Tuesday, September 25, 2007

बदलें अपना सोच, अपना जीवन


डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल



ईसा मसीह के जन्म से पांच सौ बरस पहले चीन में लाओ त्से नाम के एक बडे विद्वान हुए हैं. इन द्वारा लिखवाये गए 81 पदों को मानवीय अस्तित्व की प्रकृति पर अंतिम टिप्पणी माना जाता है. ये 81 पद जिन्हें ताओ-ते-चिंग यानि महान पथ के नाम से जाना जाता है, ऐसी सलाहें देते हैं जो संतुलित, नैतिक, आध्यात्मिक और सत्कर्म की प्रेरक मानी जाती हैं. इन सलाहों में व्यक्तिगत आध्यात्म से लगाकार मनुष्य-मनुष्य के बीच के रिश्तों और राजनीति तक का समावेश है. चीनी दर्शन शास्त्र के क्षेत्र में ताओ ते चिंग का अत्यधिक महत्व है. चीनी सौंदर्यशास्त्र की अनेक अवधारणाओं का उद्गम भी यहीं से माना जाता है.

स्व विकास के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के लेखक और वक्ता डॉ वैन डब्ल्यू डायर ने अपनी सद्य प्रकाशित किताब चेंज युअर थॉट्स – चेंज युअर लाइफ : लिविंग द विज़डम ऑफ द ताओ में इसी ताओ-ते-चिंग के सैक़डों उपलब्ध अनुवादों का अध्ययन करने के बाद 81 लेख प्रस्तुत किए हैं जो यह बताते हैं कि लाओ त्से की प्राचीन विद्वत्ता को आज के जीवन पर कैसे लागू किया जाए. इस पुस्तक में डॉ डायर ने ताओ के 12 सर्वाधिक प्रशंसित अनुवादों के आधार पर सभी 81 पद भी प्रस्तुत किए हैं.

81 अध्यायों वाली इस किताब का हर अध्याय ताओ के एक पद से प्रारम्भ होता है. फिर एक शीर्षक जो उस अध्याय की सीख का परिचय देता है, जैसे नमनीयता के साथ जीना, या दुश्मनों के बिना जीना. इसके बाद है उस पद पर डॉ डायर की टिप्पणी और व्याख्या. अध्याय के अंत में है संक्षिप्त निर्देश कि उस सीख को अपने जीवन में कैसे ढाला जाए. निर्देश बहुत सरल हैं, जैसे विचारों को अपने मन में रुकने-ठहरने दें. या हैं कुछ क्रियाएं. क्रियाएं छोटी भी हैं, बडी भीं. छोटी जैसे अपने सम्पर्क में आने वाले किसी व्यक्ति के प्रति दया-ममता-करुणा बरतें, और बडी जैसे एक दिन निराहार रहें. अध्यायों का आकार बहुत बडा नहीं है. 4 से 6 पन्ने, बस!

कहना अनावश्यक है कि इन अध्यायों में जो कहा गया है, उसमें नया कुछ भी नहीं है. सब कुछ हमारा जाना-पहचाना ही है. जैसे, आप अपने स्वभाव में विश्वास रखें, संतुष्ट रहें, या अपने सोच को लचीला रखें, उसे कठोर न बनने दें, आदि. सब-कुछ आपका जाना-पहचाना होने के बावज़ूद यह किताब इसलिए प्रभावित करती है कि आज की भाग-दौड और तनाव भरी ज़िन्दगी में शांति और सुकून की तलाश हरेक को है. डॉ डायर जीवन की चिर-परिचित बातों को बहुत ही सरल और आत्मीय अन्दाज़ में प्रस्तुत कर सहज स्वीकार्य बना देते हैं. जो सलाहें वे देते हैं, उन्हें मानने में कोई कठिनाई नहीं लगती, जैसे यह कि आप हर दिन कम से कम एक घण्टा प्रकृति के और अपने सान्निध्य में रहें. एक बहुत अच्छी बात वे यह कहते हैं कि आप छोटी-सी ही सही शुरुआत तो करें. यह कहने के लिए वे लाओ त्से की की सुपरिचित पंक्ति का सहारा लेते हैं : हज़ार मील की यात्रा एक छोटे-से कदम से शुरू होती है.
यह किताब उन चुनिन्दा किताबों में से है जो आपसे कहती है कि मुझे आहिस्ता-आहिस्ता पढो. खुद डॉ वैन ने लिखा है कि “यह एक ऐसी किताब है जो आपका अपनी ज़िन्दगी को देखने का नज़रिया सदा के लिए बदल देगी और आप एक ऐसी नई दुनिया में विचरण करने लगेंगे जिसका प्रकृति से पूर्ण तादात्म्य है. इस किताब को लिखते हुए मैं खुद बदल गया हूं. अब मैं प्राकृतिक विश्व के साथ सामंजस्य और अभूतपूर्व शांति का अनुभव कर रहा हूं. मुझे ताओ-ते- चिंग की यह व्याख्या प्रस्तुत करते हुए गर्व है”.

किताब हमको समझाती है कि यद्यपि गति और परिवर्तन जीवन के नियम हैं और हमारे चारों तरफ बदलाव होते ही रहते हैं, हमें यह विवेक जाग्रत करना चाहिए कि हमें हर परिवर्तन के साथ नहीं बहते जाना है.
आज बाज़ार बेहतर जीवन जीना सिखाने वाली किताबों से भरा पडा है. यह किताब इस तरह की किताबों की भीड में होते हुए भी उनसे अलग है. इसकी सबसे बडी खासियत इसकी शैली में निहित है जो आप पर कुछ इस तरह असर डालती है कि आप खुद-ब-खुद शांति की अनुभूति करने लगते हैं, जीवन की आपाधापी से कुछ देर के लिए ही सही विरत होकर ज़ेन का अनुभव करते हैं और पाते हैं कि आपमें कुछ सकारात्मक परिवर्तन हुआ है.

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(यह समीक्षा आलेख 'जस्ट जयपुर - राजस्थान पत्रिका' में 25 सितम्बर 2007 को प्रकाशित हुआ. )
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ई-2/211, चित्रकूट
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फोन : 2440782
मोबाइल : 98295 32504

























Discussed book:

Change Your Thoughts – Change Your Life: Living the Wisdom of the Tao
By Wayne W. Dyer
Publisher: Hay House

Tuesday, September 18, 2007

बदलता चेहरा लक्ज़री का

बदलता चेहरा लक्ज़री का
डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल


एक वक़्त था जब लक्ज़री उत्पाद केवल चुनिन्दा, अभिजात, पुश्तैनी अमीरों और शाही खानदान के लोगों को ही मयस्सर हो पाते थे. तब ये उत्पाद एक विशिष्ठ जीवन शैली के भी परिचायक हुआ करते थे. इनकी गुणवत्ता उत्कृष्टतम होती थी और इन्हें खरीदना एक अनुपम अनुभव हुआ करता था. जिन लोगों ने ऐसे लक्ज़री उत्पादों का सिलसिला शुरू किया उनके लिए आज के इस तरह के उत्पादों के बाज़ार को पहचान पाना भी शायद मुमकिन न हो. खानदानी निर्माताओं-उत्पादकों, निष्ठा और गुणवत्ता का युग बीत चुका है. आज अरबों-खरबों डॉलर के लक्ज़री उत्पादों का उद्योग उन वैश्विक निगमों के हाथों में है जिनकी नज़रें उत्पादन वृद्धि, ब्रैण्ड अवेयरनेस, विज्ञापन और सबसे ज़्यादा तो मुनाफे पर टिकी है. हाथ से बने लक्ज़री उत्पाद करीब-करीब लुप्त हो चले हैं. कीमतें कम करने और अपना मुनाफा बढाने के लिए घटिया कच्चे माल का प्रयोग किया जाने लगा है. विलासिता पूर्ण उत्पादों का अधिकांश निर्माण चीन जैसे दूरस्थ देशों में स्थित बडे कारखानों को आउट सोर्स कर दिया गया है,और वहां बने उत्पादों को पश्चिमी यूरोप में निर्मित कह कर बेचा जाता है.
बारह साल तक पेरिस में न्यूज़वीक की संस्कृति और फैशन विषयों की लेखिका रही डाना थॉमस ने अपनी नई किताब ‘डीलक्स : हाऊ लक्ज़री लॉस्ट इट्स लस्टर’ में लक्ज़री और फैशन की दुनिया का ऐसा सामाजिक वृत्तांत लिखा है जो मनोरंजक होने के साथ साथ सूचनाप्रद और विचारोत्तेजक भी है. यह किताब लिखने के लिए डाना ने फ्रेंच परफ्यूम लेबोरेट्रीज़ और लास वेगस के शॉपिंग मॉल्स से लगाकर चीन में चल रही असेम्बली लाइन फैक्ट्रियों तक की यात्रा कर लक्ज़री उद्योग के ऐसे अनेक अन्धेरे कोनों और रहस्यों को उजागर किया है जिन्हें प्राडा, गुच्ची और बरबरी जैसे मशहूर ब्राण्ड कभी सामने नहीं आने देते. डाना थॉमस 1994 से न्यूयॉर्क टाइम्स मैगज़ीन में स्टाइल पर लिखती रही हैं, पेरिस की अमरीकन यूनिवर्सिटी में तीन साल पढा चुकी हैं और अनेक उच्च-भ्रू पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन कर कई बार पुरस्कृत हो चुकी हैं.
डाना ने इस किताब में उच्च वर्गीय शॉपिंग अनुभव की गहन पडताल करते हुए कई महत्वपूर्ण सवालों के जवाब भी तलाशने की कोशिश की है, जैसे लक्ज़री की नई परिभाषा क्या है, खास तौर पर इस सन्दर्भ में कि विज्ञापनों के ज़रिये लाइफ स्टाइल को मास मार्केट तक ले जाया जाने लगा है. इसी तरह यह सवाल भी कि हम उस लक्ज़री कहे जाने वाले उत्पाद के लिए महंगी कीमत क्यों चुकाते हैं जो गुणवत्ता को पीछे छोड चुका है? और अंत में यह भी कि क्या इतना होने के बाद भी अपने पैसे को लक्ज़री में झोंकना अक्लमन्दी की बात है?
पारम्परिक लक्ज़री को परिभाषित करती हुई डाना बताती है कि यह न केवल फैशन के मामले में हमारी सुरुचि सम्पन्नता की परिचायक होती है, इससे हमारे राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर तथा हमारी अस्मिता का भी परिचय मिलता है. अमरीका में सुरुचि और स्टाइल के मौज़ूदा मानदण्ड नव-धनिक उद्योगपतियों जैसे वेण्डरबिल्ट्स, कार्नेगीज़, मोरगन्स, रॉकफेलर्स आदि द्वारा कायम किए गए थे. डाना के अनुसार, प्रारम्भ में लक्ज़री महज़ एक प्रॉडक्ट नहीं हुआ करती थी. इसके पीछे परम्परा, उच्चतम क्वालिटी और अक्सर एक लाड भरा खरीददारी अनुभव भी रहा करता था. उस वक़्त लक्ज़री, जैसे सही क्लब की सदस्यता या सही उपनाम का होना, उच्च वर्गीय जीवन का एक स्वाभाविक और प्रत्याशित तत्व हुआ करती था. लक्ज़री उत्पाद बहुत सीमित मात्रा में, प्राय: ऑर्डर पर, वास्तव में एलीट ग्राहकों के लिए बनाए जाते थे.
लेकिन यह सब अब अतीत बन चुका है. डाना थॉमस आज के 35 अग्रणी लक्ज़री ब्राण्ड्स को, जिन्होंने वैश्विक बाज़ार के 60 प्रतिशत से अधिक पर कब्ज़ा जमा रखा है, इस क्षेत्र का खलनायक मानती हैं. इस सूची में शामिल हैं प्राडा, गुच्ची, ज्योर्जिओ आरमानी, शनेल और इन सबसे बडे लुई व्हीटन जिसके समूह में डिओर, फेण्डी और बरलूटी जैसे लेबल आते हैं. इन बडे और लोकप्रिय लेबल्स ने लक्ज़री उद्योग का चेहरा ही बदल डाला है. इनके कारण हुआ यह है कि पहले जो प्रोडक्ट चुनिन्दा और खासमखास का विशेषाधिकार था अब वह हर खासो-आम के लिए सुलभ हो गया है. ऐसा होने से उत्कृष्ट कलात्मकता को सबसे अधिक नुकसान हुआ है. इस बदलाव की चर्चा व व्याख्या करते हुए डाना ने लक्ज़री के प्रजातांत्रिकरण से उत्पन्न अनेक प्रभावों-दुष्प्रभावों की गहरी पडताल की है. उन्होंने आंकडे देकर बताया है कि सारे लक्ज़री उत्पादों का चालीस प्रतिशत जापान में बिकता है, सत्रह प्रतिशत अमरीका में और सोलह प्रतिशत यूरोप के देशों में. यहां तक कि भारत जैसे विकास शील देश में भी लक्ज़री उत्पादों के पचास लाख ग्राहक हैं. चालीस प्रतिशत जापानी किसी न किसी व्हीटन प्रॉडक्ट का प्रयोग करते हैं. लास वेगस के बहुत महंगे मॉल सीज़र्स पैलेस में जाने वालों की तादाद डिज़्नी लैण्ड जाने वालों की तादाद को पीछे छोड चुकी है. बकौल लेखिका औद्योगिकृत देशों में खर्च करने योग्य आय के बढने और क्रेडिट कार्ड संस्कृति के फैलाव से मध्य वर्ग भी लक्ज़री उत्पादकों के निशाने पर आ गया है और वे बडे विज्ञापन अभियानों, फिल्मी सितारों और सेलिब्रिटीज़ के माध्यम से इस वर्ग को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं. इस सब का एक परिणाम यह हुआ है कि जो लक्ज़री पहले चुनिन्दा अभिजात वर्ग तक सीमित थी अब वह आम आदमी की पहुंच के भीतर आ गई है. पहले फैशन के मठ पैरिस और न्यूयॉर्क ही थे, अब तो मास्को तक में क्रॉकस सिटी नाम से 690,000 वर्ग फीट का एक लक्ज़री मॉल बन गया है जिसमें दुनिया के तमाम बडे फैशन हाउसेज़ के 180 बूटीक हैं. चीन के थियानमेन स्क्वेयर में इसी साल के अंत तक ऐसा ही एक मॉल आ रहा है.

लक्ज़री और फैशन की दुनिया में एक बडा बदलाव यह भी आया है कि पहले जहां उत्पादों के लेबल बहुत छोटे हुआ करते थे अब वे लोगो (Logo) के रूप में दिखावे की चीज़ बन चुके हैं. यह भी अभिजात जीवन मूल्य में आया एक बडा बदलाव है. सटल(Subtle) की जगह लाउड ने ले ली है. इस तरह फैशन क्रांति अमीरी और आभिजात्य को नए सिरे से पारिभाषित कर रही है. लक्ज़री उत्पादों की यह कथा वैश्वीकरण, पूंजीकरण, वर्ग और संस्कृति की कथा भी है. किताब को पढते हुए उग्र आक्रामक उपभोक्तावाद की अनेक परतें खुलती हैं और हम बहुत कुछ सोचने को मज़बूर होते हैं.

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कहीं यह जंगल राज तो नहीं

अपने शहर की कुछेक घटनाओं से बहुत व्यथित हूं. ये घटनाएं तो मेरे शहर की हैं लेकिन जानता हूं कि देश के हर शहर में ऐसा ही होता रहता है. इसीलिए अपनी चिंता में आप सबको शरीक कर रहा हूं.
कल राजस्थान विश्वविद्यालय के एक कॉलेज ने एक सांसद वृंदा करात के अपने यहां परमाणु संधि पर व्याख्यान के लिए बुलाया था. वे अपना व्याख्यान दे पातीं इससे पहले ही एक दल विशेष के युवा वहां घुस आए और उनकी कोशिश थी कि वृंदा अपना व्याख्यान न दे. उनका तर्क था कि वृंदा उस विचारधारा से ताल्लुक रखती हैं जो राम को नहीं मानती, वृंदा ने पहले बाबा रामदेव का विरोध किया था, वगैरह.
कुछ दिन पहले मेरे इसी शहर में, और तमाम देश में राम सेतु के समर्थन में तीन घण्टे का बन्द रखा गया. इससे पहले गुर्जरों के समर्थन में, कभी ब्राह्मणों के समर्थन में ऐसा होता ही रहा है.
मैं मानता हूं कि जनतंत्र में सबको अपनी बात कहने का, अपने विचार रखने का, औरों से सहमत और असहमत होने का समान अधिकार होता है. सिद्धांत रूप में तो सब यही कहेंगे. लेकिन व्यवहार में क्या हो रहा है?
क्या वृंदा को अपनी बात कहने का कोई हक़ नहीं है? और आगे चलें तो क्या यह ज़रूरी है कि हर व्यक्ति राम और राम सेतु के बारे में वही विचार रखे जो आपके हैं? आपसे भिन्न सोच भी तो किसी की हो सकती है? जिसकी सोच भिन्न हो वह देशद्रोही होगा, यह तै करने वाले आप कौन हैं?
और इसी तरह, मामला चाहे आरक्षण का हो या कोई और, जो इन मुद्दों के समर्थन में होते हैं, उनसे भिन्न मत भी तो किसी का हो सकता है! अगर आप आरक्षण मांगते हैं तो मैं उसके विरोध में भी तो हो सकता हूं. आप अगर अपनी मांग के समर्थन में मुझे भी शामिल करते हैं तो यह तो ज़बर्दस्ती है, यह तो प्रजातंत्र नहीं है.
होना यह चाहिये कि हम अपनी बात कहें, लेकिन दूसरों को भी अपनी बात कहने का हक़ दें. हम विरोध प्रदर्शन करें लेकिन दूसरों को भी यह हक़ दें कि अगर वे न चाहें तो उस प्रदर्शन से अलग रह जाएं.
एक कॉलेज में कुछ विद्यार्थी किसी मुद्दे को लेकर हडताल करते हैं और अपनी हडताल के लिए यह ज़रूरी मानते हैं कि सारे ही विद्यार्थी उसमें शरीक हों. उनके लिहाज़ से यह ठीक हो सकता है, लेकिन जिन्हें अनचाहे उस हडताल में भागीदारी निबाहनी पड रही है, उनके लिहाज़ से भी तो सोचिये? क्या उनका कोई हक़ नहीं है? या हक़ तो सिर्फ ताकतवर का ही होता है?
क्या इसी को जंगल राज नहीं कहा जाएगा?
दुर्गाप्रसाद

Thursday, September 13, 2007

हिन्दी दिवस पर विशेष : हिन्दी, हिन्दी, कैसी हिन्दी

हिन्दी, हिन्दी, कैसी हिन्दी
डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल


न्यूयॉर्क में सम्पन्न हुए आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन पर हुआ शोर-शराबा पूरी तरह थमा भी नहीं है कि हिन्दी दिवस आ गया है. जो लोग इस सम्मेलन में जाने का जुगाड करने में कामयाब हुए उनकी मानें तो अब हिन्दी को विश्व भाषा बनने से कोई रोक नहीं सकता, और जो नहीं जा पाए उनमें से अधिकांश की सुनें तो यह कि हिन्दी जहां थी उससे पीछे ही गई है, और इस तरह के सम्मेलनों से कुछ होना जाना नहीं है. और अब आ गया है यह हिन्दी दिवस, जिसे दिल-जले हिन्दी का श्राद्ध दिवस कह कर अपनी भडास निकाला करते हैं.

भारत की संविधान सभा ने 14 सितम्बर को हिन्दी को राजभाषा बनाने का फैसला किया था, उसी को याद करते हुए हिन्दी दिवस मनाया जाता है. कहने को हिन्दी हमारे देश की राजभाषा है भी सही, लेकिन इससे अधिक मिथ्या कथन और कोई शायद हो नहीं सकता. हिन्दी कितनी राजभाषा है, बताने की ज़रूरत नहीं. फिर भी, इस दिन हिन्दी प्रेमी इकट्ठा होते हैं, हिन्दी की शान में कसीदे पढते हैं, हिन्दी के लिए जीने-मरने की कसमें खाते हैं, और शाम होते-होते ये पर उपदेश कुशल वीर फिर से अपनी उस दुनिया में लौट जाते हैं जहां हिन्दी या तो होती नहीं, या बहुत ही कम होती है. घर में अंग्रेज़ी के अखबार, अंग्रेज़ी की पत्र-पत्रिकाएं, बातचीत और अगर वह किसी ‘बडे’ आदमी से हो तो अनिवार्यत: अंग्रेज़ी में, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा अंग्रेज़ी में. यानि हिन्दी के प्रयोग का उपदेश दूसरों को. उपदेश देने वाला भी इस हक़ीक़त से वाक़िफ, लेने वाला भी. इतना ही नहीं, हिन्दी के प्रति दिखावटी अनुराग का यह भाव भी क्रमश: फीका पडता जा रहा है. आज़ादी के बाद के कुछ सालों में हिन्दी के प्रति जिस तरह का लगाव नज़र आता था और लोग जिस उत्साह और भावना से हिन्दी के लिए खून-पसीना बहाने की बातें किया करते थे, अब धीरे-धीरे उसका भी लोप होता जा रहा है. अब हिन्दी दिवस महज़ एक गैर-ज़रूरी रस्म अदायगी बन कर रह गया है. राजभाषा विभाग या उसके अधिकारी को एक दिन यह ढोल बजाना है सो जैसे-तैसे बजा दिया जाता है.
निश्चय ही यह स्थिति लाने में सबसे बडी भूमिका हिन्दी वालों की रही है. मुझे लगता है कि हिन्दी का सबसे बडा अहित उसके राजभाषा बन जाने से हुआ. इसे गलत न समझा जाए. राजभाषा किसी न किसी भाषा को बनना ही था. हिन्दी का राजभाषा बनना उचित था. लेकिन गलत यह हुआ कि इसे हिन्दी वालों ने दादागिरी के भाव से ग्रहण किया: सारे देश को अब हिन्दी में काम करना पडेगा. अगर हम लोगों ने अन्य भाषाओं के प्रति अपनत्व रखा होता, अगर दूसरी भाषाओं को सीखने में ज़रा भी रुचि दिखाई होती तो हिन्दी के प्रति अन्य भाषा-भाषियों में वैसी अरुचि न होती जैसी गाहे-बगाहे प्रकट हो जाती है. आखिर कितने हिन्दी भाषी होंगे जो दक्षिण की भी, बल्कि किसी भी हिन्दीतर प्रदेश की कोई भाषा जानते हैं? प्रभाष जोशी ने ठीक ही कहा है “अन्य भारतीय भाषाओं के लोगों को हिन्दी से तभी ऐतराज़ होता है जब हिन्दी भाषी, भाषा द्वारा सत्ता को संचालित करना चाहते हैं. यानि सत्ता पर सिर्फ हिन्दी क एकाधिकार देखना अन्य भारतीय भाषी लोग पसन्द नहीं करते.”

दूसरी बात, हिन्दी समर्थक ‘निज भाषा उन्नति’ की केवल बात ही करते हैं, उसे क्रिया रूप में परिणत करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते. आज हिन्दी में अधिकांश किताबें 200 के संस्करण से आगे नहीं जा पाती, इससे अधिक क्रूर टिप्पणी हमारे भाषा प्रेम पर क्या होगी? बडे-से-बडे शहर में हिन्दी किताबों की दुकान का होना अपवाद ही होगा. यह कहना अर्ध सत्य है कि प्रकाशक या पुस्तक विक्रेता की रुचि किताब बेचने में नहीं है. आखिर वह तो बेचने को बैठा है, आप खरीदने को निकलिये तो सही. लेकिन दस हज़ार का मोबाइल, दो हज़ार का जूता और दो सौ का पिज़्ज़ा खरीदने वाले को दो सौ रुपये की किताब महंगी लगती है. न केवल अधिसंख्य हिन्दी प्रेमी खरीदते नहीं पढते भी नहीं. वे अपनी कूपमण्डूकता में ही मगन रहते हैं. हिन्दी लेखकों की स्थिति भी, जो अपने आप को हिन्दी का सबसे बडा पैरोकार मानते हैं, कोई बेहतर नहीं है. हिन्दी का बडा (बल्कि छोटा भी) लेखक किताब खरीदकर पढना अपमान की बात मानता है. अगर आप चाहते हैं कि वह आपकी किताब पढे तो आप उसे भेंट कीजिए. फुरसत होगी तो पढ लेंगे. और फुरसत होगी, इसकी ज़्यादा उम्मीद कीजिये मत. हिन्दी लेखक अपना लिखा ही नहीं पढता औरों पर क्या कृपा करेगा!
भाषा के प्रति उसका रवैया भी कम अधिनायकवादी नहीं है. वह चाहता है कि सब उससे पूछ कर, जैसी वह कहे वैसी भाषा का प्रयोग करें. इसीलिए कभी वह अखबारों की भाषा पर कुढता है, कभी टी वी की भाषा पर नाक-भौं सिकोडता है. वह खुद चाहे अपने जीवन में चाहे जैसी मिश्रित भाषा बोलता हो, आपसे चाहता है कि आप अपनी भाषा निहायत शुद्ध, परिष्कृत, प्रांजल, संस्कृतनिष्ठ वगैरह रखें. उसके लिए भाषा पण्डित का चौका है जहां काफी कुछ वर्जित रहता है. मज़े की बात कि यही भाषाविद इस बात पर खूब गर्व करता है कि ऑक्सफॉर्ड डिक्शनरी में इस साल इतने हिन्दी शब्द शामिल हो गए. हां, उसकी भाषा के चौके में अगर एक भी शब्द अंग्रेज़ी का आ गया तो चौका अपवित्र! इस संकुचित-संकीर्ण भाव को रखते हुए बात की जाती है हिन्दी को विश्व भाषा बनाने की. घर में नहीं दाने, अम्मां चली भुनाने!

हम हिन्दी अपनाने की बात तो बहुत करते हैं पर हिन्दी कैसी हो, इस पर कोई विमर्श नहीं करते. यह समझा जाना चाहिए कि जब हमारे दैनिक जीवन की भाषा बदली है, यह बदलाव सब जगह दिखाई देगा. जिस भाषा में साहित्य रचा जाता है, वह भाषा आम आदमी की नहीं हो सकती. किसी भी काल में नहीं रही, हालांकि भवानी प्रसाद मिश्र ने कहा था, ‘जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख’. वैसे, नई तकनीक के आने से साहित्य की दुनिया में भी आम आदमी और उसकी भाषा की आमद-रफ्त बढी है, इसे भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए. कम्प्यूटर और इण्टरनेट के लगातार सुलभ और लोकप्रिय होने से आज हममें से बहुत सारे लोग अपने लिखे के खुद ही प्रकाशक भी हो गए हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण है. अब साहित्य कुछ खास लोगों तक सीमित नहीं रह गया है. आज हिन्दी में ही लगभग 500 ब्लॉग चल रहे हैं. इनमें से अधिकतर की भाषा उस भाषा से बहुत अलग है जिसे आदर्श भाषा के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है. यहां दूसरी भाषाओं से शब्दों की खुली आवाजाही है और व्याकरण के नियमों में भारी शिथिलता है. दलित साहित्य ने भी भाषा को एक हद तक आज़ाद किया है.

इधर तकनीक ने भाषा के प्रचार-प्रसार में बहुत बडी भूमिका अदा की है. कम्प्यूटर पर लगभग सारा काम हिन्दी में करना सम्भव हुआ है और बहुत सारे हिन्दी प्रेमियों ने हिन्दी को तकनीक के लिए स्वीकार्य बनाने में वह काम किया है जो सरकारों को करना चाहिये था. बालेन्दु दाधीच और रविशंकर श्रीवास्तव उर्फ रवि रतलामी ऐसे लोगों में अग्रगण्य हैं. लेकिन आम हिन्दी लेखक ने तकनीक से एक दूरी ही बना रखी है. नई तकनीक के विरोध में उनके पास अनगिनत तर्क हैं. ‘मैं कम्प्यूटर नहीं जानता’ इस बात को संकोच से नहीं, गर्व से कहने वाले ‘एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं.’ इस परहेज़ से न उनका भला है न हिन्दी का. सुखद आश्चर्य तो यह कि ऐसे लोगों के बावज़ूद तकनीक की दुनिया में हिन्दी फल-फूल रही है. दर असल पारम्परिक साहित्यकारों से अलग एक नई पीढी इण्टरनेट के माध्यम से साहित्य द्वार पर ज़ोरदार दस्तक दे रही है. इनके भाषा संस्कार भिन्न हैं और अलग है साहित्य को लेकर इनका नज़रिया. नेट पत्रिकाओं और ब्लॉग्ज़ में इनके तेवर अलग से देखे-जाने जा सकते हैं. कोई आश्चर्य नहीं होगा कि अगले कुछ सालों में ये ही साहित्य की मुख्यधारा का रूप ले लें. आखिर कहां हिन्दी की एक किताब का 200 का संस्करण और कहां नेट की असीमित दुनिया!

हिन्दी फल-फूल बाज़ार में भी रही है. यह वैश्वीकरण का युग है. सबको अपना-अपना माल बेचने की पडी है. शहरों में बेच चुके तो अब कस्बों का रुख किया जा रहा है. और कस्बों की जनता को, बल्कि कहें उपभोक्ता को, तो हिन्दी में ही सम्बोधित किया जा सकता है, सो बाज़ार दौड कर हिन्दी को गले लगा रहा है. यह बात अगर गर्व करने की नहीं है तो स्यापा करने की भी नहीं है. आखिर हिन्दी का प्रसार तो हो ही रहा है. वैसे वैश्वीकरण की भाषा, एक बडे भू भाग में अंग्रेज़ी है, लेकिन भारत में उसने बाज़ार के दबाव में आकर हिन्दी के आगे घुटने टिकाये हैं. इसी प्रक्रिया में हिन्दी और अंग्रेज़ी के रिश्ते भी पहले की तुलना में अधिक सद्भावपूर्ण बने हैं. ज़रूरत इस बात की है कि आज इन नए बने रिश्तों को समझा जाए और पुरानी शत्रुताओं को भुलाया जाए. आज जो अंग्रेज़ी हमारे चारों तरफ है उसे ब्रिटिश साम्राज्य से जोड कर देखना उचित नहीं. हमें इस नई अंग्रेज़ी के साथ रहना है, इसे स्वीकार कर अपनी भाषा के विकास की रणनीति तैयार की जानी चाहिए.

आज भाषा और हिन्दी भाषा के प्रश्न पर न तो भावुकता के साथ सही विचार हो सकता है और न अपने अतीत के प्रति अन्ध भक्ति भाव रखते हुए. ऐसा हमने बहुत कर लिया. अब तो ज़रूरत इस बात की है कि बदलते समय की आहटों को सुना जाए और भाषा को तदनुरूप विकसित होने दिया जाए. इसी में हिन्दी का भला है, और हमारा भी.
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Sunday, September 2, 2007

एक और दिलचस्प किताब के बारे में

क्या नहीं, कैसे
डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

आज की दुनिया बहुत बदल गई है। हर किसी के पास इण्टरनेट पर माय स्पेस है और वह प्रकाशक है, हर किसी के पास कैमरा युक्त मोबाइल है, और वह चलता फ़िरता फ़ोटो पत्रकार है, हर कोई यू ट्यूब पर अपना बनाया वीडियो अपलोड कर सकता है और वह फ़िल्मकार है। यानि हम में से हरेक अब प्रकाशक, पत्रकार, फ़िल्मकार वगैरह है और हमारी ज़द में आने वाला हर व्यक्ति एक सार्वजनिक व्यक्ति है। इस बदलाव के कारण हमारी ज़िन्दगी पर और खासकर व्यापार पर जो असर पड रहा है उसी की गम्भीर पडताल की है एल आर एन नामक एक बिज़नेस एथिक्स कम्पनी के संस्थापक और सी ई ओ डोव सीडमेन ने अपनी नई किताब हाउ (HOW) में।

सीडमेन की स्थापना का सार यह है कि आज की अत्यधिक पारदर्शी दुनिया में यह पहले से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है कि आप कैसे अपनी ज़िन्दगी जीते हैं और कैसे अपना व्यापार चलाते हैं क्योंकि आज पहले से कहीं ज़्यादा लोग बिना किसी सम्पादक-प्रकाशक के आपके अन्तरंग में झांक पाने और उसे औरों को दिखा पाने में समर्थ हैं। इसलिए, अगर आपको आज की दुनिया में सफ़ल होना है तो इन नई स्थितियों को अपने पक्ष में इस्तेमाल करना सीखना होगा।

इसी के साथ यह भी कि आज नई पीढी के लिए यह जानना समझना भी ज़रूरी है कि आज जो भी किया, कहा या लिखा जाता है वह तुरंत डिजिटल जगत में अमिट हो जाता है। उसे मिटाया ही नहीं जा सकता, कभी भी। इसलिए, हमाई ज़रा-सी चूक या भूल, जैसे हमारे सी वी पर की गई छोटी-सी गलतबयानी, या कहीं की गई कोई टिप्पणी हमारे लिए सदा के लिए कष्टदायक बन सकती है। इलेक्ट्रॉनिक और सायबर स्पेस में स्मृति की अक्षुण्णता ने यह स्थिति पैदा कर दी है कि आपको कोई दूसरा मौका नहीं मिलने वाला। इसीलिए सीडमेन कहते हैं कि “इस सूचना युग में जीवन में कोई अध्याय या अलमारी बन्द नहीं है जहां आप कुछ गोपनीय रख सकें। आप कुछ भी पीछे नहीं छोड सकते और न अपना कूडा-कबाड कहीं छिपा सकते हैं। आपका अतीत ही आपका वर्तमान है। इसलिए, अगर जीवन में आगे बढना है तो ‘कैसे’ को सम्भालना होगा।“

यही बात व्यापार के बारे में भी है। वह समय पीछे छूट गया है जब कम्पनियां कुछ जन सम्पर्क कर्मियों को खिला-पिलाकर, दे-दिलाकर अपनी छवि दुरुस्त कर लिया करती थी। आज तो हममें से हरेक एक रिपोर्टर है और उसकी बात पूरी दुनिया में पढी-सुनी जाती है। लेकिन, सीडमेन कहते हैं, इसी में अनन्त सम्भावनाएं भी छिपी हैं। वे कहते हैं कि आज आप जो माल बनाते हैं, उसकी तो सारी दुनिया नकल करके बेच सकती है, लेकिन आप कैसे अपने ग्राहकों से बर्ताव करते हैं, कैसे उनसे अपने वादे निबाहते हैं, कैसे अपने सहयोगियों के साथ रिश्ते रखते हैं – इसकी कोई नकल नहीं हो सकती। इसी ‘कैसे’ में छिपा होता है आपकी सफ़लता का रहस्य! सीडमेन एक बहुत खू्बसूरत बात कहते हैं : मानवीय व्यवहार में इतना वैविध्य है और यह इतना वैश्विक है कि इससे अनंत सम्भावनाएं उपजती हैं।
सीडमेन कुछ उदाहरण देकर अपनी बात पुष्ट करते हैं। मिशिगन के एक अस्पताल ने अपने डॉक्टरों को पाबन्द किया कि वे कोई भी गलती करने पर माफ़ी मांगें। सीडमेन कहते हैं कि इसके बाद उस अस्पताल के माल प्रैक्टिस (दुराचरण) क्लेम्स में ज़बर्दस्त कमी आई। इसी तरह टेक्सस में एक मोटर कम्पनी ने अपने मैकेनिकों को यह छूट दे दी कि वे सही काम करने के लिए कम्पनी का चाहे कितना भी खर्च कर सकते हैं। बकौल सीडमेन, ग्राहक संतुष्टि बढने के कारण कम्पनी का असल खर्च कम हो गया। इसी तरह न्यूयॉर्क की एक गली के डोनट सेलर ने अपने ग्राहकों पर विश्वास करते हुए यह व्यवस्था की कि वे अपनी शेष रेज़गारी उसके गल्ले से खुद उठा लें, तो उसने पाया कि न केवल वह ज़्यादा ग्राहकों की सेवा कर पा रहा है, उसके इस विश्वास प्रदर्शन से उसके ग्राहकों की संख्या भी बढ गई है।

इस तरह के उदाहरणों से सीडमेन स्थापित करते हैं कि अब हम कांच के घरों में नहीं रहते हैं। बल्कि घरों की तो दीवारें भी होती हैं, हम तो कांच के माइक्रोस्कोपिक स्लाइड्स पर धरे हैं, जिन्हें हर कोई देख सकता है। इसलिए चाहे आप कार बेचते हों या अखबार, या इन्हें खरीदते हों, अपना ‘कैसे’ दुरुस्त रखिये। यानि कोशिश कीजिये कि विश्वास कायम करें, साथ मिलकर काम करें, सही तरह से नेतृत्व करें और मौका आये तो अपनी गलती के लिए ईमानदारी से क्षमा याचना करें। इसलिए, कि पहले से ज़्यादा लोग जानते हैं, जान सकते हैं कि आप क्या करते हैं और क्या नहीं।

सीडमेन बहुत ज़ोर देकर कहते हैं कि इस अत्यधिक पारदर्शी और बेहद जुडे हुए विश्व में हमें अपनी भूमिका और कामों पर पुनर्विचार करना पडेगा। अब जब सूचना अपरिमित हो चली है, उसकी जमाखोरी निरर्थक है। इसकी बजाय हमें उसे अधिक सुलभ कराना चाहिये। आज जब दुनिया में वैश्विक पार्टनर्स के साथ मिलकर काम करना व्यापार के लिए ज़रूरी होता जा रहा है, व्यापार की सफ़लता के लिए सूचनाओं का साझा ज़रूरी है। आज का नया मंत्र है : जुडो और साथ मिलकर काम करो। जो ज़्यादा अच्छी तरह ऐसा कर पाएंगे, भविष्य उन्हीं का होगा।

कहना अनावश्यक है, सीडमेन की यह सीख जितनी व्यापारिक गतिविधियों पर लागू होती है, उतनी ही वैयक्तिक आचरण पर भी।
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