Thursday, May 29, 2008

कैसा है डिजिटल युग का युवा

संस्कृति और अमरीकी जीवन के गहन अध्येता और एमॉरी विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर मार्क बॉयेर्लाइन की नई किताब ‘द डम्बेस्ट जनरेशन: हाउ द डिजिटल एज स्टुपिफाइज़ यंग अमरीकन्स एण्ड जिओपार्डाइजेज़ अवर फ्यूचर’ अमरीका की तीस साल तक की उम्र वाली वर्तमान पीढी के बौद्धिक खालीपन को जिस शिद्दत के साथ उजागर करती है वह हमें भी बहुत कुछ सोचने को विवश करता है. मार्क बेबाकी से कहते हैं कि सायबर कल्चर अमरीका को कुछ भी नहीं जानने वालों के देश में तब्दील करती जा रही है. वे चिंतित होकर पूछते हैं कि अगर किसी देश की नई पीढी का समझदार होना अवरुद्ध हो जाए तो क्या वह देश अपनी राजनीतिक और आर्थिक श्रेष्ठता कायम रख सकता है?

वैसे तो पॉप कल्चर और युवा पीढी पर उसके प्रभावों को लेकर काफी समय से बहस हो रही है. वर्तमान डिजिटल युग जब शुरू हुआ तो बहुतों ने यह आस बांधी थी कि इण्टरनेट, ई मेल, ब्लॉग्ज़, इण्टरएक्टिव वीडियो गेम्स वगैरह के कारण एक नई, अधिक जागरूक, ज़्यादा तीक्ष्ण बुद्धि वाली और बौद्धिक रूप से परिष्कृत पीढी तैयार होगी. इंफर्मेशन सुपर हाइवे और नॉलेज इकोनॉमी जैसे नए शब्द हमारी ज़िन्दगी में आए और उम्मीद की जाने लगी कि नई तकनीक के इस्तेमाल में दक्ष युवा अपने से पिछली पीढी से बेहतर होंगे. लेकिन, दुर्भाग्य, कि यह आस आस ही रही. जिस तकनीक से यह उम्मीद थी कि उसके कारण युवा अधिक समझदार, विविध रुचि वाले और बेहतर सम्प्रेषण कौशल सम्पन्न होंगे, उसका असर उलटा हुआ. ताज़ा रिपोर्ट्स बताती हैं कि अमरीका की नई पीढी के ज़्यादातर लोग न तो साहित्य पढते हैं, न म्यूज़ियम्स जाते हैं और न वोट देते हैं. वे साधारण वैज्ञानिक अवधारणाएं भी नहीं समझ-समझा सकते हैं. उन्हें न तो अमरीकी इतिहास की जानकारी है और न वे अपने स्थानीय नेताओं को जानते हैं. उन्हें यह भी नहीं पता कि दुनिया के नक्शे में ईराक या इज़राइल कहां है.
इन्हीं सारे कारणों से मार्क बॉयेर्लाइन ने उन युवाओं को, जो अभी हाई स्कूल में हैं, द डम्बेस्ट जनरेशन का नाम दिया है. बॉयेर्लाइन ने जो तथ्य दिए हैं वे बहुत अच्छी तरह यह स्थापित करते हैं कि आज का युवा डिजिटल मीडिया के माध्यम से और ज़्यादा आत्मकेन्द्रित होता जा रहा है. वह नई तकनीक का इस्तेमाल किताब पढने या पूरा वाक्य लिखने जैसी गतिविधियों से अलग जाकर सतही, अहंकारवादी और भटकाने वाली ऑन लाइन दुनिया में रत रहने में कर रहा है. बॉयेर्लाइन यू ट्यूब और माय स्पेस का नाम लेते हैं और कहते हैं कि इन और इन जैसे दूसरे वेब अड्डों पर युवाओं ने अपनी मनचाही जीवन शैली विषयक सामग्री की भरमार कर रखी है और वे इस संकुचित परिधि से बाहर नहीं निकलते हैं. मार्क इस मिथ को भी तोडते हैं कि इण्टरनेट में बढती दिलचस्पी ने युवाओं के बुद्धू बक्सा-मोह को कम किया है. वे आंकडों के माध्यम से स्थापित करते हैं कि युवाओं ने इण्टरनेट को दिया जाने वाला समय मुद्रित शब्द से छीना है और उनका टी वी प्रेम तो ज्यों का त्यों है. मार्क बताते हैं कि 1981 से 2003 तक आते-आते पन्द्रह से सत्रह साल वाले किशोरों का फुर्सती पढने का वक़्त अठारह मिनिट से घटकर सात मिनिट रह गया है.

