Friday, December 7, 2007

जीवन की पाठशाला के सबक

मेरे बूढे प्रोफेसर की आखिरी कक्षाएं सप्ताह में एक दिन उनके अध्ययन कक्ष की खिडकी के पास होती थी जहां से वे एक छोटे-से जपाकुसुम से झरती पीली पत्तियों को देख सकते थे. कक्षा हर मंगलवार को होती थी. विषय होता था : जीवन का मक़सद. इसे अनुभवों से पढाया जाता था.
कोई अंक नहीं दिये जाते, लेकिन हर सप्ताह मौखिक परीक्षा होती. सवालों के जवाब देने होते थे, लेकिन आप सवाल पूछ भी सकते थे. विद्यार्थी को कुछ मशक्कत भी करनी होती थी – जैसे तकिये पर प्रोफेसर का सर टिकाना, या उनकी नाक पर चश्मे को ठीक करना. विदा के वक़्त चुम्बन के लिए अतिरिक्त श्रेय दिया जाता था.
किताबों की ज़रूरत नहीं थी, फिर भी बहुत सारे विषय जैसे प्रेम, कर्म, समुदाय, परिवार, बुढापा, क्षमा और अंतत: मृत्यु, पढाये गए. अंतिम लेक्चर बहुत संक्षिप्त था, महज़ चन्द शब्दों का.
दीक्षांत समारोह के रूप में हुआ अंतिम संस्कार.
कोई वार्षिक परीक्षा नहीं होनी थी, लेकिन अपेक्षा थी कि जो सीखा गया है उसके आधार पर एक लम्बा पर्चा लिखा जाएगा. वही पर्चा यहां प्रस्तुत है.
मेरे प्रोफेसर की अंतिम कक्षा में केवल एक विद्यार्थी था.
मैं ही वह विद्यार्थी था.

जाने माने स्पोर्ट्स लेखक मिश अल्बॉम की बहु-प्रसंसित और बेस्ट सेलर पुस्तक ‘ट्यूज़डे’ज़ विद मॉरी : एन ओल्ड मेन, अ यंग मेन, एण्ड लाइफ्स ग्रेटेस्ट लेसंस’ की ये पंक्तियां आपको एक ऐसे विरल अनुभव जगत में ले जाती हैं जिसके प्रभाव और सम्मोहन से उबर पाना लगभग संभव है. 1958 में न्यू जर्सी में जन्मे मिश ने 1979 में मैसाचुएट्स राज्य के ब्रैडाइज़ विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि अर्जित की. यहां उन्हें सुविख्यात समाजशास्त्री प्रोफेसर मॉरी श्वार्ट्ज़ (जन्म 1916) का विद्यार्थी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. हालांकि गुरु ने शिष्य से कहा था कि वह सम्पर्क बनाए रखे लेकिन मिश पढाई पूरी कर जीवन की व्यस्तताओं में ऐसे डूबे कि यह वादा पूरा नहीं कर पाए. एक रात टी वी चैनल पलटते-पलटते उन्हें अपने प्रोफेसर की सुपरिचित आवाज़ सुनाई दी और वे उनसे सम्पर्क को व्याकुल हो उठे. लम्बी दूरी तै कर मिश मॉरी के पास पहुंचे और फिर शुरू हुई उनकी मंगलवारीय कक्षाएं.
इस बीच प्रोफेसर के जीवन में भी बहुत कुछ घटित हो चुका है. साठ के होते-होते वे अस्थमा के शिकार हो चुके थे. सांस लेने में दिक्कत होने लगी थी. कुछ बरसों बाद चलने में मुश्किल होने लगी. सत्तर तक पहुंचते-पहुंचते और भी बीमारियों ने उन्हें घेर लिया. और 1995 में एक दिन लम्बी जांच–पडताल के बाद डॉक्टर ने उन्हें बताया कि वे एमियोट्रॉपिक लेटरल स्क्लेरोसिस (ए एल एस) नामक गम्भीर और लाइलाज़ बीमारी के भी शिकार हैं.
1995 के मध्य का यही वह समय था जब मिश ने मॉरी से मुलाक़ातों के दूसरे सिलसिले की शुरुआत की. इस दूसरे दौर में पहली बार वे एक मंगलवार को मिले और इसके बाद हर मंगलवार को मिलने का एक क्रम बन गया. इन कुल 14 मंगलवारीय मुलाक़ातों में शिष्य ने अपने गुरु से जीवन का मक़सद विषय पढा. पढाई के दौरान अक्सर गुरु अपने शिष्य का हाथ थामे रहता. उनके बीच का रिश्ता गुरु-शिष्य से भी आगे बढकर पिता-पुत्र का हो गया था. अपने एकदम अंतिम दिनों में मॉरी ने कहा भी कि अगर उनके एक और संतान हो सकती तो वे चाहेंगे कि वह संतान मिश ही हो.

