Thursday, April 17, 2008

एक सफल स्टार की करुण कथा

माय फेयर लेडी, साउण्ड ऑफ म्यूज़िक और मेरी पॉपिंस की स्टार जूली एण्ड्र्यूज़ को सब जानते हैं, लेकिन जिन ऊबड-खाबड राहों पर चलकर वे इन शिखरों तक पहुंची वे तो अब तक अजानी ही थीं. जूली एण्ड्र्यूज़ ने बच्चों के लिए कई किताबें भी लिखी हैं. कुछ अकेले और कुछ अपनी बेटी के साथ मिलकर. उनके लिखे को खूब सराहा भी गया है. वे नियमितता से डायरी भी लिखती रही हैं. उन्हीं के आधार पर रचित होम: ए मेमोयर ऑफ माय अर्ली ईयर्स शीर्षक अपनी सद्य प्रकाशित आत्मकथा में उन्होंने 1935 में अपने जन्म से प्रारम्भ कर 60 के दशक के मध्य में फिल्मी दुनिया में धमाकेदार दस्तक के बाद वाल्ट डिज़्नी के साथ जुडने तक की जीवन यात्रा को प्रस्तुत किया है. वाल्ट डिज़्नी ने ही उन्हें 1963 में मेरी पॉपिंस में काम करने का अवसर दिया था.
जूली की इस आत्मकथा का प्रारम्भ 1935 के इंग्लैण्ड से होता है जहां सरे नामक छोटे किंतु रमणीय गांव में कला क्षेत्र में स्थान बनाने की अभिलाषी मां बारबरा और सामान्य से लोहार-सुथार पिता टेड वेल्स के घर जूली का जन्म होता है. जूली का खूबसूरत बचपन आगे बढ पाता उससे पहले ही उसके मां-बाप में तलाक हो जाता है. कारण यह कि मां अपनी संगीत यात्राओं के साथी टेड एंड्र्यूज़ से प्यार करने लगती है. और अंतत: उससे विवाह कर लेती है. उनका परिवार सरे से लंदन आ जाता है और युद्धोत्तर लन्दन में हवाई हमलों की दहशत के बीच बडी होती है जूली. सौतेले पिता के साथ मां को भी म्यूजिकल थिएटर में अपनी कला प्रदर्शित करने का मौका मिलता है. नए पिता जूली को भी संगीत सीखने को प्रेरित करते हैं और उसी दौरान यह पता चलता है कि जूली की आवाज़ विलक्षण है. 12 साल की छोटी वय में तो उसे रॉयल कमाण्ड पर्फोर्मेंस में युवतम एकल गायिका होने का सम्मान मिल जाता है. जूली लिखती हैं कि जब वे गाना शुरू करतीं तो लगता कि जैसे कार्यक्रम वहीं थम जाता और लोग खडे होकर तालियां बजाने लगते. तालियां थमने का नाम ही नहीं लेतीं. इसी काल में जब वह करीब 15 साल की है उसकी मां यह रहस्योद्घाटन करती है कि उसके पिता उसके जैविक पिता नहीं थे. स्वाभाविक है कि उसे गहरा सदमा पहुंचता है. यही वह समय है जब जूली को कुछ समय लन्दन के स्लम्स में भी रहना पडा क्योंकि उसके मां बाप की आय बहुत सीमित थी. लेकिन जैसे-तैसे खुद को सम्भाल वह अपनी कला-साधना जारी रखती है और किशोरावस्था की देहली पर पहुंचते-पहुंचते तो वह अपनी स्टेज पर्फॉर्मेंस से पूरे परिवार का भरण पोषण तक करने लग जाती है. इस किशोरावस्था में जूली को कुछ ग्लैमरपूर्ण भूमिकाएं अदा करने का भी अवसर मिलता है, लेकिन विडम्बना यह कि जब वह ये भूमिकाएं अदा करती, उसके मोजे प्राय: फटे होते थे.

जब जूली 18 साल की होती है, उसे लन्दन पैलेडियम में एक पैंटोमाइम प्रस्तुत करने का मौका मिलता है और यह मौका उसके लिए ब्रॉडवे की एक महत्वपूर्ण प्रस्तुति द बॉयफ्रैण्ड में एक महत्वपूर्ण भूमिका दिलाने का साधन बन जाता है. इसी से शुरू होता है उसका म्यूज़िकल कॉमेडी वाला दौर. इसके बाद तो रैक्स हैरिसन के साथ माय फेयर लेडी में काम करना जैसे दूर नहीं रह जाता है. लेकिन जूली माय फेयर लेडी की शूटिंग के दौरान रेक्स हैरिसन के लगभग अमानवीय व्यवहार को भी याद करना नहीं भूलती. वह रिचर्ड बर्टन के उस प्रणय निवेदन का भी ज़िक्र करती है, जिसे उसने करीब-करीब स्वीकार कर ही लिया था, बावज़ूद इस बात के कि तब उसने अपने बचपन के दोस्त टोनी वाल्टन से शादी की ही थी. किताब के अनेक मार्मिक प्रसंगों में से एक है प्रख्यात छायाकर सेसिल बीटन का प्रसंग. सेसिल घण्टों जूली का फोटो सेशन करता है और अंत में यह कहते हुए अपनी ही कला पर मुग्ध होता है कि जूली कितनी अनफोटोजीनिक है!
जूली का यह आत्मकथात्मक वृत्तांत खत्म होता है ऑस्कर विजेता फिल्म मेरी पॉपिंस में उसके डेब्यू के साथ. लेकिन इससे पहले हमारे सामने एक लगभग साधारण युवती की ऐसी दारुण कथा उभरती है जिसके मनमौजी कण्ठ को असमय ही प्रौढ हो जाना पडा था (क्या आपको लता याद आती हैं?) और जिसे बेफिक्रे बचपन को भुलाकर एक संघर्ष भरी और जटिल पारिवारिक ज़िन्दगी का वरण करना पडा था (याद कीजिए रेखा को!) जूली से उसके एक विश्लेषक ने, जिसे किताब में कई बार उद्धृत किया गया है, एक बार पूछा था कि अपने मां बाप में से किससे उसे अधिक नफरत है? जूली ने बहुत कुशलता से इस सवाल को टाल दिया था. यह वृत्तांत पढते हुए लगता है कि वह किसका नाम लेती? मां बाप का तलाक, बचपन में ही स्टेज पर धकेल दिया जाना, पिता से जुदाई, मां का दुर्व्यवहार और उसका शराबी बन जाना, सौतेले पिता द्वारा की गई पिटाइयां और यदा-कदा उनके यौनिक दुर्व्यवहार - ये सब ऐसे आघात हैं जिनकी टीस उसे साठ बरस बाद भी महसूस होती है.
यह वर्णन पढते समय ही हम उस भ्रम जाल से भी निकलते हैं जो जूली की बाद की वैभवपूर्ण ज़िन्दगी को देख हमारे मन में निर्मित होता है. इस वृत्तांत को पढकर एहसास होता है कि चन्द खुशकिस्मतों को छोड दें तो दुनिया में शायद ही ऐसा कोई मिले जिसे गरीबी, मौत, भूख, युद्ध, परिवार आदि के झंझटों में से किसी न किसी से न जूझना पडा हो.
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Discussed book:
Home: A Memoir of My Early Years
By Julie Andrews
Published by: Hyperion
Hardcover, 320 pages
US $ 26.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 17 अप्रेल 2008 को प्रकाशित.







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Thursday, April 10, 2008

प्रयास पूर्व और पश्चिम के संघर्ष को समझने का

पीपुल्स एण्ड एम्पायर्स और यूरोपियन एन्काउण्टर्स विद द न्यू वर्ल्ड जैसी बहु प्रशंसित-चर्चित किताबों के लेखक, ब्रिटिश इतिहासकार एंथनी पग्डेन की ताज़ा किताब वर्ल्ड्स एट वार: द 2500 ईयर स्ट्रगल बिटवीन ईस्ट एण्ड वेस्ट लगभग साढे छह सौ पन्नों में सभ्यताओं के संघर्ष के ढाई हज़ार वर्षों के इतिहास की पडताल का विचारोत्तेजक प्रयास है.

किताब का प्रारम्भ उस प्राचीन विश्व के वर्णन से होता है जहां यूनान फारसी साम्राज्य के विरुद्ध अपने पहले संघर्ष को आज़ादी और गुलामी के, प्रजातंत्र और राजशाही के तथा वैयक्तिकता और ईश्वर के रूप में मनुष्य की पूजा के संघर्ष के रूप में देखता है. इसके बाद पग्डेन की कथा उस रोम में प्रवेश करती है जहां नागरिकता और नियामक कानून की आधुनिक अवधारणाओं ने जन्म लिया. बकौल पग्डेन, रोम के नेता अपने विजितों को स्वाधीन मानते थे, जबकि पूर्व में विजित विजेता की सम्पत्ति माने जाते थे. पग्डेन इसाई धर्म के जन्म और पश्चिम द्वारा उसे शासन का औज़ार बनाने का भी नाटकीय वर्णन करते हैं. दरअसल यहीं से धर्म निरपेक्ष और शेष ताकतों के बीच उस संघर्ष की शुरुआत होती है जो अब भी चल रहा है. इसके बाद आता है इस्लाम. और फिर पूर्व और पश्चिम के धार्मिक विश्वासों में टकराहट बढती जाती है.
और फिर होती है चर्चा प्रथम विश्व युद्ध की. पग्डेन कहते हैं कि इसके अनेक छद्म उद्देश्यों में से एक था ताकत के बल पर मुस्लिम दुनिया को नए रूपाकार में ढालना. और आज तो पश्चिम, पूर्व पर अपनी तरह का प्रजातंत्र और अपनी तरह की धर्म निरपेक्षता थोपने के लिए प्रयत्नरत है. एक चेतावनी के साथ लेखक अपनी बात समेटता है: आतंकवाद और युद्ध तब तक खत्म नहीं होंगे जब तक कि धार्मिकता और धर्मनिरपेक्षता की अवधारणाएं साफ नहीं हो जातीं.
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1798 में जब नेपोलियन बोनापार्ट ने अपनी सेनाओं के साथ मिश्र में प्रवेश किया तो उसके मन में केवल सैन्य विजय का ही भाव नहीं था. तीस हज़ार सैनिकों के अलावा उसके साथ एक चल विश्वविद्यालय भी था जिसमें अर्थशास्त्री, कवि, वास्तुकार, खगोलशास्त्री यहां तक कि पेरिस ऑपेरा के गायक तक थे. इनके अलावा था हज़ारों किताबों का एक पुस्तकालय जिसमें मांटेस्क्यू, रूसो, मांतेन, वाल्टेयर और पश्चिमी धर्म-विधान के सारे क्लैसिक थे.
इसके लगभग दो शताब्दी बाद, 1971 में ईरान के शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी ने एक प्राचीन फारसी महल के प्रांगण में विदेशी गणमान्य लोगों के लिए दो हज़ार मिलियन डॉलर खर्च कर एक शानदार जश्न आयोजित किया. मक़सद था शाह को महान डेरियस और ज़ेरेक्स का वंशज सिद्ध करना.
इन दोनों प्रसंग के ज़रिए पग्डेन यह बताना चाहते हैं कि नेपोलियन और शाह, जो क्रमश: पश्चिम और पूर्व के प्रतिनिधि हैं, खुद को अपने-अपनी स्वर्णिम सभ्यताओं का वारिस मानते हैं. लेकिन, पग्डेन यह बताना भी नहीं भूलते कि दोनों में ही कुछ विलक्षणताएं भी हैं. स्विटज़रलैण्ड में शिक्षित शाह आधुनिकीकरण के धर्म निरपेक्ष समर्थक थे. जबकि नेपोलियन ने महज़ स्थानीय मौलवियों को खुश करने के लिए मिश्रियों के समक्ष यह घोषित किया कि वह पैगम्बर मुहम्मद साहब और पवित्र कुरान का आराधक है.
किंवदंतियों, प्रसंगों और प्रभावशाली वृत्तांत के माध्यम से महज़ बारह अध्यायों में ढाई हज़ार वर्ष का इतिहास समेटते हुए पग्डेन नीरस इतिहास को जीवंत बनाने में कोई कसर नहीं छोडते. लेकिन इस रोचकता के बीच भी सजग पाठक यह लक्षित किए बगैर नहीं रहता कि जिसे हेरोडोटस ने स्थायी शत्रुता कहा था, उसे पश्चिम और पूर्व के बीच स्थापित करने के प्रयास में पग्डेन चीन, जापान, सुदूर पूर्व और भारत की करीब-करीब अनदेखी कर जाते हैं. दूसरे शब्दों में उनका पूर्व इस्लामी समाज तक सिमट कर रह गया है.
एक और बात यह महसूस होती है कि यह किताब पूर्व और पश्चिम बीच कम, धर्म और एनलाइटनमेण्ट के बीच टकराव की कथा अधिक है, और उसमें भी लेखक के निशाने पर इस्लाम का वह अंश है जो चर्च और राज्य के बीच दूरी की पश्चिमी सोच से असहमति रखता है. पग्डेन ओसामा बिन लादेन को यह कहते हुए उद्धृत करते हैं कि पश्चिम का सबसे बडा अपराध यही है कि वह धर्म को अपनी राजनीति से अलग रखता है. पग्डेन मानते हैं कि अधिकांश मुस्लिम धर्मशास्त्री और न्यायविद इस बात से सहमत हैं. लगता तो यह भी है कि पग्डेन की इस्लाम की समझ उन मुल्ला-मौलवियों के कहे तक महदूद है जो हिंसा का समर्थन करते हैं.
एक और महत्वपूर्ण बात यह भी कि किताब पूर्व को ‘सभ्य और आधुनिक’ बनाने के पश्चिम के सुदीर्घ और असफल किंतु हास्यास्पद प्रयासों को सामने ले आती है. निश्चय ही यह लेखक के अनचाहे ही हो गया है.
अपनी इन सीमाओं के बावज़ूद किताब खासी रोचक और विचारोत्तेजक है. लेखक से इस बात पर तो सहमत होना ही पडता है कि पूर्व और पश्चिम के बीच बडा अंतर तो मूल्यों और संस्कृति का है, न कि अधिनायकवाद बनाम प्रजातंत्र का, या धार्मिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का, या मुस्लिम बनाम इसाई का.
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Discussed book:
Worlds at War: The 2,500-Year Struggle between East and West
By: Anthony Pagden
Published by: Random House
Hardcover, 656 pages
US $ 35.00

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 10 अप्रेल, 2008 को प्रकाशित.







