Thursday, December 27, 2007

ऐसे भी पढा जा सकता है किताब को

पेरिस विश्वविद्यालय में फ्रेंच साहित्य के प्रोफेसर और प्रतिष्ठित मनोविश्लेषक पियरे बेयार्ड की बहु चर्चित किताब का मूल फ्रेंच से जेफ्री मेहलमान द्वारा किया गया अंग्रेज़ी अनुवाद ‘हाऊ टू टाक अबाउट बुक्स यू हेवण्ट रेड’ इधर खूब पढा जा रहा है. बावन वर्षीय प्रोफेसर बेयार्ड ने इस मज़ेदार और ऊपर से हल्की लगने वाली किताब के माध्यम से उन लोगों की मदद करने का रोचक प्रयास किया है जो विद्वत्समाज में इस बात से शर्मिन्दगी महसूस करते हैं कि उन्होंने कोई खास क्लैसिक या चर्चित किताब नहीं पढी है. बेयार्ड पहले तो उन्हें यह कहकर दिलासा देते हैं कि न पढने वालों की बिरादरी बहुत बडी है. वे बताते हैं कि पॉल वेलेरी को लेखकों से उनकी अन-पढी किताबों की तारीफ के अनेक तरीके आते थे और मोन्तेन को अपना पढा प्राय: याद नहीं रहता था. इतना ही नहीं, बेयार्ड ग्राहम ग्रीन, डेविड लॉज आदि उपन्यासकारों के ऐसे अनेक चरित्रों की भी याद दिलाते हैं जो पढने की ज़रूरत पर ही प्रश्न चिह्न लगाते रहे हैं. इतना करने के बाद बेयार्ड किसी किताब को बिना पढे उसके बारे में बात करने के तरीके सुझाते हैं. यह करते हुए वे बलपूर्वक कहते हैं कि पढना क़तई ज़रूरी नहीं है, और वे खुद अनेक पुस्तकों को बिना पढे या महज़ उनके पन्ने पलट कर उनके बारे में अपने विद्यार्थियों को प्रभावशाली व्याख्यान दे चुके हैं.
किताब का रोचक हिस्सा वह है जहां बेयार्ड आपको यह सलाह देते हैं कि अगर आप किसी सुसंस्कृत, सुपठित समुदाय में किसी पुस्तक की चर्चा के दौरान फंस जाएं तो क्या करें! वे सलाह देते हैं कि आपको भी उसी तरह की किसी अन्य किताब का ज़िक्र छेड देना चाहिए, या उसी लेखक की किसी अन्य किताब की बात करने लग जाना चाहिए. अगर यह मुमकिन न हो तो अपनी ही लिखी किसी किताब या उस किताब पर जिसे आप लिखना चाहते हैं, बात करने लग जाना चाहिए. वैसे आप वह भी कर सकते हैं जो अनेक समीक्षक करते हैं: किताब की भूमिका पढ लें और उसका अंतिम अध्याय देख लें. इतना भी सम्भव न हो तो उसकी विषय सूची ही देख लें. और अगर आपका सामना किसी पुस्तक के लेखक से ही हो जाए तो? बेयार्ड सलाह देते हैं कि आप उनसे कहें कि यह आपकी उत्कृष्टम रचना है, या कि इस बार तो आपने कमाल ही कर दिया. यानि विस्तार में जाए बगैर प्रशंसा करें. और फिर आहिस्ता से चर्चा को रचना से हटाकर रचनाकार पर ले आएं. हर लेखक खुद के बारे में बात करके प्रसन्न होता है.
वैसे वास्तव में यह किताब एक किताब विरोधी का सर्जन नहीं है. खुद लेखक ने कहा है कि “यह किताब एक ऐसे काल्पनिक चरित्र की सृष्टि है जो न पढने की डींगें हांकता है, और वह चरित्र मैं नहीं हूं.” उन्होंने ऐसी किताब क्यों लिखी, इसका जवाब उन्होंने यह कहकर दिया है कि वे फ्रांस के लोगों, विद्यार्थियों और आमजन के मन में बैठे उस सांस्कृतिक डर को भगाना चाहते थे जो साहित्य को लेकर उत्पन्न कर दिया गया है. यहीं यह बता देना भी आवश्यक है कि फ्रांस में किताबों को बहुत पवित्र माना जाता है और वहां लेखक की हैसियत धर्मगुरु और रॉक स्टार के बीच की है. वस्तुत: पाश्चात्य संस्कृति ने किताबों को लगभग उसी तरह पूजा की वस्तु बना दिया है जिस तरह उसने स्तनों और धन को बना दिया है. हमारा पढना एक ऐसे क्षयकारी आदर्शवाद से संचालित होता है जो हमें एक प्रच्छ्न्न लज्जा भाव से भरता रहता है कि हमें इस किताब को और अधिक अच्छी तरह से पढना चाहिये था. बेयार्ड इसे गलत मानते हैं. वे किसी भी किताब को शब्दश: पढने के पक्ष में नहीं हैं और कहते हैं कि असल पढना तो करीब-करीब न पढना ही है. इसे और खोलते हुए वे कहते हैं कि न पढने से आशय कुछ ऐसी सकारात्मक वैकल्पिक क्रियाओं से है जिन्हें हमें अपनाना और अपने बच्चों को भी सिखाना चाहिए, जैसे किताबों के आवरणों को देखना और उनके आरम्भिक अंशों को पढना वगैरह. बेयार्ड मानते हैं कि किसी किताब की गहन जानकारी से अधिक महत्वपूर्ण है किसी ‘सामूहिक पुस्तकालय’ के परिप्रेक्ष्य में उस किताब की अवस्थिति से परिचित होना. सामूहिक पुस्तकालय से उनका आशय है उस तरह की किताबों का समूह. बेयार्ड का कहना है कि किताब को आरम्भ से अंत तक पढने के अलावा और तरह से भी पढा जा सकता है. यहां-वहां से, या पन्ने पलटकर. आखिर किताब की महता तो उसमें सर्वत्र विद्यमान होती है. आप पन्ने पलटते हैं तब भी उसकी श्रेष्ठता के सम्पर्क में तो आते ही हैं. इसके अलावा, किताब की महत्ता इस बात में भी तो निहित होती है कि उसकी समग्र अवधारणा आपके जीवन से कैसे बावस्ता होती है.

दर असल इस किताब का उद्देश्य है लोगों को अधिक आज़ादी के साथ पढने के लिए प्रेरित करना. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही लेखक ने एक गम्भीर विषय को हास्य के माध्यम से प्रस्तुत किया है.
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Discussed book:
How to Talk About Books You Haven’t Read
By Pierre Bayard
Translated from French By Jeffrey Mehiman
Published By Bloomsbury, USA
Pages 208
$ 19.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' के अंतर्गत 27 दिसम्बर 2007 को प्रकाशित.

Thursday, December 20, 2007

सूचना प्रौद्योगिकी, चीन और भारत

आज की दुनिया की आर्थिक हलचलों के किसी भी जागरूक अध्येता से पूछें कि वर्तमान समय का सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक बदलाव क्या है, तो उत्तर इसके सिवा कुछ और हो ही नहीं सकता: चीन और भारत का अभ्युदय. बात को आगे बढाएं और जानने की कोशिश करें कि दुनिया के जिस उद्योग-व्यवसाय पर अब तक पश्चिम का वर्चस्व रहा है, उस पर इस अभ्युदय का क्या प्रभाव हो सकता है, तो निश्चय ही कई उत्तर मिलेंगे. यह स्वाभाविक भी है.

एक प्रसिद्ध सूचना प्रौद्योगिकी सलाहकार समूह गार्टनर से सम्बद्ध दो जाने-माने विश्लेषकों जेम्स एम. पॉपकिन और पार्थ आयंगार की नई किताब ‘आई टी एण्ड द ईस्ट: हाऊ चाइना एण्ड इण्डिया आर आल्टरिंग द फ्यूचर ऑफ टेक्नोलॉजी एण्ड इन्नोवेशन’ ने यही किया है. बेशुमार आंकडों, तथ्यों और उनके गहन विश्लेषण से वैश्विक अर्थव्यवस्था की जटिलताओं को समझने के प्रयत्न में जब वे चीन और भारत के लिए कहते हैं कि ऐसे प्रतिस्पर्धी हमने अपने जीवन में तो देखे नहीं, तो उनसे असहमत होना कठिन होता है.
किताब मोटे तौर पर तीन मुख्य खण्डों में विभाजित है. पहला खण्ड भारत को, दूसरा चीन को और तीसरा संयुक्त रूप से दोनों को समर्पित है. लेखक ने चाइना और इण्डिया को मिलाकर एक नया शब्द गढा है: चिण्डिया. प्रथम दो खण्डों में क्रमश: भारत व चीन के इतिहास, अर्थ तंत्र और उसकी दिशाओं का वर्णन है. इन खण्डों में प्रत्येक देश के लिए 2012 तक की अर्थ-यात्रा की परिकल्पना भी की गई है. ऐसा करते हुए हर देश के लिए तीन सम्भावित मार्गों पर विचार किया गया है. भारत के बारे में लेखक द्वय को सर्वाधिक सम्भावना यह लगती है कि यहां संरचनात्मक सुधार तो खूब होंगे लेकिन शैक्षिक संस्थानों पर अभिजात वर्ग का वर्चस्व बरकरार रहेगा. इस कारण हेव्ज़ और हेव नॉट्स के बीच की खाई भी बनी रहेगी. लेखक द्वय कहते हैं कि एक बन्द सरकारी व्यवस्था वाला देश होने की वजह से चीन के भविष्य की कल्पना का खाका खींचना अपेक्षाकृत कठिन है. हो सकता है, चीन एक गतिशील उद्यमी ताकत बन जाए, या फिर संरक्षणवादी खोल में जा घुसे. दोनों देशों की बात करते हुए वे कहते हैं कि इन्हें ऐसी राह चुननी चाहिए जो एक दूसरे की कमज़ोरियों और ताकतों से तालमेल रख सके. अगर ऐसा किया गया तो भारत और चीन हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर दोनों ही के बाज़ारों की ऐसी ताकत बन जाएंगे जिससे मानव संसाधन और लागत, किसी भी मोर्चे पर पार पाना किसी भी देश के लिए कठिन होगा.
भारत और चीन दुनिया के श्रेष्ठतम कम्प्यूटर वैज्ञानिक और सूचना प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ तैयार कर रहे हैं. पश्चिम की बडी से बडी कम्पनियां अपना असेंबली कार्य तो पहले ही से इन दोनों देशों को आउटसोर्स कर रही हैं, अब तो वे नवाचारों के लिए भी इनकी तरफ देखने लगी हैं. फिर भी, एक अध्ययन यह बताता है कि चीन के केवल दस प्रतिशत स्नातक ही वैश्विक निगमों में सीधे भर्ती की पात्रता रखते हैं, शेष के लिए कम से कम छह माह का प्रशिक्षण आवश्यक होता है. भारत की स्थिति भी बहुत भिन्न नहीं है. हालांकि भारत के कुल सेवा निर्यात का उनचास प्रतिशत(वर्ष 2003-04 में 25 बिलियन डॉलर) सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में ही है और इसमें प्रतिवर्ष छत्तीस प्रतिशत की दर से इज़ाफा हो रहा है, और अगर इतना ही काफी न हो तो यह भी कि दुनिया के ऑफ शोरिंग का दो तिहाई भारत को ही मिल रहा है, हमारी शिक्षा व्यवस्था अभी भी संतोषप्रद नहीं है. यहां के स्नातकों में से मात्र पच्चीस प्रतिशत ही बहुराष्ट्रीय निगमों में सीधे प्रवेश की योग्यता रखते हैं. इसके अलावा, लाइसेंस परमिट के झमेलों के मामलों में हम अमरीका से ही नहीं, चीन से भी बदतर स्थिति में हैं. इंफ्रास्ट्रक्चर की कमियां तो हैं ही, क्षेत्रीय और धार्मिक विवाद, सरकार में घुसे अपराधी तत्व, नीतियों पर बेवजह की खींचतान, भाषाओं की विविधता आदि भी तस्वीर को धुंधलाने में अपना अपना योग देते हैं. ये ही कारण हैं कि वर्ष 2004-05 में भारत को बाह्य निवेश के रूप में साढे पांच बिलियन डॉलर मिले, जबकि उसी अवधि में चीन को एक सौ तरेपन बिलियन डॉलर की प्राप्ति हुई. चीन का प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद भी भारत से दुगुना है.
इस तरह की अन्य अनेक किताबों की तरह यह किताब भी पश्चिम के और विशेष रूप से वहां के बहुराष्ट्रीय निगमों के नज़रिये से लिखी गई है, लेकिन इसके बावज़ूद यह हमें अपनी कमियों और क्षमताओं को समझने में बहुत मदद देती है. इस तरह की किताबें यह भी बताती हैं कि भारत और चीन में किस तरह पश्चिम की दिलचस्पी बढती जा रही है. कहना अनावश्यक है कि इस बढती दिलचस्पी का सबसे ज़्यादा फायदा हमारी युवा पीढी को मिलना है.
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Disucssed Book :
IT and the East: How China and India Are Altering the Future of Technology and Innovation
By: James M. Popkin and Partha Iyengar
Published by: Harvard Business School Press
Hardcover, 226 pages.

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स में 20 दिसम्बर 2007 को प्रकाशित.


Monday, December 17, 2007

लघु कथा पर राष्ट्रीय संगोष्ठी


रायपुर । छत्तीसगढ़ की बहुआयामी और रचनाकारों की सांस्कृतिक संस्था "सृजन-सम्मान" द्वारा आगामी 16-17 फरवरी को रायपुर में नये समय की सबसे कारगर विधा लघुकथा पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है । विमर्श का केंद्रीय विषय "लघुकथाः नई सदी की केंद्रीय विधा" रखा गया है । इस राष्ट्रीय विमर्श में लघुकथा आंदोलन से संबंद्ध रहे 100 सक्रिय लघुकथाकार सहित लगभग 300 साहित्यकार, पत्रकार, शिक्षाविद् एवं आलोचक सम्मिलित होंगे ।
विमर्श एवं ग्रंथ हेतु शोध आलेख आमंत्रितसंस्था द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले अखिल भारतीय साहित्य महोत्सव की कड़ी के रूप में होने वाले इस राष्ट्रीय विमर्श में लघुकथा विधा के विभिन्न आयामों पर आलेख वाचन, संवाद एवं हस्तक्षेप का सत्र रखा गया है । विमर्श में प्राप्त आलेखों का प्रकाशन भी किया जायेगा। संगोष्ठी हेतु लघुकथाकारों, शिक्षाविदों, आलोचकों, साहित्यकारों से निःशुल्क आलेख आमंत्रित किया जा रहा है ।
आलेख भेजने के नियमः-1. मूल आलेख अधिकतम 3-4 पृष्ठ का होना चाहिए । विस्तृत आलेख अलग से भेजा सकता है ।2. आलेख टाइप या हस्तलिखित हो सकता है किन्तु वह पठनीय हो ।3. आलेख के साथ रचनाकार अपना फोटो, संक्षिप्त परिचय अवश्य भेजें । 4. प्रविष्टि प्राप्ति की अधिकतम तिथि 30 जनवरी, 2008 ।५. अंतिम रूप से चयनित 45 आलेख लेखक विमर्श में आलेख वाचन कर सकेंगे । लेखक विमर्श में समुपस्थित रह सकेंगे । उनके आलेखों का प्रकाशन भी किया जायेगा । 6. समस्त आलेख लेखकों को प्रकाशित विमर्श-कृति की एक-एक प्रति निःशुल्क भेंट की जायेगी । 7. विमर्श के सम्मिलित प्रतीभागियों के आवास, भोजन आदि की निःशुल्क व्यवस्था संस्था द्वारा की जायेगी ।
लघुकथाकार के विकास में योगदान देने वालों का सम्मानहिंदी लघुकथा की विधा के विकास में संघर्षरत रहे एवं अपनी रचनात्मकता से इस विधा को गति देने वाले देश के वरिष्ठ लघुकथाकारों, लघुकथा केंद्रित पत्रिका संपादकों, आलोचकों, शोधार्थियों, अनुवादकों, संगठनों का इस साहित्य महोत्सव में राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान भी किया जायेगा । उन्हें इस अवसर पर देश के प्रख्यात साहित्यकारों, आलोचकों एवं महामहिम राज्यपाल, संस्कृति मंत्री, शिक्षामंत्री के करकमलों से "लघुकथा-गौरव" एवं "सृजन-श्री" अलंकरण प्रदान कर उनके साहित्यिक योगदान को रेखांकित किया जायेगा । सम्मान स्वरूप रचनाकारों को एक प्रशस्ति-पत्र, प्रतीक चिन्ह, 1000 रूपयों की साहित्यिक कृतियाँ भेंट की जायेगी ।
\n\u003cp\>इस हेतु एक चयन समिति का गठन किया गया है जो देश के प्रमुख विद्वानों से प्राप्त संस्तुतियों पर अंतिम निर्णय देगी । इस सम्मान हेतु लघुकथा विधा से संबंद्ध रचनाकार, आलोचक, पत्रिका संपादक सहित आदरणीय लघुकथा पाठक भी अपना खुला प्रस्ताव दे सकते हैं । \n\u003c/p\>\n\u003cp\>\u003cfont color\u003d\"#000099\"\>\u003cstrong\>लघुकथा पाठ का राष्ट्रीय आयोजन\u003c/strong\>\u003c/font\>\u003cbr\>इस महती आयोजन में 16 फरवरी, 2007 को रात्रि 8 बजे से 12 बजे तक राष्ट्रीय लघुकथा पाठ का आयोजन भी किया जा रहा है, जिसमें हिंदी सहित अन्य भाषाओं के लघुकथाकार भी हिंदी अनुवाद का पाठ कर सकेंगे । यह सत्र आंशिक रूप से खुला सत्र है। लघुकथा पाठ हेतु देश के सभी प्रदेशों के चुनिंदे लघुकथाकारों को आमंत्रित किया गया जा रहा है किन्तु इच्छुक लघुकथाकार भी लघुकथा पाठ हेतु संबंधित एवं प्रतिनिधि लघुकथा की एक प्रति डाक से भेज सकते हैं । लघुकथा पाठ हेतु लघुकथाकारों का अंतिम चयन कर उन्हें सूचित कर दिया जायेगा । लघुकथा पाठ हेतु प्रतिभागियों के भोजन एवं आवास की व्यवस्था संस्था द्वारा की जायेगी । \n\u003c/p\>\n\u003cp\>\u003cfont color\u003d\"#000099\"\>\u003cstrong\>लघुकथा प्रदर्शिनी\u003c/strong\>\u003c/font\>\u003cbr\>सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ़ के इस महत्वपूर्ण आयोजन में लघुकथा पर केंद्रित एक प्रदर्शिनी भी लगाई जायेगी जिसमें ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण लघुकथा, लघुकथा संग्रह, लघुकथा केंद्रित लघु-पत्रिका, विशेषांक आदि प्रदर्शित की जायेंगी । लघुकथा के संवर्धन एवं विकास से जुड़ी संस्थायें एवं लघुकथाकार अपनी सामग्री 30 जनवरी 2007 तक भेज सकते हैं । प्रदर्शित सामग्री वे प्रदर्शिनी पश्चात वापस ले सकते हैं । \n\u003c/p\>\n\u003cp\>\u003cfont color\u003d\"#000099\"\>\u003cstrong\>लघुकथा संग्रह हेतु रचनायें आमन्त्रित\u003c/strong\>\u003c/font\>\u003cbr\>संस्था द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में केंद्रित विषय पर एक उत्कृष्ट संग्रह का प्रकाशन भी विधागत उन्नयन हेतु किया जाता है । इसी कड़ी में इस वर्ष लघुकथा संग्रह का प्रकाशन भी संस्था द्वारा निःशुल्क किया जा रहा है । लघुकथाकार वर्ष 2005 से अब तक लिखी गई, प्रकाशित या अप्रकाशित केवल 1 प्रतिनिधि लघुकथा भेज सकते हैं । इस संग्रह का विमोचन भी उक्त अवसर पर किया जायेगा तथा लघुकथाकारों को एक-एक प्रति भेंट की जायेगी । लघुकथाकार अपनी लघुकथा 20 जनवरी, 2007 के पूर्व तक भेज सकते हैं । \n\u003c/p\>\n\u003cp\>\u003cstrong\>\u003cfont color\u003d\"#000099\"\>संपर्क-सूत्र-\u003c/font\>\u003c/strong\>\u003cbr\>१. जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान,एफ-3, छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल, आवासीय कॉलोनी, रायपुर, छत्तीसगढ़-492001 (मोबाइल-94241-82664) ",1]
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इस हेतु एक चयन समिति का गठन किया गया है जो देश के प्रमुख विद्वानों से प्राप्त संस्तुतियों पर अंतिम निर्णय देगी । इस सम्मान हेतु लघुकथा विधा से संबंद्ध रचनाकार, आलोचक, पत्रिका संपादक सहित आदरणीय लघुकथा पाठक भी अपना खुला प्रस्ताव दे सकते हैं ।
लघुकथा पाठ का राष्ट्रीय आयोजनइस महती आयोजन में 16 फरवरी, 2007 को रात्रि 8 बजे से 12 बजे तक राष्ट्रीय लघुकथा पाठ का आयोजन भी किया जा रहा है, जिसमें हिंदी सहित अन्य भाषाओं के लघुकथाकार भी हिंदी अनुवाद का पाठ कर सकेंगे । यह सत्र आंशिक रूप से खुला सत्र है। लघुकथा पाठ हेतु देश के सभी प्रदेशों के चुनिंदे लघुकथाकारों को आमंत्रित किया गया जा रहा है किन्तु इच्छुक लघुकथाकार भी लघुकथा पाठ हेतु संबंधित एवं प्रतिनिधि लघुकथा की एक प्रति डाक से भेज सकते हैं । लघुकथा पाठ हेतु लघुकथाकारों का अंतिम चयन कर उन्हें सूचित कर दिया जायेगा । लघुकथा पाठ हेतु प्रतिभागियों के भोजन एवं आवास की व्यवस्था संस्था द्वारा की जायेगी ।
लघुकथा प्रदर्शिनीसृजन-सम्मान, छत्तीसगढ़ के इस महत्वपूर्ण आयोजन में लघुकथा पर केंद्रित एक प्रदर्शिनी भी लगाई जायेगी जिसमें ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण लघुकथा, लघुकथा संग्रह, लघुकथा केंद्रित लघु-पत्रिका, विशेषांक आदि प्रदर्शित की जायेंगी । लघुकथा के संवर्धन एवं विकास से जुड़ी संस्थायें एवं लघुकथाकार अपनी सामग्री 30 जनवरी 2007 तक भेज सकते हैं । प्रदर्शित सामग्री वे प्रदर्शिनी पश्चात वापस ले सकते हैं ।
लघुकथा संग्रह हेतु रचनायें आमन्त्रितसंस्था द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में केंद्रित विषय पर एक उत्कृष्ट संग्रह का प्रकाशन भी विधागत उन्नयन हेतु किया जाता है । इसी कड़ी में इस वर्ष लघुकथा संग्रह का प्रकाशन भी संस्था द्वारा निःशुल्क किया जा रहा है । लघुकथाकार वर्ष 2005 से अब तक लिखी गई, प्रकाशित या अप्रकाशित केवल 1 प्रतिनिधि लघुकथा भेज सकते हैं । इस संग्रह का विमोचन भी उक्त अवसर पर किया जायेगा तथा लघुकथाकारों को एक-एक प्रति भेंट की जायेगी । लघुकथाकार अपनी लघुकथा 20 जनवरी, 2007 के पूर्व तक भेज सकते हैं ।
संपर्क-सूत्र-१. जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान,एफ-3, छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल, आवासीय कॉलोनी, रायपुर, छत्तीसगढ़-492001 (मोबाइल-94241-82664)
या\u003cbr\>२. डॉ. सुधीर शर्मा, राष्ट्रीय संयोजक, सृजन-सम्मान, वैभव प्रकाशन, शिवा इलेक्ट्रानिक के पास, पुरानी बस्ती, रायपुर, 492001 (मोबाइल-94253-58748) या \n\u003cbr\>३. श्री राम पटवा, महासचिव, सृजन-सम्मान, बसंत पार्क, गुरुतेगबहादूर नगर, रायपुर, छत्तीसगढ़-492001- (मोबाइल- 98271-78279)\u003c/p\>\n\u003cp\>\u003cfont color\u003d\"#000099\"\>\u003cstrong\>ई-मेल-\u003c/strong\>\u003c/font\>\u003cbr\>\u003ca href\u003d\"mailto:srijan2samman@gmail.com\" target\u003d\"_blank\" onclick\u003d\"return top.js.OpenExtLink(window,event,this)\"\>srijan2samman@gmail.com\u003c/a\> \u003c/p\>\u003c/blockquote\>\u003c/div\>\u003cbr\>प्रेषक- जयप्रकाश मानस\u003c/div\>\u003c/div\>\u003c/blockquote\>\n\u003cdiv\>रायपुर\u003c/div\>\u003c/div\>\u003cbr\>\n",0]
);
D(["ce"]);
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या२. डॉ. सुधीर शर्मा, राष्ट्रीय संयोजक, सृजन-सम्मान, वैभव प्रकाशन, शिवा इलेक्ट्रानिक के पास, पुरानी बस्ती, रायपुर, 492001 (मोबाइल-94253-58748) या ३. श्री राम पटवा, महासचिव, सृजन-सम्मान, बसंत पार्क, गुरुतेगबहादूर नगर, रायपुर, छत्तीसगढ़-492001- (मोबाइल- 98271-78279)
ई-मेल-
srijan2samman@gmail.com



Tuesday, December 11, 2007

जगजीत सिंह का गाया एक हिन्दी गीत्

जगजीत सिंह का नाम किसी परिचय का मोहताज़ नहीं रह गया है. गज़ल को उन्होंने भारत में जो लोकप्रियता प्रदान की है, उसकी प्रशंसा करना मानो सूरज को दीपक दिखाना है. मैं वह नहीं करूंगा.
लेकिन, जगजीत की गायकी का एक पक्ष प्राय: अनदेखा किया गया है. उन्होंने कुछ बहुत उम्दा हिन्दी गीत भी गाए हैं - इस तरफ लोगों का ध्यान कम ही गया है. यह भी कि हिन्दी गीतों को भी उतनी ही अच्छी तरह से गाया जा सकता है, जितनी अच्छी तरह से उर्दू गज़लों-नज़्मों को गाया गया है.
सुनिए जगजीत की मखमली आवाज़ में यह गीत. इसकी भाषा के माधुर्य पर भी ध्यान दीजिए, और फिर बताइये कि जगजीत को ऐसे ही और गीत क्यों नहीं गाने चाहिए?

http://www.esnips.com/doc/6790588f-1404-4e98-8d9c-25da098f980a/Bujh-Gayee-Tapate-Hue-Din-Ki-Agan/?widget=flash_turning

http://www.esnips.com/doc/6790588f-1404-4e98-8d9c-25da098f980a/Bujh-Gayee-Tapate-Hue-Din-Ki-Agan




Friday, December 7, 2007

जीवन की पाठशाला के सबक

मेरे बूढे प्रोफेसर की आखिरी कक्षाएं सप्ताह में एक दिन उनके अध्ययन कक्ष की खिडकी के पास होती थी जहां से वे एक छोटे-से जपाकुसुम से झरती पीली पत्तियों को देख सकते थे. कक्षा हर मंगलवार को होती थी. विषय होता था : जीवन का मक़सद. इसे अनुभवों से पढाया जाता था.
कोई अंक नहीं दिये जाते, लेकिन हर सप्ताह मौखिक परीक्षा होती. सवालों के जवाब देने होते थे, लेकिन आप सवाल पूछ भी सकते थे. विद्यार्थी को कुछ मशक्कत भी करनी होती थी – जैसे तकिये पर प्रोफेसर का सर टिकाना, या उनकी नाक पर चश्मे को ठीक करना. विदा के वक़्त चुम्बन के लिए अतिरिक्त श्रेय दिया जाता था.
किताबों की ज़रूरत नहीं थी, फिर भी बहुत सारे विषय जैसे प्रेम, कर्म, समुदाय, परिवार, बुढापा, क्षमा और अंतत: मृत्यु, पढाये गए. अंतिम लेक्चर बहुत संक्षिप्त था, महज़ चन्द शब्दों का.
दीक्षांत समारोह के रूप में हुआ अंतिम संस्कार.
कोई वार्षिक परीक्षा नहीं होनी थी, लेकिन अपेक्षा थी कि जो सीखा गया है उसके आधार पर एक लम्बा पर्चा लिखा जाएगा. वही पर्चा यहां प्रस्तुत है.
मेरे प्रोफेसर की अंतिम कक्षा में केवल एक विद्यार्थी था.
मैं ही वह विद्यार्थी था.

जाने माने स्पोर्ट्स लेखक मिश अल्बॉम की बहु-प्रसंसित और बेस्ट सेलर पुस्तक ‘ट्यूज़डे’ज़ विद मॉरी : एन ओल्ड मेन, अ यंग मेन, एण्ड लाइफ्स ग्रेटेस्ट लेसंस’ की ये पंक्तियां आपको एक ऐसे विरल अनुभव जगत में ले जाती हैं जिसके प्रभाव और सम्मोहन से उबर पाना लगभग संभव है. 1958 में न्यू जर्सी में जन्मे मिश ने 1979 में मैसाचुएट्स राज्य के ब्रैडाइज़ विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि अर्जित की. यहां उन्हें सुविख्यात समाजशास्त्री प्रोफेसर मॉरी श्वार्ट्ज़ (जन्म 1916) का विद्यार्थी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. हालांकि गुरु ने शिष्य से कहा था कि वह सम्पर्क बनाए रखे लेकिन मिश पढाई पूरी कर जीवन की व्यस्तताओं में ऐसे डूबे कि यह वादा पूरा नहीं कर पाए. एक रात टी वी चैनल पलटते-पलटते उन्हें अपने प्रोफेसर की सुपरिचित आवाज़ सुनाई दी और वे उनसे सम्पर्क को व्याकुल हो उठे. लम्बी दूरी तै कर मिश मॉरी के पास पहुंचे और फिर शुरू हुई उनकी मंगलवारीय कक्षाएं.
इस बीच प्रोफेसर के जीवन में भी बहुत कुछ घटित हो चुका है. साठ के होते-होते वे अस्थमा के शिकार हो चुके थे. सांस लेने में दिक्कत होने लगी थी. कुछ बरसों बाद चलने में मुश्किल होने लगी. सत्तर तक पहुंचते-पहुंचते और भी बीमारियों ने उन्हें घेर लिया. और 1995 में एक दिन लम्बी जांच–पडताल के बाद डॉक्टर ने उन्हें बताया कि वे एमियोट्रॉपिक लेटरल स्क्लेरोसिस (ए एल एस) नामक गम्भीर और लाइलाज़ बीमारी के भी शिकार हैं.
1995 के मध्य का यही वह समय था जब मिश ने मॉरी से मुलाक़ातों के दूसरे सिलसिले की शुरुआत की. इस दूसरे दौर में पहली बार वे एक मंगलवार को मिले और इसके बाद हर मंगलवार को मिलने का एक क्रम बन गया. इन कुल 14 मंगलवारीय मुलाक़ातों में शिष्य ने अपने गुरु से जीवन का मक़सद विषय पढा. पढाई के दौरान अक्सर गुरु अपने शिष्य का हाथ थामे रहता. उनके बीच का रिश्ता गुरु-शिष्य से भी आगे बढकर पिता-पुत्र का हो गया था. अपने एकदम अंतिम दिनों में मॉरी ने कहा भी कि अगर उनके एक और संतान हो सकती तो वे चाहेंगे कि वह संतान मिश ही हो.

मॉरी-मिश सम्वाद का यह वृत्तांत उनके विश्वविद्यालयीय काल की स्मृतियों के फ्लैशबैक से सज्जित है. अपने इन चौदह पाठों में मॉरी बार-बार कहते हैं कि प्रेम मनुष्य जीवन और हर रिश्ते का सार तत्व है और प्रेम के बगैर रहना मानो न रहने जैसा है. मॉरी अपने प्रिय कवि डब्ल्यू एच ऑडेन को भी इस सन्दर्भ में उद्धृत करते हैं. मॉरी आज की पॉप्युलर कल्चर पर भी तीखी टिप्पणियां करते हैं. वे मिश को सलाह देते हैं कि वह पॉप्युलर कल्चर को त्याग कर खुद की एक ऐसी संस्कृति रचे जो प्रेम, स्वीकृति और मानवीय श्रेष्ठता पर आधारित हो तथा नैतिक मूल्यों की संवाहक हो. उन्हें लगता है कि पॉप्युलर कल्चर लालच, स्वार्थ और उथलेपन पर टिकी है और मानवता को नुकसान पहुंचा रही है. मॉरी मिश को बुढापे और मृत्यु को स्वीकार करने की भी सलाह देते हैं क्योंकि ये दोनों अपरिहार्य हैं. खुद मॉरी अपनी आसन्न मृत्यु को बडे तटस्थ और अनासक्त भाव से लेते हैं. यह अनासक्ति उन्होंने बौद्ध दर्शन से सीखी थी.
यह किताब उन किताबों में से है जिन्हें अगर आप चाहें तो यह कह कर एक दम खारिज़ कर सकते हैं कि इसमें नया क्या है. लेकिन अगर आप इसे पढने लगते हैं तो फिर इसमें डूबते जाते हैं, और जब पढकर पूरी करते हैं तो लगता है कि आपका पुनर्जन्म हुआ है. शायद यही कारण है इस किताब को हाल की सर्वाधिक लोकप्रिय किताबों में से एक माना जा रहा है.
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Discussed book :
Tuesdays with Morrie : An Old Man, a Young Man, and Life’s Greatest Lessons
By : Mitch Albom
Published By: Mass Market Paperback/ Anchor
208 Pages
राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में दिनांक 06 दिसम्बर '07 को मेरे कॉलम 'जस्ट जयपुर' में प्रकाशित.



मॉरी उवाच

मृत्यु जीवन को खत्म करती है, रिश्ते को नहीं.
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जब आप मरना सीख लेते हैं, जीना अपने आप आ जाता है.
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जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है यह जानना कि प्यार कैसे लुटाया जाए और कैसे प्यार को अपनी ज़िन्दगी में आ जाने दिया जाए.
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सब कुछ जाना जा चुका है, सिवा इसके कि ज़िन्दगी को जिएं कैसे.
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आप लहर नहीं हैं, आप तो समुद्र का अंश हैं.
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शरद देवडा नहीं रहे.

हम कैसे स्मृति विहीन समय में रह रहे हैं. जो लोग कुछ समय पहले तक हमारी ज़िन्दगी के केन्द्र में थे, आज वे हाशिये पर भी नहीं हैं.
मुझे अच्छे तरह याद है कि जब साठ के दशक में मैं कॉलेज का विद्यार्थी था, शरद देवडा का नाम मन में कितना उद्वेलन पैदा करता था. उनके उपन्यास कॉलेज स्ट्रीट के नए मसीहा के माध्यम से मैंने और मेरी पीढी ने बीटनीक जनरेशन का ककहरा पढा था. उन्हीं के एक और उपन्यास 'टूटती इकाइयां' को पढा तो यह समझा कि कथा में प्रयोग करना किसे कहते हैं. वे ज्ञानोदय के सम्पादक रहे, और आज की पीढी को यह बताना ज़रूरी है कि उस ज़माने में ज्ञानोदय का मतलब था साहित्य का शीर्ष. फिर अणिमा निकाली और खूब धूम धाम से निकाली.
प्रयोग करने की उनकी लालसा कभी चुकी नहीं. आकाश एक आपबीती और प्रेमी प्रेमिका सम्वाद में भी उन्होंने भरपूर प्रयोग किए. कभी कभी लगता है कि वे अपने समय से कुछ आगे के रचनाकार थे. आगे होते- होते वे आज 7 दिसम्बर 07 को जयपुर में इस दुनिया से ही कूच कर गए.

हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि.

Thursday, November 29, 2007

समतल नहीं हुई है दुनिया

लगभग दो साल पहले न्यूयॉर्क टाइम्स के स्तम्भकार थॉमस फ्रीडमेन की एक किताब आई थी, ‘द वर्ल्ड इज़ फ्लैट’. इस किताब में स्थापित किया गया था कि कई घटकों ने, जिनमें तकनोलोजी प्रमुख है, बेहतर कनेक्टिविटी देकर और पारस्परिक सहयोग को बढाकर दुनिया को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए समतल बना डाला है. किताब बहुचर्चित रही और अभी भी बेस्ट सेलर सूचियों में जगह बनाये हुए है. शायद ही किसी ने फ्रीडमेन की इस स्थापना से असहमति जताई हो कि वैश्वीकरण हो चुका है. अधिकतर असहमतियां वैश्वीकरण के पक्ष-प्रतिपक्ष को लेकर हुई हैं.

लेकिन हाल ही में आई भारतीय मूल के प्रोफेसर पंकज घेमावत की किताब ‘रीडिफाइनिंग ग्लोबल स्ट्रेटेजी: क्रॉसिंग बॉर्डर्स इन अ वर्ल्ड व्हेयर डिफरेंसेस स्टिल मैटर’ इस अवधारणा का पुरज़ोर तरीके से खण्डन करती है. पंकज बार्सीलोना के आई ई एस ई बिज़नेस स्कूल और हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल में प्रोफेसर हैं. अपने एक लेख के लिए 2005 में उन्हें मैक किंसे अवार्ड से भी नवाज़ा जा चुका है.

पंकज ने यह किताब फ्रीडमेन की किताब के जवाब में नहीं लिखी है. वे तो इस विषय पर पिछले दस सालों से काम कर रहे थे. उनकी दिलचस्पी यह जानने में थी कि क्यों कई शक्तिशाली उत्पाद वैश्विक बाज़ार में पिट जाते हैं, बावज़ूद इसके कि उनके ब्राण्ड नाम सुस्थापित होते हैं और उन्हें सफल बनाने में कोई कसर नहीं छोडी जाती है. अपने सवाल का जवाब तलाशते हुए पंकज ने उन कई घटकों की पडताल की जिन्हें वैश्वीकरण का सूचक माना जाता है, जैसे लोगों, सूचना और धन का प्रवाह. इसके बाद उन्होंने यह पडताल की कि इनमें से कितने घटक देशों की सीमाओं के भीतर प्रवाहित होते हैं और कितने सीमाओं के पार! तभी उन्हें ज्ञात हुआ कि ज़्यादा संचरण तो देशों की सीमाओं के भीतर ही होता है. इससे पंकज इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हम प्राय: सीमा पर के भेदों की अनदेखी कर जाते हैं. बडे उत्पादक बडे बाज़ार में अपना माल बेच डालने के लालच में, दुनिया को सीमा रहित मानने का भ्रम पालते हुए, सारी दुनिया के लिए मार्केटिंग की यकसां रणनीति तैयार करते हैं और फिर मुंह के बल गिरते हैं. पंकज ज़ोर देकर कहते हैं कि हमें दुनिया के देशों में जितनी समानताएं दिखाई जाती हैं असमानताएं उनसे बहुत अधिक हैं. यही कारण है कि दुनिया को फ्लैट मानकर अपना माल बेचने की रणनीतियां प्राय: असफल हो जाती हैं.

व्यापारिक रणनीतिकारों की एक बडी चूक पंकज को यह भी दिखाई देती है कि वे प्रवृत्तियों की बजाय छिट-पुट छवियों के आधार पर अपनी धारणाएं बनाते हैं और आंख मूंदकर वैश्वीकरण को स्वीकार कर लेते हैं. इस चूक को दुरुस्त करने के लिए पंकज आंकडा-आधारित प्रवृत्ति विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं. वे बताते हैं कि पूरी दुनिया की आबादी का महज़ 2.9 प्रतिशत ही इमिग्रेट हुआ है. इसी तरह पूरी दुनिया के पूंजी निवेश का मात्र दस प्रतिशत ही फॉरेन डाइरेक्ट इंवेस्टमेंट में लगा है और सबसे खास बात इण्टरनेट पर सूचनाओं की आवाजाही: पंकज तथ्यों के हवाले से बताते हैं कि तमाम सूचनाओं का मात्र बीस प्रतिशत अंश ही देशों की सीमाओं को लांघ पाता है. यानि 80 प्रतिशत सूचनाएं तो देशों की सीमाओं के भीतर ही संचारित होती हैं.

इन आधारों पर पंकज फ्रीडमैन की स्थापनाओं को खारिज करते हुए कहते हैं कि दुनिया अभी भी मोटे तौर पर असमतल ही है और संस्कृति, भौगोलिक स्थितियां, प्रशासनिक व आर्थिक संरचनाएं वगैरह अभी भी महत्वपूर्ण बनी हुई हैं.
दरअसल पंकज की यह किताब बडे व्यवसायों के हित चिंतन के लिहाज़ से लिखी गई है. पंकज उन्हें बताना चाहते हैं कि वे यह भ्रम कतई न पालें कि सारी दुनिया यकसां हो गई है और उसे एक ही तरह का उत्पाद एक समान तरीके से बेचा जा सकता है. इसीलिए पंकज उन्हें समझाते हैं कि दुनिया अभी भी सेमी-ग्लोबलाइज़ेशन (अर्ध वैश्वीकरण) की अवस्था में है. इस तथ्य को समझकर ही व्यावसायिक कामयाबी की मंज़िल तक पहुंचा जा सकता है. यहीं पंकज यह कहना भी नहीं भूलते कि दुनिया के देशों के बीच के ये भेद व्यवाय के लिए कोई बाधा नहीं हैं. बल्कि, अगर कम्पनियां चाहें तो इन भेदों से और अधिक फायदे भी उठा सकती हैं.

ऐसा करने के लिए वे उन्हें एक रणनीति भी सिखाते हैं. इसके तीन मुख्य घटक हैं : ट्रिपल ए ट्राएंगल, केज और एडिंग. पंकज समझाते हैं कि किस तरह इन घटकों का इस्तेमाल कर कार निर्माता टोय़ोटा, सीमेण्ट निर्माता सीमेक्स, रिटेल श्रंखला वाल मार्ट, हेल्थकेयर उत्पादक प्रॉक्टर एण्ड गेम्बल, आई टी वाले आई बी एम, कोका कोला आदि ने सफलता प्राप्त की है. किताब का केन्द्र बिन्दु यह रणनीति ही है,

किताब का महत्व इस बात में है कि यह फ्रीडमेन के सोच पर एक अन्य कोण से विचार करने को प्रेरित करती है.
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Discussed Book:

Re defining Global Strategy: Crossing Borders in a World Where Differences Still Matter
By: Pankaj Ghemawat
Hardcover: 304 pages
Published by: Harvard Business School Press

$ 29.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' में 29 नवम्बर 2007 को प्रकाशित.

Friday, November 23, 2007

पिकासो की जीवनी

दुनिया के महानतम चित्रकारों में से एक पाब्लो पिकासो की जीवनी का बहु प्रतीक्षित तीसरा खण्ड हाल ही में आया है. जॉन रिचर्डसन ने, जो इससे पहले मॉनेट और ब्रेक़ जैसे चित्रकारों पर भी लिख चुके हैं और अमरीका में क्रिस्टी की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निबाह चुके हैं, 608 पन्नों के इस खण्ड में पिकासो के जीवन के मध्यवर्ती काल पर रोशनी डाली है.
‘अ लाइफ ऑफ पिकासो : द ट्रायम्फेण्ट ईयर्स 1917-1932’ शीर्षक यह खण्ड 1917 से प्रारम्भ होता है जब पिकासो युद्धकालीन पेरिस को छोड परेड नामक प्रस्तुति के लिए रोम जाते हैं. इसी काल खण्ड में वे नेपल्स भी जाते हैं जहां के क्लासिकी स्थापत्य का उनके भावी कला कर्म पर अमिट प्रभाव पडता है. पेरिस में वे रूसी बैलेरिना ओल्गा खोखलोवा के प्रेम में कुछ इस तरह डूबते हैं कि अपनी बोहेमियन ज़िन्दगी का परित्याग कर पेरिस की अभिजात जीवन शैली को अंगीकार कर लेते हैं. यह भी एक वजह है कि वे नव क्लासीवाद की तरफ मुडकर आखिरकार घनवादी शैली को अपना लेते हैं. इसे उनके कला कर्म का डचेस काल भी कहा जाता है. जीवनी के इस खण्ड में रिचर्डसन अपने वृत्तांत को वहां से उठाते हैं जहां पिकासो अपने घनवादी (क्यूबिस्ट) काल के बाद दियाघिलेव के बैले के लिए कॉस्ट्यूम डिज़ाइन करने और नव-क्लासिकी काल में प्रवेश करने को तत्पर हैं. इसी काल खण्ड में ओल्गा खोखलोवा के साथ, जो उनकी एकमात्र वैध संतान पाओलो की मां भी है, उनके दाम्पत्य जीवन का वृत्तांत भी समाहित है. रिचर्डसन ने पिकासो की कला-यात्रा और उनके जीवन में आई अनेक स्त्रियों के बीच का अंत: सम्बन्ध बहुत कुशलता से उकेरा है.

1923 की गर्मियों में पिकासो और उनके अमरीकी दोस्त गेराल्ड तथा सारा मर्फी होटल डू केप के मालिकों को इस बात के लिए मना लेते हैं कि वे अपने फ्रेंच रिवेरा को शीतकालीन रिसोर्ट से ग्रीष्मकालीन रिसोर्ट में तब्दील कर दें. इस परिवर्तन के कारण फ्रेंच रिवेरा यूरोपीय कला का एक महत्वपूर्ण घटनास्थल बन जाता है. पिकासो की ज़िन्दगी का एक अन्य महत्वपूर्ण वर्ष है 1927. इस वर्ष वे एक 17 वर्षीया कन्या मेरी थेरेसे वाल्टर के प्यार में कुछ इस तरह मुब्तिला होते हैं कि दुनिया-जहान की सुध बुध ही खो बैठते हैं. स्वाभाविक है कि उनकी पत्नी इस बात को सहन नहीं कर पाती है. उधर मेरी के प्यार में पागल पिकासो इसी वजह से पत्नी से नफरत करने लगते हैं. जीवनीकार रिचर्डसन ने बहुत बारीकी से इस त्रिकोण की मन:स्थितियों का चित्रण किया है.
किताब के आखिरी तीन अध्याय 1931 से 1932 के उस काल खण्ड को समर्पित हैं जब पिकासो अपने जीवन की अर्ध शती पूरी करते हैं. समय बीतने के साथ उनकी यह धारणा मज़बूत होने लगती है कि चित्रकला एक जादुई कर्म है. यहां आते-आते पिकासो स्थापत्य का पुनराविष्कार करते हैं और क्लासिकी परम्परा का पिकासीकरण करते हैं. 1932 की गर्मियों में पेरिस और ज्यूरिख में हुई प्रदर्शनियों में वे आधुनिक कला के पुरोधा के रूप में स्थापित हो जाते हैं.

पिकासो की जीवनी का यह खण्ड उनकी ज़िन्दगी के एक बेहद जटिल दौर को सामने लाता है. यह काल खण्ड यूरोपीय इतिहास में भी उतना ही जटिल और उथल-पुथल भरा है. कला के लिहाज़ से पिकासो इस काल में ‘थ्री म्यूज़ीशियंस’ में घनवादी ज्यामितियां दर्शाते हैं तो परिवार और दोस्तों के नव-क्लासिकी पोर्ट्रेट भी रचते हैं. इसी काल में वे अत्यधिक साहसिक प्रयोगशील स्थापत्यों के त्रि-आयामी रूपों से भी खेलते हैं. यही वह काल है जब पिकासो थिएटर की दुनिया से भी गहन प्रेरणा लेते हैं. दरअसल उनके इस काल के सृजन को समझने के लिए थिएटर एक महत्वपूर्ण कुंजी है.
रिचर्डसन हालांकि पिकासो की जीवनी के इस खण्ड में एक हद तक सुपरिचित कथा कहते हैं, उनका अन्दाज़े-बयां कुछ ऐसा है कि यह सब पढते हुए हम न केवल पिकासो की कला को बल्कि उस पूरे काल-खण्ड की कला-संस्कृति की हलचलों को भी बेहतर तरीके से समझ पाते हैं. रिचर्डसन पिकासो की अनेक कृतियों की भी सूक्ष्मता से चर्चा और व्याख्या करते हैं. 1929 की एक न्यूड पेंटिंग का विश्लेषण करते हुए वे याद दिलाते हैं कि यह पेंटिंग कूर्वे की एक पेंटिंग की उन चट्टानों की याद दिलाती है जो मोपांसा की रचनाओं से प्रेरित हैं. स्वभावत: इस तरह के ब्यौरे हमें पेंटिंग की तहों तक ले जाते हैं. रिचर्डसन के लिए पिकासो एक ऐसे महामानव हैं जिनके समस्त क्रियाकलाप तर्क, व्याख्या और आलोचना से परे हैं.
निश्चय ही आधुनिक चित्रकला के रसिकों के लिए यह किताब पिकासो के जीवन और उनकी कला को और अधिक खोलने में पूरी तरह कामयाब है. हमें अब बहुत बेसब्री से इस किताब के चौथे और आखिरी खण्ड का इंतज़ार है.
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Discussed book :
A Life of Picasso: The Triumphant Years, 1917-1932
By John Richardson
Publisher : Knopf
Pages : 608
US $ 40


राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' के अंतर्गत 22 नवम्बर 2007 को प्रकाशित.

Tuesday, November 13, 2007

हज़ार किताबों का स्वाद एक जगह

अंग्रेज़ी प्रकाशन जगत में ऐसी किताबों की एक दिलचस्प परम्परा है जो यह सुझाती हैं कि आपको दुनिया से विदा होने से पहले ये हज़ार जगहें देख लेनी चाहिए, ये हज़ार फिल्में देख लेनी चाहिए, ये हज़ार किताबें पढ डालनी चाहिए, वगैरह. कहना अनावश्यक है कि यह चुनिन्दा को प्रस्तुत करने की एक शैली है. इसी परम्परा की एक कडी के रूप में हाल ही में आई है “1001 बुक्स : यू मस्ट रीड बिफोर यू डाइ” . इस तरह के किसी भी संकलन को आप जब हाथ में लेते हैं तो पहला काम यह करते हैं कि अपनी बनाई हुई सूची से संकलनकर्ता की सूची की तुलना करते हैं. हरेक की सूची अलग होती है. संकलक की भी. पाठक की सूची के बहुत सारे नाम संकलक की सूची से गायब होते हैं. पाठक के नाराज़ होने के लिए इतना काफी होता है. पीटर बोक्साल्ल द्वारा सम्पादित लगभग हज़ार पन्नों के इस भारी भरकम संकलन के साथ भी ऐसा ही हो रहा है. किसी को यह शिकायत है कि इसमें कार्सन मैक्क्युलर्स अनुपस्थित हैं तो कोई रे ब्रेडबरी को न पाकर क्रुद्ध है. किसी की शिकायत यह है कि इसमें बाल साहित्य को शामिल क्यों नहीं किया गया है तो कोई नोबल पुरस्कार विजेता ओरहान पामुक और नगीब महफूज़ को न पाकर क्षुब्ध है. 37 में से 20 बुकर पुरस्कृत लेखक हैं तो शेष 17 के प्रशंसक तो नाराज़ होंगे ही. किसी की नाराज़गी सही लेखक की कम महत्वपूर्ण पुस्तक के चयन को लेकर है तो किसी को यह उचित नहीं लग रहा कि एक ही लेखक की तीन-तीन पुस्तकें शामिल कर ली गई हैं. बहुतों की शिकायत यह है कि सम्पादकीय चयन इस बात से प्रभावित हुआ है कि किसी औसत दर्ज़े की पुस्तक पर उत्कृष्ट फिल्म बनी थी, इसलिए उस पुस्तक को भी इस चयन में शुमार कर लिया गया है. उनके लिहाज़ से यह बेहतर होता कि उस उत्कृष्ट फिल्म का ज़िक्र इसी प्रकाशक के एक अन्य प्रकाशन “1001 मूवीज़ : यू मस्ट सी बिफोर यू डाइ” में कर लिया जाता.

लेकिन जैसा मैंने कहा, इस तरह की शिकायत ऐसे हर संकलन के साथ होना अवश्यम्भावी है. कोई भी चयन कभी भी सर्व सम्मत नहीं हो सकता. बावज़ूद इसके, क्या यह कम महत्वपूर्ण है कि यहां एक हज़ार एक उत्कृष्ट पुस्तकों में से हरेक का परिचय लगभग तीन-तीन सौ शब्दों में मौज़ूद है. न केवल सार-संक्षेप देता हुआ परिचय, बल्कि मूल पुस्तक का आवरण, उसके पोस्टरों की छवियां, पुस्तक और लेखक के बारे में अल्पज्ञात बातें और यथासम्भव कुछ उद्धरण भी. किताब में करीब छह सौ तो रंगीन चित्र ही हैं. कल्पना करें कि आपके पास पर्याप्त पैसा हो और इतना समय भी कि आप हर सप्ताह एक किताब पढ कर पूरी कर लें, तो इस चयन की सारी किताबें कितने समय में पढ पायेंगे? आपको यह काम करने में मात्र सवा उन्नीस बरस लगेंगे! और याद रखिए, हर किताब एक सप्ताह में नहीं पढी जा सकती. डोरोथी रिचार्डसन का ‘पिल्ग्रिमेज’ हज़ारों पन्नों में 13 भागों में है, और भी ऐसी अनेक किताबें यहां हैं.

आप कहेंगे कि महज़ तीन सौ शब्दों का सार-संक्षेप भला पूरी किताब का अनुभव कैसे दे पाएगा? मैं भी मानता हूं कि यह संकलन मूल किताब का विकल्प नहीं है. लेकिन, आज जब दुनिया में सबके पास समय का अभाव होता जा रहा है और बहुतों के पास साधनों और सुविधाओं की भी इफरात नहीं है, यह प्रयास महत्वपूर्ण लगता है. यह संकलन हममें से अनेक के लिए अनेक किताबों को पढने के लिए एक प्रस्थान बिन्दु का काम कर सकता है. आप यहां डब्ल्यू. जी. सीबाल्ड की ‘द एमीग्रेण्ट्स’ के बारे में या काजुओ इशिगुरो की ‘नेवर लेट मी गो’ के बारे में पढकर उन्हें मूल रूप में पढने के लिए व्याकुल हो उठते हैं. इस किताब को पढने के बाद आप खुद एक सूची बनाते हैं कि ये किताबें तो ज़रूर ही पढनी हैं. यही बात कम महत्वपूर्ण नहीं है. वस्तुत: यह किताब मूल किताब की एक झांकी दिखाते हुए आपको यह तै करने का अवसर देती है कि आप उस किताब को पूरा पढना चाहेंगे अथवा नहीं!

यह किताब उस तरह की किताबों में से है जिसे कवर टू कवर पढा जाना आवश्यक नहीं है. इसे कहीं से भी, कभी भी पढा जा सकता है.यह किताब आपको साहित्य के परिदृश्य का विहंगावलोकन तो करा ही देती है. मैंने इस किताब को चर्चा के लिए इस कारण चुना है कि यह आपकी भविष्य में पढी जाने वाली किताबों की सूची में अनेक नाम जोडती है और इसलिए भी चुना है कि मैं जानता हूं कि मेरे आदरणीय पाठकगण भी अब अपनी-अपनी पसन्द की किताबों (और जगहों और फिल्मों) की ऐसी ही सूचियां बनाएंगे और उनकी चर्चा अपने मित्रों से करेंगे. अगर वे मुझे भी अपनी सूचियां भेज सकें तो मज़ा आ जाए.
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राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' के अंतर्गत 13 नवम्बर 2007 को प्रकाशित.


Discussed book:
1001 Books: You Must Read Before You Die (Paperback)
Publisher: Cassell Illustrated
Pages 960
£ 20.00

Sunday, November 11, 2007

ऐसे थे हमारे पिता

एन बी सी न्यूज़ के वाशिंगटन ब्यूरो चीफ़ और मीट द प्रेस के मॉडरेटर और मैनेजिंग एडीटर टिम रुस्सेर्ट की एक किताब ‘बिग रुस्स एण्ड मी’ 2004 में आई थी जिसमें उन्होंने अपने पिता के साथ अपने रिश्तों का बेबाक किन्तु मार्मिक अंकन किया था। यह किताब कितनी लोकप्रिय हुई इसका एक अनुमान तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि रुस्सेर्ट को इसके बाद कोई साठ हज़ार खत और ई मेल मिले जिनमें पाठकों ने अपने-अपने पिताओं से अपने रिश्तों का वर्णन किया था। इन्हीं पत्रों के अंशों का उपयोग करते हुए रुस्सेर्ट ने अब एक किताब और लिखी है ‘विज़डम ऑफ़ अवर फ़ादर्स : लेसन्स एण्ड लेटर्स फ़्रॉम डॉटर्स एण्ड सन्स’। 320 पन्नों की यह किताब इन दिनों खूब लोकप्रिय हो रही है।
किताब का ज़्यादा बडा हिस्सा साधारण अमरीकी बेटे-बेटियों की उनके पिताओं की स्मृति से रचा गया है और उसके बीच बीच में लेखक टिम रुस्सेर्ट अपने पिता की स्मृतियों को बुनते चलते हैं। ज़्यादातर पत्र लेखकों ने उस दौर का स्मरण किया है जब पीढियों का अन्तर अधिक था और पिता लोग अपने वात्सल्य का प्रदर्शन करने में संकोची व कृपण हुआ करते थे। अनेक पत्र लेखकों ने अपने ऐसे पिताओं को याद किया है जो अपने बच्चों को साफ़-साफ़ तो यह कभी नहीं कह पाए कि वे उन्हें कितना प्यार करते हैं, लेकिन अनेकानेक अप्रत्यक्ष तरीकों से इस बात को अभिव्यक्त कर गए। कईयों ने यह बताया है कि कैसे उन्होंने अपने पिताओं से जीवन के महत्वपूर्ण सबक सीखे। एक व्यक्ति ने लिखा है कि वह अपने पिता के साथ एक महत्वपू्र्ण मैच देखने गया। पिता के पास दो अतिरिक्त टिकिट थे जिन्हें ज़्यादा कीमत पर खरीदने वाले अनेक थे, लेकिन पिता ने उन टिकिटों को एक ऐसे पिता को लागत मूल्य पर दे दिया जो अपने पुत्र के साथ वह मैच देखने आये थे। कई बेटियों ने यह बताया है कि कैसे उनके पिताओं ने अपने व्यवहार से उनके परवर्ती जीवन में पुरुष से रिश्तों का स्वर निर्धारित कर डाला।
किताब दिल से लिखी गई है, मनोरंजक और बेहद पठनीय है। आप चाहें तो भी इसे पूरा पढे बगैर नहीं रह सकते। जब आप इसके पन्नों से गुज़रते हैं तो आपके मन के चित्रपट पर अपने पिता की स्मृतियां उभरने लगती हैं। किताब बिना किसी बडबोलेपन के यह बताती है कि अच्छे पिता होने का क्या अर्थ है, और इसी सिलसिले को आगे बढाती हुई पाठक को अच्छा पिता बनने के लिए प्रेरित भी करती है। किताब अनेक प्रसंगों के हवाले से यह बताती है कि आपका कोई बहुत छोटा-सा कृत्य भी आपके बच्चे के लिए बहुत प्रभावी सिद्ध हो जाता है। खुद रुस्सेर्ट अपने पिता का ऐसा ही एक प्रसंग हमसे शेयर करते हैं। वे कहते हैं कि मैं अपने कॉलेज के अवकाश के दिनों में घर आया हुआ था। एक दिन जब मैं देर रात तक चली पार्टी के बाद घर लौटा और अगली सुबह बहुत देर तक सोया रहा तो उसी बीच पिता मेरी कार को अन्दर-बाहर से पूरी तरह साफ़ कर चुके थे। इतना ही नहीं, उन्होंने उसमें पैट्रोल भी भरवा दिया। अचानक रुस्सेर्ट को ध्यान आया कि गाडी में तो रात की हंगामेदार पार्टी के एकाधिक अवशेष या प्रमाण भी थे। पिता ने उनका कोई ज़िक्र तक नहीं किया।
देखा आपने! पिता अगर कोई धूम-धडाका करते तो रुस्सेर्ट उसे कभी का भूल चुके होते। अविस्मरणीय बना उनका मौन रह जाना।
इसी तरह एक रिटायर्ड अध्यापिका मेराबेथ ल्यूरी ने अपने पिता को एक अलग तरह के प्रसंग के माध्यम से याद किया है। वे लिखती हैं कि उनके पिता को अपने घर के बेसमेण्ट में बने वर्कशॉप में नई- नई चीज़ें बनाने का शौक था। मेराबेथ का छोटा भाई जिम भी अपने पिता के पीछे-पीछे इस वर्कशॉप में जाता, और जैसा आम तौर पर छोटे बच्चे करते हैं, उनके औज़ारों को छेडता, उलट-पलट करता। पिता ने उसे अनेक बार समझाया लेकिन बच्चा तो आखिर बच्चा ही ठहरा। आखिर पिता ने तै किया कि वह अपने महत्वपूर्ण औज़ारों के लिए एक तालाबंद पेटी बना लेंगे। वे पेटी बनाने में जुट गए, नन्हा जिम उन्हें दिलचस्पी से काम करते देखता और अपनी तरह से उनकी ‘मदद’ करने की चेष्टा करता। पेटी बन गई और पिता उस पर ताला लगाने लगे तो जिम ने पूछा कि यह क्या है? पिता ने उसे बताया कि यह ताला है और इसे खोलकर ही औज़ार बाहर निकाले जा सकेंगे। जिम के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभरे, बोला : ‘डैड, इसकी चाबी किसके पास रहेगी?’
डैड एक क्षण को रुके। बेटे के चेहरे को देखा, और बोले : ‘बेटा, इसकी सिर्फ़ दो चाबियां होंगी। एक तुम्हारे पास रहेगी, दूसरी मेरे पास!’
कहना अनावश्यक है कि ऐसे अनगिनत प्रसंगों से भरी यह किताब बेहतर पिता (और बेहतर संतान भी) बनने में मदद करती है।

इसी किताब से :
नॉत्रे देम विश्वविद्यालय के एक पूर्व दीर्घकालीन अध्यक्ष ने कहा था: कोई भी पिता अपनी सन्तान के लिए सबसे महत्वपूर्ण काम यह कर सकता है कि वह उनकी मां से प्यार करे।

Friday, November 9, 2007

एक सुरीला और अर्थपूर्ण गीत

एक बहुत प्यारा गीत आप सबको सुनवाना चाहता हूं. यह गीत हिन्दी के बेहद महत्वपूर्ण गीतकार स्वर्गीय वीरेन्द्र मिश्र जी की रचना है. गीत क्या है जैसे पूरा भारत साकार कर दिया गया है. और कुछ भी कहकर मैं इस गीत रूपी सूर्य को दीपक नहीं दिखाना चाहता. बस, आप गीत सुनें और अगर वाकई अच्छा लगे तो मुझे भी बतायें. हां एक बात, मैं इस गीत को जिस तरह यहां लिंक करना चाहता था, नहीं कर पाया हूं. इसलिए अगर इस तक पहुंचने में आपको कोई असुविधा हो तो पहले से क्षमा याचना कर लेता हूं.

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दीपावली की शुभकामनाएं

दीपों का त्यौहार फिर आ गया है. चारों तरफ हर्ष व उल्लास का माहौल है. सब अपनी अपनी तरह से खुश हैं. बच्चों की खुशी के अपने कारण हैं तो बडों की खुशी के अपने कारण. बाज़ार अपनी तरह से खुश है तो खरीददार अपनी तरह से. यह स्वाभाविक भी है. बच्चों को खुशी है कि मिठाई मिलेगी, पटाखे मिलेंगे, नए कपडे मिलेंगे. तो इन्हें बेचने वाले खुश हैं कि बिक्री होगी तो लक्ष्मी आएगी. बडे और खास तौर पर वे मध्यवर्गीय बडे जिनके आर्थिक साधन सीमित हैं, बावज़ूद बज़ट गडबडाने की आशंकाओं के, इस बात की कल्पना करके खुश हैं कि उनके बच्चे और परिवार जन खुश होंगे. गृहिणियां घरों को चमकाने में लगी हैं तो संचार माध्यम एक चकाचक छवि पेश करने में मशगूल है. इसी में उसका हित भी निहित है. वे रोज़ यह छाप रहे है कि बाज़ार कैसे सज रहे हैं, बाज़ार में नया क्या है, लोग क्या-क्या उपहार देने की तैयारी में लगे हैं वगैरह. निश्चय ही उपहार देने वाला वर्ग बहुत बडा नहीं है. और न वह वर्ग बडा है जिसे उपहार मिलते हैं. मैं आधा किलो मिठाई के डिब्बे के उपहार की बात नहीं कर रहा, और न सौ पचास रुपये के पटाखों के उपहार या तीन सौ रुपये की साडी के उपहार की बात कर रहा हूं. संचार माध्यम भी इन उपहारों को उपहार नहीं मानता. वह भी डेढ दो लाख के टी वी या डायमण्ड के हार जैसे उपहारों की ही बात करता है. रोज़ यह छापता बताता है कि बाज़ार में इस तरह के उपहारों की कितनी और कैसी नई किस्में आई हुई हैं. मन ललचाता तो मेरा भी है. सबसे पहले तो यह कि काश! कोई मुझे भी ऐसा ही एक ठो उपहार देता. और इसके बाद यह कि काश! मेरी भी हैसियत ऐसी होती कि मैं भी किसी को ऐसा ही उपहार देता. लेकिन सोचने लगता हूं, भला कोई मुझे ऐसा और इतना महंगा उपहार क्यों देता? अच्छी खासी नौकरी थी मेरी (अब सेवा निवृत्त हूं) लेकिन ऐसा तो क्या कैसा भी उपहार कभी किसी ने नहीं दिया. हां, बीस रुपये वाले पेन और पच्चीस रुपये वाली डायरी और आधा किलो मिठाई के डिब्बे के अपवाद को छोडकर. और अगर मुझे उपहार देना होता तो किसे दिया होता? किसे दिया? अपनी नौकरी के दिनों में भी किसी को नहीं. दोस्ती-रिश्तेदारी में ब्याह शादी के मौकों पर जो उपहार दिये-लिए उनमें विनिमय का प्रच्छन्न भाव बराबर बना रहा. इसलिए एक हद से आगे बढने की नौबत कभी आई ही नहीं. जिस ज़माने में नौकरी शुरू की थी, 1967 में, तब शादियों में पांच से ग्यारह रुपये तक देने का रिवाज़ हुआ करता था. आजकल महंगाई (और जीवन स्तर) बढने से यह राशि बढकर एक सौ से ढाई सौ तक पहुच गई है. बहुत अधिक निकटता हो तो हज़ार तक. लेकिन लाख दो लाख वाली स्थिति तो अपने लिए तो नहीं आई. अपनी बात बार-बार इसलिए कर रहा हूं कि खुद को उस वर्ग का प्रतिनिधि मानता हूं जो सबसे बडा है – मध्य वर्ग, और जिसकी खुशहाली के खूब गीत गाए जा रहे हैं. गया बीता मैं भी नहीं हूं. लेकिन इतना खुशहाल भी नहीं हूं.
तो फिर वह मध्यवर्ग कौन-सा है जिसकी खुशहाली के गीत सब तरफ गाए जा रहे हैं? क्या हैं उसकी आय के स्रोत? किन्हें देता है वह ऐसे महंगे उपहार? कहीं यह दो नम्बर की या ऊपरी कमाई वाला नया-नया जन्मा मध्यवर्ग तो नहीं है? या कि कॉल सेण्टर्स में अपनी रातें काली करने वाला युवा वर्ग है? या आई टी सेक्टर में काम करने वाला प्रोफेशनल समुदाय है ? या इन सबसे मिला-जुला वह वर्ग है जिसे अंग्रेज़ी प्रेस ने D.I.N.K. ‘डबल इन्कम नो किड्स’ वर्ग कहा है? यहां मैंने जिन-जिन वर्गों की चर्चा की है उनमें से पहले वर्ग को छोडकर शेष से तो किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है? कोई कमाई के लिए दिन भर जागे या रात भर? किसी ने अपनी योग्यता के दम पर ज़्यादा तनख्वाह वाली नौकरी पा ली है या कोई युवा युगल कुछ समय के लिए या सदा के लिए परिवार वृद्धि स्थगित कर रहा है – इसमें किसी के भी पेट में दर्द होने जैसी कोई बात नहीं है. लेकिन मैंने सबसे पहले जिस वर्ग की चर्चा की, उसकी बात कुछ अलग है. जो कहीं किसी प्रभावशाली जगह पर तैनात है और अपना नियमित काम अंजाम देने के बदले में ‘अतिरिक्त कुछ’ चाह या ले रहा है, वह, और वह जो कुछ ले कर ऐसा काम कर रहा है जिसे कर पाना अन्यथा सम्भव नहीं था – उसको तो भला कोई भी कैसे स्वीकार करेगा? सरकारी दफ्तरों में आम तौर पर यही होता है कि आप जाते हैं और आपको कहा जाता है कि आपका काम नहीं हो सकता. आप सम्बद्ध कर्मचारी/अधिकारी की ‘सेवा’ करते हैं, आपका काम हो जाता है. बहुत बार तो काम न होने की बात की ही इसलिए जाती है कि आप सेवा करने को प्रस्तुत हों. इसके अलावा भी हम अपने चारों तरफ अनियमितताओं का भरा-पूरा जंगल देखते हैं. यह सब भी सेवा कराने और करने का ही परिणाम है. ऐसा वर्ग बडी तेज़ी से फल फूल रहा है. यही वह वर्ग है जो महंगे उपहार लेता है, देता भी है.
और यही वर्ग है जो पहले से दबे मध्यवर्ग के लिए मानदण्ड रचता है. कॉलेज में पढने वाली आपकी बेटी बताती है कि उसी के साथ पढने वाली किसी दफ्तर के बडे बाबू की बेटी की शादी में चालीस लाख खर्च किए जाएंगे. वह न केवल बताती है, यह जताती भी है कि आप जो उस बाबू से बेहतर स्थिति वाले हैं, कम से कम इतना तो खर्च करें. बच्चे ही नहीं बीबी भी आपसे उम्मीद करती है. नाते-रिश्तेदार भी. और अगर आप उनकी उम्मीद पर खरे नहीं उतरते तो या तो आप कंजूस, मूंजी हैं या नाकारा-निकम्मे और बेवक़ूफ. कोई बिरला ही होगा कि जो आपकी पाक-साफ-बेदाग छवि की सराहना करता हुआ अपके पक्ष में खडा हो. आप अगर साइकिल पर दफ्तर जाएं तो सबके उपहास के पात्र बनेंगे और एक बहुत कम वेतन वाला कर्मचारी महंगी मोटर साइकिल पर दफ्तर आए तो कोई यह न जानना चाहेगा कि उसकी आय का स्रोत क्या है? हमारे आज के समाज की सबसे बडी दुर्घटना यही है कि हमने भ्रष्टाचार को निंदा का विषय मानना ही बन्द कर दिया है. उसे हमने मौन स्वीकृति प्रदान कर दी है.
इसी मौन स्वीकृति की परिणति है त्यौहारों पर मीडिया में महंगे विलासिता उत्पादों का उठता ज्वार. यह वर्ग और मीडिया जैसे ‘एक दूजे के लिए’ काम करते हैं. मीडिया ऐसे महंगे उत्पादों के प्रति लालसा जगाता है, और इन उत्पादों तक पहुंचने का रास्ता गन्दगी की गलियों से ही गुज़रता है. लालसा जगाने के लिए वह उन लोगों को रोल मॉडल के रूप में पेश करता है जिनका उन गलियों में खासा आना-जाना है. जिन्हें विलेन होना चाहिए था उन्हें हीरो का खिताब अता फरमाया जाता है. सही भी है. अगर उन्हें विलेन बना दिया जाएगा तो बाज़ार कैसे फलेगा फूलेगा? और अगर बाज़ार नहीं फला-फूला तो मीडिया कैसे समृद्ध होगा? सारे ही संचार माध्यमों पर जो उपभोक्ता उत्पादों की बहार आई हुई है, वह मीडिया को भी समृद्ध कर रही है, यह कहना अनावश्यक है. मीडिया समृद्ध हो, इस पर कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन वह अपनी समृद्धि के लिए इस बात की अनदेखी करे कि पूरे समाज की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो रही है, यह चिंता और क्षोभ का विषय है. समाज के एक अंश और मीडिया दोनों ने अपनी-अपनी समृद्धि के लिए ज़रूरी बातों की अनदेखी का रास्ता अख्तियार कर लिया है- इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए.

आज़ादी के बाद के वर्षों में हमारा नैतिक बोध जिस तरह कमज़ोर हुआ है उस पर गहरी चिंता होनी चाहिए. लेकिन चिंता की बजाय हम सब धीरे-धीरे उसी की परिधि में आते जा रहे हैं. हमारे त्यौहार हमारे सांस्कृतिक वैभव और उदात्त मूल्यों के प्रतीक हैं. दिवाली लक्ष्मी पूजा का त्यौहार था, है, लेकिन हमने उसे काली लक्ष्मी की पूजा का त्यौहार बना डाला है. ऐसा ही जीवन के अन्य अनेकानेक सांस्कृतिक पर्वों-अवसरों के साथ हुआ है.दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत की घोषणा का पर्व है लेकिन हो यह रहा है कि उसमें भी बुराई ही महिमान्वित्त हो रही है. बल्कि सर्वत्र हुआ है. रिश्ते, संस्कार, देश, धर्म सब कुछ पर यह काली छाया दिखाई देती है.
क्या इस बात पर कोई चिंता नहीं होनी चाहिए?

आप सबको दीपावली की अनेकानेक शुभकामनाएं.

दीपावली की शुभकामनाएं

दीपों का त्यौहार फिर आ गया है. चारों तरफ हर्ष व उल्लास का माहौल है. सब अपनी अपनी तरह से खुश हैं. बच्चों की खुशी के अपने कारण हैं तो बडों की खुशी के अपने कारण. बाज़ार अपनी तरह से खुश है तो खरीददार अपनी तरह से. यह स्वाभाविक भी है. बच्चों को खुशी है कि मिठाई मिलेगी, पटाखे मिलेंगे, नए कपडे मिलेंगे. तो इन्हें बेचने वाले खुश हैं कि बिक्री होगी तो लक्ष्मी आएगी. बडे और खास तौर पर वे मध्यवर्गीय बडे जिनके आर्थिक साधन सीमित हैं, बावज़ूद बज़ट गडबडाने की आशंकाओं के, इस बात की कल्पना करके खुश हैं कि उनके बच्चे और परिवार जन खुश होंगे. गृहिणियां घरों को चमकाने में लगी हैं तो संचार माध्यम एक चकाचक छवि पेश करने में मशगूल है. इसी में उसका हित भी निहित है. वे रोज़ यह छाप रहे है कि बाज़ार कैसे सज रहे हैं, बाज़ार में नया क्या है, लोग क्या-क्या उपहार देने की तैयारी में लगे हैं वगैरह. निश्चय ही उपहार देने वाला वर्ग बहुत बडा नहीं है. और न वह वर्ग बडा है जिसे उपहार मिलते हैं. मैं आधा किलो मिठाई के डिब्बे के उपहार की बात नहीं कर रहा, और न सौ पचास रुपये के पटाखों के उपहार या तीन सौ रुपये की साडी के उपहार की बात कर रहा हूं. संचार माध्यम भी इन उपहारों को उपहार नहीं मानता. वह भी डेढ दो लाख के टी वी या डायमण्ड के हार जैसे उपहारों की ही बात करता है. रोज़ यह छापता बताता है कि बाज़ार में इस तरह के उपहारों की कितनी और कैसी नई किस्में आई हुई हैं. मन ललचाता तो मेरा भी है. सबसे पहले तो यह कि काश! कोई मुझे भी ऐसा ही एक ठो उपहार देता. और इसके बाद यह कि काश! मेरी भी हैसियत ऐसी होती कि मैं भी किसी को ऐसा ही उपहार देता. लेकिन सोचने लगता हूं, भला कोई मुझे ऐसा और इतना महंगा उपहार क्यों देता? अच्छी खासी नौकरी थी मेरी (अब सेवा निवृत्त हूं) लेकिन ऐसा तो क्या कैसा भी उपहार कभी किसी ने नहीं दिया. हां, बीस रुपये वाले पेन और पच्चीस रुपये वाली डायरी और आधा किलो मिठाई के डिब्बे के अपवाद को छोडकर. और अगर मुझे उपहार देना होता तो किसे दिया होता? किसे दिया? अपनी नौकरी के दिनों में भी किसी को नहीं. दोस्ती-रिश्तेदारी में ब्याह शादी के मौकों पर जो उपहार दिये-लिए उनमें विनिमय का प्रच्छन्न भाव बराबर बना रहा. इसलिए एक हद से आगे बढने की नौबत कभी आई ही नहीं. जिस ज़माने में नौकरी शुरू की थी, 1967 में, तब शादियों में पांच से ग्यारह रुपये तक देने का रिवाज़ हुआ करता था. आजकल महंगाई (और जीवन स्तर) बढने से यह राशि बढकर एक सौ से ढाई सौ तक पहुच गई है. बहुत अधिक निकटता हो तो हज़ार तक. लेकिन लाख दो लाख वाली स्थिति तो अपने लिए तो नहीं आई. अपनी बात बार-बार इसलिए कर रहा हूं कि खुद को उस वर्ग का प्रतिनिधि मानता हूं जो सबसे बडा है – मध्य वर्ग, और जिसकी खुशहाली के खूब गीत गाए जा रहे हैं. गया बीता मैं भी नहीं हूं. लेकिन इतना खुशहाल भी नहीं हूं.
तो फिर वह मध्यवर्ग कौन-सा है जिसकी खुशहाली के गीत सब तरफ गाए जा रहे हैं? क्या हैं उसकी आय के स्रोत? किन्हें देता है वह ऐसे महंगे उपहार? कहीं यह दो नम्बर की या ऊपरी कमाई वाला नया-नया जन्मा मध्यवर्ग तो नहीं है? या कि कॉल सेण्टर्स में अपनी रातें काली करने वाला युवा वर्ग है? या आई टी सेक्टर में काम करने वाला प्रोफेशनल समुदाय है ? या इन सबसे मिला-जुला वह वर्ग है जिसे अंग्रेज़ी प्रेस ने D.I.N.K. ‘डबल इन्कम नो किड्स’ वर्ग कहा है? यहां मैंने जिन-जिन वर्गों की चर्चा की है उनमें से पहले वर्ग को छोडकर शेष से तो किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है? कोई कमाई के लिए दिन भर जागे या रात भर? किसी ने अपनी योग्यता के दम पर ज़्यादा तनख्वाह वाली नौकरी पा ली है या कोई युवा युगल कुछ समय के लिए या सदा के लिए परिवार वृद्धि स्थगित कर रहा है – इसमें किसी के भी पेट में दर्द होने जैसी कोई बात नहीं है. लेकिन मैंने सबसे पहले जिस वर्ग की चर्चा की, उसकी बात कुछ अलग है. जो कहीं किसी प्रभावशाली जगह पर तैनात है और अपना नियमित काम अंजाम देने के बदले में ‘अतिरिक्त कुछ’ चाह या ले रहा है, वह, और वह जो कुछ ले कर ऐसा काम कर रहा है जिसे कर पाना अन्यथा सम्भव नहीं था – उसको तो भला कोई भी कैसे स्वीकार करेगा? सरकारी दफ्तरों में आम तौर पर यही होता है कि आप जाते हैं और आपको कहा जाता है कि आपका काम नहीं हो सकता. आप सम्बद्ध कर्मचारी/अधिकारी की ‘सेवा’ करते हैं, आपका काम हो जाता है. बहुत बार तो काम न होने की बात की ही इसलिए जाती है कि आप सेवा करने को प्रस्तुत हों. इसके अलावा भी हम अपने चारों तरफ अनियमितताओं का भरा-पूरा जंगल देखते हैं. यह सब भी सेवा कराने और करने का ही परिणाम है. ऐसा वर्ग बडी तेज़ी से फल फूल रहा है. यही वह वर्ग है जो महंगे उपहार लेता है, देता भी है.
और यही वर्ग है जो पहले से दबे मध्यवर्ग के लिए मानदण्ड रचता है. कॉलेज में पढने वाली आपकी बेटी बताती है कि उसी के साथ पढने वाली किसी दफ्तर के बडे बाबू की बेटी की शादी में चालीस लाख खर्च किए जाएंगे. वह न केवल बताती है, यह जताती भी है कि आप जो उस बाबू से बेहतर स्थिति वाले हैं, कम से कम इतना तो खर्च करें. बच्चे ही नहीं बीबी भी आपसे उम्मीद करती है. नाते-रिश्तेदार भी. और अगर आप उनकी उम्मीद पर खरे नहीं उतरते तो या तो आप कंजूस, मूंजी हैं या नाकारा-निकम्मे और बेवक़ूफ. कोई बिरला ही होगा कि जो आपकी पाक-साफ-बेदाग छवि की सराहना करता हुआ अपके पक्ष में खडा हो. आप अगर साइकिल पर दफ्तर जाएं तो सबके उपहास के पात्र बनेंगे और एक बहुत कम वेतन वाला कर्मचारी महंगी मोटर साइकिल पर दफ्तर आए तो कोई यह न जानना चाहेगा कि उसकी आय का स्रोत क्या है? हमारे आज के समाज की सबसे बडी दुर्घटना यही है कि हमने भ्रष्टाचार को निंदा का विषय मानना ही बन्द कर दिया है. उसे हमने मौन स्वीकृति प्रदान कर दी है.
इसी मौन स्वीकृति की परिणति है त्यौहारों पर मीडिया में महंगे विलासिता उत्पादों का उठता ज्वार. यह वर्ग और मीडिया जैसे ‘एक दूजे के लिए’ काम करते हैं. मीडिया ऐसे महंगे उत्पादों के प्रति लालसा जगाता है, और इन उत्पादों तक पहुंचने का रास्ता गन्दगी की गलियों से ही गुज़रता है. लालसा जगाने के लिए वह उन लोगों को रोल मॉडल के रूप में पेश करता है जिनका उन गलियों में खासा आना-जाना है. जिन्हें विलेन होना चाहिए था उन्हें हीरो का खिताब अता फरमाया जाता है. सही भी है. अगर उन्हें विलेन बना दिया जाएगा तो बाज़ार कैसे फलेगा फूलेगा? और अगर बाज़ार नहीं फला-फूला तो मीडिया कैसे समृद्ध होगा? सारे ही संचार माध्यमों पर जो उपभोक्ता उत्पादों की बहार आई हुई है, वह मीडिया को भी समृद्ध कर रही है, यह कहना अनावश्यक है. मीडिया समृद्ध हो, इस पर कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन वह अपनी समृद्धि के लिए इस बात की अनदेखी करे कि पूरे समाज की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो रही है, यह चिंता और क्षोभ का विषय है. समाज के एक अंश और मीडिया दोनों ने अपनी-अपनी समृद्धि के लिए ज़रूरी बातों की अनदेखी का रास्ता अख्तियार कर लिया है- इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए.

आज़ादी के बाद के वर्षों में हमारा नैतिक बोध जिस तरह कमज़ोर हुआ है उस पर गहरी चिंता होनी चाहिए. लेकिन चिंता की बजाय हम सब धीरे-धीरे उसी की परिधि में आते जा रहे हैं. हमारे त्यौहार हमारे सांस्कृतिक वैभव और उदात्त मूल्यों के प्रतीक हैं. दिवाली लक्ष्मी पूजा का त्यौहार था, है, लेकिन हमने उसे काली लक्ष्मी की पूजा का त्यौहार बना डाला है. ऐसा ही जीवन के अन्य अनेकानेक सांस्कृतिक पर्वों-अवसरों के साथ हुआ है.दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत की घोषणा का पर्व है लेकिन हो यह रहा है कि उसमें भी बुराई ही महिमान्वित्त हो रही है. बल्कि सर्वत्र हुआ है. रिश्ते, संस्कार, देश, धर्म सब कुछ पर यह काली छाया दिखाई देती है.
क्या इस बात पर कोई चिंता नहीं होनी चाहिए?

आप सबको दीपावली की अनेकानेक शुभकामनाएं.

Wednesday, November 7, 2007

दिवाली की मंगल कामनाएं

हर साल दिवाली पर बहुत सारे बधाई कार्ड आते हैं. आजकल कार्डों के अलावा ई मेल और एस एम एस भी खूब आते हैं. ई मेल और एस एम एस तो खैर वैसे ही क्षण-भंगुर होते हैं, कार्ड भी कुछ दिनों के बाद इधर-उधर हो जाते हैं, चाहे कितने ही आकर्षक और अर्थ व्यंजक क्यों न हों! शायद सबके साथ ऐसा ही होता हो. हम लिखने-पढ़ने के व्यसनी लोगों के पास तो वैसे भी डाक खूब आती है. आखिर कोई कब तक और कितना सम्हाल कर रख सकता है? मैं तो अपनी नौकरी के अंतिम कुछ वर्षों में कई बार ‘तबा-दलित’ भी हुआ, अत: स्वाभाविक ही था कि ‘पत्रं पुष्पं’ का बोझ ज़रा कम ही रखता. एक और बात भी, जब चयन का अवसर आता है तो हम सब सार्वजनिक की तुलना में वैयक्तिक को पहले बचाये रखना चाहते हैं. ऐसे में मुद्रित कार्डों की बजाय हस्त-लिखित या व्यक्तिगत पत्र अधिक सुरक्षित रखे जाते हैं.

इधर सारे ही पर्व त्यौहारों की तरह दिवाली का भी घोर व्यावसायिकीकरण हुआ है. अन्य बहुत सारी बातों के अतिरिक्त, शुभकामनाएं देना-लेना भी सम्पर्क बनाने-बढाने का, वो जिसे आधुनिक शब्दावलि में पी आर (PR) कहते हैं उसका, माध्यम बन गया है. परिणाम यह कि कोई सामान्य-से सम्पर्क वाला व्यक्ति भी दिवाली पर सौ-डेढ़ सौ कार्ड तो भेजता ही है. और इतने कार्ड, स्वाभाविक ही है कि मुद्रित ही होंगे. कमोबेश इतने ही कार्ड आते भी हैं. जब मैं नौकरी में था हर साल ढ़ाई तीन सौ कार्ड आते थे, अब इससे आधे आते हैं. यह स्वाभाविक है. ऐसे कार्ड, जैसा मैं ने पहले ही कहा, कितने ही आकर्षक, कलात्मक और उम्दा सन्देश वाले क्यों न हों, कुल मिलाकर यह सन्देश देने के बाद कि अमुक जी ने हमें स्मरण रखा है, अपनी अर्थवत्ता खो देते हैं, और इसलिए बहुत लम्बे समय तक उन्हें सम्हाल कर नहीं रखा जा सकता.

लेकिन यह सब कहने के बाद अगर मैं यह कहूं कि एक व्यक्ति ऐसा है जो हर तरह से इस सबका अपवाद है, तो आपको आश्चर्य होगा न? हम दोनों के बीच उम्र का, कद और पद का इतना अंतर है कि मैं उन्हें 'मित्र' तो नहीं कह सकता. उम्र में मुझसे लगभग 15 वर्ष बड़े, एक राज्य के विधायक, मंत्री और फिर राज्य सभा के सदस्य रहे, कवि सम्मेलनों के अत्यधिक लोकप्रिय कवि.. बहुत उम्दा लेखक! यह उनका ही बड़प्पन है कि वे मुझे अपना मानते हैं. सातवें दशक के मध्य उनसे सम्पर्क हुआ था. तब वे लालकिले में अपनी कविताओं से धूम मच चुके थे, और मैं, कॉलेज का एक विद्यार्थी, उनकी कविताओं का प्रशंसक! पत्र व्यवहार प्रारम्भ हुआ. कुछेक अवसर मिलने के मिले. कभी कभार पत्राचार भी हो जाता. फिर वे अपनी दुनिया में और मैं अपनी दुनिया में व्यस्त होते गए. लेकिन इस सबके बीच भी शायद ही कोई ऐसा साल बीता हो जब दिवाली पर मैं ने उन्हें कार्ड न भेजा हो, और दिवाली पर उनका कार्ड न आया हो! चालीस साल कम नहीं होते. और अपने सारे तबादलों, सारी अस्त व्यस्तता के बावज़ूद उनके अधिकांश कार्ड मेरे पास सुरक्षित हैं.

मैं अभी तो यह कह रहा था कि कोई कब तक इतने सारे कागज़ों का बोझ सम्हाले, और अभी यह कह रहा हूं कि उनके अधिकांश कार्ड मेरे पास सुरक्षित हैं. क्या खास है उनके कार्डों में?

लेकिन इससे भी पहले यह कि 'वे' हैं कौन ?

जी, मैं बात बालकवि बैरागी की कर रहा हूं. परिचय तो उनका दे ही चुका हूं.
बैरागी जी दिवाली पर पोस्टकार्ड भेजते हैं. पहले पूरा पोस्टकार्ड हस्तलिखित हुआ करता था, अब उस पर उनका पता मुद्रित होता है. सन्देश पहले भी वे हाथ से लिखते थे, अब भी हाथ से ही लिखते हैं. इतने वर्षों में न उनकी यह आदत बदली है, न हस्तलिपि. अत्यधिक सधे अक्षर, जैसे किसी ने मोतियों की लड़ी सजा दी हो. और सन्देश? उसका तो कहना ही क्या? मैं ने कहा न कि बैरागी जी कवि हैं. उनका दिवाली सन्देश सदा एक छन्द के रूप में होता है. लेकिन ऐसा छन्द जिसे आप अपने जीवन का मूल मंत्र बना लेना चाहें.

जैसा मैंने पहले कहा, बैरागी जी विधायक, मंत्री, सांसद सब कुछ रह चुके हैं. अब भी हम लोगों से तो वे अधिक ही व्यस्त होंगे. सम्पर्क तो खैर उनके हैं ही. राजनीति में भी, साहित्य में भी. इसके बावज़ूद उन्होंने दीपों के इस पर्व को 'निजी' और आत्मीय बनाये रखा है, यांत्रिक और निर्वैयक्तिक नहीं बन जाने दिया है, यह बात मुझे बहुत महत्वपूर्ण लगती है.




इस दिवाली पर अपने सारे पाठकों, सहयोगियों और शुभ चिंतकों को 'इंद्रधनुष' परिवार की ओर से दीपावली की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देते हुए मैं उपहार स्वरूप अपने 'दादा' बैरागी जी के कुछ छन्द सादर भेंट कर रहा हूं :





सूरज से कह दो बेशक अपने घर आराम करे
चांद सितारे जी भर सोयें नहीं किसी का काम करें
आंख मूंद लो दीपक ! तुम भी, दियासलाई! जलो नहीं
अपना सोना अपनी चांदी गला-गला कर मलो नहीं
अगर अमावस से लड़ने की ज़िद कोई कर लेता है
तो, एक ज़रा-सा जुगनू सारा अंधकार हर लेता है!
(1991)
*

रोम रोम करके हवन देना अमल उजास
कुछ भी तो रखना नहीं, अपना अपने पास
जलते रहना उम्र भर,अरुणिम रखना गात
सहना अपने शील पर तम का हर उत्पात
सोचो तो इस बात के होते कितने अर्थ
बाती का बलिदान यह चला न जाये व्यर्थ!
(1992)
*

एक दीपक लड़ रहा है अनवरत अंधियार से
लड़ रहा है कालिमा के क्रूरतम परिवार से
सूर्य की पहिली किरन तक युद्ध यह चलता रहे
इसलिए अनिवार्य है कि दीप यह जलता रहे
आपकी आशीष का सम्बल इसे दे दीजिये
प्रार्थना-शुभकामना इस दीप की ले लीजिये!!
(1993)
*




आज मैंने सूर्य से बस ज़रा-सा यूं कहा
"आपके साम्राज्य में इतना अंधेरा क्यूं रहा?"
तमतमा कर वह दहाड़ा - "मैं अकेला क्या करूं?
तुम निकम्मों के लिए मैं भला कब तक मरूं ?
आकाश की आराधना के चक्करों में मत पड़ो
संग्राम यह घनघोर है, कुछ मैं लड़ूं कुछ तुम लड़ो !"
(1994)
*

सूर्य की अनुपस्थिति में आयु भर मैं ही जला
टल गये दिग्पाल लेकिन मं नहीं व्रत से टला
सोचता था - तुम सबेरे शुक्रिया मेरा करोगे
फूल की एकाध पंखुरी, देह पर मेरी धरोगे
किंतु होते ही सवेरा छीन ली मेरी कमाई
इस कृपा (?) का शुक्रिया, खूब ! दीवाली मनाई !
(1997)
*
देखता हूं दीप को और खुद में झांकता हूं
छूट पड़ता है पसीना और बेहद कांपता हूं
एक तो जलते रहो और फिर अविचल रहो
क्या विकट संग्राम है यह युद्धरत प्रतिपल रहो
काश! मैं भी दीप होता, जूझता अंधियार से
धन्य कर देता धरा को ज्योति के उपहार से !
(1998)
*
दीप से बोला अंधेरा - "ठान मत मुझ से लड़ाई
व्यर्थ ही मर जाएगा - सोच कुछ अपनी भलाई
स्वार्थ वश कोई जलाए और तू जलने लगे
सर्वथा अनजान पथ पर उम्र भर चलने लगे"
दीप बोला - "बंधु! अच्छी राह पर सच्ची बधाई
(पर) फिक़्र मेरी छोड़ करके सोच तू अपनी भलाई!"
(1999)
*


मैं तुम्हारी देहरी का दीप हूँ, दिनमान हूं
घोर तम से मानवी संग्राम का प्रतिमान हूं
उम्र भर लड़ता रहा, मुंह की कभी खाई नहीं
आज तक तो हूं विजेता पीठ दिखलाई नहीं
दीनता औ' दम्भ से रिश्ता कभी पाला नहीं
आपका आदेश मैंने आज तक टाला नहीं !
(2000)
*


आप मुझको स्नेह देकर चैन से सो जाईये
स्वप्न के संसार में आराम से खो जाईये
आपकी खातिर लड़ूंगा मैं घने अंधियार से
रंच भर विचलित न हूंगा मौसमों की मार से
जानता हूं तुम सवेरे मांग ऊषा की भरोए
जान मेरी जायेगी पर ऋण अदा उसका करोगे !
(2003)
*

कर्तव्य मेरा है यही, मैं रात भर जलता रहूं
कालिमा के गाल पर लालिमा मलता रहूं
दांव पर सब कुछ लगे जब दीप के दिव्यार्थ का
तब कर्म यह छोटा नहीं जब पर्व हो पुरुषार्थ का
ज्योति का जयगीत हूं - आरोह का अलाप हूं
निर्माण आखिर आपका हूं इसलिए चुपचाप हूँ!
(2003)
*

लडकी क्यों लडकों-सी नहीं होती?

स्त्रियां पुरुषों की तुलना में ज़्यादा बातूनी क्यों होती हैं? क्यों औरतें उन विवादों को तफसील से याद रख लेती हैं जिन्हें मर्द क़तई याद नहीं रख पाते? क्या कारण है कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं अपनी दोस्तों से ज़्यादा घनिष्ठता से जुडती हैं? इन और ऐसे अनेक सवालों का जवाब देती है न्यूरो साइकियाट्रिस्ट लुआन ब्रिजेण्डिन की नई किताब ‘द फीमेल ब्रेन’. कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में कार्यरत लुआन, जो चिकित्सा विज्ञान का प्रयोग अपनी महिला रोगियों के सशक्तिकरण के लिए करती हैं, की यह किताब मानवीय व्यवहार की जीव वैज्ञानिक पडताल की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है.

येल में एक मेडिकल छात्रा के रूप में शोध करते हुए और फिर हारवर्ड में रेजिडेण्ट और फैकल्टी मेम्बर के रूप में काम करते हुए लुआन का ध्यान इस बात की तरफ गया कि न्यूरोलॉजी, मनोविज्ञान और न्यूरो-बायोलॉजीमें करीब-करीब सारा क्लिनिकल डाटा पुरुषों कर ही आधारित है. इस असंतुलन को दुरुस्त करने के लिए उन्होंने अमरीका का पहला ऐसा क्लिनिक स्थापित किया जो स्त्री मस्तिष्क का अध्ययन करता है. इस किताब में वहां किए गए अध्ययन, शोध और नवीनतम सूचनाओं को इस तरह संजोया गया है कि इसे पढने के बाद स्त्रियां तो अपने खास मस्तिष्क, शरीर और व्यवहार को बेहतर तरीके से समझ ही पाती हैं, पुरुषों को भी सिगमण्ड फ्रायड के उस मशहूर सवाल का एक हद तक जवाब मिल जाता है कि आखिर स्त्रियां चाहती क्या है! किताब यह भी बताती है कि स्त्री और पुरुष की मानसिक बनावट में क्या फर्क़ है!
ब्रिजेण्डिन ने जन्म से लेकर रजो-निवृत्ति तक स्त्री मस्तिष्क की जीवन यात्रा की पडताल की है. वे बताती हैं कि एक कन्या शिशु जिस तरह लगाव अनुभव करती है, विपरीत लिंगी शिशु उस तरह नहीं करता. इसी तरह मातृत्व स्त्री की मस्तिष्क संरचना में आमूल चूल और अपरिवर्तनीय परिवर्तन करता है. ब्रिजेण्डिन यह भी बताती हैं कि स्त्री-पुरुष मस्तिष्कों की केमिस्ट्रियां ताकतवर हारमोन्स से इस तरह संचालित होती हैं कि हर जेण्डर की यथार्थ की अवधारणा ही अलग तरह से निर्मित हो जाती है. लेकिन वे आगाह करना नहीं भूलतीं कि इस भेद का योग्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है.
ब्रिजेण्डिन बताती हैं कि आम धारणा यह है कि लडके-लडकियों का व्यवहार अलग-अलग होता है. हम घरों में, खेल के मैदानों में, कक्षाओं में, सभी जगह उनके व्यवहार की भिन्नता देखते हैं. यह भी माना जाता है कि व्यवहार की यह भिन्नता उनके पालन-पोषण की भिन्नता की वजह से होती है. लेखिका इस धारणा का, कि हमारी जेण्डर की अवधारणा हमारे पालन-पोषण से निर्मित होती है, खण्डन करते हुए बताती हैं कि इस भेद का कारण मस्तिष्क की बनावट का अलग होना है. वे एक दिलचस्प उदाहरण देती हैं. उनकी एक मरीज़ ने अपनी साढे तीन साल की बेटी को कई यूनीसेक्स खिलौने दिए. उनमें एक लाल रंग की दमकल गाडी भी थी. एक दिन वह मरीज़ अपनी बेटी के कमरे में जाने पर पाती हैं कि बिटिया उस गाडी को एक छोटे-से कम्बल में लपेटकर झुला रही है और कह रही है, “चिंता मत करो मेरी गाडी, जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा!” लेखिका समझाती है कि उस नन्हीं बच्ची का यह बर्ताव उसके सामाजिकरण की वजह से न होकर उसके स्त्री मस्तिष्क की वजह से है. हमारा मस्तिष्क ही यह तै करता है कि हम कैसे देखते, सुनते, सूंघते, चखते हैं. वस्तुत: हमारी महसूस करने वाली इन्द्रियां सीधे मस्तिष्क से जुडी होती हैं. हमारे अनुभवों की व्याख्या मस्तिष्क ही करता है. मस्तिष्क का यह लिंग भेद जन्मजात होता है. लगभग आठ सप्ताह के गर्भ के मस्तिष्क का लिंग निर्धारित हो चुकता है.
ब्रिजेण्डिन एक रोचक बात यह भी बताती हैं कि मादा मस्तिष्क शिशु को सबसे पहले चेहरों का अध्ययन करने का निर्देश देता है. इसके विपरीत नर मस्तिष्क चेहरों से अलग अन्य चीज़ों जैसे रोशनी, वस्तुओं वगैरह में रुचि लेता है. वे यह भी बताती हैं कि अपने अस्तित्व के पहले तीन महीनों में मादा शिशु की चेहरों को ताकने और दृष्टि सम्पर्क (आई कॉंटेक्ट) की क्षमता में 400 गुना वृद्धि होती है. मज़े की बात कि इसी अवधि में नर-शिशु में यह क्षमता ज़रा भी नहीं बढती. एक बहुत महत्वपूर्ण बात वे यह बताती हैं कि मादा शिशु को भावहीन चेहरे ज़रा भी अच्छे नहीं लगते. कारण, ऐसे चेहरे उन्हें यह संकेत देते हैं कि वे कुछ गलत कर रही हैं. किताब एक महत्वपूर्ण बात यह भी बताती है कि आदमी लगभग सात हज़ार शब्द प्रतिदिन इस्तेमाल करता है, जबकि औरत हर रोज़ बीस हज़ार शब्द इस्तेमाल करती है.
एक उपन्यास की मानिंद दिलचस्प यह किताब हमें इस विषय में और गहरे उतरने के लिए प्रेरित करती है, यही इसकी सबसे बडी खासियत है.

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Discussed Book:
The Female Brain
By Louann Md Brizendine
Paperback: 304 pages
Published by Broadway
US $ 14.95

यह आलेख राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' में 06 नवम्बर 2007 को प्रकाशित हुआ.

Friday, November 2, 2007

एक उत्कृष्ट गीत

हम हिन्दी वालों की स्मृति बहुत क्षीण है. अपने बहुत बढिया रचनाकारों को हम जल्दी-जल्दी भुला देते हैं. इसीलिए कोई आश्चर्य नहीं होता यह जानकर कि आजकल बहुत सारे लोग उन वीरेन्द्र मिश्र का नाम भी नहीं जानते जो अभी कुछ वर्ष पहले तक हमारे साथ थे. वे एक बहुत उम्दा गीतकार थे. मंच पर बहुत सुरीले अन्दाज़ में काव्य पाठ करते थे.

उनका एक गीत मुझे मिल गया है और मैं चाहता हूं कि आप सब भी उसका आनन्द लें. गीत का शीर्षक है 'मेरा देश' . मित्रों गीत क्या है, जैसे पूरे भारत की ही एक मनोहारी छवि है. गीत के अंत में भारत-चीन संघर्ष का सन्दर्भ है, क्योंकि गीत उन्हीं दिनों का है.

यह मेरा पहला प्रयास है कोई श्रव्य रचना अपने ब्लॉग पर देने का. अगर प्रयास सफल रहा, और भी बहुत कुछ आप सबसे साझा करता रहूंगा. अभी तो गीत सुनिए.

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Tuesday, October 30, 2007

दर्शक दीर्घा में बैठकर न देखें प्रजातंत्र का खेला

अब तक महिला विषयक लेखन के लिए सुपरिचित बेस्ट सेलर लेखिका नाओमी वुल्फ अपनी नई किताब ‘द एण्ड ऑफ अमरीका: लेटर ऑफ वार्निंग टू अ यंग पैट्रिअट’ के माध्यम से अपने देशवासियों को आगाह करती हैं कि उनके देश में प्रजातंत्र का बने रहना इस बात पर निर्भर है कि वे उसमें कितनी भागीदारी निबाहते हैं. यूरोपीय व अन्य देशों के सत्तावादी उभारों के इतिहास का स्मरण करते हुए वह भयावह आशंका जताती है कि अमरीका में भी ऐसा हो सकता है. वुल्फ बताती हैं कि किस तरह दुनिया के तमाम निरंकुश अत्याचारी शासक एक खास क्रम में उठाये गए दस कदमों से प्रजातंत्र को कुचलते रहे हैं. ये दस कदम हैं : सबसे पहले आंतरिक और बाह्य संकट का हौव्वा खडा किया जाए, गुप्त कारागार स्थापित किए जाएं, एक पैरा मिलिट्री फोर्स बनाई जाए, आम नागरिकों की निगरानी शुरू की जाए, नागरिक समूहों में घुसपैठ की जाए, मनमाने तरीके से नागरिकों की पकड-धकड की जाए और बिना किसी तर्क के उन्हें छोड भी दिया जाए, मुख्य व्यक्तियों को निशाना बनाया जाए, प्रेस को नियंत्रित किया जाए, आलोचना को ‘जासूसी’ का और असहमति को ‘देशद्रोह’ का नाम दिया जाए, और न्याय पूर्ण व्यवस्था को नष्ट किया जाए. सारी दुनिया में इन कदमों का प्रयोग खुले समाजों को बर्बाद करने में किया जाता रहा है.
नाओमी वुल्फ की यह किताब भयावह है क्योंकि यह अमरीका के आज के घटनाक्रम और बीसवीं शताब्दी के मध्य के उस घटनाक्रम में साम्य दर्शाती है जिसकी परिणति फासीवाद और द्वितीय विश्व युद्ध में हुई थी. वुल्फ ज़ोर देकर कहती हैं कि समाज तानाशाही की तरफ यकायक नहीं मुड जाया करते. प्राय: होता यह है कि ज़्यादातर लोगों की सामान्य नियमित दिनचर्या अप्रभावित रहती है. हो सकता है कि हम ‘अमरीकन आइडल’ देखते रहें, मॉल में जाकर पिज़्ज़ा ऑर्डर करते रहें और उसी वक़्त हमारी आज़ादी हमसे छीनी जाती रहे. इसीलिए वे कहती हैं कि अमरीका आज जिस रास्ते पर चल रहा है वह डेमोक्रेट और रिपब्लिकन दोनों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए क्योंकि आज़ादी का लोप तो सबको ही प्रभावित करेगा.
वुल्फ पूरी ऊर्जा और शिद्दत से यह एहसास कराती है कि बुश प्रशासन की नीतियों की वजह से उनका देश एक खतरनाक फासिस्ट शिफ्ट से गुज़र रहा है. वे कहती हैं कि फासीवाद तानाशाही के बगैर भी पनप सकता है.
हालांकि आम अमरीकी यह मानने को तैयार नहीं होता कि 9/11 के बाद उसका देश किसी भी तरह नाज़ी जर्मनी और चिली के फासीवाद और सर्वसत्तावादी कालखण्ड के समकक्ष बनता जा रहा है, लेकिन एक बहुत छोटे किंतु प्रतिबद्ध प्रकाशक के यहां से प्रकाशित वुल्फ की महज़ 192 पृष्ठों की किताब यह स्थापित करने में पूरी तरह कामयाब है कि उन समाजों और आज के अमरीकी समाज के बीच की समानांतरता और समानताओं या कि अनुगूंजों को अनसुना नहीं किया जा सकता. इस तरह यह किताब एक साथ ही चौंकाती है, डराती है और हमारी संवेदनाओं को झकझोरती है.
नोआमी वुल्फ इस किताब में 30 के दशक के जर्मनी, 40 के दशक के रूस, 50 के दशक के पूर्वी जर्मनी, 60 के दशक के चेकोस्लोवाकिया, 70 के दशक के चिली और 80 के दशक के चीन के परिदृश्य से 2000 के बाद के अमरीका की समानताएं दिखाकर प्रजातंत्र के सम्भावित पटाक्षेप के खिलाफ जनमत जगाने का मूल्यवान प्रयास करती हैं. वे साफ शब्दों में कहती हैं कि प्रजातंत्र ऐसा तमाशा नहीं है जिसे दर्शक दीर्घा में बैठकर देख जाए. अमरीका के संस्थापकों ने ऐसे देश की कल्पना नहीं की थी जहां वकील, स्कॉलर, राजनीतिज्ञ जैसे प्रोफेशनल ही संविधान की व्याख्या और जनाधिकारों की चिंता करें. उन लोगों ने यह कभी नहीं चाहा था कि आम लोगों से अलग ताकतवर लोग आज़ादी की रक्षा करें. उन्होंने तो यह चाहा था कि आम लोग ही अपनी आज़ादी की रक्षा करें. अमरीका के संस्थापकों ने आज़ादी को नैसर्गिक, ईश्वर प्रदत्त और ऐसी व्यवस्था कभी नहीं कहा-समझा जिसमें सभ्यता स्वत: बनी रहेगी. बल्कि उन्होंने तो अत्याचार और दमन को यथास्थिति तथा स्वाधीनता को अपवाद माना. ऐसा अपवाद जिसको पाने के लिए संघर्ष किया जाए और जो अगर मिल जाए तो उसे सीने से लगाकर रखा जाए. नोआमी वुल्फ को शिकायत है कि अमरीकियों ने प्रजातंत्र को बहुत अगम्भीरता से लिया है, जबकि इसका तो अस्तित्व ही नागरिकों की सहभागिता और सक्रियता पर निर्भर है.
किताब अमरीका को सम्बोधित है, लेकिन हम भारतीयों के लिए भी इसकी प्रासंगिकता कम नहीं है. आज अमरीका इतनी बडी वैश्विक शक्ति बन चुका है कि वहां की हर छोटी-बडी हलचल शेष विश्व को भी प्रभावित करती है. अगर वहां प्रजातंत्र का क्षरण होता है तो उसका असर हम सब पर भी पडेगा. इस बात के अतिरिक्त भी, जो बातें नोआमी अमरीका को सम्बोधित कर कह रही हैं, उन्हें हमें भी सुनना और गुनना चाहिए. कभी पण्डित नेहरु ने भी तो कहा था : एटर्नल विजिलेंस इज़ द प्राइस ऑफ लिबर्टी.
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चर्चित पुस्तक :

The End of America: Letter of Warning To A Young Patriot
By Naomi Wolf
Publisher: Chelsea Green Publishing; White River Jct., VT 05001,USA
Pages: 192
US $ 13.95

[राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में दिनांक 30 अक्टूबर 2007 को मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' के अंतर्गत प्रकाशित.]

Tuesday, October 23, 2007

महान भारतीय गणितज्ञ के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास

जनवरी 1913 की एक सुबह. अपने समय के एक बहुत बडे ब्रिटिश गणितज्ञ जी. एच. हार्डी को भारतीय डाक टिकिट लगा एक रहस्यमय लिफाफा मिलता है. लिफाफे में है नौ पन्नों का एक बिखरा-बिखरा–सा पत्र. 23 साल के एक स्व-घोषित गणितीय जीनियस ने लिखा है कि उसने एक सार्वकालिक गणितीय गुत्थी को करीब-करीब सुलझा लिया है. हार्डी के कैम्ब्रिज के अनेक साथी कहते हैं कि यह पत्र फर्जी है, इसे गम्भीरता से लेने की कोई ज़रूरत नहीं है, लेकिन न जाने क्यों हार्डी को लगता है कि पत्र लेखक, भारतीय क्लर्क श्रीनिवास रामानुजन की बातों में दम है. वे अपने साथी लिटिलवुड और पत्नी एलिस के साथ मद्रास जा रहे एक युवा प्राध्यापक नेविल की मदद लेकर इस रहस्यमय रामानुजन के बारे में और जानकारी जुटाने तथा अगर सम्भव हो, उसे कैम्ब्रिज बुलाने के लिए तत्पर हो उठते हैं. हार्डी का यह निर्णय एक ऐसा निर्णय था जिसने न केवल उनकी और उनके दोस्तों की बल्कि पूरे गणित-इतिहास की ही धारा बदल डाली.
एक जाने-माने ब्रिटिश गणितज्ञ और एक अनजान तथा औपचारिक शिक्षा से लगभग वंचित गणितीय जीनियस की विस्मयकारी लेकिन त्रासद अंत वाली सत्य कथा पर आधारित डेविड लीविट्ट का ताज़ा उपन्यास ‘द इण्डियन क्लर्क’ इतिहास के एक छोटे-से अंश को एक भावपूर्ण, मंत्रमुग्धकारी कथा में रूपांतरित करने का रोचक प्रयास है. इससे पहले डेविड लीविट्ट के ग्यारह उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें ‘द बॉडी जोनाह बॉय्ड’, ‘व्हाइल इंग्लैण्ड स्लीप्स’ और ‘ईक्वल अफेक्शन’ खासे चर्चित भी रहे हैं. ‘व्हाइल इंग्लैण्ड स्लीप्स’ एक गलत वजह से भी चर्चित रहा था. जाने-माने लेखक स्टीफेन स्पेण्डर ने इस पर नकल का आरोप लगाते हुए मुक़दमा ठोक दिया था और लीविट्ट को इसके कुछ अंश हटाने पडे थे.
ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित ‘द इण्डियन क्लर्क’ का आरम्भ 1936 की एक घटना से होता है. एक बूढे प्रोफेसर, जाने-माने गणितज्ञ जी. एच. हार्डी को हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने उनके मित्र श्रीनिवास रामानुजन के जीवन और कार्यों पर व्याख्यान देने के लिए बुलाया है. रामानुजन को एक ऐसी विलक्षण गणितीय प्रतिभा के रूप में स्वीकृति मिल चुकी है जिसका सानी कई शताब्दियों में भी नहीं है. हार्डी से दस साल छोटे रामानुजन मद्रास में गरीबी और गुमनामी की ज़िन्दगी जी रहे थे. उपनिवेशी शासन भला उनकी तरफ ध्यान क्यों देता? लेकिन हार्डी और उनके मित्रों के प्रयास से रामानुजन को यह अवसर मिला कि स्वदेश में उनकी जिस प्रतिभा को अनदेखा किया गया, उसका लोहा वे सारी दुनिया से मनवा सके. रामानुजन 1914 से 1919 के जिस काल खण्ड में इंग्लैण्ड में रहे वही इस उपन्यास का सबसे बडा हिस्सा है.
उपन्यास का नायक तमिल ब्राह्मण श्रीनिवास रामानुजन इंग्लैण्ड को बहुत रुचिकर और ऊष्मापूर्ण नहीं पाता. उसे वहां की सब्ज़ियां और मसाला रहित खाना बेस्वाद लगता है. लेकिन गणित उसके लिए आध्यात्म है, गणित के समीकरण मानो दैवीय अभिव्यक्ति हैं. हार्डी का सोच उससे भिन्न है. वे मानते हैं कि गणित और ईश्वर दो अलग-अलग सत्ताएं हैं. इन हाड-मांस के वास्तविक चरित्रों के साथ ही हैं दो और चरित्र जिनके सृजन में रचनाकार ज़्यादा छूट ले सका है. लेविस की पत्नी एलिस और हार्डी की विरूपित बहन गरट्रूड. एलिस रामानुजन से प्यार करने लगती है और गरट्रूड अपने विख्यात भाई की छाया और स्त्री होने के अभिशाप के घेरे में सिमट कर रह जाती है.
पहला विश्वयुद्ध न केवल बाह्य साम्राज्य की चूलें हिलाता है, वह इन चरित्रों के पारस्परिक रिश्तों की नीवों की नज़ाकत को भी उजागर करता है. युद्ध के कारण कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय न केवल अस्पताल में तब्दील हो जाता है, उसकी बौद्धिक स्वतंत्रता पर प्रचार-तंत्र कब्ज़ा भी कर लेता है. विख्यात दार्शनिक बरट्रैण्ड रसेल को उनके शांतिमय विचारों के कारण जेल भेज दिया जाता है और हमारे जी. एच. हार्डी समझौता परस्ती का रास्ता अख्तियार कर अपनी प्रोफेसरशिप बचा पाते हैं. कहना अनावश्यक है कि डेविड लीविट्ट ने एक ऐसा विषय चुनने का दुस्साहस किया है जो उपन्यास की विधा के लिए उपयुक्त नहीं कहा जा सकता. उपन्यास की कथा बार-बार शिथिल पडती है. ऊपर से उनका विपुल शोध, जिसकी वजह से उपन्यास कभी-कभी जीवनी का आभास देने लगता है. लेकिन बावज़ूद इन बातों के, जब लीविट्ट गणित और उसके विरोधाभासों को मानवीय रिश्तों के सामने रखते हैं तो एक मार्मिक रूपक यह उभरता है कि कैसे अत्यंत सशक्त रिश्ते तर्क और कल्पना का अतिक्रमण कर जाया करते हैं.

इस उपन्यास का जितना महत्व अब अफसाना बन चुके श्रीनिवास रामानुजन के जीवन, संघर्ष और योगदान को उभारने में है, उतना ही बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में इंग्लैण्ड के जीवन की बारीक पडताल में भी है. हम भारतीयों को तो लीविट्ट का विशेष रूप से आभार मानना चाहिए कि उन्होंने इस विलक्षण गणितीय प्रतिभा के जीवन पर इतने गहन शोध के साथ यह उपन्यास रचा है.



Discussed book:
The Indian Clerk: A Novel
By David Leavitt
Published By Bloomsbury USA
Pages 496
US $ 24.95

यह आलेख दिनांक 23 अक्टूबर 2007 को 'राजस्थान पत्रिका' के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' में प्रकाशित हुआ.

Saturday, October 20, 2007

दुनिया हमारे बगैर

तेज़ी से बढती दुनिया की आबादी और तकनीक का कल्पनातीत प्रसार. कहीं ऐसा तो नहीं कि मनुष्य प्रकृति से भी ज़्यादा शक्तिशाली बन गया है? हम बहुत तेज़ी से, हालांकि अनचाहे ही, मौसम को बदल रहे हैं, पारिस्थितिकी को बदल, प्रदूषित और यहां तक कि नष्ट कर रहे हैं, और अपने तथाकथित विकास को कुछ इस तरह धकिया रहे हैं कि इस पृथ्वी के अन्य जीवों को भी एक नए मानव-निर्मित विश्व से तालमेल बिठाने को मज़बूर होना पड रहा है.
ऐसे में, यह कल्पना कि अगर अचानक पूरी मानव-जाति लुप्त हो जाए तो क्या होगा?

यह दुष्टतापूर्ण कल्पना की है ‘ईको इन माय ब्लड’ (1999) पुस्तक के लेखक, जाने-माने और बहु पुरस्कृत पत्रकार एलन वाइज़मैन ने अपनी सद्य प्रकाशित किताब ‘द वर्ल्ड विदाउट अस’ में. वाइज़मैन ने सवाल किया है कि अगर कोई विषैला वायरस या किसी भी तरह की कोई हलचल रातों-रात हमारी इस पृथ्वी को जन-विहीन कर दे तो जो कुछ मानव ने अब तक बनाया-संजोया है वह और कब तक बचा रह सकेगा. बेशक वाइज़मैन की यह कल्पना शरारती है, एक हद तक रुग्ण भी, लेकिन है विचारोत्तेजक. और यह भी कि किताब इस सवाल पर ही खत्म नहीं हो जाती, इससे आगे भी जाती है. किताब की उपादेयता इस बात से और बढती है कि अपने इस सवाल का जवाब पाने के लिए लेखक ने सॉलिड साइंस और कल्पना का जो मिश्रण तैयार किया है वह हमें बहुत कुछ सोचने को विवश करता है.

वाइज़मैन कहते हैं कि मानव जाति के विलुप्त हो जाने के दो दिन बाद ही मैनहट्टन के सबवे’ज़ को सूखा रखने वाले पम्प काम करना बन्द कर देंगे, कुछ ही दिनों बाद टनल्स में पानी भर जाएगा, सडकों के नीचे की सारी मिट्टी बह जाएगी और सदियों तक बने रहने के लिए निर्मित गगन चुम्बी अट्टालिकाओं की नींवें ढहने लगेंगी. रोज़मर्रा काम में आने वाली चीज़ें फॉसिल बन जायेंगी और सारी धातुएं गल-पिघलकर लाल रंग की चट्टानों जैसी दीखने लगेंगी. हो सकता है कि मनुष्य के शुरुआती दौर की कुछ इमारतें ही स्थापत्य के अवशेष के बतौर बची रह जाएं. यह सारी कल्पना वाइज़मैन ने बगैर किसी आधार के नहीं कर डाली है. इसके लिए उन्होंने दुनिया भर के विशेषज्ञों से चर्चा की, पर्यावरण वैज्ञानिकों, कला संरक्षकों, प्राणी वैज्ञानिकों, तेल शोधकों, यहां तक कि धर्म गुरुओं से भी गम्भीर विमर्श किया और विश्व भर के महत्वपूर्ण स्थलों की यात्रा की. तब जाकर तैयार हुई है यह 336 पन्नों की रोमांचक, उत्तेजक, अवसादक और सम्मोहक किताब. किताब के पन्नों से गुज़रते हुए वाइज़मैन की नीयत साफ हो जाती है. हालांकि वे एक भयावह तस्वीर उकेरकर आगत से हमें डराते हैं लेकिन उनका मक़सद है हमें अपने अंधाधुंध विकास के खतरों के प्रति सजग करना.

वाइज़मैन ने अपने वृत्तांत को इस सोच के साथ बुना है कि अगर पृथ्वी पर से सारा मानवीय दबाव एकबारगी ही खत्म हो जाए तो उस की प्रतिक्रिया क्या और कैसी होगी ! हमने जबसे और जो-जो ज़्यादतियां उस पर की हैं, उनसे पहले का महौल पुनर्स्थापित होने में कितना समय लगेगा. मानव-निर्मित कंकरीट का जंगल नष्ट हो जाने के बाद असली जंगल कितने समय में उग सकेगा? और, आदम के इस धरा पर अवतरित होने से पहले के हालात और स्वर्गोपम धरा की वापसी होगी भी या नहीं. क्या प्रकृति मनुष्य के सारे पद चिह्न मिटा पायेगी?
पर्यावरण के बारे में ज़्यादातर समकालीन किताबें स्यापा करके खत्म हो जाती हैं. वे यह बताने के लिए कि हम उसे कैसे और कितना बरबाद कर रहे, प्राकृतिक विश्व का गुणगान करती हैं. निश्चय ही उनका उद्देश्य तो परिवर्तन होता है पर उस उद्देश्य में वे प्राय: कामयाब नहीं हो पातीं, बल्कि कभी-कभी तो होता यह है कि ऐसी किताबें नींद की गोली बन कर रह जाती हैं. ऐसे में वाइज़मैन की इस किताब का महत्व और भी अधिक है . यह हमारे समय की सबसे बडी समस्या पर सर्जनात्मक और दिलचस्प तरीके से विचार करती है. किताब इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसके माध्यम से वाइज़मैन ने खुद का इलाज़ करने की पृथ्वी और मानवता की अद्भुत क्षमता को उजागर किया है. जब वे चेर्नोबिल की चर्चा करते हुए बताते हैं कि 1986 के भीषण विकीरण रिसाव के बाद अब वहां जंतुओं की वापसी होने लगी है, या उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच के असैन्यीकृत क्षेत्र में लगभग विलुप्त हो चुके पहाडी बकरे और चीते 1953 से ही दिखाई देने लगे हैं, तो अन्धेरे में प्रकाश की किरण नज़र आती है. इसी तरह जब वे यह कहते हैं कि मानवीकृत विनाश के बावज़ूद हमारी कला-संस्कृति के कुछ उत्कृष्ट नमूने तो बचे ही रहेंगे तो वे बहुत बारीकी से विनाश की विभीषिका के खिलाफ एक ऐसा मूलभूत और कारगर विकल्प सुझाते हैं जो हमारे अपने विलोपन पर निर्भर नहीं है. इस तरह यह किताब हमारे अपने चतुर्दिक के बारे में सार्थक चिंता के उम्दा प्रयास के रूप में सामने आती है.

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Friday, October 19, 2007

जो चाहोगे वही मिलेगा

माइकेल जे. लोज़ियर की ताज़ा किताब लॉ ऑफ अट्रेक्शन: द साइंस ऑफ अट्रेक्टिंग मोर ऑफ व्हाट यू वाण्ट एण्ड लेस ऑफ व्हाट यू डोण्ट जीवन की एक महत्वपूर्ण गुत्थी को सुलझाने और जीवन पथ को सुगम बनने का एक दिलचस्प प्रयास है. जीवन में कई बार ऐसा होता है कि आप किसी चीज़ के बारे में शिद्दत से सोचते हैं और अनायास वह आपको मिल जाती है, आप अपने किसी प्रिय को याद करते हैं और अचानक वह आपके सामने आ जाता है. आप सोचते हैं कि यह या तो संयोग है या भाग्य. लेकिन लोज़ियर कहते हैं कि यह लॉ ऑफ अट्रेक्शन का परिणाम है.
अपनी लॉ ऑफ अट्रेक्शन की अवधारणा को समझाते हुए लोज़ियर बताते हैं कि आप अपने जीवन में उसी को अपनी तरफ खींचते और प्राप्त करते हैं जिस पर आप अपनी ऊर्जा और ध्यान केन्द्रित करते हैं. कभी ऐसा आपके चाहने से, आपके जाने में होता है, कभी अनजाने में. बकौल लोज़ियर, हमारे जीवन में सब कुछ ऐसी ऊर्जा से निर्मित है जो एक खास स्तर पर कम्पायमान होती रहती है. जब किसी के मन में कुविचार आते हैं तो नकारात्मक ऊर्जा का संचार भी होता है. अधिकांश भाषाओं में ऐसे अनेक मुहावरें और कहावतें पाई जाती हैं जिनसे इस लॉ ऑफ़ अट्रेक्शन की पुष्टि होती है, जैसे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे, बर्ड्स ऑफ द सेम फेदर फ्लॉक टुगेदर आदि.

लोज़ियर अपनी बात को और साफ करते हुए कहते हैं कि हम जिस तरह के भाव अपने मन में संचारित करते हैं, लॉ ऑफ अट्रेक्शन की वजह से वैसे ही और भाव उनके पास आते हैं. हमारी देह में भावों का यही कम्पन अनुभूतियों में तब्दील होता चलता है. उदाहरणार्थ, जब हम उत्साह, प्रेम, आत्म विश्वास या संतोष का अनुभव करते हैं तो यह कम्पन सकारात्मक होता है. इसके विपरीत, जब हम उदास, तनावग्रस्त, क्रुद्ध या लज्जित अनुभव करते हैं तब हमारा कम्पन नकारात्मक होता है. यही कारण है कि सुन्दर या प्रीतिकर को देखकर हम अच्छा अनुभव करते हैं और कुरूप या अप्रीतिकर को देखकर बुरा अनुभव करते हैं.
कहा भी जाता है कि हम अपना यथार्थ खुद रचते हैं. चाहे हम जान-बूझ्कर ऐसा करें या अनजाने में, हम सदा ही अपनी अनुभूतियों के अनुरूप ही व्यक्तियों और स्थितियों को आकृष्ट करते हैं. हम लगातार जैसा सोचते हैं, लॉ ऑफ अट्रेक्शन वैसी ही अनुभूतियों को उपजाकर तदनुरूप स्थितियां निर्मित कर देता है. और इसीलिए लॉज़ियर इस लॉ के ज़रिये हमें यह सिखाते हैं कि हम किस तरह उसे अपनी तरफ आकृष्ट कर सकते हैं जो हमें वांछित है और कैसे उसे दूर रख सकते हैं जिसे हम नहीं चाहते.

लॉज़ियर ऐसा करने के लिए एक त्रि-सूत्रीय फॉर्मूला सुझाते हैं. फॉर्मूला बहुत सरल है.
1. अपनी आकांक्षाओं को पहचानें अर्थात अपने जीवन के तमाम क्षेत्रों की विषमताओं को सीमित करें,
2. अपनी अनुभूतियों को उसके अनुरूप ढालें, अर्थात जो आप चाहते हैं उसी पर ध्यान केन्द्रित करें और जो नहीं चाहते हैं, उसकी तरफ से ध्यान हटायें, और
3. इसे विकसित होने दें, यानि ऐसा करने में जो मानसिक रुकावटें हैं , उन पर काबू पाएं.

इन तीन सूत्रों की क्रियान्विति के लिए लॉज़ियर कुछ व्यावहारिक तकनीकें भी सुझाते हैं और कहते हैं कि इनके सतत प्रयोग और अभ्यास से आप अपने सपनों को हक़ीक़त में बदल सकते हैं.

किताब रोचक तो है ही, सकारात्मक सोच का सहज विकास कर आपके जीवन को बेहतर बनाने के लिहाज़ से उपयोगी भी है. लोज़ियर कोई नई बात तो नहीं करते, लेकिन हमारी जानी हुई बात को नए, विश्वसनीय और प्रभावशाली तरीके से पेश ज़रूर करते हैं. लोज़ियर खुद कहते हैं कि वे अपने पाठक को यह नहीं सिखा रहे कि वे जीवन में कुछ कैसे हासिल करें, क्योंकि इस किताब को पढे बिना भी हम में से हरेक कुछ न कुछ तो हासिल करता ही रहता है. लोज़ियर तो बहुत सहज और सम्प्रेषणीय भाषा और शिल्प में केवल यह बताते हैं कि हम जो कर रहे हैं उसे और बेहतर तरीके से कैसे करें. कैसे प्रयत्न पूर्वक कुछ हासिल करें, कैसे जीवन में जो काम्य है उसे अपनी ओर खींचने में सक्षम बनें और कैसे प्रयत्नपूर्वक उसे दूर रखें जिसे हम पास नहीं आने देना चाहते. अंतर केवल प्रयत्न का है. जो हम अनायासम, बिना प्रयत्न के हासिल कर रहे हैं, अगर समझ कर, प्रयत्न कर उसे हासिल करना चाहेंगे तो अधिक सफलता मिलना निश्चित है. इस तरह, लॉ ऑफ अट्रेक्शन हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को बेहतर बनाने में मददगार होने का प्रयास करती है. किताब हमें अपने शब्दों और विचारों के बारे में और अधिक सजग होने के लिए प्रेरित करती है और कम से कम इस बात के महत्व पर कोई असहमति नहीं हो सकती.
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भारत और चीन में आर्थिक उदारीकरण के पक्ष में

दो बडे देश – चीन और भारत. दोनों ही एक अरब से ऊपर आबादी वाले और दोनों ही पारम्परिक. अब ये दोनों देश विश्व व्यापार जगत में पहले से जमे हुए देशों के लिए कडी चुनौती पेश कर रहे हैं. हांग कांग में रह रहीं, फॉर्ब्स पत्रिका की एशिया सम्पादक, बहु-पुरस्कृत पत्रकार रॉबिन मेरेडिथ ने अपनी 256 पन्नों की 16 जुलाई 2007 को प्रकाशित किताब ‘द एलीफेण्ट एण्ड द ड्रेगन : द राइज़ ऑफ इण्डिया एण्ड चाइना एण्ड व्हाट इट मीन्स फॉर ऑल ऑफ अस’ में इन दोनों देशों के इसी बदलाव की पश्चिमी और पूंजीवादी नज़रिये से पडताल की है.
रॉबिन मेरेडिथ कहती हैं कि अब ऐसा उत्पाद ढूंढना जो चीन में न बना हो और ऐसा तकनीकी सहयोग प्राप्त करना जिसका उद्गम भारत में न हो, क्रमश:कठिनतर होता जा रहा है. भारत में तेज़ी से पैर पसार रहे कॉल सेंटर व्यवसाय के बारे में वैसे भी बहुत कहा-लिखा जाता है. बकौल मेरेडिथ, इस बदलते परिदृश्य की परिणति कई रूपों में दिखाई देती है. वे बताती हैं कि 1978 में जहां शंघाई में मात्र 15 स्काई स्क्रेपर (गगन चुम्बी भवन) थे, अब उनकी संख्या 3800 हो गई है. इतने स्काई स्क्रेपर तो शिकागो और लॉस एंजिलस में मिलाकर भी नहीं हैं. इधर दुनिया की सबसे बडी दस सूचना प्रौद्योगिकी कम्पनियों में से तीन भारत में अवस्थित हैं. इतना ही नहीं, अकेले आई बी एम में 53 हज़ार लोग काम करते हैं जबकि 1992 तक यह कम्पनी भारत में थी ही नहीं.
लेकिन सब कुछ इतना अच्छा भी नहीं है. दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से बीस चीन में हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि चीन इस पर्यावरणीय विभीषिका से तो बच भी जाए, आर्थिक विनाश से नहीं बच सकेगा क्योंकि वहां की सत्तर प्रतिशत सार्वजनिक कम्पनियां बेकार हैं. खुद चीनी प्रधानमंत्री स्वीकार करते हैं कि वहां की अर्थव्यवस्था अस्थिर, असंतुलित और असमन्वित है. यह भी अनुमान है कि चीन की बैंक व्यवस्था चरमरा रही है. भारत के बारे में भी कई बातें चिंताजनक हैं. यहां की चालीस प्रतिशत आबादी अभी भी निरक्षर है, यहां के साठ प्रतिशत लोग अभी भी कृषि पर निर्भर हैं और बमुश्किल दो वक़्त की रोटी जुटा पाते हैं क्योंकि खेती करने के उनके तौर-तरीके बेहद पुराने हैं. अमर्त्य सेन ने भी कहा है कि भारत के बारे में जितना अच्छा कहा जाता है, उसका उलट भी उतना ही सही होता है.

मेरेडिथ ने दोनों देशों में आये बदलाव की विवेचना करते हुए बताया है कि चीन में बाज़ार केन्द्रित आर्थिक सुधारों की शुरुआत 1978 में और भारत में 1991 में हुई. इन सुधारों का परिणाम यह हुआ कि अकेले नब्बे के दशक में दोनों देशों में कुल मिलाकर बीस करोड लोग गरीबी से निज़ात पा सके. अगर दोनों देशों की आर्थिक प्रगति की रफ्तार पर एक नज़र डालें तो पाते हैं कि 1980 में जहां चीन और भारत जीडीपी और पर केपिटा इन्कम के मामले में समान धरातल पर थे, 2000 तक आते-आते चीन का जीडीपी भारत से दुगुना हो गया और निर्यात के मामले में उसकी रफ्तार भारत से आठ गुना ज़्यादा हो गई. आखिर ऐसा कैसे हुआ? मेरेडिथ के अनुसर, चीन ने भारत से तेईस साल पहले माओवादी बन्द अर्थव्यवस्था को तिलांजलि देकर मुक्त बाज़ार केन्द्रित अर्थ व्यवस्था को अपना लिया. मेरेडिथ बताती हैं कि चीन में माओ की सामूहिक कृषि नीति की वजह से 1959 से 1962 तक तीन से चार करोड लोग भुखमरी के शिकार हुए थे. सांस्कृतिक क्रांति के दौर में वहां की लगभग सारी यूनिवर्सिटियां बन्द हो गई थीं. भारत में भी, आज़ादी के बाद के समाजवादी रुझान और केन्द्रीय योजना के कारण आर्थिक विकास की दर बहुत धीमी रही. निकम्मी, संरक्षणवादी उद्यमी नीतियों ने गरीबी का उन्मूलन नहीं, उसका संरक्षण किया. मेरेडिथ ने भारत के एक पूर्व वित्त मंत्री को यह कहते हुए उद्धृत किया है कि हमने कुछ बरस पहले प्रतिस्पर्धी एजेण्डा अपना कर गरीबों के लिए जितना कर दिया उतना तो हम कई दशकों के गरीबी हटाओ एजेण्डा के माध्यम से भी नहीं कर पाये थे.

जैसा मैंने प्रारम्भ में इंगित किया, किताब पश्चिमी नज़रिये को केन्द्र में रखती है. इसीलिए मेरेडिथ इस बात की भी चर्चा करना नहीं भूलती कि इन दोनों देशों में जो हो रहा है उससे अमरीका का रोज़गार (आउट सोर्सिंग और ऑफ शोरिंग की वजह से) इन दोनों देशों में स्थानांतरित होता जा रहा है. लेकिन, यह चर्चा करने के बाद वे अपने अमरीकी पाठकों को सांत्वना देना भी नहीं भूलतीं कि उन्हें दुखी नहीं होना चाहिये क्योंकि सस्ते उत्पाद और सस्ती सेवाओं का फायदा भी तो उन्हीं को मिल रहा है. और यही अमरीकी पक्षधरता और पूंजीवाद की एक तरफा हिमायत इस किताब की सबसे बडी सीमा है. मेरेडिथ तस्वीर का एक ही रुख सामने लाती हैं. मुक्तबाज़ार व्यवस्था कैसे इन दोनों देशों के जीवन में बहुत सारी विकृतियां ला रही हैं, अगर मेरेडिथ उन पर भी कुछ कहतीं तो मुझे ज़्यादा अच्छा लगता. लेकिन वे क्यों कहतीं? तब मुक्त बाज़ार और पूंजीवाद की तस्वीर इतनी उजली कैसे प्रस्तुत हो पाती?


