Thursday, December 27, 2007

ऐसे भी पढा जा सकता है किताब को

पेरिस विश्वविद्यालय में फ्रेंच साहित्य के प्रोफेसर और प्रतिष्ठित मनोविश्लेषक पियरे बेयार्ड की बहु चर्चित किताब का मूल फ्रेंच से जेफ्री मेहलमान द्वारा किया गया अंग्रेज़ी अनुवाद ‘हाऊ टू टाक अबाउट बुक्स यू हेवण्ट रेड’ इधर खूब पढा जा रहा है. बावन वर्षीय प्रोफेसर बेयार्ड ने इस मज़ेदार और ऊपर से हल्की लगने वाली किताब के माध्यम से उन लोगों की मदद करने का रोचक प्रयास किया है जो विद्वत्समाज में इस बात से शर्मिन्दगी महसूस करते हैं कि उन्होंने कोई खास क्लैसिक या चर्चित किताब नहीं पढी है. बेयार्ड पहले तो उन्हें यह कहकर दिलासा देते हैं कि न पढने वालों की बिरादरी बहुत बडी है. वे बताते हैं कि पॉल वेलेरी को लेखकों से उनकी अन-पढी किताबों की तारीफ के अनेक तरीके आते थे और मोन्तेन को अपना पढा प्राय: याद नहीं रहता था. इतना ही नहीं, बेयार्ड ग्राहम ग्रीन, डेविड लॉज आदि उपन्यासकारों के ऐसे अनेक चरित्रों की भी याद दिलाते हैं जो पढने की ज़रूरत पर ही प्रश्न चिह्न लगाते रहे हैं. इतना करने के बाद बेयार्ड किसी किताब को बिना पढे उसके बारे में बात करने के तरीके सुझाते हैं. यह करते हुए वे बलपूर्वक कहते हैं कि पढना क़तई ज़रूरी नहीं है, और वे खुद अनेक पुस्तकों को बिना पढे या महज़ उनके पन्ने पलट कर उनके बारे में अपने विद्यार्थियों को प्रभावशाली व्याख्यान दे चुके हैं.
किताब का रोचक हिस्सा वह है जहां बेयार्ड आपको यह सलाह देते हैं कि अगर आप किसी सुसंस्कृत, सुपठित समुदाय में किसी पुस्तक की चर्चा के दौरान फंस जाएं तो क्या करें! वे सलाह देते हैं कि आपको भी उसी तरह की किसी अन्य किताब का ज़िक्र छेड देना चाहिए, या उसी लेखक की किसी अन्य किताब की बात करने लग जाना चाहिए. अगर यह मुमकिन न हो तो अपनी ही लिखी किसी किताब या उस किताब पर जिसे आप लिखना चाहते हैं, बात करने लग जाना चाहिए. वैसे आप वह भी कर सकते हैं जो अनेक समीक्षक करते हैं: किताब की भूमिका पढ लें और उसका अंतिम अध्याय देख लें. इतना भी सम्भव न हो तो उसकी विषय सूची ही देख लें. और अगर आपका सामना किसी पुस्तक के लेखक से ही हो जाए तो? बेयार्ड सलाह देते हैं कि आप उनसे कहें कि यह आपकी उत्कृष्टम रचना है, या कि इस बार तो आपने कमाल ही कर दिया. यानि विस्तार में जाए बगैर प्रशंसा करें. और फिर आहिस्ता से चर्चा को रचना से हटाकर रचनाकार पर ले आएं. हर लेखक खुद के बारे में बात करके प्रसन्न होता है.
वैसे वास्तव में यह किताब एक किताब विरोधी का सर्जन नहीं है. खुद लेखक ने कहा है कि “यह किताब एक ऐसे काल्पनिक चरित्र की सृष्टि है जो न पढने की डींगें हांकता है, और वह चरित्र मैं नहीं हूं.” उन्होंने ऐसी किताब क्यों लिखी, इसका जवाब उन्होंने यह कहकर दिया है कि वे फ्रांस के लोगों, विद्यार्थियों और आमजन के मन में बैठे उस सांस्कृतिक डर को भगाना चाहते थे जो साहित्य को लेकर उत्पन्न कर दिया गया है. यहीं यह बता देना भी आवश्यक है कि फ्रांस में किताबों को बहुत पवित्र माना जाता है और वहां लेखक की हैसियत धर्मगुरु और रॉक स्टार के बीच की है. वस्तुत: पाश्चात्य संस्कृति ने किताबों को लगभग उसी तरह पूजा की वस्तु बना दिया है जिस तरह उसने स्तनों और धन को बना दिया है. हमारा पढना एक ऐसे क्षयकारी आदर्शवाद से संचालित होता है जो हमें एक प्रच्छ्न्न लज्जा भाव से भरता रहता है कि हमें इस किताब को और अधिक अच्छी तरह से पढना चाहिये था. बेयार्ड इसे गलत मानते हैं. वे किसी भी किताब को शब्दश: पढने के पक्ष में नहीं हैं और कहते हैं कि असल पढना तो करीब-करीब न पढना ही है. इसे और खोलते हुए वे कहते हैं कि न पढने से आशय कुछ ऐसी सकारात्मक वैकल्पिक क्रियाओं से है जिन्हें हमें अपनाना और अपने बच्चों को भी सिखाना चाहिए, जैसे किताबों के आवरणों को देखना और उनके आरम्भिक अंशों को पढना वगैरह. बेयार्ड मानते हैं कि किसी किताब की गहन जानकारी से अधिक महत्वपूर्ण है किसी ‘सामूहिक पुस्तकालय’ के परिप्रेक्ष्य में उस किताब की अवस्थिति से परिचित होना. सामूहिक पुस्तकालय से उनका आशय है उस तरह की किताबों का समूह. बेयार्ड का कहना है कि किताब को आरम्भ से अंत तक पढने के अलावा और तरह से भी पढा जा सकता है. यहां-वहां से, या पन्ने पलटकर. आखिर किताब की महता तो उसमें सर्वत्र विद्यमान होती है. आप पन्ने पलटते हैं तब भी उसकी श्रेष्ठता के सम्पर्क में तो आते ही हैं. इसके अलावा, किताब की महत्ता इस बात में भी तो निहित होती है कि उसकी समग्र अवधारणा आपके जीवन से कैसे बावस्ता होती है.

