Thursday, February 28, 2008

अतीत वर्तमान का निर्माता है

अगर शिकागो में एक भी बच्चा ऐसा है जो स्कूल नहीं जा सकता तो वह मेरे लिए महत्वपूर्ण है, भले ही वह मेरा बच्चा नहीं है. अगर कहीं कोई ऐसा वृद्ध है जो अपने इलाज़ के पैसे नहीं जुटा सकता और उसे अपने मकान किराये या इलाज़ में से एक को चुनना पडता है तो मुझे लगता है कि मैं गरीब हूं, भले ही वह वृद्ध मेरा कोई नहीं लगता. अगर कहीं कोई अरब-अमरीकी परिवार बिना कारण धर लिया जाता है और अपनी मदद के लिए वकील नहीं कर पाता तो मुझे लगता है कि मेरी नागरिक स्वाधीनता खतरे में है...
यह अंश है बराक ओबामा के एक भाषण का. ओबामा की ताज़ा किताब ड्रीम्स ऑफ माइ फादर : ए स्टोरी ऑफ रेस एण्ड इनहेरिटेंस नस्लवाद पर एक ऐसे व्यक्ति का नज़रिया पेश करती है जिसने खुद उसे तथा विविध संस्कृतियों को देखा-जिया है. किताब में हम उसकी दृष्टि को निर्मित होते देखते हैं. 1961 में एक श्वेत मां और अश्वेत केन्याई विद्यार्थी-पिता की संतान के रूप में जन्मे बराक ओबामा की यह संस्मरणात्मक कृति असामान्य तो है ही, नस्लवाद की कई परतों को भी उघाडती है. बराक ओबामा ने 1991 में हारवर्ड लॉ स्कूल से स्नातक उपाधि प्राप्त की और उसके बाद वे हारवर्ड लॉ रिव्यू के पहले अफ्रीकी अमरीकी अध्यक्ष बने. उन्होंने सामुदायिक संगठन, नागरिक अधिकार अटॉर्नी और लॉ प्रोफेसर के रूप में अपनी सेवाएं दीं. 1997 में उन्होंने इलिनॉय की जनरल असेम्बली में दक्षिणी शिकागो का प्रतिनिधित्व किया और अब वे इलिनॉय से ही जूनियर सिनेटर बनने की राह पर अग्रसर हैं.
ये ओबामा जब हारवर्ड लॉ रिव्यू के अध्यक्ष बने तो उन्हें एक किताब लिखने का प्रस्ताव मिला. इस किताब के माध्यम से ओबामा ने अपने असामान्य जीवन की यात्रा के कुछ पडावों को अपने पाठकों से साझा किया है. इस काव्यात्मक किंतु भावुकता-विहीन संस्मरण पुस्तक की शुरुआत न्यूयॉर्क से होती है जहां ओबामा को पता चलता है कि उनके पिता एक कार दुर्घटना में चल बसे हैं. यह दुखद समाचार उनकी स्मृति यात्रा का प्रारम्भ करता है. सबसे पहले वे कैनसस के एक छोटे-से कस्बे में अपनी मां के परिवार के हवाई प्रव्रजन के अवशेष तलाशते हैं और फिर केन्या जाकर अपने परिवार का अफ्रीकी पक्ष ढूंढते हैं. वहीं पिता के जीवन के अप्रिय पहलू से भी उनका सामना होता है. हम जान पाते हैं कि ओबामा के पिता हवाई विश्वविद्यालय में एक एक्सचेंज स्टुडेण्ट के रूप में गए हुए थे. वहां उनकी मुलाक़ात एक सुन्दरी से हुई. उसी मुलाक़ात और निकटता की परिणति हुई ओबामा के जन्म के रूप में. ओबामा की मां का परिवार कैनसस से हवाई गया था. ओबामा जब महज़ दो साल का था तभी उसके पिता हारवर्ड चले गए, और फिर लगभग दस बरस बाद लौटे, मात्र एक माह के लिए. बाद में यह पता चला कि ओबामा के पिता की एक पत्नी और कुछ बच्चे पहले से ही अफ्रीका में थे. हारवर्ड में उन्हें तीसरी पत्नी मिली, जिससे कई बच्चे और हुए. ओबामा ने अपनी ज़िन्दगी के कई बरस इण्डोनेशिया में मां और इण्डोनेशियाई सौतेले पिता के साथ बिताए. जब उनकी मां पढाई के लिए समुद्र पार चली गई तो वे अपने नाना-नानी के साथ भी रहे.
ओबामा के पिता चुस्त और महत्वाकांक्षी थे. जीवन के प्रारम्भिक दौर में वे खासे सफल भी रहे लेकिन बाद में अपने अपरिपक्व व्यवहार की वजह से वे केन्याई तानाशाही की आंखों की किरकिरी बन गए. उन्होंने नौकरी खोई और ब्लैकलिस्ट हुए. इन आघातों ने उन्हें पियक्कड बना दिया. बाद में जब केन्या में नया निज़ाम आया तो उनके बुरे दिन खत्म हुए लेकिन तब तक परिवार टूट-बिखर चुका था.
ओबामा को ये सारी बातें बाद में ही पता चलीं. स्वाभाविक था कि उनके मन में अपने पिता की जो आदर्श और प्रेरक छवि थी, वह इन बातों से ध्वस्त हुई. इसकी एक परिणति यह भी हुई कि ओबामा ने खुद को शिकागो के एक सामुदायिक संगठन के कामों में डुबो लिया. अपनी तरह के लोगों के सुख दुख बांटने में उन्हें जीवन की सार्थकता नज़र आने लगी. तीन साल इस तरह बिताने के बाद ओबामा एक बार फिर केन्या लौटते हैं, अपने स्वर्गीय पिता की दुनिया में, अपने प्रामाणिक ‘स्व’ की खोज में. एक अश्वेत अमरीकी के रूप में वे अपने नित्यप्रति के क्रिया कलापों में अपनी पहचान पाते हैं. उन्हें पता चलता है कि केन्या में लगभग 400 जनजातियां हैं और हरेक में कुछ न कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो अन्य जन जातियों में भी हैं. ओबामा पाते हैं कि केन्या और शिकागो दोनों ही जगहों पर नस्लवाद, गरीबी और भ्रष्टाचार है. लेकिन इसी के साथ उन्हें अपने समुदाय में ऐसे लोग भी मिलते हैं जो ईमानदार और भले हैं तथा अपने लक्ष्यों के प्रति पूर्णत: समर्पित हैं.
किताब में फॉकनर को उधृत करते हुए ओबामा कहते हैं कि अतीत न तो कभी मरता है और न कभी दफ्न होता है. वह व्यतीत भी नहीं होता. अतीत इसी तरह वर्तमान का निर्माण करता है. यहां हम बहुत साफ देखते हैं कि किस तरह ओबामा के अतीत ने उसके वर्तमान को रचा है.
◙◙◙

Discussed book:
Dreams from My Father: A Story of Race and Inheritance
By Barack Obama
Published By: Three Rivers Press
Paperback: 480 Pages
US $ 14.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 28 फरवरी 2008 को प्रकाशित.








Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा

Thursday, February 21, 2008

देखन में छोटे लगे....

क्या मात्र छह शब्दों में कोई अपने पूरे जीवन का सार प्रस्तुत कर सकता है? क्या इतने कम शब्दों में एक पूरी कहानी कही जा सकती है? कभी जाने-माने कथाकार अर्नेस्ट हेमिंग्वे के सामने भी यह कठिन काम करने की चुनौती पेश की गई थी. उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप महज़ छह शब्दों में एक पूरी कथा कह दी थी. वे छह शब्द थे : “फोर सेल: बेबी शूज़, नेवर वोर्न” (बच्चे के अनपहने जूते बिकाऊ हैं). वैसे, हमारे अपने महाकवि बिहारी का भी सबसे बडा कौशल इसी बात में माना जाता है कि उन्होंने दोहा जैसे छोटे छन्द में बहुत बडी बात कही थी.

