Monday, January 28, 2008

यह कैसी पत्रकारिता?

28 जनवरी 2008 को जयपुर में विरासत फाउण्डेशन द्वारा आयोजित जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल सम्पन्न हुआ. आखिरी दिन का एक आयोजन दो प्रसिद्ध राजस्थानी लेखकों श्री लाल मोहता और चन्द्रप्रकाश देवल के बीच संवाद भी था.
इसी संवाद को लेकर आज(29 जनवरी) के दैनिक भास्कर में पहले पन्ने पर एक समाचार छपा, जिसका शीर्षक था " राजस्थानी साहित्यकारों को मंच से उतारा". इसी समाचार के बगल में कल्पेश याग़्निक का एक विशेष सम्पादकीय भी था,"मर्यादा तोडता दम्भ". अखबार के खबर के अनुसार हुआ यह कि पिछले सत्र के देर से शुरू होने के कारण राजस्थानी का यह संवाद सत्र बीस मिनिट देर से शुरू हुआ, और जब राजस्थानी लेखकों ने चाहा कि उनका सत्र निर्धारित समय से बीस मिनिट देर तक चले तो आयोजन से जुडी अंग्रेज़ी लेखिका नमिता गोखले ने अशिष्टतापूर्वक इन दोनों साहित्यकारों को जबरन मंच से उतार दिया.
विशेष सम्पादकीय भी इसी मुद्दे पर लिखा गया.
कल रात ही दैनिक भास्कर से किसी पत्रकार ने मुझे भी इस बाबत फोन किया था. उनका नाम मैं ठीक से सुन नहीं पाया. उन्होंने इस घटना पर मेरी टिप्पणी चाही थी. मैंने उनसे कहा कि ऐसी कोई खास बात तो आयोजन के दौरान हुई नहीं. मैं उस पूरे सत्र में मौज़ूद था. उससे पहले भी और बाद में भी. हां, इतना ज़रूर हुआ था कि नमिता गोखले ने एकाधिक बार इन लेखकों से अपनी बात पूरी करने का अनुरोध किया था क्योंकि अगला सत्र शुरू होना था. आखिरी बार वे थोडे गुस्से से, और बिना एक भी शब्द बोले, उस टैण्ट से बाहर निकल गई थी. इसके भी कोई पांच सात मिनिट तक इन लेखकों ने अपनी बात पूरी की, और बाकायदा चर्चा का समापन कर नीचे उतरे. इसके बाद अगला सत्र शुरू हुआ जिसमें चित्रा मुद्गल मुख्य भूमिका में थी. चन्द्र प्रकाश देवल और श्रीलाल मोहता भी उस सत्र में काफी देर तक तो थे. मैंने सम्वाददाता से कहा कि नमिता गोखले ने बोला तो एक भी शब्द नहीं. अलबत्ता वे गुस्से से ज़रूर बाहर गईं. लेकिन यह ऐसी कोई खास बात नहीं थी. वे अपनी आयोजकीय भूमिका का निर्वाह कर रही थीं, और इसे सहजता से लिया जाना चाहिए. इसके बाद सम्वाददाता जे ने पूरे आयोजन में अंग्रेज़ी के वर्चस्व पर मुझसे थोडी चर्चा की. मेरा भी यही खयाल था कि आयोजन में अंग्रेज़ी को ज़रूरत से ज़्यादा महत्व दिया गया.
लेकिन आज सुबह अखबार में वह खबर पढकर मेरा भी चौंकना स्वाभाविक था. जो हुआ ही नहीं, उसे न केवल खबर बनाया गया, उस को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते हुए एक विशेष सम्पादकीय भी लिखा गया. खबर के साथ ही मुझ सहित कुछेक लूगों के बयान भी दिये गये. मज़े की बात यह कि जिनके बयान दिये गए उनमें से दो लेखक मित्र तो आयोजन में उपस्थित ही नहीं थे. माना जा सकता है कि उन्होंने सम्वाददाता के वर्णन के आधार पर अपनी टिप्पणियां दी होंगी.

मेरा आशय यहां नमिता गोखले के पक्ष में कोई टिप्पणी करने का नहीं है. आज के अखबार में उनका जो बयान छपा है, अगर वाकई उन्होंने वैसा कहा है तो वह गलत है. लेकिन, इससे पहले तो यह बात कि अखबार जो लिख रहा है वह कितना सही है!
जैसा मैंने कहा, ऐसी कोई घटना घटित ही नहीं हुई. इस बात की पुष्टि मैंने उन कई मित्रों से भी की जो उस सत्र में मेरे साथ मौज़ूद थे.
हम आयोजन में अंग्रेज़ी के महत्व स्थापन पर आपत्ति करें, यह तो ठीक लेकिन बिना बात का बतंगड खडा करें, यह तो उचित नहीं.

