वह शब्द है: होक्स(HOAX). हिन्दी में इसे कहा जा सकता है, झांसे बाजी!.
धन्यवाद.
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इण्डिया टुडे कॉनक्लेव में दिनांक 26 फरवरी, 2005 को ‘स्पिरिचुअलिटी, हलो ऑर होक्स’ सत्र में दिया गया व्याख्यान.

Sunday, September 21, 2008

व्यवस्था का सच

कल्पना कीजिए एक ऐसे देश की जहां यह सोचना तक अपराध माना जाए कि कोई अपराध हुआ है. और फिर भी अगर आप ऐसा सोच लें तो उसे देश के प्रति काबिले-सज़ा अपराध मान लिया जाए और आपको या तो किसी दूरस्थ दुर्गम प्रदेश में सश्रम कारावास दे दिया जाए या फिर बिना सुनवाई के ही खत्म कर दिया जाए. एक ऐसा देश जहां आपके पडौसी ही आपको देशद्रोही घोषित कर सकते हों या पुलिस बिना किसी वजह के आपके घर की तलाशी ले सकती हो. ऐसा देश जहां कोई भी, आपका अपना परिवार तक, भरोसे के काबिल न हो. कहां है ऐसा देश? ऐसा देश है 28 वर्षीय लन्दन निवासी लेखक टॉम रॉब स्मिथ के हाल ही में प्रकाशित और बहुचर्चित उपन्यास चाइल्ड 44 में.

विज्ञान कथा लेखक जेफ नून की एक कहानी का रूपांतर करते हुए 28 वर्षीय टॉम रॉब स्मिथ का सामना एक रूसी सीरियल किलर आन्द्रेई चिकातिलो के वृत्तांत से हुआ. चिकातिलो ने 50 से ज़्यादा औरतों और बच्चों की हत्या की थी. 1944 में उसे फांसी हुई. इस वृत्तांत ने स्मिथ को पचास के दशक के स्टालिन कालीन सोवियत रूस के जीवन पर आधारित यह उपन्यास लिखने को प्रेरित किया. बकौल स्मिथ, यह उपन्यास उनके तीन उपन्यासों की श्रंखला में पहला है. इन दिनों वे इस श्रंखला के दूसरे उपन्यास पर काम कर रहे हैं.

