Monday, March 31, 2008

माले मुफ्त.....


जनता से बार-बार कहा जाता है कि वह अपने करों की अदायगी ईमानदारी से और नियमितता से करे. यह उचित भी लगता है. इसलिए कि आखिर हमारे करों से ही तो सरकारें विभिन्न विकास कार्य करती हैं. जनता के करों से ही तो सडकें बनती हैं, अस्पताल चलते हैं, स्कूल कॉलेज खुलते हैं. निश्चय ही करों का उपयोग इतनी बतों तक सीमित नहीं होता. विधान सभाएं और संसद भी हमारे करों से ही संचालित होते हैं. और भी न जाने कितने काम हमारे करों के बलबूते पर होते हैं. जनता की आकांक्षाएं असीमित होती हैं और कर चुकाने की इच्छा और सामर्थ्य सीमित. स्वाभाविक है कि दोनों के बीच जद्दो जहद चलती रहती है. नए स्कूल कॉलेज अस्पताल खुलते हैं तो जनता खुश होती है, इनके लिए मांग भी करती रहती है, लेकिन जब कर भार बढता है तो जनता दुखी और नाराज़ होती है. इस बार केन्द्र और मेरे राज्य राजस्थान में चुनाव होने हैं इसलिए सोच समझकर ऐसे बजट पेश किए गए हैं कि जनता पर कर भार न्यूनतम है. स्वाभाविक है कि भोली जनता खुश है. यह जानते हुए भी कि अगले साल जब चुनाव हो जाएंगे और पांच सालों की निश्चिंतता हो जाएगी, करों की भारी मार पडेगी ही. मैं सोचता हूं जो चुनाव के ऐन पहले वाले बजट में होता है वह शेष चार बजटों में क्यों नहीं होता? क्या लोकतंत्र की सरकारों को जनता की आकांक्षाओं के प्रति इतना अन्धा होना चाहिए?
मैं जानता हूं कि आप मेरी ही बात को पकड कर पूछेंग़े कि कर नहीं लगेंगे तो विकास कैसे होगा? बिलकुल वाज़िब सवाल है. मैं भी कहता हूं कि विकास के लिए कर लगने ही चाहिए. लेकिन, ज़ोर देकर कहता हूं कि विकास के लिए, और ज़रूरी कामों के लिए. न कि गैर ज़रूरी कामों के लिए. मेरा जी तब दुखता है जब मेरी गाढी कमाई का पैसा बेवजह पानी में बहाया जाता है. मैं अपने सांसद, विधायक चुनता हूं, उनकी पंचायतों यानि संसद और विधान सभाओं के संचालन का पूरा खर्च उठाता हूं लेकिन क्या वे अपने काम और व्यवहार से यह साबित करते हैं कि उन्हें मेरी, यानि अपने मतदाता की ज़रा भी परवाह है. कभी ध्यान दें कि हमारी विधान सभाओं और संसद का कितना समय बेवजह के हो हल्ले में बीत जाता है! क्या यह मेरी गाढी कमाई के पैसे का सरासर दुरुपयोग नहीं है?
आजकल रिवाज़ चल पडा है कि सरकारें अखबारों में बडे-बडे विज्ञापन छपवा कर अपनी योजनाओं और उपलब्धियों का गुणगान करती हैं. इन विज्ञापनों पर मेरे टैक्स का रुपया ही तो खर्च होता है. क्या ये ज़रूरी हैं? सरकार ने मेरे लिए जो किया वह मुझे विज्ञापन के माध्यम से बताने की क्या ज़रूरत है? क्या खुद काम को नहीं बोलना चाहिए? हम सब जानते हैं कि इन विज्ञापनों का असल मक़सद तो हमारे जन प्रतिनिधियों की छवि का निर्माण करना है. यह मी मेरे पैसे का सरासर दुरुपयोग है.
राज्य सरकारें समय-समय पर उत्सव भी मनाती हैं. इधर पिछले चार सालों से मेरे राज्य राजस्थान में इसकी स्थापना का उत्सव कुछ अधिक ही जोर-शोर से मनाया जाने लगा है. एक सप्ताह बहुत बडे पैमाने पर ‘नाच गाना’ होता है, देश के सारे प्रकाशनों में भव्य विज्ञापन छपते हैं (हो गया प्रैस का तो मुंह बन्द!). नाच गाना शब्द से जिन्हें आपत्ति हो वे इसकी जगह ‘सांस्कृतिक कार्यक्रम’ पढ लें. देश भर से नामचीन कलाकारों को बुला कर उनकी प्रस्तुतियां कराई जाती हैं. इस बार हेमा मालिनी, ए आर रहमान, सुनिधि चौहान, श्रेया घोषाल, कुणाल गांजावाला, राहत फतेह अली खान जैसे कलाकार हमें धन्य करने आये. इन सब कार्यक्रमों पर पैसा पानी की तरह बहाया जाता है, कहना भी अल्प कथन ही होगा. सरकार की दरियादिली देखते ही बनती है. करोडों का बजट होता है इस कार्यक्रम का.