Thursday, January 24, 2008

एक नष्ट लडकी की करुण कथा

सन 2004 में एलेन हॉपकिंस का एक उपन्यास आया था – क्रैंक. इस बहुचर्चित रहे उपन्यास में लेखिका ने एक लडकी क्रिस्टीना ज्योर्जिया स्नो की करुण कथा कही थी. यह लडकी ड्रग के मायाजाल में फंस कर अपना सर्वस्व लुटा बैठती है. एक अन्य नशेडी क्रिस्टीना से बलात्कार करता है और वह गर्भवती हो जाती है. इस उपन्यास ने पाठकों को इतना अधिक प्रभावित किया कि उन्होंने लेखिका से सम्पर्क कर जानना चाहा कि आखिर क्रिस्टीना का क्या हुआ? इस जिज्ञासा के मूल में यह तथ्य भी था कि उपन्यास स्वयं लेखिका की बेटी की आपबीती पर आधारित था.
अब इसी उपन्यास क्रैंक की अगली कडी (सीक्वेल) के रूप में लेखिका ने अपने पाठकों की जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास किया है. सन 2007 में प्रकाशित ग्लास में एलेन हॉपकिंस ने क्रैंक की ही कथा को आगे बढाया है. यहीं यह बताता चलूं कि क्रैंक और ग्लास शब्द ड्रग्स के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं. कहना गैर ज़रूरी है कि ग्लास भी लेखिका की आपबीती पर ही आधारित है. ग्लास की कथा क्रैंक की कथा जहां खत्म होती है उसके एक साल बाद से शुरू होती है. नायिका क्रिस्टीन अपने नवजात शिशु के साथ मां के घर लौट आई है. वह अब ड्रग के सम्मोहन से मुक्त होने का प्रयास कर रही है. उसने खुद को नवजात शिशु में रमा लिया है. डाइपर बदलने और स्तनपान कराने में उसे अपने जीवन की सार्थकता दिखाई देने लगती है.
जीवन ठीक-ठाक चल रहा है. ड्रग लेने की चाहत यदा-कदा उसे व्याकुल करती है और वह बलपूर्वक उस चाहत को दूर धकेलती है. उसी दौरान उसे अपने जीवन में ऊब महसूस होने लगती है. उसे यह भी खयाल आता है कि प्रसव ने उसकी देह को बेडौल और अनाकर्षक बना दिया है. वह स्थूल हो गई है. इस प्रतीति से उसकी ऊब और खीझ और बढ जाती है. सोचती है, क्यों न इस सबसे निज़ात पाने के लिए थोडी-सी ड्रग ले ली जाए! मन में अतीत की कटु स्मृतियां झिलमिलाती हैं. वह दृढ निश्चय करती है कि अब ड्रग को अपना स्थायी साथी नहीं बनाएगी. लेकिन एकाध बार ले लेने में क्या हर्ज़ है? शायद इससे उसकी काया भी फिर से सुडौल हो जाए. यह भी खयाल आता है कि एकाध बार के ड्रग सेवन से उसे अपने भविष्य को संवारने की ताकत मिल जाएगी. वह यह भी सोचती है कि उसका जो गडबड वर्तमान है, उससे भी, भले ही कुछ देर को ही सही, पलायन करने का सुख भी मिल जाएगा.
नायिका की इसी उहापोह का सशक्त चित्रण इस उपन्यास की जान है. क्रिस्टीन का आत्म संघर्ष जिस खूबसूरती से अंकित किया गया है वह अद्भुत है. यहीं यह भी ज़िक्र कर दूं कि क्रैंक और ग्लास दोनों ही उपन्यास पद्यबद्ध हैं. यानि पूरे उपन्यास गद्य में नहीं, पद्य में रचे गए हैं. लेखिका के चित्रण की खूबसूरती और ताकत इस बात में है कि जब आप ग्लास को पढते हैं तो जैसे आप खुद क्रिस्टीन ही बन जाते हैं. इसी को भारतीय काव्य शास्त्र में साधारणीकरण कहा गया है. क्रिस्टीना का हर कृत्य आपको वाज़िब लगता है. मुझे तो इस उपन्यास को पढते हुए बार-बार भगवतीचरण वर्मा के प्रख्यात उपन्यास चित्रलेखा की ये पंक्तियां याद आती रहीं : हम न पाप करते हैं, न पुण्य करते हैं. हम तो वह करते हैं जो हमें करना पडता है.
वास्तव में क्रिस्टीना ने जो किया वह करना उसकी विवशता ही तो थी. और बहुत बार जीवन में ऐसा होता है कि आप जानते हैं कि आप गलत कर रहे हैं, फिर भी वैसा करने से खुद को रोक नहीं पाते हैं. क्रिस्टीना फिर से ड्रग के उस मकडजाल में फंस जाती है, जिससे वह बडी मुश्किल से निकली थी. उसकी देह, उसका स्वास्थ्य, उसका परिवार सब, न चाहते हुए भी, क्रमश: ड्रग को उसके लिए अपरिहार्य बना देते हैं. मां उसे घर से निकाल देती है, हालांकि उसकी संतान को अपने पास रख लेती है. उपन्यास जहां खत्म होता है वहां यह साफ लगता है कि अब निश्चय ही लेखिका इस सीक्वेल में तीसरी कडी भी जोडेगी.
ड्रग सेवन पश्चिम में एक भयावह रूप ले चुका है. दुर्भाग्य से भारत में भी इसका प्रसार होने लगा है. ऐसे में यह उपन्यास ग्लास हमें ड्रग के भयावह दुष्परिणामों से आगाह करता है – यह बात रेखांकनीय है.
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Discussed book:
Glass
By Ellen Hopkins
Hardcover, 688 Pages
Published By Margaret K.McElderry
US $ 16.99


राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 24 जनवरी 2008 को प्रकाशित.

Sunday, January 20, 2008

उलझा-उलझा है भाषाई परिदृश्य

18 मई 2007 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने एक प्रस्ताव पारित कर वर्ष 2008 को अंतर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा की. विश्व संस्था का यह निर्णय उसके इस सोच को पुष्ट करता है कि भाषाओं की असल बहुलता के द्वारा ही अनेकता में एकता की रक्षा और अंतर्राष्ट्रीय समझ का विकास सम्भव है. इसी सन्दर्भ में यूनेस्को के महानिदेशक मात्सुरा कोईचोरो का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि भाषाओं की जितनी अहमियत वैयक्तिक अस्मिता के लिए है उतनी ही शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के लिए भी है. उनके कथन की महता इस बात से और भी बढ जाती है कि यूनेस्को को ही अंतर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष विषयक गतिविधियों के समन्वय का दायित्व सौंपा गया है. हम भी अगर भाषाओं की महत्ता पर विचार करें तो पाएंगे कि साक्षरता और शिक्षा की तो कोई कल्पना ही भाषा के बिना समभव है. आखिर शिक्षक भाषा के बिना अपनी बात कह ही कैसे सकता है?
अगर हम भाषाओं के महत्व पर थोडी और गहराई से विचार करें तो पाते हैं कि व्यक्तियों और समूहों की पहचान बनाये रखने में भी भाषाओं की बडी भूमिका होती है. सांस्कृतिक वैविध्य की कोई भी परिकल्पना भाषाई विविधता के बिना असम्भव है. लेकिन, बावज़ूद इस सच्चाई के, दुखद तथ्य यह है कि दुनिया में बोली जा रही लगभग सात हज़ार भाषाओं में से आधी से अधिक तो आगामी कुछ सालों में ही विलुप्त हो जाने वाली है. 1996 में पहली बार प्रकाशित ‘विलुप्त होने के कगार पर दुनिया की भाषाओं का एटलस’ में इस समस्या को बखूबी उभारा गया है. यह भी एक दुखद तथ्य है कि अभी हमने जिन सात हज़ार भाषाओं का ज़िक्र किया उनमें से एक चौथाई से भी कम का प्रयोग स्कूलों वगैरह में होता है और हज़ारों भाषाएं ऐसी हैं जो वैसे तो दुनिया की आबादी के एक बडे हिस्से की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में शरीक हैं लेकिन शिक्षा व्यवस्था, संचार तंत्र, प्रकाशन जगत आदि से पूरी तरह अनुपस्थित हैं. शायद यही वजह है कि यूनेस्को के महानिदेशक ने कहा है कि इस मुद्दे पर गहनता से विचार करते हुए हमें एक ऐसी भाषा नीति की तरफ बढना चहिए जो प्रत्येक भाषाई समूह को इस बात के लिए प्रेरित करे कि वह प्रथम भाषा के रूप में अपनी मातृ भाषा का व्यापकतम प्रयोग तो करे ही, साथ ही किसी क्षेत्रीय अथवा राष्ट्रीय भाषा को भी सीखे और अगर सम्भव हो तो एक या अधिक अंतर्राष्ट्रीय भाषा का भी ज्ञान प्राप्त करे. उन्होंने यह भी सलाह दी है कि एक वर्चस्वशाली भाषा के प्रयोक्ताओं को किसी अन्य क्षेत्रीय या राष्ट्रीय भाषा को भी सीखना चाहिए. आखिर भषाओं की बहुलता के द्वारा ही तो सभी भाषाओं के अस्तित्व की रक्षा की जा सकेगी.
संयुक्त राष्ट्र संघ और उसके घटक यूनेस्को के ये विचार बहुत ही सदाशयतापूर्ण हैं. इनके पीछे की पवित्र भावनाओं से भी भला कोई असहमति हो सकती है? लेकिन हो गई. जहां दुनिया के ज़्यादातर देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के इस विचार का स्वागत करते हुए उसके साथ सहयोग करने का इरादा ज़ाहिर किया वहीं दुनिया के चौधरी अमरीका ने एक विवादी स्वर लगा दिया. विश्व संगठन में अमरीकी राजदूत ने बुश प्रशासन के इस दावे को आधार बनाते हुए कि भाषा कोई विज्ञान द्वारा पुष्ट तथ्य नहीं अपितु एक सिद्धांत मात्र है, और खुद राष्ट्रपति बुश यह मानते हैं कि ईश्वर ने मात्र छह दिनों में अंग्रेज़ी का निर्माण किया था, इस प्रस्ताव से अपनी असहमति की घोषणा कर डाली. अमरीका सरकार की असहमति के मूल में उसकी यह आशंका भी है कि उसके किसी बहु-देशीय संधि में शरीक होने से दुनिया में अंग्रेज़ी के प्रसार को अघात पहुंचेगा. और इस नेक इरादे से अपनी असहमति ज़ाहिर करने वाला अमरीका अकेला देश नहीं है. यूनेस्को में अरबी बोलने वाले प्रतिनिधियों ने भी इसी तरह हिब्रू का विरोध कर इस प्रस्ताव की क्रियान्विति में अडंगा लगाया. और ऐसा ही कुछ किया कोरियाई प्रतिनिधियों ने भी.
वैसे, अगर अतीत की तरफ झांकें तो हम पाते हैं कि भाषाओं के मामले में खुद संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका भी प्रशंसनीय नहीं रही है. जब चीन में दूसरी भाषाओं को कुचला जा रहा था तो संयुक्त राष्ट्र संघ मौन दर्शक था. जब पाकिस्तान में जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने सिंधी बोलने वालों को देखते ही गोली मार देने के आदेश दिये तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने किसी हस्तक्षेप की ज़रूरत नहीं समझी. ऐसा ही उसने फ्रांस द्वारा अंग्रेज़ी पर रोक के वक़्त भी किया. वैसे भी, जिस संयुक्त राष्ट्र संघ के देखते-देखते यूरोपीय संघ अपनी 23 आधिकारिक भाषाओं के बावज़ूद अपना ज़्यादा काम अंग्रेज़ी में करता है, और खुद यह विश्व संगठन लगभग सारा ही काम अंग्रेज़ी में करता है, वही जब भाषाओं की बहुलता की बात करता है तो आश्चर्य होता है.
लेकिन अगर आप आशावादी हों, और किसी की नीयत पर सन्देह करने के शौकीन न हों तो यह भी सोच सकते हैं कि सुबह का भूला संयुक्त राष्ट्र संघ अब शाम को घर लौट रहा है. वह कम से कम अब तो अंग्रेज़ी के दिग्विजय अभियान को रोकना चाहता है. यूनेस्को ने तो यह भी कहा है कि वह दुनिया की उन गडबडी वाली जगहों पर अपने नीले हेलमेट वाले संयुक्त राष्ट्रीय भाषाई रक्षक तैनात करेगा जहां जबरन दूसरी भाषाओं का दमन किया जाता है, जैसे आयरलैण्ड में जहां हालांकि सरकारी भाषा आयरिश है लेकिन नये नागरिकों पर बलात अंग्रेज़ी लादी जा रही है.

इसी उथल-पुथलभरे वैश्विक परिदृश्य के साथ ही आइये, ज़रा भारत के भाषाई परिदृश्य का भी जायज़ा ले लें. संविधान ने हमारे यहां दो राज भाषाओं – हिन्दी और अंग्रेज़ी- को मान्यता दे रखी है. इनके अलावा संविधान की आठवीं अनुसूची में 18 और भाषाएं भी सूचीबद्ध हैं. राजस्थानी जैसी महत्वपूर्ण भाषा अभी भी इस अनुसूची में प्रवेश पाने के लिए संघर्षरत है. इनके अलावा, 418 और ऐसी सूचीबद्ध भाषाएं हैं जिनमें से प्रत्येक के बोलने वालों की संख्या कम से कम दस हज़ार है. हमारा सरकारी रेडियो – आकाशवाणी 24 भाषाओं और 146 बोलियों में प्रसारण करता है. कम से कम 34 भाषाओं में हमारे यहां अखबार छपते हैं और 67 भाषाओं में प्राथमिक शिक्षा दी जाती है. संविधान सभी नागरिकों को उनकी भाषा के संरक्षण का अधिकार देते हुए सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी रुचि की शैक्षिक संस्था चुनने का अधिकार प्रदान करता है. लेकिन ये सारे तथ्य और आंकडे उस वक़्त किताबी लगते हैं जब हम यह देखते हैं कि बहु भाषा भाषी हमारे देश में ही कम से कम 1600 भाषाएं और बोलियां ऐसी हैं जिन्हें लोग अपनी मातृ भाषा के रूप में तो प्रयुक्त करते हैं लेकिन जिन्हें किसी भी तरह का वैधानिक या सरकारी संरक्षण प्राप्त नहीं है.
भाषाई आधार पर हुए राज्यों के पुनर्गठन पर अब भी सवालिया निशान लगाए जाते हैं. इसी के साथ भाषाओं को लेकर हुए हिंसक विवादों को भी भुलाया नहीं जा सकता. दक्षिण के कतिपय इलाकों में हुआ हिन्दी का तथाकथित उग्र विरोध और एक दूसरे समय में उत्तर भारत में तेज़ी से फैला अंग्रेज़ी हटाओ आन्दोलन आज भी लोगों की स्मृतियों में है. भाषाओं को लेकर वैसा उत्तेजक माहौल आज भले ही न हो, जानने वाले जानते हैं कि आज भारत में हर बडी भाषा अपनी से छोटी भाषा का अधिकार छीन-हडप रही है. ऐसा करने में शीर्ष पर है अंग्रेज़ी. कहने को यह देश की दो राज भाषाओं में से एक है लेकिन कभी-कभी लगता है कि असल राज भाषा तो यही है. इस देश में अंग्रेज़ी जाने बगैर आपका कोई अस्तित्व ही नहीं है. कोई छोटी से छोटी सरकारी नौकरी आपको अंग्रेज़ी ज्ञान के बगैर नहीं मिल सकती. जबकि दूसरी राजभाषा हिन्दी के साथ ऐसा नहीं है. अगर आप हिन्दी नहीं भी जानते हैं तो कोई बात नहीं. बल्कि बहुतों के लिए तो हिन्दी न जानना गर्व का कारण होता है. इधर वैश्वीकरण और उदारीकरण के चलते और दुनिया के सपाट होते जाने के कारण अंग्रेज़ी का वर्चस्व और बढता जा रहा है. रही सही कसर सूचना प्रौद्योगिकी ने पूरी कर दी है. लोगों ने मान लिया है कि वहां तो अंग्रेज़ी के बिना काम चल ही नहीं सकता, और बिना सूचना प्रौद्योगिकी के आज की दुनिया में जीना बेकार है. हालांकि दोनों ही बातें सच से बहुत दूर हैं. सूचना प्रौद्योगिकी में हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में काम करने की भी पूरी सुविधाएं हैं, और भारत जैसे धीमी गति और संतोषी मानसिकता वाले देश में द्रुतगामी सूचना प्रौद्योगिकी जीवन शैली का हिस्सा बनेगी, इसमें अभी काफी वक़्त लगेगा.
लेकिन अंग्रेज़ी हमारे मन मष्तिष्क पर बुरी तरह हावी है. हमारे फिल्मी सितारे काम भले ही भाषाई फिल्मों में करें, बात अंग्रेज़ी में ही करना पसन्द करते हैं. नेता लोग चुनाव के वक़्त भले ही हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाएं काम में ले लें, अपने प्रभाव स्थापन के लिए टूटी-फूटी और हास्यास्पद ही सही अंग्रेज़ी बोलने की कोशिश करते दिखाई सुनाई देते हैं. समाज का प्रभु वर्ग अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम वाले स्कूलों में ही भेजता है. यहां तक कि जो लोग परम्परा, धर्म, संस्कृति वगैरह की कमाई खाते हैं वे भी अपने बच्चों का भविष्य अंग्रेज़ी में ही देखते हैं. निश्चय ही यह मनोवृत्ति हिन्दी सहित तमाम देशी भाषाओं के लिए घातक सिद्ध हो रही है. इनका विकास अवरुद्ध हो रहा है, और इनके प्रयोक्ताओं की संख्या निरंतर घटती जा रही है. हिन्दी की स्थिति तो फिर भी ठीक है, लेकिन जिन भाषाओं या बोलियों को बोलने वाले कम हैं उनके अस्तित्व पर मण्डराते खतरों को साफ देखा जा सकता है.
ऐसे में एक तरफ जहां संयुक्त राष्ट्र संघ की इस सदाशयता पूर्ण पहल का महत्व समझ में आता है वहीं दूसरी तरफ लुप्त होती जा रही भाषाओं की स्वाभाविक परिणति सांस्कृतिक वैविध्य की क्षति चिंतित भी करती है. चिंताजनक बात यह भी है आज भाषाएं किसी के भी एजेण्डा में नहीं हैं. कहीं हम भाषा विहीन भविष्य की तरफ तो नहीं बढ रहे हैं?