दर असल इस किताब का उद्देश्य है लोगों को अधिक आज़ादी के साथ पढने के लिए प्रेरित करना. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही लेखक ने एक गम्भीर विषय को हास्य के माध्यम से प्रस्तुत किया है.
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Discussed book:
How to Talk About Books You Haven’t Read
By Pierre Bayard
Translated from French By Jeffrey Mehiman
Published By Bloomsbury, USA
Pages 208
$ 19.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' के अंतर्गत 27 दिसम्बर 2007 को प्रकाशित.

Thursday, December 20, 2007

सूचना प्रौद्योगिकी, चीन और भारत

आज की दुनिया की आर्थिक हलचलों के किसी भी जागरूक अध्येता से पूछें कि वर्तमान समय का सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक बदलाव क्या है, तो उत्तर इसके सिवा कुछ और हो ही नहीं सकता: चीन और भारत का अभ्युदय. बात को आगे बढाएं और जानने की कोशिश करें कि दुनिया के जिस उद्योग-व्यवसाय पर अब तक पश्चिम का वर्चस्व रहा है, उस पर इस अभ्युदय का क्या प्रभाव हो सकता है, तो निश्चय ही कई उत्तर मिलेंगे. यह स्वाभाविक भी है.

एक प्रसिद्ध सूचना प्रौद्योगिकी सलाहकार समूह गार्टनर से सम्बद्ध दो जाने-माने विश्लेषकों जेम्स एम. पॉपकिन और पार्थ आयंगार की नई किताब ‘आई टी एण्ड द ईस्ट: हाऊ चाइना एण्ड इण्डिया आर आल्टरिंग द फ्यूचर ऑफ टेक्नोलॉजी एण्ड इन्नोवेशन’ ने यही किया है. बेशुमार आंकडों, तथ्यों और उनके गहन विश्लेषण से वैश्विक अर्थव्यवस्था की जटिलताओं को समझने के प्रयत्न में जब वे चीन और भारत के लिए कहते हैं कि ऐसे प्रतिस्पर्धी हमने अपने जीवन में तो देखे नहीं, तो उनसे असहमत होना कठिन होता है.
किताब मोटे तौर पर तीन मुख्य खण्डों में विभाजित है. पहला खण्ड भारत को, दूसरा चीन को और तीसरा संयुक्त रूप से दोनों को समर्पित है. लेखक ने चाइना और इण्डिया को मिलाकर एक नया शब्द गढा है: चिण्डिया. प्रथम दो खण्डों में क्रमश: भारत व चीन के इतिहास, अर्थ तंत्र और उसकी दिशाओं का वर्णन है. इन खण्डों में प्रत्येक देश के लिए 2012 तक की अर्थ-यात्रा की परिकल्पना भी की गई है. ऐसा करते हुए हर देश के लिए तीन सम्भावित मार्गों पर विचार किया गया है. भारत के बारे में लेखक द्वय को सर्वाधिक सम्भावना यह लगती है कि यहां संरचनात्मक सुधार तो खूब होंगे लेकिन शैक्षिक संस्थानों पर अभिजात वर्ग का वर्चस्व बरकरार रहेगा. इस कारण हेव्ज़ और हेव नॉट्स के बीच की खाई भी बनी रहेगी. लेखक द्वय कहते हैं कि एक बन्द सरकारी व्यवस्था वाला देश होने की वजह से चीन के भविष्य की कल्पना का खाका खींचना अपेक्षाकृत कठिन है. हो सकता है, चीन एक गतिशील उद्यमी ताकत बन जाए, या फिर संरक्षणवादी खोल में जा घुसे. दोनों देशों की बात करते हुए वे कहते हैं कि इन्हें ऐसी राह चुननी चाहिए जो एक दूसरे की कमज़ोरियों और ताकतों से तालमेल रख सके. अगर ऐसा किया गया तो भारत और चीन हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर दोनों ही के बाज़ारों की ऐसी ताकत बन जाएंगे जिससे मानव संसाधन और लागत, किसी भी मोर्चे पर पार पाना किसी भी देश के लिए कठिन होगा.
भारत और चीन दुनिया के श्रेष्ठतम कम्प्यूटर वैज्ञानिक और सूचना प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ तैयार कर रहे हैं. पश्चिम की बडी से बडी कम्पनियां अपना असेंबली कार्य तो पहले ही से इन दोनों देशों को आउटसोर्स कर रही हैं, अब तो वे नवाचारों के लिए भी इनकी तरफ देखने लगी हैं. फिर भी, एक अध्ययन यह बताता है कि चीन के केवल दस प्रतिशत स्नातक ही वैश्विक निगमों में सीधे भर्ती की पात्रता रखते हैं, शेष के लिए कम से कम छह माह का प्रशिक्षण आवश्यक होता है. भारत की स्थिति भी बहुत भिन्न नहीं है. हालांकि भारत के कुल सेवा निर्यात का उनचास प्रतिशत(वर्ष 2003-04 में 25 बिलियन डॉलर) सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में ही है और इसमें प्रतिवर्ष छत्तीस प्रतिशत की दर से इज़ाफा हो रहा है, और अगर इतना ही काफी न हो तो यह भी कि दुनिया के ऑफ शोरिंग का दो तिहाई भारत को ही मिल रहा है, हमारी शिक्षा व्यवस्था अभी भी संतोषप्रद नहीं है. यहां के स्नातकों में से मात्र पच्चीस प्रतिशत ही बहुराष्ट्रीय निगमों में सीधे प्रवेश की योग्यता रखते हैं. इसके अलावा, लाइसेंस परमिट के झमेलों के मामलों में हम अमरीका से ही नहीं, चीन से भी बदतर स्थिति में हैं. इंफ्रास्ट्रक्चर की कमियां तो हैं ही, क्षेत्रीय और धार्मिक विवाद, सरकार में घुसे अपराधी तत्व, नीतियों पर बेवजह की खींचतान, भाषाओं की विविधता आदि भी तस्वीर को धुंधलाने में अपना अपना योग देते हैं. ये ही कारण हैं कि वर्ष 2004-05 में भारत को बाह्य निवेश के रूप में साढे पांच बिलियन डॉलर मिले, जबकि उसी अवधि में चीन को एक सौ तरेपन बिलियन डॉलर की प्राप्ति हुई. चीन का प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद भी भारत से दुगुना है.
इस तरह की अन्य अनेक किताबों की तरह यह किताब भी पश्चिम के और विशेष रूप से वहां के बहुराष्ट्रीय निगमों के नज़रिये से लिखी गई है, लेकिन इसके बावज़ूद यह हमें अपनी कमियों और क्षमताओं को समझने में बहुत मदद देती है. इस तरह की किताबें यह भी बताती हैं कि भारत और चीन में किस तरह पश्चिम की दिलचस्पी बढती जा रही है. कहना अनावश्यक है कि इस बढती दिलचस्पी का सबसे ज़्यादा फायदा हमारी युवा पीढी को मिलना है.
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Disucssed Book :
IT and the East: How China and India Are Altering the Future of Technology and Innovation
By: James M. Popkin and Partha Iyengar
Published by: Harvard Business School Press
Hardcover, 226 pages.

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स में 20 दिसम्बर 2007 को प्रकाशित.