प्रदेश की कलाकार बिरादरी अक्सर सवाल उठाती है कि इस सब में राजस्थान कहां होता है? सवाल अपनी जगह वाज़िब है. यह कार्यक्रम जनता के मनोरंजन के लिए है या राजस्थान के महत्व स्थापन के लिए? हेमा मालिनी बहुत बडी नृत्यांगना हैं, लेकिन राजस्थान से उनका क्या रिश्ता है? उनके नाचने से राजस्थान के गौरव में कैसे वृद्धि होती है? यही बात अन्य कलाकारों के लिए भी. जवाब में कहा जाता है कि राजस्थान के कलाकारों में भीड खींचने की ऐसी सामर्थ्य नहीं है. चलिये थोडी देर के लिए इस तर्क को भी स्वीकार कर लें, तो क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि आपका मकसद क्या है: भीड जुटाना या प्रदेश (की कला-संस्कृति) का विकास करना? क्या सरकार का काम महज़ नाच-गाना करवाना है? और सारे काम तो जैसे वह कर चुकी है. लोगों को सुखी और सुरक्षित जीवन मिल चुका है. चारों तरफ अमन-चैन है. लोग सुख की नींद सो रहे हैं. न प्यासबची है, न भूख; न चोरी है न अपराध. अब तो बस चैन की बंसी बजनी शेष थी, सो उसी के लिए यह सारा ताम झाम. क्या यह अजीब नहीं लगता कि पेयजल की व्यवस्था के लिए, अस्पतालों में मामूली दवाइयों के लिए, टूटी सडक की मरम्मत के लिए तो सरकार के पास पैसा नहीं होता, लेकिन ऐसे जश्न के लिए उसके पास वित्तीय संसाधनों की कोई कमी नहीं होती.
लेकिन मैं एक बात और भी उठाना चाहता हूं. इन कार्यक्रमों के जो बडे-बडे विज्ञापन छपते हैं उनमें बार-बार यह कहा जाता है कि इन कार्यक्रमों में प्रवेश निशुल्क है और किसी निमंत्रण पत्र की आवश्यकता नहीं है. यह एक आदर्श स्थिति है. लेकिन यथार्थ इससे भिन्न है. सभी कार्यक्रमों के बाकायदा निमंत्रण पत्र छपते हैं, बंटते हैं और उनके लिए खासी मारा-मारी भी होती है. इसलिए कि निमंत्रण पत्र आपको आगे बैठने का, वी आई पी होने का हक़ देते हैं, और अखबारी सूचना धक्का-मुक्की और अव्यवस्था का शिकार होने का अवसर प्रदान करती है. निमंत्रण पत्र किन्हें अता फरमाए जाते हैं? विधायकों-सांसदों-मंत्रियों को, अफसरों को, अति महत्वपूर्ण लोगों को, पत्रकारों को और जो जुग़ाड कर ले उनको. इनमें से पत्रकारों की बात समझ में आती है. उनके कर्तव्य निर्वहन के लिए उन्हें यह सुविधा दी जानी चाहिए. लेकिन शेष लोगों को निमंत्रण पत्र, और उसके माध्यम से विशेष स्थान पर बैठ कर कार्यक्रम देखने का अधिकार क्यों मिलना चाहिए? एक सांसद, एक मंत्री, एक अफसर और एक अन्य नागरिक के बीच भेद क्यों किया जाना चाहिए? पहले आओ पहले बैठो की व्यवस्था क्यों नहीं लागू की जानी चाहिए? एक नागरिक के रूप में मेरी पीडा, बल्कि मेरा आक्रोश यह है कि पैसा मेरा और मैं ही उसके उपयोग में पीछे धकेला जाऊं, यह क्यों होना चाहिए? ऐसे आयोजनों में मेरा पैसा लगता है. उतना ही जितना किसी जन प्रतिनिधि या अफसर का लगता है. फिर मेरी तुलना में उन्हें विशिष्टता क्यों प्रदान की जाती है? बल्कि सच तो यह कि मेरे पैसे पर मेरे अपमान का प्रबन्ध किया जाता है. क्या इससे भी खराब कुछ हो सकता है?
मैं उस दिन के इंतज़ार में हूं जब हमारी जनता में इतनी जागरूकता आ जाएगी कि वह इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था, बल्कि इस बे-इमानी को समझेगी, न केवल समझेगी, बल्कि इसके विरोध में भी उठ खडी होगी. जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक तो यह माले मुफ्त, दिले बेरहम का बेशर्मी भरा खेल चलता ही रहेगा.