2006 में ऑन लाइन कथा पत्रिका स्मिथ ने अपने पाठकों और लेखकों के सामने फिर से यही चुनौती पेश की. उसने लोगों से उनके संस्मरण आमंत्रित किए. लेकिन एक शर्त थी. शब्द सीमा थी छह शब्दों की. और अब इस किताब के रूप में उन्हीं प्रविष्टियों में से लगभग एक हज़ार प्रविष्टियां हमारे सामने लाई गई हैं. इन्हें 32 श्वेत श्याम रेखांकनों ने और भी आकर्षक बना दिया है. स्मिथ पत्रिका के संस्थापक सम्पादक लॉरी स्मिथ मेन्स जर्नल के लेख सम्पादक, और याहू के एग्ज़ीक्यूटिव सम्पादक रह चुके हैं और उनके लेख न्यूयॉर्क टाइम्स, वायर्ड, पॉप्युलर साइन्स आदि में छपते रहे हैं. राशेल फर्शाइज़र स्मिथ पत्रिका की संस्मरण सम्पादिका हैं और अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती हैं. इन दोनों द्वारा सम्पादित नॉट क्वाइट व्हाट आई वाज़ प्लानिंग: सिक्स वर्ड मेमोयर्स बाइ राइटर्स फेमस एण्ड ओब्स्क्योर एक ऐसी किताब है जो एक साथ ही दिलचस्प भी है, मज़ाकिया भी, विचारोत्तेजक भी और यदा-कदा हास्यास्पद भी.
इस किताब के लेखकों में (अगर उन्हें लेखक कहा जा सके, क्योंकि उनमें से हरेक के लिखे महज़ छह शब्द ही तो यहां हैं) प्रसिद्ध लेखक हैं, कम प्रसिद्ध लेखक हैं और आम पाठक भी हैं. इन सबको एक साथ पढने के बाद लगता है कि हमने मानवता की गंगा में डुबकी लगा ली है. यहां उल्लास भी है, अवसाद भी. निराशा है तो आशा भी. जितने भी मनोभाव हो सकते हैं वे सब यहां एक साथ सुलभ हैं. इतने अल्प शब्दों में जो बात कही गई है, उसका हिन्दी अनुवाद अपने आप में कम चुनौती पूर्ण नहीं है. अनुवाद में छह शब्द घट-बढ जाते हैं. नौ वर्षीया हाना डेविस ने लिखा, “कैंसर से अभिशप्त, दोस्तों से वरदानित” तो पत्रकार चक क्लोस्टरमेन ने आश्चर्य किया, “किसी ने परवाह नहीं की. फिर की. क्यों?” जैक नेल्सन ने कहा, “मैं अबभी दो केलिए कॉफी बनाता हूं” तो एक अन्य ने अपने खट्टे-मीठे प्रणय को इन शब्दों में अभिव्यक्त किया, “मिला सच्चा प्यार, दूसरे से शादी करके”. लेखक जॉयस केरॉल ओट्स ने इसी बात को कुछ दूसरे अन्दाज़ में कहा, “सबसे अच्छा बदला: तुम्हारे बिना बेहतर ज़िन्दगी” . नोरा एफ्रॉन ने सलाह दी, “जीवन का रहस्य: शादी करो इतालवी से” तो ए जे जेकब ने अपने पूरे जीवन को इस तरह बयान किया: “गंजा जन्मा, बाल उगे, फिर गंजा.”
किताब में केवल लेखकों के ही आत्म कथ्य नहीं हैं, जीवन के विविध क्षेत्रों के जाने-माने हस्ताक्षर यहां मौज़ूद हैं. विदूषक स्टीफेन कोलबर्ट कहते हैं, “मेरा खयाल है कि यह मज़ाकिया है” तो बिल क्वेरेंगेस्सर ने मज़ेदार उक्ति दी है, “सत्तर बरस, कम आंसू, बालदार कान”. अलाना शुबाख का निष्कर्ष है: “रक्षक ग्रंथि अनेक निराशाओं की जनक” तो सेबस्टियन जंगर का कहना है, “मैंने पूछा, उन्होंने बताया, मैंने लिखा.” अब बतायें, भला लेखन की इससे संक्षिप्त व्याख्या और कुछ भी हो सकती है? अगर यह अपर्याप्त लगे तो मार्था गार्वे की सलाह सुन लीजिए: “सेक्स पर लिखो, प्यार को सीखो”.
किताब को पढते हुए लगता है कि ज़िन्दगी को महज़ छह शब्दों में बयान करने की चुनौती दिलचस्प भी है, शिक्षाप्रद भी. यह किताब लगभग उसी समय प्रकाशित हुई है जब हमारे अपने देश भारत में नन्ही कार नैनो की चर्चा है. ये नैनो संस्मरण भी उससे कम आकर्षक नहीं हैं. कहना अनावश्यक है कि किताब को पढते-पढते हम भी अपने छह शब्द बुनने-चुनने लगते हैं. अगर मुझे भी मात्र छह शब्दों में इस किताब पर टिप्पणी करनी हो तो मेरे छह शब्द होंगे : “पढें, मज़ा लें, पढायें, बार-बार”.


◙◙◙

Discussed book:
Not Quite What I Was Planning: Six-Word Memoirs by Writers Famous and Obscure
By Larry Smith and Rachel Fershieiser
Published by Harper Perennial
Paperback, 240 Pages
US $ 12.00








Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा

Friday, February 15, 2008

दर्द के पीछे की खूबसूरती

सारी दुनिया में अनगिनत लोग ऐसे रोगों से पीडित हैं जिनका कोई इलाज़ नहीं है. अकेले अमरीका में हर दिन 9 करोड लोग ऐसी बीमारियों से जूझते हैं.. ऐसी बीमारियों के बारे में जब भी कोई बात होती है, हम रोग के लक्षणों के बारे में चर्चा करके रह जाते हैं. शायद ही कभी ऐसा होता हो कि हम उन इन्सानों की ज़िन्दगी में भी झांक पाते हों जो रोज़-रोज़ इन रोगों की असहनीय वेदनाओं से आहत होते हैं और फिर भी जीते रहते हैं. एक ऐसी दुनिया में जहां सामान्यता का उत्सव मनाया जाता है, व्हील चेयर पर या छडी के सहारे ज़िन्दगी गुज़ारना कैसा होता है? 2003 में प्रकाशित बेस्ट सेलर पुस्तक ब्लाइण्डसाइडेड के लेखक रिचार्ड एम कोहेन ने अपनी सद्य प्रकाशित किताब स्ट्रोंग एट द ब्रोकन प्लेसेस: वॉइसेस ऑफ इलनेस, अ कोरस ऑफ होप में पांच ऐसे लोगों की ज़िन्दगी की परतें खोली हैं जो हालांकि उम्र, लिंग, नस्ल और आर्थिक स्तर के लिहाज़ से एक दूसरे से नितांत भिन्न हैं, साहस, मज़बूत इरादों और जिजीविषा के लिहाज़ से समान हैं. वैसे, लेखक खुद भी एक गम्भीर स्नायविक रोग मल्टीपल स्क्लेरोसिस से ग्रस्त है.
आइए, इन पांच महानायकों से हम भी मिलें!
डेनिस ग्लास एक असाध्य न्यूरो डीजेनेरेटिव रोग ए एल एस से ग्रस्त है. उसके लिए बोल पाना तक सुगम नहीं रह गया है. वह अपनी गर्दन भी ठीक से नहीं उठा पाता है. लेकिन, बिना आत्मदया का शिकार हुए, अपने परिवार से अलग रह कर वह इस रोग से लडा रहा है. किताब का दूसरा महानायक 46 बरस का बज़ बे अपेक्षाकृत अधिक प्राणघातक नॉन हॉजकिंस लिम्फोमा (कैंसर) से पीडित है और सामने खडी मौत को देख कर भी उम्मीद का दामन छोडने को तैयार नहीं है. वह मानता है कि अपने सकारात्मक सोच से 98% लडाई जीती जा सकती है. अपनी इस अति गम्भीर बीमारी के बावज़ूद वह एक होसपाइस वालण्टियर के रूप में अपनी सेवाएं देता है.
किताब के तीसरे महानायक 18 साल के बेन कम्बो के लिए व्हील चेयर उसकी बेडी भी है, मुक्तिदात्री भी. जब वह तीन साल का था तभी पता चला कि उसे मस्क्यूलर डायस्ट्रोफी नाम का रोग है जिससे मांसपेशियां बहुत कमज़ोर हो जाती हैं. इस रोग का कोई इलाज़ नहीं है. लेकिन, बावज़ूद इस सचाई के, बेन रोग के साथ लडते हुए अपनी पढाई जारी रखे हुए है. किताब की चौथी चरित्र 28 साल की सारा लेविन पाचन नली की क्रोहन्स डिसीस से बुरी तरह ग्रस्त है. लेकिन फिर भी वह बच्चों के एक प्रयोगात्मक स्कूल में अपनी सेवाएं देने में कोई कोताही नहीं बरततीं. उनकी बडी आंत निकाली जा चुकी है और शेष बची ऊपरी पाचन नली बुरी तरह क्षत विक्षत है. पेट में लगातार रक्त-स्राव होता रहता है. कुछ भी ठीक नहीं है, सिवा उनके साहस के, जो एकदम अडिग और अविचल है. यह सारा की जिजीविषा ही है कि उसने 2007 में विवाह भी कर लिया. बाइपोलर डिस ऑर्डर से ग्रस्त लारी फ्रिक्स ने 80 के दशक का काफी वक़्त मनोरोग चिकित्सालय में गुज़ारा और अपने उन्माद के दौरों पर काबू पाने के लिए शराब का सहारा तक लिया. उन पर मनोरोगी होने का ठप्पा लग चुका है, लेकिन वे हैं कि इस कलंक को झुठलाते हुए एक मानसिक स्वास्थ्य कर्मी के रूप में अपनी सेवाएं प्रदान करने को अपनी ज़िन्दगी की सबसे बडी सार्थकता मानते हैं.
लेखक कोहेन ने इन पांच असाधारण लोगों की ज़िन्दगी को नज़दीक से देखने-परखने में तीन साल खर्च किए. कोहेन के शब्दों में, ये ‘रोगों के नागरिक’ हैं. उसका कहना है कि अलग-अलग पृष्टभूमि के बावज़ूद दर्द के साथ इनका रिश्ता समान है और इन सबका सन्देश भी एक ही है. इनका सन्देश है आत्मिक दृढता का, विषम स्थितियों में भी हौंसला बनाए रखने का, कठिनतम परिस्थितियों में शांत बने रहने का और अपने शेष बचे जीवन को दूसरों के लिए काम में लेने का. कोहेन का कहना है, हम जहां टूटते हैं, वहीं सबसे ज़्यादा मज़बूत भी होते हैं. अपनी उम्मीद से भी ज़्यादा! बीमारियों की आवाज़ों के बीच से आशा का समूहगान सुनवाने वाले कोहेन को यह उम्मीद है कि इस किताब को पढने के बाद वे लोग जो ऐसे ही असाध्य रोगों से जूझ रहे हैं, या उनके शुभाकांक्षी, महसूस करेंगे कि अपने संघर्ष में वे अकेले नहीं हैं.
◙◙◙

Discussed book:
Strong at the Broken Places: Voices of Illness, a Chorus of Hope
By Richard M. Cohen
Published by Harper
Pages 352, Hardcover
US $ 24.95




Thursday, February 7, 2008

जीवन का तर्क : अर्थशास्त्र के माध्यम से






Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा
अर्थशास्त्र को प्राय: एक मनहूस विज्ञान कहा जाता रहा है. गैर अर्थशास्त्री इसे नीरस, अमूर्त और एक हद तक अनुपयोगी ज्ञान-शाखा मानते हैं. लेकिन हाल के वर्षों में अर्थशास्त्रियों ने अपने लेखन से इन धारणाओं को बदलने के प्रयास किए हैं. फ्रीकोनोमिक्स के रूप में किए गए एक ऐसे ही प्रयास में अर्थशास्त्र को अधिक रुचिकर रूप में प्रस्तुत किया गया था. उसके बाद तो जैसे दिलचस्प किताबों की एक श्रंखला ही बन गई. यहां तक कि स्पोर्ट्स अर्थशास्त्र पर भी दो किताबें आ गईं. अर्थशास्त्र विषयक दिलचस्प किताबों की श्रंखला में जुडी ताज़ा कडी है टिम हार्फर्ड की द लॉजिक ऑफ लाइफ: द रेशनल इकॉनोमिक्स ऑफ एन इर्रेशनल वर्ल्ड.

