Thursday, November 29, 2007

समतल नहीं हुई है दुनिया

लगभग दो साल पहले न्यूयॉर्क टाइम्स के स्तम्भकार थॉमस फ्रीडमेन की एक किताब आई थी, ‘द वर्ल्ड इज़ फ्लैट’. इस किताब में स्थापित किया गया था कि कई घटकों ने, जिनमें तकनोलोजी प्रमुख है, बेहतर कनेक्टिविटी देकर और पारस्परिक सहयोग को बढाकर दुनिया को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए समतल बना डाला है. किताब बहुचर्चित रही और अभी भी बेस्ट सेलर सूचियों में जगह बनाये हुए है. शायद ही किसी ने फ्रीडमेन की इस स्थापना से असहमति जताई हो कि वैश्वीकरण हो चुका है. अधिकतर असहमतियां वैश्वीकरण के पक्ष-प्रतिपक्ष को लेकर हुई हैं.

लेकिन हाल ही में आई भारतीय मूल के प्रोफेसर पंकज घेमावत की किताब ‘रीडिफाइनिंग ग्लोबल स्ट्रेटेजी: क्रॉसिंग बॉर्डर्स इन अ वर्ल्ड व्हेयर डिफरेंसेस स्टिल मैटर’ इस अवधारणा का पुरज़ोर तरीके से खण्डन करती है. पंकज बार्सीलोना के आई ई एस ई बिज़नेस स्कूल और हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल में प्रोफेसर हैं. अपने एक लेख के लिए 2005 में उन्हें मैक किंसे अवार्ड से भी नवाज़ा जा चुका है.

पंकज ने यह किताब फ्रीडमेन की किताब के जवाब में नहीं लिखी है. वे तो इस विषय पर पिछले दस सालों से काम कर रहे थे. उनकी दिलचस्पी यह जानने में थी कि क्यों कई शक्तिशाली उत्पाद वैश्विक बाज़ार में पिट जाते हैं, बावज़ूद इसके कि उनके ब्राण्ड नाम सुस्थापित होते हैं और उन्हें सफल बनाने में कोई कसर नहीं छोडी जाती है. अपने सवाल का जवाब तलाशते हुए पंकज ने उन कई घटकों की पडताल की जिन्हें वैश्वीकरण का सूचक माना जाता है, जैसे लोगों, सूचना और धन का प्रवाह. इसके बाद उन्होंने यह पडताल की कि इनमें से कितने घटक देशों की सीमाओं के भीतर प्रवाहित होते हैं और कितने सीमाओं के पार! तभी उन्हें ज्ञात हुआ कि ज़्यादा संचरण तो देशों की सीमाओं के भीतर ही होता है. इससे पंकज इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हम प्राय: सीमा पर के भेदों की अनदेखी कर जाते हैं. बडे उत्पादक बडे बाज़ार में अपना माल बेच डालने के लालच में, दुनिया को सीमा रहित मानने का भ्रम पालते हुए, सारी दुनिया के लिए मार्केटिंग की यकसां रणनीति तैयार करते हैं और फिर मुंह के बल गिरते हैं. पंकज ज़ोर देकर कहते हैं कि हमें दुनिया के देशों में जितनी समानताएं दिखाई जाती हैं असमानताएं उनसे बहुत अधिक हैं. यही कारण है कि दुनिया को फ्लैट मानकर अपना माल बेचने की रणनीतियां प्राय: असफल हो जाती हैं.

व्यापारिक रणनीतिकारों की एक बडी चूक पंकज को यह भी दिखाई देती है कि वे प्रवृत्तियों की बजाय छिट-पुट छवियों के आधार पर अपनी धारणाएं बनाते हैं और आंख मूंदकर वैश्वीकरण को स्वीकार कर लेते हैं. इस चूक को दुरुस्त करने के लिए पंकज आंकडा-आधारित प्रवृत्ति विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं. वे बताते हैं कि पूरी दुनिया की आबादी का महज़ 2.9 प्रतिशत ही इमिग्रेट हुआ है. इसी तरह पूरी दुनिया के पूंजी निवेश का मात्र दस प्रतिशत ही फॉरेन डाइरेक्ट इंवेस्टमेंट में लगा है और सबसे खास बात इण्टरनेट पर सूचनाओं की आवाजाही: पंकज तथ्यों के हवाले से बताते हैं कि तमाम सूचनाओं का मात्र बीस प्रतिशत अंश ही देशों की सीमाओं को लांघ पाता है. यानि 80 प्रतिशत सूचनाएं तो देशों की सीमाओं के भीतर ही संचारित होती हैं.

इन आधारों पर पंकज फ्रीडमैन की स्थापनाओं को खारिज करते हुए कहते हैं कि दुनिया अभी भी मोटे तौर पर असमतल ही है और संस्कृति, भौगोलिक स्थितियां, प्रशासनिक व आर्थिक संरचनाएं वगैरह अभी भी महत्वपूर्ण बनी हुई हैं.
दरअसल पंकज की यह किताब बडे व्यवसायों के हित चिंतन के लिहाज़ से लिखी गई है. पंकज उन्हें बताना चाहते हैं कि वे यह भ्रम कतई न पालें कि सारी दुनिया यकसां हो गई है और उसे एक ही तरह का उत्पाद एक समान तरीके से बेचा जा सकता है. इसीलिए पंकज उन्हें समझाते हैं कि दुनिया अभी भी सेमी-ग्लोबलाइज़ेशन (अर्ध वैश्वीकरण) की अवस्था में है. इस तथ्य को समझकर ही व्यावसायिक कामयाबी की मंज़िल तक पहुंचा जा सकता है. यहीं पंकज यह कहना भी नहीं भूलते कि दुनिया के देशों के बीच के ये भेद व्यवाय के लिए कोई बाधा नहीं हैं. बल्कि, अगर कम्पनियां चाहें तो इन भेदों से और अधिक फायदे भी उठा सकती हैं.

ऐसा करने के लिए वे उन्हें एक रणनीति भी सिखाते हैं. इसके तीन मुख्य घटक हैं : ट्रिपल ए ट्राएंगल, केज और एडिंग. पंकज समझाते हैं कि किस तरह इन घटकों का इस्तेमाल कर कार निर्माता टोय़ोटा, सीमेण्ट निर्माता सीमेक्स, रिटेल श्रंखला वाल मार्ट, हेल्थकेयर उत्पादक प्रॉक्टर एण्ड गेम्बल, आई टी वाले आई बी एम, कोका कोला आदि ने सफलता प्राप्त की है. किताब का केन्द्र बिन्दु यह रणनीति ही है,

किताब का महत्व इस बात में है कि यह फ्रीडमेन के सोच पर एक अन्य कोण से विचार करने को प्रेरित करती है.
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Discussed Book:

Re defining Global Strategy: Crossing Borders in a World Where Differences Still Matter
By: Pankaj Ghemawat
Hardcover: 304 pages
Published by: Harvard Business School Press

$ 29.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' में 29 नवम्बर 2007 को प्रकाशित.

Friday, November 23, 2007

पिकासो की जीवनी

दुनिया के महानतम चित्रकारों में से एक पाब्लो पिकासो की जीवनी का बहु प्रतीक्षित तीसरा खण्ड हाल ही में आया है. जॉन रिचर्डसन ने, जो इससे पहले मॉनेट और ब्रेक़ जैसे चित्रकारों पर भी लिख चुके हैं और अमरीका में क्रिस्टी की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निबाह चुके हैं, 608 पन्नों के इस खण्ड में पिकासो के जीवन के मध्यवर्ती काल पर रोशनी डाली है.
‘अ लाइफ ऑफ पिकासो : द ट्रायम्फेण्ट ईयर्स 1917-1932’ शीर्षक यह खण्ड 1917 से प्रारम्भ होता है जब पिकासो युद्धकालीन पेरिस को छोड परेड नामक प्रस्तुति के लिए रोम जाते हैं. इसी काल खण्ड में वे नेपल्स भी जाते हैं जहां के क्लासिकी स्थापत्य का उनके भावी कला कर्म पर अमिट प्रभाव पडता है. पेरिस में वे रूसी बैलेरिना ओल्गा खोखलोवा के प्रेम में कुछ इस तरह डूबते हैं कि अपनी बोहेमियन ज़िन्दगी का परित्याग कर पेरिस की अभिजात जीवन शैली को अंगीकार कर लेते हैं. यह भी एक वजह है कि वे नव क्लासीवाद की तरफ मुडकर आखिरकार घनवादी शैली को अपना लेते हैं. इसे उनके कला कर्म का डचेस काल भी कहा जाता है. जीवनी के इस खण्ड में रिचर्डसन अपने वृत्तांत को वहां से उठाते हैं जहां पिकासो अपने घनवादी (क्यूबिस्ट) काल के बाद दियाघिलेव के बैले के लिए कॉस्ट्यूम डिज़ाइन करने और नव-क्लासिकी काल में प्रवेश करने को तत्पर हैं. इसी काल खण्ड में ओल्गा खोखलोवा के साथ, जो उनकी एकमात्र वैध संतान पाओलो की मां भी है, उनके दाम्पत्य जीवन का वृत्तांत भी समाहित है. रिचर्डसन ने पिकासो की कला-यात्रा और उनके जीवन में आई अनेक स्त्रियों के बीच का अंत: सम्बन्ध बहुत कुशलता से उकेरा है.

1923 की गर्मियों में पिकासो और उनके अमरीकी दोस्त गेराल्ड तथा सारा मर्फी होटल डू केप के मालिकों को इस बात के लिए मना लेते हैं कि वे अपने फ्रेंच रिवेरा को शीतकालीन रिसोर्ट से ग्रीष्मकालीन रिसोर्ट में तब्दील कर दें. इस परिवर्तन के कारण फ्रेंच रिवेरा यूरोपीय कला का एक महत्वपूर्ण घटनास्थल बन जाता है. पिकासो की ज़िन्दगी का एक अन्य महत्वपूर्ण वर्ष है 1927. इस वर्ष वे एक 17 वर्षीया कन्या मेरी थेरेसे वाल्टर के प्यार में कुछ इस तरह मुब्तिला होते हैं कि दुनिया-जहान की सुध बुध ही खो बैठते हैं. स्वाभाविक है कि उनकी पत्नी इस बात को सहन नहीं कर पाती है. उधर मेरी के प्यार में पागल पिकासो इसी वजह से पत्नी से नफरत करने लगते हैं. जीवनीकार रिचर्डसन ने बहुत बारीकी से इस त्रिकोण की मन:स्थितियों का चित्रण किया है.
किताब के आखिरी तीन अध्याय 1931 से 1932 के उस काल खण्ड को समर्पित हैं जब पिकासो अपने जीवन की अर्ध शती पूरी करते हैं. समय बीतने के साथ उनकी यह धारणा मज़बूत होने लगती है कि चित्रकला एक जादुई कर्म है. यहां आते-आते पिकासो स्थापत्य का पुनराविष्कार करते हैं और क्लासिकी परम्परा का पिकासीकरण करते हैं. 1932 की गर्मियों में पेरिस और ज्यूरिख में हुई प्रदर्शनियों में वे आधुनिक कला के पुरोधा के रूप में स्थापित हो जाते हैं.

पिकासो की जीवनी का यह खण्ड उनकी ज़िन्दगी के एक बेहद जटिल दौर को सामने लाता है. यह काल खण्ड यूरोपीय इतिहास में भी उतना ही जटिल और उथल-पुथल भरा है. कला के लिहाज़ से पिकासो इस काल में ‘थ्री म्यूज़ीशियंस’ में घनवादी ज्यामितियां दर्शाते हैं तो परिवार और दोस्तों के नव-क्लासिकी पोर्ट्रेट भी रचते हैं. इसी काल में वे अत्यधिक साहसिक प्रयोगशील स्थापत्यों के त्रि-आयामी रूपों से भी खेलते हैं. यही वह काल है जब पिकासो थिएटर की दुनिया से भी गहन प्रेरणा लेते हैं. दरअसल उनके इस काल के सृजन को समझने के लिए थिएटर एक महत्वपूर्ण कुंजी है.
रिचर्डसन हालांकि पिकासो की जीवनी के इस खण्ड में एक हद तक सुपरिचित कथा कहते हैं, उनका अन्दाज़े-बयां कुछ ऐसा है कि यह सब पढते हुए हम न केवल पिकासो की कला को बल्कि उस पूरे काल-खण्ड की कला-संस्कृति की हलचलों को भी बेहतर तरीके से समझ पाते हैं. रिचर्डसन पिकासो की अनेक कृतियों की भी सूक्ष्मता से चर्चा और व्याख्या करते हैं. 1929 की एक न्यूड पेंटिंग का विश्लेषण करते हुए वे याद दिलाते हैं कि यह पेंटिंग कूर्वे की एक पेंटिंग की उन चट्टानों की याद दिलाती है जो मोपांसा की रचनाओं से प्रेरित हैं. स्वभावत: इस तरह के ब्यौरे हमें पेंटिंग की तहों तक ले जाते हैं. रिचर्डसन के लिए पिकासो एक ऐसे महामानव हैं जिनके समस्त क्रियाकलाप तर्क, व्याख्या और आलोचना से परे हैं.
निश्चय ही आधुनिक चित्रकला के रसिकों के लिए यह किताब पिकासो के जीवन और उनकी कला को और अधिक खोलने में पूरी तरह कामयाब है. हमें अब बहुत बेसब्री से इस किताब के चौथे और आखिरी खण्ड का इंतज़ार है.
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Discussed book :
A Life of Picasso: The Triumphant Years, 1917-1932
By John Richardson
Publisher : Knopf
Pages : 608
US $ 40


राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' के अंतर्गत 22 नवम्बर 2007 को प्रकाशित.

Tuesday, November 13, 2007

हज़ार किताबों का स्वाद एक जगह

अंग्रेज़ी प्रकाशन जगत में ऐसी किताबों की एक दिलचस्प परम्परा है जो यह सुझाती हैं कि आपको दुनिया से विदा होने से पहले ये हज़ार जगहें देख लेनी चाहिए, ये हज़ार फिल्में देख लेनी चाहिए, ये हज़ार किताबें पढ डालनी चाहिए, वगैरह. कहना अनावश्यक है कि यह चुनिन्दा को प्रस्तुत करने की एक शैली है. इसी परम्परा की एक कडी के रूप में हाल ही में आई है “1001 बुक्स : यू मस्ट रीड बिफोर यू डाइ” . इस तरह के किसी भी संकलन को आप जब हाथ में लेते हैं तो पहला काम यह करते हैं कि अपनी बनाई हुई सूची से संकलनकर्ता की सूची की तुलना करते हैं. हरेक की सूची अलग होती है. संकलक की भी. पाठक की सूची के बहुत सारे नाम संकलक की सूची से गायब होते हैं. पाठक के नाराज़ होने के लिए इतना काफी होता है. पीटर बोक्साल्ल द्वारा सम्पादित लगभग हज़ार पन्नों के इस भारी भरकम संकलन के साथ भी ऐसा ही हो रहा है. किसी को यह शिकायत है कि इसमें कार्सन मैक्क्युलर्स अनुपस्थित हैं तो कोई रे ब्रेडबरी को न पाकर क्रुद्ध है. किसी की शिकायत यह है कि इसमें बाल साहित्य को शामिल क्यों नहीं किया गया है तो कोई नोबल पुरस्कार विजेता ओरहान पामुक और नगीब महफूज़ को न पाकर क्षुब्ध है. 37 में से 20 बुकर पुरस्कृत लेखक हैं तो शेष 17 के प्रशंसक तो नाराज़ होंगे ही. किसी की नाराज़गी सही लेखक की कम महत्वपूर्ण पुस्तक के चयन को लेकर है तो किसी को यह उचित नहीं लग रहा कि एक ही लेखक की तीन-तीन पुस्तकें शामिल कर ली गई हैं. बहुतों की शिकायत यह है कि सम्पादकीय चयन इस बात से प्रभावित हुआ है कि किसी औसत दर्ज़े की पुस्तक पर उत्कृष्ट फिल्म बनी थी, इसलिए उस पुस्तक को भी इस चयन में शुमार कर लिया गया है. उनके लिहाज़ से यह बेहतर होता कि उस उत्कृष्ट फिल्म का ज़िक्र इसी प्रकाशक के एक अन्य प्रकाशन “1001 मूवीज़ : यू मस्ट सी बिफोर यू डाइ” में कर लिया जाता.

लेकिन जैसा मैंने कहा, इस तरह की शिकायत ऐसे हर संकलन के साथ होना अवश्यम्भावी है. कोई भी चयन कभी भी सर्व सम्मत नहीं हो सकता. बावज़ूद इसके, क्या यह कम महत्वपूर्ण है कि यहां एक हज़ार एक उत्कृष्ट पुस्तकों में से हरेक का परिचय लगभग तीन-तीन सौ शब्दों में मौज़ूद है. न केवल सार-संक्षेप देता हुआ परिचय, बल्कि मूल पुस्तक का आवरण, उसके पोस्टरों की छवियां, पुस्तक और लेखक के बारे में अल्पज्ञात बातें और यथासम्भव कुछ उद्धरण भी. किताब में करीब छह सौ तो रंगीन चित्र ही हैं. कल्पना करें कि आपके पास पर्याप्त पैसा हो और इतना समय भी कि आप हर सप्ताह एक किताब पढ कर पूरी कर लें, तो इस चयन की सारी किताबें कितने समय में पढ पायेंगे? आपको यह काम करने में मात्र सवा उन्नीस बरस लगेंगे! और याद रखिए, हर किताब एक सप्ताह में नहीं पढी जा सकती. डोरोथी रिचार्डसन का ‘पिल्ग्रिमेज’ हज़ारों पन्नों में 13 भागों में है, और भी ऐसी अनेक किताबें यहां हैं.

आप कहेंगे कि महज़ तीन सौ शब्दों का सार-संक्षेप भला पूरी किताब का अनुभव कैसे दे पाएगा? मैं भी मानता हूं कि यह संकलन मूल किताब का विकल्प नहीं है. लेकिन, आज जब दुनिया में सबके पास समय का अभाव होता जा रहा है और बहुतों के पास साधनों और सुविधाओं की भी इफरात नहीं है, यह प्रयास महत्वपूर्ण लगता है. यह संकलन हममें से अनेक के लिए अनेक किताबों को पढने के लिए एक प्रस्थान बिन्दु का काम कर सकता है. आप यहां डब्ल्यू. जी. सीबाल्ड की ‘द एमीग्रेण्ट्स’ के बारे में या काजुओ इशिगुरो की ‘नेवर लेट मी गो’ के बारे में पढकर उन्हें मूल रूप में पढने के लिए व्याकुल हो उठते हैं. इस किताब को पढने के बाद आप खुद एक सूची बनाते हैं कि ये किताबें तो ज़रूर ही पढनी हैं. यही बात कम महत्वपूर्ण नहीं है. वस्तुत: यह किताब मूल किताब की एक झांकी दिखाते हुए आपको यह तै करने का अवसर देती है कि आप उस किताब को पूरा पढना चाहेंगे अथवा नहीं!

यह किताब उस तरह की किताबों में से है जिसे कवर टू कवर पढा जाना आवश्यक नहीं है. इसे कहीं से भी, कभी भी पढा जा सकता है.यह किताब आपको साहित्य के परिदृश्य का विहंगावलोकन तो करा ही देती है. मैंने इस किताब को चर्चा के लिए इस कारण चुना है कि यह आपकी भविष्य में पढी जाने वाली किताबों की सूची में अनेक नाम जोडती है और इसलिए भी चुना है कि मैं जानता हूं कि मेरे आदरणीय पाठकगण भी अब अपनी-अपनी पसन्द की किताबों (और जगहों और फिल्मों) की ऐसी ही सूचियां बनाएंगे और उनकी चर्चा अपने मित्रों से करेंगे. अगर वे मुझे भी अपनी सूचियां भेज सकें तो मज़ा आ जाए.
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राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' के अंतर्गत 13 नवम्बर 2007 को प्रकाशित.


Discussed book:
1001 Books: You Must Read Before You Die (Paperback)
Publisher: Cassell Illustrated
Pages 960
£ 20.00

Sunday, November 11, 2007

ऐसे थे हमारे पिता

एन बी सी न्यूज़ के वाशिंगटन ब्यूरो चीफ़ और मीट द प्रेस के मॉडरेटर और मैनेजिंग एडीटर टिम रुस्सेर्ट की एक किताब ‘बिग रुस्स एण्ड मी’ 2004 में आई थी जिसमें उन्होंने अपने पिता के साथ अपने रिश्तों का बेबाक किन्तु मार्मिक अंकन किया था। यह किताब कितनी लोकप्रिय हुई इसका एक अनुमान तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि रुस्सेर्ट को इसके बाद कोई साठ हज़ार खत और ई मेल मिले जिनमें पाठकों ने अपने-अपने पिताओं से अपने रिश्तों का वर्णन किया था। इन्हीं पत्रों के अंशों का उपयोग करते हुए रुस्सेर्ट ने अब एक किताब और लिखी है ‘विज़डम ऑफ़ अवर फ़ादर्स : लेसन्स एण्ड लेटर्स फ़्रॉम डॉटर्स एण्ड सन्स’। 320 पन्नों की यह किताब इन दिनों खूब लोकप्रिय हो रही है।
किताब का ज़्यादा बडा हिस्सा साधारण अमरीकी बेटे-बेटियों की उनके पिताओं की स्मृति से रचा गया है और उसके बीच बीच में लेखक टिम रुस्सेर्ट अपने पिता की स्मृतियों को बुनते चलते हैं। ज़्यादातर पत्र लेखकों ने उस दौर का स्मरण किया है जब पीढियों का अन्तर अधिक था और पिता लोग अपने वात्सल्य का प्रदर्शन करने में संकोची व कृपण हुआ करते थे। अनेक पत्र लेखकों ने अपने ऐसे पिताओं को याद किया है जो अपने बच्चों को साफ़-साफ़ तो यह कभी नहीं कह पाए कि वे उन्हें कितना प्यार करते हैं, लेकिन अनेकानेक अप्रत्यक्ष तरीकों से इस बात को अभिव्यक्त कर गए। कईयों ने यह बताया है कि कैसे उन्होंने अपने पिताओं से जीवन के महत्वपूर्ण सबक सीखे। एक व्यक्ति ने लिखा है कि वह अपने पिता के साथ एक महत्वपू्र्ण मैच देखने गया। पिता के पास दो अतिरिक्त टिकिट थे जिन्हें ज़्यादा कीमत पर खरीदने वाले अनेक थे, लेकिन पिता ने उन टिकिटों को एक ऐसे पिता को लागत मूल्य पर दे दिया जो अपने पुत्र के साथ वह मैच देखने आये थे। कई बेटियों ने यह बताया है कि कैसे उनके पिताओं ने अपने व्यवहार से उनके परवर्ती जीवन में पुरुष से रिश्तों का स्वर निर्धारित कर डाला।
किताब दिल से लिखी गई है, मनोरंजक और बेहद पठनीय है। आप चाहें तो भी इसे पूरा पढे बगैर नहीं रह सकते। जब आप इसके पन्नों से गुज़रते हैं तो आपके मन के चित्रपट पर अपने पिता की स्मृतियां उभरने लगती हैं। किताब बिना किसी बडबोलेपन के यह बताती है कि अच्छे पिता होने का क्या अर्थ है, और इसी सिलसिले को आगे बढाती हुई पाठक को अच्छा पिता बनने के लिए प्रेरित भी करती है। किताब अनेक प्रसंगों के हवाले से यह बताती है कि आपका कोई बहुत छोटा-सा कृत्य भी आपके बच्चे के लिए बहुत प्रभावी सिद्ध हो जाता है। खुद रुस्सेर्ट अपने पिता का ऐसा ही एक प्रसंग हमसे शेयर करते हैं। वे कहते हैं कि मैं अपने कॉलेज के अवकाश के दिनों में घर आया हुआ था। एक दिन जब मैं देर रात तक चली पार्टी के बाद घर लौटा और अगली सुबह बहुत देर तक सोया रहा तो उसी बीच पिता मेरी कार को अन्दर-बाहर से पूरी तरह साफ़ कर चुके थे। इतना ही नहीं, उन्होंने उसमें पैट्रोल भी भरवा दिया। अचानक रुस्सेर्ट को ध्यान आया कि गाडी में तो रात की हंगामेदार पार्टी के एकाधिक अवशेष या प्रमाण भी थे। पिता ने उनका कोई ज़िक्र तक नहीं किया।
देखा आपने! पिता अगर कोई धूम-धडाका करते तो रुस्सेर्ट उसे कभी का भूल चुके होते। अविस्मरणीय बना उनका मौन रह जाना।
इसी तरह एक रिटायर्ड अध्यापिका मेराबेथ ल्यूरी ने अपने पिता को एक अलग तरह के प्रसंग के माध्यम से याद किया है। वे लिखती हैं कि उनके पिता को अपने घर के बेसमेण्ट में बने वर्कशॉप में नई- नई चीज़ें बनाने का शौक था। मेराबेथ का छोटा भाई जिम भी अपने पिता के पीछे-पीछे इस वर्कशॉप में जाता, और जैसा आम तौर पर छोटे बच्चे करते हैं, उनके औज़ारों को छेडता, उलट-पलट करता। पिता ने उसे अनेक बार समझाया लेकिन बच्चा तो आखिर बच्चा ही ठहरा। आखिर पिता ने तै किया कि वह अपने महत्वपूर्ण औज़ारों के लिए एक तालाबंद पेटी बना लेंगे। वे पेटी बनाने में जुट गए, नन्हा जिम उन्हें दिलचस्पी से काम करते देखता और अपनी तरह से उनकी ‘मदद’ करने की चेष्टा करता। पेटी बन गई और पिता उस पर ताला लगाने लगे तो जिम ने पूछा कि यह क्या है? पिता ने उसे बताया कि यह ताला है और इसे खोलकर ही औज़ार बाहर निकाले जा सकेंगे। जिम के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभरे, बोला : ‘डैड, इसकी चाबी किसके पास रहेगी?’
डैड एक क्षण को रुके। बेटे के चेहरे को देखा, और बोले : ‘बेटा, इसकी सिर्फ़ दो चाबियां होंगी। एक तुम्हारे पास रहेगी, दूसरी मेरे पास!’
कहना अनावश्यक है कि ऐसे अनगिनत प्रसंगों से भरी यह किताब बेहतर पिता (और बेहतर संतान भी) बनने में मदद करती है।

इसी किताब से :
नॉत्रे देम विश्वविद्यालय के एक पूर्व दीर्घकालीन अध्यक्ष ने कहा था: कोई भी पिता अपनी सन्तान के लिए सबसे महत्वपूर्ण काम यह कर सकता है कि वह उनकी मां से प्यार करे।

Friday, November 9, 2007

एक सुरीला और अर्थपूर्ण गीत

एक बहुत प्यारा गीत आप सबको सुनवाना चाहता हूं. यह गीत हिन्दी के बेहद महत्वपूर्ण गीतकार स्वर्गीय वीरेन्द्र मिश्र जी की रचना है. गीत क्या है जैसे पूरा भारत साकार कर दिया गया है. और कुछ भी कहकर मैं इस गीत रूपी सूर्य को दीपक नहीं दिखाना चाहता. बस, आप गीत सुनें और अगर वाकई अच्छा लगे तो मुझे भी बतायें. हां एक बात, मैं इस गीत को जिस तरह यहां लिंक करना चाहता था, नहीं कर पाया हूं. इसलिए अगर इस तक पहुंचने में आपको कोई असुविधा हो तो पहले से क्षमा याचना कर लेता हूं.

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दीपावली की शुभकामनाएं

दीपों का त्यौहार फिर आ गया है. चारों तरफ हर्ष व उल्लास का माहौल है. सब अपनी अपनी तरह से खुश हैं. बच्चों की खुशी के अपने कारण हैं तो बडों की खुशी के अपने कारण. बाज़ार अपनी तरह से खुश है तो खरीददार अपनी तरह से. यह स्वाभाविक भी है. बच्चों को खुशी है कि मिठाई मिलेगी, पटाखे मिलेंगे, नए कपडे मिलेंगे. तो इन्हें बेचने वाले खुश हैं कि बिक्री होगी तो लक्ष्मी आएगी. बडे और खास तौर पर वे मध्यवर्गीय बडे जिनके आर्थिक साधन सीमित हैं, बावज़ूद बज़ट गडबडाने की आशंकाओं के, इस बात की कल्पना करके खुश हैं कि उनके बच्चे और परिवार जन खुश होंगे. गृहिणियां घरों को चमकाने में लगी हैं तो संचार माध्यम एक चकाचक छवि पेश करने में मशगूल है. इसी में उसका हित भी निहित है. वे रोज़ यह छाप रहे है कि बाज़ार कैसे सज रहे हैं, बाज़ार में नया क्या है, लोग क्या-क्या उपहार देने की तैयारी में लगे हैं वगैरह. निश्चय ही उपहार देने वाला वर्ग बहुत बडा नहीं है. और न वह वर्ग बडा है जिसे उपहार मिलते हैं. मैं आधा किलो मिठाई के डिब्बे के उपहार की बात नहीं कर रहा, और न सौ पचास रुपये के पटाखों के उपहार या तीन सौ रुपये की साडी के उपहार की बात कर रहा हूं. संचार माध्यम भी इन उपहारों को उपहार नहीं मानता. वह भी डेढ दो लाख के टी वी या डायमण्ड के हार जैसे उपहारों की ही बात करता है. रोज़ यह छापता बताता है कि बाज़ार में इस तरह के उपहारों की कितनी और कैसी नई किस्में आई हुई हैं. मन ललचाता तो मेरा भी है. सबसे पहले तो यह कि काश! कोई मुझे भी ऐसा ही एक ठो उपहार देता. और इसके बाद यह कि काश! मेरी भी हैसियत ऐसी होती कि मैं भी किसी को ऐसा ही उपहार देता. लेकिन सोचने लगता हूं, भला कोई मुझे ऐसा और इतना महंगा उपहार क्यों देता? अच्छी खासी नौकरी थी मेरी (अब सेवा निवृत्त हूं) लेकिन ऐसा तो क्या कैसा भी उपहार कभी किसी ने नहीं दिया. हां, बीस रुपये वाले पेन और पच्चीस रुपये वाली डायरी और आधा किलो मिठाई के डिब्बे के अपवाद को छोडकर. और अगर मुझे उपहार देना होता तो किसे दिया होता? किसे दिया? अपनी नौकरी के दिनों में भी किसी को नहीं. दोस्ती-रिश्तेदारी में ब्याह शादी के मौकों पर जो उपहार दिये-लिए उनमें विनिमय का प्रच्छन्न भाव बराबर बना रहा. इसलिए एक हद से आगे बढने की नौबत कभी आई ही नहीं. जिस ज़माने में नौकरी शुरू की थी, 1967 में, तब शादियों में पांच से ग्यारह रुपये तक देने का रिवाज़ हुआ करता था. आजकल महंगाई (और जीवन स्तर) बढने से यह राशि बढकर एक सौ से ढाई सौ तक पहुच गई है. बहुत अधिक निकटता हो तो हज़ार तक. लेकिन लाख दो लाख वाली स्थिति तो अपने लिए तो नहीं आई. अपनी बात बार-बार इसलिए कर रहा हूं कि खुद को उस वर्ग का प्रतिनिधि मानता हूं जो सबसे बडा है – मध्य वर्ग, और जिसकी खुशहाली के खूब गीत गाए जा रहे हैं. गया बीता मैं भी नहीं हूं. लेकिन इतना खुशहाल भी नहीं हूं.
तो फिर वह मध्यवर्ग कौन-सा है जिसकी खुशहाली के गीत सब तरफ गाए जा रहे हैं? क्या हैं उसकी आय के स्रोत? किन्हें देता है वह ऐसे महंगे उपहार? कहीं यह दो नम्बर की या ऊपरी कमाई वाला नया-नया जन्मा मध्यवर्ग तो नहीं है? या कि कॉल सेण्टर्स में अपनी रातें काली करने वाला युवा वर्ग है? या आई टी सेक्टर में काम करने वाला प्रोफेशनल समुदाय है ? या इन सबसे मिला-जुला वह वर्ग है जिसे अंग्रेज़ी प्रेस ने D.I.N.K. ‘डबल इन्कम नो किड्स’ वर्ग कहा है? यहां मैंने जिन-जिन वर्गों की चर्चा की है उनमें से पहले वर्ग को छोडकर शेष से तो किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है? कोई कमाई के लिए दिन भर जागे या रात भर? किसी ने अपनी योग्यता के दम पर ज़्यादा तनख्वाह वाली नौकरी पा ली है या कोई युवा युगल कुछ समय के लिए या सदा के लिए परिवार वृद्धि स्थगित कर रहा है – इसमें किसी के भी पेट में दर्द होने जैसी कोई बात नहीं है. लेकिन मैंने सबसे पहले जिस वर्ग की चर्चा की, उसकी बात कुछ अलग है. जो कहीं किसी प्रभावशाली जगह पर तैनात है और अपना नियमित काम अंजाम देने के बदले में ‘अतिरिक्त कुछ’ चाह या ले रहा है, वह, और वह जो कुछ ले कर ऐसा काम कर रहा है जिसे कर पाना अन्यथा सम्भव नहीं था – उसको तो भला कोई भी कैसे स्वीकार करेगा? सरकारी दफ्तरों में आम तौर पर यही होता है कि आप जाते हैं और आपको कहा जाता है कि आपका काम नहीं हो सकता. आप सम्बद्ध कर्मचारी/अधिकारी की ‘सेवा’ करते हैं, आपका काम हो जाता है. बहुत बार तो काम न होने की बात की ही इसलिए जाती है कि आप सेवा करने को प्रस्तुत हों. इसके अलावा भी हम अपने चारों तरफ अनियमितताओं का भरा-पूरा जंगल देखते हैं. यह सब भी सेवा कराने और करने का ही परिणाम है. ऐसा वर्ग बडी तेज़ी से फल फूल रहा है. यही वह वर्ग है जो महंगे उपहार लेता है, देता भी है.
और यही वर्ग है जो पहले से दबे मध्यवर्ग के लिए मानदण्ड रचता है. कॉलेज में पढने वाली आपकी बेटी बताती है कि उसी के साथ पढने वाली किसी दफ्तर के बडे बाबू की बेटी की शादी में चालीस लाख खर्च किए जाएंगे. वह न केवल बताती है, यह जताती भी है कि आप जो उस बाबू से बेहतर स्थिति वाले हैं, कम से कम इतना तो खर्च करें. बच्चे ही नहीं बीबी भी आपसे उम्मीद करती है. नाते-रिश्तेदार भी. और अगर आप उनकी उम्मीद पर खरे नहीं उतरते तो या तो आप कंजूस, मूंजी हैं या नाकारा-निकम्मे और बेवक़ूफ. कोई बिरला ही होगा कि जो आपकी पाक-साफ-बेदाग छवि की सराहना करता हुआ अपके पक्ष में खडा हो. आप अगर साइकिल पर दफ्तर जाएं तो सबके उपहास के पात्र बनेंगे और एक बहुत कम वेतन वाला कर्मचारी महंगी मोटर साइकिल पर दफ्तर आए तो कोई यह न जानना चाहेगा कि उसकी आय का स्रोत क्या है? हमारे आज के समाज की सबसे बडी दुर्घटना यही है कि हमने भ्रष्टाचार को निंदा का विषय मानना ही बन्द कर दिया है. उसे हमने मौन स्वीकृति प्रदान कर दी है.
इसी मौन स्वीकृति की परिणति है त्यौहारों पर मीडिया में महंगे विलासिता उत्पादों का उठता ज्वार. यह वर्ग और मीडिया जैसे ‘एक दूजे के लिए’ काम करते हैं. मीडिया ऐसे महंगे उत्पादों के प्रति लालसा जगाता है, और इन उत्पादों तक पहुंचने का रास्ता गन्दगी की गलियों से ही गुज़रता है. लालसा जगाने के लिए वह उन लोगों को रोल मॉडल के रूप में पेश करता है जिनका उन गलियों में खासा आना-जाना है. जिन्हें विलेन होना चाहिए था उन्हें हीरो का खिताब अता फरमाया जाता है. सही भी है. अगर उन्हें विलेन बना दिया जाएगा तो बाज़ार कैसे फलेगा फूलेगा? और अगर बाज़ार नहीं फला-फूला तो मीडिया कैसे समृद्ध होगा? सारे ही संचार माध्यमों पर जो उपभोक्ता उत्पादों की बहार आई हुई है, वह मीडिया को भी समृद्ध कर रही है, यह कहना अनावश्यक है. मीडिया समृद्ध हो, इस पर कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन वह अपनी समृद्धि के लिए इस बात की अनदेखी करे कि पूरे समाज की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो रही है, यह चिंता और क्षोभ का विषय है. समाज के एक अंश और मीडिया दोनों ने अपनी-अपनी समृद्धि के लिए ज़रूरी बातों की अनदेखी का रास्ता अख्तियार कर लिया है- इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए.

आज़ादी के बाद के वर्षों में हमारा नैतिक बोध जिस तरह कमज़ोर हुआ है उस पर गहरी चिंता होनी चाहिए. लेकिन चिंता की बजाय हम सब धीरे-धीरे उसी की परिधि में आते जा रहे हैं. हमारे त्यौहार हमारे सांस्कृतिक वैभव और उदात्त मूल्यों के प्रतीक हैं. दिवाली लक्ष्मी पूजा का त्यौहार था, है, लेकिन हमने उसे काली लक्ष्मी की पूजा का त्यौहार बना डाला है. ऐसा ही जीवन के अन्य अनेकानेक सांस्कृतिक पर्वों-अवसरों के साथ हुआ है.दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत की घोषणा का पर्व है लेकिन हो यह रहा है कि उसमें भी बुराई ही महिमान्वित्त हो रही है. बल्कि सर्वत्र हुआ है. रिश्ते, संस्कार, देश, धर्म सब कुछ पर यह काली छाया दिखाई देती है.
क्या इस बात पर कोई चिंता नहीं होनी चाहिए?

आप सबको दीपावली की अनेकानेक शुभकामनाएं.

दीपावली की शुभकामनाएं

दीपों का त्यौहार फिर आ गया है. चारों तरफ हर्ष व उल्लास का माहौल है. सब अपनी अपनी तरह से खुश हैं. बच्चों की खुशी के अपने कारण हैं तो बडों की खुशी के अपने कारण. बाज़ार अपनी तरह से खुश है तो खरीददार अपनी तरह से. यह स्वाभाविक भी है. बच्चों को खुशी है कि मिठाई मिलेगी, पटाखे मिलेंगे, नए कपडे मिलेंगे. तो इन्हें बेचने वाले खुश हैं कि बिक्री होगी तो लक्ष्मी आएगी. बडे और खास तौर पर वे मध्यवर्गीय बडे जिनके आर्थिक साधन सीमित हैं, बावज़ूद बज़ट गडबडाने की आशंकाओं के, इस बात की कल्पना करके खुश हैं कि उनके बच्चे और परिवार जन खुश होंगे. गृहिणियां घरों को चमकाने में लगी हैं तो संचार माध्यम एक चकाचक छवि पेश करने में मशगूल है. इसी में उसका हित भी निहित है. वे रोज़ यह छाप रहे है कि बाज़ार कैसे सज रहे हैं, बाज़ार में नया क्या है, लोग क्या-क्या उपहार देने की तैयारी में लगे हैं वगैरह. निश्चय ही उपहार देने वाला वर्ग बहुत बडा नहीं है. और न वह वर्ग बडा है जिसे उपहार मिलते हैं. मैं आधा किलो मिठाई के डिब्बे के उपहार की बात नहीं कर रहा, और न सौ पचास रुपये के पटाखों के उपहार या तीन सौ रुपये की साडी के उपहार की बात कर रहा हूं. संचार माध्यम भी इन उपहारों को उपहार नहीं मानता. वह भी डेढ दो लाख के टी वी या डायमण्ड के हार जैसे उपहारों की ही बात करता है. रोज़ यह छापता बताता है कि बाज़ार में इस तरह के उपहारों की कितनी और कैसी नई किस्में आई हुई हैं. मन ललचाता तो मेरा भी है. सबसे पहले तो यह कि काश! कोई मुझे भी ऐसा ही एक ठो उपहार देता. और इसके बाद यह कि काश! मेरी भी हैसियत ऐसी होती कि मैं भी किसी को ऐसा ही उपहार देता. लेकिन सोचने लगता हूं, भला कोई मुझे ऐसा और इतना महंगा उपहार क्यों देता? अच्छी खासी नौकरी थी मेरी (अब सेवा निवृत्त हूं) लेकिन ऐसा तो क्या कैसा भी उपहार कभी किसी ने नहीं दिया. हां, बीस रुपये वाले पेन और पच्चीस रुपये वाली डायरी और आधा किलो मिठाई के डिब्बे के अपवाद को छोडकर. और अगर मुझे उपहार देना होता तो किसे दिया होता? किसे दिया? अपनी नौकरी के दिनों में भी किसी को नहीं. दोस्ती-रिश्तेदारी में ब्याह शादी के मौकों पर जो उपहार दिये-लिए उनमें विनिमय का प्रच्छन्न भाव बराबर बना रहा. इसलिए एक हद से आगे बढने की नौबत कभी आई ही नहीं. जिस ज़माने में नौकरी शुरू की थी, 1967 में, तब शादियों में पांच से ग्यारह रुपये तक देने का रिवाज़ हुआ करता था. आजकल महंगाई (और जीवन स्तर) बढने से यह राशि बढकर एक सौ से ढाई सौ तक पहुच गई है. बहुत अधिक निकटता हो तो हज़ार तक. लेकिन लाख दो लाख वाली स्थिति तो अपने लिए तो नहीं आई. अपनी बात बार-बार इसलिए कर रहा हूं कि खुद को उस वर्ग का प्रतिनिधि मानता हूं जो सबसे बडा है – मध्य वर्ग, और जिसकी खुशहाली के खूब गीत गाए जा रहे हैं. गया बीता मैं भी नहीं हूं. लेकिन इतना खुशहाल भी नहीं हूं.
तो फिर वह मध्यवर्ग कौन-सा है जिसकी खुशहाली के गीत सब तरफ गाए जा रहे हैं? क्या हैं उसकी आय के स्रोत? किन्हें देता है वह ऐसे महंगे उपहार? कहीं यह दो नम्बर की या ऊपरी कमाई वाला नया-नया जन्मा मध्यवर्ग तो नहीं है? या कि कॉल सेण्टर्स में अपनी रातें काली करने वाला युवा वर्ग है? या आई टी सेक्टर में काम करने वाला प्रोफेशनल समुदाय है ? या इन सबसे मिला-जुला वह वर्ग है जिसे अंग्रेज़ी प्रेस ने D.I.N.K. ‘डबल इन्कम नो किड्स’ वर्ग कहा है? यहां मैंने जिन-जिन वर्गों की चर्चा की है उनमें से पहले वर्ग को छोडकर शेष से तो किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है? कोई कमाई के लिए दिन भर जागे या रात भर? किसी ने अपनी योग्यता के दम पर ज़्यादा तनख्वाह वाली नौकरी पा ली है या कोई युवा युगल कुछ समय के लिए या सदा के लिए परिवार वृद्धि स्थगित कर रहा है – इसमें किसी के भी पेट में दर्द होने जैसी कोई बात नहीं है. लेकिन मैंने सबसे पहले जिस वर्ग की चर्चा की, उसकी बात कुछ अलग है. जो कहीं किसी प्रभावशाली जगह पर तैनात है और अपना नियमित काम अंजाम देने के बदले में ‘अतिरिक्त कुछ’ चाह या ले रहा है, वह, और वह जो कुछ ले कर ऐसा काम कर रहा है जिसे कर पाना अन्यथा सम्भव नहीं था – उसको तो भला कोई भी कैसे स्वीकार करेगा? सरकारी दफ्तरों में आम तौर पर यही होता है कि आप जाते हैं और आपको कहा जाता है कि आपका काम नहीं हो सकता. आप सम्बद्ध कर्मचारी/अधिकारी की ‘सेवा’ करते हैं, आपका काम हो जाता है. बहुत बार तो काम न होने की बात की ही इसलिए जाती है कि आप सेवा करने को प्रस्तुत हों. इसके अलावा भी हम अपने चारों तरफ अनियमितताओं का भरा-पूरा जंगल देखते हैं. यह सब भी सेवा कराने और करने का ही परिणाम है. ऐसा वर्ग बडी तेज़ी से फल फूल रहा है. यही वह वर्ग है जो महंगे उपहार लेता है, देता भी है.
और यही वर्ग है जो पहले से दबे मध्यवर्ग के लिए मानदण्ड रचता है. कॉलेज में पढने वाली आपकी बेटी बताती है कि उसी के साथ पढने वाली किसी दफ्तर के बडे बाबू की बेटी की शादी में चालीस लाख खर्च किए जाएंगे. वह न केवल बताती है, यह जताती भी है कि आप जो उस बाबू से बेहतर स्थिति वाले हैं, कम से कम इतना तो खर्च करें. बच्चे ही नहीं बीबी भी आपसे उम्मीद करती है. नाते-रिश्तेदार भी. और अगर आप उनकी उम्मीद पर खरे नहीं उतरते तो या तो आप कंजूस, मूंजी हैं या नाकारा-निकम्मे और बेवक़ूफ. कोई बिरला ही होगा कि जो आपकी पाक-साफ-बेदाग छवि की सराहना करता हुआ अपके पक्ष में खडा हो. आप अगर साइकिल पर दफ्तर जाएं तो सबके उपहास के पात्र बनेंगे और एक बहुत कम वेतन वाला कर्मचारी महंगी मोटर साइकिल पर दफ्तर आए तो कोई यह न जानना चाहेगा कि उसकी आय का स्रोत क्या है? हमारे आज के समाज की सबसे बडी दुर्घटना यही है कि हमने भ्रष्टाचार को निंदा का विषय मानना ही बन्द कर दिया है. उसे हमने मौन स्वीकृति प्रदान कर दी है.
इसी मौन स्वीकृति की परिणति है त्यौहारों पर मीडिया में महंगे विलासिता उत्पादों का उठता ज्वार. यह वर्ग और मीडिया जैसे ‘एक दूजे के लिए’ काम करते हैं. मीडिया ऐसे महंगे उत्पादों के प्रति लालसा जगाता है, और इन उत्पादों तक पहुंचने का रास्ता गन्दगी की गलियों से ही गुज़रता है. लालसा जगाने के लिए वह उन लोगों को रोल मॉडल के रूप में पेश करता है जिनका उन गलियों में खासा आना-जाना है. जिन्हें विलेन होना चाहिए था उन्हें हीरो का खिताब अता फरमाया जाता है. सही भी है. अगर उन्हें विलेन बना दिया जाएगा तो बाज़ार कैसे फलेगा फूलेगा? और अगर बाज़ार नहीं फला-फूला तो मीडिया कैसे समृद्ध होगा? सारे ही संचार माध्यमों पर जो उपभोक्ता उत्पादों की बहार आई हुई है, वह मीडिया को भी समृद्ध कर रही है, यह कहना अनावश्यक है. मीडिया समृद्ध हो, इस पर कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन वह अपनी समृद्धि के लिए इस बात की अनदेखी करे कि पूरे समाज की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो रही है, यह चिंता और क्षोभ का विषय है. समाज के एक अंश और मीडिया दोनों ने अपनी-अपनी समृद्धि के लिए ज़रूरी बातों की अनदेखी का रास्ता अख्तियार कर लिया है- इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए.

आज़ादी के बाद के वर्षों में हमारा नैतिक बोध जिस तरह कमज़ोर हुआ है उस पर गहरी चिंता होनी चाहिए. लेकिन चिंता की बजाय हम सब धीरे-धीरे उसी की परिधि में आते जा रहे हैं. हमारे त्यौहार हमारे सांस्कृतिक वैभव और उदात्त मूल्यों के प्रतीक हैं. दिवाली लक्ष्मी पूजा का त्यौहार था, है, लेकिन हमने उसे काली लक्ष्मी की पूजा का त्यौहार बना डाला है. ऐसा ही जीवन के अन्य अनेकानेक सांस्कृतिक पर्वों-अवसरों के साथ हुआ है.दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत की घोषणा का पर्व है लेकिन हो यह रहा है कि उसमें भी बुराई ही महिमान्वित्त हो रही है. बल्कि सर्वत्र हुआ है. रिश्ते, संस्कार, देश, धर्म सब कुछ पर यह काली छाया दिखाई देती है.
क्या इस बात पर कोई चिंता नहीं होनी चाहिए?

आप सबको दीपावली की अनेकानेक शुभकामनाएं.

Wednesday, November 7, 2007

दिवाली की मंगल कामनाएं

हर साल दिवाली पर बहुत सारे बधाई कार्ड आते हैं. आजकल कार्डों के अलावा ई मेल और एस एम एस भी खूब आते हैं. ई मेल और एस एम एस तो खैर वैसे ही क्षण-भंगुर होते हैं, कार्ड भी कुछ दिनों के बाद इधर-उधर हो जाते हैं, चाहे कितने ही आकर्षक और अर्थ व्यंजक क्यों न हों! शायद सबके साथ ऐसा ही होता हो. हम लिखने-पढ़ने के व्यसनी लोगों के पास तो वैसे भी डाक खूब आती है. आखिर कोई कब तक और कितना सम्हाल कर रख सकता है? मैं तो अपनी नौकरी के अंतिम कुछ वर्षों में कई बार ‘तबा-दलित’ भी हुआ, अत: स्वाभाविक ही था कि ‘पत्रं पुष्पं’ का बोझ ज़रा कम ही रखता. एक और बात भी, जब चयन का अवसर आता है तो हम सब सार्वजनिक की तुलना में वैयक्तिक को पहले बचाये रखना चाहते हैं. ऐसे में मुद्रित कार्डों की बजाय हस्त-लिखित या व्यक्तिगत पत्र अधिक सुरक्षित रखे जाते हैं.

इधर सारे ही पर्व त्यौहारों की तरह दिवाली का भी घोर व्यावसायिकीकरण हुआ है. अन्य बहुत सारी बातों के अतिरिक्त, शुभकामनाएं देना-लेना भी सम्पर्क बनाने-बढाने का, वो जिसे आधुनिक शब्दावलि में पी आर (PR) कहते हैं उसका, माध्यम बन गया है. परिणाम यह कि कोई सामान्य-से सम्पर्क वाला व्यक्ति भी दिवाली पर सौ-डेढ़ सौ कार्ड तो भेजता ही है. और इतने कार्ड, स्वाभाविक ही है कि मुद्रित ही होंगे. कमोबेश इतने ही कार्ड आते भी हैं. जब मैं नौकरी में था हर साल ढ़ाई तीन सौ कार्ड आते थे, अब इससे आधे आते हैं. यह स्वाभाविक है. ऐसे कार्ड, जैसा मैं ने पहले ही कहा, कितने ही आकर्षक, कलात्मक और उम्दा सन्देश वाले क्यों न हों, कुल मिलाकर यह सन्देश देने के बाद कि अमुक जी ने हमें स्मरण रखा है, अपनी अर्थवत्ता खो देते हैं, और इसलिए बहुत लम्बे समय तक उन्हें सम्हाल कर नहीं रखा जा सकता.

लेकिन यह सब कहने के बाद अगर मैं यह कहूं कि एक व्यक्ति ऐसा है जो हर तरह से इस सबका अपवाद है, तो आपको आश्चर्य होगा न? हम दोनों के बीच उम्र का, कद और पद का इतना अंतर है कि मैं उन्हें 'मित्र' तो नहीं कह सकता. उम्र में मुझसे लगभग 15 वर्ष बड़े, एक राज्य के विधायक, मंत्री और फिर राज्य सभा के सदस्य रहे, कवि सम्मेलनों के अत्यधिक लोकप्रिय कवि.. बहुत उम्दा लेखक! यह उनका ही बड़प्पन है कि वे मुझे अपना मानते हैं. सातवें दशक के मध्य उनसे सम्पर्क हुआ था. तब वे लालकिले में अपनी कविताओं से धूम मच चुके थे, और मैं, कॉलेज का एक विद्यार्थी, उनकी कविताओं का प्रशंसक! पत्र व्यवहार प्रारम्भ हुआ. कुछेक अवसर मिलने के मिले. कभी कभार पत्राचार भी हो जाता. फिर वे अपनी दुनिया में और मैं अपनी दुनिया में व्यस्त होते गए. लेकिन इस सबके बीच भी शायद ही कोई ऐसा साल बीता हो जब दिवाली पर मैं ने उन्हें कार्ड न भेजा हो, और दिवाली पर उनका कार्ड न आया हो! चालीस साल कम नहीं होते. और अपने सारे तबादलों, सारी अस्त व्यस्तता के बावज़ूद उनके अधिकांश कार्ड मेरे पास सुरक्षित हैं.

मैं अभी तो यह कह रहा था कि कोई कब तक इतने सारे कागज़ों का बोझ सम्हाले, और अभी यह कह रहा हूं कि उनके अधिकांश कार्ड मेरे पास सुरक्षित हैं. क्या खास है उनके कार्डों में?

लेकिन इससे भी पहले यह कि 'वे' हैं कौन ?

जी, मैं बात बालकवि बैरागी की कर रहा हूं. परिचय तो उनका दे ही चुका हूं.
बैरागी जी दिवाली पर पोस्टकार्ड भेजते हैं. पहले पूरा पोस्टकार्ड हस्तलिखित हुआ करता था, अब उस पर उनका पता मुद्रित होता है. सन्देश पहले भी वे हाथ से लिखते थे, अब भी हाथ से ही लिखते हैं. इतने वर्षों में न उनकी यह आदत बदली है, न हस्तलिपि. अत्यधिक सधे अक्षर, जैसे किसी ने मोतियों की लड़ी सजा दी हो. और सन्देश? उसका तो कहना ही क्या? मैं ने कहा न कि बैरागी जी कवि हैं. उनका दिवाली सन्देश सदा एक छन्द के रूप में होता है. लेकिन ऐसा छन्द जिसे आप अपने जीवन का मूल मंत्र बना लेना चाहें.

जैसा मैंने पहले कहा, बैरागी जी विधायक, मंत्री, सांसद सब कुछ रह चुके हैं. अब भी हम लोगों से तो वे अधिक ही व्यस्त होंगे. सम्पर्क तो खैर उनके हैं ही. राजनीति में भी, साहित्य में भी. इसके बावज़ूद उन्होंने दीपों के इस पर्व को 'निजी' और आत्मीय बनाये रखा है, यांत्रिक और निर्वैयक्तिक नहीं बन जाने दिया है, यह बात मुझे बहुत महत्वपूर्ण लगती है.




इस दिवाली पर अपने सारे पाठकों, सहयोगियों और शुभ चिंतकों को 'इंद्रधनुष' परिवार की ओर से दीपावली की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देते हुए मैं उपहार स्वरूप अपने 'दादा' बैरागी जी के कुछ छन्द सादर भेंट कर रहा हूं :





सूरज से कह दो बेशक अपने घर आराम करे
चांद सितारे जी भर सोयें नहीं किसी का काम करें
आंख मूंद लो दीपक ! तुम भी, दियासलाई! जलो नहीं
अपना सोना अपनी चांदी गला-गला कर मलो नहीं
अगर अमावस से लड़ने की ज़िद कोई कर लेता है
तो, एक ज़रा-सा जुगनू सारा अंधकार हर लेता है!
(1991)
*

रोम रोम करके हवन देना अमल उजास
कुछ भी तो रखना नहीं, अपना अपने पास
जलते रहना उम्र भर,अरुणिम रखना गात
सहना अपने शील पर तम का हर उत्पात
सोचो तो इस बात के होते कितने अर्थ
बाती का बलिदान यह चला न जाये व्यर्थ!
(1992)
*

एक दीपक लड़ रहा है अनवरत अंधियार से
लड़ रहा है कालिमा के क्रूरतम परिवार से
सूर्य की पहिली किरन तक युद्ध यह चलता रहे
इसलिए अनिवार्य है कि दीप यह जलता रहे
आपकी आशीष का सम्बल इसे दे दीजिये
प्रार्थना-शुभकामना इस दीप की ले लीजिये!!
(1993)
*




आज मैंने सूर्य से बस ज़रा-सा यूं कहा
"आपके साम्राज्य में इतना अंधेरा क्यूं रहा?"
तमतमा कर वह दहाड़ा - "मैं अकेला क्या करूं?
तुम निकम्मों के लिए मैं भला कब तक मरूं ?
आकाश की आराधना के चक्करों में मत पड़ो
संग्राम यह घनघोर है, कुछ मैं लड़ूं कुछ तुम लड़ो !"
(1994)
*

सूर्य की अनुपस्थिति में आयु भर मैं ही जला
टल गये दिग्पाल लेकिन मं नहीं व्रत से टला
सोचता था - तुम सबेरे शुक्रिया मेरा करोगे
फूल की एकाध पंखुरी, देह पर मेरी धरोगे
किंतु होते ही सवेरा छीन ली मेरी कमाई
इस कृपा (?) का शुक्रिया, खूब ! दीवाली मनाई !
(1997)
*
देखता हूं दीप को और खुद में झांकता हूं
छूट पड़ता है पसीना और बेहद कांपता हूं
एक तो जलते रहो और फिर अविचल रहो
क्या विकट संग्राम है यह युद्धरत प्रतिपल रहो
काश! मैं भी दीप होता, जूझता अंधियार से
धन्य कर देता धरा को ज्योति के उपहार से !
(1998)
*
दीप से बोला अंधेरा - "ठान मत मुझ से लड़ाई
व्यर्थ ही मर जाएगा - सोच कुछ अपनी भलाई
स्वार्थ वश कोई जलाए और तू जलने लगे
सर्वथा अनजान पथ पर उम्र भर चलने लगे"
दीप बोला - "बंधु! अच्छी राह पर सच्ची बधाई
(पर) फिक़्र मेरी छोड़ करके सोच तू अपनी भलाई!"
(1999)
*


मैं तुम्हारी देहरी का दीप हूँ, दिनमान हूं
घोर तम से मानवी संग्राम का प्रतिमान हूं
उम्र भर लड़ता रहा, मुंह की कभी खाई नहीं
आज तक तो हूं विजेता पीठ दिखलाई नहीं
दीनता औ' दम्भ से रिश्ता कभी पाला नहीं
आपका आदेश मैंने आज तक टाला नहीं !
(2000)
*


आप मुझको स्नेह देकर चैन से सो जाईये
स्वप्न के संसार में आराम से खो जाईये
आपकी खातिर लड़ूंगा मैं घने अंधियार से
रंच भर विचलित न हूंगा मौसमों की मार से
जानता हूं तुम सवेरे मांग ऊषा की भरोए
जान मेरी जायेगी पर ऋण अदा उसका करोगे !
(2003)
*

कर्तव्य मेरा है यही, मैं रात भर जलता रहूं
कालिमा के गाल पर लालिमा मलता रहूं
दांव पर सब कुछ लगे जब दीप के दिव्यार्थ का
तब कर्म यह छोटा नहीं जब पर्व हो पुरुषार्थ का
ज्योति का जयगीत हूं - आरोह का अलाप हूं
निर्माण आखिर आपका हूं इसलिए चुपचाप हूँ!
(2003)
*

लडकी क्यों लडकों-सी नहीं होती?

स्त्रियां पुरुषों की तुलना में ज़्यादा बातूनी क्यों होती हैं? क्यों औरतें उन विवादों को तफसील से याद रख लेती हैं जिन्हें मर्द क़तई याद नहीं रख पाते? क्या कारण है कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं अपनी दोस्तों से ज़्यादा घनिष्ठता से जुडती हैं? इन और ऐसे अनेक सवालों का जवाब देती है न्यूरो साइकियाट्रिस्ट लुआन ब्रिजेण्डिन की नई किताब ‘द फीमेल ब्रेन’. कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में कार्यरत लुआन, जो चिकित्सा विज्ञान का प्रयोग अपनी महिला रोगियों के सशक्तिकरण के लिए करती हैं, की यह किताब मानवीय व्यवहार की जीव वैज्ञानिक पडताल की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है.

येल में एक मेडिकल छात्रा के रूप में शोध करते हुए और फिर हारवर्ड में रेजिडेण्ट और फैकल्टी मेम्बर के रूप में काम करते हुए लुआन का ध्यान इस बात की तरफ गया कि न्यूरोलॉजी, मनोविज्ञान और न्यूरो-बायोलॉजीमें करीब-करीब सारा क्लिनिकल डाटा पुरुषों कर ही आधारित है. इस असंतुलन को दुरुस्त करने के लिए उन्होंने अमरीका का पहला ऐसा क्लिनिक स्थापित किया जो स्त्री मस्तिष्क का अध्ययन करता है. इस किताब में वहां किए गए अध्ययन, शोध और नवीनतम सूचनाओं को इस तरह संजोया गया है कि इसे पढने के बाद स्त्रियां तो अपने खास मस्तिष्क, शरीर और व्यवहार को बेहतर तरीके से समझ ही पाती हैं, पुरुषों को भी सिगमण्ड फ्रायड के उस मशहूर सवाल का एक हद तक जवाब मिल जाता है कि आखिर स्त्रियां चाहती क्या है! किताब यह भी बताती है कि स्त्री और पुरुष की मानसिक बनावट में क्या फर्क़ है!
ब्रिजेण्डिन ने जन्म से लेकर रजो-निवृत्ति तक स्त्री मस्तिष्क की जीवन यात्रा की पडताल की है. वे बताती हैं कि एक कन्या शिशु जिस तरह लगाव अनुभव करती है, विपरीत लिंगी शिशु उस तरह नहीं करता. इसी तरह मातृत्व स्त्री की मस्तिष्क संरचना में आमूल चूल और अपरिवर्तनीय परिवर्तन करता है. ब्रिजेण्डिन यह भी बताती हैं कि स्त्री-पुरुष मस्तिष्कों की केमिस्ट्रियां ताकतवर हारमोन्स से इस तरह संचालित होती हैं कि हर जेण्डर की यथार्थ की अवधारणा ही अलग तरह से निर्मित हो जाती है. लेकिन वे आगाह करना नहीं भूलतीं कि इस भेद का योग्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है.
ब्रिजेण्डिन बताती हैं कि आम धारणा यह है कि लडके-लडकियों का व्यवहार अलग-अलग होता है. हम घरों में, खेल के मैदानों में, कक्षाओं में, सभी जगह उनके व्यवहार की भिन्नता देखते हैं. यह भी माना जाता है कि व्यवहार की यह भिन्नता उनके पालन-पोषण की भिन्नता की वजह से होती है. लेखिका इस धारणा का, कि हमारी जेण्डर की अवधारणा हमारे पालन-पोषण से निर्मित होती है, खण्डन करते हुए बताती हैं कि इस भेद का कारण मस्तिष्क की बनावट का अलग होना है. वे एक दिलचस्प उदाहरण देती हैं. उनकी एक मरीज़ ने अपनी साढे तीन साल की बेटी को कई यूनीसेक्स खिलौने दिए. उनमें एक लाल रंग की दमकल गाडी भी थी. एक दिन वह मरीज़ अपनी बेटी के कमरे में जाने पर पाती हैं कि बिटिया उस गाडी को एक छोटे-से कम्बल में लपेटकर झुला रही है और कह रही है, “चिंता मत करो मेरी गाडी, जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा!” लेखिका समझाती है कि उस नन्हीं बच्ची का यह बर्ताव उसके सामाजिकरण की वजह से न होकर उसके स्त्री मस्तिष्क की वजह से है. हमारा मस्तिष्क ही यह तै करता है कि हम कैसे देखते, सुनते, सूंघते, चखते हैं. वस्तुत: हमारी महसूस करने वाली इन्द्रियां सीधे मस्तिष्क से जुडी होती हैं. हमारे अनुभवों की व्याख्या मस्तिष्क ही करता है. मस्तिष्क का यह लिंग भेद जन्मजात होता है. लगभग आठ सप्ताह के गर्भ के मस्तिष्क का लिंग निर्धारित हो चुकता है.
ब्रिजेण्डिन एक रोचक बात यह भी बताती हैं कि मादा मस्तिष्क शिशु को सबसे पहले चेहरों का अध्ययन करने का निर्देश देता है. इसके विपरीत नर मस्तिष्क चेहरों से अलग अन्य चीज़ों जैसे रोशनी, वस्तुओं वगैरह में रुचि लेता है. वे यह भी बताती हैं कि अपने अस्तित्व के पहले तीन महीनों में मादा शिशु की चेहरों को ताकने और दृष्टि सम्पर्क (आई कॉंटेक्ट) की क्षमता में 400 गुना वृद्धि होती है. मज़े की बात कि इसी अवधि में नर-शिशु में यह क्षमता ज़रा भी नहीं बढती. एक बहुत महत्वपूर्ण बात वे यह बताती हैं कि मादा शिशु को भावहीन चेहरे ज़रा भी अच्छे नहीं लगते. कारण, ऐसे चेहरे उन्हें यह संकेत देते हैं कि वे कुछ गलत कर रही हैं. किताब एक महत्वपूर्ण बात यह भी बताती है कि आदमी लगभग सात हज़ार शब्द प्रतिदिन इस्तेमाल करता है, जबकि औरत हर रोज़ बीस हज़ार शब्द इस्तेमाल करती है.
एक उपन्यास की मानिंद दिलचस्प यह किताब हमें इस विषय में और गहरे उतरने के लिए प्रेरित करती है, यही इसकी सबसे बडी खासियत है.

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Discussed Book:
The Female Brain
By Louann Md Brizendine
Paperback: 304 pages
Published by Broadway
US $ 14.95

यह आलेख राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' में 06 नवम्बर 2007 को प्रकाशित हुआ.

Friday, November 2, 2007

एक उत्कृष्ट गीत

हम हिन्दी वालों की स्मृति बहुत क्षीण है. अपने बहुत बढिया रचनाकारों को हम जल्दी-जल्दी भुला देते हैं. इसीलिए कोई आश्चर्य नहीं होता यह जानकर कि आजकल बहुत सारे लोग उन वीरेन्द्र मिश्र का नाम भी नहीं जानते जो अभी कुछ वर्ष पहले तक हमारे साथ थे. वे एक बहुत उम्दा गीतकार थे. मंच पर बहुत सुरीले अन्दाज़ में काव्य पाठ करते थे.

उनका एक गीत मुझे मिल गया है और मैं चाहता हूं कि आप सब भी उसका आनन्द लें. गीत का शीर्षक है 'मेरा देश' . मित्रों गीत क्या है, जैसे पूरे भारत की ही एक मनोहारी छवि है. गीत के अंत में भारत-चीन संघर्ष का सन्दर्भ है, क्योंकि गीत उन्हीं दिनों का है.

यह मेरा पहला प्रयास है कोई श्रव्य रचना अपने ब्लॉग पर देने का. अगर प्रयास सफल रहा, और भी बहुत कुछ आप सबसे साझा करता रहूंगा. अभी तो गीत सुनिए.

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