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माले मुफ्त.....

जनता से बार-बार कहा जाता है कि वह अपने करों की अदायगी ईमानदारी से और नियमितता से करे. यह उचित भी लगता है. इसलिए कि आखिर हमारे करों से ही तो सरकारें विभिन्न विकास कार्य करती हैं. जनता के करों से ही तो सडकें बनती हैं, अस्पताल चलते हैं, स्कूल कॉलेज खुलते हैं. निश्चय ही करों का उपयोग इतनी बतों तक सीमित नहीं होता. विधान सभाएं और संसद भी हमारे करों से ही संचालित होते हैं. और भी न जाने कितने काम हमारे करों के बलबूते पर होते हैं. जनता की आकांक्षाएं असीमित होती हैं और कर चुकाने की इच्छा और सामर्थ्य सीमित. स्वाभाविक है कि दोनों के बीच जद्दो जहद चलती रहती है. नए स्कूल कॉलेज अस्पताल खुलते हैं तो जनता खुश होती है, इनके लिए मांग भी करती रहती है, लेकिन जब कर भार बढता है तो जनता दुखी और नाराज़ होती है. इस बार केन्द्र और मेरे राज्य राजस्थान में चुनाव होने हैं इसलिए सोच समझकर ऐसे बजट पेश किए गए हैं कि जनता पर कर भार न्यूनतम है. स्वाभाविक है कि भोली जनता खुश है. यह जानते हुए भी कि अगले साल जब चुनाव हो जाएंगे और पांच सालों की निश्चिंतता हो जाएगी, करों की भारी मार पडेगी ही. मैं सोचता हूं जो चुनाव के ऐन पहले वाले बजट में होता है वह शेष चार बजटों में क्यों नहीं होता? क्या लोकतंत्र की सरकारों को जनता की आकांक्षाओं के प्रति इतना अन्धा होना चाहिए?
मैं जानता हूं कि आप मेरी ही बात को पकड कर पूछेंग़े कि कर नहीं लगेंगे तो विकास कैसे होगा? बिलकुल वाज़िब सवाल है. मैं भी कहता हूं कि विकास के लिए कर लगने ही चाहिए. लेकिन, ज़ोर देकर कहता हूं कि विकास के लिए, और ज़रूरी कामों के लिए. न कि गैर ज़रूरी कामों के लिए. मेरा जी तब दुखता है जब मेरी गाढी कमाई का पैसा बेवजह पानी में बहाया जाता है. मैं अपने सांसद, विधायक चुनता हूं, उनकी पंचायतों यानि संसद और विधान सभाओं के संचालन का पूरा खर्च उठाता हूं लेकिन क्या वे अपने काम और व्यवहार से यह साबित करते हैं कि उन्हें मेरी, यानि अपने मतदाता की ज़रा भी परवाह है. कभी ध्यान दें कि हमारी विधान सभाओं और संसद का कितना समय बेवजह के हो हल्ले में बीत जाता है! क्या यह मेरी गाढी कमाई के पैसे का सरासर दुरुपयोग नहीं है?
आजकल रिवाज़ चल पडा है कि सरकारें अखबारों में बडे-बडे विज्ञापन छपवा कर अपनी योजनाओं और उपलब्धियों का गुणगान करती हैं. इन विज्ञापनों पर मेरे टैक्स का रुपया ही तो खर्च होता है. क्या ये ज़रूरी हैं? सरकार ने मेरे लिए जो किया वह मुझे विज्ञापन के माध्यम से बताने की क्या ज़रूरत है? क्या खुद काम को नहीं बोलना चाहिए? हम सब जानते हैं कि इन विज्ञापनों का असल मक़सद तो हमारे जन प्रतिनिधियों की छवि का निर्माण करना है. यह मी मेरे पैसे का सरासर दुरुपयोग है.
राज्य सरकारें समय-समय पर उत्सव भी मनाती हैं. इधर पिछले चार सालों से मेरे राज्य राजस्थान में इसकी स्थापना का उत्सव कुछ अधिक ही जोर-शोर से मनाया जाने लगा है. एक सप्ताह बहुत बडे पैमाने पर ‘नाच गाना’ होता है, देश के सारे प्रकाशनों में भव्य विज्ञापन छपते हैं (हो गया प्रैस का तो मुंह बन्द!). नाच गाना शब्द से जिन्हें आपत्ति हो वे इसकी जगह ‘सांस्कृतिक कार्यक्रम’ पढ लें. देश भर से नामचीन कलाकारों को बुला कर उनकी प्रस्तुतियां कराई जाती हैं. इस बार हेमा मालिनी, ए आर रहमान, सुनिधि चौहान, श्रेया घोषाल, कुणाल गांजावाला, राहत फतेह अली खान जैसे कलाकार हमें धन्य करने आये. इन सब कार्यक्रमों पर पैसा पानी की तरह बहाया जाता है, कहना भी अल्प कथन ही होगा. सरकार की दरियादिली देखते ही बनती है. करोडों का बजट होता है इस कार्यक्रम का.
प्रदेश की कलाकार बिरादरी अक्सर सवाल उठाती है कि इस सब में राजस्थान कहां होता है? सवाल अपनी जगह वाज़िब है. यह कार्यक्रम जनता के मनोरंजन के लिए है या राजस्थान के महत्व स्थापन के लिए? हेमा मालिनी बहुत बडी नृत्यांगना हैं, लेकिन राजस्थान से उनका क्या रिश्ता है? उनके नाचने से राजस्थान के गौरव में कैसे वृद्धि होती है? यही बात अन्य कलाकारों के लिए भी. जवाब में कहा जाता है कि राजस्थान के कलाकारों में भीड खींचने की ऐसी सामर्थ्य नहीं है. चलिये थोडी देर के लिए इस तर्क को भी स्वीकार कर लें, तो क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि आपका मकसद क्या है: भीड जुटाना या प्रदेश (की कला-संस्कृति) का विकास करना? क्या सरकार का काम महज़ नाच-गाना करवाना है? और सारे काम तो जैसे वह कर चुकी है. लोगों को सुखी और सुरक्षित जीवन मिल चुका है. चारों तरफ अमन-चैन है. लोग सुख की नींद सो रहे हैं. न प्यासबची है, न भूख; न चोरी है न अपराध. अब तो बस चैन की बंसी बजनी शेष थी, सो उसी के लिए यह सारा ताम झाम. क्या यह अजीब नहीं लगता कि पेयजल की व्यवस्था के लिए, अस्पतालों में मामूली दवाइयों के लिए, टूटी सडक की मरम्मत के लिए तो सरकार के पास पैसा नहीं होता, लेकिन ऐसे जश्न के लिए उसके पास वित्तीय संसाधनों की कोई कमी नहीं होती.
लेकिन मैं एक बात और भी उठाना चाहता हूं. इन कार्यक्रमों के जो बडे-बडे विज्ञापन छपते हैं उनमें बार-बार यह कहा जाता है कि इन कार्यक्रमों में प्रवेश निशुल्क है और किसी निमंत्रण पत्र की आवश्यकता नहीं है. यह एक आदर्श स्थिति है. लेकिन यथार्थ इससे भिन्न है. सभी कार्यक्रमों के बाकायदा निमंत्रण पत्र छपते हैं, बंटते हैं और उनके लिए खासी मारा-मारी भी होती है. इसलिए कि निमंत्रण पत्र आपको आगे बैठने का, वी आई पी होने का हक़ देते हैं, और अखबारी सूचना धक्का-मुक्की और अव्यवस्था का शिकार होने का अवसर प्रदान करती है. निमंत्रण पत्र किन्हें अता फरमाए जाते हैं? विधायकों-सांसदों-मंत्रियों को, अफसरों को, अति महत्वपूर्ण लोगों को, पत्रकारों को और जो जुग़ाड कर ले उनको. इनमें से पत्रकारों की बात समझ में आती है. उनके कर्तव्य निर्वहन के लिए उन्हें यह सुविधा दी जानी चाहिए. लेकिन शेष लोगों को निमंत्रण पत्र, और उसके माध्यम से विशेष स्थान पर बैठ कर कार्यक्रम देखने का अधिकार क्यों मिलना चाहिए? एक सांसद, एक मंत्री, एक अफसर और एक अन्य नागरिक के बीच भेद क्यों किया जाना चाहिए? पहले आओ पहले बैठो की व्यवस्था क्यों नहीं लागू की जानी चाहिए? एक नागरिक के रूप में मेरी पीडा, बल्कि मेरा आक्रोश यह है कि पैसा मेरा और मैं ही उसके उपयोग में पीछे धकेला जाऊं, यह क्यों होना चाहिए? ऐसे आयोजनों में मेरा पैसा लगता है. उतना ही जितना किसी जन प्रतिनिधि या अफसर का लगता है. फिर मेरी तुलना में उन्हें विशिष्टता क्यों प्रदान की जाती है? बल्कि सच तो यह कि मेरे पैसे पर मेरे अपमान का प्रबन्ध किया जाता है. क्या इससे भी खराब कुछ हो सकता है?
मैं उस दिन के इंतज़ार में हूं जब हमारी जनता में इतनी जागरूकता आ जाएगी कि वह इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था, बल्कि इस बे-इमानी को समझेगी, न केवल समझेगी, बल्कि इसके विरोध में भी उठ खडी होगी. जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक तो यह माले मुफ्त, दिले बेरहम का बेशर्मी भरा खेल चलता ही रहेगा.








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Thursday, March 27, 2008

क्यों लोकप्रिय है हैरी पॉटर

ब्रितानी लेखिका जे के रॉलिंग की हैरी पॉटर श्रंखला के उपन्यास हमारे समय का एक बडा अजूबा हैं. उनकी लोकप्रियता अतुलनीय है. सभी देशों, उम्र व स्तर के पाठकों ने उनमें गहरी दिलचस्पी ली है. यह कहते हुए मैं मार्केटिंग के कौशल के योगदान को कम करके नहीं आंक रहा. अंग्रेज़ी साहित्य की दुनिया में हैरी पॉटर श्रंखला के उपन्यासों की लोकप्रियता की तह में जाने के प्रयास भी कम नहीं हुए हैं. इसी क्रम में इधर चर्चा में है जॉन ग्रेंजर की किताब अन लॉकिंग हैरी पॉटर : फाइव कीज़ फॉर द सीरियस रीडर. शीर्षक से ही साफ है कि यहां लेखक इस श्रंखला को समझने के लिए पांच कुंजियां दे रहा है. जॉन ग्रेंजर हैरी पॉटर श्रंखला के गम्भीर अध्येता हैं और पहले भी हिडन की टू हैरी पॉटर जैसी किताब लिख तथा हू किल्ड एल्बस डम्बलडोर जैसी किताब सम्पादित कर नाम और नामा कमा चुके हैं.

अपनी वर्तमान किताब में जॉन एक प्रशंसक और विवेचक की दोहरी भूमिका में हैं. यहां उनका लक्ष्य यह स्थापित करना है कि बावज़ूद अपनी लोकप्रियता के, हैरी पॉटर श्रंखला के उपन्यास गम्भीर और चिंतनपरक विश्लेषण के हक़दार हैं. अपनी बात को पुष्ट करने के लिए जॉन जे के रॉलिंग की बौद्धिकता, साहित्यिकता और रचना निर्माण क्षमता को उभारते हैं. वे रॉलिंग की कहानी कहने की प्रविधि और उसके निहितार्थों (जिन्हें कुंजी कहा गया है) के अनेक आधारभूत पहलुओं का भी विश्लेषण करते हैं. यह सब करते हुए जॉन स्थापित करते हैं कि रॉलिंग अपने शिल्प और अपनी दृष्टि के बारे में बहुत सजग और प्रतिबद्ध हैं, और इसीलिए उनकी कथा का पूर्वानुमान करने का खतरा भी उठाया जा सकता है. इस किताब में जॉन ने यह खतरा भी उठाया है.

जॉन की यह किताब छह अध्यायों में है. पहला अध्याय रॉलिंग के सृजन की पहली कुंजी देता है : वृत्तांत की बहक. यहां जॉन बताते हैं कि अपनी प्रिय कथाकार जेन ऑस्टेन की ही तरह रॉलिंग भी अपनी कथा को अन्य पुरुष की सीमित सर्वज्ञता के नज़रिए से पेश करती हैं. पाठक उतना ही जान पाता है जितना हैरी को ज्ञात है, शेष सारे चरित्र तो वैसे भी नेपथ्य में ही रहते हैं. जैसे, जब तक हैरी का उनसे सामना नहीं होता, हम भी नहीं जानते कि एल्बस या सेवेरस क्या कर रहे हैं. यानि, हम वही देखते हैं जो हैरी देखता है, और इस तरह पाठक हैरी के सारे राग-द्वेष ओढ लेता है. यह सिलसिला कथा के अंत तक चलता रहता है. और जब हैरी खुद गलत सिद्ध होता है तो पाठक को भी एक झटका लगता है.

किताब का दूसरा अध्याय रॉलिंग के लेखन की दूसरी कुंजी कीमियागिरी की चर्चा करता है. हैरी पॉटर श्रंखला के उपन्यासों को कट्टर ईसाइयों और घोर बुद्धिजीवियों ने नकारा है. यहां लेखक यह स्थापित करता है कि वैयक्तिक रूपांतरण के मामले में रॉलिंग कितनी गहन आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि से लैस है. अपने उत्साह में जॉन रॉलिंग को शेक्सपियर और आदि क्लासिकी लेखकों की परम्परा से जोड देते हैं.

किताब का तीसरा अध्याय रॉलिंग की कथा-शैली का विवेचन करते हुए उनके फॉर्मूले की कुंजी प्रदान करता है. जॉन ग्रेंजर बताते हैं कि पॉटर श्रंखला के उपन्यासों की कथा और ब्यौरे तो अलग हैं लेकिन उनमें एक समान पैटर्न भी देखा जा सकता है, हालांकि इस पैटर्न में थोडा वैविध्य भी है. किताब के चौथे और पांचवें अध्याय यह पडताल करते हैं कि हैरी पॉटर की ये पुरानी लगने वाली कहानियां आज के पाठक को अभिभूत क्यों करती हैं! ग्रेंजर ठीक ही लिखते हैं कि रॉलिंग 21 वीं शताब्दी में लिख रही हैं तो हमें उनके लेखन में कुछ उत्तर आधुनिक तत्वों की आशा तो करनी ही चाहिए. जॉन ग्रेंजर प्रगति और तकनीक को सन्देह की नज़रों से देखने के उत्तर आधुनिक विचार को हैरी पॉटर उपन्यासों में देखते हैं और कहते हैं कि यहां भी एक ब्रिटिश जादुई समाज है जो खुद को प्रगतिशील समझता है लेकिन है उससे उलट. इसी तरह ग्रेंजर को सरकारों, शिक्षा और प्रेस की रॉलिंग की आलोचना में तथा इस विचार में कि कुछ भी वैसा नहीं होता, जैसा दिखाई देता है, उत्तर आधुनिक विखण्डन की छाया दिखाई देती है. लेकिन जॉन ग्रेंजर यह कहना नहीं भूलते कि रॉलिंग उत्तर आधुनिक होते हुए भी इसका अतिक्रमण करती रहती हैं. वे अपनी अलौकिक दुनिया के लिए ऐसे प्रतीक चुनती हैं जो स्पष्टत: ईसाई हैं. इतना ही नहीं, बकौल ग्रेंजर, रॉलिंग अपने उपन्यासों में कहीं भी चर्च की आलोचना नहीं करतीं. इस तरह इन दो अध्यायों मे जॉन ग्रेंजर दो कुंजिया देते हैं उत्तर आधुनिकता और पारम्परिक प्रतीकवाद.

किताब के आखिरी अध्याय में इन पांच कुंजियों के सहारे यह पडताल की गई है कि रॉलिंग के आगामी लेखन की दिशा क्या हो सकती है. कहना अनावश्यक है अब यह अध्याय बेमानी हो गया है.

ग्रेंजर की यह किताब एक अति लोकप्रिय कथा श्रंखला को समझने का गम्भीर सारस्वत प्रयास है. कितना अच्छा हो कि इस तरह से भारतीय भाषाओं की लोकप्रिय कृतियों का भी विवेचन हो.
◙◙◙

Discussed book:
Unlocking Harry Potter: Five Keys for the Serious Reader
By John Granger
Published by: Zossima Press
Paperback: 312 pages
US $ 18.99

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 27 मार्च 2008 को प्रकाशित.







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Thursday, March 20, 2008

जेन ऑस्टेन की जीवनी

लोकप्रिय अंग्रेज़ी कथाकार जेन ऑस्टेन की जोन स्पेन्स कृत सुलिखित सद्य प्रकाशित जीवनी बिकमिंग जेन ऑस्टेन इन दिनों चर्चा में है. इस किताब पर ‘बिकमिंग जेन’ नाम से एक फिल्म भी बन चुकी है. यह जीवनी जेन ऑस्टिन के जीवन का आत्मीय वृत्तांत है. स्पेन्स ने गहन शोध करके यह तथ्य उजागर किया है कि जेन एक आकर्षक आयरिश युवक टॉम लेफ्रॉय के प्रेम में डूबी थीं और इसी प्रेम की रचनात्मक परिणति है उनका बेहद लोकप्रिय उपन्यास ‘प्राइड एण्ड प्रेज्युडिस’. जोन जेन के चरित्र को परत-दर-परत खोलते हैं और हम यह जान पाते हैं कि इस रिश्ते तथा उनके जीवन की अन्य घटनाओं ने किस तरह उनकी सर्जनात्मकता को प्रभावित किया.
एक अर्थ में तो इस जीवनी को उद्घाटक कहा जा सकता है. जेन की डायरी और उनके पत्रों से पर्याप्त सहायता लेकर जीवनीकार जोन ने लेखिका के जीवन की अनेक घटनाओं और उनके लेखन के बीच सम्बन्ध दिखाया है. वैसे यहीं यह कहना भी अप्रासंगिक न होगा कि खुद जेन ऑस्टेन अपने निजी जीवन और रचना के अंत:सम्बन्धों को नकारा करती थीं. जेन के जीवन के दो प्रमुख व्यक्ति हैं एलिज़ा डी फ्यूलाइड और टॉम लेफ्रॉय. स्पेन्स लिखते हैं कि जेन की उनसे 14 वर्ष बडी चचेरी बहन एलिज़ा और हेनरी का प्रेम प्रसंग बीस साल बाद भी जेन के दिलो-दिमाग पर छाया रहा. इस प्रसंग की अनुगूंज जेन की कहानियों ‘लव एण्ड फ्रेंडशिप’ और ‘लेस्ली कासल’ में सुनी जा सकती हैं जहां एक युवा पुरुष और उसकी अधेड प्रेमिका के सम्बन्धों के खतरों की चर्चा है या एक उछृंखल युवती पर व्यंग्य है. एलिज़ा के चरित्र की छवियां ‘हेनरी एण्ड एलिज़ा’ में भी पहचानी जा सकती हैं.
टॉम लेफ्रॉय वह व्यक्ति है जिससे अपने असल जीवन में जेन प्यार करती थीं और इस इंतज़ार में थीं कि वह अपनी वकालत की पढाई पूरी कर ले तो शादी की जाए. बकौल जोन, टॉम के प्रति जेन का अनुराग इतना गहरा था कि उसने टॉम के प्रिय उपन्यास ‘टॉम जॉन्स’ के किसी न किसी चरित्र के नाम पर अपने हर उपन्यास का कम से कम एक चरित्र रचा, भले ही वह चरित्र गौण हो. जेन को टॉम के परिवार से ही अपने उपन्यास ‘प्राइड एण्ड प्रेज्युडिस’ के लिए आधारभूत घटनाक्रम प्राप्त हुआ. जोन यह भी कहने से नहीं चूकते कि इस उपन्यास में एलिज़ाबेथ का चरित्र असल ज़िन्दगी के टॉम के आधार पर निर्मित है और डार्सी के चरित्र मंर खुद जेन को पहचाना जा सकता है. जेन के कई उपन्यासों में टॉम की जो छवि उभारती है वह एक ऐसे आकर्षक युवा की है जो अपने प्रेम में पडी महिलाओं को इसलिए छोडता रहता है कि उसे प्रेम से अधिक प्रिय पैसा और पद है. असल ज़िन्दगी में भी यह हुआ कि टॉम पर उसके परिवार का दबाव पडा कि वह विपन्न जेन को भूल जाए, क्योंकि उस पर पूरे परिवार की ज़िम्मेदारियां हैं. टॉम भी आयरलैण्ड की एक सम्पन्न युवती से नाता जोडने के लिए जेन को भुला देता है. स्पेन्स बलपूर्वक यह कहते हैं कि परिवार से इतर ये दो व्यक्ति, एलिज़ा और टॉम, जेन को सर्वाधिक प्रिय थे और अपनी किशोरावस्था में वह इनसे इतनी अधिक प्रभावित हुई कि इनके व्यक्तित्व और इनसे जुडे प्रसंग उसके लेखन में बार-बार आते हैं.
जेन की इस जीवनी में टॉम और एलिज़ा के अलावा और भी अनेक लोग हैं, जैसे एनेले फ्रॉय, जिन्होंने जेन ऑस्टेन के मनोजगत का निर्माण किया. जीवनीकार इन सब के माध्यम से लेखिका के मनोजगत तक पहुंचने की राह का निर्माण करता है और जीवन के कला में रूपांतरण की प्रक्रिया से हमारा साक्षात्कार कराता है. वह बताता है कि जेन ने अपने परिवार से भी काफी कुछ लिया, “उनकी बातों से तर्क क्षमता, कार्य-कारण सम्बन्ध की पहचान, सम्भावनाओं की अचूक पकड और मानवीय आकांक्षाओं की गहरी समझ!”
जोन यह किताब लिखते हुए जीवनीकार और आलोचक की भूमिकाओं के बीच चहल-कदमी करते रहते हैं. मसलन ‘मेन्सफील्ड पार्क’ की चर्चा करते हुए वे कहते हैं कि हमारा मूल्यबोध हमें एक राह दिखाता है तो मन दूसरी राह पर चलने को कहता है. ‘मेन्सफील्ड पार्क’ इसी मानवीय उलझन की कथा है और लेखिका ने प्रयत्न पूर्वक ऐसा संसार रचा है कि पाठक उपन्यास के चरित्रों को लेकर भी उलझन में पडता है. इसी तरह की टिप्पणी ‘पर्सुएसन’ के लिए भी की गई है. इस तरह की अनेक टिप्पणियां पढने के बाद निश्चय ही हम न केवल जेन ऑस्टेन के जीवन के बारे में अधिक जान पाते हैं, उनके कथा साहित्य से भी हमारा रिश्ता अधिक प्रगाढ होता है.


◙◙◙

Discussed book:
Becoming Jane Austen
By Jon Spence
Published By Continuum
Paperback, 294 pages
Price: £ 8.99

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स में 20 मार्च 2008 को प्रकाशित.








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Thursday, March 13, 2008

तर्क-विहीनता के तर्क

आपका सर दर्द कर रहा है. घर में सस्ती एस्पिरिन है, आप लेते हैं. दर्द ठीक नहीं होता. दुकानदार आपको एक महंगी दवा देता है. उसमें भी वही एस्पिरिन है, लेकिन उससे आपका सर दर्द ठीक हो जाता है.

आपको किसी शानदार होटल में बहुत महंगा खाना खाने में ज़रा भी हिचकिचाहट नहीं होती, लेकिन रिक्शा वाले से आप एक रुपये के लिए भी झिकझिक करते हैं.
आप बहुत ईमानदार इंसान हैं. अपने दफ्तर में कोई आर्थिक घपला नहीं करते. लेकिन उसी दफ्तर की स्टेशनरी वगैरह घर ले जाने में आपको कोई संकोच नहीं होता.

आप जानते हैं कि ज़्यादा खाना आपकी सेहत के लिए हानिप्रद है, फिर भी आप किसी शादी में बेझिझक ठूंस-ठूंस कर भकोसते हैं.

आखिर ऐसा क्यों होता है?

एम आई टी के व्यवहारवादी अर्थशास्त्री डान एरियली की मानें तो हममें से ज़्यादातर लोग यह गलतफहमी पाले रहते हैं कि अपनी ज़िन्दगी के अधिकांश फैसले हम सोच-समझकर और तर्कपूर्वक करते हैं. एरियली ने लम्बी शोध के बाद यह पाया कि कैसे हमारी अपेक्षाएं, भावनाएं, सामाजिक स्थितियां और अनेकानेक अदृश्य तथा अतार्किक ताकतें हमारी तर्क क्षमता को विकृत करती हैं. हम न केवल असामान्य और बेहूदा गलतियां करते हैं, उन्हें लम्बे समय तक दुहराते भी रहते हैं. एरियली बताते हैं कि हमारा ऐसा व्यवहार न तो अतार्किक होता है और न निरर्थक. बल्कि यह सब निहायत व्यवस्थित और पूर्वानुमान योग्य होता है. इसीलिए, उनकी ताज़ा किताब का शीर्षक है : प्रेडिक्टेब्ली इर्रेशनल : द हिडन फोर्सेज़ दैट शेप आवर डिसीजन्स.
अब दवा वाली बात ही लीजिए. अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन के एक अध्ययन के हवाले से एरियली बताते हैं कि जब आप महंगी एस्पिरिन लेते हैं तो उससे दर्द निवारण की आपकी उम्मीद भी बढ जाती है, जबकि सस्ती दवा लेते हुए आप खुद उसके असर के बारे में संशयालु होते हैं. इसी बात को आगे बढाते हुए एरियली यह भी कहते हैं कि हम वस्तुओं का मूल्यांकन केवल उन्हीं के गुण दोष के आधार पर नहीं करते, बल्कि उनकी तुलना वैसी ही और वस्तुओं से करते हुए उनका मूल्यांकन करते हैं. आप बाज़ार में म्यूज़िक सिस्टम खरीदने जाते हैं. खुद आपके मन में यह साफ नहीं होता कि आप कैसा सिस्टम चाहते हैं. दुकानदार आपको एक के बाद एक कई सिस्टम दिखाता सुनाता है, और अंतत: आप जो फैसला करते हैं वह कुछ इस तरह होता है कि यह पहले वाले से बेहतर है. यानि आपके फैसले सापेक्ष और तुलनात्मक होते हैं. आपकी इसी मनोवृत्ति का फायदा चतुर सेल्स पर्सन उठाता है. वह पहले आपको एक साधारण उत्पाद दिखाता है, फिर उससे बेहतर, और तब आपको लगता है कि पहले वाला उत्पाद तो खरीदने काबिल नहीं है. अगर उसने बाद वाला उत्पाद न दिखाया होता तो आपने उस उत्पाद को खारिज़ नहीं किया होता.
एरियली एक और बात कहते हैं. यह बहुत मह्त्वपूर्ण है. वे कहते हैं कि जब आपके जीवन में बाज़ार के और समाज के प्रतिमान टकराते हैं तो असल मुसीबत पैदा होती है. जब आप बाज़ार जाते हैं और कुछ खर्च करते हैं तो आप चाहते हैं कि आपको उस खर्च के बदले में कुछ मिले: कोई वस्तु या कोई सेवा. मुसीबत तब पैदा होती है जब आप अपनी सामाजिक ज़िन्दगी में भी यही उम्मीद करना शुरू करते हैं. आप अपने दोस्त पर कुछ खर्च करते हैं और बदले में चाहते हैं कि वह आपका सम्मान करे. ऊपर से यह बात अविश्वसनीय लगती है, लेकिन एरियली जिस तरह, खास तौर पर प्रेम सम्बन्धों के हवाले से, इसे पेश करते हैं, यही बात बहुत कुछ सोचने को प्रेरित करती है.

एरियली बल पूर्वक कहते हैं कि हम अपने अतार्किक लगने वाले व्यवहार को अक्सर दुहराते रहते हैं. यह इसलिए होता है कि असल में वह व्यवहार सकारण होता है. अब यही बात लें कि आप कोई विज्ञापन देखते हैं जिसमें लिखा होता है कि ‘एक के साथ एक मुफ्त’ और आप तुरंत प्रभावित हो जाते हैं. क्या आप यह नहीं जानते कि कुछ भी मुफ्त देकर दुकानदार भला नुकसान क्यों उठाएगा? मुफ्त बताकर दी जाने वाली चीज़ के भी वह आपसे पैसे लेता है. कुल मिलाकर मुफ्त के लालच में पडकर आप वह वस्तु भी खरीद लेते हैं, जिसकी शायद आपको ज़रूरत नहीं थी. अगर आप तर्क से इस बात को समझ भी लेते हैं तो भी अगली बार फिर से ‘मुफ्त’ पढते ही उसकी ओर आकर्षित हो जाते हैं. चतुर व्यापारी आपकी इसी कमज़ोरी का फायदा उठा कर दिन–दूनी रात-चौगुनी तरक्की करता रहता है.
इन दिनों भारत में बाज़ार जिस तरह अपने हाथ-पाव पसार रहा है, उसकी बहुत सारी झांकियां हमें अनायास ही इस किताब में मिल जाती हैं. निश्चय ही यह किताब हमें अपने व्यवहार, भले ही वह आर्थिक हो या सामाजिक, पर पुनर्विचार का अवसर प्रदान करती है.
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Discussed book:
Predictably Irrational: The Hidden Forces That Shape Our Decisions
By Dan Ariely
Published by: Harper Collins
Hardcover: 304 pages
US $ 25.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 13 मार्च 2008 को प्रकाशित.








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Thursday, March 6, 2008

बेहतर दुनिया के लिए

अगर दुनिया पर औरतों का राज हो जाए तो? व्हाइट हाउस की पूर्व प्रेस सचिव डी डी म्येर्स का खयाल है कि अगर ऐसा हो जाए तो सब कुछ बदल जाएगा. राजनीति अधिक सुघड हो जाएगी, व्यापार अधिक उत्पादक हो जाएगा और समुदाय भावना अधिक पुष्ट हो जाएगी. स्त्री सशक्तिकरण से दुनिया अधिक बेहतर हो जाएगी. इसलिए, कि औरतें मर्दों से भिन्न होती हैं.
1992 में बिल क्लिण्टन के राष्ट्रपति अभियान की प्रवक्ता, 93-94 में व्हाइट हाउस की प्रेस सचिव, राजनीतिक विवेचक, मीडिया विश्लेषक और एन बी सी के द वेस्ट विंग कार्यक्रम की कंसल्टेण्ट के रूप में अपनी भूमिकाओं को स्मरण करते हुए म्येर्स यहां शीर्ष स्थानीय महिलाओं की महत्वपूर्ण किंतु प्राय: उपेक्षित और अवमूल्यित क्षमताओं का आकलन करती हैं. वे कहती हैं कि “स्त्रियां बेहतर सम्प्रेषक, बेहतर श्रोता होती हैं और आम सहमति कायम करने की अधिक योग्यता रखती हैं.” उनका खयाल है कि अधिक प्रतिस्पर्धी और निरंतर चिडचिडे होते जा रहे विश्व में स्त्रियां ही हैं जिनके पास समस्याओं को सुलझाने वाली योग्यता है और जो अपनी समझ का प्रयोग कर बेहतर माहौल तैयार कर सकती हैं.
पूरी किताब तीन खण्डों में विभक्त है: दुनिया पर औरतों का राज क्यों नहीं है, दुनिया पर औरतों का राज क्यों होना चाहिए, और औरतें कैसे दुनिया पर राज कर सकती हैं. म्येर्स अपनी बात का प्रारम्भ स्वानुभव से करती हैं. वे एक मार्मिक प्रसंग लाती हैं. जब वे दूसरी कक्षा में पढती थीं, उनकी कक्षा के बच्चों से पूछा गया कि बे बडे होकर क्या बनना चाहते हैं. उनके पास बैठे लडके ने कहा कि वह टी वी मैकेनिक बनना चाहता है. म्येर्स को लगा कि देखो, लडके को यह आज़ादी है कि वह जो चाहे बन सकता है, लेकिन बेचारी लडकी को तो मास्टरनी, नर्स या नन ही बनना पडेगा. म्येर्स अपने जीवन पर मां और दादी के सशक्त प्रभावों को भी बहुत आत्मीयता और कृतज्ञता से स्मरण करती हैं.

व्हाइट हाउस में प्रेस सचिव के पद पर पहुंचने वाली वे प्रथम महिला थीं. वे कहती हैं कि इस पद पर पहुंचने से उनकी ज़िन्दगी तो बदली, लेकिन दुनिया नहीं. तभी उन्हें लगा कि दुनिया को बदलने के लिए ज़रूरी है कि और अधिक औरतें शीर्ष पर पहुंचें. वहां उन्हें भेदभाव का सामना भी कम नहीं करना पडा. जब उनकी पदोन्नति हुई तो आर्थिक लाभ यह कहते हुए किसी अन्य पुरुष को दे दिया गया कि उसे तो एक परिवार का भरण पोषण भी करना है. म्येर्स को इस बात की गहरी तकलीफ है कि औरतों का मूल्यांकन उनके काम की बजाय उनके रंग-रूप के आधार पर अधिक किया जाता है. वे बताती हैं कि जब वे व्हाइट हाउस में थीं, प्रेस की दिलचस्पी राष्ट्रपति की राजनीति से हटकर उनके इयर रिंग्ज़, उनके मेक अप, कपडों, यहां तक कि केशों के बारे में भी कम नहीं थी. अमरीका में विद्यमान विषमताओं के बारे में वे तथ्य देकर बताती हैं. वहां स्त्री मतदाता पुरुष मतदाताओं से ज़्यादा हैं लेकिन सीनेट में केवल सोलह प्रतिशत महिलाएं हैं, देश के पचास गवर्नर्स में से केवल आठ स्त्रियां हैं, आज तक कोई महिला राष्ट्रपति नहीं बन सकी है. व्यापार जगत में भी स्थिति ऐसी ही है. फॉर्च्यून 500 कम्पनियों में महिला सी ई ओ केवल दो प्रतिशत हैं, कॉर्पोरेट ऑफिसर सोलह प्रतिशत. शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में भी यही स्थिति है. अमरीका से बाहर की दुनिया में भी हालत कमोबेश यही है.

औरतें दुनिया पर राज क्यों करें, इस सवाल का बहुत सीधा जवाब म्येर्स यह कहकर देती हैं कि औरतों के पास परानुभूति की क्षमता होती है. औरत ही बच्चे को जन्म देती है और स्वयं से पहले उसके या अन्य के बारे में सोचती हैं. म्येर्स कहती हैं कि अकेले इस गुण के दम पर ही महिलाएं बेहतर सिद्ध हो जाती हैं. दूसरी बात है महिलाओं की व्यावहारिक बुद्धि. म्येर्स कहती हैं कि औरतें एक दूसरे की मदद करती हुई उन सारे अवरोधों को हटा सकती हैं जो खुद उन्होंने महसूस किए हैं और वे बच्चों को यह सिखा कर बेहतर दुनिया बना सकती हैं कि कैसे अंतर को पहचानते हुए समानताओं का वरण किया जा सकता है. म्येर्स मानती हैं कि आज दुनिया में जो टकराव की संस्कृति विद्यमान है उसकी जगह आम सहमति की संस्कृति लाने में स्त्रियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है.

खुद म्येर्स कहती हैं कि उन्होंने यह किताब न तो पुरुषों पर प्रहार करने के लिए लिखी है और न वे उनका महत्व कम करना चाहती हैं. वे तो मात्र इतना कहना चाहती हैं कि दुनिया बदल जाएगी, अगर हम बेटियों को भी बेटों-सा मान देने लग जाएं!

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Discussed book:
Why Women Should Rule the World
By Dee Dee Myers
Published by Harper
Pages 288, Hardcover.

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' में दिनांक 06 मार्च 2008 को प्रकाशित.








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