हार्फर्ड की इस दिलचस्प किताब का प्रस्थान बिन्दु यह विचार है कि इंसान इंस्ट्रुमेंटल रेशनलिटी (करणात्मक बुद्धिसंगतता) का इस्तेमाल करते हुए लागत और लाभ की गणना कर अपने जीवन के फैसले करता है. हार्फर्ड कहते हैं कि रेशनल लोग इंसेण्टिव्ज़ से परिचालित होते हैं. अगर उन्हें कोई काम महंगा लगता है तो वे उसे कम करते हैं और अगर सस्ता व अधिक लाभप्रद लगता है तो ज़्यादा करते हैं. जब कोका कोला की कीमत बढती है तो लोग पेप्सी ज़्यादा पीना शुरू कर देते हैं. जब शहरों में अपार्टमेण्ट्स की कीमतें बढती हैं तो लोग उपनगरों का रुख करने लगते हैं. इस तर्क को आगे बढाते हुए हार्फर्ड उन बहुत सारे मुद्दों पर विचार करते हैं जो सामान्यत: अर्थशास्त्र की परिधि में नहीं आते. जैसे, विवाह, नशे और जुए की लत, आपके बॉस को बहुत ज़्यादा तनख्वाह क्यों मिलती है, पडोसियों का पृथ्क्करण, अपराध का अर्थशास्त्र आदि. ज़ाहिर है, किताब बहुत व्यापक क्षेत्र में विचरण कर यह सिद्ध करती है कि अर्थशास्त्र एक बहुमुखी ज्ञान-शाखा है.

अपनी बात कहने के लिए हार्फर्ड जीवन के ऐसे अनेक प्रसंग लाते हैं जो ऊपरी तौर पर बुद्धिसंगत नहीं लगते. आखिर किसी का ड्रग लेना, असुरक्षित यौन सम्बन्ध स्थापित करना वगैरह बुद्धि संगत कैसे हो सकता है? प्रेम या तलाक़ के पीछे भला क्या आर्थिक तर्क हो सकते हैं? सच तो यह है कि हमारा पूरा जीवन ही एक अबूझ पहेली है. एक बस्ती बहुत विकसित हो जाती है और उसके ठीक बगल वाली अविकसित रह जाती है. एक निकम्मा आदमी जीवन की तमाम सीढियां चढ कर जाने कहां पहुंच जाता है! इन और ऐसी अनेक गुत्थियों को टिम हार्फर्ड सुलझाते हैं. वे एक ही बात कहते हैं – हमारे हर कृत्य के पीछे किसी न किसी इंसेण्टिव का हाथ होता है.
हार्फर्ड ने अपनी इस किताब में वैवाहिक सम्बन्धों पर भी अर्थशास्त्र के नज़रिए से विचार किया है. अर्थशास्त्री गेरी वेबर के हवाले से वे कहते हैं कि विवाह समबन्धों के मूल में भी तीन आर्थिक ताकतों की अंत:क्रिया देखी जा सकती है: श्रम विभाजन, माप तोल की अर्थ व्यवस्था और तुलनात्मक लाभ का आकलन. गेरी स्त्री-पुरुष के बीच पारम्परिक श्रम विभाजन की चर्चा करते हुए एक मज़ेदार बात यह कहते हैं कि पुरुष आजीविका अर्जन का काम इसलिए नहीं करता कि वह यह काम बेहतर तरीके से कर सकता है, वह यह काम इसलिए करता है कि गृह प्रबन्धन का काम अगर वह करेगा तो ज़्यादा ही खराब तरह से करेगा.

हार्फर्ड जब आज के वैवाहिक परिदृश्य का विश्लेषण करते हैं तो वे कुछ विचारोत्तेजक तथ्य भी सामने लाते हैं. स्वाभाविक है कि ये तथ्य पश्चिमी दुनिया से हैं. वे कहते हैं कि आज औरतें कामकाजी केवल इसीलिए नहीं होती जा रही हैं कि उन्हें इसमें मज़ा आता है या इससे उन्हें खर्च करने की आज़ादी मिलती है. वे काम इसलिए भी करती हैं कि आज उनके सामने तलाक़ के खतरे बढ गए हैं. इसलिए, हार्फर्ड का तर्क है कि, आज बढते तलाकों के मूल में प्रेम के मनोविज्ञान में आ रहा बदलाव नहीं बल्कि परिस्थितियों के प्रति बुद्धिसंगत प्रतिक्रिया है. आज की औरत के प्रति अधिक संवेदनशील होते हुए हार्फर्ड कहते हैं कि अधिक शक्तिशाली पदों पर स्त्री की पहुंच ने आज उसे यह आज़ादी दी है कि अगर उसके वैवाहिक रिश्ते ठीक-ठाक न हों तो वह तलाक़ ले ले, और इसके उलट यह भी कि तलाक़ का यह विकल्प शक्तिशाली सेवाओं में स्त्रियों की भागीदारी में इज़ाफा कर रहा है.

यह अर्थशास्त्र की ऐसी किताब है जो आंकडों या समीकरणों की बजाय व्यक्तियों के माध्यम से अपनी बात कहती है. हार्फर्ड का सन्देश बहुत स्पष्ट है. अगर आप अपनी दुनिया को समझना या बदलना चाहते हैं तो पहले उन बुद्धिसंगत विकल्पों को समझिए जिन्होंने इसे इसकी मौज़ूदा शक्ल बख्शी है.
◙◙◙


Discussed book:
The Logic of Life: The Rational Economics of an Irrational World
By Tim Harford
Published by Random House
Hardcover, 272 pages
US $ 25.00
राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 07 फरवरी 2008 को प्रकाशित