Thursday, January 17, 2008

एक घोषणा पत्र खाने वालों के लिए

मनुष्य प्रजाति सदियों से यह जानती है कि ठीक से क्या और कैसे खाया जाए, लेकिन अब खाद्य उद्योग के मार्केटिंग कर्मियों, पोषण वैज्ञानिकों और इनसे सम्बद्ध पत्रकारों ने उसे उलझा-भरमा दिया है. खाद्य और पोषण विषयक उलझनें जितनी बढती हैं उतना ही इनका धन्धा चमकता है. आज तो एक ऐसा खाद्य परिदृश्य बन गया है जो खराब सलाहों और ‘अवास्तविक’ भोजन से भरा है. ये भोजन जैसे दिखने वाले पदार्थ अक्सर मिथ्या या भ्रामक तथ्यों से भरी पैकिंग में प्रस्तुत किए जाते हैं. असल भोजन तो बाज़ार से लुप्त होता जा रहा है. उसकी जगह लेते जा रहे हैं तथाकथित न्यूट्रीएण्ट्स जो न केवल हमारे खाने को बल्कि हमारी सेहत को भी खराब कर रहे हैं.
ये और ऐसी ही अनेक चौंकाने वाली बातें कही हैं माइकेल पोलान ने अपनी ताज़ा किताब ‘इन डिफेंस ऑफ फूड : एन ईटर्स मेनीफेस्टो’ में. पोलन की दो टूक सलाह है : ऐसी कोई चीज़ मत खाओ जिसे तुम्हारी पड दादी खाद्य पदार्थ के रूप में न पहचान सके.
न्यूयॉर्क टाइम्स के सुपरिचित पत्रकार, बर्कले विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के प्रोफेसर माइकेल पोलन की इससे पहले इसी श्रंखला की दो और किताबें ‘द बॉटेनी ऑफ डिज़ायर’ और ‘द ओम्नीवोर्स डाइलेमा’ क्रमश: भोजन से हमारे रिश्तों की पडताल और हमारे भोजन के वैविध्य के विश्लेषण के लिए चर्चित-प्रशंसित रही हैं. यहां इस नई किताब में पोलन का सन्देश बहुत स्पष्ट है : भोजन का आनंद लें. ज़्यादा न खायें. जहां तक हो, वानस्पतिक भोजन का अधिकतम प्रयोग करें.
यह किताब तीन खण्डों में है. पहला खण्ड न्यूट्रीशनिज़्म की पडताल करता है और बताता है कि इस विचार ने हमारे भोजन को न्यूट्रीएण्ट्स में बांट डाला है. पोलन कहते हैं कि यह न्यूट्रीशनिज़्म खाद्य पदार्थ विक्रेताओं के लिए वरदान सिद्ध हो रहा है क्योंकि इसी की मदद से वे अपने उत्पादों को तेज़ी से बेच पाने में सफल होते हैं. पोलन खाद्य वैज्ञानिकों और खाद्य पदार्थ विक्रेताओं के बीच के मैत्रीपूर्ण रिश्तों को भी उजागर करते हैं और बताते हैं कि इन वैज्ञानिकों की नित नई खोजों से नए-नए खाद्य उत्पाद बाज़ार में उतारने की सहूलियत पैदा होती है. वे मज़े लेकर बताते हैं कि पोषण विज्ञान की नई-नई खोजों के कारण जो खाद्य पदार्थ कल तक उच्च वसा युक्त होने के कारण त्याज्य था वही अब लाभदायक वसा युक्त माना जाकर चहेता बना दिया जाता है. वे याद दिलाते हैं कि अमरीका में 2003 मं एटकिन्स डाइट के हल्ले के कारण ब्रेड और पास्ता अचानक लोकप्रिय हो उठे और बेचारे आलू व गाजर खलनायक बन गए. पोलन साफ कहते हैं कि पोषण विज्ञान की एक ऐसी नई शाखा बन गई है जो खाद्य उद्योग के अनुदान पर ही फल फूल रही है. इस शाखा का काम ही यह है कि उद्योग जिस पदार्थ के लिए कहे उसी को तमाम पोषक तत्वों से युक्त सिद्ध कर दिया जाए. अपने इस कथन को पुष्ट करने के लिए पोलन बताते हैं कि अमरीका के एक प्रसिद्ध कॉर्पोरेशन ने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में चॉकलेट साइन्स के लिए एक चेयर स्थापित की है और यह चेयर अब चॉकलेट में एण्टी ऑक्सीडेण्ट खोजने में जुटी हुई है. बहुत जल्दी आपको यह बताया जा सकता है कि चॉकलेट तमाम स्वास्थ्यवर्धक तत्वों की खान है.
पोलन यह भी बताते हैं कि खाद्य उद्योग के दबाव किस तरह सरकारी घोषणाओं को भी बदलवाने में कामयाब रहते हैं. 1977 में एक सीनेट समिति ने कहा : मांस का उपभोग कम करें. खाद्य उद्योग के दबाव के कारण यह इबारत बदल दी गई और कहा गया : सैचुरेटेड वसा को कम करने वाले मांस मछली का उपभोग करें. ज़ाहिर है, यह कथन अर्ध सत्य था और खाद्य उद्योग के हित में था. किताब का दूसरा खण्ड है ‘पश्चिमी भोजन और सभ्यता का रोग’ जहां पोलन कई उदाहरण देकर यह बताते हैं कि आधुनिक पश्चिमी भोजन किस तरह हमारे स्वास्थ्य के साथ खिलवाड करता है.
किताब का तीसरा खण्ड इस पश्चिमी भोजन से बचने के उपाय सुझाता है. पोलन की सलाह है कि रसायनिक तत्वों से युक्त डिब्बाबन्द खाद्य पदार्थ कम-से-कम काम में लिये जाएं. यह भी कि एक जगह बैठकर ही खायें, अकेले न खायें और धीरे-धीरे खायें. पोलन हमसे हमारी खाने-पीने की आदतों में बदलाव करने को ही नहीं कहते बल्कि एक ऐसे आन्दोलन में शरीक होने का आह्वान करते हैं जो सामूहिकता और आनन्द के ज़रिये भोजन से स्वास्थ्य की राह पर ले जाता है. वे ऐसी खाद्य संस्कृति का प्रस्ताव करते हैं खाद्य उद्योग के इशारों पर नाचने की बजाय पारिस्थितिकी और परम्परा से संचालित हो.
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Discussed book:
In Defense of Food: An Eater’s Manifesto
By Michael Pollan
Published by: Penguin Press HC, The
256 Pages, Hardcover
US $ 21.95


राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 17 जनवरी 2008 को प्रकाशित.