मॉरी-मिश सम्वाद का यह वृत्तांत उनके विश्वविद्यालयीय काल की स्मृतियों के फ्लैशबैक से सज्जित है. अपने इन चौदह पाठों में मॉरी बार-बार कहते हैं कि प्रेम मनुष्य जीवन और हर रिश्ते का सार तत्व है और प्रेम के बगैर रहना मानो न रहने जैसा है. मॉरी अपने प्रिय कवि डब्ल्यू एच ऑडेन को भी इस सन्दर्भ में उद्धृत करते हैं. मॉरी आज की पॉप्युलर कल्चर पर भी तीखी टिप्पणियां करते हैं. वे मिश को सलाह देते हैं कि वह पॉप्युलर कल्चर को त्याग कर खुद की एक ऐसी संस्कृति रचे जो प्रेम, स्वीकृति और मानवीय श्रेष्ठता पर आधारित हो तथा नैतिक मूल्यों की संवाहक हो. उन्हें लगता है कि पॉप्युलर कल्चर लालच, स्वार्थ और उथलेपन पर टिकी है और मानवता को नुकसान पहुंचा रही है. मॉरी मिश को बुढापे और मृत्यु को स्वीकार करने की भी सलाह देते हैं क्योंकि ये दोनों अपरिहार्य हैं. खुद मॉरी अपनी आसन्न मृत्यु को बडे तटस्थ और अनासक्त भाव से लेते हैं. यह अनासक्ति उन्होंने बौद्ध दर्शन से सीखी थी.
यह किताब उन किताबों में से है जिन्हें अगर आप चाहें तो यह कह कर एक दम खारिज़ कर सकते हैं कि इसमें नया क्या है. लेकिन अगर आप इसे पढने लगते हैं तो फिर इसमें डूबते जाते हैं, और जब पढकर पूरी करते हैं तो लगता है कि आपका पुनर्जन्म हुआ है. शायद यही कारण है इस किताब को हाल की सर्वाधिक लोकप्रिय किताबों में से एक माना जा रहा है.
◙◙◙

Discussed book :
Tuesdays with Morrie : An Old Man, a Young Man, and Life’s Greatest Lessons
By : Mitch Albom
Published By: Mass Market Paperback/ Anchor
208 Pages
राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में दिनांक 06 दिसम्बर '07 को मेरे कॉलम 'जस्ट जयपुर' में प्रकाशित.



मॉरी उवाच

मृत्यु जीवन को खत्म करती है, रिश्ते को नहीं.
**
जब आप मरना सीख लेते हैं, जीना अपने आप आ जाता है.
**
जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है यह जानना कि प्यार कैसे लुटाया जाए और कैसे प्यार को अपनी ज़िन्दगी में आ जाने दिया जाए.
**
सब कुछ जाना जा चुका है, सिवा इसके कि ज़िन्दगी को जिएं कैसे.
**
आप लहर नहीं हैं, आप तो समुद्र का अंश हैं.
**

शरद देवडा नहीं रहे.

हम कैसे स्मृति विहीन समय में रह रहे हैं. जो लोग कुछ समय पहले तक हमारी ज़िन्दगी के केन्द्र में थे, आज वे हाशिये पर भी नहीं हैं.
मुझे अच्छे तरह याद है कि जब साठ के दशक में मैं कॉलेज का विद्यार्थी था, शरद देवडा का नाम मन में कितना उद्वेलन पैदा करता था. उनके उपन्यास कॉलेज स्ट्रीट के नए मसीहा के माध्यम से मैंने और मेरी पीढी ने बीटनीक जनरेशन का ककहरा पढा था. उन्हीं के एक और उपन्यास 'टूटती इकाइयां' को पढा तो यह समझा कि कथा में प्रयोग करना किसे कहते हैं. वे ज्ञानोदय के सम्पादक रहे, और आज की पीढी को यह बताना ज़रूरी है कि उस ज़माने में ज्ञानोदय का मतलब था साहित्य का शीर्ष. फिर अणिमा निकाली और खूब धूम धाम से निकाली.
प्रयोग करने की उनकी लालसा कभी चुकी नहीं. आकाश एक आपबीती और प्रेमी प्रेमिका सम्वाद में भी उन्होंने भरपूर प्रयोग किए. कभी कभी लगता है कि वे अपने समय से कुछ आगे के रचनाकार थे. आगे होते- होते वे आज 7 दिसम्बर 07 को जयपुर में इस दुनिया से ही कूच कर गए.

हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि.