Sunday, August 26, 2007

Kitab jise aap bhi padhana chaahenge.

गॉड इज़ नॉट ग्रेट : रियली?



डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल


इन दिनों धर्म की भूमिका की पड़ताल करने वाली अनेक मह्त्वपूर्ण किताबें आई हैं। सैम हैरिस की द एण्ड ऑफ़ फ़ेथ (2005) और रिचार्ड डॉकिन्स की द गॉड डेल्यूज़न (2006) पिछले दिनों बहु चर्चित रही हैं। इसी परम्परा को आगे बढाती है क्रिस्टोफ़र हिचेन्स की किताब ‘गॉड इज़ नॉट ग्रेट : हाऊ रिलीजन पॉइज़न्स एवरीथिंग’ । 1 मई 2007 को प्रकाशित यह किताब अपने प्रकाशन के एक सप्ताह के भीतर ही अमेज़न डॉट कॉम की बेस्ट सेलर सूची में तीसरी पायदान पर पहुंच गई। 13 अप्रेल 1949 को इंग्लैण्ड में जन्मे और अब अमरीकी नागरिक क्रिस्टोफ़र एरिक हिचेन्स की छवि मूर्ति भंजक, नास्तिक और कर्मकाण्ड विरोधी की रही है। मदर टेरेसा तक को कट्टर, रूढिवादी और फ़्रॉड कहकर वे अपने मिजाज़ का परिचय पहले ही दे चुके हैं। इस किताब में तो उन्होंने किसी भी धर्म गुरू को नहीं बख्शा है, चाहे वह दलाई लामा हो या रेवरेण्ड मार्टिन लूथर किंग जूनियर! यहां तक कि महात्मा गान्धी भी उनके प्रहारों से नहीं बच पाये हैं। बस एक अपवाद हैं सेण्ट फ़्रांसिस।
इस किताब का उप शीर्षक (हाऊ रिलीजन पॉइज़न्स एवरीथिंग) इसकी मूल स्थापना को उजागर करने के लिए काफ़ी है। हिचेन्स मानते हैं और अनेक उदाहरण देकर स्थापित करते हैं कि धर्म सब कुछ को जहरीला बनाता है, और दुनिया धर्म के बगैर ज़्यादा बेहतर हो सकती है। हिचेन्स के अनुसार धर्म हिंसक, अतार्किक, असहिष्णु, नस्लवाद, कबीलावाद और धर्मान्धता से जुडा, अज्ञान में आकण्ठ डूबा, मुक्त चिंतन के प्रति आक्रामक, स्त्री विरोधी और बाल-पीडक है। जैसे इतना ही काफ़ी न हो, वे धर्म को मानवीकृत, हत्यारा, भय से उपजा और भय के ही निर्मम दबाव के कारण टिका हुआ बताते हैं। द गॉड डेल्यूज़न के लेखक डॉकिन्स के स्वर में स्वर मिलाकर वे भी धर्म शिक्षा को बाल अपचार की श्रेणी में शुमार करते हैं। हिचेन्स धार्मिक आस्था को खतरनाक यौनिक दमन का परिणाम भी मानते हैं, कारण भी। इन सब कारणों से वे बहुत ज़ोर देकर कहते हैं कि धर्म को हटाइए और जिज्ञासा वृत्ति, मुक्त मन और विचारों की खोज को सम्मान दीजिए।

हिचेन्स यह भी स्थापित करते हैं कि धर्म की जडें केवल और केवल इच्छा पूर्ति में है। इसी आधार पर वे धर्म को मानव-निर्मित बताते हुए कहते हैं कि एक नैतिक जीवन धर्म के बगैर भी/ही जिया जा सकता है। हिचेन्स बर्ट्रेण्ड रसेल की किताब व्हाई आई एम नॉट ए क्रिश्चियन की चिन्तन परम्परा को आगे बढाते हुए विज्ञान एवम तर्क पर आधारित धर्म निरपेक्ष जीवन की वक़ालत करते हैं। हिचेन्स जब तर्क की बात करते हैं और समकालीन यौनिकता तथा यौनिक दमन को प्राचीन धार्मिक विश्वासों से जोडकर विश्लेषित करते हैं तो प्रभावित करते हैं। जब वे विभिन्न युद्धों और तानाशाही निज़ामों में धर्म की संलग्नता के ब्यौरे देते हैं तो उनकी बात में दम लगता है। लेकिन जब वे धर्म की एक अति सरलीकृत छवि बनाते हैं और फ़िर उस पर पिल पडते हैं तो बावज़ूद उनकी तेज़ाबी भाषा और दिलचस्प अन्दाज़े बयां के, हमारी असहमतियां उभरने लगती हैं। तब लगता है कि एक समीक्षक ने यह कहकर कोई ज़्यादती नहीं की है कि हिचेन्स अपने विषय से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं।