Wednesday, February 6, 2008

उलझा-उलझा है भाषाई परिदृश्य

सन्दर्भ : अंतर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष
18 मई 2007 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने एक प्रस्ताव पारित कर वर्ष 2008 को अंतर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा की. विश्व संस्था का यह निर्णय उसके इस सोच को पुष्ट करता है कि भाषाओं की असल बहुलता के द्वारा ही अनेकता में एकता की रक्षा और अंतर्राष्ट्रीय समझ का विकास सम्भव है. इसी सन्दर्भ में यूनेस्को के महानिदेशक मात्सुरा कोईचोरो का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि भाषाओं की जितनी अहमियत वैयक्तिक अस्मिता के लिए है उतनी ही शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के लिए भी है. उनके कथन की महता इस बात से और भी बढ जाती है कि यूनेस्को को ही अंतर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष विषयक गतिविधियों के समन्वय का दायित्व सौंपा गया है. हम भी अगर भाषाओं की महत्ता पर विचार करें तो पाएंगे कि साक्षरता और शिक्षा की तो कोई कल्पना ही भाषा के बिना समभव है. आखिर शिक्षक भाषा के बिना अपनी बात कह ही कैसे सकता है?
अगर हम भाषाओं के महत्व पर थोडी और गहराई से विचार करें तो पाते हैं कि व्यक्तियों और समूहों की पहचान बनाये रखने में भी भाषाओं की बडी भूमिका होती है. सांस्कृतिक वैविध्य की कोई भी परिकल्पना भाषाई विविधता के बिना असम्भव है. लेकिन, बावज़ूद इस सच्चाई के, दुखद तथ्य यह है कि दुनिया में बोली जा रही लगभग सात हज़ार भाषाओं में से आधी से अधिक तो आगामी कुछ सालों में ही विलुप्त हो जाने वाली है. 1996 में पहली बार प्रकाशित ‘विलुप्त होने के कगार पर दुनिया की भाषाओं का एटलस’ में इस समस्या को बखूबी उभारा गया है. यह भी एक दुखद तथ्य है कि अभी हमने जिन सात हज़ार भाषाओं का ज़िक्र किया उनमें से एक चौथाई से भी कम का प्रयोग स्कूलों वगैरह में होता है और हज़ारों भाषाएं ऐसी हैं जो वैसे तो दुनिया की आबादी के एक बडे हिस्से की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में शरीक हैं लेकिन शिक्षा व्यवस्था, संचार तंत्र, प्रकाशन जगत आदि से पूरी तरह अनुपस्थित हैं. शायद यही वजह है कि यूनेस्को के महानिदेशक ने कहा है कि इस मुद्दे पर गहनता से विचार करते हुए हमें एक ऐसी भाषा नीति की तरफ बढना चहिए जो प्रत्येक भाषाई समूह को इस बात के लिए प्रेरित करे कि वह प्रथम भाषा के रूप में अपनी मातृ भाषा का व्यापकतम प्रयोग तो करे ही, साथ ही किसी क्षेत्रीय अथवा राष्ट्रीय भाषा को भी सीखे और अगर सम्भव हो तो एक या अधिक अंतर्राष्ट्रीय भाषा का भी ज्ञान प्राप्त करे. उन्होंने यह भी सलाह दी है कि एक वर्चस्वशाली भाषा के प्रयोक्ताओं को किसी अन्य क्षेत्रीय या राष्ट्रीय भाषा को भी सीखना चाहिए. आखिर भषाओं की बहुलता के द्वारा ही तो सभी भाषाओं के अस्तित्व की रक्षा की जा सकेगी.
संयुक्त राष्ट्र संघ और उसके घटक यूनेस्को के ये विचार बहुत ही सदाशयतापूर्ण हैं. इनके पीछे की पवित्र भावनाओं से भी भला कोई असहमति हो सकती है? लेकिन हो गई. जहां दुनिया के ज़्यादातर देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के इस विचार का स्वागत करते हुए उसके साथ सहयोग करने का इरादा ज़ाहिर किया वहीं दुनिया के चौधरी अमरीका ने एक विवादी स्वर लगा दिया. विश्व संगठन में अमरीकी राजदूत ने बुश प्रशासन के इस दावे को आधार बनाते हुए कि भाषा कोई विज्ञान द्वारा पुष्ट तथ्य नहीं अपितु एक सिद्धांत मात्र है, और खुद राष्ट्रपति बुश यह मानते हैं कि ईश्वर ने मात्र छह दिनों में अंग्रेज़ी का निर्माण किया था, इस प्रस्ताव से अपनी असहमति की घोषणा कर डाली. अमरीका सरकार की असहमति के मूल में उसकी यह आशंका भी है कि उसके किसी बहु-देशीय संधि में शरीक होने से दुनिया में अंग्रेज़ी के प्रसार को अघात पहुंचेगा. और इस नेक इरादे से अपनी असहमति ज़ाहिर करने वाला अमरीका अकेला देश नहीं है. यूनेस्को में अरबी बोलने वाले प्रतिनिधियों ने भी इसी तरह हिब्रू का विरोध कर इस प्रस्ताव की क्रियान्विति में अडंगा लगाया. और ऐसा ही कुछ किया कोरियाई प्रतिनिधियों ने भी.
वैसे, अगर अतीत की तरफ झांकें तो हम पाते हैं कि भाषाओं के मामले में खुद संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका भी प्रशंसनीय नहीं रही है. जब चीन में दूसरी भाषाओं को कुचला जा रहा था तो संयुक्त राष्ट्र संघ मौन दर्शक था. जब पाकिस्तान में जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने सिंधी बोलने वालों को देखते ही गोली मार देने के आदेश दिये तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने किसी हस्तक्षेप की ज़रूरत नहीं समझी. ऐसा ही उसने फ्रांस द्वारा अंग्रेज़ी पर रोक के वक़्त भी किया. वैसे भी, जिस संयुक्त राष्ट्र संघ के देखते-देखते यूरोपीय संघ अपनी 23 आधिकारिक भाषाओं के बावज़ूद अपना ज़्यादा काम अंग्रेज़ी में करता है, और खुद यह विश्व संगठन लगभग सारा ही काम अंग्रेज़ी में करता है, वही जब भाषाओं की बहुलता की बात करता है तो आश्चर्य होता है.
लेकिन अगर आप आशावादी हों, और किसी की नीयत पर सन्देह करने के शौकीन न हों तो यह भी सोच सकते हैं कि सुबह का भूला संयुक्त राष्ट्र संघ अब शाम को घर लौट रहा है. वह कम से कम अब तो अंग्रेज़ी के दिग्विजय अभियान को रोकना चाहता है. यूनेस्को ने तो यह भी कहा है कि वह दुनिया की उन गडबडी वाली जगहों पर अपने नीले हेलमेट वाले संयुक्त राष्ट्रीय भाषाई रक्षक तैनात करेगा जहां जबरन दूसरी भाषाओं का दमन किया जाता है, जैसे आयरलैण्ड में जहां हालांकि सरकारी भाषा आयरिश है लेकिन नये नागरिकों पर बलात अंग्रेज़ी लादी जा रही है.

इसी उथल-पुथलभरे वैश्विक परिदृश्य के साथ ही आइये, ज़रा भारत के भाषाई परिदृश्य का भी जायज़ा ले लें. संविधान ने हमारे यहां दो राज भाषाओं – हिन्दी और अंग्रेज़ी- को मान्यता दे रखी है. इनके अलावा संविधान की आठवीं अनुसूची में 18 और भाषाएं भी सूचीबद्ध हैं. राजस्थानी जैसी महत्वपूर्ण भाषा अभी भी इस अनुसूची में प्रवेश पाने के लिए संघर्षरत है. इनके अलावा, 418 और ऐसी सूचीबद्ध भाषाएं हैं जिनमें से प्रत्येक के बोलने वालों की संख्या कम से कम दस हज़ार है. हमारा सरकारी रेडियो – आकाशवाणी 24 भाषाओं और 146 बोलियों में प्रसारण करता है. कम से कम 34 भाषाओं में हमारे यहां अखबार छपते हैं और 67 भाषाओं में प्राथमिक शिक्षा दी जाती है. संविधान सभी नागरिकों को उनकी भाषा के संरक्षण का अधिकार देते हुए सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी रुचि की शैक्षिक संस्था चुनने का अधिकार प्रदान करता है. लेकिन ये सारे तथ्य और आंकडे उस वक़्त किताबी लगते हैं जब हम यह देखते हैं कि बहु भाषा भाषी हमारे देश में ही कम से कम 1600 भाषाएं और बोलियां ऐसी हैं जिन्हें लोग अपनी मातृ भाषा के रूप में तो प्रयुक्त करते हैं लेकिन जिन्हें किसी भी तरह का वैधानिक या सरकारी संरक्षण प्राप्त नहीं है.
भाषाई आधार पर हुए राज्यों के पुनर्गठन पर अब भी सवालिया निशान लगाए जाते हैं. इसी के साथ भाषाओं को लेकर हुए हिंसक विवादों को भी भुलाया नहीं जा सकता. दक्षिण के कतिपय इलाकों में हुआ हिन्दी का तथाकथित उग्र विरोध और एक दूसरे समय में उत्तर भारत में तेज़ी से फैला अंग्रेज़ी हटाओ आन्दोलन आज भी लोगों की स्मृतियों में है. भाषाओं को लेकर वैसा उत्तेजक माहौल आज भले ही न हो, जानने वाले जानते हैं कि आज भारत में हर बडी भाषा अपनी से छोटी भाषा का अधिकार छीन-हडप रही है. ऐसा करने में शीर्ष पर है अंग्रेज़ी. कहने को यह देश की दो राज भाषाओं में से एक है लेकिन कभी-कभी लगता है कि असल राज भाषा तो यही है. इस देश में अंग्रेज़ी जाने बगैर आपका कोई अस्तित्व ही नहीं है. कोई छोटी से छोटी सरकारी नौकरी आपको अंग्रेज़ी ज्ञान के बगैर नहीं मिल सकती. जबकि दूसरी राजभाषा हिन्दी के साथ ऐसा नहीं है. अगर आप हिन्दी नहीं भी जानते हैं तो कोई बात नहीं. बल्कि बहुतों के लिए तो हिन्दी न जानना गर्व का कारण होता है. इधर वैश्वीकरण और उदारीकरण के चलते और दुनिया के सपाट होते जाने के कारण अंग्रेज़ी का वर्चस्व और बढता जा रहा है. रही सही कसर सूचना प्रौद्योगिकी ने पूरी कर दी है. लोगों ने मान लिया है कि वहां तो अंग्रेज़ी के बिना काम चल ही नहीं सकता, और बिना सूचना प्रौद्योगिकी के आज की दुनिया में जीना बेकार है. हालांकि दोनों ही बातें सच से बहुत दूर हैं. सूचना प्रौद्योगिकी में हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में काम करने की भी पूरी सुविधाएं हैं, और भारत जैसे धीमी गति और संतोषी मानसिकता वाले देश में द्रुतगामी सूचना प्रौद्योगिकी जीवन शैली का हिस्सा बनेगी, इसमें अभी काफी वक़्त लगेगा.
लेकिन अंग्रेज़ी हमारे मन मष्तिष्क पर बुरी तरह हावी है. हमारे फिल्मी सितारे काम भले ही भाषाई फिल्मों में करें, बात अंग्रेज़ी में ही करना पसन्द करते हैं. नेता लोग चुनाव के वक़्त भले ही हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाएं काम में ले लें, अपने प्रभाव स्थापन के लिए टूटी-फूटी और हास्यास्पद ही सही अंग्रेज़ी बोलने की कोशिश करते दिखाई सुनाई देते हैं. समाज का प्रभु वर्ग अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम वाले स्कूलों में ही भेजता है. यहां तक कि जो लोग परम्परा, धर्म, संस्कृति वगैरह की कमाई खाते हैं वे भी अपने बच्चों का भविष्य अंग्रेज़ी में ही देखते हैं. निश्चय ही यह मनोवृत्ति हिन्दी सहित तमाम देशी भाषाओं के लिए घातक सिद्ध हो रही है. इनका विकास अवरुद्ध हो रहा है, और इनके प्रयोक्ताओं की संख्या निरंतर घटती जा रही है. हिन्दी की स्थिति तो फिर भी ठीक है, लेकिन जिन भाषाओं या बोलियों को बोलने वाले कम हैं उनके अस्तित्व पर मण्डराते खतरों को साफ देखा जा सकता है.
ऐसे में एक तरफ जहां संयुक्त राष्ट्र संघ की इस सदाशयता पूर्ण पहल का महत्व समझ में आता है वहीं दूसरी तरफ लुप्त होती जा रही भाषाओं की स्वाभाविक परिणति सांस्कृतिक वैविध्य की क्षति चिंतित भी करती है. चिंताजनक बात यह भी है आज भाषाएं किसी के भी एजेण्डा में नहीं हैं. कहीं हम भाषा विहीन भविष्य की तरफ तो नहीं बढ रहे हैं?
◙◙◙






Sunday, February 3, 2008

जोडने वाला पुल

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


भारत में रहकर इतना पता नहीं चलता कि तकनीक किस तरह और किस हद तक आपके जीवन को बदल रही है, जबकि परिवर्तन वहां भी कम नहीं हुए हैं. मेरी पीढी के लोगों की स्मृति में वह ज़माना ताज़ा ही है जब टेलीफोन एक विलासिता की चीज़ हुआ करता था और उसके बदसूरत काले चोगे को उठाकर दूसरी तरफ से आने वाली ऑपरेटर की ऊबी हुई, कर्कश आवाज़ में 'नम्बर प्लीज़' की प्रतीक्षा करनी होती थी. प्रतीक्षा इसलिए कि यह क़तई ज़रूरी नहीं था कि ड्यूटी के समय भी ऑपरेटर महोदय/महोदया अपनी सीट पर हों ही. उनका चाय पान या गप्प गोष्टी में व्यस्त होना अपवाद से अधिक नियम ही हुआ करता था, और तब बन्दा कर भी क्या सकता था इंतज़ार करने के सिवा. उस ज़माने में, जो अभी भी ज़्यादा पुराना नहीं हुआ है, यह भी आम ही था कि आप डाकतार विभाग के पीसीओ में जाकर ट्रंक काल बुक करवाते थे और आपका कॉल 6-8-10-20 घण्टे में लगता था, नहीं भी लगता था. तब संचार का मुख्य माध्यम चिट्ठियां हुआ करती थीं. टेलीग्राम तो किसी इमर्जेंसी में ही दिया जाता था. 'तार वाला' सुनते ही कलेजा धक्क से बैठ जाया करता था, कहीं कोई बुरी खबर न हो! और इस बात को भी कितने दिन बीते हैं कि टीवी का केवल एक ही चैनल हुआ करता था, वह भी श्वेत-श्याम, और उस पर कृषि दर्शन जैसे विकासात्मक कार्यक्रमों के बीच एकमात्र आकर्षण हुआ करता था सप्ताह में एक या दो बार आने वाला चित्रहार. और ऐसी ही कितनी ही बातें. कितनी तेज़ी से बदला है हमारा चतुर्दिक !

लेकिन भारत से अमरीका आकर, यहां की ज़िन्दगी देख कर लगा कि अभी तो बहुत कुछ बदलना शेष है हमारे यहां. ऐसा नहीं है कि हम पिछड़े हुए हैं, हमने तरक्की नहीं की है. मैं तो मात्र यह कहना चाह रहा हूं यहां बहुत कुछ ऐसा है जो अभी हमारे यहां नहीं है. चाहें तो यह समझ लें कि तकनीक के लिहाज़ से हमारी तरक्की की रफ्तार धीमी है. यह अमरीका में ही पता चलता है कि तकनीक ने किस तरह लोगों की ज़िन्दगी को बदला है.
इस लेख में मेरा लक्ष्य सारे तकनीकी परिवर्तनों को सूचीबद्ध या चिह्नित करना नहीं है. न तो यह सम्भव है और न मैं इसके लिए योग्य हूं. मैं तो केवल इतना कर रहा हूं कि अमरीका में तकनीक के क्षेत्र में जो मुझे अच्छा व नया लगा, उसका वर्णन कर रहा हूं. तकनीक के साथ जो दूसरे बहुत सारे मुद्दे जुड़े हुए हैं उनके विस्तार में जाने का का यह उपयुक्त स्थान नहीं है, इसलिये उन पर चर्चा फिर कभी.

पिछले तीन-चार दशकों में कम्प्यूटर ने सारी दुनिया में बड़े और क्रांतिकारी बदलाव किए हैं. अब यही देखिये कि भारत में ही यह किसने सोचा था कि आप जैसलमेर में बैठकर जमशेदपुर से कन्याकुमारी तक का रेल आरक्षण करवा सकेंगे? यह कल्पना अब एक ऐसी हक़ीक़त बन गई है कि किसी का इस पर ध्यान तक नहीं जाता. यह कमाल कम्प्यूटर और इण्टरनेट का है. बावज़ूद इसके कि भारत में अभी भी कम्प्यूटर आम नहीं खास ही है और इण्टरनेट की गति अभी भी बैल गाड़ी वाली ही है. यहां अमरीका में और वह भी माइक्रोसॉफ्ट के मुख्यालय वाले शहर रेडमंड (सिएटल) में और यहां भी सॉफ्टवेयर इंजीनियर्स के साथ रहते हुए कम्प्यूटर और इण्टरनेट के जो उपयोग देखे उनसे मैं एक साथ ही चकित और आह्लादित दोनों ही हुआ. यह जैसे हमारे आने वाले कल की एक झलक थी मेरे लिये.

यहां कागज़-कलम तो जैसे अब अजायबघर की चीज़ हो गए हैं. सारा ही काम कम्प्यूटर पर हो जाता है. अगर कभी लिखने की तलब भी हो तो डिजी पेन (Digi-pen) से कम्प्यूटर के स्क्रीन पर ही लिख लिया जाता है. आपको दफ्तर छुट्टी की अर्जी भेजनी है, ई-मेल कर दिया. पार्टी का निमंत्रण देना, उस निमंत्रण को स्वीकार-अस्वीकार करना है, ई मेल सेवा चौबीसों घण्टे हाज़िर है. डाकिये की प्रतीक्षा बीते ज़माने की बात हो गई है. घर का सारा हिसाब-किताब, सारा रिकार्ड, सारे दस्तावेज़ों की शरणगाह कम्प्यूटर है. इस कम्प्यूटर ने आपकी स्मृति से बहुत सारा दायित्व लेकर अपने ऊपर ओढ़ लिया है. मित्रों-रिश्तेदारों के जन्म-दिन वगैरह आप क्यों याद रखें? कम्प्यूटर जी हैं न आपकी इस सेवा के लिये. बल्कि, आप अगर चाहें तो साल-छह महीने पहले ही, जब भी आपको फुर्सत हो, ई-कार्ड ही कम्प्यूटर में फीड करके रख दें. कम्प्यूटर स्वतः यथासमय उन्हें प्रेषित कर देगा. वह आपको यह भी बता देगा कि आपका कार्ड कब देखा गया.

दरअसल अमरीका में कम्प्यूटर विलासिता या सुविधा की चीज़ न रहकर ज़रूरत की चीज़ बन गया है. नित नए शोध और त्वरित विकास के कारण उसकी कीमत भी अब आम आदमी की पहुंच से बाहर नहीं रह गई है. ऊपर से इंटरनेट की सुलभता व तेज़ गति. वस्तुतः इण्टरनेट की जितनी तेज़ गति यहां है उसकी भारत में रहकर कल्पना भी नहीं होती. सोने पर सुहागा, वायरलेस कनेक्टिविटी (Wireless connectivity) यानि बिना तार के ही इण्टरनेट से जुड़ जाने की सुविधा. यह पूरा सिएटल शहर ही वायरलेस इण्टरनेट युक्त है. यानि आप अपना लैप टॉप लेकर शहर में कहीं भी इण्टरनेट का इस्तेमाल कर सकते हैं. अलबत्ता इसकी कीमत चुकानी पड़ती है. कीमत क्रेडिट कार्ड के माध्यम से ऑन लाइन ही चुका दी जा सकती है. परिणाम यह कि पार्कों में, रेस्तराओं में, शॉपिंग मॉल्स में, पिकनिक स्थलों पर, हवाई अड्डों पर - हर कहीं लोग अपने-अपने लैप टॉप्स पर काम करते नज़र आते हैं. यहां का काफी कुछ, कहें तो सब कुछ, इण्टरनेट पर है. आपको सिनेमा जाना है, नेट पर देख लें शो कितनी बजे शुरू होता है. यह भी कि थिएटर तक पहुंचने का रास्ता क्या है. टिकिट भी नेट पर ही खरीद लें. यहां ज़्यादातर चीज़ों के टिकिट नेट पर खरीदे जा सकते हैं. हम सिएटल से लास वेगस गए आए. वायुयान टिकिट खरीदने कहीं जाना नहीं पड़ा. इण्टरनेट पर ही काम हो गया. वहां के होटल की बुकिंग भी घर बैठे ही नेट से करवा ली. वैंकुवर (कनाडा) में भारतीय फिल्मी सितारों शाहरुख, रानी मुखर्जी, प्रीति ज़िण्टा, अर्जुन रामपाल वगैरह का एक शो देखने गए. टिकिट घर बैठे इण्टरनेट पर खरीदे और प्रिण्टर पर उनके प्रिण्ट निकाल लिए. इतना ही नहीं, घर पर ही यह भी देख लिया पचास हज़ार दर्शकों की क्षमता वाले उस कोलीज़ियम (थिएटर) में हमारी सीटें कहां होंगी. पूरा नक्शा नेट पर था. कनाडा की सड़कों वगैरह के भी विस्तृत मान-चित्र नेट पर थे. हम अपने घर, सिएटल, से कनाडा की सड़कों का पूरा मानचित्र नेट से उतार कर लेकर चले थे और उसी के सहारे बगैर एक भी जगह किसी से पूछे सीधे आयोजन स्थल पर ही पहुंचे.

दुकानों वगैरह में कम्प्यूटर का इस्तेमाल बहुत आम है. बल्कि इस कारण व्यापार-कर्म बहुत सुगम हो गया है. वैसे यह भारत में भी थोड़ा-बहुत हुआ है, खास तौर पर बड़े स्टोर्स में. पर यहां तो बहुत सारी खरीद-फरोख्त इण्टरनेट पर ही हो जाती है. इसमें दो-तीन बातों की बड़ी भूमिका को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए. व्यापार यहां एकदम साफ-सुथरा है. यानि जो माल बताया या प्रचारित किया गया है, हू-ब-हू वही आपको मिलेगा. कोई धोखा-धड़ी नहीं होगी. कोई झूठ-फरेब नहीं. मोल-भाव होता नहीं. और इसके बाद भी, पसन्द न आने पर माल वापस लौटाने की खुली सुविधा तो है ही. लोगों के पास समय की भी कमी है. फलतः इण्टरनेट पर व्यापार खूब फल-फूल रहा है. दुकानों में ग्राहकों की सुविधा के लिए भी अनेक कम्प्यूटर लगे रहते हैं.

अमरीका में कम्प्यूटर व इण्टरनेट की सफलता व लोकप्रियता में बहुत बड़ी भूमिका भाषा की भी है. पश्चिम में तकनीक की भाषा अंग्रेज़ी ही है, इसलिए यहां के लोगों को कोई असुविधा नहीं होती. भारत जैसे बहु भाषा-भाषी देश में, जहां अभी शिक्षा का भी ज़्यादा प्रसार नहीं हो पाया है, अंग्रेज़ी का कम्प्यूटर कैसे आम हो सकता है? ऐसा नहीं है कि कम्प्यूटर पर हिन्दीकरण के प्रयास ही नहीं हुए हैं. विश्व की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कम्पनी माइक्रोसॉफ्ट ने अपने बहुत सारे लोकप्रिय सॉफ्टवेयर्स के हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के संस्करण भी बाज़ार में उतारे हैं. पर वे अभी अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाए हैं. अलावा इसके कि खुद भारत के सरकारी तंत्र की कोई गहन रुचि भारतीय भाषाओं के प्रयोग को बढ़ावा देने में नहीं है, और इस कारण बाहर की दुनिया भी हमारी भाषाओं को तवज्जोह नहीं देती है, अन्य कई कारण भी हैं कि कम्प्यूटर पर भारतीय भाषाएं आम नहीं हो पा रही हैं. हिन्दी की ही बात लें. अभी तो हिन्दी का कोई मानक तथा सर्वमान्य कुंजी पटल ही नहीं है, हिन्दी फॉण्ट्स की परस्पर परिवर्तनीयता की दिक्कतें हैं, तकनीकी शब्दों के एकरूप हिन्दी पर्याय सुलभ नहीं हैं, आदि. फिर जो आदमी ज़रा-सा भी पढ़ा लिखा है वह भारतीय भाषा की बजाय अंग्रेज़ी का प्रयोग कर अपने 'शिक्षित' होने का परिचय देना चाहता है. ऐसे में कोई भी व्यावसायिक सॉफ्टवेयर कम्पनी भारतीय भाषाओं में सॉफ्टवेयर क्यों बनाए? इस तरह एक दुश्चक्र बन जाता है. अमरीका में इस तरह की दिक्कतें नहीं हैं. और भी बातें हैं. लोगों में परिष्कृत नागरिक बोध है. वे चीज़ों को तोड़ते-फोड़ते या विकृत नहीं करते. इसलिए तकनीक की जन-सुलभता भी सम्भव हो जाती है. लेकिन इसी के साथ यह भी कि यहां चीज़ों का रख रखाव बहुत नियमितता से होता है. अगर सार्वजनिक टेलीफोन या कम्प्यूटर है तो वह चालू तो होगा ही. भारत में यह ज़रा कम देखने को मिलता है. टेलीफोन होता है पर अक्सर खराब. इससे लोगों में खीझ होती है और वह खीझ तोड़फोड़ के रूप में व्यक्त होती है. अमरीका में व्यवस्था का काम करना अपवाद नहीं नियम है. अगर कोई साइट है तो वह अद्यतन तो होगी ही. भारत में अभी यह संस्कृति नहीं है. बहुत सारे विभागों ने अपनी साइट्स तो बना दी है पर सूचनाओं को ताज़ा करने में वे कोई दिलचस्पी नहीं लेते. जन संचार से जुड़े एक बड़े प्रतिष्ठान की साइट देख रहा था. पाया कि सर्वोच्च अधिकारी के रूप में उन भद्र महिला का नाम ही चल रहा है जो छह माह पहले स्थानांतरित होकर जा चुकी हैं. मैंने चाहा कि संस्थान को ई-मेल कर यह संशोधन करवा दूं, तो पता चला कि संस्थान का ई-मेल अकाउण्ट ही सक्रिय नहीं है. यह तो एक नमूना है. वस्तुतः हमने अभी तकनोलॉजी को अपने जीवन का भाग बनाया ही नहीं है. यहां तक कि आप आम तौर पर यह भी उम्मीद नहीं कर सकते कि टेलीफोन करने से ही आपका काम हो जाएगा. आपसे यह अपेक्षा की जाएगी कि आप खुद हाज़िर हों. लुत्फे-मै तुझ से क्या कहूं? हाय कमबख्त तूने पी ही नहीं ! इसी के साथ एक और बात. बहुत मामलों में अमरीकी समाज एक नैतिक समाज है. है या बना दिया गया है. जो हो, इसके सुफल दिखाई देते हैं. यहां पाइरेटेड सॉफ्टवेयर(Pirated Software) का प्रयोग करीब करीब नहीं होता. सॉफ्टवेयर बनाने वालों को अपने किये का पूरा-पूरा प्रतिफल मिलता है, परिणामतः नए-नए सॉफ्टवेयर विकसित होते हैं, इससे प्रयोक्ता को काम करने में आसानी होती है. एक सुचक्र बनता है.
*
इसी कम्प्यूटर तथा इण्टरनेट ने और भी अनेक रोचक तथा उपयोगी बदलाव किए हैं. मुझे यहां यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि फिल्म रोल वाले कैमरे अब पूरी तरह लुप्त हो गए हैं. उनकी जगह ले ली है डिजिटल कैमरों ने. न फिल्म खरीदने, लोड करने का झंझट, न उसे डेवलप और प्रिण्ट कराने का. बटन दबाओ और फोटो तैयार. इससे भी आगे, आप खुद कलाकार बन जाएं अगर आपके पास कम्प्यूटर हो. अपने कैमरे से सीधे कम्प्यूटर पर फोटो अपलोड (upload) करें और फिर उस फोटो में मन चाहे सुधार, संशोधन, परिवर्तन कर लें. बहुत ज़्यादा कलात्मक निपुणता होनी भी ज़रूरी नहीं. यह दायित्व सॉफ्टवेयर ही वहन कर लेता है. घर में अगर प्रिण्टर भी हो तो फोटो का प्रिण्ट भी निकाल लें अन्यथा कैमरा या केवल उसकी मेमोरी (माचिस की लम्बाई-चौड़ाई के आकार की एकदम पतली पट्टी) या किसी और माध्यम पर अपनी छवियां ले जाकर प्रिण्ट बनवा लें , बल्कि खुद ही बना लें . अमरीका में तो ऐसी मशीनें जगह-जगह लगी हैं जिन पर आप खुद अपने प्रिण्ट बना सकते हैं. इस डिजिटल तकनीक ने फिल्म रोल वगैरह का झंझट तो खत्म किया ही है, इससे एक बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन यह हुआ है कि बेहतर फोटोग्राफी के लिए आप जितने चाहें उतने फोटो खींच सकते हैं, बिना यह चिंता किए कि फिल्म खर्च हो रही है. जो फोटो अच्छा लगे उसे रख लें, शेष को मिटा दें. परिणाम तत्क्षण देखे जा सकते हैं (कैमरे के पीछे ही छोटा-सा स्क्रीन होता है) इसलिए यह तै करना भी सम्भव है कि एक ही दृश्य को और शूट किया जाए या नहीं.

*
कुछ ऐसा ही बदलाव संगीत के क्षेत्र में भी आया है. चलते फिरते संगीत सुनने की सुविधा वॉकमेन ने सुलभ कराई थी. जब संगीत डिजिटल हुआ तो सीडी बजाने वाले डिस्कमैन आ गए. सीडी की ध्वनि निश्चय ही कैसेट की ध्वनि से बेहतर होती है. इस बीच 78 आरपीएम(RPM) के रिकार्ड, तथा ईपी(EP), एलपी(LP) तो गायब ही हो गए. अब आई एक नई तकनीक ने कैसेट या सीडी को भी अप्रासंगिक कर दिया है. आप इण्टरनेट से सीधे ही संगीत खरीद कर उसे अपने प्लेयर या कम्प्यूटर पर सुन तथा सुरक्षित रख सकते हैं. यानि संगीत का संग्रह आपके उपकरण की स्मृति में ही. अलग से कैसेट, सीडी,डीवीडी रखने की आवश्यकता नहीं. फिलहाल तो इससे पायरेसी पर भी नियंत्रण हुआ है. सभी जानते हैं कि पायरेसी संगीत को किस तरह तबाह करने लगी थी. इस नई तकनीक में जो भी संगीत आप डाउनलोड करते हैं उसका मूल्य चुकाना ही होता है. इस तकनीक में संगीत की क्वालिटी बेहतर होती है और उसे संग्रह करने में जगह प्रयुक्त नहीं होती. एक और बड़ी बात यह कि नवींतम संगीत सारी दुनिया में एकसाथ सुलभ हो जाता है. यह नहीं कि आप प्रतीक्षा करें कि आपके म्यूज़िक स्टोर पर नया सीडी आया है या नहीं. और यह भी कि आप केवल अपना मनचाहा संगीत खरीदते हैं. पसन्द का एक गीत खरीदने के लिए पूरा सीडी नहीं खरीदना पड़ता.

एक और बदलाव की चर्चा मैं यहां करना चाहता हूं. वह है पेपर करेंसी (भारतीय भाषा में नोट, अमरीकी अंग्रेज़ी में बिल) का लगभग पूरी तरह विस्थापन. अमरीका में क्रेडिट कार्ड का चलन बहुत अधिक है. दुकानों, सेवाओं, यहां तक कि सरकारी संस्थानों तक में क्रेडिट कार्ड स्वीकार्य हैं. आपको जेब में पैसे रखने की ज़रूरत ही नहीं. दुकानदार को हिसाब किताब करने की ज़रूरत नहीं. सारा काम कम्प्यूटर कर लेता है. इसी वजह से कर चोरी भी नहीं होती.

परिवर्तन और भी बहुतेरे हो रहे हैं. पर अभी वे बहुत लोकप्रिय नहीं हुए हैं. लेकिन एक बात पक्की है. इन सभी परिवर्तनों से मनुष्य का जीवन अधिक सुगम होता जा रहा है. द ग्रेट डिजिटल डिवाइड (The great digital divide) की सारी चर्चाओं तथा इस बात के बावज़ूद कि यह तकनोलॉजी नए सिरे से दुनिया को ‘हैव्स और हैव नॉट्स’ (Haves and have-nots) में बांट रही है, मुझे यह लगता है कि इन परिवर्तनों का लाभ अब जल्दी जल्दी नीचे तक पहुंचने लगा है. तकनोलॉजी अब विलासिता की वस्तु नहीं रह गई है. टेलीफोन करते हुए, मनीऑर्डर भेजते हुए, रेल का आरक्षण कराते हुए, और ऐसे ही बहुत सारे कामों में कतार का आखिरी आदमी भी तकनोलॉजी से लाभान्वित होता है. इस तरह एक अर्थ में तो तकनोलॉजी गरीब-अमीर, विकसित-अविकसित, पूर्व-पश्चिम की खाई को पाट भी रही है. भला ऐसी सकारात्मक और जोड़ने वाली तकनीक का स्वागत कौन न करना चाहेगा?


Saturday, February 2, 2008

बीस साल बाद (व्यंग्य)


सन् 2025 के किसी रविवार की खुशनुमा शाम ! घर में हम दो ही. बच्चे तो वैसे भी बरसों से दूर ही हैं. और यों, रिश्ते में ही बच्चे हैं वे, वरना तो बाल उनके भी सफेद हो चले हैं. पत्नी का मन खाना बनाने का नहीं था तो सोचा कि किसी रेस्तरां से ही कुछ मंगवा लिया जाए. खयाल आया कि सुबह ही अखबार में शहर में एक नए खुले रेस्तरां की धुंआधार तारीफ पढ़ी थी. पहले कई दिन तक इसके आकर्षक विज्ञापन भी मेरा ध्यान खींचते रहे थे. अखबार उठाया, पन्ने पलटे, रेस्तरां का फोन नम्बर देखा और अपने मोबाइल पर वह नम्बर डायल किया.

उधर से एक सुरीली आवाज़ आई, "नमस्कार. रेस्तरां को फोन करने के लिए धन्यवाद. हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं?" ऐसी चाशनी में पगी आवाज़ें आजकल आम हैं. आप किसी भी व्यावसायिक प्रतिष्ठान को फोन करें, फोन में से रस धारा ही बहने लगती है. अब इसका कोई असर भी मुझ पर नहीं होता. मैंने बात को आगे बढ़ने का मौका न देते हुए कहा, " मैं, ऑर्डर देना चाहता हूं." "कृपया अपना कार्ड नम्बर बोलिये"- उधर से घुंघरू खनके. मुझे पहले से पता था. वैसे अब मेरी ज़रूरतें इतनी सीमित हो गई हैं कि बहुत ज़्यादा फोन नहीं करता. लेकिन आजकल कहीं भी फोन कीजिए, यही पूछा जाता है.

जवाब दिया, " जी मेरा नम्बर है नौ तीन शून्य पांच सात दो आठ चार एक सात शून्य तीन दो सात पांच" और मैं आखिरी वाले पांच का च पूरा करूं-करूं, उससे पहले ही उधर से फिर घण्टियां बजीं : " नमस्कार डॉ अग्रवाल! ई- दो बटा दो सौ ग्यारह, चित्रकूट. आपका घर का फोन नम्बर है तीन पांच सात..., दूसरा फोन नम्बर है दो चार आठ... लेकिन इस वक़्त आप अपने मोबाइल से हमें फोन कर रहे हैं, वैसे आपकी पत्नी के पास भी एक मोबाइल है, जिसका नम्बर है...." भद्र महिला इस पुराण को आगे बढ़ातीं इतना धैर्य मेरी जिज्ञासा वृत्ति को मंज़ूर नहीं था. "मेरे बारे में इतनी सारी जानकारियां आपके पास...?"

"हमारे कम्प्यूटर में है यह सब डॉ अग्रवाल." संतूर के तार झंकृत हुए. मुझे आश्चर्य भी नहीं हुआ. आखिर छोटे-से मोबाइल पर भी तो ढेर सारी सूचनाएं आ जाती हैं.

"मैं मसाला डोसा ऑर्डर करना चाहता हूं."

"मत कीजिए!" उधर से आवाज़ आई, गोया किसी ने कंकड़ मारा हो.

"क्यों?"
"हमारा कम्प्यूटर रिकार्ड बताता है कि आपकी उम्र इस समय 82 साल है, आपको हाई ब्लड प्रेशर रहता है, जिसके लिए आप रोज़ दस मिलीग्राम की होपकार्ड लेते हैं, आपका कॉलेस्ट्रॉल लेवल भी बढ़ा हुआ है; तीन साल पहले आपको हार्ट अटैक भी हो चुका है."

"फिर मुझे क्या ऑर्डर करना चाहिये?"

"बेहतर हो आप बेक्ड सलाद डोसा ऑर्डर करें." स्वर में एक ऐसी निश्चयात्मकता थी जो मुझे अच्छी नहीं लगी. आखिर कह ही दिया, "आप सुझा नहीं रही, मेरी तरफ से जैसे आदेश ही दे रही हैं."

देवी जी के पास इसका भी जवाब मौज़ूद था. "आपने दस दिन पहले ही केंद्रीय लाइब्रेरी से चिकनाई रहित पकवानों के किताब इश्यू करवाई थी. उसी से हमें लगा कि आप यह डिश पसन्द करेंगे."

मैं कह भी क्या सकता था सिवा इसके कि "ठीक है, आप मुझे दो बेक्ड सलाद डोसे भिजवा दें. कितना देना होगा?"

कोयल कूकी : "हां श्रीमती अग्रवाल और आपके लिए ये दो डोसे पर्याप्त होंगे. इनका मूल्य होगा ग्यारह सौ अट्ठाइस रूपये."

"धन्यवाद! मैं यह भुगतान अपने क्रेडिट कार्ड से कर दूंगा."

जवाब में उधर की आवाज़ में कुछ और गाढ़ी चाशनी घुली, " जी नहीं. आपको नकद भुगतान करना होगा. आप इस महीने की अपनी क्रेडिट कार्ड लिमिट पहले ही क्रॉस कर चुके हैं, और इस
महीने तो आपको अपना क्रेडिट कार्ड रिन्यू भी करवाना था, जो आपने अभी तक करवाया नहीं है."

"तो ठीक है. मैं ऐसा करता हूं कि आपके डिलीवरी ब्वाय के आने से पहले नज़दीक के एटीएम से पैसे निकाल लाता हूं."

"हमारा कम्प्यूटर बताता है कि आपका खाता यूटीआई बैंक में है और उसके एटीएम से एक दिन में जितनी रकम निकाली जा सकती है उतनी आप आज सुबह ग्यारह बज कर दो मिनिट पर निकाल चुके हैं." कोयल के गले की मिठास थोड़ी कम होने लगी थी. आवाज़ भावहीन तो थी ही.
"आप फिक़्र न करें. डोसे भिजवा दें. मेरी पत्नी के पर्स में इतने रुपये हैं. कितनी देर में भिजवा देंगी?" दरअसल पत्नी सारी बात सुन रही थी, उसी ने इस बीच अपने पर्स की तरफ इशारा कर मुझे प्रेरित किया था यह कहने को.
"ठीक सैंतालीस मिनिट लगेंगे. लेकिन अगर आपको जल्दी है तो आप अपनी वैगन आर में आकर ले जाएं.."

"क्या...!"

"जी, हमारा कम्प्यूटर कहता है कि आपके पास आर जे 14 छह सी 1742 नम्बर की 2001 मॉडल की सफेद वैगन आर है, और यह कल ही गैरेज से सर्विस होकर आई है."

मैं तो अवाक था. क्या कुछ ऐसा भी है जो इनके कम्प्यूटर को पता न हो!

"कोई और सेवा सर?" कोयल के गले में फिर से मिश्री घुलने लगी थी. उसी का फायदा मैंने उठाया. "मैम, क्या आप हमें डोसे के साथ फ्री कोक कैन भी भिजवाएंगी? आपके किसी एड में इसका ज़िक्र था."

"हाँ, आप सही कह रहे हैं डॉ अग्रवाल, लेकिन हमारा कम्प्यूटर कहता है कि आपको तो डायबिटीज़ भी है. इसलिए हम केवल एक कैन ही भिजवाएंगे, श्रीमती अग्रवाल के लिए."

मेरा गुस्सा अपनी हद पार कर रहा था. क्या इनसे मेरा कुछ भी पोशीदा नहीं है? इन्हें मेरी सारी ज़िन्दगी का ब्यौरा रखने का हक़ दिया किसने? गुस्सा तो मुझे कुछ इतना था कि मैं मोबाइल को ज़मीन पर ही पटक डालता, लेकिन उसकी कीमत के खयाल से किया इतना कि बहुत ज़ोर से ऑफ मात्र किया.

मुश्क़िल से दो-एक पल गुज़रे होंगे कि मेरा मोबाइल फिर से घनघनाया. स्क्रीन पर उसी रेस्तरां का नाम चमक रहा था. अब क्या हुआ? जलतरंग बजी. "सर, आपने बहुत गुस्से में अपने मोबाइल को ऑफ किया है. आप हमारे बहुत सम्मानित ग्राहक है, इसलिए हम आपको कहना चाहेंगे कि इस उम्र में इतना गुस्सा आपकी सेहत के लिए ठीक नहीं है. हमारा कम्प्यूटर बताता है कि तीन साल पहले आपको जो हार्ट अटैक हुआ था वह भी इसी तरह से गुस्सा होने की वजह से हुआ था. हैव अ नाइस डे सर, एण्ड टेक केयर !"

हद्द है. मैं अपने मोबाइल पर भी अपना गुस्सा नहीं उतार सकता. सोचने लगा, यह हाई टैक ज़माना अच्छा है या मेरी जवानी के दिनों का वह ज़माना अच्छा था जब नुक्कड का पान वाला मेरे बारे में सिर्फ उतना ही जानता था जितना कि उसके और मेरे रिश्तों को बनाये रखने के लिए पर्याप्त था. मसलन, "बहुत दिनों से दिखाई नहीं दिए, कहीं बाहर गये थे क्या?" या "आजकल भाभीजी बच्चों के पास गई हुई लगती हैं." वह ये बातें इसलिए कहता था कि सीधे यह कहना ठीक नहीं होता कि आप छह दिन से सिगरेट पीने नहीं आए या एक महीने से मीठा पान नहीं ले गए. वह मेरी निजी ज़िन्दगी में तो कोई दखल नहीं देता था. इस नई तकनीक ने तो मुझे एकदम ही नंगा करके रख दिया है.मेरा कुछ भी तो नहीं है जो इन व्यापारियों के कम्प्यूटर की खोजी निगाहों से छिपा हो.

मन को दूसरी तरफ ले जाने को अपना रेडियो ऑन करता हूं.

गीत आ रहा है : "कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन!"






Friday, February 1, 2008

एक राजनीतिक हत्या के निहितार्थ

26 अप्रेल 1998 की रात ग्वाटेमाला के प्रसिद्ध मानवाधिकार योद्धा बिशप जुआन गेरार्डी की बुरी तरह कुचली हुई और खून से सनी लाश उनके चर्च के गैराज में पाई गई. इससे ठीक चार दिन पहले ही बिशप और मानवाधिकार अन्वेषकों की उनकी टीम ने अपनी 1400 पन्नों की खोज रिपोर्ट जारी की थी. इस रिपोर्ट में ग्वाटेमाला में ‘80 व ‘90 के दशकों में सेना और सुरक्षा बलों द्वारा चलाये गये उस नृशंस अभियान का दिल दहला देना वाला ब्यौरा पेश किया गया था, जिसके द्वारा लगभग 20 हज़ार लोगों को लापता कर दिया गया या मार डाला गया था.
अब चर्चित उपन्यासकार फ्रैंसिस्कोगोल्डमेन ने इसी घटना चक्र को आधार बनाकर लगभग 400 पन्नों की एक खोजपूर्ण, लोमहर्षक किताब लिखी है : द आर्ट ऑफ पॉलिटिकल मर्डर : हू किल्ड द बिशप? इस किताब में लेखक ने सेण्ट्रल अमरीका में जारी अमरीका समर्थित युद्ध, हिंसा और भ्रष्टाचार की परम्परा के अनेक पहलुओं को उजागर किया है. गोल्डमेन का बपतिस्मा बिशप गेरार्डी के सान सेबस्टियन चर्च में ही हुआ था और उस वक़्त ग्वाटेमाला में जन्मी उनकी मां भी उपस्थित थीं. इस निजी संलग्नता ने गोल्डमेन को प्रेरित किया कि वे सूचनाओं के खज़ाने में से, जिसमें असंख्य इण्टरव्यू, डी-क्लासिफाइड दस्तावेज़, कोर्ट के रिकॉर्डस शामिल हैं, अपने काम की सामग्री का चयन कर यह लोमहर्षक वृत्तांत लिखें. असंख्य चरित्रों और घटनाओं के घटाटोप के बीच उन्होंने जो वृत्तांत रचा है वह ऐसा है कि उसके कारण गोल्डमेन की गणना मार्केस और योसा जैसे उत्कृष्ट लातीन अमरीकी रचनाकारों के साथ की जा सकती है.
इस वृत्तांत का आरम्भ बिशप की हत्या के वीभत्स दृश्य से होता है और इसके बाद गोल्डमेन आहिस्ता-आहिस्ता हत्यारों और उनके छिपे रक्षकों को सामने लाते हैं. इस प्रक्रिया में वे एक अनैतिक छाया राष्ट्र की सन्देहास्पद किंतु ताकतवर भूमिका को उभारते चलते हैं. लेखक साहित्यिक गद्य और पत्रकारिता की यथा-तथ्य भाषा के सुखद समन्वय से एक ऐसा वृत्तांत रचता है जो अनगिनत चरित्रों और पल-पल परिवर्तित होते घटनाक्रम के कारण पाठक को बांध लेता है. लेखक इस हत्या के सन्दर्भ में बार-बार हमें याद दिलाता है कि 1954 में अमरीका समर्थित ताकतों द्वारा ग्वाटेमाला के राष्ट्रपति जेकोब अरबेंज़ का तख्ता पलटा गया था और उसी के बाद सेण्ट्रल अमरीका के सर्वाधिक निर्मम मिलिट्री तंत्र की स्थापना हुई थी. इसी के बाद वह लम्बा गुरिल्ला युद्ध चला जिसने 20 हज़ार निर्दोष नागरिकों की जान ली.
इसके बाद 1996 में एक शांति समझौता हुआ और ग्वाटेमाला सैद्धांतिक रूप से एक नागरिक प्रशासन वाला प्रजातंत्र बना दिया गया. लेकिन, गोल्डमेन बार-बार ज़ोर देकर कहते हैं कि इससे सत्ता की प्रकृति में कोई बदलाव नहीं आया और ग्वाटेमाला उन छद्म सैन्य ताकतों का बन्धक ही बना रहा जिनका कम्युनिस्ट विरोधी अभियान एक अपराध उद्योग में तब्दील हो चुका था. लेखक के अनुसार, बिशप गेरार्डी का मानव अधिकार एक्टिविज़्म ऐसे लोगों के लिए एक बडी चुनौती था. इसीलिए, वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि बिशप की हत्या कोई आकस्मिक अपराध नहीं था बल्कि दो ताकतवर सत्ताओं मिलिट्री और चर्च के बीच की खुली टकराहट की स्वाभाविक परिणति था.
गोल्डमेन यह भी बताते हैं कि हत्यारों ने अपने कुकृत्य को छिपाने में भी असाधारण कौशल का परिचय दिया. उन्होंने गेरार्डी का चरित्र हनन करने का एक सुनियोजित अभियान चलाया और यह स्थापित करने में लगभग कामयाब रहे कि वे समलैंगिक थे और अपने एक प्रेमी की हिंसा के शिकार हुए. यह सनसनीखेज प्रवाद कुछ इस कौशल से फैलाया गया कि इसे राष्ट्रीय मीडिया ने भी अंगीकार कर लिया और प्रतिष्ठित लेखक योसा तक इस के बहकावे में आकर बिशप और चर्च की भूमिका के प्रति संशयालु हो उठे.
द आर्ट ऑफ पॉलिटिकल मर्डर गुस्से से भरी एक ऐसी चीख है जिसे न केवल सहानुभूतिपूर्वक सुना जाना चाहिए, ऐसे हर व्यक्ति तक पहुंचाया भी जाना चाहिए जो यह मानने को तैयार हो कि सत्य कभी-कभी गल्प से भी ज़्यादा विस्मित करने वाला हो सकता है. इस किताब की महत्ता और प्रासंगिकता ग्वाटेमाला में हाल के घटनाचक्र के कारण और बढ गई है. वहां राष्ट्रीय चुनावों का ताज़ा दौर राजनीतिक हत्याओं और सरकार द्वारा लगभग ध्वस्त कर दिया गया है. राष्ट्रपति पद के दो सशक्त उम्मीदवारों में से एक ओट्टो पेरेज़ मोलिना एक भूतपूर्व आर्मी जनरल और खुफिया सेवा के चीफ हैं. वे गेरार्डी की हत्या के समय पद पर थे. अपना चुनाव वे कानून व्यवस्था को मुद्दा बना कर लड रहे हैं और कह रहे हैं कि अपराध का खात्मा करने के लिए उन्हें नागरिक अधिकारों को कुचलने में भी संकोच नहीं होगा.
◙◙◙
Discussed book:
The Art of Political Murder
By Francisco Goldman
Grove Press.
Hardcover, 416 pages
US $ 25.00

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' के अंतर्गत 31 जनवरी 2008 को प्रकाशित