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Tuesday, April 8, 2008

स्वयंप्रकाश : साढे तीन दशक का दोस्ताना

तारीख और साल ठीक से याद नहीं, लेकिन मंज़र ज्यों का त्यों मन के पर्दे पर अंकित है. मैं चित्तौड कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक था. एक दिन (अनुमान करता हूं कि '70 के आसपास की बात है) किसी ने घर की कॉल बैल बजाई. देखा, धर्मेन्द्र जैसा एक युवक है. सदाशिव श्रोत्रिय का घर तलाश रहा था. मैं भी कॉलेज में पढाता हूं इस कारण मेरे घर की घण्टी बजा दी. सदाशिव जी उसी कॉलेज में अंग्रेज़ी पढाते थे, और पास ही रहते थे. दिल के तो और भी ज़्यादा पास. मकान का पता बताने के सिलसिले में जाना कि पता पूछने वाला युवक स्वयंप्रकाश हैं. स्वयंप्रकाश के नाम से मैं सदाशिव श्रोत्रिय के कारण ही अधिक परिचित था तब तक, हालांकि स्वयंप्रकाश एक लेखक के रूप में खासे ख्यात हो चुके थे. उसी शाम सदाशिव जी ने हमें भी अपने घर बुला लिया और तब पहली बार ठीक से स्वयंप्रकाश से मुलाक़ात हुई. उस शाम स्वयंप्रकाश ने सदाशिव जी के घर के बाहर वाले चौक में बहुत सारे गीत-गज़ल सुनाए. रात भी है कुछ भीगी-भीगी, चांद भी है कुछ मद्धम मद्धम आज भी जब सुनता हूं तो मुझे लता मंगेशकर की बजाय स्वयंप्रकाश की आवाज़ में ही सुनाई पडता है. उस शाम और रात स्वयंप्रकाश ने बहुत सारी चीज़ें सुनाई. शायद मेहदी हसन की गाई कुछ गज़लें, किशोर कुमार के कुछ गीत, गोपाल सिंह नेपाली की एक कविता...
1974 में मेरा तबादला चित्तौड से सिरोही हो गया. सदाशिव श्रोत्रिय का बहुत प्यारा साथ छूट गया. बल्कि यों कहूं कि चित्तौड छोडने से बडा दर्द सदाशिव जी के सान्निध्य से वंचित होने का था, तो ज़रा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी. लेकिन नौकरी तो नौकरी है. अनमने मन से सिरोही आना पडा. जैसे तैसे व्यवस्थित हुए. अच्छा भी लगने लगा. इतना कि नौकरी और उम्र के कोई 25 साल उस कस्बे में गुज़र गए. लेकिन वह तो अलग किस्सा है. पता चला कि स्वयंप्रकाश पास ही के कस्बे सुमेरपुर में, जो सिरोही से महज़ 40 किलोमीटर की दूरी पर है, टेलीफोन विभाग में आर एस ए पद पर कार्यरत है. उन दिनों टेलीफोन आज की तरह आम नहीं खास था. टेलीफोन किसी आपात स्थिति में ही किया जाता था. खैर. स्वयंप्रकाश से सम्पर्क हुआ. कभी हम दोनों, बल्कि हमारे दोनों बच्चों को भी तो याद करें, चारों सुमेरपुर चले जाते, और कभी स्वयंप्रकाश सिरोही आ जाते. मेरा किराये का घर ऐसी जगह था कि मुम्बई से सुमेरपुर की तरफ जाने वाले वाहन ऐन मेरे घर के सामने से ही गुज़रते. तो अक्सर ऐसा होता कि स्वयंप्रकाश सुमेरपुर से किसी ट्रक में बैठ कर मेरे घर के सामने उतरते, या मैं, घर के बाहर ही खडा होकर किसी ट्रक को हाथ देकर रुकवाता, और सुमेरपुर जा पहुंचता. हम लोगों ने स्कूटर खरीद लिया तो जब भी मन करता स्कूटर उठाते और सुमेरपुर जा पहुंचते. दोस्ती धीरे-धीरे परवान चढने लगी. चालीस किलोमीटर की दूरी जैसे कोई दूरी थी ही नहीं. जवानी भी तो थी. हमारी भी, स्वयंप्रकाश की भी.
उन दिनों न जाने कितनी बार स्वयंप्रकाश के साथ हमने अपने शांति नगर के उस छोटे-से घर के और भी छोटे कमरे में गीत-संगीत की महफिलें सजाईं. सिरोही के दोस्त जब भी इसरार करते, हम स्वयंप्रकाश को आवाज़ देते, और वे फौरन से पेश्तर चले आते. अपने उस छोटे-से कमरे में हमने स्वयंप्रकाश से उनका बहुत प्यारा गीत आज एक लडकी को नींद नहीं आएगी न जाने कितनी बार सुना है. उनकी अनेक क्रांतिकारी किस्म की कविताएं और भी बहुत सारी कविताएं, और कहानियां भी. नीलकांत का सफर को वे जिस बेहतरीन अन्दाज़ में सुनाते हैं, उसका तो कहना ही क्या. और मेहदी हसन, गुलाम अली, जगजीत की बेशुमार गज़लें. तब तक मैं भी साहित्य से अधिक गहराई से जुडने लगा था. और आज यह निस्संकोच स्वीकार करना चाहूंगा कि इस जुडाव में स्वयंप्रकाश की बहुत बडी भूमिका थी. उन्होंने मेरे साहित्य के संस्कारों को और संवारा. साहित्य में विचारधारा के महत्व से परिचित कराया. और आज मेरा जुडाव प्रगतिशील विचारधारा से है तो इसका सारा श्रेय स्वयंप्रकाश के उन दिनों के साथ को है.
उन दिनों मेरे कॉलेज का हिन्दी विभाग भी बहुत सक्रिय था. हमने अनेक बार स्वयंप्रकाश को अपने विभाग के और कॉलेज के कर्यक्रमों में बुलाया. अक्सर बिना किराया तक दिये. पारिश्रमिक की तो बात ही क्या कीजिये. आज यह बात अजीब भी लगती है और मुझे लगता है कि यह मेरी मूर्खता भी थी. लेकिन थी, और की. स्वयंप्रकाश ने ऐसी मूर्खता करने की भरपूर छूट मुझे दी, और मैंने ली. उनसे भाषण करवाये, कविताएं सुनीं, पुरस्कार वितरित कराए. क्या-क्या नहीं किया. उन दिनों (अब स्वर्गीय) एम. के. भार्गव मेरे प्रिंसिपल थे. वे भी स्वयंप्रकाश से बहुत आत्मीयता रखते. अगर कुछ दिन बीत जाते तो खुद ही पूछ लेते कि क्या बात है स्वयंप्रकाश नहीं आए, और मैं संकोच से बताता कि आए तो थे, तो नाराज़ होते कि मिलवाया क्यों नहीं. अगर मेरे कॉलेज में कुछ भी खास होता तो स्वयंप्रकाश दौडे चले आते. मुझे याद आता है कि एक बार मैंने अपने कॉलेज में एम एस सथ्यु की अद्भुत फिल्म ‘गरम हवा’ का प्रदर्शन किया था. उससे अगले ही दिन स्वयंप्रकाश हमारे यहां आए. मैंने उनसे इस फिल्म का ज़िक्र किया तो वे भी इसे देखने को व्याकुल हो उठे. तब मैंने अपने कॉलेज के स्टाफ रूम में, रविवार के दिन खुद प्रोजेक्टर चला कर उन्हें वह फिल्म दिखाई. मज़े की बात यह कि हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखक स्वयंप्रकाश खुद तब तक हिन्दी के एम ए नहीं थे. लगभग उन्हीं दिनों उन्होंने यह इरादा किया कि वे हिन्दी में एम ए करेंगे. मेरे ही सिरोही कॉलेज से उन्होंने प्राइवेट विद्यार्थी के रूप में हिन्दी में एम ए किया. उन दिनों हमारे कॉलेज की लाइब्रेरी, खास तौर पर उसका हिन्दी खण्ड ऐसा था कि शायद पूरे राजस्थान में अन्यत्र कहीं नहीं था. स्वयंप्रकाश ने उसका भरपूर उपयोग किया. सिरोही एक छोटा-सा कस्बा था और अब भी है. वहां कुछ भी आपका निजी नहीं होता. स्वयंप्रकाश मेरे दोस्त हैं, यह सबको पता था. इस हद तक कि मेरी मां का निधन हुआ तो कॉलेज से, बिना मेरे कहे, मेरे ऑफिस सुपरिनटेण्डेण्ट मोहम्मद शब्बीर खान ने स्वयंप्रकाश को फोन कर यह सूचना दे दी, और स्वयंप्रकाश भी सुमेरपुर से सीधे सिरोही के श्मसान पहुंच गये. मुझे आज भी याद है, स्वयंप्रकाश के गले लगते ही मेरी रुलाई फूट पडी थी, जो तब तक अवरुद्ध ही थी.
दोस्ती के उन शानदार दिनों में स्वयंप्रकाश के अनेक मित्रों से भी हमारी दोस्ती हुई. शिवगंज (सुमेरपुर का जुडवां कस्बा) के सुपरिचित डॉक्टर एस पी पुरोहित से दोस्ती हुई, जो अब तक बरकरार है. सुमेरपुर में अंग्रेज़ी की अध्यापिका मंजु पाल से जो दोस्ती और पारिवारिकता उस वक़्त हुई वह समय के साथ और मज़बूत हुई है और मंजु आज भी हमारे परिवार की सदस्य बनी हुई है. दोस्ती के उन्हीं दिनों में स्वयंप्रकाश ने शादी भी की. पत्नी और मैं उनकी शादी में शरीक हुए. उनकी बारात में उनकी बहनों ने जो शानदार डांस किए उनकी स्मृति और साथ ही यह स्मृति भी कि जाने-माने कवि नन्द भारद्वाज को भी मैंने उसी अवसर पर नाचते देखा था, अब भी आह्लादित करती है. इसके बाद तो जितनी आत्मीयता स्वयंप्रकाश से थी उतनी ही उनकी पत्नी रश्मि से भी हो गई. सुमेरपुर जाकर उनका आतिथ्य ग्रहण करना हमारे लिए सदैव आकर्षण का विषय रहता, और हम बार-बार जाते. वे लोग भी इसी तरह हमारे यहां आते और हमारी ज़िन्दगी को खुशनुमा बनाते. उसी दौर में स्वयंप्रकाश को लगा कि उसने एम ए तो कर ही लिया है, अब हिन्दी में ही पी-एच डी भी कर ली जाए. मैंने अपने गुरु डॉ कृष्ण कुमार शर्मा जी से बात की तो उन्होंने सहर्ष अपनी सहमति प्रदान कर दी, और इस तरह मित्र स्वयंप्रकाश मेरे गुरु-भाई भी हो गए. हंसते-खेलते उन्होंने अपने नाम के आगे डॉक्टर लगाने का अधिकार भी अर्जित कर लिया. हंसते-खेलते इसलिए कि जो विषय उन्होंने चुना था ‘राजस्थान की हिन्दी कहानी’ उस पर उनका ज्ञान, अध्ययन और समझ उन्हें डी लिट्ट भी दिला सकती थी. डॉ कृष्ण कुमार शर्मा ने स्वयंप्रकाश को एक लेखक वाला मान देकर पी-एच डी कराई – यह बात मैं कभी नहीं भूलूंगा. वैसे, इससे उनकी विशाल हृदयता के साथ-साथ उनकी गुण ग्राहकता भी प्रमाणित होती है.
हिन्दी में एम. ए. और फिर पी-एच डी कर लेने के बाद स्वयंप्रकाश को लगने लगा कि उन्हें टेलीफोन विभाग की छोटी-सी दुनिया से बाहर निकलना चाहिए. और जल्दी ही वे निकल भी गए. हिन्दुस्तान ज़िंक में राजभाषा अधिकारी बन कर वे सुमेरपुर से और हमसे दूर चले गए. उदयपुर, जावर माइंस, सर्गीपल्ली(उडीसा) चन्देरिया-चित्तौडगढ वगैरह जगह-जगह घूमते रहे. जब वे सर्गीपल्ली थे उन्हीं दिनों श्रीमती गांधी की हत्या हुई थी. स्वयंप्रकाश ने उन उथल पुथल भरे और अमानवीय दिनों में अपनी एक रेल यात्रा का वर्णन करते हुए मुझे एक लम्बा पत्र लिखा था, बाद में इसी अनुभव पर उन्होंने अपनी एक अमर कहानी लिखी – क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा है. इन अनेक जगहों पर जाने से उनका अनुभव संसार और अधिक समृद्ध हुआ. सर्गीपल्ली को छोडकर सभी जगह हम उनके घर गए. जावर माइंस में उनके घर जाकर एक खास अनुभव हुआ, जो बाद में मेरे भी खासा काम आया.
जावर माइंस में हम उनके ड्राइंग रूम में बैठे थे. उनके एक सहकर्मी दम्पती आए. भद्र महिला उनकी बुक रैक देखने लगी. तभी उनकी नज़र एक किताब पर पडी जिस पर लेखक के रूप में अंकित था – स्वयंप्रकाश. भद्र महिला ने बहुत आश्चर्य से पूछा कि भाई साहब, यह किताब आपकी लिखी हुई है? आप लिखते भी हैं, हमें तो पता ही नहीं था. और स्वयंप्रकाश ने इस बात को लगभग टाल-सा दिया. उन लोगों के जाने के बाद स्वयंप्रकाश ने हमें बताया कि वे अपनी नौकरी और अपने लेखन को अलग-अलग रखते हैं. यही कारण है कि उनके ज़्यादातर सहकर्मियों को यह पता नहीं है कि वे एक लेखक भी हैं. यहीं यह उल्लेख कर देना ज़रूरी है कि उस समय तक स्वयंप्रकाश राष्ट्रीय पहचान अर्जित कर चुके थे. स्वयंप्रकाश की यह बात मेरे भीतर भी कहीं जम गई, और काम तब आई जब मुझे जयपुर में आई ए एस अधिकारियों के साथ काम करने का मौका मिला. मैं अपने रचनाकर्म को घर रख कर नौकरी करने जाता रहा और ठीक-ठाक तरह से नौकरी कर सेवा निवृत्त हुआ. मुझे भी लगा कि नौकरी और लेखकी को अलग-अलग रखना ही ठीक है. जब आप लेखक हों, लेखकों के साथ हों, तो यह भूल जाएं कि आपका पद क्या है, और जब नौकरी कर रहे हों तो यह याद न रखें कि लेखक के रूप में आपका क़द क्या है. इसी में जीवन का सुख निहित है.
स्वयंप्रकाश जहां भी रहे मुझे लम्बे-लम्बे खत लिखते रहे. वे खत सूचनाप्रद होते, मनोरंजक होते और होते नए-नए विचारों से भरपूर. पत्रों में एक तरह से वे मेरी क्लास लेते. नई किताबों के बारे में बताते, नई देखी नई-पुरानी फिल्मों की चर्चा करते, खेलों पर टिप्पणी करते, वेज-नॉन वेज लतीफे शेयर करते, दीन-दुनिया की बातें करते, ज़िन्दगी की छोटी-छोटी बातों में मिलने वाले रस का और भी अधिक रसपूर्ण बयान करते, अपने नए अनुभवों को साझा करते और मुझे साहित्यिक रूप से सक्रिय होने के लिए प्रेरित करते, मेरे निकम्मे पन के लिए प्रताडित करते. मैंने उनसे इस बात के लिए तो अनेक बार डांट खाई है कि मैं बहुत संक्षिप्त पत्र लिखता हूं. नौकरी के अंतिम काल में हुए अनेक तबादलों में मेरी जो सबसे मूल्यवान क्षति हुई है वह स्वयंप्रकाश के उन पत्रों की ही है. बहुत सम्हालकर रखा था उन पत्रों को. लेकिन आखिर वे खो ही गए. अगर वे पत्र मेरे पास होते, तो मुझे यह लेख लिखने की बजाय उन पत्रों में से कुछ को उद्धृत करना ज़्यादा प्रभावशाली लगता. क़्या नहीं था उन पत्रों में? उम्मीद करता हूं कि अनेक मित्रों ने स्वयंप्रकाश के पत्रों को सम्हालकर रखा होगा.
स्वयंप्रकाश मेरे लिए तो फ्रेण्ड फिलॉसोफर और गाइड हैं ही, पत्नी विमला के लिए बहुत प्यारे देवर या छोटे भाई हैं, जिनसे भरपूर मज़ाक की जा सकती है और जिन्हें चाहे जो खिलाकर भरपूर सराहना पाई जा सकती है. हम दोनों से ज़्यादा हमारे बच्चे उन्हें चाहते हैं. विश्वास और चारु दोनों स्वयंप्रकाश के भक्त हैं. बेटा विश्वास प्राय: अपनी बातचीत में स्वयंप्रकाश के फिकरों और मुहावरों को इस्तेमाल कर लिया करता है. चारु तो उनके लिखे एक-एक शब्द को पी जाना चाहती है. स्वयंप्रकाश ने अपनी किताब दूसरा पहलू की प्रति मुझे नहीं, अपनी इस प्यारी बेटी चारु को ही देना पसन्द किया था. अब चारु अमरीका में रहती हुई भी अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच यह पूछ लेती है कि अंकल जी ने इधर नया क्या लिखा है? स्वयंप्रकाश को भी इन बच्चों और अब तो इनके बच्चों से भी, इतना ही लगाव है. बहुत सारी असुविधाएं झेलकर भी वह चारु की शादी में शरीक होने जालोर जैसी अटपटी जगह आया, और न केवल आया, अपनी उपस्थिति से पूरे माहौल को जीवंत बनाये रखा. उस मौके पर स्वयंप्रकाश ने जो एक अभूतपूर्व डांस किया उसकी वीडियो रिकॉर्डिंग मेरे एक मित्र ने कर ली थी. अगर उस क्लिप को श्यामक डावर देख ले तो वह खुद स्वयंप्रकाश का गण्डा बंद शागिर्द बन जाए. ऐसा मस्त डांस देखने का सौभाग्य जीवन में बहुत कम लोगों को मिला होगा. मेरी बेटी भाग्यशाली है कि उसके विवाह के अवसर पर हिन्दी के इतने बडे रचनाकार ने यह कमाल (और धमाल) किया.
वैसे मसखरी स्वयंप्रकाश के व्यक्तित्व का एक अभिन्न पक्ष है. उसके लेखन में तो यह खूब देखा ही जा सकता है. बल्कि अनेक आलोचकों ने उसकी भाषा के खिलंदडे पन को खास तौर पर पसन्द किया है. पाठकों को तो यह अच्छा लगता ही है. उसके पत्रों में भी यह मसखरी खूब होती है. और रोज़मर्रा के व्यवहार में भी. मुझे याद आता है कि एक बार वह, शायद उदयपुर से, हमारे घर सिरोही आया. रात के दो-तीन बजे होंगे. हम लोग अपनी फाटक पर ताला लगा दिया करते थे. बाउण्ड्री वाल कूद कर वह अन्दर आया, दरवाज़ा खटखटाया. कई बार खटखटाया. और जब आधे सोये--आधे जागे मैंने या पत्नी ने पूछा कौन? तो बडी गम्भीरता से बोला- ‘मैं चोर’. हम लोग एक बार तो कांप से गये. डरते-डरते सावधानी से दरवाज़ा खोला तो ज़ोर का ठहाका, और फिर चाय की चुस्कियां..
चाय और सिगरेट स्वयंप्रकाश को बे-इन्तिहा पसन्द है. चाय वह कभी भी, कहीं भी, कितनी ही बार पी सकता है. और सिगरेट, वह भी पनामा – वह तो उसे चाय से अधिक प्रिय है. लेकिन चाय को लेकर उसके मन में कोई नखरे का भाव मैंने कभी नहीं पाया. बल्कि, पिछले दिनों जब उससे मुलाक़ात हुई और मैं एक ठीक-ठाक से रेस्तरां में चाय पिलाने ले गया तो वह बलात मुझे वहां से बाहर निकाल लाया और फिर सडक किनारे एक ठेले वाले की मुड्डियों पर बैठकर चाय पीते हुए ही हमने डेढ दो घण्टे अपने सुख-दुख साझा किए.

इधर स्वयंप्रकाश के जीवन का एक नया दौर और मोड उसे हमसे थोडा और दूर ले गया है. हिन्दुस्तान ज़िंक से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर अंतत: उसने फिर अपनी जडों की तरफ लौटने का फैसला कर लिया. राजस्थान छोडकर फिर बैतलवा भोपाल जा बैठा. कुछ नई तरह से ज़िन्दगी शुरू करने की उसकी व्यस्तताएं और कुछ मेरी अपनी व्यस्तताएं. चिट्ठी पत्री का सिलसिला लगभग टूट-सा गया है. मिलना-जुलना भी कम हो गया है. अंकिता की शादी में उसने बुलाया और हम लोग भी बहुत दिनों से योजना बना रहे थे कि इस मौके पर तो भोपाल जाएंगे ही, लेकिन नहीं जा पाए. स्वयंप्रकाश और रश्मि ने इसका बुरा क्यों नहीं माना होगा? मानना ही चाहिए. अब तो कभी-कभार औरों से उनके समाचार मिलते हैं. अब उम्र के जिस मोड और मुकाम पर हम हैं, वहां उन बीते खूबसूरत दिनों को याद करते हुए स्वयंप्रकाश के ही एक कहानी संग्रह का शीर्षक थोडे से परिवर्तन के साथ दुहराने का मन करता है : आएंगे अच्छे दिन भी?