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लेखक का काम है सभ्यताओं को नष्ट होने से बचाना

कुछ असफ़लताओं की परिणति इतनी सुखद होती है कि उन्हें असफ़लता कहते भी संकोच होता है। 49 वर्षीय अमरीकी पर्वतारोही ग्रेग मोर्टेन्सन की असफ़लता का किस्सा कुछ ऐसा ही है। मिरगी ने ग्रेग की 23 वर्षीया बहिन क्रिस्टी को उससे जुदा कर दिया तो ग्रेग ने 1993 में एक पर्वतारोहण अभियान के द्वारा दुनिया की दूसरी सबसे ऊंची चोटी, काराकोरम श्रंखला की के-2 पर विजय प्राप्त कर उसका नेकलेस वहां स्थापित करने की ठानी। दुर्भाग्य (या इसे सौभाग्य कहा जाए!) से ग्रेग अभियान में नाकामयाब रहे। इतना ही नहीं, इस जोखिम भरे अभियान से लौटते हुए वे अपने समूह से बिछड़ कर भटकते हुए उत्तरी पाकिस्तान के ऐसे दुर्गम क्षेत्र में जा पहुंचे जहां न पानी था, न खाना और न कोई आश्रय। तब उन्हें सात सप्ताह तक शरण और मदद देकर उनकी जान बचाई उस छोटे-से गांव के भोले-भाले बाशिन्दों ने। उसी दौरान ग्रेग ने देखा कि गांव इतना दरिद्र है कि एक शिक्षक का वेतन तक नहीं जुटा सकता और वहां के 84 बच्चे रेत पर लकड़ी की डंडियों से लिखने का प्रयास करते हैं। गांव वालों के प्रति प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए ग्रेग ने वादा किया कि वे उस गांव का पहला स्कूल बनवायेंगे। और ग्रेग का यही वादा बन गया हमारे वक़्त की निहायत अविश्वसनीय मानवीय महागाथा जहां मात्र एक आदमी अपने विश्वास के बल पर ऐन तालिबान पैदा करने वाली धरती पर आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ाई में स्कूल और शिक्षा को हथियार बनाने में कामयाब होता है। ग्रेग खुद कोई अमीर नहीं थे। उन्होंने अपने घर सेन फ़्रांसिसको लौट कर अमरीका के 580 धनी मानी लोगों को खत लिखे। एन बी सी के टॉम ब्रोकॉ एकमात्र ऐसे सज्जन थे जिन्होंने जवाब में सौ डॉलर का चैक भेजा। ग्रेग ने अपना सब कुछ भी बेच डाला, लेकिन इससे भी महज़ दो सौ डॉलर ही जुट पाए। वे हताश होने ही को थे कि विस्कान्सिन के स्कूली बच्चों ने पेनी-पेनी जोड़कर 623 डॉलर उन्हें भेजे। इस बात से औरों को भी प्रेरणा मिली, अभियान ने गति पकड़ी और ग्रेग ने अगले एक दशक में सेण्ट्रल एशिया इन्स्टीट्यूट नामक अपने संगठन के माध्यम से पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान के उस निहायत दुरूह, दुर्गम, दरिद्र और खतरनाक इलाके में खास तौर पर लड़कियों के लिए 58 स्कूल बनवा डाले। इस साल ये स्कूल कुल मिलाकर 24,000 बच्चों को शिक्षित कर रहे हैं जिनमें से 14,000 लड़कियां हैं।
तो, एक असफ़ल पर्वतारोहण अभियान के सफ़ल शिक्षादान अभियान में परिणत होने की रोचक, रोमांचक और प्रेरक गाथा है ग्रेग मोर्टेन्सन की किताब ‘थ्री कप्स ऑफ़ टी : वन मेन्स मिशन टू प्रोमोट पीस……वन स्कूल एट अ टाइम’ । 6 मार्च 2006 को हार्ड कवर में प्रकाशित इस किताब का पेपर बैक संस्करण हाल ही में आया है। इस बीच इस किताब को किरियामा प्राइज़ फ़ॉर नॉन फ़िक्शन, न्यूयॉर्क टाइम्स का बेस्ट सेलर सम्मान, टाइम मैगज़ीन की ओर से एशियन बुक ऑफ़ द ईयर, मोण्टाना ऑनर बुक अवार्ड आदि मिल चुके हैं। मोर्टेन्सन के सह लेखक हैं डेविड ऑलिवर रेलिन। रेलिन विस्तार से ग्रेग के प्रयत्नों का वर्णन करते हैं, गांव के प्रेरक चेहरों को उकेरते हैं और मुज़ाहिदीन, तालिबान अफ़सरों तथा महत्वाकांक्षी लड़कियों से हमारी मुलाक़ात कराते हैं। जिन इलाकों में ये लोग काम कर रहे थे वहां अमरीकियों को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। मोर्टेन्सन को भी अगवा करने की कोशिशें हुईं, नाराज़ मुल्लाओं ने दो बार उनके खिलाफ़ फ़तवे जारी किए, 9/11 के बाद अमरीकियों ने उन्हें मुस्लिमों के बीच काम करने के लिए डराया धमकाया, लेकिन वे अपने मिशन से नहीं डिगे। नेल्सन मण्डेला ने कहा था कि दुनिया को बदलने के लिए शिक्षा से अधिक कारगर कोई हथियार नहीं है। अपने अनुभवों ने मोर्टेन्सन को भी यही सिखाया है कि आतंकवाद से लड़ाई बमों से नहीं किताबों से ही लड़ी जा सकती है। उन्होंने कहा भी है कि आप कण्डोम बांट सकते हैं, बम गिरा सकते हैं, सड़कें बना सकते हैं, बिजली ला सकते हैं, लेकिन लड़कियों को शिक्षित किए बगैर समाज को नहीं बदल सकते।
368 पन्नों की यह किताब दिलचस्प होने के साथ ही प्रेरक भी है। कुछ समीक्षकों ने इसे अपने समय की महत्वपूर्ण साहस गाथा कहा है तो कुछ ने कहा है कि यह हमारे समय को जानने-समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। ‘तालिबान : मिलिटेण्ट इस्लाम, ऑयल एण्ड फ़ण्डामेण्टलिज़्म इन सेण्ट्रल एशिया’ नामक चर्चित किताब के लेखक अहमद रशीद ने तो यहां तक कहा है कि मोर्टेन्सन जो काम कर रहे हैं –निर्धनतम बच्चों को सन्तुलित शिक्षा देने का– उसकी वजह से अतिवादी मदरसों के लिए नए रंगरूट जुटाना मुश्क़िल होता जा रहा है। मुझे इस सन्दर्भ में अल्बेयर कामू याद आते हैं जिन्होंने कहा था कि लेखक का काम है सभ्यताओं को नष्ट होने से बचाना। यह किताब इस कथन की पुष्टि करती है।

आतंकवाद का अंतरंग

न्यूयॉर्कर के स्टाफ राइटर और न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ लॉ के सेंटर ऑन लॉ एण्ड सिक्यूरिटी के फैलो लॉरेंस राइट की नई किताब ‘द लूमिंग टावर : अल क़ायदा एण्ड द रोड टू 9/11’ आतंकवाद के इतिहास पर एक सुचिंतित और विचारोत्तेजक रचना है. मध्यपूर्व मामलों में राइट की गहरी दिलचस्पी रही है और 11 सितम्बर (अमरीका में इसे 9/11 लिखा जाता है) की घटना के तुरंत बाद वे अल-क़ायदा की बीट पर भी रहे हैं. यह किताब लिखने के लिए उन्होंने पांच साल मेहनत की और मिश्र, सऊदी अरब, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सूडान, इंगलैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, स्पैन और अमरीका में 560 इण्टरव्यू किए. जिनसे उन्होंने इण्टरव्यू किए उनमें बिन लादेन के कॉलेज के ज़माने के अंतरंग मित्र, रिचार्ड ए. क्लार्क, सऊदी राजपरिवार के सदस्य, अफगानी मुज़ाहिदीन और अल जज़ीरा के सम्वाददाता भी शामिल हैं. तब जाकर तैयार हुई यह किताब जो 11 सितम्बर की घटना के ठीक पहले के घटनाचक्र का सरसरी तौर पर हवाला देते हुए व्यक्तियों और विचारों, आतंकवादी योजनाओं और पश्चिमी खुफिया तंत्र की उस असफलता पर रोशनी डालती है जिसके कारण 11 सितम्बर घटित हुआ. द लूमिंग टॉवर पुस्तक का महत्व इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि इसे वर्ष 2007 में जनरल नॉन फिक्शन श्रेणी में प्रतिष्ठित पुलित्ज़र पुरस्कार प्रदान किया गया है.

द लूमिंग टावर का वृत्तांत चार लोगों की ज़िन्दगियों के सहारे आगे बढता है. ये चार हैं अल-क़ायदा के दो नेता ओसामा बिन लादेन और अयमान अल जवाहिरि, एफ बी आई के आतंकवाद निरोधी मुखिया जॉन ओ नील और सऊदी खुफिया विभाग के पूर्व हेड प्रिंस तुर्की अल फैज़ल. जैसे-जैसे इन चारों की ज़िन्दगी की परतें खुलती चलती हैं, हम आधुनिक इस्लाम की उन परस्पर विरोधी धाराओं से परिचित होते जाते हैं जिन्होंने जवाहिरि और बिन लादेन में आमूल-चूल परिवर्तन किया; हम यह भी जान पाते हैं कि अल-क़ायदा का जन्म और ऐसा विकास कैसे हुआ कि यह संगठन केन्या और तांजानिया में अमरीकी दूतावासों पर बमबारी करवा पाया, और ओ नील ने 11 सितम्बर से पहले अल क़ायदा की पडताल के लिए कैसे दुर्धर्ष प्रयास किए और कैसे वह बेचारा वर्ल्ड ट्रेड टॉवर्स में मौत का शिकार हुआ. किताब यह भी बताती है कि कैसे प्रिंस तुर्की बिन लादेन के साथी से उसका दुश्मन बना और कैसे एफ बी आई, सी आई ए और एन एस ए अपनी-अपनी सूचनाओं का साझा करने में नाकामयाब रहे.

यह सब समझाने के लिए लूमिंग टॉवर हमें अंतरंग वृत्तान्त देता है. यहां हम आधुनिक इस्लामी मूवमेण्ट के संस्थापक सईद कुत्ब से मिलते हैं जो 1940 के अमरीका में तन्हा और हताश हैं. हम बिन लादेन और जवाहिरि के शानदार बचपन की छवियां देखते हैं और परिचित होते हैं सूडान और अफगानिस्तान में अल-क़ायदा के अड्डों के पारिवारिक जीवन से. इन सबसे ज़्यादा दिलचस्प है ओ नील का रोमांचक-उत्तेजक व्यवसायी जीवन और उससे भी ज़्यादा दिलचस्प है उसकी निजी ज़िन्दगी जो वह तीन औरतों के साथ गुज़ारता है. मज़े की बात कि ये तीनों ही औरतें एक दूसरे के अस्तित्व से अनजान रहती हैं. कम दिलचस्प तो अमरीकी गुप्तचर एजेंसियों की पारस्परिक लडाइयां भी नहीं हैं.

किताब की शुरुआत राइट के इस विचार से होती है कि आतंक और हत्याओं के ‘उम्दा’ रिकॉर्ड के बावज़ूद द्वितीय महायुद्धोत्तर इस्लामी सैन्यवाद किसी भी अरब देश में मज़हबी निज़ाम कायम नहीं कर सका. इनमें से कईयों ने 1979 के रूसी हमले का प्रतिकार करने में अफगानिस्तान की मदद की. फिर इसके बेरोज़गार योद्धा अपने घर में सक्रिय हुए. 1988 में अफगानिस्तान में गठित अल-क़ायदा ने ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व में एक अलग ही राह चुनी. यह राह थी इस्लाम की समस्याओं का ठीकरा अमरीका के सर फोडने की. राइट बताते हैं कि लादेन उतने अमीर नहीं हैं जितना उन्हें माना जाता है, लेकिन वे संगठन और जन सम्पर्क के माहिर हैं. दस साल बाद लादेन अफ्रीका में अमरीकी दूतावास उडाकर धन और रंगरूटों को अपनी तरफ आकर्षित करने की शानदार शुरुआत कर पाते हैं. अल-क़ायदा के कई अभियानों का विस्तृत ब्यौरा देते हुए राइट बताते हैं कि आतंक की योजना बनाना कितना जटिल और जोखिम भरा होता है. यहीं वे इस तरफ भी इशारा करते हैं कि 11 सितम्बर की दुर्भाग्यपूर्ण घटना नहीं घटती, अगर एफ बी आई, सी आई ए और एन एस ए ने तालमेल से काम किया होता.
पीटर बर्गेन की बहुचर्चित किताब ‘द ओसामा बिन लादेन आई नो’ (2006) को पढने के बाद यह किताब पढी जाए तो और भी अधिक महत्वपूर्ण लगेगी.
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Discussed book:
Title: The Looming Tower: Al-Qaeda and the Road to 9/11
Writer: Lawrence Wright
Page: 480
Publisher: Knopf

शीशे के दुर्ग से पीछे देखते हुए

न्यूयॉर्क शहर के पॉश इलाके से एक युवती टैक्सी से गुज़र रही है. अचानक उसकी नज़र एक औरत पर पडती है जो कचरे के डिब्बे में से कुछ बीन रही है. दोनों के बीच बमुश्किल पन्द्रह फुट का फासला है. युवती कार में नीचे झुक जाती है जिससे कि उस औरत की नज़र से बच जाए. वह घर पहुंचती है लेकिन सहज नहीं रह पाती. कारण? वह कचरा खंगालती औरत उसकी मां थी. पार्क एवेन्यू का महंगा अपार्टमेण्ट, मोतियों का बेशकीमती हार, कमरे में सजी बहुमूल्य कलाकृतियां और कचरे के ढेर में से खाने को कुछ ढूंढते और जैसे-तैसे ठण्ड से बचने का जुगाड करते मां-बाप! ये परस्पर विपरीत छवियां उसे बेचैन करती हैं.
कुछ दिनों बाद यही युवती मां को सन्देश भेजती है कि वह उसके घर आए. लेकिन मां रेस्तरां में मिलना पसन्द करती है क्योंकि उसे बाहर खाना ज़्यादा अच्छा लगता है. रेस्तरां में पहुंच कर मां आहिस्ता-आहिस्ता नमक-मिर्च-सॉस-शक्कर वगैरह की पुडियाएं अपने पर्स में खिसकाती रहती है, कुछ सूखे नूडल्स भी पर्स में डाल लेती है, ताकि “बाद में भी कुछ नाश्ता हो सके.” और यह करते हुए बेटी से पिकासो की चित्रकला पर गम्भीर चर्चा भी करती रहती है. बेटी के यह कहने पर कि वह मां की कुछ मदद करना चाहती है, मां किसी ब्यूटी पार्लर में जाने की तमन्ना का इज़हार करती है. ज़ाहिर है, बेटी को यह जंचता नहीं. वह कहती है कि वह तो मां की कोई ऐसी मदद करना चाहती है जिससे उसकी ज़िन्दगी बदल सके. मां जवाब देती है कि बदलाव की ज़रूरत उसे नहीं, बेटी को है क्योंकि उसका मूल्यबोध गडबड है. थोडी बहस होती है, और उसी दौरान बेटी मां को उस घटना की याद दिलाती है जिससे मैंने इस आलेख की शुरुआत की है. मां को ज़रा भी संकोच नहीं होता. वह पूरे आत्मविश्वास से कहती है कि इस देश के लोग बहुत अपव्यय करते हैं, वह तो उसी को दुरुस्त कर रही है. यानि मां (रोज़ मेरी) अपनी स्थिति से ज़रा भी दुखी नहीं है. यह मां एक कलाकार बनते-बनते रह गई थी. पिता रेक्स भी उससे अलग नहीं हैं. वे बहुत प्रबुद्ध हैं. दोनों जैसे एक दूसरे के लिए बने हैं : राम मिलाई जोडी. दोनों के गैर ज़िम्मेदाराना, झक्की और घुमक्कड जीवन ने चार बच्चों पर क्या क़हर बरपा किया होगा, इसका कुछ अन्दाज़ा उन्हीं चार में से एक, जीनेट वाल्स की इस संस्मरणात्मक किताब को पढकर लगाया जा सकता है.
कैसा होता है अपने त्रासद अतीत को आत्मीयता से याद करना? जीवन की जिन कटु, अप्रिय स्थितियों को आप पीछे छोड आए हैं, क्या उन्हें भी बगैर कडुआहट के पेश किया जा सकता है? जिन मां-बाप ने आपके प्रति अपने कर्तव्य निर्वहन की ज़रा भी चेष्टा नहीं की हो, उनको आखिर कितने अपनेपन से याद किया जा सकता है? इन और ऐसे अनेक सवालों के जवाब मिलते हैं फ्री- लांस लेखिका जीनेट वाल्स की संस्मरण पुस्तक ‘द ग्लास कासल’ को पढते हुए. जीनेट को उसके पिता पहाडी बकरी कहा करते थे. जीनेट ने अनायास ही अपने इस नाम को सार्थक कर दिया है. किताब में वह एक ऐसी लडकी के रूप में सामने आती है जिसने बहुत हिम्मत और कुशलता से अपने बाल्य-काल की ऊबड-खाबड और सीधी चढाई वाली ज़िन्दगी का सामना किया, जैसे पहाडी बकरियां किया करती हैं.
किताब में जीनेट बहुत मर्मस्पर्शी तरीके से अपने उस बचपन को सामने लाती है जहां उसे सेफ्टी पिन से जुडे जूते पहनने पडते थे और पैण्ट के छेदों को छिपाने के लिए अपनी त्वचा को मार्कर से रंगना पडता था. एक कामुक अंकल के यौनिक दुराचरण पर उसे यह शिक्षा दी गई कि ये सारी बातें मनगढंत हैं, और बाप ने तो हद्द ही कर दी, एक मदिरालय में उसी की दलाली कर डाली.. उसका बाप था तो बहुत बुद्धिमान, लेकिन कोई भी काम टिक कर करना उसकी फितरत में नहीं था. मां-बाप दोनों ही का खयाल था कि बच्चों को अपनी गलती से सीखने देना चाहिये, हालांकि खुद उन्होंने कभी कुछ नहीं सीखा और अंतत: सडक पर जा पहुंचे. लेकिन एक बात ज़रूर थी. वे अपने अभावों को लेकर कभी दुखी नहीं हुए. मां के पास तो हर बात के लिए सकारात्मक व्याख्या मौज़ूद थी. अगर फ्लैट की दीवारें बहुत ही पतली हैं तो क्या हुआ? पडौस की बातचीत सुन-सुनकर बच्चे बगैर ट्यूटर के थोडी बहुत स्पैनिश ही सीख लेंगे. पालतू जानवरों को खिलाने के लिए कुछ नहीं है तो क्या हुआ? वे अपने आप कुछ जुगाड करेंगे, उनमें आत्मनिर्भरता का गुण विकसित होगा. इतना ही नहीं, बेघरबार मां-बाप आत्मदया या हीनभाव से ग्रस्त नहीं हैं, इसमें उन्हें एडवेंचर नज़र आता है.
किताब की खासियत इस बात में है कि यहां लेखिका अपने मां-बाप के गैर ज़िम्मेदाराना व्यवहार की भर्त्सना करने की बजाय इस बात को अधिक उभारती है कि कैसे उन्होंने एक गैर-पारम्परिक जीवन जिया, वह भी अपनी शर्तों पर, और कैसे उस जीवन को जीते हुए वे गर्व से सर उठाये रहे. निश्चय ही जेनेट के मां-बाप का जीवन आदर्श जीवन नहीं था, लेकिन वह आम जीवन भी नहीं था. अपने कष्टों को नेपथ्य में कर जेनेट उन्हें इतनी आत्मीयता से याद करती है, यही बात इस किताब को भीड से अलग और महत्वपूर्ण बनाती है.
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