गडबड यह हुई है कि हिचेन्स ने धर्म को पूरी तरह सरलीकृत कर डाला है। उनके लिए धर्म और कर्मकाण्ड जैसे एक ही हैं। अगर धर्म वाकई वह है जो हिचेन्स बता रहे हैं तो तो निश्चय ही उसका न होना बेहतर है। दुनिया ऐसे लोगों से भरी पडी है जो यह मानते हैं कि धर्म का अर्थ ऐसे ईश्वर में अन्ध श्रद्धा है जो प्रार्थना करने पर वरदान या शाप दे देता है। ऐसे बेपढे, रूढिवादी लोग ही विज्ञान और तर्क को शैतान के पंजे मानते हैं। सवाल यह है कि क्या धर्म को इस तरह परिभाषित करना उचित और तर्क संगत है? क्या कर्म काण्ड और शाप-वरदान से आगे धर्म है ही नहीं? हिचेन्स शायद यही कहना चाहते है। और यहीं हमें उनसे असहमत होना पडता है।

मुझे इस किताब की सबसे बडी ताकत भी इसी बात में लगती है कि यह अपने पाठक में गहरी असहमति जगाती है। न केवल असहमति, गहरी प्रश्नाकुलता भी। इससे बडी सार्थकता किसी किताब की और हो भी क्या सकती है! किसी किताब या किसी विचारक से यह उम्मीद करना कि उसके पास आपके सारे सवालों के जवाब होंगे निराश होने की दिशा में अग्रसर होना है। दुनिया के किसी भी विचारक और किसी भी किताब ने यह नहीं किया है। लेकिन हर उम्दा किताब, हर सुलझा विचारक आपके ठहरे हुए सोच में हलचल पैदा करने का महत्वपूर्ण काम करता है। इस किताब ने भी यही किया है।

About an interesting book

वर्ल्ड ऑफ़ बुक्स

हम यह नहीं जानते कि हम कुछ नहीं जानते

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल


पिछले कुछ सालों से नसीम निकोलस तालेब यह अध्ययन कर रहे हैं कि कैसे हम खुद को यह समझाकर भरमाते हैं कि हम बहुत कुछ जानते हैं, जबकि वास्तव में हम बहुत ही कम जानते हैं। यह भी कि हम अपने सोच को अप्रासंगिक और अतार्किक तक सीमित रखते हैं जबकि बडी घटनाएं हमें चकित करती और हमारी दुनिया को अपने सांचे में ढालती रहती हैं। अपने इसी अध्ययन को तालेब ने प्रस्तुत किया है अपनी 400 पेज की नई किताब ‘द ब्लैक स्वान : द इम्पैक्ट ऑफ़ हाइली इम्प्रोबेबल’ (प्रकाशन: 17 अप्रेल, 2007) में। यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैसाचुएट्स के प्रोफ़ेसर, आंशिक साहित्यिक निबंधकार, आंशिक गणितीय व्यापारी आदि-आदि तालेब ने इस किताब में अपनी पहली और चर्चित किताब जो 19 भाषाओं में छप चुकी है, ‘फ़ूल्ड बाय रेण्डमनेस’ के तर्कों को ही आगे बढाया है। इस किताब में तालेब ने दो टूक शब्दों में कहा है कि हम कुछ नहीं के बारे में सब कुछ जानने की गलतफ़हमी के शिकार हैं। लेकिन पहले यह तो बता दूं कि यह ब्लैक स्वान –काली बत्तख- क्या है?

तालेब कहते हैं कि ऑस्ट्रेलिया की खोज के पहले सारी दुनिया में यह माना जाता था कि बत्तख केवल सफ़ेद ही होती है। यह एक तरह का वैज्ञानिक सत्य था,और इस सत्य के मूल में था लोगों का आत्मानुभव। 1697 में जब कुछ पक्षी विशेषज्ञों ने ऑस्ट्रेलिया में काली बत्तख देखी तो अब तक के वैज्ञानिक सच को चुनौती मिली। अपने देखे और अपने अनुभव से अर्जित निष्कर्ष की सीमा और हमारे ज्ञान का कच्चापन सामने आया। एक काली बत्तख ने प्रकट होकर लाखों सफ़ेद बत्तखों के दर्शन से अर्जित ज्ञान को धराशायी कर दिया। इसीलिए तालेब कहते हैं , “आपके ज्ञान को चुनौती देने के लिए एक बदसूरत काली बत्तख काफ़ी है।“ इसी बात को वे और आगे बढाते हैं। उनके अनुसार, काली बत्तख (कृपया इसे शब्दश: न लें। यह तो एक प्रतीक है!) का प्रकट होना एक बाह्य परिघटना है क्यों कि यह हमारी नियमित अपेक्षाओं के बाहर घटित होती है, दूसरे इसका गहरा प्रभाव होता है, और तीसरे इस परिघटना के बाह्य होने के बावज़ूद मानवीय प्रकृति इसके प्रकटीकरण के लिए तर्क और व्याख्याएं गढकर यह विश्वास दिलाना चाहती हैं कि इस तरह की घटनाएं व्याख्येय हैं और इनकी भविष्यवाणी सम्भव है।