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Thursday, April 3, 2008

एक डिज़ाइनर ने जो सीखा अपनी ज़िन्दगी में

ऑस्ट्रियन डिज़ाइनर और ग्राफिक आर्टिस्ट श्टेफन सेग्माइस्टर की ख्याति का थोडा-सा अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें डिज़ाइन की दुनिया का गॉड (खुदा) कहा जाता है. उनकी ख्याति उनकी रचनाशीलता के साथ-साथ दानशीलता और विनम्रता के लिए भी उतनी ही है. हाल ही में इन्हीं श्टेफन की एक नई किताब आई है थिंग्ज़ आई हेव लर्न-ड इन माई लाइफ सो फार. अपनी प्रस्तुति में विलक्षण होने के साथ ही यह किताब इस महान कलाकार के मनोजगत में झांकने का एक विरल अवसर प्रदान करती है.

इस किताब की जन्म-कथा भी दिलचस्प है. हुआ यह कि इस विलक्षण और अति व्यस्त डिज़ाइनर ने वर्ष 2000 में अपने काम से एक साल का अवकाश लिया. मकसद यह तलाश करना था कि वे अपनी अभिव्यक्ति को और सक्षम कैसे बना सकते हैं. “मैंने सोचा कि क्यों न फिल्म निर्माण में हाथ आजमाया जाए. फिर लगा कि मुझे उसी भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए जिसे मैं जानता हूं, और वह भाषा है डिज़ाइन की भाषा.” इसी अवकाश–काल में श्टेफन नियमित रूप से रोज़ डायरी भी लिखने लगे. कुछ दिनों बाद ही अपनी लिखी प्रविष्टियां पढते हुए श्टेफन को लगा कि यह तो कुछ ऐसा है जिसे औरों से भी साझा किया जा सकता है. इसी सोच की परिणति है यह किताब. वैसे, श्टेफन ने इस किताब के साथ ही इसी शीर्षक से एक विशाल प्रदर्शनी भी आयोजित की है जहां उन्होंने अपने कुछ सहयोगियों के साथ इस किताब में शामिल सूक्तियों को कलाकृतियों के रूप में प्रदर्शित किया है.

श्टेफन की इस किताब में ये बीस सूक्तियां हैं :
1. औरों की मदद करके मैं खुद की मदद करता हूं. 2. हिम्मत ने हमेशा मेरा साथ दिया है. 3. यह सोचना मूर्खतापूर्ण है कि भावी जीवन सुखद होगा. मुझे तो वर्तमान में जीना है. 4. सहायता समूह को संगठित करना आश्चर्यजनक रूप से सुगम है.
5. मिथ्याचरण सदा मेरे प्रतिकूल रहा है. 6. मैं जो भी करता हूं, उसका प्रतिफल मुझे ज़रूर मिलता है. 7. कल्पना करना बेहद मुश्किल है. 8. ड्रग्ज़ शुरू में तो अच्छी लगती हैं लेकिन फिर वे आप पर सवार हो जाती हैं. 9. वक़्त बीतने के साथ मैं हर बात का आदी होता चला गया, और फिर उनकी उपेक्षा करने लगा. 10. धन मुझे सुखी नहीं बनाता. 11. मेरे सपनों का कोई अर्थ नहीं है. 12. डायरी रखने से वैयक्तिक विकास में सहायता मिलती है. 13. अच्छा दीखने का प्रयास मेरी ज़िन्दगी को सीमित करता है. 14. भौतिक विलासिताओं का उपयोग अल्प मात्रा में ही किया जाना चाहिए. 15. चिंता करने से कोई समस्या हल नहीं होती. 16. शिकायत करना बेवक़ूफी है. या तो कुछ करो या फिर भूल जाओ. 17. हरेक यही सोचता है कि वह सही है. 18. अगर मुझे व्यावसायिक रूप से किसी नई दिशा की तलाश है तो बेहतर होगा कि पहले मैं खुद ही उसे आजमा कर देखूं. 19. कम अपेक्षाएं रखना उम्दा रणनीति है. 20. हर ईमानदार दिलचस्प होता है.

इस किताब को मैंने विलक्षण इसलिए कहा कि यह पारम्परिक अर्थ में किताब है ही नहीं. बेहतर तो यह होगा कि इसे किताब न कहकर कलाकृति कहा जाए. एक बक्सा और उसमें रखे कुछ पैम्फलेट. कोई जिल्दबन्द किताब नहीं जिसे कवर-टू-कवर पढा जाए. इन पैम्फलेट्स में इस किताब, इन सूक्तियों और सूक्तियों पर आधारित कलाकृतियों की सृजन गाथा अंकित है. मसलन सूक्ति क्रमांक 9 के बारे में यह बताया गया है कि न्यूयॉर्क में श्टेफन एक खिडकी में बैठे थे, उन्होंने अपने पांव बाहर लटका रखे थे. लोगों ने सोचा कि वे कूदने वाले हैं. पुलिस बुला ली गई और श्टेफन जैसे-तैसे अपनी जान बचाकर भाग निकले. इसी तरह वे चौथी सूक्ति के लिए बताते हैं कि कैसे उन्होंने कुछ बेघरबार लोगों को महीने में दो बार राशन सामग्री सुलभ कराने का अभियान सफलतापूर्वक चलाया.

यह कलाकृति, या किताब, आप इसे जो भी नाम दें, उन सब बातों पर एक बार फिर से हमारा ध्यान खींचती हैं जो हमें अपने जीवन में महत्वपूर्ण लगती हैं. हो सकता है इनमें से कुछ बातों से हममें से कुछेक की असहमति हो, लेकिन ये बातें अंतत: सोच का एक प्रस्थान बिन्दु तो बनती ही हैं. इतना भी कम नहीं है.
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Discussed book:
Things I have Learned in My Life So Far
By Stefan Sagmeister, Daniel Nettle, Steven Heller, Nancy Spectar
Published by: Abrams
Paperback, 248 pages
US $ 24.00


राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 03 अप्रैल 2008 को प्रकाशित.







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