Monday, January 14, 2008

ज़माना है मीडियाक्रिटी का

13 जनवरी 2008 की दैनिक जनसत्ता में अपने साप्ताहिक कॉलम ‘कभी कभार’ में अशोक वाजपेयी ने एक मार्के की बात कही है. मैं उन्हीं को उद्धृत कर रहा हूं :समकालीन भारत की कई विडम्बनाओं में से एक बडी यह है कि हम अर्थ और वाणिज्य में तो मूर्धन्यता की ओर लगातार बढ रहे हैं, लेकिन ज्ञान-विज्ञान जैसे क्षेत्रों में मूर्धन्यता से अपसरण हो रहा है. सिर्फ अपसरण भर नहीं, मीडियाक्रिटी का राज तेज़ी से फैल रहा है. यह कहने के बाद अशोक जी ने अनेक क्षेत्रों की चर्चा की है जिनमें राजनीति, शिक्षा,धर्म, सार्वजनिक जीवन आदि सम्मिलित हैं. अपनी टिप्पणी का अंत उन्होंने साहित्य अकादेमी के भावी अध्य़क्ष की चर्चा से किया है. हम सभी जानते हैं कि वर्तमान अध्यक्ष अपने क्रिया-कलापों की वजह से खासे विवादास्पद रहे हैं. अशोक जी ने यह खबर देते हुए कि जल्दी ही नारंग जी से छुटकारा मिल जाएगा (वैसे चर्चा तो यह भी है कि वे दुबारा चुने जाने के लिए जी-तोड प्रयास कर रहे हैं) लिखा है कि “उनके विकल्प के रूप में जो दो नाम सामने हैं - मलयालम के एमटी वासुदेवन नायर और बांग्ला के सुनील गंगोपाध्याय का – वे किस प्रतिमान से मूर्धन्य माने जा सकते हैं?”

सहज जिज्ञासावश मैंने शब्द कोश टटोला तो पाया कि कोश के अनुसार मूर्धन्य का अर्थ है श्रेष्ठ या शीर्ष- स्थानीय. अब अगर आप शीर्ष की बात करेंगे तो पाएंगे कि शीर्ष कोई भी हो सकता है. अगर एक खराब अभिव्यक्ति याद करूं तो ‘अन्धों में....’ याद आती है. यानि जहां सारे ही लल्लू हों वहां उनसे थोडा कम लल्लू भी तो मूर्धन्य ही कहा-माना जाना चाहिए. लेकिन यह तो हुई शब्दार्थ की बात. असल में जब हम मूर्धन्य की बात करते हैं तो हमारा आशय उससे होता है जो सामान्य से बहुत अलग, असाधारण हो. मैं मलयालम और बांग्ला साहित्य से अधिक परिचित नहीं हूं इसलिए नहीं कह सकता कि नायर और गंगोपाध्याय सही अर्थों में मूर्धन्य हैं या नहीं, लेकिन इस टिप्पणी को पढकर सोचने लगा कि अगर साहित्य अकादेमी की अध्यक्षता के लिए हिन्दी साहित्य के वर्तमान लेखकों में से किसी के नाम पर विचार किया जाना हो तो कौन उपयुक्त हो सकता है? यानि मन ही मन हिन्दी साहित्य के मूर्धन्यों की एक सूची बनाने लगा. ऐसे नाम जो रामचन्द्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय के कद वाले हों. बीते ज़माने के तो और भी अनेक नाम याद आए, प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, जयशंकर प्रसाद, अमृत लाल नागर, रांगेय राघव, महादेवी वर्मा, दिनकर...... लेकिन जब वर्तमान पर आया, यानि उनके बारे में सोचने लगा जो अभी भी हमारे बीच हैं तो कुछ उलझन में पडा. बडे-बडे नाम याद आए, जैसे नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, मन्नू भण्डारी, खुद अशोक वाजपेयी, मैनेजर पण्डेय, केदारनाथ सिंह या इनके थोडा बाद उदय प्रकाश, असगर वज़ाहत, मैत्रेयी पुष्पा, काशीनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया,.... लेकिन लगा कि ये सब तो ‘खद्योत सम’ हैं जो ‘जहां तहां करत प्रकास’. हो सकता है अचानक लिखी जा रही इस टिप्पणी में कुछ महत्वपूर्ण नाम लेना मैं भूल गया होऊं. लेकिन अपनी व्यक्तिगत पसन्द नापसन्द और लाभ हानि की सम्भावनाओं को परे रखकर अगर मुझे ही इनमें से किसी एक को मूर्धन्य कहना-मानना हो तो? सूची को घटाते-घटाते मैं केवल नामवर सिंह पर टिकूंगा. लेकिन मूर्धन्य कहने में या कि जो नाम मैंने पहले गिनाये, उनकी कतार में इन्हें रखने में तो मुझे फिर भी थोडी उदारता का ही प्रयोग करना पडेगा. आप क्या सोचते हैं? क्या आपके मन में ऐसा कोई एक या एकाधिक नाम हिन्दी जगत से है जिसे आप मूर्धन्य कह सकें?

और जब इस मूर्धन्य पर मेरा मन अटका था तभी मन का एक हिस्सा भारत रत्न विवाद की तरफ भी भटक गया. सबसे पहले अडवानी जी ने वाजपेयी जी के लिए भारत रत्न की मांग की (दुष्टों को इसमें ‘इस हाथ ले, उस हाथ दे’ नज़र आया. वाजपेयी जी ने अडवानी जी को प्रधानमंत्री का ख्वाब दिखाया तो बदले में अडवानी जी ने उन्हें भारत रत्न का सपना दिखा दिया!) और फिर तो जैसे भावी भारत रत्नों की क़्यू ही लग गई. ज्योति बसु, जगजीवन राम, कांशी राम और भी न जाने कौन-कौन! और अभी मांगों का सिलसिला खत्म कहां हुआ है? वैसे हमारे देश में इतने बडे पैमाने पर यह पहली बार हुआ है कि भारत रत्न की मांग की जा रही है! कहना अनावश्यक है कि इस तरह की बयान बाजी से भारत रत्न जैसे अलंकरण का तो अवमूल्यन हो ही रहा है, उन लोगों के सम्मान पर भी थोडी-बहुत आंच आ रही है जिन्हें विगत में यह अलंकार प्रदान किया गया था. वैसे, कुछेक अपवादों को छोडकर, भारत रत्न पर प्राय: राजनेताओं का ही एकाधिकार रहा है. लगभग हर प्रधानमंत्री-पूर्व प्रधानमंत्री को पदेन भारत रत्न बना दिया गया. यह राजनीति के प्रति हमारे अतिरिक्त मोह का परिचायक होने के साथ ही उन लोगों की निकट दृष्टि का भी परिचायक रहा जो इस तरह के अलंकरणों के निर्णायक-नियामक होते हैं. अब भी अगर हम यह सोचें कि राजनीति की दुनिया में से ही भारत रत्न चुने जाने हैं तो कौन-कौन से नाम आपके जेह्न में आते हैं? लेकिन सोचते वक़्त एक काम ज़रूर करें. अपनी राजनीतिक संलग्नता को ज़रा अलग रख दें. यानि अगर आप भाजपा के प्रति सहानुभूतिशील हैं तो कृपया वाजपेयी-अडवानी से अलग हटकर और वामपंथी हैं तो ज्योति बसु को छोडकर और बसपा समर्थक हैं तो कांशीराम-मायावती से अलग हटकर विचार करें. मैंने इस तरह सोचा तो पाया कि अगर मेरे वश में हो तो मैं किसी को भी भारत रत्न न दूं. कम से कम राजनीति की दुनिया से तो किसी को भी नहीं. आप का क्या विचार है?




Sunday, January 13, 2008

दर्शक दीर्घा में बैठकर न देखें प्रजातंत्र का खेला

अब तक महिला विषयक लेखन के लिए सुपरिचित बेस्ट सेलर लेखिका नाओमी वुल्फ अपनी नई किताब ‘द एण्ड ऑफ अमरीका: लेटर ऑफ वार्निंग टू अ यंग पैट्रिअट’ के माध्यम से अपने देशवासियों को आगाह करती हैं कि उनके देश में प्रजातंत्र का बने रहना इस बात पर निर्भर है कि वे उसमें कितनी भागीदारी निबाहते हैं. यूरोपीय व अन्य देशों के सत्तावादी उभारों के इतिहास का स्मरण करते हुए वह भयावह आशंका जताती है कि अमरीका में भी ऐसा हो सकता है. वुल्फ बताती हैं कि किस तरह दुनिया के तमाम निरंकुश अत्याचारी शासक एक खास क्रम में उठाये गए दस कदमों से प्रजातंत्र को कुचलते रहे हैं. ये दस कदम हैं : सबसे पहले आंतरिक और बाह्य संकट का हौव्वा खडा किया जाए, गुप्त कारागार स्थापित किए जाएं, एक पैरा मिलिट्री फोर्स बनाई जाए, आम नागरिकों की निगरानी शुरू की जाए, नागरिक समूहों में घुसपैठ की जाए, मनमाने तरीके से नागरिकों की पकड-धकड की जाए और बिना किसी तर्क के उन्हें छोड भी दिया जाए, मुख्य व्यक्तियों को निशाना बनाया जाए, प्रेस को नियंत्रित किया जाए, आलोचना को ‘जासूसी’ का और असहमति को ‘देशद्रोह’ का नाम दिया जाए, और न्याय पूर्ण व्यवस्था को नष्ट किया जाए. सारी दुनिया में इन कदमों का प्रयोग खुले समाजों को बर्बाद करने में किया जाता रहा है.
नाओमी वुल्फ की यह किताब भयावह है क्योंकि यह अमरीका के आज के घटनाक्रम और बीसवीं शताब्दी के मध्य के उस घटनाक्रम में साम्य दर्शाती है जिसकी परिणति फासीवाद और द्वितीय विश्व युद्ध में हुई थी. वुल्फ ज़ोर देकर कहती हैं कि समाज तानाशाही की तरफ यकायक नहीं मुड जाया करते. प्राय: होता यह है कि ज़्यादातर लोगों की सामान्य नियमित दिनचर्या अप्रभावित रहती है. हो सकता है कि हम ‘अमरीकन आइडल’ देखते रहें, मॉल में जाकर पिज़्ज़ा ऑर्डर करते रहें और उसी वक़्त हमारी आज़ादी हमसे छीनी जाती रहे. इसीलिए वे कहती हैं कि अमरीका आज जिस रास्ते पर चल रहा है वह डेमोक्रेट और रिपब्लिकन दोनों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए क्योंकि आज़ादी का लोप तो सबको ही प्रभावित करेगा.
वुल्फ पूरी ऊर्जा और शिद्दत से यह एहसास कराती है कि बुश प्रशासन की नीतियों की वजह से उनका देश एक खतरनाक फासिस्ट शिफ्ट से गुज़र रहा है. वे कहती हैं कि फासीवाद तानाशाही के बगैर भी पनप सकता है.
हालांकि आम अमरीकी यह मानने को तैयार नहीं होता कि 9/11 के बाद उसका देश किसी भी तरह नाज़ी जर्मनी और चिली के फासीवाद और सर्वसत्तावादी कालखण्ड के समकक्ष बनता जा रहा है, लेकिन एक बहुत छोटे किंतु प्रतिबद्ध प्रकाशक के यहां से प्रकाशित वुल्फ की महज़ 192 पृष्ठों की किताब यह स्थापित करने में पूरी तरह कामयाब है कि उन समाजों और आज के अमरीकी समाज के बीच की समानांतरता और समानताओं या कि अनुगूंजों को अनसुना नहीं किया जा सकता. इस तरह यह किताब एक साथ ही चौंकाती है, डराती है और हमारी संवेदनाओं को झकझोरती है.
नोआमी वुल्फ इस किताब में 30 के दशक के जर्मनी, 40 के दशक के रूस, 50 के दशक के पूर्वी जर्मनी, 60 के दशक के चेकोस्लोवाकिया, 70 के दशक के चिली और 80 के दशक के चीन के परिदृश्य से 2000 के बाद के अमरीका की समानताएं दिखाकर प्रजातंत्र के सम्भावित पटाक्षेप के खिलाफ जनमत जगाने का मूल्यवान प्रयास करती हैं. वे साफ शब्दों में कहती हैं कि प्रजातंत्र ऐसा तमाशा नहीं है जिसे दर्शक दीर्घा में बैठकर देख जाए. अमरीका के संस्थापकों ने ऐसे देश की कल्पना नहीं की थी जहां वकील, स्कॉलर, राजनीतिज्ञ जैसे प्रोफेशनल ही संविधान की व्याख्या और जनाधिकारों की चिंता करें. उन लोगों ने यह कभी नहीं चाहा था कि आम लोगों से अलग ताकतवर लोग आज़ादी की रक्षा करें. उन्होंने तो यह चाहा था कि आम लोग ही अपनी आज़ादी की रक्षा करें. अमरीका के संस्थापकों ने आज़ादी को नैसर्गिक, ईश्वर प्रदत्त और ऐसी व्यवस्था कभी नहीं कहा-समझा जिसमें सभ्यता स्वत: बनी रहेगी. बल्कि उन्होंने तो अत्याचार और दमन को यथास्थिति तथा स्वाधीनता को अपवाद माना. ऐसा अपवाद जिसको पाने के लिए संघर्ष किया जाए और जो अगर मिल जाए तो उसे सीने से लगाकर रखा जाए. नोआमी वुल्फ को शिकायत है कि अमरीकियों ने प्रजातंत्र को बहुत अगम्भीरता से लिया है, जबकि इसका तो अस्तित्व ही नागरिकों की सहभागिता और सक्रियता पर निर्भर है.
किताब अमरीका को सम्बोधित है, लेकिन हम भारतीयों के लिए भी इसकी प्रासंगिकता कम नहीं है. आज अमरीका इतनी बडी वैश्विक शक्ति बन चुका है कि वहां की हर छोटी-बडी हलचल शेष विश्व को भी प्रभावित करती है. अगर वहां प्रजातंत्र का क्षरण होता है तो उसका असर हम सब पर भी पडेगा. इस बात के अतिरिक्त भी, जो बातें नोआमी अमरीका को सम्बोधित कर कह रही हैं, उन्हें हमें भी सुनना और गुनना चाहिए. कभी पण्डित नेहरु ने भी तो कहा था : एटर्नल विजिलेंस इज़ द प्राइस ऑफ लिबर्टी.
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चर्चित पुस्तक :

The End of America: Letter of Warning To A Young Patriot
By Naomi Wolf
Publisher: Chelsea Green Publishing; White River Jct., VT 05001,USA
Pages: 192
US $ 13.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत प्रकाशित.



Thursday, January 10, 2008

हंसाते-हंसाते रुला देने वाला उपन्यास

पडौसी देश पाकिस्तान से हाल ही में आया ‘खोया पानी’ व्यंग्य(और हास्य भी) का एक अनूठा उपन्यास है. टोंक में जन्मे और अब लन्दन में रह रहे मुश्ताक़ अहमद यूसुफी का यह उपन्यास (हिन्दी अनुवाद: तुफैल चतुर्वेदी) पांच कहानी नुमा निबन्धों या निबन्ध नुमा कहानियों से बुना हुआ है. कहानियां हैं हवेली, धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा, स्कूल मास्टर का ख्वाब, खण्डहर में दीवाली, और कार, काबुलीवाला और अलादीन बेचिराग. उपन्यास में कोई एक सीधी सपाट कथा नहीं है, लेकिन जो वृत्तांत है उससे मुख्य चरित्र गुस्सैल किबला यानि बिशारत के ससुर, खुद बिशारत फारूक़ी और मुल्ला अब्दुल मन्नान आरसी भिक्षु और उनका परिवेश कुछ इस तरह साकार होते है आपके मुंह से एक साथ ही ‘वाह’ और ‘आह’ दोनों निकल पडते हैं. उपन्यास की एक बडी ताकत इसकी चुस्त-चपल और हास्य-व्यंग्य से भरपूर भाषा है. कुछ बानगियां देखें :
•शेर को इस तरह नाक से गाकर सिर्फ वही मौलवी पढ सकता है जो गाने को वाकई हराम समझकर गाता हो. किसी शख्स को गाने, सूफीज़्म, फारसी और मौलवी चारों से एक ही समय में नफरत करानी हो तो मसनवी के दो शेर इस धुन में सुनवा दीजिए.
•शेरो-शायरी या नोविलों में देहाती ज़िन्दगी को रोमांटिसाइज़ करके उसकी निश्छलता, सादगी, सब्र और प्राकृतिक सौन्दर्य पर सर धुनना और धुनवाना और बात है लेकिन सचमुच किसी किसान के आधे पक्के या मिट्टी गारे के घर में ठहरना किसी शहरी इण्टेलेक्चुअल के बस का रोग नहीं.
•भोगे हुए यथार्थ के पर्दे में जितनी दाद तवायफ को उर्दू फिक्शन लिखने वालों से मिली उतनी अपने रात के ग्राहकों से भी न मिली होगी.
•बिशारत स्तब्ध रह गये, मर्द ऐसे मौकों पर खून कर देते हैं और नामर्द खुदकुशी कर लेते हैं. उन्होंने यह सब नहीं किया, नौकरी की जो क़त्ल और खुदकुशी दोनों से कहीं ज़ियादा मुश्क़िल है.
•अरे साहब! मैं भी एक बिज़नेसमैन को जानता हूं. उनके घर पर कालीनों के लिये फर्श पर जगह न रही तो दीवारों पर लटका दिये. कालीन हटा-हटा कर मुझे दिखाते रहे कि इनके नीचे निहायत कीमती रंगीन मारबल है.

लेखक का सबसे बडा कौशल इस बात में है कि वे हंसाते-हंसाते अचानक उदास कर देते हैं. मार्मिक चित्रण में तो वे बेजोड हैं. कुछ बानगियां देखें :
•यह कैसी बस्ती है. जहां बच्चे न घर में खेल सकते हैं न, बाहर. जहां बेटियां दो गज़ ज़मीन पर एक ही जगह बैठे-बैठे पेडों की तरह बडी हो जाती हैं, जब ये दुल्हन ब्याह के परदेस जायेगी तो इसमे मन में बचपन और मायके की क्या तस्वीर होगी? फिर खयाल आया, कैसा परदेस, कहां का परदेस. यह तो बस लाल कपडे पहन कर यहीं-कहीं एक झुग्गी से दूसरी झुग्गी में पैदल चली जाएगी. यही सखी सहेलियां “काहे को ब्याही बिदेसी रे! लिखी बाबुल मोरे!” गाती हुई इसे दो गज़ पराई ज़मीन के टुकडे तक छोड आयेंगी. फिर एक दिन मेंह बरसते में जब ऐसा ही समां होगा, वहां से अंतिम दो गज़ ज़मीन की ओर डोली उठेगी और धरती का बोझ धरती की छाती में समा जायेगा.
•कब्रिस्तान भी सीख लेने की जगह है. कभी जाने का मौक़ा मिलता है तो हर कब्र को देख ध्यान आता है कि जिस दिन इसमें लाश उतरी होगी, कैसा कुहराम मचा होगा. रोने वाले कैसे बिलख-बिलख, कर तडप-तडप कर रोये होंगे. फिर यही रोने वाले दूसरों को रुला-रुला कर यहीं बारी-बारी मिट्टी का पैबन्द होते चले गये. साहब ! यही सब कुछ होना है तो फिर कैसा शोक किसका दुखा, काहे का रोना.

या ये सूक्ति नुमा वाक्य देखिये :
•देहात में वक़्त भी बैलगाडी में बैठ जाता है.
•जिन कामों में मेहनत अधिक पडती है लोग उन्हें नीचा और घृणित समझते हैं.
•आप रिश्वतखोर, व्यभिचारी और शराबी को हमेशा मिलनसार और मीठे स्वभाव का पायेंगे. इस वास्ते कि वो अक्खडपना, सख्ती और बदतमीज़ी एफोर्ड कर ही नहीं सकता.
•आज काम तो बडे हो रहे हैं, मगर आदमी छोटे हो गए हैं.

उपन्यास में कथाओं-उपकथाओं के शीर्षक देने में भी गज़ब की कलाकारी है. जानी-पहचानी गज़लों, गीतों और मिस्रों को शीर्षक बना कर जो लज़्ज़त पैदा की गई है, उसका क्या कहना! हम चुप रहे, हम रो दिये; कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या; जग में चले पवन की चाल; कोई दीवार सी गिरी है अभी; एक उम्र से हूं लज़्ज़ते-गिरियां से भी महरूम; कश्का खेंचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया; वो तिरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है आदि.

लेखक बीते ज़माने की तस्वीर बनाता है, खुद उसके मज़े लेता है, आपको हंसाता है, व्यंग्य करता है और अचानक कोई ऐसी बात कह जाता है कि आपकी आंखें नम हो जाती हैं. उसकी सहानुभूति सर्वत्र वंचित के साथ है. कहीं भी वह उसके प्रति क्रूर नहीं होता. उपन्यास अतीत और वर्तमान के बीच बहुत सहजता से आता-जाता है. यह उपन्यास एक ऐसी रचना है जिसकी उत्कृष्टता का असल अनुभव इसे खुद पढकर ही किया जा सकता है. जब आप इसे पढते हैं तो इसके एक-एक वाक्य, एक-एक प्रसंग के साथ डूबते-उतरते हैं, लेकिन जब पढकर खत्म करते हैं तो बरबस फिराक़ गोरखपुरी याद आ जाते हैं :
आए थे हंसते खेलते मैखाने में फिराक़
जब पी चुके शराब तो संज़ीदा हो गए!
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चर्चित पुस्तक:
खोया पानी (अद्भुत व्यंग्य उपन्यास)
मुश्ताक़ अहमद यूसुफी
अनुवाद : तुफैल चतुर्वेदी
प्रकाशक : लफ्ज़, प-12, नर्मदा मार्ग, सेक्टर – II, नोएडा-201301
पहला संस्करण : 2007
पृष्ठ : 348
मूल्य : 200.00

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत दिनांक 10 जनवरी 2008 को प्रकाशित.

Thursday, January 3, 2008

विज्ञान गल्प का समृद्ध संसार

हमारे समय के सबसे ज़्यादा चर्चित-प्रशंसित कथाकारों में से एक, फाहरेनहाइट 451 सहित 30 से अधिक पुस्तकों के लेखक 90 वर्षीय रे ब्रेडबरी की नई किताब नाऊ एण्ड फॉरएवर: समव्हेयर अ बैण्ड इज़ प्लेइंग एण्ड लेवियाथन ’99 कृतित्व के दो नितांत भिन्न आयामों से हमारा परिचय कराती है. रे ब्रेडबरी की ख्याति विज्ञान कथा और फैण्टेसी लेखक के रूप में अधिक है. इस किताब में उनकी अब तक अप्रकाशित दो उपन्यासिकाएं हैं.
पहली उपन्यासिका समव्हेयर अ बैण्ड इज़ प्लेइंग को आलोचकों ने एक स्वर से ब्रेडबरी की ‘फाहरेनहाइट 451’ के बाद की श्रेष्टतम रचना माना है. उपन्यासिका का प्रारम्भ होता है एक कविता से जिसका आशय कुछ इस तरह से है कि कहीं एक बैण्ड बज रहा है, उसे सुनो. अगर तुमने उसकी धुन को सुन लिया तो तुम सदा नृत्य रत रहोगे, और मौत सदा को शांत हो जाएगी.. इस कविता को पढते हुए उपन्यासिका का मुख्य पात्र पत्रकार जेम्स कार्डिफ अपनी आंखें मूंद लेता है और क्रमश: समरटन, एरिज़ोना नामक एक विलक्षण कस्बे की तरफ आकृष्ट होता है. वह उसी रात ट्रेन पकड कर अपने सपनों के इस कस्बे की ओर चल पडता है जहां कोई ट्रेन रुकती ही नहीं है क्योंकि यह कस्बा नक्शे तक में नहीं है. अंतत: वह चलती ट्रेन से ही इस कस्बे में कूद पडता है. वहां उसका ऐसे स्वागत होता है जैसे उसका इंतज़ार ही किया जा रहा हो. रेगिस्तान के बीच में बसा यह समरटन लगभग स्वर्ग जैसा ही है. स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ और उत्कृष्ट मदिरा से भरा. गाडियों में लदी ताज़ा ब्रेड हर रोज़ कस्बा वासियों को मिलती है, हर घर के हरे-भरे तराशे हुए खूबसूरत लॉन में उगे विशाल सूरजमुखी के फूल सूरज को ताकते हैं, मीठी प्यारी हवा सांसों में ताज़गी भरती रहती है. और भी सब कुछ सर्वोत्क़ृष्ट. समय और उद्योग इस कस्बे को जल्दी ही बदल डालने को है. लेकिन कार्डिफ को लगता है कि कुछ महत्वपूर्ण है जो अनुपस्थित है. वहां न तो बच्चे हैं, न बेसबाल के बल्ले और न बास्केटबाल के खम्भे. है एक उजडा-सा स्कूल, जिसमें पढने वाला कोई नहीं है. कस्बे में केवल युवा हैं. कोई डॉक्टर भी वहां नहीं है. एक बहुत अजीब-सा कब्रिस्तान ज़रूर है. कस्बे के सारे लोग बहुत स्वस्थ और प्रमुदित हैं. अजीब इसलिए कि वहां कब्रों पर जो पत्थर लगे हैं. उन पर मृत्यु तिथि की बजाय जन्म तिथियां अंकित हैं. कस्बे में कोई न तो बूढा होता है और न मरता है. वहां हरेक व्यक्ति एक लेखक है. जेम्स को इजिप्शियन व्यू आर्म्स नामक एक विशाल विक्टोरियन बोर्डिंग हाउस में ले जाया जाता है. इसकी मालकिन है रहस्यमयी नेफ. बला की खूबसूरत और सम्मोहक. जेम्स को लगता है जैसे वह नेफ को युगों-युगों से जानता है और नेफ जैसे उसी का इंतज़ार कर रही है. महत्वपूर्ण है समरटन की हवा में फैली रहस्य की गंध. कार्डिफ उसी गंध को सूंघ कर उसका पीछा करता है और जो कुछ पाता है उसे हमारे लिए लिखता है. उसके मन में द्वन्द्व है कि क्या वह कस्बे वालों को यह बता दे कि सरकार बहुत जल्दी उस कस्बे को नेस्तनाबूद कर वहां एक हाइवे बनाने वाली है. उपन्यास का गद्य इतना काव्यात्मक है कि चाहें तो केवल उसके आस्वाद के लिए ही इसे पढ लें.
इस कथा से एकदम भिन्न है लेवियाथन ’99 की कथा. अगर संगीत की भाषा में कहें तो कह सकत हैं कि पहली कथा आलाप जैसी है और दूसरी किसी द्रुत गत जैसी. लेवियाथन दर असल हरमन मेलविल के सुप्रसिद्ध उपन्यास मॉबी डिक का आधुनिक रुपांतरण है. ब्रेडबरी पूरी ज़िन्दगी मॉबी डिक से प्रभावित रहे हैं. 1955 में उन्हें इस उपन्यास का स्क्रीन प्ले तैयार करने को कहा गया था. अपने वर्तमान रूप में ब्रेडबरी का यह लघु उपन्यास सफेद व्हेल और पागल कप्तान अहाब के साथ ब्रेडबरी की मुठभेड की परिणति है. इस कथा का काल 2099 है और यह घटित होती है एक विशाल जहाज सेस्टस 7 पर. एक जहाजी इस्माइल जोंस अपनी जान बचाने और कप्तान के आदेश का पालन करने के द्वन्द्व में फंसा है. अन्धा और पागल कप्तान ब्रह्माण्ड के सर्वाधिक प्रभावशाली और विनाशक धूमकेतु लेवियाथन से आतंकित है.यहां ब्रेडबरी ने मेलविल की व्हेल को धूमकेतु में रुपांतरित किया है. उन्होंने ने मेलविल की कथा की दार्शनिक गहनता को भी बहुत खूबी से उभारा है.
ब्रेडबरी जब किसी स्थान का वर्णन करते हैं तो लगता है जैसे आप वहां मौज़ूद हैं और जब वे किसी मौसम के बारे में लिखते हैं तो आप खुद उस मौसम का अनुभव करते हैं. ब्रेडबरी के लेखन के रसज्ञों का कहना है कि यहां उनकी कल्पनाशीलता अपने चरम पर है. दोनों उपन्यासिकाओं का अंत बता कर मैं अपने पाठकों के सुख को छीनने का अपराधी नहीं बनना चाहता. विज्ञान कथा लेखन के शीर्ष रचनाकार ब्रेडबरी की ये दोनों उपन्यासिकाएं आपको कुछ इस तरह अभिभूत करती हैं कि इनके प्रभाव से मुक्त होने का मन ही नहीं करता.
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राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स में 3 जनवरी 2008 को प्रकाशित.