Monday, December 17, 2007

लघु कथा पर राष्ट्रीय संगोष्ठी


रायपुर । छत्तीसगढ़ की बहुआयामी और रचनाकारों की सांस्कृतिक संस्था "सृजन-सम्मान" द्वारा आगामी 16-17 फरवरी को रायपुर में नये समय की सबसे कारगर विधा लघुकथा पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है । विमर्श का केंद्रीय विषय "लघुकथाः नई सदी की केंद्रीय विधा" रखा गया है । इस राष्ट्रीय विमर्श में लघुकथा आंदोलन से संबंद्ध रहे 100 सक्रिय लघुकथाकार सहित लगभग 300 साहित्यकार, पत्रकार, शिक्षाविद् एवं आलोचक सम्मिलित होंगे ।
विमर्श एवं ग्रंथ हेतु शोध आलेख आमंत्रितसंस्था द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले अखिल भारतीय साहित्य महोत्सव की कड़ी के रूप में होने वाले इस राष्ट्रीय विमर्श में लघुकथा विधा के विभिन्न आयामों पर आलेख वाचन, संवाद एवं हस्तक्षेप का सत्र रखा गया है । विमर्श में प्राप्त आलेखों का प्रकाशन भी किया जायेगा। संगोष्ठी हेतु लघुकथाकारों, शिक्षाविदों, आलोचकों, साहित्यकारों से निःशुल्क आलेख आमंत्रित किया जा रहा है ।
आलेख भेजने के नियमः-1. मूल आलेख अधिकतम 3-4 पृष्ठ का होना चाहिए । विस्तृत आलेख अलग से भेजा सकता है ।2. आलेख टाइप या हस्तलिखित हो सकता है किन्तु वह पठनीय हो ।3. आलेख के साथ रचनाकार अपना फोटो, संक्षिप्त परिचय अवश्य भेजें । 4. प्रविष्टि प्राप्ति की अधिकतम तिथि 30 जनवरी, 2008 ।५. अंतिम रूप से चयनित 45 आलेख लेखक विमर्श में आलेख वाचन कर सकेंगे । लेखक विमर्श में समुपस्थित रह सकेंगे । उनके आलेखों का प्रकाशन भी किया जायेगा । 6. समस्त आलेख लेखकों को प्रकाशित विमर्श-कृति की एक-एक प्रति निःशुल्क भेंट की जायेगी । 7. विमर्श के सम्मिलित प्रतीभागियों के आवास, भोजन आदि की निःशुल्क व्यवस्था संस्था द्वारा की जायेगी ।
लघुकथाकार के विकास में योगदान देने वालों का सम्मानहिंदी लघुकथा की विधा के विकास में संघर्षरत रहे एवं अपनी रचनात्मकता से इस विधा को गति देने वाले देश के वरिष्ठ लघुकथाकारों, लघुकथा केंद्रित पत्रिका संपादकों, आलोचकों, शोधार्थियों, अनुवादकों, संगठनों का इस साहित्य महोत्सव में राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान भी किया जायेगा । उन्हें इस अवसर पर देश के प्रख्यात साहित्यकारों, आलोचकों एवं महामहिम राज्यपाल, संस्कृति मंत्री, शिक्षामंत्री के करकमलों से "लघुकथा-गौरव" एवं "सृजन-श्री" अलंकरण प्रदान कर उनके साहित्यिक योगदान को रेखांकित किया जायेगा । सम्मान स्वरूप रचनाकारों को एक प्रशस्ति-पत्र, प्रतीक चिन्ह, 1000 रूपयों की साहित्यिक कृतियाँ भेंट की जायेगी ।
\n\u003cp\>इस हेतु एक चयन समिति का गठन किया गया है जो देश के प्रमुख विद्वानों से प्राप्त संस्तुतियों पर अंतिम निर्णय देगी । इस सम्मान हेतु लघुकथा विधा से संबंद्ध रचनाकार, आलोचक, पत्रिका संपादक सहित आदरणीय लघुकथा पाठक भी अपना खुला प्रस्ताव दे सकते हैं । \n\u003c/p\>\n\u003cp\>\u003cfont color\u003d\"#000099\"\>\u003cstrong\>लघुकथा पाठ का राष्ट्रीय आयोजन\u003c/strong\>\u003c/font\>\u003cbr\>इस महती आयोजन में 16 फरवरी, 2007 को रात्रि 8 बजे से 12 बजे तक राष्ट्रीय लघुकथा पाठ का आयोजन भी किया जा रहा है, जिसमें हिंदी सहित अन्य भाषाओं के लघुकथाकार भी हिंदी अनुवाद का पाठ कर सकेंगे । यह सत्र आंशिक रूप से खुला सत्र है। लघुकथा पाठ हेतु देश के सभी प्रदेशों के चुनिंदे लघुकथाकारों को आमंत्रित किया गया जा रहा है किन्तु इच्छुक लघुकथाकार भी लघुकथा पाठ हेतु संबंधित एवं प्रतिनिधि लघुकथा की एक प्रति डाक से भेज सकते हैं । लघुकथा पाठ हेतु लघुकथाकारों का अंतिम चयन कर उन्हें सूचित कर दिया जायेगा । लघुकथा पाठ हेतु प्रतिभागियों के भोजन एवं आवास की व्यवस्था संस्था द्वारा की जायेगी । \n\u003c/p\>\n\u003cp\>\u003cfont color\u003d\"#000099\"\>\u003cstrong\>लघुकथा प्रदर्शिनी\u003c/strong\>\u003c/font\>\u003cbr\>सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ़ के इस महत्वपूर्ण आयोजन में लघुकथा पर केंद्रित एक प्रदर्शिनी भी लगाई जायेगी जिसमें ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण लघुकथा, लघुकथा संग्रह, लघुकथा केंद्रित लघु-पत्रिका, विशेषांक आदि प्रदर्शित की जायेंगी । लघुकथा के संवर्धन एवं विकास से जुड़ी संस्थायें एवं लघुकथाकार अपनी सामग्री 30 जनवरी 2007 तक भेज सकते हैं । प्रदर्शित सामग्री वे प्रदर्शिनी पश्चात वापस ले सकते हैं । \n\u003c/p\>\n\u003cp\>\u003cfont color\u003d\"#000099\"\>\u003cstrong\>लघुकथा संग्रह हेतु रचनायें आमन्त्रित\u003c/strong\>\u003c/font\>\u003cbr\>संस्था द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में केंद्रित विषय पर एक उत्कृष्ट संग्रह का प्रकाशन भी विधागत उन्नयन हेतु किया जाता है । इसी कड़ी में इस वर्ष लघुकथा संग्रह का प्रकाशन भी संस्था द्वारा निःशुल्क किया जा रहा है । लघुकथाकार वर्ष 2005 से अब तक लिखी गई, प्रकाशित या अप्रकाशित केवल 1 प्रतिनिधि लघुकथा भेज सकते हैं । इस संग्रह का विमोचन भी उक्त अवसर पर किया जायेगा तथा लघुकथाकारों को एक-एक प्रति भेंट की जायेगी । लघुकथाकार अपनी लघुकथा 20 जनवरी, 2007 के पूर्व तक भेज सकते हैं । \n\u003c/p\>\n\u003cp\>\u003cstrong\>\u003cfont color\u003d\"#000099\"\>संपर्क-सूत्र-\u003c/font\>\u003c/strong\>\u003cbr\>१. जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान,एफ-3, छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल, आवासीय कॉलोनी, रायपुर, छत्तीसगढ़-492001 (मोबाइल-94241-82664) ",1]
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इस हेतु एक चयन समिति का गठन किया गया है जो देश के प्रमुख विद्वानों से प्राप्त संस्तुतियों पर अंतिम निर्णय देगी । इस सम्मान हेतु लघुकथा विधा से संबंद्ध रचनाकार, आलोचक, पत्रिका संपादक सहित आदरणीय लघुकथा पाठक भी अपना खुला प्रस्ताव दे सकते हैं ।
लघुकथा पाठ का राष्ट्रीय आयोजनइस महती आयोजन में 16 फरवरी, 2007 को रात्रि 8 बजे से 12 बजे तक राष्ट्रीय लघुकथा पाठ का आयोजन भी किया जा रहा है, जिसमें हिंदी सहित अन्य भाषाओं के लघुकथाकार भी हिंदी अनुवाद का पाठ कर सकेंगे । यह सत्र आंशिक रूप से खुला सत्र है। लघुकथा पाठ हेतु देश के सभी प्रदेशों के चुनिंदे लघुकथाकारों को आमंत्रित किया गया जा रहा है किन्तु इच्छुक लघुकथाकार भी लघुकथा पाठ हेतु संबंधित एवं प्रतिनिधि लघुकथा की एक प्रति डाक से भेज सकते हैं । लघुकथा पाठ हेतु लघुकथाकारों का अंतिम चयन कर उन्हें सूचित कर दिया जायेगा । लघुकथा पाठ हेतु प्रतिभागियों के भोजन एवं आवास की व्यवस्था संस्था द्वारा की जायेगी ।
लघुकथा प्रदर्शिनीसृजन-सम्मान, छत्तीसगढ़ के इस महत्वपूर्ण आयोजन में लघुकथा पर केंद्रित एक प्रदर्शिनी भी लगाई जायेगी जिसमें ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण लघुकथा, लघुकथा संग्रह, लघुकथा केंद्रित लघु-पत्रिका, विशेषांक आदि प्रदर्शित की जायेंगी । लघुकथा के संवर्धन एवं विकास से जुड़ी संस्थायें एवं लघुकथाकार अपनी सामग्री 30 जनवरी 2007 तक भेज सकते हैं । प्रदर्शित सामग्री वे प्रदर्शिनी पश्चात वापस ले सकते हैं ।
लघुकथा संग्रह हेतु रचनायें आमन्त्रितसंस्था द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में केंद्रित विषय पर एक उत्कृष्ट संग्रह का प्रकाशन भी विधागत उन्नयन हेतु किया जाता है । इसी कड़ी में इस वर्ष लघुकथा संग्रह का प्रकाशन भी संस्था द्वारा निःशुल्क किया जा रहा है । लघुकथाकार वर्ष 2005 से अब तक लिखी गई, प्रकाशित या अप्रकाशित केवल 1 प्रतिनिधि लघुकथा भेज सकते हैं । इस संग्रह का विमोचन भी उक्त अवसर पर किया जायेगा तथा लघुकथाकारों को एक-एक प्रति भेंट की जायेगी । लघुकथाकार अपनी लघुकथा 20 जनवरी, 2007 के पूर्व तक भेज सकते हैं ।
संपर्क-सूत्र-१. जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान,एफ-3, छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल, आवासीय कॉलोनी, रायपुर, छत्तीसगढ़-492001 (मोबाइल-94241-82664)
या\u003cbr\>२. डॉ. सुधीर शर्मा, राष्ट्रीय संयोजक, सृजन-सम्मान, वैभव प्रकाशन, शिवा इलेक्ट्रानिक के पास, पुरानी बस्ती, रायपुर, 492001 (मोबाइल-94253-58748) या \n\u003cbr\>३. श्री राम पटवा, महासचिव, सृजन-सम्मान, बसंत पार्क, गुरुतेगबहादूर नगर, रायपुर, छत्तीसगढ़-492001- (मोबाइल- 98271-78279)\u003c/p\>\n\u003cp\>\u003cfont color\u003d\"#000099\"\>\u003cstrong\>ई-मेल-\u003c/strong\>\u003c/font\>\u003cbr\>\u003ca href\u003d\"mailto:srijan2samman@gmail.com\" target\u003d\"_blank\" onclick\u003d\"return top.js.OpenExtLink(window,event,this)\"\>srijan2samman@gmail.com\u003c/a\> \u003c/p\>\u003c/blockquote\>\u003c/div\>\u003cbr\>प्रेषक- जयप्रकाश मानस\u003c/div\>\u003c/div\>\u003c/blockquote\>\n\u003cdiv\>रायपुर\u003c/div\>\u003c/div\>\u003cbr\>\n",0]
);
D(["ce"]);
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या२. डॉ. सुधीर शर्मा, राष्ट्रीय संयोजक, सृजन-सम्मान, वैभव प्रकाशन, शिवा इलेक्ट्रानिक के पास, पुरानी बस्ती, रायपुर, 492001 (मोबाइल-94253-58748) या ३. श्री राम पटवा, महासचिव, सृजन-सम्मान, बसंत पार्क, गुरुतेगबहादूर नगर, रायपुर, छत्तीसगढ़-492001- (मोबाइल- 98271-78279)
ई-मेल-
srijan2samman@gmail.com