तालेब कहते हैं कि इन चन्द काली बत्तखों के प्रकट होने को आप अपने पूरे जीवन के साथ जोडकर देख सकते हैं। तब आप समझेंगे कि अपने चतुर्दिक के बारे में हम कितने अज्ञानी हैं और आने वाले कल के बारे में कुछ भी कह पाना कितना नामुमकिन है! हिटलर के उत्थान और विश्व युद्ध के बारे में सोचा था किसी ने? सोवियत संघ के पतन की कल्पना किसी ने की थी? इस्लामी फ़ण्डामेण्टलिज़्म की पदचाप किसको सुनाई दी थी? इण्टरनेट का तेज़ी से प्रसार, 1987 में शेयर बाज़ार का औंधे मुंह गिरना और फ़िर अचानक उठना, अनेक महामारियां, नए फ़ैशन, नए विचार, नए कलारूप, नई शैलियां, किसी किताब का बेस्टसेलर बन जाना, किसी व्यापारी का करोडपति-अरबपति बन जाना- बकौल तालेब ये सब काली बत्तखें ही तो हैं!

यद्यपि भविष्यवाणी की न्यूनतम सम्भाव्यता और उनके गहनतम प्रभावों का मेल काली बत्तखों को महत्वपूर्ण बनाता है, किताब के केन्द्र में यह बात नहीं है। तालेब अफ़सोस के साथ कहते हैं कि लगभग सारे ही समाज विज्ञानी इस मिथ्या विश्वास में जीते हैं कि उनके औज़ार अनिश्चितता की पैमाइश कर सकते हैं, और यही विश्वास घातक सिद्ध होता है। तालेब कहते हैं कि खुद उन्होंने वित्त और अर्थशास्त्र की दुनिया में ऐसा होते देखा है। सामाजिक मामलों तो होता ही है। दुनियाभर के व्यवसायी और सरकारें भविष्यवाणी पर अन्धाधुंध खर्च करते हैं। तालेब इसे फ़िज़ूलखर्ची करार देते हैं।

किताब का केन्द्रीय ताना-बाना जीवन में आकस्मिकता के प्रति सम्मान के अभाव के इर्द गिर्द बुना गया है। तालेब को अफ़सोस है कि हम पेनी को देखते हैं, डॉलर को अनदेखा करते हैं, जीवन की छोटी घटनाओं पर हम नज़र केन्द्रित करते हैं, बडी और महत्वपूर्ण घटनाओं को अनदेखा कर जाते हैं। यही कारण है कि हम अखबार पढ-पढकर और ज़्यादा अज्ञानी होते जाते हैं। तालेब साफ़ करते हैं कि हमारा जीवन कुछ महत्वपूर्ण आकस्मिक घटनाओं की मिली-जुली परिणति है। वे सलाह देते हैं कि हम अपने अस्तित्व पर नज़र डालें। यह सोचें-देखें कि हमारे पैदा होने के बाद हमारे अपने जीवन में और उसके इर्द-गिर्द क्या-क्या महत्वपूर्ण घटित हुआ। इसके बाद यह सोचें कि इनमें से कितनी बातों की हमने कल्पना की थी, कितनी बातें हमारी योजना के अनुरूप हुई हैं! हमारी नौकरी, अपने जीवन साथी से मुलाक़ात, अपनों का विश्वासघात, अचानक आई अमीरी या गरीबी – ये सब कितने प्रत्याशित थे? 11 सितम्बर 2001 का आतंकवादी काण्ड या दिसम्बर 2004 का सुनामी प्रलय – अगर इनका पूर्वानुमान होता तो क्या इन्हें रोक न लिया गया होता!

तालेब विश्लेषकों की काबिलियत को यह कह कर खारिज़ करते हैं कि वे आम लोगों से अधिक नहीं जानते। फ़र्क़ केवल इतना है कि उनका अन्दाज़े-बयां प्रभावशाली होता है और भारी भरकम शब्दावली तथा आंकडों के मायाजाल से वे हमें भरमा पाने में कामयाब होते हैं। तालेब की यह किताब दुनिया को देखने का हमारा नज़रिया बदलने की कोशिश करती है। यह हमें समझाती है कि जिसे हम जानते हैं उससे अधिक महत्वपूर्ण वह है जिसे हम नहीं जानते, और इसीलिए हमें अनजाने के प्रति अधिक ग्रहणशील और सहिष्णु होना चाहिये।