इससे आगे बढकर मार्क यह भी कहते हैं कि 12 वीं कक्षा के छियालीस प्रतिशत विद्यार्थी विज्ञान में बेसिक स्तर को भी नहीं छू पाते हैं, एडवांस्ड स्तर तक तो महज़ दो प्रतिशत ही पहुंचते हैं. यही हाल उनकी राजनीतिक समझ का भी है. हाई स्कूल के महज़ छब्बीस प्रतिशत बच्चे नागरिक शास्त्र में सामान्य स्तर के हैं. नेशनल असेसमेण्ट ऑफ एज्यूकेशनल प्रोग्रेस की इसी रिपोर्ट के अनुसार बारहवीं कक्षा के बच्चों में 1992 से 2005 के बीच पढने की आदत में भी भारी कमी आई है. इस कक्षा के केवल चौबीस प्रतिशत बच्चे ही ठीक-ठाक वर्तनी और व्याकरण वाला काम-चलाऊ गद्य लिख सकने में समर्थ हैं. यही हाल उनकी मौखिक अभिव्यक्ति का भी है.

मार्क का निष्कर्ष है कि आज की सांस्कृतिक और तकनीकी ताकतें ज्ञान और चिंतन के नए आयाम विकसित करने की बजाय सार्वजनिक अज्ञान का एक ऐसा माहौल रच रही है जो अमरीकी प्रजातंत्र के लिए घातक है. मार्क जो बात अमरीका के लिए कह रहे हैं, विचारणीय है कि कहीं वही बात भारत के युवा पर भी लागू तो नहीं हो रही? खतरे की घण्टी के स्वरों को हमें भी अनसुना नहीं करना चाहिए.
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Discussed book:
The Dumbest Generation: How the Digital Age Stupefies Young Americans and Jeopardizes Our Future
By Mark Bauerlein
Published By: Tarcher
273 pages, Hardcover
US $ 24.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 29 मई 2008 को प्रकाशित.








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Thursday, May 22, 2008

उत्तर-अमरीकी दुनिया

न्यूज़वीक के सम्पादक, भारत में जन्मे और लम्बे समय से न्यूयॉर्क में रह रहे फरीद ज़करिया की एकदम ताज़ा किताब ‘द पोस्ट-अमेरिकन वर्ल्ड’ अर्थात उत्तर अमरीकी दुनिया, एक ऐसे भावी परिदृश्य की कल्पना करती है जिसमें आज का सर्वशक्तिमान अमरीका न तो वैश्विक अर्थव्यवस्था का नियंता है, न भू-राजनीति का संचालक और न संस्कृतियों का परिचालन कर्ता. ज़करिया को चीन, भारत, ब्राज़ील, रूस और कई अन्य देशों का उत्थान, जिसे वे ‘राइज़ ऑफ द रेस्ट’ का नाम देते हैं, एक ऐसी परिघटना नज़र आता है जो दुनिया की तस्वीर बदल देने वाला है. दुनिया की सबसे ऊंची इमारतें, सबसे बडे बांध, सबसे ज़्यादा चलने वाली फिल्में और नवीनतम सेलफोन – इन सबका निर्माण अमरीका के बाहर ही हो रहा है. और, बावज़ूद इसके कि विश्व की आबादी बढ रही है, कम से कम दुनिया के तीन चौथाई देशों में अत्यधिक गरीबी में रह रहे लोगों की संख्या में कमी हो रही है.

ज़करिया लिखते हैं कि अब तक तो अमरीका एक राजनैतिक और सैन्य महाशक्ति है, लेकिन इन दो को छोडकर शेष तमाम क्षेत्रों में शक्ति संतुलन की तस्वीर बदलती जा रही है. औद्योगिक, वित्तीय, शैक्षिक, सामाजिक, सांस्कृतिक – इन सारे क्षेत्रों में अमरीकी वर्चस्व के गढ ढहते जा रहे हैं. चीन, भारत और अन्य उभरते बाज़ारों तथा दुनिया के बडे भाग में हो रहे आर्थिक विकास और दुनिया के लगातार विकेन्द्रिकृत और आपस में जुडते जाने की वजह से हम एक ऐसी उत्तर-अमरीकी दुनिया की तरफ बढ रहे हैं जिसे कई जगहों से कई लोग परिभाषित और निर्मित कर रहे हैं.

ज़करिया कहते हैं कि हमारा दौर पिछले 500 बरसों के तीसरे महान टेक्टॉनिक पॉवर शिफ्ट का दौर है. पहला दौर था आधुनिकता, विज्ञान, तकनीक, वाणिज्य, पूंजीवाद, कृषि और औद्योगिक क्रांति का, जिसे हम पश्चिम के अभुदय का दौर भी कह सकते हैं. दूसरा दौर बीसवीं शताब्दी में अमरीका के उत्थान का दौर था. और तीसरा यानि वर्तमान दौर है ‘राइज़ ऑफ द रेस्ट’ का जिसमें चीन और भारत अपने पास (और दूर भी) बडी शक्तियों के रूप में उभर रहे हैं, रूस अधिक आक्रामक हो रहा है और बाज़ार तथा अर्थशास्त्र के क्षेत्र में यूरोप अधिक शक्तिशाली और अर्थपूर्ण ढंग से सक्रिय हो रहा है..
ज़करिया संस्मरणात्मक होते हुए लिखते हैं कि अस्सी के दशक में जब वे भारत आते तो पाते थे कि यहां के ज़्यादातर लोग अमरीका से अभिभूत थे. इस भाव के मूल में अमरीका का शक्तिशाली होना या कोई अन्य बौद्धिक कारण नहीं थे. अक्सर लोग उनसे, यानि ज़करिया से, डोनाल्ड ट्रम्प के बारे में पूछते क्योंकि वही अमरीका का प्रतीक था - चमकदार, अमीर और आधुनिक! ट्रम्प इस विचार का मूर्त रूप था कि अगर आप कुछ भी बडा करना या पाना चाहते हो तो अमरीका में ही कर या पा सकते हैं. लेकिन, आज, मनोरंजन की दुनिया को छोड दें तो अमरीकी व्यक्तित्वों में किसी की दिलचस्पी नहीं बची है. आप भारत के अखबार पढिए, यहां का टी वी देखिए. आप पाएंगे कि यहां के अनेक व्यापारी डोनाल्ड ट्रम्प से ज़्यादा अमीर हैं. आज भारतीयों के पास अपने अभिभूतकारी रियल एस्टेट धनपति हैं. और, जैसा भारत में हो रहा है, वैसा ही दुनिया के अधिकतर देशों में हो रहा है.

ज़करिया एक अहम बात यह कहते हैं कि यह ‘राइज़ ऑफ द रेस्ट’ अमरीकी विचारों और कृत्यों का ही परिणाम है. पिछले साठ सालों से अमरीकी राजनेता और राजनयिक दुनिया भर में मुक्त बाज़ार, मुक्त राजनीति तथा व्यापार और तकनीक के गठजोड की वकालत करते घूम रहे हैं. उसी का परिणाम है कि आज दुनिया के अनेक देश अमरीका के समकक्ष खडे हो गए हैं. सवाल यह है कि इस तेज़ी से बदलती जा रही, एक ध्रुवीय दुनिया में अमरीका की भूमिका क्या होगी? ज़करिया की सलाह है कि अमरीका को अपने हठधर्मी पूर्ण और आदेश देने वाले महाशक्ति के रूप को त्याग कर अन्य देशों से निकट और समानता के सम्बन्ध बनाने होंगे और उन्हें सलाह देनी होगी, उनसे सहयोग करना होगा, यहां तक कि उनसे समझौते भी करने होंगे. इस नई दुनिया में अमरीका की भूमिका एक वैश्विक दलाल की ही हो सकती है.

ज़करिया की एक बडी चिंता इस बात को लेकर है कि दुनिया के एक साथ कई देशों का विकास के पथ पर अग्रसर होना, और किसी नियंत्रक महाशक्ति का न होना, किसी बडे गडबडझाले का कारण हो सकता है. उनका कहना है कि आर्थिक वैश्वीकरण से विकास आता है और विकास के साथ ही आता है राष्ट्रवाद भी. राष्ट्रीय गर्व का यह भाव स्वभावत: सहयोग-भाव को घटाता है. और यही है आज की और कल की दुनिया की सबसे बडी विडम्बना और सबसे बडी चिंता. ज़करिया से इसका हल पूछें तो वे कहते हैं : हॉरिजॉण्टल, नॉट वर्टिकल; को-ऑपरेटिव, नॉट हायरार्किकल!


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Discussed book:
The Post-American World
By Fareed Zakaria
Published by: Norton, W.W. & Company, Inc.
Hardcover. 288 Pages.
US $ 25.95


राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 22 मई 2008 को प्रकाशित.








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Thursday, May 15, 2008

जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी

पति पत्नी कार में कहीं जा रहे हैं. पत्नी पूछती है, “आप कॉफी के लिए कहीं रुकना चाहेंगे?” ”नहीं, धन्यवाद!” पति ईमानदारी से जवाब देता है और यात्रा जारी रहती है.
परिणाम? दरअसल पत्नी जो खुद कॉफी के लिए रुकना चाहती थी, यह सोच कर नाराज़ हो जाती है कि पति ने उसकी इच्छा का मान नहीं रखा. उधर, पत्नी को नाराज़ देख पति भी परेशान हो जाता है और समझ नहीं पाता कि पत्नी कॉफी पीना ही चाहती थी तो साफ-साफ क्यों नहीं बोली?

इस प्रकरण में पति तो यह नहीं समझ सका कि पत्नी ने जो पूछा था, उसका असल मक़सद पूछना नहीं, संवाद शुरू करना था, और पत्नी यह नहीं महसूस कर सकी कि पति ने जब कॉफी के लिए मना किया तो उसने महज़ अपनी पसन्द ज़ाहिर की थी, कोई हुक्म नहीं दिया था.
हम सब की ज़िन्दगी में अक्सर ऐसा होता है. जब स्त्री और पुरुष अपनी-अपनी तरह से भाषा को बरतते हैं तो उसकी परिणति एक दूसरे पर स्वार्थी और ज़िद्दी होने का इलज़ाम लगाने में होती है.

जॉर्ज़ टाउन विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान की प्रोफेसर और विख्यात समाज-भाषा वैज्ञानिक डेबोराह तान्नेन ने अपनी नई किताब यू जस्ट डॉण्ट अण्डर स्टैण्ड : वुमन एण्ड मेन इन कन्वर्सेशन में स्त्री और पुरुष द्वारा भाषा के इसी भिन्न व्यवहार पर गहन किंतु रोचक विमर्श किया है. उनका स्पष्ट मत है कि ज़्यादातर स्त्रियां बातचीत को सम्पर्क और संवाद के लिए प्रयोग करती हैं जबकि पुरुष इसका प्रयोग सामाजिक हैसियत अर्जित करने या बनाए रखने के लिए और ज्ञान देने के लिए करते हैं. डेबोराह ने स्त्रियों की बातचीत को निजी बातचीत (रैपो टॉक) और पुरुषों की बातचीत को सार्वजनिक बातचीत (रिपोर्ट टॉक) की संज्ञा दी है.
लेखिका ने अनेक उदाहरणों से यह समझाया है कि स्त्रियां सहेलियों और प्रेमियों से बात करके निकटता स्थापित करती हैं. वे अपनी समस्याओं का साझा भी करती हैं. लेकिन पुरुष प्राय: ऐसा नहीं करते. अगर स्त्री उनके सामने कोई समस्या रखती है तो वे तुरंत उसका समाधान पेश करते हैं. तब, स्त्री को लगता है कि पुरुष उसकी समस्या में रुचि नहीं ले रहा है. स्त्री को सुनने वाले की चाहना थी, न कि समाधान देने वाले की. तब, पुरुष शिकायत करता है कि स्त्री तो अपना ही रोना रोती रहती है, और समाधान में उसकी कोई रुचि नहीं है. पुरुष की इस शिकायत के मूल में है स्त्री की आधारभूत प्रकृति से उसका अपरिचय. खुद पुरुष किसी से अपनी समस्या की चर्चा तब तक नहीं करता जब तक कि उसे समाधान की ज़रूरत न हो.
इस बात के उदाहरण के रूप में डेबोराह लिखती हैं, “जब मेरी मां मेरे पिता से कहती हैं कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है तो मेरे पिता उन्हें तुरंत डॉक्टर के पास चलने को कहते हैं. उनकी यह प्रतिक्रिया मेरी मां को अच्छी नहीं लगती. पिता समस्या का समाधान पेश करते हैं जबकि मां केवल उनकी सहानुभूति चाहती हैं.”

स्त्री और पुरुष भाषा की भिन्नता की खोज करते हुए डेबोराह ने लडके और लडकियों के खेलने के तौर-तरीकों का भी विश्लेषण किया है. वे बताती हैं कि लडके बडे समूहों में और प्राय: बाहर खेलने में रुचि रखते हैं. उनके समूह में एक पदानुक्रम भी होता है, यानि एक ग्रुप लीडर होता है जो सबको हुक्म देता है. लडकों के खेल-में हार-जीत भी होती है. इसके विपरीत, लडकियां अक्सर छोटे समूह में या जोडियों में ही खेलना पसन्द करती हैं और हरेक की कोई न कोई बेस्ट फ्रेंण्ड होती है. उनके यहां कोई आदेश नहीं दिए जाते. लडकियों के लिए निकटता महत्वपूर्ण होती है. उनके खेलों में हार-जीत भी नहीं होती. उनकी प्रकृति का यह अंतर उनकी संवाद शैली का भी निर्माण करता है.

लेखिका ने स्त्री और पुरुष संवादों की तह में जाकर खोजा है कि हर स्त्री अंतत: एक ही बात पूछती है: क्या तुम मुझे पसन्द करते हो? और इसी तरह हर पुरुष भी एक ही बात पूछता है: क्या तुम मेरा सम्मान करते/करती हो?

निष्कर्ष के रूप में डेबोराह सलाह देती हैं कि स्त्री-पुरुष दोनों को ही एक-दूसरे की संवाद शैली की मूलभूत भिन्नताओं को समझना चाहिए. जैसे, स्त्रियां जैसी बातें अपनी सहेलियों से करती हैं वैसी ही बातें अगर अपने पुरुष मित्रों से भी करेंगी तो यह उन्हें अपनी सहेली में तब्दील करने जैसा होगा. और इसी तरह, पुरुष को भी यह समझना चाहिए कि जब कोई स्त्री उससे मुखातिब है तो वह दर असल कुछ कह नहीं रही बल्कि अपने रिश्ते को मज़बूत करने की चेष्टा कर रही है. वे कहती हैं कि दोनों को किसी मध्य बिन्दु तक आने का प्रयास भी करना चाहिए. कुल मिलाकर, अगर स्त्री और पुरुष दोनों ही एक दूसरे से यह उम्मीद करना बन्द कर दें कि वे उन्हीं की तरह संवाद करेंगे तो ज़िन्दगी ज़्यादा खूबसूरत हो सकती है.
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Discussed book:
You Just Don’t Understand: Women and Men in Conversation
By Deborah Tannen
Published by Harper Collins Publishers
352 pp
US $ 13.95


राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 15 मई 2008 को प्रकाशित.








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Thursday, May 8, 2008

ये मेरा प्रेम पत्र पढकर.....

लाइफ पत्रिका के पूर्व सम्पादक बिल शापिरो को एक पुराना खत मिला. यह खत उस महिला का था, जिससे कभी वे डेटिंग किया करते थे. खत उस महिला को किसी ने तब लिखा था जब शापिरो उसकी ज़िन्दगी में नहीं आए थे. इस खत ने शापिरो को यह सोचने को प्रेरित किया कि किसी के लिए ऐसे खतों की क्या अहमियत हो सकती है, और क्यों ऐसा होता है कि कुछ लोग तो ताज़िन्दगी खतों को सीने से लगाए रहते हैं और कुछ उन्हें बिल्कुल भी महत्व नहीं देते! सोच का सिलसिला आगे बढा तो वे अपने मित्रों-परिचितों से उनके प्रेम-पत्र प्राप्त करने में जुट गए. अपनी तलाश को और भी विस्तार देते हुए उन्होंने लोगों के घरों की टाण्डों, अलमारियों, यहां तक कि उनके सिगार और शू बॉक्सेज़ तक़ को टटोल लिया. इस तरह उनके हाथ लगा विविध वर्णी, असल प्रेम पत्रों का एक बडा खज़ाना. इन खतों में थी सम्वेदनाओं की नाज़ुकी, रिश्तों की कमनीयता, अभिव्यक्ति की बेबाकी, मन का अपराध बोध, बेपनाह गुस्सा और भी न जाने क्या-क्या. लेकिन जो भी था, था बेहद ईमानदार क्योंकि ये खत केवल और केवल प्रेम करने वाले के लिए लिखे गए थे. इन सारे खतों में से चुनिन्दा खतों का खूबसूरत संकलन बिल शापिरो ने “अदर पीपुल्स लव लैटर्स: 150 लैटर यू वर नेवर मेण्ट टू सी” शीर्षक से प्रस्तुत किया है. ये खत एक बात तो यह साफ करते हैं कि आज का प्रेम केवल वरदान नहीं है. इन खतों के माध्यम से हम रिश्तों के एक ऐसे बडे कैनवस से रू-ब-रू होते हैं जिसमें उल्लास से लेकर अवसाद तक सब कुछ है. इन पत्रों को पढते हुए यह भी एहसास होता है कि हमारा समाज देह के पीछे किस हद तक पागल है, और यह भी कि इसका उसे अफसोस भी है.
किताब में जो सामग्री है, उसे खत कहने में थोडी उदारता बरतनी पड रही है, क्योंकि जो कुछ यहां प्रस्तुत किया गया है वह सब पारम्परिक अर्थ में खत नहीं है. कहीं किसी पोस्टकार्ड पर कुछ घसीट दिया गया है, तो कहीं किसी पोस्ट-इट नोट पर ही कुछ लिख दिया गया है. कहीं किसी कॉकटेल नैपकिन पर कुछ लिख दिया गया है तो कहीं वह भी न मिलने पर माचिस की डिबिया का ही इस्तेमाल कर लिया गया है. ये पत्र क्योंकि अत्यंत साधारण लोगों के हैं, इनमें से कई की लिखावट ऐसी है कि उसे पढने में खासा प्रयत्न करना पडता है. वर्तनी और व्याकरण की भूलों की कोई कमी नहीं है. लेकिन यही सहजता इन पत्रों को उन पत्रों से अलग करके आत्मीय बनाती है जो पेशेवर लोगों की किताबों में मिलते हैं. इन पत्रों का दर्द और पश्चाताप इतना असल और हृदयस्पर्शी है कि आपको लगता है, जैसे आपने ही इन्हें जिया और लिखा है.

इन पत्रों की कालावधि खासी लम्बी है. पुलिस चीफ पीटर जे डोर्टी का 22 दिसम्बर 1911 को ‘डियरेस्ट लिज़ी’ को लिखा पत्र हमें पीछे ले जाता है तो ई मेल, टेक्स्ट मैसेज और यहां तक कि ब्लॉग्ज़ भी, हमें आज के समय में ले आते हैं. इन अलग-अलग काल खण्डों के पत्र यह भी साफ करते हैं कि ई मेल जैसी नई तकनीक लिखने की कला पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है. शब्दों के सधे और कलात्मक प्रयोग का स्थान अब दो-टूक और सपाट अभिव्यक्ति ले रही है. एक मेल का यह अंश देखें : ‘आज मेरे मन में फिर से दुष्ट विचार आ रहे हैं. क्या तुम उनके बारे में जानना चाहोगी?’ किताब प्रेम के बदलते स्वरूप का परिचय देने के साथ-साथ इस बात से भी आह्लादित करती है कि प्रेम के आरम्भिक दिनों का माधुर्य अगर बाद तक भी बना रहता है तो कितना प्रीतिकर हो जाता है. किताब में लम्बे समय से विवाहित कुछ युगलों के पत्र इस बात का एहसास कराते हैं. इसी तरह 1969 में वियतनाम से लिखा गया एक सैनिक का पत्र अपनी मार्मिकता में विलक्षण है.

शापिरो खतों को जस-का तस प्रस्तुत करके ही नहीं रुक गए हैं, उन्होंने इन पत्र लेखकों में से अनेक से बात करके यह भी जाना और बताया है कि बाद में उनके सम्बन्धों की परिणति क्या हुई. किताब का एक बडा आकर्षण इस बात में है कि इन सारे पत्रों को यहां उनके मूल रूप में, छाया के रूप में, प्रस्तुत किया गया है. इसलिए इन्हें पढने के साथ देखने का भी अनुभव जुड जाता है. हम सलवटों से भरे कागज़, मुडे-तुडे नैपकिंस, कीडे-मकोडों जैसी हस्त लिपि, फैली स्याही – इन सबसे बावस्ता होते हुए, यह जानते हुए भी कि दूसरों की निजी ज़िन्दगी में झांकना शालीनता के खिलाफ हैं, ऐसा करके स्वयं को समृद्ध करते हैं.

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Discussed book:
Other People’s Love Letters: 150 Letters You Were Never Meant to See
By Bill Shapiro (Editor)
Published by: Crown Publishing Group
192 Pages, Hardcover
2007.


राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 08 मई 2008 को प्रकाशित.








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Thursday, May 1, 2008

वैज्ञानिक प्रयोग भी खूबसूरत होते हैं

महाकवि कीट्स ने कहा था, सौन्दर्य सत्य है, और सत्य ही सौन्दर्य है. विश्व के अनेक बडे वैज्ञानिकों ने भी अपने कार्य द्वारा इस कथन को पुष्ट किया है. ब्रिटेन के सुविख्यात क्वांटम सिद्धांतकार डिराक ने शायद इसीलिए अपने कार्य को ‘खूबसूरत गणित की खोज’ कहा था. अनेकानेक वैज्ञानिक सौन्दर्यशास्त्री समीकरणों और तथ्यों के सुन्दर संयोजन पर मुग्ध होते रहे हैं. कुछ अन्यों ने शोधकर्म में ही सौदर्य के दर्शन किए हैं. ऐसे ही अन्यों की सूची में एक नाम और जुडा है. यह नाम है न्यूयॉर्क टाइम्स के विज्ञान लेखक जॉर्ज जॉनसन का. जॉर्ज की सद्य प्रकाशित किताब ‘द टेन मोस्ट ब्यूटीफुल एक्सपरीमेण्ट्स’ जैसे कीट्स के उपरोक्त कथन का ही विस्तार है. यहां जॉर्ज ने आधुनिक विज्ञान के चार शताब्दियों के इतिहास को खंगाल कर परिकल्पना की साहसिकता, सामग्री के संयोजन, व्याख्या की गहनता और परिणामों की महत्ता की खूबसूरती को चिह्नित किया है.

जॉर्ज ने इस किताब की प्रस्तावना में लिखा है कि उन्होंने जान बूझकर ऐसे प्रयोगों को चुना है जो आज के औद्योगिकृत, विशाल, अरबों-खरबों डॉलर के खर्च, ढेरों-ढेर उपकरणों और किसी कॉर्पोरेशन के आकार वाली वैज्ञानिकों की बडी टीम के द्वारा किए जाने वाले प्रयोगों के काल से पहले के हैं. जॉर्ज अपने पाठक को उस काल में ले जाते हैं जब दुनिया को रहस्यपूर्ण शक्तियों से परिपूर्ण माना जाता था और वैज्ञानिक भी प्रकाश और विद्युत से चमत्कृत हो जाता था. इसके बाद जॉनसन हमें वैज्ञानिकों की उस पुरातन दुनिया में ले जाते हैं जहां कोई अकेला शोधकर्ता घर में ही बनाए गए उपकरण, या उसके भी बगैर, ज्ञान के दरवाज़े पर दस्तक दिया करता था. कुछ उदाहरण देखिए: न्यूटन का इन्द्रधनुष, पावलोव के कुत्ते या फिर एण्टोइन-लॉरेण्ट द’ लेवोइज़ियर की यह खोज कि ऑक्सीजन एक तत्व है. इस तरह के सादगी से किए गए प्रयोगों का बखान कर जॉनसन हमें उस दुनिया से मिलाते हैं जिसमें सारी शोध बेहद व्यावहारिक हुआ करती थी. वे कहते हैं कि ‘विज्ञान की महानतम खोजें अज्ञात से टकराने वाले एकल मस्तिष्कों की देन है.’ जॉनसन की इस किताब का हर वैज्ञानिक किसी न किसी अज्ञात की खोज करता है.

अपनी इस किताब के लिए जॉनसन ने दस ऐसे वैज्ञानिकों और उनके प्रयोगों को चुना है जिन्होंने अपनी तार्किकता, स्पष्टता और साक्षातता के दम पर अपने समय की हठवादिता को धराशायी किया. इस किताब में सुविख्यात और कम ख्यात या अलक्षित रह गए, दोनों तरह के प्रयोग हैं. पहला अध्याय ढाल पर से गेंदों को लुढका कर गति का अध्ययन करने वाले गैलिलियो के उस प्रयोग के बारे में है जिसे आधुनिक विज्ञान का संस्थापक प्रयोग माना जाता है. एक अन्य अध्याय आइज़ैक न्यूटन द्वारा रंगों की प्रकृति का अध्ययन करने के लिए प्रिज़्म का प्रयोग करने के बारे में है. एक अध्याय है विद्युत की व्याख्या करने वाले लुइगी गालवानी के बारे में. एक अन्य अध्याय में एडवर्ड मॉर्ले के साथ मिलकर प्रकाश की सतत गति निर्धारित करने वाले एल्बर्ट मिचेलसन के काम का विवरण है. एक अध्याय है कुत्तों वाले सुविख्यात प्रयोग द्वारा शरीर विज्ञान और स्नायु विज्ञान को गति प्रदान करने वाले इवान पावलोव के बारे में.

किताब इस सवाल पर भी विचार करती है कि वह क्या चीज़ है जो किसी वैज्ञानिक प्रयोग को सुन्दर बनाती है. कहना अनावश्यक है, जॉनसन सादगी के पक्षधर हैं. उन्हें वह प्रयोग सुन्दर लगता है जो सीधा-सादा किंतु कलात्मक हो. लेकिन केवल इतना ही नहीं. यह और कि ऐसा प्रयोग जो साधारण व्याख्याओं के ज़रिए बद्धमूल धारणाओं को ध्वस्त भी करता हो. जैसे, गैलिलियो ने सारे पदार्थों की गति पर समान गणित लागू कर अरस्तू के इस विचार को ध्वस्त किया कि भारी पदार्थ अधिक तीव्र गति से गिरते हैं. इसी तरह विलियम हारवे ने प्रचलित धारणा को तोडते हुए यह स्थापित किया कि पूरे शरीर में एक ही तरह का रक्त संचारित होता है. न्यूटन ने यह सिद्ध किया कि रंग अपवर्तित प्रकाश किरणें मात्र हैं, जबकि उनसे पहले दकार्ते इन्हें ‘ईथर की घूमती गोलिआओं’ जैसी जटिल चीज़ घोषित कर चुके थे, और इसे आम स्वीकृति हासिल थी.

जॉनसन ने यह स्वीकार किया है कि इस किताब के लिए दस प्रयोगों का उनका चयन मनमाना है, लेकिन अपनी सफाई में उन्होंने यह भी कहा है कि इन सारे प्रयोगों को उन्होंने एक तो इनकी सादगी की वजह से और दूसरे इस वजह से कि ये विज्ञान के आधारभूत क्षेत्रों की पडताल करते हैं, चुना है. जॉनसन यह भी चाहते हैं कि उनके पाठक भी प्रयोगों की इस सूची में अपनी-अपनी पसन्द के प्रयोग जोडें.

जॉनसन का निष्कर्ष है कि वे वैज्ञानिक जिन्होंने दुनिया की जटिलताओं को समझ कर उनकी साफ-सुथरी व्याख्याएं कीं वे प्राचीन यूनान और रोम के उन वैज्ञानिकों के समतुल्य हैं जिन्होंने पत्थरों के ढेरों का अध्ययन कर भवन निर्माण के आधारभूत सिद्धांत बनाए. जॉनसन बहुत कुशलता से विज्ञान की खूबसूरती को रेखांकित करते हैं.

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Discussed book:
The Ten Most Beautiful Experiments
By George Johnson
Knopf Publishing Group
208 pp. Hardcover
US $ 22.95


राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 1 मई 2008 को प्रकाशित.