Tuesday, December 11, 2007

जगजीत सिंह का गाया एक हिन्दी गीत्

जगजीत सिंह का नाम किसी परिचय का मोहताज़ नहीं रह गया है. गज़ल को उन्होंने भारत में जो लोकप्रियता प्रदान की है, उसकी प्रशंसा करना मानो सूरज को दीपक दिखाना है. मैं वह नहीं करूंगा.
लेकिन, जगजीत की गायकी का एक पक्ष प्राय: अनदेखा किया गया है. उन्होंने कुछ बहुत उम्दा हिन्दी गीत भी गाए हैं - इस तरफ लोगों का ध्यान कम ही गया है. यह भी कि हिन्दी गीतों को भी उतनी ही अच्छी तरह से गाया जा सकता है, जितनी अच्छी तरह से उर्दू गज़लों-नज़्मों को गाया गया है.
सुनिए जगजीत की मखमली आवाज़ में यह गीत. इसकी भाषा के माधुर्य पर भी ध्यान दीजिए, और फिर बताइये कि जगजीत को ऐसे ही और गीत क्यों नहीं गाने चाहिए?

http://www.esnips.com/doc/6790588f-1404-4e98-8d9c-25da098f980a/Bujh-Gayee-Tapate-Hue-Din-Ki-Agan/?widget=flash_turning

http://www.esnips.com/doc/6790588f-1404-4e98-8d9c-25da098f980a/Bujh-Gayee-Tapate-Hue-Din-Ki-Agan