उपन्यास चाइल्ड 44 की कथा का केन्द्रीय चरित्र है एम जी बी (रूसी गुप्तचर संस्था) का एक अफसर लियो स्टेपानोविच. लियो अपनी सरकार और उसकी नीतियों में शत प्रतिशत विश्वास रखता है. सरकार जिस किस्म की अन्धी वफादारी अपने नागरिकों से चाहती है, उसमें उसे कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन, स्टालिन कालीन रूस में होता यह है कि शिकारी खुद ही शिकार हो जाता है. अफसर लियो को इन अफवाहों का खात्मा करने का आदेश मिलता है कि उसके एक जूनियर सहकर्मी फ्योदोर के चार वर्षीय बेटे की हत्या हुई है. इस मृत्यु के बारे में सरकारी रिपोर्ट में कहा गया था कि यह रेल की पटरियों पर हुई एक सामान्य दुर्घटना है, जबकि इस रिपोर्ट पर न फ्योदोर को भरोसा था न उनके पडौसियों को. उनका मानना था कि बालक के शव को रेल की पटरियों पर डालने से पहले उस पर नृशंस प्रहार किए गए थे. अफसर लियो, तत्कालीन सरकार की ही तरह, मानता है कि श्रमिकों के उस स्वर्णिम स्वर्ग में, जहां कि हर नागरिक को उसकी ज़रूरत की हर चीज़ सुलभ है, अपराध जैसी कोई चीज़ बची ही नहीं है. अगर कुछ बचा है तो वह है बाहर की दुनिया के भ्रष्टों के हमले. तो, सरकार का वफादार लियो अपनी ड्यूटी निबाहता हुआ फ्योदोर को सरकारी रिपोर्ट पर सन्देह करने के खतरों से आगाह करता है. जैसा उस समय का माहौल था, फ्योदोर चुप हो जाता है, लेकिन उसके मन में लियो के प्रति एक गांठ ज़रूर पड़ जाती है. एक दूसरे प्रकरण में, जब लियो की की हुई जांच और उसका निर्णय सन्देह के घेरे में आता है तो फ्योदोर को बदला लेने का मौका मिल जाता है.
कथा आगे बढती है. वह तर्क जो अब तक लियो दूसरों पर लागू करता रहा है, कि जो व्यक्ति किसी भी बात पर सन्देह करता है, वह स्वयं सन्दिग्ध होता है, दमनकारी शासन द्वारा खुद उस पर चस्पां कर दिया जाता है. उसकी निष्ठा की परख के लिए उसे आदेश दिया जाता है कि वह वह अपनी ही पत्नी रईसा की जासूसी करे. जांच की उलझन को भला लियो से ज़्यादा कौन समझ सकता है! अगर उसने यह कहा कि रईसा देश की वफादार नागरिक है तो वह खुद सन्देह के घेरे में आ जाएगा. उलझन का अंत होता है, स्टालिन की मौत से. उसके अनुचरों की अनिश्चित स्थिति इस दम्पती को बहुत हलके-से दण्ड के साथ भाग छूटने का मौका देती है. लियो को पदावनत करके एक उजाड शहर में भेज दिया जाता है. यह क्या कम है कि उसे अपने प्राणों से हाथ न धोना पड़ा. लेकिन जो ज़िन्दगी उसे और उसकी पत्नी को मिलती है वह भी कम त्रासद नहीं है. अब धीरे-धीरे उस पर यह राज़ खुलता है कि अब तक वो जो मानता रहा है वह मिथ्या था. उसका काम कानून का निर्वाह कराने का था ही नहीं. वहीं उसे अनेक अपराधों और अपराधियों का पता चलता है. लेकिन तब भी, यह कहना कि अपराधी विद्यमान हैं, मुमकिन नहीं क्योंकि तब भी यही माना जाता था कि अपराधी तो पतनशील पूंजीवादी व्यवस्था में ही होते हैं, श्रमिकों के स्वर्ग में नहीं.
इसके बाद कथाकार इस दम्पती को असल हत्यारे की तलाश में लगा देता है और यहीं से उपन्यास एक थ्रिलर की गति पकड़ता है.
पूरा उपन्यास उस व्यवस्था की विसंगतियां उभारता है जिसका मानना है कि सन्दिग्ध को इतना सताओ कि वह अपना अपराध कुबूल कर ले. यह इसी व्यवस्था की विसंगति है कि असल अपराधी बच निकलते हैं. कथानायक लियो इस विसंगति से वाक़िफ होने के बाद जैसे प्रायश्चित स्वरूप कुछ बेहतर करना चाहता है, और इसमें बेशक उसे पाठकों की पूरी हमदर्दी हासिल होती है.
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Discussed book:
Child 44
A novel by Tom Rob Smith
Published by: Grand Central Publishing
448 pages Hardcove.
US $ 24.99

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित मेरे पाक्षिक कॉलम 'किताबों की दुनिया' में 21 सितम्बर, 2008 को प्रकाशित आलेख का असम्पादित रूप.









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Wednesday, September 10, 2008

सच्चाई ज़रूरी है आज के अतिवादी समय में

पुलिट्ज़र पुरस्कार विजेता पत्रकार रोन सस्किण्ड की हाल ही में प्रकाशित किताब ‘द वे ऑफ द वर्ल्ड: ए स्टोरी ऑफ ट्रुथ एण्ड होप इन एन एज ऑफ एक्स्ट्रीमिज़्म’ ने इन दिनों अमरीका को बड़ी असहज स्थिति में डाल रखा है. किताब में कुछ बेहद सनसनीखेज रहस्योद्घाटन किए गए हैं. बात इतनी आगे बढ़ गई है कि सीनेट सेलेक्ट कमिटी ऑन इण्टेलीजेंस और हाउस ज्यूडिशियरी कमिटी को कहना पड़ा है कि रोन ने जो खुलासे किए हैं, उनकी पड़ताल की जाएगी. वैसे, जैसा इस तरह के मामलों में हमेशा होता है, सम्बद्ध पक्षों ने खण्डन का कर्मकाण्ड पूरा कर लिया है. आखिर रोन ने ऐसा क्या कह दिया है इस किताब में? रोन ने कहा है कि 2003 में व्हाइट हाउस ने अमरीकी गुप्तचर एजेंसी सी आई ए को आदेश दिया था कि वह ईराक़ और अल-कायदा की नज़दीकी प्रकट करने वाले जाली दस्तावेज़ तैयार और प्रचारित करे. आदेश का पालन करते हुए सी आई ए ने एक जाली पत्र तैयार किया. पत्र ईराक़ी गुप्तचर सेवा के प्रमुख हाब्बुश ने सद्दाम हुसैन को ‘लिखा’ था. एक जुलाई 2001 की तारीख वाले इस पत्र में कहा गया कि 9 सितम्बर की घटना के रिंग लीडर मोहम्मद अत्ता को इस काण्ड के लिए ईराक़ में प्रशिक्षित किया गया. रोन कहते हैं कि इस जाली पत्र ने व्हाइट हाउस की सारी समस्याएं हल कर दीं.
रोन की यह किताब अनेक दस्तावेज़ी साक्ष्यों के हवाले से बताती है कि बुश प्रशासन युद्ध के कई सप्ताह पहले ईराक़ी गुप्तचर सेवा के प्रमुख से यह जान चुका था कि ईराक़ के पास महाविनाश के हथियार नहीं हैं. लेकिन इस सच्चाई को झुठलाते हुए ईराक़ी गुप्तचर सेवा के प्रमुख से अमरीकियों को यह भरोसा दिलवाने वाला पत्र लिखवाया गया कि ईराक़ के पास महाविनाश के हथियार हैं और उसकी संलग्नता अल-क़ायदा के साथ है. अमरीका ने गुप्तचर सेवा प्रमुख को इस ‘सेवा’ के बदले पचास लाख डॉलर प्रदान किए.
ये और ऐसे अनेकानेक सनसनीखेज खुलासे करते हुए पुस्तक के लेखक रोन सस्किण्ड कहते हैं कि एक देश के रूप में अमरीका पथभ्रष्ट हो गया है और वह नैतिक सत्ता, जो कि उसके अस्तित्व का आधार है, उसके हाथ से फिसल चुकी है. रोन बेहद भावपूर्ण शब्दों में अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहते हैं कि इस समय की सबसे बड़ी चुनौती -आतंकवादियों के हाथों में आणविक हथियार– का सामना करने वाली नैतिक नेतृत्व क्षमता अमरीका खो चुका है. किताब के अनेक केन्द्रीय विचारों में से एक है कथनी और करनी के बीच की बढती खाई, अमरीकी सरकार और अधिकारियों द्वारा की जाने वाली नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें, हवाई वक्तव्य और उनके बरक्स उसकी काली करतूतें. किताब में एक जगह बेनज़ीर भुट्टो को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है, “रोन, मैं अपनी तमाम ज़िन्दगी इन प्रजातांत्रिक मूल्यों की बात करती रही हूं, लेकिन पिछले महीने ही मुझे उनकी ताकत का एहसास हुआ है.” किताब में खूब सारी घटनाएं और अनेक याद रह जाने वाले किरदार हैं. बेनज़ीर भुट्टो मुशर्रफ से पूछती हैं कि क्या उनकी जान की रक्षा की जाएगी? और इसके जवाब में मुशर्रफ कहते हैं कि “यह इस बात पर निर्भर करता है कि हमारे रिश्ते कैसे रहते हैं. इसे अच्छी तरह समझ लें.” रोन टिप्पणी करते हैं कि यह उत्तर किसी माफिया डॉन की धमकी जैसा लगता है. रोन यह भी बताते हैं कि अपने आखिरी दिनों में बेनज़ीर को यह समझ में आ गया था कि अमरीका ने आदर्श को एक तरफ रख कर अवैध सत्ता से हाथ मिलाते हुए उन्हें दर किनार करना शुरू कर दिया था.
किताब अमरीकी सरकार द्वारा मानवाधिकार हनन के अनेक प्रसंगों, और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर किए जाने वाले अगणित हमलों के प्रसंग उजागर करती हुई ऐसे अनेक चरित्रों को सामने लाती है जो अन्धेरे में रोशनी की मानिन्द हैं. ऐसा ही एक चरित्र है संयुक्त राष्ट्र संघ की शरणार्थी आयुक्त वेण्डी चेम्बरलिन का. वेण्डी कहती हैं, “अगर पूरे दिन के काम के बाद, शाम को आप यह पाएं कि आपने अपनी शपथ का पूरा निर्वाह किया है तो फिर आपका कोई शत्रु हो ही नहीं सकता, और अगर हो भी तो वह अपराजेय नहीं हो सकता.”
किताब आज के आपाधापी और मूल्यहीनता के समय में, जबकि सच्चाई, न्याय और जवाबदेही केवल शब्दों तक सिमट कर रह गई है नैतिक मूल्यों की ज़रूरत को बहुत प्रखरता से रेखांकित करती है.
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Discussed book:
The Way of the World: A Story of Truth and Hope in an Age of Extremism
By Ron Suskind
Published by Harper
432 pages , Hardcover
US $ 27.95

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम 'किताबों की दुनिया' में 07 सितम्बर, 2008 को प्रकाशित आलेख का असम्पादित रूप.








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