Friday, December 7, 2007

जीवन की पाठशाला के सबक

मेरे बूढे प्रोफेसर की आखिरी कक्षाएं सप्ताह में एक दिन उनके अध्ययन कक्ष की खिडकी के पास होती थी जहां से वे एक छोटे-से जपाकुसुम से झरती पीली पत्तियों को देख सकते थे. कक्षा हर मंगलवार को होती थी. विषय होता था : जीवन का मक़सद. इसे अनुभवों से पढाया जाता था.
कोई अंक नहीं दिये जाते, लेकिन हर सप्ताह मौखिक परीक्षा होती. सवालों के जवाब देने होते थे, लेकिन आप सवाल पूछ भी सकते थे. विद्यार्थी को कुछ मशक्कत भी करनी होती थी – जैसे तकिये पर प्रोफेसर का सर टिकाना, या उनकी नाक पर चश्मे को ठीक करना. विदा के वक़्त चुम्बन के लिए अतिरिक्त श्रेय दिया जाता था.
किताबों की ज़रूरत नहीं थी, फिर भी बहुत सारे विषय जैसे प्रेम, कर्म, समुदाय, परिवार, बुढापा, क्षमा और अंतत: मृत्यु, पढाये गए. अंतिम लेक्चर बहुत संक्षिप्त था, महज़ चन्द शब्दों का.
दीक्षांत समारोह के रूप में हुआ अंतिम संस्कार.
कोई वार्षिक परीक्षा नहीं होनी थी, लेकिन अपेक्षा थी कि जो सीखा गया है उसके आधार पर एक लम्बा पर्चा लिखा जाएगा. वही पर्चा यहां प्रस्तुत है.
मेरे प्रोफेसर की अंतिम कक्षा में केवल एक विद्यार्थी था.
मैं ही वह विद्यार्थी था.

जाने माने स्पोर्ट्स लेखक मिश अल्बॉम की बहु-प्रसंसित और बेस्ट सेलर पुस्तक ‘ट्यूज़डे’ज़ विद मॉरी : एन ओल्ड मेन, अ यंग मेन, एण्ड लाइफ्स ग्रेटेस्ट लेसंस’ की ये पंक्तियां आपको एक ऐसे विरल अनुभव जगत में ले जाती हैं जिसके प्रभाव और सम्मोहन से उबर पाना लगभग संभव है. 1958 में न्यू जर्सी में जन्मे मिश ने 1979 में मैसाचुएट्स राज्य के ब्रैडाइज़ विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि अर्जित की. यहां उन्हें सुविख्यात समाजशास्त्री प्रोफेसर मॉरी श्वार्ट्ज़ (जन्म 1916) का विद्यार्थी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. हालांकि गुरु ने शिष्य से कहा था कि वह सम्पर्क बनाए रखे लेकिन मिश पढाई पूरी कर जीवन की व्यस्तताओं में ऐसे डूबे कि यह वादा पूरा नहीं कर पाए. एक रात टी वी चैनल पलटते-पलटते उन्हें अपने प्रोफेसर की सुपरिचित आवाज़ सुनाई दी और वे उनसे सम्पर्क को व्याकुल हो उठे. लम्बी दूरी तै कर मिश मॉरी के पास पहुंचे और फिर शुरू हुई उनकी मंगलवारीय कक्षाएं.
इस बीच प्रोफेसर के जीवन में भी बहुत कुछ घटित हो चुका है. साठ के होते-होते वे अस्थमा के शिकार हो चुके थे. सांस लेने में दिक्कत होने लगी थी. कुछ बरसों बाद चलने में मुश्किल होने लगी. सत्तर तक पहुंचते-पहुंचते और भी बीमारियों ने उन्हें घेर लिया. और 1995 में एक दिन लम्बी जांच–पडताल के बाद डॉक्टर ने उन्हें बताया कि वे एमियोट्रॉपिक लेटरल स्क्लेरोसिस (ए एल एस) नामक गम्भीर और लाइलाज़ बीमारी के भी शिकार हैं.
1995 के मध्य का यही वह समय था जब मिश ने मॉरी से मुलाक़ातों के दूसरे सिलसिले की शुरुआत की. इस दूसरे दौर में पहली बार वे एक मंगलवार को मिले और इसके बाद हर मंगलवार को मिलने का एक क्रम बन गया. इन कुल 14 मंगलवारीय मुलाक़ातों में शिष्य ने अपने गुरु से जीवन का मक़सद विषय पढा. पढाई के दौरान अक्सर गुरु अपने शिष्य का हाथ थामे रहता. उनके बीच का रिश्ता गुरु-शिष्य से भी आगे बढकर पिता-पुत्र का हो गया था. अपने एकदम अंतिम दिनों में मॉरी ने कहा भी कि अगर उनके एक और संतान हो सकती तो वे चाहेंगे कि वह संतान मिश ही हो.

मॉरी-मिश सम्वाद का यह वृत्तांत उनके विश्वविद्यालयीय काल की स्मृतियों के फ्लैशबैक से सज्जित है. अपने इन चौदह पाठों में मॉरी बार-बार कहते हैं कि प्रेम मनुष्य जीवन और हर रिश्ते का सार तत्व है और प्रेम के बगैर रहना मानो न रहने जैसा है. मॉरी अपने प्रिय कवि डब्ल्यू एच ऑडेन को भी इस सन्दर्भ में उद्धृत करते हैं. मॉरी आज की पॉप्युलर कल्चर पर भी तीखी टिप्पणियां करते हैं. वे मिश को सलाह देते हैं कि वह पॉप्युलर कल्चर को त्याग कर खुद की एक ऐसी संस्कृति रचे जो प्रेम, स्वीकृति और मानवीय श्रेष्ठता पर आधारित हो तथा नैतिक मूल्यों की संवाहक हो. उन्हें लगता है कि पॉप्युलर कल्चर लालच, स्वार्थ और उथलेपन पर टिकी है और मानवता को नुकसान पहुंचा रही है. मॉरी मिश को बुढापे और मृत्यु को स्वीकार करने की भी सलाह देते हैं क्योंकि ये दोनों अपरिहार्य हैं. खुद मॉरी अपनी आसन्न मृत्यु को बडे तटस्थ और अनासक्त भाव से लेते हैं. यह अनासक्ति उन्होंने बौद्ध दर्शन से सीखी थी.
यह किताब उन किताबों में से है जिन्हें अगर आप चाहें तो यह कह कर एक दम खारिज़ कर सकते हैं कि इसमें नया क्या है. लेकिन अगर आप इसे पढने लगते हैं तो फिर इसमें डूबते जाते हैं, और जब पढकर पूरी करते हैं तो लगता है कि आपका पुनर्जन्म हुआ है. शायद यही कारण है इस किताब को हाल की सर्वाधिक लोकप्रिय किताबों में से एक माना जा रहा है.
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Discussed book :
Tuesdays with Morrie : An Old Man, a Young Man, and Life’s Greatest Lessons
By : Mitch Albom
Published By: Mass Market Paperback/ Anchor
208 Pages
राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में दिनांक 06 दिसम्बर '07 को मेरे कॉलम 'जस्ट जयपुर' में प्रकाशित.



मॉरी उवाच

मृत्यु जीवन को खत्म करती है, रिश्ते को नहीं.
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जब आप मरना सीख लेते हैं, जीना अपने आप आ जाता है.
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जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है यह जानना कि प्यार कैसे लुटाया जाए और कैसे प्यार को अपनी ज़िन्दगी में आ जाने दिया जाए.
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सब कुछ जाना जा चुका है, सिवा इसके कि ज़िन्दगी को जिएं कैसे.
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आप लहर नहीं हैं, आप तो समुद्र का अंश हैं.
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शरद देवडा नहीं रहे.

हम कैसे स्मृति विहीन समय में रह रहे हैं. जो लोग कुछ समय पहले तक हमारी ज़िन्दगी के केन्द्र में थे, आज वे हाशिये पर भी नहीं हैं.
मुझे अच्छे तरह याद है कि जब साठ के दशक में मैं कॉलेज का विद्यार्थी था, शरद देवडा का नाम मन में कितना उद्वेलन पैदा करता था. उनके उपन्यास कॉलेज स्ट्रीट के नए मसीहा के माध्यम से मैंने और मेरी पीढी ने बीटनीक जनरेशन का ककहरा पढा था. उन्हीं के एक और उपन्यास 'टूटती इकाइयां' को पढा तो यह समझा कि कथा में प्रयोग करना किसे कहते हैं. वे ज्ञानोदय के सम्पादक रहे, और आज की पीढी को यह बताना ज़रूरी है कि उस ज़माने में ज्ञानोदय का मतलब था साहित्य का शीर्ष. फिर अणिमा निकाली और खूब धूम धाम से निकाली.
प्रयोग करने की उनकी लालसा कभी चुकी नहीं. आकाश एक आपबीती और प्रेमी प्रेमिका सम्वाद में भी उन्होंने भरपूर प्रयोग किए. कभी कभी लगता है कि वे अपने समय से कुछ आगे के रचनाकार थे. आगे होते- होते वे आज 7 दिसम्बर 07 को जयपुर में इस दुनिया से ही कूच कर गए.

हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि.